वरिष्ठ आलोचक। ‘वसुधा’ पत्रिका से जुड़े हुए थे
लोक के विश्वास और जातीय स्मृतियां आश्चर्यजनक तरीके से हमें अपनी ओर आकर्षित करती हैं।लोक आख्यान है, जीवन भी है और जीवन का सच भी है।इससे आंखें फेर कर कोई आगे की यात्रा नहीं कर पाएगा।इस दौर में लोक को याद करते हुए मुझे बहुत पीड़ा हो रही है।इसका अंतरंग जितना संपन्न, जीवंत और वैभवशाली है, बहिरंग उतना ही विपन्न है।लोक स्वार्थपरता, आधुनिकता के बाज़ार और राजनीतिक खेलों से निरंतर जूझ रहा है।
मेरा आत्मीय रिश्ता बघेली लोक से है।मेरी सांसों की आहटें बुंदेली और छत्तीसगढ़ी लोक में भी सुनी जा सकती हैं।यह एक विख्यात तथ्य है कि लोक के केंद्र में मनुष्य और समूची प्रकृति है।लोक है तो हम-आप हैं।प्रकृति और मनुष्य ही लोक के सर्जक हैं।प्रकृति हमारी सांसों में लगातार विद्यमान है? दुनिया लोक से सजती-संवरती है।लोक को कोई मार नहीं सकता।समय नखरे दिखाता है, खासकर इस समय हम पिघल और दग्ध हो रहे हैं।
हमारे गांव, समाज और लोक के अनेक हुनर धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं? मेरे गांव में पड़ोस सिंहपुर से आने वाले बंदी बढ़ई बाबा लकड़ी से निर्मित पालकी या म्याना ऐसा बनाते थे कि क्या कहूं? वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘ठेस’ कहानी में उनका जिक्र किया है।लोक कला का कोई ऐसा जानकार जब जाता है तो पूरा हुनर अपने साथ ले जाता है! अपने अनुभव भी ले जाता है।ऐसी न जाने कितनी कलाएं उन लोगों के साथ विदा हो गईं।
सत्येंद्र ने सच कहा है, ‘लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात संस्कार, शास्त्रीयता और पारंपरिक चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।जाहिर है कि हम लोक में समूचा संसार देखने की ख्वाहिश रखते हैं।लोक में ही आलोक है, उसका परिप्रेक्ष्य और विस्तार है।
पिछले दिनों भगवान सिंह लिखित एक किताब पढ़ रहा था- ‘भारतीय सभ्यता की निर्मित’।इस सभ्यता के विकास में कई महत्वपूर्ण चीजों का योगदान है।एक उद्धरण पढ़ें, ‘एक लंबे ज्ञान और अनुभव के बाद मनुष्य ने जाना कि धरती के चारों ओर अथाह पानी है।धरती के भीतर भी पानी है।आकाश से पानी बरसता है, इसलिए आकाश में भी पानी है।कोई भी भारी वस्तु पानी में डूब जाती है, फिर भी यह धरती डूबती नहीं।यह टिकी किस पर है? पानी में मजबूत पीठ वाले जिस जीव से उसका परिचय था और जो अपने धैर्य के लिए भी जाना जाता था, वह था कछुआ।एक विशाल कछुए की कल्पना की गई जो समुद्र में है और जिसकी पीठ पर धरती टिकी है।’ यह एक मिथक है, लेकिन है कितना अर्थपूर्ण।हमारे जीवन के विकास की, वैज्ञानिक विकास की धुरियां भी यहीं से शुरू होती हैं।जाहिर है कि लोक की पुतलियों में समूचा संसार समाया हुआ है।
हमारे जीवन में मूल्यों की आवाजाही कम हो चली है।झूठ ही नहीं, अखंड महाझूठ के टावर खड़े हैं, विभिन्न तरह के तुर्रे गनगना रहे हैं? लोक कवि ईश्वरी ने लिखा है, ‘राखें मन पंछी ना राने/ इक दिन सब खां जाने?/खालो पीलो, लै लो दे लो/ये ही लगै ठिकाने/कर लो धरम कछूबा दिन खां/जा दिन होत रमानै/ईसुर मान लो मोरी/लगी हाट उठ जाने।’
इस दौर में उलझाव बढ़ रहे हैं।जीवन सफेद झूठों से चलाया जा रहा है।इसके लिए अति उत्तम प्रबंधन हैं।यह हमारी चिंता का एक बड़ा सबब है।महाभारत में कहा गया है, ‘सत्य के समान धर्म नहीं है और असत्य के समान पाप नहीं है।’ हो उल्टा रहा है।
लोक हमारा असली घर है।आधुनिक जीवन शैली एक तरह से हमारा परदेश है।यह कृत्रिमताओं का एक डरावना संसार है।इसमें जीवन की धड़कन नहीं है।कई बार हम न देश के रह पाते, न विदेश के, पूरी तरह त्रिशंकु होते हैं।मंगलेश डबराल की पंक्तियां हैं, ‘हम आ गए हैं/घर से बहुत दूर/अब यह परदेश की भूमि है/हमारे पास जो कुछ है/उसे बांट लेना चाहिए/’ (घर का रास्ता)।
लोक अकसर शास्त्र पर भारी पड़ता है।शास्त्र ने लोक को नहीं गढ़ा, बल्कि लोक से निकलकर ही शास्त्र आया है।इधर जो समाज बन और ढल रहा है, उसमें नकलीपन बहुत ज्यादा है।नकलीपन की अजीब बहार है? दूरदर्शन तथा मीडिया के अन्य माध्यमों में एक हँसता, खिलखिलाता लोक एक नकली संसार है।
अब लोक वाद्य कम प्रयुक्त किए जा रहे हैं।लोक में लोटा बजाया जाता था, पर नगडिया, झांझ-मजीरे, केंकड़ी-तुरही भी कम हो चले हैं।प्रायः इनकी जबरन अवहेलना है।लोक में ऐसे-ऐसे वाद्य होते थे कि उन्हें सुनकर लोग दंग रह जाते थे।हमारे गांव के पड़ोस में एक दर्जी अपने मुंह से मुंहचंग बजाता था।उनके निधन के बाद मुंहचंग मैंने फिर कभी नहीं सुनी।वह एक दुर्लभ चीज थी।अचानक चली गई।लोक से न जाने क्या-क्या विदा हो रहा है?
हमारे लोकगीत विदा हो रहे हैं।उनमें चिंतनीय ढंग से भारी मिलावट जारी है।दुर्गा पूजा के गीतों में लोक की धुनों को ताक पर रख दिया गया है।हमारे पारंपरिक तरीके लगभग अंतिम सांसें गिन रहे हैं, जैसे हमारी बोलियां, भाषाएं।लोकवार्ताएं निरंतर कम हो चली हैं।कुछ छुआ-छुअउवल में फंसे हैं।हम चाहकर भी लोक को पोथियों-पोथन्नों में कैद नहीं कर सकते।वह दुनिया के इस छोर से उस छोर तक है।जो लोक में रमते हैं वे ही उसके कुछ सिरे पकड़ पाते हैं।
लोक जीवन में प्रतिरोध की चेतना लगातार विकसित होती रहती है।लोक में जड़ता के लिए कोई स्थान नहीं है।वह हमेशा जाग्रत है और विकृतियों से जूझता रहता है।प्रतिरोध की शब्दावली समाज के बीच गूंगेपन में भी व्यापकता पाती है।बद्री नारायण की पंक्ति है, ‘कोई जरूरी नहीं कि हर रुलाई में आंसू आए’।प्रतिरोध की आवाजें हमेेशा सुनाई दें, यह कोई जरूरी नहीं है।किसानों, मजदूरों और अन्य साधारण लोगों की पीड़ाएं भले शांत हों, लेकिन उनके आगाज़ में दम होता है।इस दौर के किसान आंदोलन ने इसे सिद्ध किया है।
लोक की आवाजों को बिना गहन संवेदना के नहीं सुना जा सकता? लोक संस्कृति के मामले में हम धनी हैं।घाघ-भड्डरी, ईसुरी, भिखारी ठाकुर, भरथरी, सरमन, बसदेवा और न जाने क्या-क्या है हमारे पास।शिव कुमार मिश्र ने लिखा है, ‘लोक अपनी ऊर्जा से ऊर्जावान रहा है और रहेगा।वह अपनी अंतर्निहित शक्ति से शक्तिमान रहा है, और रहेगा।चुनौतियां गंभीर हैं, विश्वव्यापी हैं।लोक जहां भी है, उन चुनौतियों की गिरफ्त में है।प्रतिरोध भी लोक में रहा है और रहेगा।लोक चूंकि कोई जड़ या स्थिर इयत्ता नहीं है, प्रवहमान इयत्ता है।इसी नाते हर समय में लोक ने आज रूपांतरण किया है।अपने को समय की अनुरूपता में ढाला और संस्कारित किया है।आंधियां आएंगी।तमाम कुछ उखड़ेगा-टूटेगा, परंतु भारतीय मानस में लोक की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बाजारवाद, भूमंडलीकरण या आधुनिकता-उत्तर आधुनिकता की आंधी- उसकी जड़ों को नहीं हिला पाएगी।’(लोक संस्कृति में प्रतिरोध)
मेरा कुछ समय पूर्व गांव जाना हुआ था, मैं अपने गांव के नाले देखता रहा।पेड़ -पौधे देखता रहा।ढोलकी, नांद, मचिया, कुठला, पेउला, डहरी, कांडी-मूसर, मथानी, अरगसनी, कुरुआ, दपकी, ठाठ-बड़ेरी और जीवन यापन की कई चीजें कंडा, गोबरी, घैला, पनही, अटारी निहारता रहा।एक लोक गीत याद आ रहा है- ‘मचियन बैठी कौशल्या रानी तो हिरनी अरज करई हो।’ उसको जब-जब पढ़ता-सुनता हूँ, रोना आता है।हिरनी के हिरना का शिकार कर लिया गया था।रानी उसके हिरना की लाश भी नहीं दे रही।लाश तो छोड़िए खाल या खलरी भी नहीं दे रही।कहती हैं- राम हिरना की खलरी से बनने वाली खंजरी बजाएंगे और खूब हँस-हँस के खेलेंगे।बेचारी हिरनी उस आवाज को सुनकर अनखेगी।वह और कर भी क्या सकती है, यही तो उसके हिस्से में है।
हमारा लोक वही भोली-भाली हिरनी-सा है जो चक्रव्यूह में फंसा है।उसको पूरी तरह से बींध दिया गया है।सभी लोग विपत्तियों में गले तक नथे हुए हैं।लोक को लोक से बाहर फेंकने की कार्रवाई हो रही है।कोई भी सत्ता न उसकी आवाज सुनती है और न उसकी पुकार।कल बुंदेली का एक लोकगीत सुन रहा था, ‘नैना से नैना जौ लौ मिलें ना/राम धइयां मो पे कन्हैया नोनो लगै ना/कारी सी मुइयाँ जौ लो दिखै ना/तौ लो कन्हैया नोनो लगै ना/सोरा बरस की बारी उमरिया/सोसन में पर गई कारी रैन सी पुतरिया।’ इसकी भाव ध्वनियों में पैठिए।समूचा संसार खुल जाएगा।प्रेम के अनकहे स्वरूप उजागर हो जाएंगे।प्रेम की इस ताक़त को थाह सकने की किसमें कूबत है? बघेली में भी लोकगीतों की भरमार है।महुआ झर रहा है।उसे ठीक ढंग से कोई बीनने वाला नहीं है।इसी व्यथा पर एक लोकगीत की कुछ पंक्तियां सुनें,
‘जरय भिनसारे कै निंदिया हो/मोर महुआ उजरिगा/ससुरू न जागे, सासू न जागी/जागी ना लहुरी ननदिया हो/मोर महुआ उजरिगा/जेठा न जागे, जिठनी न जागी/जागा न लहुरा देबरबा हो/मोर महुआ उजरिगा।’ उसी तरह एक छत्तीसगढ़ी लोकगीत गुनिए।विवाह में आई हुई नई नवेली दुल्हन परेशान हैं, ‘ओ ए हो ए/सैयां छेड़ देवे/ननद चुटकी लेवे/ससुरार गेंदा फूल/सास गारी देवे/देवर जी समझा लेवे/छोड़ा बाबुल अंगना/भावे डेरा पिया का/सैयां हैं बेपारी/चले हैं परदेस/सुरतिया निहारूँ/जियरा भारी होवे/ससुरार गेंदा फूल।’
लोक हमारे भीतर पानी की तरह बहता है।अपने साठ साल पहले के जीवन को याद करता हूँ तो विचलित होता हूँ।लोक जीवन की अधिकांश चीजों के अवशेष बचे हैं।बाकी चीजें धीरे-धीरे बिला गईं या बिला रही हैं।लेकिन वे हमारी आत्मा के तहखाने में बंद हैं खूबसूरती के साथ।लोक जीवन की सुगंध ही मेरा जीवन धन है।
१९७३ में मैंने गरीबों के लिए एक गीत लिखा था।उसकी कुछ पंक्तियां स्मरण में रह गईं, ‘जागो- जागो मजूर किसान हो भइया/अब नइया समैय्या सोवन को/चारों ओर शिकारी घूमैं/हाथन लए कमान हो भइया/अब नइया समैय्या सोवन को/…बनिया अफसर नेता लूटें/कागज चढ़े मचान हो भइया/अब नइया…/हाड़ तोड़ हम फसल उगाएं/सब खा गए शैतान हो भइया/बस्ती-बस्ती भूखी-प्यासी/घर मरघट के समान हो भइया/अब नइया…।’
लंबे समय से न हम लोक की आहटें सुन रहे हैं और न उसकी छटाएं देख पा रहे हैं।हमने अपनी एक बेहद आरोपित दुनिया बना ली है।उसमें क्या क्या अगड़म-बगड़म भर डाला है।हम इतिहास से फ्राड कर रहे हैं।हम आजादी से धोखा कर रहे हैं।हम जनतंत्र से धोखा कर रहे हैं।इस दौर में राष्ट्रवाद भरमाने का एक खूबसूरत धंधा है।अब योग भी एक बड़ा व्यवसाय है।उसी तरह लोक को भी एक फ्रेमवर्क बनाए जाने की मुहिम है।कुछ समय बाद हमारा लोक छूलन सोहारी हो जाएगा।हम उसे वेबसाइट में ढूंढने में जुट जाएंगे।इंटरनेट में लोक को कब तक बचा पाएंगे, यह एक यक्ष प्रश्न है।
लोक से देवी-देवता नहीं बचे, फिर सामान्य की औकात क्या? बड़े-बड़े देवता-देवियां लोक से अपने को बचा नहीं पाए।क्या-क्या हास्य-व्यंग्य और परिहास प्रसंग हैं उनपर।सुनकर कोई भी दंग रह जाएगा।
यहां अनेक प्रसंगों में जाने का वक्त नहीं है।अंत में विंध्य क्षेत्र के एक कर्मठ नेता और लेखक सीताराम नेपाली याद आ रहे हैं।लोक की ताकत और आहट को समझने के लिए उनकी निष्ठा और कृतित्व को रेखांकित करना चाहिए।यह आदमी नेपाल से भारत आया था- स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए।फिर यहीं का होकर रह गया।लोक ने उसे बांध लिया।उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तिकाएं लिखी हैं। ‘युग परिवर्तन’ एकांकी लिखी।उनका निवेदन पढ़िए, ‘ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति दयनीय है।खासकर आदिवासी क्षेत्रों की अधिक दयनीय है जहां अधिकतर लोग अनेक दिन अनाज के दर्शन किए बिना सोते हैं, जिनमें बूढ़ी-बूढ़े, युवती और जवान ही नहीं, गर्भवती, बीमार और बच्चे भी होते हैं।उनके मुरझाए चेहरे ने युग परिवर्तन लिखने को विवश किया।’
आखिर हम लोक को ढूंढते-ढूंढते कहां आ गए।हम लोक को ढूंढते हैं और लोक हमें।यह तलाश जारी रहेगी।धीरे-धीरे श्रम की कीमत को लोगों को जानना ही पड़ेगा।हमें समाज में बचे हुए छूत-छात से बाहर आना ही पड़ेगा।सचमुच आज कहां आ गए हैं हम!
रजनीगंधा ०६, शिल्पी उपवन, अनंतपुर, रीवा–४८६००२ (म.प्र.) मो.७९८७९२१२०६
बिल्कुल सही और सटीक विवेचना की है लेखक ने। लोक में प्रचलित कलाएं और जीवन पद्धतियां विलुप्त होती जा रही हैं। मुझे अपने बचपन केे भिक्षा मांगने वाले याद हैं, 1960 के दशक की बात है। हम उन्हें भिखारी नहीं कह सकते। वे क्या गाते थे, याद नहीं है, लेकिन जिस धुन और लय में गाते थे , वह कहीं सुनाई दे तो हम तुरंत पहचान लेंगे। क्या सुरीला स्वर होता था, क्याा अंदाज होता था। वे कोई न कोई चौपाई गाया करते थे, राम चरित मानस की थीं या किसकी थीं वे चौपाईयां यह तो याद नहीं, लेकिन उनमें कहानीपन होता था। वे अधिकतर ब्राह़मण लोग होते थे और मेरी मां उन्हें जो भिक्षा देेती थी उसे भ्क्षिा नहीं, सीधा कहते थे। मां कहती थी, रूको पहले हमें सीधा दे आने दो। एक साधू बाबा आते थे जिनके एक पैर में खराबी थी और वे लकुटी के सहारे चलतेे थे। वे सारंगी बजाकर कोई भजन गाते थे। अब वे लोग कहीं नहीं दिखते। भरथरी गाने वाले भी आते थे। ये सभी लोक कलाएं ही तो थीं। विलुप्त हो गईं। वे एंसी जीवंत कलाएं थीं कि अब लगता है, उन्हें वापस ला पाना कठिन होगा। लेखक ने पुरानी यादें कुरेद दीं।
लोक ही समाज की संजीवनी होता है। लोक जीवन को और उसकी सांसों को बचा रखता है। अब सब कुछ छीजता सा जा रहा है। आपने सब कुछ जीवंत कर दिया। हमारी अपनी भाषा और लोक भाषा या कहें कि मातृभाषा भी खोती जा रही है। हमारी भवनाओं के बहुत निकट है यह आलेख।
सादर
राजा अवस्थी, कटनी