युवा कहानीकार।एक कहानी संग्रह सड़क परप्रकाशित।सामाजिक कार्यों में रुचि।

उसे नहीं मालूम उसका क्या नाम है।कोई कागज-पत्र नहीं है उसके पास।वह पढ़ी-लिखी नहीं है।कभी स्कूल नहीं गई है, देखा भर है सड़क पर से।उसका बैंक, पोस्ट-आफिस में खाता नहीं है।न कोई जमीन है, न घर।

वह बहुत दूर से आई है यहां, उजड़-उजड़ कर।कुछ दिन हुए रहते।

उसे अपनी झोपड़ी के बाहर किसी के या कुछ लोगों के आकर खड़े होने की आहट जान पड़ी।वह जमीन पर बिछी दरी पर बैठकर चावल बीन रही थी।चार्जेबुल लाइट जल रही थी।इसके बाद वह कल के ठेले के लिए इंतजाम करती।उसका पति थोड़ी दूर, सड़क उस पार बर्गर, चाट का ठेला लगाता है।वहां दो हास्टल हैं, लड़के-लड़कियों के।पति ठेला लेकर अभी लौटा था, वहीं बैठा था।उसके हाथ में मोबाइल था, कुछ देख रहा था।बेटी ठेले के सामानों को रख रही थी।बेटा बाप के पास मोबाइल पा लेने के लालच में सटे बैठा था।

‘निम्मी देखो, कोई है क्या।’

उसके पति ने कहा- निम्मी।उसकी माई बुलाती थी उसे, दादा भी, फिर तमाम लोग ‘निम्मी यह, निम्मी वह।’ उसे इतना ही मालूम है- वह निम्मी है।

आहट से वह थोड़ी चौंकी थी, चौंकती नहीं अगर झोपड़ी के बाहर आया व्यक्ति सीधे अंदर आ गया होता।अगल-बगल झोपड़ियों के लोग, बच्चे आते रहते।निम्मी और उसके बच्चे भी जाते रहते।ऐसा बहुत कम होता कि कोई बाहर आकर खड़ा होता।निम्मी कल्पना कर रही थी कि कौन हो सकता है इस समय।तब तक वह आगंतुक के पास आकर खड़ी हो गई।दुबले-पतले मरियल-से, पर नए-नए कपड़े पहने, चेहरे पर हल्की दाढ़ी रखे, बाल सामान्य, दोनों एक जैसी कद-काठी और उम्र के लग रहे थे।वे पहले थोड़ा मुस्कराए, बोले-

‘सुनिए, हम लोग आपसे एक बात कहना चाहते हैं।’

एक ने रहस्यात्मक ढंग से कहा।

निम्मी पर कोई असर नहीं हुआ।वह उन्हें प्रश्नसूचक निगाह से देख रही थी, बोली नहीं।

‘आप कितने लोग हैं?’ फिर उसी ने पूछा।

‘क्यों?’ निम्मी को अटपटा लगा।

‘कल एक रैली है।उसमें चलने के लिए कह रहे हैं।एक आदमी को ५०० रुपये देंगे हम।’

तब तक उसका पति आ गया।वह अंदर से बातें सुन रहा था।आकर खड़ा हो गया, बोला-

‘जी, करना क्या होगा?’

‘कल सुबह ८ बजे तक बाईपास चौराहे पर पहुंच जाना होगा।वहां से फिर हम ले चलेंगे रैली वाली जगह तक।आने-जाने का किराया हम देंगे।खाने-पीने का वहां पूरा इंतजाम रहेगा।’

‘लौटना कब होगा?’

‘शाम तक वापस।’

‘ठीक है, चल चलेंगे।’

उसका पति खुश लग रहा था।

‘आपने बताया नहीं, आप कितने लोग हैं?’ उसने निम्मी को देख कर पूछा।

‘चार लोग।दो हम लोग और दो बच्चे।’ निम्मी ने बताया।

‘ठीक है, दो हजार मिलेंगे।एक हजार हम अभी दे दे रहे हैं।एक हजार वापसी के समय।’’

‘जी, कोई बात नहीं साहब।’ उसके पति ने आश्वस्त किया।

‘क्या नाम लिखूं?’

‘मंकी।’ उसने बताया।

आगंतुकों ने गौर से उसके चेहरे को देखा।उसका चेहरा बंदर जैसा था।उसे लोग ‘मंकी, मंकी’ कह कर बुलाते रहे होंगे, इसलिए उसका नाम मंकी पड़ा होगा।आगंतुकों को हँसी आई पर वे रोक ले गए।एक ने हाथ में ली डायरी के पन्ने को इतमिनान से खोला, लिखा- मंकी।मंकी को ५००-५०० रुपये के दो नोट देते हुए उसने मंकी और निम्मी को बारी-बारी से देखा, बोला-

‘बढ़िया कपड़े वगैरह पहन कर चलिएगा, मतलब थोड़ा ठीक-ठाक ढंग से।’

वे चले गए।निम्मी ने उन्हें जाते हुए देखा।वे बगल की झोपड़ी के बाहर खड़े थे।निम्मी अपनी झोपड़ी में आ गई।

वह बहुत खुश थी।कल कहीं जाना है ऑटो से, बढ़िया-बढ़िया कपड़ा पहन कर, पूरे परिवार के साथ।खाना मिलेगा, पैसा भी मिलेगा।उसे बहुत अच्छा लगता है कहीं आना-जाना।जब वह बहुत छोटी थी, दिन-भर बाहर खेलती रहती, अंदर रहना अच्छा नहीं लगता था।माई बुलाती, पर जाती नहीं थी जल्दी।माई आती पकड़ कर ले जाती थी।माई कहीं जाती, उसे जरूर लिवा जाती थी।आस-पास की कुछ महिलाओं के साथ माई अक्सर कहीं न कहीं जाती, मेला भी जाती थी।वह छोटी थी, माई उसे पहली बार मेला लिवा गई थी, नदी उस पार, नाव पर बैठ कर।बहुत अच्छा लगा था नाव पर बैठ कर जाते।

मेले में बहुत सारे लोग थे, उसकी तरह तमाम बच्चे भी थे रंगबिरंगे कपड़ों में।माई ने मेले में थोड़ा घुमा कर एक दुकान पर बैठा दिया था।एकदो और बच्चे थे।भूजा, गट्टा दे दिया था कि खाते रहेंगे, रोएंगे नहीं।निम्मी ने भूजा नहीं खाया था।उसका मन नहीं कर रहा था।वह आतेजाते लोगों को देखती, उसका जी करता था कि वह भी घूमे।वह चुपचाप बैठी थी, रुलाई आती थी, माई छोड़ कर चली गई थी।माई घंटा भर बाद आई थी।निम्मी देखते ही फफक कर रो पड़ी थी।माई से झगड़ गई थी

‘क्यों छोड़ कर तू चली गई थी, बता?’

वह सुबुक-सुबुक कर रो रही थी।माई ने उसे एक-दो थप्पड़ जड़ दिए थे।वह और जोर-जोर से रोने लगी थी।माई उसे पीटते-घसीटते ले गई थी और वह रोते, झगड़ते गई थी।थोड़ी बड़ी हुई तो याद करके सोचती थी कि जब वह बड़ी होगी तो खूब घूमेगी।किसी को साथ नहीं ले जाएगी।उसका जहां मन करेगा, वहां जाएगी।

वह चावल बीन रही थी।मन उड़ रहा था।पहुंच जाना चाह रहा था, छू लेना चाह रहा था, जिसे देख रहा था।मंकी बेटे के साथ मोबाइल में फिर व्यस्त हो गया था।निम्मी के उड़ते मन को अच्छा नहीं लगा।वह मंकी को सुनाते कह रही थी-

‘छह-सात महीने हो गए, दुकान से सामान लाने के सिवा कहीं गई नहीं।कितने दिनों से सोच रही थी, कहीं चला जाए, कह नहीं पाती थी कि अभी कहेंगे, पैसे नहीं है, क्या जरूरत है कहीं जाने की, या फिर कहेंगे, थक गए हैं।न जाने कितने बहाने बना डालेंगे।’

निम्मी बोलती रही, मंकी कुछ बोला नहीं।वह मोबाइल में पूरी तरह डूबा रहा।निम्मी उसकी तरफ घूर-घूर कर देख रही थी, बोली-

‘मोबाइल मिल जाए, बस, फिर किसी से कोई मतलब नहीं।’

वह कुछ देर रुकी, फिर बोली-

‘कल तो ठेला जाएगा नहीं।कोई तैयारी भी नहीं करनी।’

‘क्यों अम्मा, कहीं जाना है क्या?’ उसकी बिटिया बोल पड़ी।उसका ध्यान आगंतुक से हुई बात पर लगा था।

‘हां एक रैली में।’

‘रैली? रैली क्या होती है अम्मा?’

‘नहीं मालूम।वहीं चल कर देखा जाएगा।’

सभी खुश हो गए।पूरी झोपड़ी खुशी से भर गई।

निम्मी के पास एक पुराना बैग था।खोल कर देखा, एक साड़ी तह करके रखी थी।कई साल से वही पहनती थी, कहीं जाती तो, अच्छी थी।बिटिया और बेटे का भी एक-एक कपड़ा था, ठीक-ठाक था।मंकी के पास कोई और कपड़ा नहीं था।जो पहन कर ठेला लगाने जाता, वही था बस।निम्मी अंदर ही अंदर मंकी को कोस रही थी- कितनी बार कहा, एक सेट कपड़ा रख लो।कहते हैं पैसा नहीं हैं, सब खर्च हो जाता है, अंटता नहीं, चीजें बहुत मंहगी हो गई हैं।अब क्या करेंगे।जो है, वही पहन कर चलेंगे।

उसने मंकी को देखा, वह मोबाइल में मस्त थे।मंकी कभी अपने लिए नहीं सोचते, जो मिल जाए, उसी से काम चला लेते हैं, न मिले तो भी कोई चिंता नहीं करते, जैसे-तैसे रह लेते हैं।लॉकडाउन पहली बार जब लगा था तब वह यहीं रहती थी, अचानक लगा था।खाने-पीने के सामान बहुत कम थे उसके पास, रोज कम होते जा रहे थे।लॉकडाउन पता नहीं कब तक चलेगा।पैसे भी नहीं होते कि सामान खरीद लिया जाए।काम ही बंद था।बहुत दिक्कत होती थी।खाना एक जून बनता था दोपहर में।एक बार खा कर सभी रहते।रात में खाना नहीं बनता था।बचा रहता कुछ, तो बच्चे खा लेते थे।मंकी एक दिन खाते, एक दिन नहीं खाते।जिस दिन नहीं खाते, उस दिन अपना खाना बनवाते ही नहीं थे।उन्हें डर होता कि कहीं अनाज खत्म न हो जाए।फिर क्या होगा।कहां मिलेगा।वह दिन भर झोपड़ी में बैठे रहते।निम्मी तो झोपड़ी से निकल कर देख भी लेती।चारों तरफ सुनसान, सन्नाटा।सन्नाटे में एंबुलेंस से निकलतीं सायरन की आवाजें, बहुत डरावनी लगती थीं।निम्मी मंकी को टोक देती-

‘बैठे रहते हैं।आज भी कुछ नहीं खाया।’

‘अरे, कैसे खा लूं, जब भूख नहीं।’

‘तब भी कुछ खा लीजिए।नहीं खाएंगे, कमजोर हो जाएंगे।बीमार पड़ जाएंगे।’

‘बीमार क्या पड़ जाऊंगा।देखो, एकदम फिट हूँ।’

‘आपसे कुछ कहना बेकार है।’

वह झुंझला कर चुप हो जाती थी।

यहां आने से पहले वह दूसरी जगह एक बाईपास के पास, सड़क के किनारे रहती थी।वहां भी कुछ झुग्गी-झोपड़ी वाले रहते थे।वे भी ज्यादातर ठेला लगाते थे।निम्मी के बच्चे तब छोटे थे।बिटिया ६-७ साल की थी और बेटा ३-४ साल का रहा होगा।निम्मी का पैर टूट गया था, फ्रेक्चर हो गया था।वह कहीं से आ रही थी, गिर पड़ी थी।प्लास्टर लगा था।मंकी सुबह-शाम उसकी सेवा-देखभाल करते थे।खाना बनाते, ठेले के लिए तैयारी करते, सभी को खिलाते और खुद बिना खाए, ठेला लेकर चले जाते थे।रात में आते।रात में खाना नहीं बनता, दिन का खाना रहता, सभी वही खाते, मंकी भी खाते थे।दिन-भर वह कुछ नहीं खाते थे।निम्मी एक जगह पड़ी देखती थी।उसकी आंखों में आंसू आ जाते थे।वह मंकी को अपने अंदर देखने लगती थी।तब उसे याद आता था, जब उसने मंकी को पहली बार देखा था।देखते ही उसे हँसी आ गई थी।

‘हँसी आ गई न मुझे देख कर।’ मंकी ने कहा था और खुद भी हँस रहे थे।

‘नहीं, नहीं।’ वह फिर हँस पड़ी थी।

निम्मी जब अपनी माई के साथ रहती थी, माई शहर से सटे एक कस्बे के किनारे एक बड़े से नाले के पास झुग्गी डाल कर रहती थी।आस-पास कई और झोपड़ियां थीं।बगल में एक लड़का था।वह ठेला रिक्शा लेकर कबाड़ खरीदता, बेचता था।माई ने उसी से उसकी शादी कर दी थी।कुछ दिन तक ठीक-ठाक रहा फिर वह बात-बात पर मारने लगा।लोहे के रॉड से कई बार मारा था।निम्मी को याद आता था कि उसकी माई को उसके दादा भी इसी तरह मारते थे, भद्दी-भद्दी गालियां देते थे।माई कुछ बोलती नहीं थी।चुपचाप सह लेती थी।दादा लेबर थे।कस्बे में जाकर लेबरी करते थे।गांव में एक छोटा-सा घर था, वहीं रहते थे।माई भी गांव में कभी-कभार मजूरी करती थी।निम्मी छोटी थी।दादा मारते थे, वह देखती, उसे बहुत खराब लगता था।वह सोचती थी कि अगर वह बड़ी होती तो दादा को उसी डंडे से पीटती जरूर।

दादा को किसी ने किसी केस में फंसा दिया था।उनकी जेल हो गई थी।माई इधरउधर बहुत दौड़ी थी, पर माई के पास पैसे नहीं होते थे कि वह मुकदमा झेल सके।दादा की जमानत नहीं हो पाई थी।वह जेल में बीमार पड़े, या क्या हुआ, वहीं मर गए थे।उसके बाद माई ने गांव छोड़ दिया था।एक भाई था निम्मी का, वह थोड़ा बड़ा हुआ, तभी वह कहीं चला गया कमाने, तब से उसका पता नहीं।निम्मी माई के साथ रह गई थी।

निम्मी का पति उसे मारता था, पहले एक-दो बार वह कुछ नहीं बोली थी, फिर वह भी भिड़ जाती थी।अक्सर मारपीट हो जाती, निम्मी भी मार देती थी।एक बार खूब मारपीट हुई।निम्मी वहां से माई के पास आ गई।फिर नहीं गई कभी उसके पास।उसी साल नदी में बाढ़ आई थी अचानक।झुग्गी-झोपड़ी डूब गई थी।सब कुछ बह गया था।माई उसी बाढ़ में बह गई थी।निम्मी बहुत रोई थी।कोई सहारा देने वाला नहीं था।निम्मी ने वह जगह छोड़ दी थी।वहां से शहर के किनारे झुग्गी डालकर रहने लगी।दिन भर इधर-उधर कूड़ों के ढेरों पर बेकार प्लास्टिक के टुकड़े बीनती, इकट्ठा करती।कई दिन होने पर बेच देती।उसी झुग्गी के पास उसने मंकी को ठेला ले जाते हुए देखा था।वह ठेला पर बर्गर, चाट लेकर जा रहे थे।

‘क्या चाहिए, बर्गर?’ मंकी ने पूछा था।

‘हां।’ निम्मी ने कहा था।

निम्मी रोज बर्गर खरीदती।रात में खाना नहीं बनाती, वही खा कर सो जाती थी।

दो-तीन दिन वह झोपड़ी में पड़ी थी, निकली नहीं थी, बीमार थी।मंकी ठेला लेकर आते कुछ देर रुकते, ‘बर्गर-बर्गर’ कहते फिर चले जाते थे।मंकी को पता नहीं था कि निम्मी बीमार थी।एक दिन वह ‘बर्गर-बर्गर’ कहते अंदर आ गए थे।निम्मी को देखा, उसे लिवा ले आए थे।तब से वह उसके साथ रह रही है- पति-पत्नी की तरह।दो बच्चे भी हो गए।मंकी ने कभी उसे कुछ नहीं कहा, न कभी मारपीट, न गाली-गलौज।

निम्मी रैली में जाने के लिए एक घंटा पहले तैयार हो गई, बच्चे, मंकी भी।वह सोचती है कि कहीं जाया जाए या कोई काम किया जाए तो समय से हो जाना चाहिए।माई उसकी अक्सर देर कर देती थी।माई कहीं जाती तो पड़ोसिनें उसके यहां आकर इंतजार करती थीं।

सभी बहुत खुश थे, रैली में जाना है।एक-दूसरे को निहार रहे थे, कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई।बाहर निकले, देखा बगल की झोपड़ियों के लोग भी तैयार हो कर जा रहे थे।

वे चौराहे तक आटो से गए।वहां सड़क के किनारे दो-तीन ट्रैक्टर-ट्राली खड़ी थी।उन्हें एक में बैठा कर भेजा गया।लगभग पौन घंटा बाद वे कहीं पंहुचे, वहीं उतार दिया गया।वहां से पैदल जाना था।सड़क के दोनों किनारे बहुत सारे छोटे-बड़े होर्डिंग्स लगे थे, बिजली के खंभों पर भी।छोटे-बड़े कटआउट भी लगे थे।उन सभी में कुछ लोगों की तस्वीरे थीं और उन पर कुछ लिखे भी थे।निम्मी को नहीं मालूम क्या लिखा था, फोटो भी नहीं पहचानती थी किसी का।बड़ी-बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं दोनों तरफ।ऐसी गाड़ियों पर निम्मी की नजर नहीं गई थी कभी।गाड़ियों से उतरते कुछ लोग सफेद पोशाकों में होते।बिजली के खंभों पर लाउडस्पीकर लगे थे, उनमें से कुछ आवाजें आ रही थीं।

वे एक बड़े से मैदान के पास पहुंच कर रुक गए।मैदान की आधी जगह में बड़ा-सा पंडाल लगा था।पंडाल में तमाम कुर्सियां लगी थीं।आते हुए लोगों को एक तरफ बैठाया जा रहा था।निम्मी अपने बच्चों के हाथ पकड़े मंकी के पीछे चल रही थी सटे।पंडाल में पहुंच कर थोड़ी ठिठकी।इसी तरह वह ठिठकी थी, जब वह अपनी बिटिया की उम्र की रही होगी ११-१२ साल की।उसकी माई उसे गांव की एक शादी में लिवा गई थी।शादी कस्बे के कालेज के मैदान में हुई थी।पंडाल बना था।पंडाल में अच्छी-अच्छी कुर्सियां लगी थीं, कई तरह की।माई उसे वहीं कुर्सी पर बैठने के लिए कह कर खुद काम करने चली गई थी।माई कभी-कभी उनके यहां काम करने जाती थी।निम्मी ठिठक गई थी, खड़ी रही, कुर्सी पर बैठी नहीं थी, कि कोई आकर उठा न दे, डांटने लगे।

यहां भी वह पंडाल में ठिठकी, बच्चों को लेकर खड़ी थी, देखने लगी कि कहां बैठे।एक जगह दिखाई दी।वहां कुछ महिलाएं, बच्चे बैठे थे।उसने देखा, एक जगह बगल की झोपड़ियों की दो-तीन महिलाएं बैठी थीं, उनके बच्चे भी थे।वह अपने बच्चों को लेकर उधर गई, बोली-

‘देखो, संभल कर बैठना, गिर मत पड़ना।’

उसने कुर्सी पकड़ी, तब बच्चे बैठे, तपाक से।बगल में मंकी बैठ गया।सामने बड़ा-सा मंच था, तमाम तरह के फूलों से सजा था।मंच पर कुछ कुर्सियां रखी थीं।पीछे बैनर था, जिसमें कुछ लोगों की तस्वीरें थीं और कुछ लिखा भी था।मंच पर कोई बोल रहा था, रह-रह कर नारे लगा रहा था।स्पीकर पर तेज आवाजें पंडाल में गूंज रही थीं।निम्मी बच्चों को लेकर बैठी थी।बच्चे इधर-उधर देख रहे थे।समझ नहीं पा रहे थे कि क्या हो रहा था।बिटिया बोली-

‘अम्मा-अम्मा रैली कहां है?’

निम्मी भी नहीं समझ पा रही थी, बोली-

‘आगे देखो, अभी वहीं कुछ होगा।’

बच्चों को मंच साफ दिखाई नहीं दे रहा था।एक तो दूर था, दूसरे आगे बैठे लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे।बच्चे कुर्सी से उतर कर खड़े हो जाना चाह रहे थे।

दोनों तरफ कई जगह टीवी सेट लगे थे।उनके स्क्रीन पर मंच की गतिविधियां दिखाई दे रही थीं।निम्मी का बेटा जोर से बोला-

‘अम्मा वो देखो टीवी है।’

कुछ लोग उसे देखने लगे।

गर्मी का सीजन था।आगे जगहजगह पंखे लगे थे।पीछे नहीं था, गर्मी लग रही थी।बच्चों को प्यास लग गई।पानी मांगने लगे।निम्मी ने इधरउधर मुड़ कर देखा, कहीं पानी नहीं दिखाई दिया।वह जब आ रही थी तो मैदान के बाहर सड़क पर पानी का टैंकर था।कुछ लोग टैंकर से पानी पी रहे थे, बोतलों में भर भी रहे थे।निम्मी के पास बोतल नहीं था।उसे पता भी नहीं था।अब क्या करे वह।थोड़ी देर में बच्चे खुद चुप हो गए।निम्मी का ध्यान खाने पर भी था, पर खाने का इंतजाम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।निम्मी सोच कर आश्वस्त हो जा रही थी कि जो लिवा लाए हैं, वे कोई इंतजाम करेंगे ही।

तब तक खूब भीड़ हो गई।मंच पर जोर-जोर से भाषण होने लगा।निम्मी सुन रही थी।वह कुछ तो समझ रही थी, पर अजीब सा लग रहा था।बहुत देर तक भाषण चलता रहा।वह अब जाना चाह रही थी।बिना कुछ खाए आई थी।बच्चों को भूख लग गई होगी।वह जानती है कि भूख लगती है, तो क्या होता है।बहुत झेला है उसने।सबसे ज्यादा तब, जब उसने पति को छोड़ दिया था।उसने वह कस्बा ही छोड़ दिया था।दूसरी जगह चली गई थी।बस से गई थी, एक जगह उतर गई थी।किराया देने के बाद उसके पास पैसा नहीं था।शहर जहां शुरू होता है, वहां बाईपास की तरफ बड़ी-बड़ी कुछ बिल्डिंगें बनी हैं।वहीं सड़क के किनारे एक तरफ दो-तीन झोपड़ियां भी थीं।वहीं वह रुक गई थी।उसने कुछ खाया नहीं था, भूख लगी थी।एक झोपड़ी के बाहर एक औरत निकली थी।निम्मी ने कुछ खाने को मांगा तो उसने पागल समझ कर भगा दिया था।एक दूसरी जगह एक बुढ़िया थी, उससे मांगा, पर उसके पास कुछ था ही नहीं, बोली थी-

‘तू कोई काम क्यों नहीं करती।मांग कर क्यों खाती है?’

निम्मी को रुलाई आ गई थी, ब-मुश्किल बता पाई थी-

‘मांग कर नहीं खाती।काम मिल जाए तो करके ही खाऊंगी।’

निम्मी अपने खाली पेट को दबा गई थी।बुढ़िया ने कहा था-

‘तू भी जा कर प्लास्टिक बीन, फिर बेच देना।यहीं आएगा खरीदने वाला।तुझे कोई दिक्कत नहीं होगी, जी-खा लेगी।’

बुढ़िया का पति इधर-उधर से कूड़ों के ढेरों से बेकार प्लास्टिक बीनता, बेचता था।निम्मी को उसकी बात ठीक लगी या नहीं, पर उसे जरूरत थी।वह भी वही करने लगी थी।वह दिन भर दूर-दूर तक प्लास्टिक बीनती थी।

बुढ़िया की झोपड़ी से सटे रह लेती थी।तीन दिन हो गए थे, उसने कुछ खाया नहीं था।शरीर बेदम-सा हो गया था- सबसे ज्यादा हाथ, उठ ही नहीं रहे थे।पानी तक नहीं पी पा रही थी।प्लास्टिक बेचने पर जब कुछ पैसे हुए, तो ब्रेड खरीद कर लाई, खाने लगी, तो खा नहीं पा रही थी, लगता था कि अभी उल्टी हो जाएगी।दो-तीन दिन बाद वह ठीक हुई थी।

निम्मी भाषण सुनते-सुनते ऊब गई।उसका मन नहीं लग रहा था, अशांत, बेचैन था।वह बार-बार बच्चों को पकड़ लेती थी।बच्चे कब तक भूखे बैठे रहेंगे।वह जल्द से जल्द निकल जाना चाह रही थी।लिवा लाने वाले कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, पैसे नहीं दिए थे अभी तक।खाना भी नहीं दिखाई दे रहा था कहीं।वह इधर-उधर देखती रही।अचानक मंच पर भाषण खत्म हुआ।जोर-जोर से नारे लगने लगे।लोग उठ-उठ कर जा रहे थे।निम्मी ने बच्चों को और बच्चे अपने बाबू जी को कस कर पकड़े थे।वे पंडाल से निकल कर मैदान में आ गए।निम्मी बच्चों को कुछ खिला देना चाह रही थी।वह नहीं चाहती कि बच्चे भूखे रहें, भूख सहें उसकी तरह।

उसे अक्सर याद आ जाती।वह बूढ़ी औरत की झोपड़ी से सटे रहती थी।कूड़ों के ढेरों पर प्लास्टिक बीनती, दिन भर कुछ खाती नहीं।शाम को कभी-कभी ही कुछ बनाती।एक जून खाना खाकर रहती, आदत पड़ गई थी।एक साल से कम समय ही वहां रही।सरकारी कर्मचारी आए, सारी झोपड़ियां उजाड़ दीं, भगा दिया वहां से।वे बूढ़ा-बूढ़ी भी पता नहीं कहां चले गए।

वहां से वह बाईपास पर एक फ्लाईओवर के बगल में शहर को जाने वाली सड़क के किनारे झोपड़ी डाल कर रहने लगी।वहां शहर के लोग अक्सर घूमने आते हैं।वहां बड़ा-सा ताल है।उसके एक तरफ लोग घूमते हैं।फोटो लेते हैं, टिकिया, छोला खाते हैं।मंकी से यहीं मुलाकात हुई थी।

निम्मी के बच्चे हुए थे, वह बहुत खुश हुई थी।बच्चे बड़े होते गए, वह खुश होती गई।उसे अपने बच्चों से बेहद लगाव है।वह चाहती है कि उसके बच्चे पढ़ें।पढ़े रहेंगे तो कुछ जानेंगे, समझेंगे।मंकी भी नहीं पढ़े-लिखे हैं- कक्षा ५ तक बस।पर किताबें ले आए थे।निम्मी चाहती कि मंकी जब आएं तो बच्चों को लेकर बैठें, कुछ पढ़ाएं।पर मंकी आते ही मोबाइल में व्यस्त हो जाते।निम्मी अक्सर टोकती-

‘आप आते हैं और मोबाइल में व्यस्त हो जाते हैं।कभी बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं कहते।’

मंकी भी कह देता-

‘पढ़ते तो हैं।अभी छोटे हैं।बड़े होंगे, तो और पढ़ेंगे।’

निम्मी को खराब लगता, वह कह देती-

‘अभी से पढ़ेंगे, तभी न बड़े होने पर पढ़ेंगे।’

कभी वह कुछ नहीं भी कहती, घूरने लगती, मंकी समझ जाता, वह कुछ नहीं बोलता।

निम्मी बच्चों के हाथ पकड़े मैदान से बाहर आ गई, सड़क पर।अभी दिन नहीं डूबा था, उजाला था, पर रोड लाइट जल गई थी।निम्मी ने यहां भी सभी तरफ ध्यान से देखा, वे दोनों नहीं दिखाई दिए।धोखा दे दिया।न पैसा दिया, न खाना।उसे अब पूरा विश्वास हो गया, वे अब नहीं मिलेंगे।यहां से अपना पैसा खर्च करके जाना होगा।बच्चे भूखे रह गए, पानी भी नहीं मिला, टैंकर भी नहीं था अब यहां।

निम्मी बार-बार मंकी को घूर रही थी।मंकी सहमा हुआ था, निम्मी कहने न लगे- कहां लाकर फंसा दिया, जितना पैसा दिया था, आधा से ज्यादा खर्च हो गया।बिना सोचे समझे कोई काम करते हैं, कोई कुछ कह दे, तुरंत मान जाते हैं।पैसा पूरा ले लेना चाहिए था।वह निम्मी की तरफ चुपके से देखता, फिर दूसरी तरफ देखने लगता।बच्चों को पुचकारता कि शायद निम्मी खुश हो जाए पर वह कुछ बोलती नहीं।बहुत तनाव में थी।

एक चौराहे पर पहुंच कर मंकी ने देखा, एक जगह टिकिया, चाट के ठेले थे।उसने सभी को चाट खिलाई।निम्मी अब भी खुश नहीं दिख रही थी।चौराहे से उन्हें आटो मिला।मंकी सोच रहा था कि निम्मी पहुंच कर उसे कोसेगी।

 वे पहुंचे।और झोपड़ियों के लोग अभी नहीं पहुंचे थे।अंधेरा हो चुका था।सड़कों पर लाइट जल रही थी।गाड़ियां फर्राटे से आ-जा रही थीं।कोई अगल-बगल नहीं देख रहा था।कहीं कोई दिखाई भी नहीं दे रहा था।सड़क के किनारे की जगह खाली दिखाई दे रही थी, वीरान, जैसे अभी थोड़ी देर पहले वहां कुछ रहा ही न हो।झोपड़ियां हटा दी गई थीं।झोपड़ियों के सारे सामान गायब थे।सिलेंडर, बिस्तर, बरतन, खाने-पीने की चीजें, चार्जेबुल लाइट, बच्चों की किताबें, कुछ भी कहीं दिखाई नही दे रहा था।

सभी हक्का-बक्का हो गए।क्या करें?

निम्मी बहुत गुस्से में थी, जोर जोर से कोस रही थी।मंकी एक टक उसे देख रहा था, निम्मी उसे नहीं कोस रही थी।