वरिष्ठ कथाकार। कहानी संग्रहों के अलावा जीवनी तथा साक्षात्कार भी प्रकाशित। शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या स्नातकोत्तर (स्वशासी) महाविद्यालय, भोपाल में प्राध्यापक।

धूप… गरमी और भीड़। बीमार लोगों की भीड़! भीड़ की चीख-चिल्लाहट। कूलना-कराहना। कितना भी मना करो पर सब एक दूसरे को धक्का देते हुए आगे आने की फिराक में पूरी ताकत लगा देते हैं। हर कोई अपनी परची आगे बढ़ाकर स्वयं को दिखाना चाहता है। कोई अपनी तकलीफ की वजह से तो कोई दूर से आने के कारण तो कोई अपना रुतबा पेलने के लिए तो कोई किसी नेता या डॉक्टर का नाम लेकर आगे आ जाता है… बाकी लोग लाइन तोड़ने का गुस्सा पीछे वाले पर निकालते। किसी को दवाइयां न मिलने की शिकायत होती है तो कोई दूसरी व्यवस्थाओं को लेकर हैरान-परेशान दिखाई देता है। प्यार से समझाते-समझाते कई बार डॉक्टर अपना धैर्य खो बैठते हैं। गुस्सा भी आता है उन्हें। चिल्लाते-चिल्लाते रह जाते हैं कि जाने दो। अंतत: प्यार से ही पेश आना पड़ता है अन्यथा किस मर्ज के और कैसे डॉक्टर! उन लोगों की दिनचर्या ही लगभग ऐसी होती है ओ.पी.डी. में मरीजों को देखना, पोस्टमार्टम करना, एक्सीडेंट के झमेलों को निपटाना, नए-नए आदेश को सुनना, अधिकारियों के दबाव, मीटिंग के लिए तैयारी और भागदौड़। तिस पर मोबाइल का कैमरा ऑन किए छुटभइए नेता। रिकार्डिंग करते स्थानीय पत्रकार… शिकायत करते या ‘देख लेंगे’ यहां रहोगे तब न… जैसे वाक्यों में धमकी देते मरीजों के रिश्तेदार। यह बीमार और बीमारी का इलाज करने वालों की अजीब-अद्भुत दुनिया है। इस दुनिया में हँसना-रोना, जीना-मरना, आशा-निराशा का खेल अनवरत चलता रहता है। इधर कोई मरता है तो उधर कोई शिशु जन्म लेकर जीवन की मुस्कान बिखेर देता है। जीवन की महत्ता और मृत्यु भी भयावहता का एहसास करवाती है यह अस्पताल नाम की जगह!

हर रोज की तरह डॉक्टर ओ.पी.डी. में बैठे हुए थे कि तभी एक महिला रोती-बिलखती भीड़ को धकियाती डॉक्टर के सामने आकर खड़ी हो गई। वह हांफ रही थी। छाती पीट रही थी…। उसकी हालत कसाई के चंगुल से छूटकर भागी हुई गाय की तरह थी…।

‘क्या हुआ बाई? रो क्यों रही हो?’

‘साब! मेरी बच्ची को देख लो।’

‘क्या हुआ बच्ची को?’ डॉक्टर ने निगाह उठाकर देखा। एक आदमी बच्ची को एक चादर में लपेटे हुए खड़ा था। उसके चेहरे पर गुस्सा, बेबसी और वेदना के भाव थे और वह अपने आंसुओं को छुपाने की कोशिश कर रहा था।

‘बताओ बाई क्या हुआ बच्ची को?’

‘उसके साथ एक लड़के ने गलत काम किया है।’

‘गलत काम… यानी रेपऽऽ…।’ डॉक्टर के मुँह से बेसाख्ता निकला।

डॉक्टर को समझते देर न लगी। मन-मस्तिष्क में बिजली की रेखा दौड़ गई!

‘हाँ साब, लड़की की हालत देखो…’

‘बाई, इसकी जांच तो यहां होगी नहीं। कोई लेडी डॉक्टर नहीं है। इसे तत्काल जिला अस्पताल ले जाओ।’

‘साब, मेरी लड़की बच तो जाएगी? उसने मेरी लड़की का जीवन बर्बाद कर दिया है। आप मेरी बच्ची की मदद करो। उसको फांसी की सजा मिलनी चाहिए…।’ वह लगातार रोए जा रही थी।

अब तक रेफर का परचा बन चुका था। एंबुलेंस भी आ चुकी थी।

‘वह पकड़ा जाएगा। उसे सजा भी मिलेगी।’ डॉक्टर ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।

महिला को गहरा सदमा लगा था। वह एक ही वाक्य दोहरा रही थी- फांसी… सजा…।

‘अभी तुम लड़की को लेकर तुरंत जाओ।’ डॉक्टर ने उसे आदेश देते हुए कहा। वह रोती और बड़बड़ाती जा रही थी। चारों तरफ खामोशी छा गई थी। लग रहा था सबको लकवा मार गया हो। उस महिला का यूं विलाप करना… बेहोश लड़की का सामने आ जाना, सबके लिए दुखद और स्तब्ध कर देने वाली अप्रत्याशित घटना थी। अब न कोई धक्का-मुक्की कर रहा था, न चीख-चिल्ला रहा था। सब खड़े थे पत्थर की तरह। कुछ महिलाओं की आंखों मेंं आंसू थे तो कुछ बूढ़े आदमी शर्म और दुख के कारण चेहरा झुकाए हुए थे। डॉक्टर एक-एक करके मरीजों को देखते जा रहे थे। जब सारे मरीज चले गए तब जैसे उन्हें होश आया। उस वीरान परिसर में उस औरत का रोता-बिलखता चेहरा उनकी आंखों के सामने आ-जा रहा था।

जिला अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था।

एंबुलेंस लौटकर आ गई थी।

बच्ची को मेडिकल चेकअप के बाद एडमिट कर लिया गया था। उसकी हालत नाजुक थी। डॉ. मीना वहाँ पर हैं। उन्होंने ही इस केस को हैंडिल किया था। डॉक्टर ने तत्काल उनको फोन लगाया- ‘कैसी हालत है बच्ची की?’

‘बहुत सीरियस! इंटरनल ऑर्गन पूरी तरह से रैप्चर हो चुके हैं। ब्लीडिंग भी काफी हो गई है। समय लगेगा ठीक होने में।’

‘बच तो जाएगी?’

‘हां… बच जाएगी। रेपिस्ट पकड़ा गया?’

‘नहीं… अभी तक तो नहीं पकड़ा गया।’

‘पुलिस क्या कर रही है?’

‘पुलिस का काम तो आप जानती हैं। पर मैं तो सोच कर शॉक्ड हूँ कि लोगों को क्या हो गया है? लोग बता रहे थे कि कोई आदिवासी लड़का था।’

‘आदिवासी…! विश्वास नहीं हो रहा है! कभी आपने सुना है कि किसी आदिवासी ने किसी लड़की या महिला को छेड़ा हो या रेप किया हो या चोरी-चकारी में पकड़ा गया हो। हां, आदिवासी लड़कियों के साथ जरूर इस तरह की घटनाएं होती रहती थीं…।’

‘मैं भी विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ।’

‘हमारा समाज कहां जा रहा है? क्या लोगों के मन में जरा भी डर नहीं बचा है? जिन बच्चियों को हम कन्या कहा करते हैं, जिन्हें पूजा जाता है, आज वही बच्चियां लोगों की हवस का शिकार बन रही हैं। मुझे तो कभी याद नहीं आता कि बचपन में मुझे या मेरे आसपास रहने वाली लड़कियों को किसी ने छेड़ा हो या किसी के साथ इस तरह की घिनौनी घटना घटित हुई हो। हम सब लड़के-लड़कियाँ साथ में खेलते थे। अकेले में घूमते थे। मैं ये दावा तो नहीं कर सकती कि तब लोगों के मन में कामवासना, हवस या दमित इच्छाएं नहीं होती होंगी! होती होंगी! लेकिन लोगों के मन में यह गंदा भाव तब आता ही नहीं होगा कि बच्चियों को टॉरगेट बनाना है… उफ, इतना खराब लग रहा है बच्ची को देखकर!’

डॉ. मीना स्वभाव से भावुक हैं और छोटी बच्चियों को लेकर वे हमेशा संवेदनशील रहती हैं। भू्रण हत्या के खिलाफ उन्होंने मुहिम चलाई हुई है।

दोपहर दो-ढाई बजे डॉक्टर तथा उनका स्टॉफ लंच लेता है। पर आज किसी का भी मन खाना खाने के लिए तैयार न था। अजीब-सी उदासी, खिन्नता… और बेबसी… गुस्सा मन पर छाया हुआ था। इतनी बड़ी घटना घटित हो गई और कहीं कोई हरकत नहीं। आक्रोश नहीं। पूरी भीड़ कैसी मूर्खों की तरह बेज्ाुबान खड़ी थी! क्या इसलिए कि वह लड़की मामूली गरीब परिवार की है। पुलिस भी आदमी की हैसियत और मौका देखकर हरकत में आती है। जब तक दबाव नहीं पड़ेगा तब तक उन्हें क्या पड़ी है कि किसी गरीब को न्याय दिलवाया जाए। डॉक्टर का मन बैचेन था। उन्हें लग रहा था कि बीतते समय के साथ कहीं यह घटना दबा न दी जाए या उसके माता-पिता ही पीछे न हट जाएं। डॉक्टर के पास एक स्थानीय पत्रकार हमेशा आता रहता था। यहाँ की खबरों को वही कवर करता था। क्या उससे बात की जाए?

डॉक्टर ने पत्रकार कृष्णा को फोन लगाया। पत्रकार कृष्णा पहले डॉक्टर के खिलाफ रिपोर्ट छापता रहता था। जहाँ खाली कुर्सी देखी, वहीं फोटो निकालकर पेपर में दे दिया करता था। कभी ताला डला देखकर फर्जी नामों से फोन करवाकर धमकी दिया करता था कि आपकी शिकायत सी.एम.ओ. से कर रहे हैं, या कलेक्टर साहब को पत्र लिख रहे हैं…  फिर डॉक्टर का व्यवहार, मरीजों के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठा देखकर धीरे-धीरे वह डॉक्टर के पक्ष में हो गया था और उनका सम्मान भी करता था।

‘कृष्णा, क्या कर रहे हो? फ्री हो तो आओ।’

‘जी सर, एकाध घंटे में आता हूँ।’

‘आ ही जाना।’

‘कोई खास बात?’

‘हां… तभी तो फोन किया है।’

‘तब जल्दी ही आता हूँ।’

खबरों के लिए लालायित रहने वाले कृष्णा का उत्साह साफ दिखाई दे रहा था।

‘क्या बात है सर? आप कुछ परेशान लग रहे हैं?’

‘हाँ, मन बड़ा अशांत है। एक छोटी-सी बच्ची के साथ रेप हुआ है।’

‘क्या बात कर रहे हैं सर?’ कृष्णा चौंककर बोला।

‘मात्र छह साल की बच्ची है, लेकिन रेपिस्ट अभी तक पकड़ा नहीं गया है। बच्ची को जिला अस्पताल में एडमिट करवाया है।’

‘एफ.आर.आई. हो गई है?’

‘हां।’

‘कब की घटना है?’

‘आज सुबह की…। उसकी हालत गंभीर है।’

‘मैं पता करता हूँ। यहां की यह पहली घटना है। इससे पहले मैंने कभी नहीं सुना था कि किसी बच्ची के साथ रेप हुआ हो। मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए हैं।’

कृष्णा बिना चाय पिए चला गया। उसे खबर कंफर्म करनी थी। डॉ. मीना से और बच्ची के माता-पिता से मिलना था।

सुबह का अखबार सामने रखा था। चाय पीकर डॉक्टर नहाने जा रहे थे। ख्याल आया कि पहले पेपर देख लिया जाए। खबर छपी है या नहीं!

डॉक्टर एक-एक पन्ना पलटते जा रहे थे, स्थानीय संस्करण भी देख डाला, लेकिन कहीं कोई खबर नहीं थी। अगर शहर में यह घटना घटित हुई होती तो तमाम सामाजिक संगठन सामने आ गए होते, पेपरों में इस कांड की खबर प्रमुखता से छपी होती। मीडिया में बहसें चल रही होतीं। स्कूल-कॉलेज के स्टूडेंट कैंडिल-मार्च निकाल रहे होते। पक्ष-विपक्ष के नेता आमने-सामने होते। मुआवजे का एलान हो गया होता। लेकिन यहाँ, यहाँ तो मानो कुछ हुआ ही न हो। किसी महिला संगठन तक खबर पहुँचाई जाए तो शायद पुलिस सक्रिय होगी या विपक्षी दल के किसी सदस्य या नेता तक खबर जाएगी तो वे सरकार को घेरेंगे और उस घेराबंदी से उस गरीब को न्याय तो मिल जाएगा। कृष्णा ने कुछ क्यों नहीं किया। कृष्णा को डॉक्टर ने फोन लगाया। उसका फोन बंद आ रहा था। आधा घंटे बाद उन्होंने फिर फोन लगाया तो उसने फोन ही नहीं उठाया। वह खबर सुनकर भी खबर से अलग कैसे हो गया था… क्या उसके लिए यह घटना कोई मायने नहीं रखती! क्या खबरें फायदे-नुकसान के लिए चलाई जाती हैं या एक-दूसरे को कमजोर और नीचा दिखाने के लिए या अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए!

‘स्साला…। पैसे खा लिए होंगे…। पत्रकार के नाम पर कलंक है।’ डॉक्टर गुस्से में बोले।

अभी तक ओ.पी.डी. का समय हो गया था। उनकी निगाहें बार-बार बाहर जा रही थीं कि शायद कृष्णा दिख जाए या पुलिसवाले बलात्कारी को पकड़कर ले आएं। सब अपनी-अपनी जगह सामान्य ढंग से काम कर रहे थे, किसी की भी जबान पर कल की घटना का जिक्र तक न था। मगर डॉक्टर बेहद बेचैनी महसूस कर रहे थे। स्वयं को हारा हुआ देख रहे थे। उन्हें याद आया, पत्नी की पहचान कई सामाजिक संगठनों की महिलाओं से है। वे महिलाएं तुरंत पीड़ित महिला के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाती हैं। उन्होंने तत्काल पत्नी को फोन लगाया- ‘क्या तुम इस बारे में बात करोगी? यहां तो किसी पर कोई असर ही नहीं पड़ा।’

‘वहां की पुलिस काम नहीं कर रही है?’

‘एक दिन तो निकल गया। छोटा-सा एरिया है। वह भाग जाएगा तब पकड़ना मुश्किल हो जाएगा।’

‘बात करती हूँ।’

डॉक्टर की पत्नी ने एन.जी.ओ. की महिलाओं को सारी घटना बताई। उन्होंने यही आश्वासन दिया कि वे अपने संगठन में बात रखेंगी और जल्द ही उन्हें जवाब देंगी…। लेकिन वह दिन भर उनके फोन का इंतजार करती रही। उन्होंने दिन में दुबारा फोन लगाया। पर वहाँ से किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। क्या वे कहीं और व्यस्त हैं या गांव-देहात में जाने में उनकी कोई रुचि नहीं है।

शाम को डॉक्टर ने पत्नी को पुन: फ़ोन लगाया- ‘उसके माँ-बाप बहुत परेशान हैं। कोई तो आए उनकी मदद के लिए।’

‘उनको दो-तीन बार फ़ोन लगाया था… पर कोई रिस्पॉन्स ही नहीं मिल रहा है। बताओ मैं क्या करूँ?’

‘किसी और पहचान-वाली महिला को पकड़ो। कोई विपक्ष की महिला हो… या सरकार का कोई प्रभावशाली व्यक्ति।’

‘सरकार का भी दबाव हो सकता है पुलिस पर कि घटना को दबा दिया जाए, क्योंकि खबर आने से सरकार की भी तो फजीहत होगी कि उनके शासनकाल में इस तरह की घटनाएं घट रही हैं। महिलाएं तो महिलाएं, बच्चियां तक सुरक्षित नहीं हैं!’

‘हो सकता है!’

‘उसका बाप क्या कर रहा है। जाए और बैठे धरने पर थाने के सामने। मीडिया वालों को अपनी कहानी सुनाए।’

‘बेचारा सीधा-सादा आदमी है। पुलिस से वैसे भी डरते हैं ये लोग।’

डॉक्टर ने डॉ. मीना को फोन लगाया- ‘क्या हाल है बच्ची के?’

‘होश तो आ गया है… पर बच्ची बहुत ज्यादा डरी हुई है। ऐसा लगता है कि पहले उसे डराया-धमकाया गया था। उसके गालों पर उंगलियों के निशान हैं… उसकी गर्दन और हाथों पर खरोचें भी हैं। अभी वह बात करने की स्थिति में नहीं है…। बात-बात पर रोने लगती है। ठीक होने में थोड़ा और समय लगेगा।’

‘कोई आया था क्या… पत्रकार… मीडिया से कोई व्यक्ति या कोई महिला?’

‘नहीं… यहां तो कोई भी नहीं आया है।’

‘उसका बाप वहीं पर है? उसको कहना कि मुझसे आकर मिले।’

‘भिजवाती हूँ।’

शाम को डॉक्टर अस्पताल के बाहर ही बैठे थे। पेशेंट जा चुके थे। नर्स भी जाने की तैयारी में थी। हरी-भरी पहाड़ी के बीच बसा यह अस्पताल अपनी नई बिल्डिंग और रख-रखाव के लिए जाना जाता है। यहां के लोग सीधी-सादी जिंदगी जीते हैं। बाहर के व्यक्तियों का आना उन्हें उलझन में डाल देता है। हां… लड़के जरूर अलग ताव में नजर आते हैं। पढ़ाई से ज्यादा वे राजनीति पर बात करते हैं। तभी सामने से वह आता दिखा। धीमे-धीमे चलता हुआ वह सामने आकर खड़ा हो गया। देखकर लग रहा था, जैसे उसके शरीर की सारी हड्डियाँ टेढ़ी हो गई हैं। वह इतना झुक गया था कि उसका शरीर अपने ही बोझ से दबा जा रहा था। दाढ़ी बढ़ गई थी। चेहरा काला पड़ गया था। दुख, हताशा और लड़की की स्थिति ने उसे बीमार आदमी बना दिया था।

‘आओ। यहाँ बैठो।’

पास में आकर भी वह खड़ा रहा। डॉक्टर के दुबारा कहते ही वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसकी हिचकियां बढ़ती जा रही थीं।

‘अरे… संभालो अपने आपको। मथुरा, पानी लाओ। लो पानी पिओ। क्या हुआ?’

‘साब, अभी तक नहीं पकड़ा गया वह। हम थाने गए थे तो थानेदार साहब ने गालियाँ देकर भगा दिया। बोले तलाश जारी है। जब पकड़ा जाएगा तो तुम्हें पता चल जाएगा।’

‘एकाध दिन और देख लेते हैं अन्यथा मीडिया को बुलाएंगे।’

‘साहब, मेरी बच्ची! क्या होगा उसका! कैसे तो स्कूल जाएगी और कैसे उसी मुहल्ले में रहेगी!’ उसकी रुलाई फिर शुरू हो गई।

‘तुम्हारी बच्ची के साथ पूरा-पूरा न्याय होगा। हम लोग सब तुम्हारे साथ हैं। बच्ची के साथ हैं। आखिर कब तक ये लोग हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे। आज नहीं तो कल पकड़ा ही जाएगा!’

‘साब, आप लोग भी कुछ मदद करो।’

‘तुम अभी जाओ। बच्ची का ध्यान रखो। कल आ जाना। तब तक हम भी कोशिश करते हैं।’

वह उठा और भारी कदमों से वापस चला गया। उसकी झुकी कमर और उठी हुई पीठ पर दर्द का पहाड़ हिलता हुआ दिखाई दे रहा था।

चक्कर क्या है? क्या सचमुच कोई राजनीति चल रही है। पुलिस को न पकड़ने की छूट मिली हुई है या बच्ची के माँ-बाप को कमजोर समझकर केस को आया-गया करने की फिराक में है या किसी नेता ने अपने क्षेत्र में ऐसी-वैसी घटना घटने से उत्पन्न आक्रोश को रोकने के लिए सारा ताम-झाम रचा हुआ है…। डॉक्टर सोच-सोचकर परेशान हो रहे थे।

उन्होंने पत्नी को फिर फोन लगाया।

‘तुम इतना-सा काम नहीं कर सकती?’ डॉक्टर पत्नी पर चिल्ला रहे थे।

‘मैंने तो कह दिया था पर कोई सुन ही नहीं रहा है। अंदर ही अंदर क्या गेम प्ले किया जा रहा है, मुझे नहीं पता। इस घटना के खुलासे से सबकी फजीहत होती है, तो कौन सरकार, नेता, अधिकारी या पुलिस चाहेगा कि सबके सामने सचाई उजागर हो।’

‘इसका मतलब तो यह हुआ कि उसकी कहीं सुनवाई नहीं होगी…।’

‘होगी तो… पर समय लग सकता है।’

‘फिर भी बात करो। हमें अपने प्रयास नहीं छोड़ने हैं।’

डॉक्टर की पत्नी ने अब मोर्चा संभाला और अपनी दोस्त के घर जा पहुंची। उन्हें मालूम था कि उसकी दोस्त की एक बड़े पुलिस अधिकारी (महिला) से दोस्ती है। वे दोनों अक्सर साथ में देखी जाती हैं। उसकी बात तो मानेंगी ही।

‘क्या तुम मेरी मदद करोगी।’ उन्होंने सीधे जाकर पूछा।

‘कैसी मदद?’

‘अनुपमा मैडम से एक बार थानेदार या टी.आई. को फोन करवा दो कि वे लोग जल्द से जल्द रेपिस्ट को गिरफ्तार करें।’

‘तुम खुद बात कर लो। वो तो लड़कियों के फेवर में ही रहती हैं।’

उसने सारा घटनाक्रम कह सुनाया। अनुपमा मैडम ने सारी बात ध्यान से सुनी और सहयोग देने तथा बात करने का आश्वासन दिया। उसने तुरंत डॉक्टर को फोन लगाया- ‘तुम इंतजार करो…। देखना अब वह जल्द ही पकड़ा जाएगा।’

डॉ. मीना से वे लगातार बात कर रहे थे। डॉ. मीना ने बताया कि लड़की पहले की अपेक्षा अब ठीक है। उसे काउंसिलिंग दी गई है। वह उस लड़के को पहचानती है… और नाम-पता बता सकती है।

अगला दिन! साफ चमकता दिन। गरमी होने के बाद भी ठंडी हवा के कारण राहत महसूस कर रहे थे डॉक्टर। रोज की तरह ओ.पी.डी. में बैठे थे। वही माहौल था। रोज की तरह नए-पुराने मरीज आ रहे थे। यहां पर सांप, बिच्छू, घोड़ा पछाड़ और कुत्ते के काटने वाले मरीजों की संख्या बारिश में बढ़ जाती है। रात में भी बिच्छू का काटा मरीज आ गया था, जिसकी चर्चा स्टॉफ वाले कर रहे थे। इन दिनों बीमार बच्चों की संख्या भी बढ़ जाती है… जिसका खास ख्याल रखना पड़ता है। वार्ड बॉय ने पास आकर कहा- ‘सर, सामने देखिए!’

उन्होंने देखा दो पुलिसवाले एक लड़के को पकड़े चले आ रहे थे।

‘नमस्ते सर जी!’

‘कहो… फिर कोई मारपीट का केस लेकर आए हो?’

‘नहीं सर! मारपीट का केस नहीं है। रेप का केस है…।’

‘रेप का केस…!’ क्षणभर में डॉक्टर समझ गए कि यह वही लड़का होगा। पर वे अनजान बने रहे।

‘दो दिन पहले इसने एक छोटी बच्ची के साथ रेप किया था। आपने ही तो उसे जिला अस्पताल भेजा था।’

‘अच्छा… बहुत जल्दी पकड़ लिया।’ डॉक्टर ने कटाक्ष किया।

‘अरे सर, ये जंगल में जाकर छुपा बैठा था।’

‘अंदर ले आओ।’

डॉक्टर ने उसका मेडिकल टेस्ट किया। अभी तक उसने वही अंडरवियर पहना हुआ था, जिसमें लड़की के खून के दाग लगे थे। भय के कारण या मूर्खता के कारण वह अंडरवियर बदलना भूल गया था।

डॉक्टर ने जांच करके रिपोर्ट बनाकर पुलिस को दे दी, साथ ही लैब में जांच के लिए उसका अंडरवियर भी बतौर सैंपल सील करके भिजवा दिया। डॉक्टर ने लड़के को गौर से देखा। बीस साल का युवक…। आदिवासी युवक। उसकी आंखों में खौफ था। चेहरे पर डर की परछांई! दाढ़़ी बढ़ी हुई। बाल बिखरे हुए। लग रहा था उसने दो दिन से खाना नहीं खाया था। अगर बाहर मरीजों के परिजनों को पता चल जाता तो शायद उसे पकड़कर मार-पीट देते… तब उसे बचाना मुश्किल हो जाता। इसलिए पुलिसवाले भी उसे चुपचाप लेकर चले गये। कल उसकी कोर्ट में पेशी होगी।

डॉक्टर ने डॉ. मीना को फोन लगाकर बताया, ‘बलात्कारी लड़का अरेस्ट हो गया है। मेडिकल के लिए आया था। मुझे दुख तो इसी बात का है कि इस आदिवासी लड़के को हो क्या गया है…? क्या शहरी सभ्यता और वातावरण ने उसे गुमराह कर दिया था…?’

‘उसे छूटना नहीं चाहिए। डर और चिंता यही रहती है कि लड़की के माँ-बाप अपना निर्णय न बदल लें। यहाँ इन्हें कोई मॉरली और फायनेंशियल सपोर्ट नहीं करता है कि ये अपना केस लड़ सकें। बेचारे मारे-मारे घूमते रहते हैं…!’

‘छूटेगा तो नहीं… क्योंकि सारी रिपोर्ट उसके अगेंस्ट जाती है। उसके पैरेंट्स को बता देना…। वे लोग अपनी बात पर कायम रहें…। छोटे लोग छोटी-छोटी बातों से डर भी जाते हैं। हम लोग उसका हौंसला बनाकर रखेंगे।’

बलात्कारी के पकड़े जाने की सूचना पाते ही बच्ची के माता-पिता डॉक्टर के पास जा पहुंचे। माँ का अभी भी रो-रोकर बुरा हाल था। दो दिन में ही उसकी उम्र कई साल बढ़ गई थी। उनके साथ छोटी बच्ची भी थी, जो लगभग चार वर्ष की रही होगी।

‘साब, आपने अपनी रिपोर्ट तगड़ी तो बनाई है।’

‘हां… हां…। बनाई क्या… जो सचाई थी वही रिपोर्ट में लिखा है।’

‘उसको फांसी की सजा तो हो जाएगी।’

‘तुम लोग किसी के दबाव में रिपोर्ट वापस मत ले लेना।’

‘नहीं साब। हम मर जाएंगे… पर रिपोर्ट वापस नहीं लेंगे।’

‘पहचानती हो…?’

‘दूसरी गली में रहता है। किराने की दुकान पर काम करता है। शुरू-शुरू में आया था तो इतना सीधा था… पता नहीं किसकी संगत में बिगड़ गया!’

‘लड़की कहाँ थी उस समय?’

‘वहीं खेल रही थी। मुहल्ले के सारे बच्चे वहीं खेलते हैं।’

‘किसी ने देखा था उसे?’

‘तब नहीं देखा था। कुछ लोग खेत से वापस आ रहे थे तो देखा कि यह भागकर जंगल की तरफ जा रहा है। उन लोगों ने सोचा कहीं जा रहा होगा… पर जब उन लोगों ने लड़की को पेड़ के नीचे बेहोश पड़े देखा तो सारा मामला समझ में आ गया। देखते-देखते भीड़ लग गई। उन लोगों ने हमें खबर दी। देखा तो लड़की खून से लथपथ पड़ी थी। उसके चेहरे और गर्दन पर मार के निशान थे साहब। लड़की ने कितना विरोध किया होगा। क्या कहकर ले गया होगा…? हम सोच भी नहीं सकते थे कि हमारी फूल-सी बच्ची के साथ वह इतना घिनौना काम करेगा। हे भगवान! इस पापी को नरक में भी जगह मत देना। वह सड़-सड़कर मरे।’ वह तड़प रहा था बिना चोट के। कराह रहा था बिना बीमारी के। वह शर्म से चेहरा झुकाए हुए था बिना अपराध के- ‘इससे अच्छा तो वह मर जाती। कोई जानवर उठाकर ले जाता।’

‘क्या बकवास कर रहे हो? इसमें तुम्हारा या बच्ची का क्या दोष है? सजा तो उसको मिलना चाहिए। वह भी खून के आंसू रोएगा…’

‘एक न एक दिन तो बात भी फैलेगी ही। लड़की तो कुछ जानती-समझती नहीं है कि उसके साथ जो हुआ उसे हमारा समाज किस तरह देखता है… पर बड़ा होने पर यही सब लोग उसे बता देंगे। तब… तब… क्या होगा?’ भावी चिंता उसे खाए जा रही थी।

‘अरे भई, अभी तो तुम उसके ठीक होने की प्रार्थना करो। भगवान की कृपा से वह बच गई है।’

वह उठने को तैयार न था। उसके पांव जमीन में धंस गए थे, उसे ऐसा महसूस हो रहा था। कोशिश के बाद भी उसके आंसू नहीं थम रहे थे- ‘साब, यहां, यहां कुछ चल रहा है। आरी की तरह छाती में कुछ चल रहा है।’ उसने सीने पर हाथ रखते हुए कहा।

‘मेरे सामने पड़ गया तो मैं उसका गला अपने हाथों से दबा दूंगा और नपुंसक बना दूंगा।’ वह कलपते हुए बोला।…

‘शांत हो जाओ। कानून को अपना काम करने दो। फिलहाल तो तुम दोनों को अपना और बच्ची का ख्याल रखना है।’ उसके संताप और क्षोभ को शांत करने के लिए डॉक्टर ने उठकर उसे अपने सीने से लगा लिया।

फिर वह बहुत देर तक खामोश बैठा रहा। उसकी अटूट भारी चुप्पी डॉक्टर के मन में भय पैदा करने लगी, कहीं इसको कुछ हो तो नहीं गया? इसके भीतर क्या चल रहा है। यह कुछ बोल क्यों नहीं रहा है। बोलने वाला आदमी अचानक चुप हो जाए तो वह ज्यादा खतरनाक हो जाता है।

थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने देखा कि वह स्वयं ही उठकर चला गया। बाहर उसकी पत्नी और बच्ची बैठी थी…।

पति-पत्नी हॉस्पिटल न जाकर अपने घर जा रहे थे। अंधेरा घिर आया था। गली में बच्चे (सिर्फ लड़के) खेल रहे थे। सबने अपनी-अपनी लड़कियों को घर के भीतर छुपा लिया था। लड़कियों की किलकारियां खामोश हो गई थीं। थाने, अस्पताल और डॉक्टर साहब के पास आते-जाते वे दोनों थककर चूर हो गए थे। शरीर से ज्यादा मन टूट गया था। घर का ताला खोला तो आवाज सुनकर पड़ोसी आ गए। आंखों ही आंखों में कुछ पूछा। कुछ बताया। वह फफककर रो पड़ी। देर तक रोती ही रही!

‘पकड़ा गया?’

‘हाँ।’ उसने सिर हिलाया।

कोई कुछ न बोला। देर तक यूं ही बैठे रहे वे। पड़ोसी घर जाकर खाना ले आए। दोनों को खाना परोसा।

‘मन नहीं है।’ थाली खिसकाते हुए दोनों ने कहा।

‘कुछ तो खा लो। भागदौड़ करनी पड़ेगी। शरीर में जान तो रहनी चाहिए।’

मुश्किल से दो-दो कौर खाए गए। आंसुओं ने खाने को खारा बना दिया था।

‘कितने दिन लगेंगे?’

‘पता नहीं।’ उसने हाथ हिलाकर कहा!

‘किस पर विश्वास करें। रोज मिलने-जुलने वाला लड़का है। कैसा सीधा दिखता था। उसका चेहरा देखकर लगता था कि वह ऐसा कमीना निकलेगा।’

‘उसे छूटना नहीं चाहिए।’

उन दोनों का मन किसी से भी बात करने का नहीं हो रहा था। बल्ब की रोशनी में उनके चेहरे थके-उदास और काले लग रहे थे। घर में मनहूसियत पसर गई थी। बाहर सन्नाटा फैलता जा रहा था। पड़ोसी उठकर चले गए थे। अब वे दोनों अकेले रह गए थे। छोटी लड़की पहले ही सो गई थी। आदमी उठा और दरवाजा बंद कर दिया। सांकल भी चढ़ा दी। हॉस्पिटल में आज बहिन रुकी थी। बोलकर आया था कि पलभर भी आंखें बंद मत करना। लेकिन यहां भी उसकी आंखें खुली हुई थीं। लपलपाता दर्द सीने में धमक रहा था। पति-पत्नी ने एक-दूसरे की तरफ देखा। दोनों की आंखों में दर्द की लौ कौंधी। छोटी लड़की को बीच में लिटा लिया, मानो कोई उसे छीनकर ले जा रहा हो।

बाहर सब कुछ शांत था। जैसे कुछ हुआ ही न हो। सब सो रहे होंगे। खा-पी रहे होंगे। टी.वी. देख रहे होंगे। हँस रहे होंगे और हम! हम दोनों यहां अकेले बैठे हैं… अपराधी की तरह। हँसती-खेलती बच्ची को बर्बाद कर दिया… वह तो कन्या थी… देवी की दूतिका। सब उसको कन्या के रूप में बुलाकर उसके पांव पूजते थे…। न कोई पत्रकार आया। न कोई टी.वी. चैनल वाला। न महिला संगठन की महिलाएं। न स्कूल-कॉलेज के लड़के-लड़कियां- जो हाथ में मोमबत्ती लेकर सड़कों पर निकलते हैं। न नेता। न सरकार का कोई आदमी। न नारे लगाने वाली भीड़। आसमान और धरती को हिला देने वाली घटना बस उन दोनों की छाती पर गुजर रही थी।

दो माह बाद।

वे दोनों पति-पत्नी डॉक्टर के सामने खड़े थे।

‘क्या हाल है?’

‘ठीक है साब, लाख चाहा कि मौत आ जाए पर आती कहां है!’

‘क्या फालतू बातें कर रहे हो!’

‘कोई बता रहा था कि कोर्ट में आपकी भी गवाही होगी।’

‘होगी न। ’

‘साब, आपकी गवाही ऐसी हो कि वह बच न पाए। उसको फांसी की सजा मिले। आप ऐसी ही गवाही दोगे न!’

‘बिलकुल दूंगा।’

‘बाहर कौन है?’

‘दोनों लड़कियां हैं। अब उन्हें अकेला नहीं छोड़ते हैं।’

उसकी पत्नी ने दोनों लड़कियों को अंदर बुलाया। ये बड़ी लड़की है। छोटी को तो आपने देखा ही था! बड़ी लड़की। वही बच्ची। वही… बला… नहीं… नहीं… डॉक्टर ने जोर से सिर हिलाया… मेरे मन में वही ख्याल क्यों आया! गोरा चमकता रंग। सुंदर निश्छल आंखें। दो चोटियां बंधी हुई थी। इतने सुंदर नाक-नक्श वाली लड़की डॉक्टर ने कम ही देखी थी। डॉक्टर के हृदय में दर्द का तीर-सा चल गया। वह नहीं जानती कि उसके साथ क्या हुआ है और ये लोग उसे कभी न कभी एहसास करवाकर ही मानेंगे।

‘सर, छाती जलती रहती है।’ उसकी आंखों में आंसू उमड़ आए।

‘मेरी सलाह मानोगे? मैं समझ रहा हूँ तुम्हारे भय को।’

‘बताइए सर।’

‘देखोे, लड़के को तो सजा मिलेगी ही। कितने वर्ष की मिलेगी यह अलग बात है, पर तुम यह जगह छोड़ दो।’

‘कहां जाएंगे साब, हमारे पास कहीं कुछ नहीं है!’

‘दूसरी जगह चले जाओ। हमारे समाज और समाज के लोगों की मानसिकता ऐसी ही है कि तुम भूलना भी चाहोगे तो भूलने नहीं देंगे। कोई न कोई लड़की को बता ही देगा। तब तुम्हारी लड़की इस घटना को किस रूप में लेगी? कोई नहीं समझ सकता। उसे दूसरी जगह ले जाकर पढ़ाओ-लिखाओ। तुमको भी इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि उसको कुछ भी पता न चले।’

‘आप बात तो सही कह रहे हैं। हमें तो आना पड़ेगा।’

‘वह अदालती प्रक्रिया तो चलती रहेगी!…’

वह रास्ते भर सोचता रहा। गुनता रहा। फड़फड़ाता रहा। एक घायल पक्षी उसके भीतर उड़ने के लिए फड़फड़ा रहा था। एक-एक द़ृश्य सामने आ रहा था। गली के लोगों का व्यवहार और बातें याद आ रही थीं। लड़की के प्रति उनकी निगाहें याद आ रही थीं…। एक साल बर्बाद होगा तो होगा, लड़की की जिंदगी तो बच जाएगी।

‘साब ने बोला है कि मैं उनके फॉर्महाउस पर काम करूंगा। तू उनके घर में खाना बना दिया कर। साहब की मैडम हमारी दोनों बेटियों का एडमिशन स्कूल में करवा देगी। वहां हमें कोई पहचानने वाला नहीं होगा। इसको भी कोई नहीं पहचानेगा…। क्या कहती हो?’

‘ठीक है। और सोच लो।’

‘सोचना क्या? तू ये मत सोच कि हम डरकर भाग रहे हैं। हम अपनी लड़ाई अपने आप लड़ेंगे… पर बिट्टू (बच्ची) को इससे अलग रखेंगे।

घर में लाइट नहीं थी। अंधेरा इतना घना था कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। आदमी ने लालटेन जलाई और कीले पर टांग दी। लालटेन का उजियारा घर में फैल गया। उन दोनों ने दोनों बेटियों को छाती से लगा लिया।

‘हम कहाँ जा रहे हैं?’ बड़ी लड़की ने पूछा।

‘दूसरे शहर में पापा की नौकरी लग गई है।’

‘हमारा स्कूल छूट जाएगा?’ छोटी लड़की मासूमियत से बोली।

‘वहां तुम नए स्कूल में पढ़ोगी। वहां हमारा नया घर होगा। तुम दोनों को बहुत अच्छा लगेगा,’ कहकर वह दोनों बेटियों की पीठ पर थपकियां देने लगा। उसकी पत्नी ने उसके कंधों को जोर से थाम लिया।

वे सभी विस्थापित हो रहे थे। मां के हाथ में लालटेन थी और पिता के सिर पर सामान।

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