विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में पीएच.डी. की शोध छात्रा।कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
लोकप्रियतावाद एक इंद्रजाल की तरह है, जिसके आकर्षण से लोग बच नहीं पाते हैं। आज बाजार, प्रबंधन, मीडिया और टेक्नोलॉजी द्वारा बुने गए जाल में आम आदमी उलझता जा रहा है। आज जो यथार्थ से दूर और मनोरंजनपरक है, वही लोकप्रिय है। लोकप्रियतावाद पहले मुख्यत: लुगदी साहित्य, सिनेमा और गीतों तक सीमित था, आज जीवन के हर क्षेत्र पर उसका प्रभाव है।
आज पॉप म्यूजिक, रैप, वेस्टर्न डांस, रियलिटी शो, रील्स, टिक-टॉक आदि की बढ़ती लोकप्रियता का अर्थ यह है कि बाहरी चमक-दमक के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। अब टेक्नोलॉजी ने किसी गाने का रिमिक्स वर्जन बनाना, फूहड़ वीडियो बनाना, पैरोडी करना, छोटी और ओछी बात को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाना आसान कर दिया है। अब ऐसी चीजें मिनटों में वायरल होकर घर-घर पहुंच रही हैं। चिंताजनक यह है कि लोग इन्हीं चीजों को सच मानने लगे हैं। ऐसे आइटमों पर मिलियन लाइक, कमेंट आते हैं, जबकि गंभीर वीडियों के व्यू कम होते हैं।
यह टेक्नोलॉजी और लोकप्रियतावाद के बीच गठजोड़ का समय है। तर्क की जगह मौज-मस्ती का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। इस तरह जो सतही है, जो जन सरोकारों से कटा है और लोगों की भावनाओं को कैश करने में सक्षम है, आज वही लोकप्रिय है।
लोकप्रियतावाद के तूफान में जेनुइन प्रश्न और मुद्दे उधिया गए हैं। सृजन, संवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों की जगह मनोरंजन और धार्मिक शोर में लोगों की भागीदारी बढ़ती जा रही है। आज के समय की विडंवना यह है कि लुगदी साहित्य का नया संस्कार ज्यादा पॉपुलर हो गया है। अंग्रेजी में अमीष त्रिपाठी, चेतन भगत और हिंदी में सत्य व्यास, कुमार विश्वास जैसे व्यक्ति किसी भी बड़े लेखक से ज्यादा चर्चित हैं। हम देख सकते हैं कि जो लोकप्रिय चीजें हैं उनका प्रयोग लोग तेजी से कर रहे हैं। आज भी लुगदी साहित्य बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है और पढ़ा जा रहा है।
लोकप्रिय साहित्य का उद्देश्य है सनसनी पैदा करना, लोगों के बीच मनोरंजन एवं उत्तेजना पैदा करना। लोकप्रियतावाद ने साहित्य के अलावा कलाओं को भी प्रभावित किया है। फलस्वरूप पाठक या दर्शक अब ऊंचे आदर्श की जगह इंटरटेनमेंट की तलाश कर रहा है। लोकप्रियतावाद की वजह से लोगों की सामाजिक रुचि में भी काफी गिरावट आ गई है। उन्हें सनसनी, अफवाहें और बाजारूपन ज्यादा लुभा रहा है। यही वजह है कि लोग गंभीर चीजों में रुचि नहीं ले रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि लोकप्रियतावाद का संबंध सामान्य लोगों से है जो ज्यादा शिक्षित नहीं हैं। ऐसे में एलीट वर्ग और लोकप्रियतावाद को लड़ाकर देखा जाता है। वर्तमान युग में एलीट वर्ग के विचारों के प्रति सामान्य जन की रुचि कम हुई है। ऐसे में जरूरी लग सकता है कि एलीट वर्ग गंभीर बातों को सरल तरीके से रखे। आमलोगों के प्रश्नों को रोचक एवं नए तरीके से रखे, ताकि लोग गंभीर मुद्दों से भी आनंद ले सकें और खुद को उससे जोड़ सकें।
आज लोकप्रियतावाद ने हाशिए के प्रश्न को हटा दिया है और उसकी बातों को मीम्स के जरिए मजाक बना दिया है। आज न्यूज चैनलों में होने वाले प्रोग्राम में भी चीजों को लड़ा कर देखने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। ऐसे शीर्षक तैयार किए जाते हैं जो सनसनी पैदा करें और दर्शक घंटों टीवी पर चलाऐ जा रहे युद्ध देखते रहें। आज लोकतंत्र का चौथा खंभा बिग ब्रेकिंग की खोज में रहता है और लोकप्रिय डिवेट कराता है। इससे कहीं न कहीं जरूरी मुद्दे छूट जाते हैं। उल्लेखनीय है कि आज तर्क की जगह कुतर्क आ गया है।
लोकतंत्र किसी भी देश के लिए जरूरी है, लेकिन लोकप्रियतावाद उसपर गंभीर प्रभाव डाल रहा है, जिसपर विस्तार से विचार करना जरूरी है। हमारे समय के कई महत्वपूर्ण लेखक इन सवालों पर चर्चा कर रहे हैं।
सवाल
(1)लोकप्रियतावाद ने कलाओं और साहित्य की दुनियाओं को व्यापक वर्गों तक किस तरह पहुंचाया है और सामाजिक रुचि को कितना प्रभावित किया है?
(2)नई टेक्नोलॉजी ने किस तरह लोकप्रियतावाद को एक नया स्तर दिया और इसके पुराने रूप किस तरह अतीत की वस्तु हो गए?
(3)क्या लोकप्रियतावाद एलीट अभिरुचि और एकेडमिक आभिजात्य का प्रतिद्वंद्वी है? इसकी वर्तमान भूमिका क्या है?
(4)आज लोकप्रियतावाद अंतर-सबाल्टर्न तनावों में या आम लोगों के बीच कैसी भूमिका निभा रहा है? लोकप्रिय चीजें किस तरह तर्क को विस्थापित कर रही हैं?
(5)लोकप्रियतावाद और लोकतंत्र के बीच वर्तमान संबंध को कैसे देखा जाए?
जवरीमल्ल पारख |
लोकप्रिय चीजें विवेकशीलता से दूर कर सकती हैं
(1)साहित्य सहित सभी तरह की कलाओं का सृजन जन-जन तक पहुंचने के लिए होता है। कौन-सी कला का कौन-सा रूप जन-जन तक पहुंचेगा, यह बहुत से बाहरी और अंदरूनी कारकों पर निर्भर करता है।
आधुनिक – पूर्व युग में कलाएं दो तरह की होती थीं। एक वे कलाएं, जो अभिजात वर्ग के लिए रची जाती थीं और उनका आस्वादन भी उन्हीं तक सीमित रहता था। हालांकि उनको रचने वाले जरूरी नहीं कि वे स्वयं अभिजात वर्ग के हिस्से हों। दूसरी तरह की वे कलाएं होती थीं, जो लोक के लिए लोक द्वारा सृजित होती थीं और लोक ही उनका आस्वादन करता था। यह नहीं कहा जा सकता कि इन दो भिन्न तरह की कलाओं का आपस में कोई संबंध नहीं था। संबंध था, लेकिन बहुत कम और ज्यादातर उनकी अपनी स्वायत्त दुनिया थी। हां, वे कलाएं, जो धर्म का आवरण लेकर उपस्थित होती थीं, कई बार इन दोनों सीमाओं को लांघकर एक दूसरे के दायरे में प्रवेश करती थीं और निश्चय ही उनकी लोकप्रियता सबसे ज्यादा होती थी। भक्त कवियों की स्वीकार्यता इसीलिए सबसे ज्यादा है।
आधुनिक युग में कलाओं का यह विभाजन लगभग समाप्त हो गया है। अब सब तरह की कलाएं सब तरह के श्रोताओं और दर्शकों तक पहुंच सकती हैं। उनका विभाजन इस आधार पर नहीं होता कि वे किस वर्ग के लिए सृजित की जा रही हैं। इसके विपरीत सभी कलाकार यह चाहते हैं कि उनकी रचना सब तक पहुंचे। इसके बावजूद जरूरी नहीं कि वह सब तक पहुंचे ही और अगर पहुंच भी जाए तो सबके द्वारा स्वीकार्य भी हो।
जब कोई साहित्यकार या कलाकार इस बात का ध्यान रखकर अपनी कला का सृजन करता है कि वह अधिकतम ग्रहीताओं तक पहुंचे और उन्हें पसंद आए तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि वह ऐसी रचना सृजित करे जो अधिकतम लोगों की भावनाओं के अनुकूल हो और उसमें ऐसा कुछ भी न हो जो किसी वर्ग या समुदाय को चोट पहुंचाए। वह इस बात का भी ध्यान रखता है कि उसकी रचना आसानी से संप्रेष्य हो और उसका मन बहलाए। आमतौर पर इस तरह की कलाओं को आसानी से पहचाना जा सकता है, क्योंकि उनका मकसद ही मनबहलाव होता है और उनकी रचना के पीछे आमतौर पर कोई महत उद्देश्य नहीं होता।
लोकप्रिय कला की स्वीकार्यता का दायरा बहुत विस्तृत होता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह लंबे समय तक उतनी ही लोकप्रिय बनी रहे। इसका कारण यह है कि इस तरह की कला में ऐसे मानव-मूल्य प्राय: नहीं होते और न ही ऐसा कला-सौंदर्य होता है जो रचनात्मक हो और जो रचना को स्थायित्व प्रदान करता हो।
(2)संचार और संप्रेषण की नई टेक्नोलॉजी ने जहां एक ओर कलाओं के जनोत्पादन (मास प्रोडक्शन) को संभव बनाया है, तो उसे लंबे समय तक सुरक्षित रखने और जन-जन तक पहुंचाने में मदद भी की है। अब पहले की तरह कुछ खास तरह की कलाओं या कलारूपों से समाज के व्यापक हिस्से को वंचित रखने की न तो जरूरत है और न ही मुमकिन है।
उदाहरण के लिए शास्त्रीय संगीत आमतौर पर एक खास वर्ग के बीच ही गाया-बजाया जाता था, लेकिन अब कोई भी व्यक्ति न केवल शास्त्रीय संगीत का संप्रेषण के आधुनिक साधनों के माध्यम से आनंद उठा सकता है, बल्कि उसका प्रशिक्षण लेकर उसमें पारंगत हो सकता है। यह बात अब प्राय: सभी ललित कलाओं पर लागू होती है।
इन प्राचीन कलारूपों में नई टेक्नोलॉजी ने बदलाव पैदा किया है। मसलन, आधुनिक टेक्नोलॉजी का आगमन नहीं हुआ था, तब किसी भी तरह की गायकी, वाद्य यंत्रों पर विभिन्न रागों को बजाना घंटों चलता रहता था और उसको समझने वाले उसका आनंद लेते रहते थे। लेकिन इस तरह के गायन-वादन की सीमा यह थी कि उन्हें भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं रखा जा सकता था। लेकिन जब गायन-वादन को रिकार्ड किया जाने लगा तब उन्हें सुरक्षित रखना मुमकिन हो गया।
हम नहीं जानते कि स्वामी हरिदास या तानसेन कैसा गाते थे, लेकिन अब हमारे पास हमारे समय के गायकों और वादकों के रिकार्ड उपलब्ध हैं और उन्हें न केवल हम सुन सकते हैं वरन हमारे बाद आने वाली पीढ़ियां भी सुन सकेंगी। लेकिन इसकी सीमा यह है कि आमतौर पर अब लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वे एक ही राग को घंटों सुनते रहें।
शुरू में जब एलपी रिकार्ड आदि आए तो उनपर एक बार में तीन-चार मिनट से ज्यादा को रिकार्ड करना मुमकिन नहीं था। यही वजह है कि फ़िल्मों में गीत आमतौर पर तीन-चार मिनट से ज्यादा लंबे नहीं होते थे। इसका असर शास्त्रीय गायन पर भी पड़ा और अब उनकी अवधि भी पहले की अपेक्षा सीमित हो गई। लेकिन मुख्य बात यह है कि प्राचीन कलाओं को जनसाधारण तक पहुंचाने में इस नई टेक्नोलॉजी ने अहम भूमिका निभाई। इसी तरह मुद्रण की नई टेक्नोलॉजी ने पद्य की अपेक्षा गद्य विधा को ज्यादा प्रोत्साहित किया, क्योंकि अब साहित्य को याद रखने के लिए छंदों और रागों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें किताब के रूप में प्रकाशित कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।
इसी का नतीजा है कि महाकाव्य जैसी विधा अब लगभग लुप्त हो गई है और उपन्यास जैसी नई विधा लोकप्रिय हो गई है। यही नहीं, गद्य के कई रूप और कई विधाएं अस्तित्व में आई हैं। इस नई प्रौद्योगिकी ने लोक कलाओं को भी सुरक्षित और संरक्षित रखने में मदद की है, लेकिन उसने सृजनात्मकता की संभावनाओं को नष्ट भी किया है।
(3)कुछ हद तक यह माना जा सकता है, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। दरअसल अब एलीट अभिरुचि को परिभाषित करना बहुत आसान नहीं है। किसी समय शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाले एलीट कहे जा सकते थे, लेकिन अब ऐसा कहना शायद बहुत ठीक नहीं है। मसलन, भारत में संगीत में रुचि रखने वाले कई तरह के वर्ग हो सकते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाले यदि आभिजात्य माने जाएंगे तो पश्चिमी शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वालों को किस श्रेणी में रखा जाएगा। इसी तरह क्या सभी तरह का फ़िल्मी संगीत लोकप्रियता के दायरे में आएगा और वह क्या अनिवार्य रूप से आभिजात्य अभिरुचि का विरोधी होगा।
हिंदी में पल्प साहित्य पढ़ने वाले वर्ग को लोकप्रियतावाद के अंतर्गत परिगणित किया जा सकता है। लेकिन उसी वर्ग के लोग अंग्रेजी के लोकप्रिय साहित्य को आभिजात्य अभिरुचि वाला मान सकते हैं। मेरे विचार में अब साहित्य हो या संगीत या कोई अन्य कला, उन्हें आभिजात्यवादी अभिरुचि के बजाय लोकप्रियतावादी कला और रचनात्मक कला के रूप में ही विभाजित किया जाना ज्यादा उपयुक्त है।
रचनात्मक साहित्य, जिसे आमतौर पर शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है और सरकार का संरक्षण भी मिलता रहा है, एकेडमिक दायरे की कला के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन उसे एकेडमिक आभिजात्य के रूप में विभाजित करना शायद सही नहीं है। मसलन, नागार्जुन या त्रिलोचन के लेखन को रचनात्मक माना जाता है, लेकिन उन्हें एकेडमिक आभिजात्य की श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा। यह बहुत मुमकिन है कि कोई अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, कुंवरनारायण आदि कवियों को एकेडमिक आभिजात्य की श्रेणी में माने, पर मेरे विचार में यह पूरी तरह से अनुचित है।
यह प्रवृत्ति फ़िल्मों के संदर्भ में भी देखी जाती है जहां बिमल राय, गुरुदत्त, महबूब आदि की फ़िल्मों को लोकप्रिय सिनेमा की श्रेणी में तो नहीं रखा जाता, लेकिन सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, मणि कौल, कुमार शाहनी को एकेडमिक आभिजात्य में रखा जाता है। यह सही विभाजन नहीं है। अब साहित्य और कला को आभिजात्य और लोकप्रिय में विभाजित करने के बजाय रचनात्मक और लोकप्रिय में विभाजित करना ज्यादा उपयुक्त है।
(4)लोकप्रिय कला, चाहे सिनेमा हो, साहित्य हो या संगीत, सामान्य जन के मन बहलाव और उनकी मानसिक जरूरतों को काफी हद तक पूरा करने का काम करती है। यह जरूरी नहीं है कि लोकप्रिय कला उनकी अभिरुचियों का विकास करे या समय और समाज के प्रति उनकी समझ को विवेकपूर्ण बनाए और उन्हें एक बेहतर इंसान बनाए। लेकिन लोकप्रिय कला उन्हें कुछ हद तक जीवन की थकान और तनावों से राहत देने का काम करती है, जिनकी उनको बहुत जरूरत होती है। वह उन्हें ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाती है जहां कल्पना में ही सही, उनकी मानसिक इच्छाएं कुछ हद तक पूरी होती नज़र आती हैं।
यह जरूर है कि इस प्रक्रिया में लोकप्रिय कला उन्हें विवेकशीलता से दूर कर दे और बहुत से ऐसे भ्रमों की सृष्टि करे जो उन्हें अपने समय और समाज की एक मिथ्या समझ को सच मानने की ओर प्रेरित करे।
(5)लोकप्रियतावाद सदैव लोकतंत्र-विरोधी हो यह आवश्यक नहीं है। लेकिन यह सही है कि लोकप्रियतावाद काफी हद तक ग्रहीताओं को यथास्थितिवादी बनाए रखता है और इस वजह से वह अपने समाज और राष्ट्र में घटित हो रही गलत बातों के प्रति या तो मुंह मोड़ लेता है और निष्क्रिय बना रहता है। यही नहीं, भारत जैसे देश में जो काफी हद तक धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, लिंग आदि में विभाजित हैं वहां ऐसे साहित्य की जरूरत है जो लागों की चेतना को आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बनाने में मदद करे ताकि वह अपने राष्ट्र् में लोकतंत्र विरोधी और जनविरोधी प्रवृत्तियों को पनपने और फैलने से रोक सके।
इसलिए लोकप्रियता के नाम पर जो यथास्थितिवादी लोकतंत्र-विरोधी और प्रतिगामी मूल्यों को प्रश्रय देने वाले साहित्य, सिनेमा और अन्य कला रूप हैं, उनके प्रति जहां एक ओर व्यापक आलोचनात्मक चेतना विकसित करने का काम किया जाना चाहिए वहीं दूसरी ओर यह भी जरूरी है कि उस साहित्य को, कलारूपों को लोकप्रिय बनाने के लिए व्यापक पैमाने पर प्रयत्न किया जाना चाहिए, जो अपने पाठकों और दर्शकों की चेतना को रचनात्मक, सौंदर्यबोधीय बनाए और साथ ही, विवेकपूर्ण, जनोन्मुखी और सामूहिक संघर्ष में यकीन पैदा करे।
802, टॉवर–3, पॉम टैरेसेज सेलेक्ट, सेक्टर–66, गोल्फ कोर्स एक्सटेंशन रोड, गुड़गांव–122101 मो.9810606751
अनामिका |
मैं नहीं मानती कि लोकप्रिय चीजें तर्क को विस्थापित करती हैं
(1)कार्ल मार्क्स ने ‘वल्गराइज़ेशन’ की भी अपनी ख़ास उपयोगिता बताई थी! कोई भी जटिल दर्शन, थोड़े विद्रूप के साथ ही सही, गलियों में फैल तो जाता है इसके सहारे और कभी-कभी ऐसा कोई विद्रूप भी घटित नहीं होता जैसा इप्टा के समय के हिंदी गानों में नहीं घटा या फिर छायावादी- छायावादोत्तर समय के मुशायरों और कवि- सम्मेलनों में! बाद के कवि सम्मेलनों की स्त्री-द्वेषी चुटकुलेबाज़ी इसका पानी जरूर उतार गई!
सामान्य जन अपने दैनंदिन कार्यों से इतना थक जाता है कि साहित्य उसके लिए मनोविनोद के एक अच्छे साधन के सिवा कुछ नहीं रह जाता, बहुत दिमाग़ लगाकर, अपनी गहनतम स्मृतियों में झांक कर वह ‘अर्थ का सहप्रस्तोता’ हो जाने को हरदम प्रस्तुत हो, इतनी अपेक्षा उससे नहीं की जा सकती। कलाकारों और साहित्यकारों को ही माता के धीरज से तोता-मैना कौर उठाकर, पीछे दौड़कर चंचल बच्चों को मानसिक प्रोटीन उपलब्ध कराना होगा, वरना नैतिक स्वास्थ्य तो गिरेगा ही समाज का!
सोशल मीडिया का इंपोर्ट बड़ा है! गंभीर लेखकों को चाहिए कि देश-दुनिया की समस्त कालजयी कृतियों का लोकलुभावन संस्करण/अनुवाद/ नाट्यरूपांतरण जनभाषा में वहां उपलब्ध कराएं! हिंदी समय, कविता कोश, रेख्ता फाउंडेशन, राजा फाउंडेशन, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और हिंदी- अंग्रेज़ी के सब छोटे-बड़े प्रकाशकों को चाहिए कि एक-दूसरे की टांगखिंचाई छोड़कर अच्छी कृतियों की सुंदर प्रस्तुतियों से आकाश भर दें इंटरनेट का!
(2)हमारे बचपन में लैंडलाइन जब आम घरों में लगने लगा था, एक मुहावरा प्रचलित हुआ था दोस्तों के बीच- ‘जस्ट ए कॉल अवे’! मतलब दोस्त वही जो एक फ़ोन मिलने पर आधी रात को भी लस्तम-पस्तम दौड़ा चला आए! अब तो रात तीन बजे तक ह्वाट्सऐप पर कविताएं कुरूलिया पक्षी की तरह चूं-चूं करती हुई झुंड-दर-झुंड उतरती चली जाती हैं! उसी हक से सब नए रचनाकार अपनी ताजा कविताएं यहां साझा करते हैं जिससे बच्चे बगीचे से चुनकर लाए फूल-फल-बीज-शंख आदि निधियां नानी-दादी से साझा करते थे, कभी-कभी रात को जगाकर भी! एक भोला पर सार्थक उद्यम है अपने भीतर और बाहर कवित्व की तलाश!
नई टेक्नोलॉजी ने उन स्त्रियों, युवकों और अवकाशप्राप्त लोगों का विशेष भला किया है, जिनमें साहित्य के संस्कार थे, पर जिन्हें प्रकाशन का मंच कभी मिला ही न था! इनमें कुछ का लेखन बहुत प्रखर है! कुछ के प्रयत्न ‘बाथरूम सिंगिंग’ जैसे हैं, क्योंकि अभी रियाज़ नहीं है और किसी भाषा की लेखकीय विरासत पर अध्ययन-मनन भी अभी कच्चा है, पर कुछ स्वर तो विपुल तैयारी के साथ सामने आए हैं और उनसे बहुत उम्मीद बंधती है!
(3)यह प्रतिद्वंद्विता घातक नहीं, शुभ है! जैसे हर राजनीतिक सत्ता का एक मजबूत प्रतिपक्ष होना चाहिए, मुख्यधारा के शास्त्रीय साहित्य का भी! संगीत में भी देशी और मार्गी – दोनों परंपराएं उतनी ही धारदार रही हैं! दोनों को एक-दूसरे से सार्थक चुनौती मिलती रही है और हर चुनौती एक अवसर भी है!
जैसे-जैसे जनतंत्र गहराया, शास्त्रीय और लौकिक, पाश्चात्य और पूर्वी, पर्सनल और पोलिटिकल, मैक्रो और माइक्रो के बीच का पदानुक्रम टूटा और एक नई तरह की जुगलबंदी, एक नए तरह का फ्यूज़न मंचित हुआ विश्व की हर भाषा में, जो एक दिलचस्प पहल है!
यह मनुष्य की एक अजीब प्रवृत्ति है कि वह एक साथ दो विपरीत धाराओं में बहना चाहता है- विशिष्ट दिखना चाहता है और भेड़ चाल चलना भी। लोक चेतना स्वयं इतनी समृद्ध और मस्त होती है कि पत्थर से भी रस निकाल ले! अभिजन की ओर उसकी आंख जाती है पर उतनी ही देर जितनी आसमान में उड़ती चील की तरफ़, बाक़ी वह अपनी धुन में रहती है और अपना मानदंड स्वयं तय करती है! अभिजन लाख नाक सिकोड़ें, पर उन्हें लोक में खपत की चिंता ज्यादा होती है! किताब का बाजार तो यही लोक है- वही उन्हें संप्रेषणीय बने रहने को मजबूर करता है! वरना रेडियो वार्ताकार की यही वेदना सिर उठा लेती है :‘मैं माइक के सम्मुख हूँ, माइक मेरे सम्मुख है, कोई सुनता भी होगा, बस इतना ही दुख है!’ ‘कहें साधो, सुनें साधो’ वाली स्थिति अकादमिकों को भी संतोष नहीं देती!
(4)मैं यह नहीं मानती कि लोकप्रिय चीज़ें तर्क को विस्थापित कर पाती हैं या उसे विस्थापित करने की अभीप्सा रखती हैं! भेड़ – चाल (मॉब मेंटालिटी) आवेग में आकर अनैतिक दांव खेल भी जाए तो उसके लिए कम-से-कम कवि-कलाकारों को अफसोस होता है! कोई भड़कानेवाली बात मुंह से निकल गई तो वे माफी मांगते हैं, शर्मिंदा होते हैं, जैसे सरदारों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और दलितों पर अब शायद ही कोई हास्य कवि भी अश्लील चुटकी लेता है जैसा पहले ले लेता था! अंतर-सबाल्टर्न तनाव के किस्से भी पहले से कम हुए हैं- तभी सबको एक छतरी के नीचे रखनेवाला पद- ‘वंचित’ सामने आया है और राजनीतिक चेतना इतनी तो जगी ही है कि एक संयुक्त मोर्चा बनाना जरूरी है! तो एक ऑटो- कंट्रोल मेकैनिज्म काम करता है लोक में!
(5)जो उपाय मां आज़माती है बच्चों पर, वे ही उपाय लेखकों-कलाकारों को आज़माने होंगे। कुछ तो सरल-सुभग-सरस होना पड़ेगा कि कठिन और नीरस दिनचर्या से थका लोक कालजयी कृतियों का रसास्वादन कर सके- फ़िल्मकारों और भाष्यकारों की भूमिका यहां बहुत बड़ी हो सकती है! वे ही गंभीर कृतियों के प्रति लोक का पूर्वराग जगा सकते हैं!
डी-115, द्वितीय तल, मंदिर मार्ग, साकेत, नई दिल्ली-110017
anamikapoetry@gmail.com
अच्युतानंद मिश्र |
वही साहित्य श्रेष्ठ है जो आलोचनात्मक विवेक पैदा करे
(1)लोकप्रियतावाद एक राजनीतिक दर्शन है। इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई। सामाजिक नियंत्रण हासिल करने के उद्देश्य से। बीसवीं शताब्दी में इसका इस्तेमाल हर तरह की विचारधारा ने किया।
जहां तक प्रश्न कला और साहित्य के संदर्भ में लोकप्रियतावाद की भूमिका का है- इसने उसे पुनर्निर्मित किया। कैमरा और छापेखाने ने साहित्य और कला के मापदंडों को बदला। कला और साहित्य का दायरा विस्तृत हुआ। लोक-कला से जन-कला की तरफ का मार्ग प्रशस्त हुआ। कला और साहित्य बहुसंख्यक के जीवन को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने लगे।
धीरे-धीरे सत्ता वर्ग ने इसका नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। एक समानांतर संस्कृति की नींव रखी गई। कला-साहित्य के माध्यम को एक इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु में बदला जाने लगा।
बीसवीं शताब्दी में इसके लिए मास-कल्चर शब्द का प्रयोग होने लगा। हिंदी में आम तौर पर इसके लिए जन-संस्कृति का इस्तेमाल होता है। मेरी समझ से यह ठीक नहीं। इसे हम भीड़ की संस्कृति कह सकते हैं। दरअसल भीड़ में जो अव्यवस्था है, अराजकता है, मूल्यहीनता है -वह इस संस्कृति के प्रारूप को दर्शाता है। मॉब-लिंचिंग को आप जन-संस्कृति नहीं कह सकते। वह जनता की भावनाओं का प्रकटीकरण नहीं है।
एक तरफ इसने जहां कला-साहित्य को एक विशिष्ट वर्ग के दायरे से बाहर निकाला, वहीं बहुसंख्यक को प्रभावित एवं नियंत्रित करने के लिए इसका इस्तेमाल बीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर हुआ। अब भी हो रहा है।
(2)जब हम नई टेक्नोलॉजी कहते हैं, तो हमारे जेहेन में कंप्यूटर का इस्तेमाल सामने रहता है। कहीं न कहीं हम टेक्नोलॉजी को कंप्यूटर या सूचना माध्यम तक सीमित करके देखते हैं। टेक्नोलॉजी का संबंध मेरी समझ से वह बिंदु है, जहां मनुष्य और प्रकृति के बीच एक तीसरी चीज का प्रवेश होता है। वह बिंदु औद्योगिक क्रांति है। मैं नई पुरानी टेक्नोलॉजी के तौर पर विभाजन को उचित नहीं समझता। ऐसा इसलिए कि इस शब्दावली से यह ध्वनित होता है कि पुरानी टेक्नोलॉजी जनपक्षधर थी।
मुझे दोनों में स्पष्ट क्रमिकता दिखाई देती है। जैसे-जैसे जीवन और समाज में इसका इस्तेमाल बढ़ता गया- यह निर्णायक होती गई।
दोनों ही विश्वयुद्धों में इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ। साथ ही युद्ध के पक्ष में लोगों की सकारात्मक राय निर्मित करने के लिए भी इसका इस्तेमाल हुआ। आप देखें कि हिंसा को लोकप्रिय बनाने में इस टेक्नोलॉजी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही है। रेडियो के माध्यम से जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में वीरता का वर्णन किया जाता था तो वह प्रकट तौर पर समाज में हिंसा को स्वीकार्य बनाने की भूमिका ही थी। आज हिंसा और बड़े पैमाने पर जारी हिंसा एक जरूरी और उपयोगी दृष्टि में बदल गई है, यह टेक्नोलॉजी के रास्ते हुआ। हाल के दौर में हुए या हो रहे युद्धों के संदर्भ में इसे देखा जाना चाहिए। रूस-यूक्रेन युद्ध में एक का पक्ष चुनने का दृष्टिकोण प्रमुख रहता है। यह कहने की कोशिश नहीं की जाती कि यह एक छद्म युद्ध है, जो पूरी दुनिया के लोगों को हिंसक बनाने के उद्देश्य से अभिनीत किया जा रहा है। हिंसा को मनुष्य की समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत करने में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा है।
आज अगर साहित्य, कला, संस्कृति के सारे रूप इस टेक्नोलॉजी द्वारा संचालित और नियंत्रित हैं तो इसका एक अर्थ यह भी है कि टेक्नोलॉजी आज सत्ता के नियंत्रण को निर्धारित करता है। एक सामान्य व्यक्ति -क्या पहने, क्या खाए, किसे सुने, किसे पसंद करे, किस तरह का संगीत सही है, कौन सी फ़िल्में देखे, किसे साहित्य माने- ये तमाम प्रश्न अब हल नहीं करता। वह टेक्नोलॉजी द्वारा सुझाए गए विकल्पहीन विकल्पों में से चुनता है।
आज फेसबुक तय करता है कि हम किसे साहित्य मानें या न मानें। वर्ष के अंत में मीडिया में साहित्य का सर्वेक्षण आता है। वह हमें बताता है कि हम क्या पढ़ें। गीतों का टॉप-टेन बताता है -हम क्या सुनें। बॉक्स ऑफिस बताता है कि कौन सी फ़िल्में देखनी चाहिए। इन तमाम संस्थाओं के पीछे कौन खड़ा है? वे किसके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण में काम करती हैं? मूल प्रश्न यह है।
(3)मैं नहीं समझता कि इस तरह की कोई स्थिति वास्तव में होती है। एक छद्म रचा जाता है कि यह आभिजात्य साहित्य है। यह लोकप्रिय साहित्य है। आप अगर ध्यान से देखें तो जो चीज दोनों में ही सिरे से गायब होती है, वह है-आलोचनात्मक विवेक। वही साहित्य या कला है, जो हमारे भीतर आलोचनात्मक विवेक को प्रतिष्ठित करे। लोकप्रिय साहित्य के मूल्य और एलीट साहित्य के मूल्य किसी भी तरह की आलोचना या गंभीरता या प्रश्नाकुलता का निषेध करती है। दूसरे, सत्ता वर्ग के साथ, सत्ता संगठन के साथ वे एक जुड़ाव निर्मित करते हैं।
प्रकट तौर पर एक छद्म विरोध इसलिए निर्मित किया जाता है ताकि सत्ता यह प्रदर्शित करे कि जनता को इन्हीं दोनों प्रारूपों में बंट जाना चाहिए। दीगर बात यह है कि दोनों का नियंत्रण सत्ता वर्ग के हाथ में ही रहता है। बाहरी विरोध को निर्मित कर दोनों तरफ के लोगों को नियंत्रित किया जाता है।
(4)जैसा मैंने आपको कहा, वे हमारी अभिरुचि को नियंत्रित, निर्धारित करती हैं। तर्क को, आलोचना को, विवेक को स्थगित। उदाहरण के लिए आप टूथपेस्ट के विज्ञापन को लें। हर टूथपेस्ट का विज्ञापन कहता है कि यह 99 प्रतिशत दंत चिकित्सकों द्वारा प्रमाणित है। अगर 4 ब्रांड भी टीवी पर यह कहते हैं, तो 400 प्रतिशत दंत चिकित्सक कहां से आए? तो हम तर्क का इस्तेमाल नहीं करते।
टीवी पर आए दिन राजनीतिक सर्वेक्षण होते हैं। वे बताते हैं कि अमुक नेता को 53.2 प्रतिशत लोग पसंद करते हैं। सवाल यह है कि यह प्रश्न उन्होंने कितने लोगों से पूछा तो उनका जवाब होता है -5000। 140 करोड़ की संख्या के सामने 5000 से क्या तात्पर्य है? लेकिन वे इस 53.2 प्रतिशत की छद्म संख्या को इस सवाल की पुड़िया में लपेट कर एक टूथपेस्ट की तर्ज़ पर हर व्यक्ति तक पहुंचाते हैं। और इस तरह सूचना का निर्माण किया जाता है। सत्ता के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में जो माध्यम है, उनके द्वारा उसका प्रसार सुनिश्चित किया जाता है।
(5)दरअसल लोकप्रियतावाद जैसी कोई चीज अभी अस्तित्व में नहीं है। लोकप्रियतावाद का छद्म रचा जाता है। इस समय को जो चीज निर्मित और निर्धारित कर रही है वह है उत्पादन-उपभोग। तमाम संचार माध्यमों के रास्ते सूचनाओं को निश्चित उद्देश्य से तैयार किया जाता है। ठीक उसी तरह जैसे चमड़े की फैक्ट्री में जूतों को तैयार किया जाता है, इस उद्देश्य से कि फैक्ट्री के मालिक का अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित किया जाए।
सूचनाओं का निर्माण भी आज इसी तर्ज पर हो रहा है। लोकतंत्र अपने तमाम मूल्यों को खोता जा रहा है। संचार माध्यम द्वारा जनता के मुद्दों का निर्धारण किया जाता है। रोज शाम टीवी डिबेट में तय किया जाता है कि जनता के मुख्य मुद्दे क्या हैं। एक तरह से सरकार या सत्ता पर जनता के नियंत्रण की जगह सत्ता द्वारा जनता पर नियंत्रण को लोकतंत्र बताया जा रहा है। सवाल पूछने का अर्थ अलोकप्रिय होना है।
आमतौर पर किसी अतार्किक बात को बहुसंख्यक की राय के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। जैसे किसी अनियंत्रित भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या। टीवी चैनल इस खबर को जनता की राय कहकर लोगों की चेतना में स्थापित करते हैं। प्रश्न उठाने वालों को देश-द्रोही, समाज-द्रोही के रूप में चिह्नित किया जाता है। इस तरह जनता को प्रशिक्षित किया जाता है- वह क्या चाहता है और उसे किसका विरोध करना चाहिए। वास्तविकता का कोई अर्थ नहीं रह गया।
सही और सच जाननेवालों की तादाद लगातार कम होती जा रही है। इस अर्थ में यह मध्यकाल से भी खतरनाक है। आज बहुत कम लोग हैं इस दुनिया में जो प्रभावित हुए बगैर सच को जानते और समझते हैं। कबीर पांच शताब्दी पूर्व जो कह रहे थे, उसे अगर आज कहा जाए, सिर्फ सार्वजनिक तौर पर दोहरा दिया जाए तो भीड़ द्वारा हत्या हो जाएगी। आज सबसे कठिन काम है- सच को पहचानना और उससे भी कठिन काम है, उसे बहुसंख्यक लोगों के विवेक का हिस्सा बनाना।
हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी,कलाडी–683574, जिला : अर्नाकुलम, केरल मो.9213166256
वैभव सिंह |
लोकप्रियता और लोकप्रियतावाद में फर्क को समझें
(1)लोकप्रियतावाद (पॉपुलिज्म) एक राजनीतिक शब्दावली से जुड़ा शब्द है और इतिहास में इसके बड़े व्यापक अर्थ रहे हैं। जान हाफमन के राजनीतिक शब्दकोश के अनुसार- ‘इस शब्द का संबंध ‘पीपुल’ से है, जिसके एक ओर अपने आभिजात्य निहितार्थ होते हैं तो दूसरी ओर यह नितांत भ्रामक, सनकभरी राजनीति के लिए भी अपमानजनक रूप में प्रयुक्त होता है।’ उन्होंने इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर विचार किया है। अपने सकारात्मक रूप में ‘पॉपुलिज्म’ जनरुचियों एवं जनांदोलनों से जुड़ता है, जिसमें स्थापित व्यवस्था और निरंकुश राज्य के विरोध में आमजन अपने मंतव्य, विचारधारा तथा प्रतिरोध आदि को व्यक्त करते हैं। जबकि अपने नकारात्मक और निंदात्मक रूप में यह दक्षिणपंथी-फासिस्ट राजनीति में प्रयुक्त होता है। इसमें निम्नमध्यवर्ग की रुग्ण-संकीर्ण भावनाओं को उकसाकर उन्हें लोकतंत्र, प्रगतिशील विचारों तथा आधुनिक चेतना का विरोध करने के लिए संगठित किया जाता है। उन्हें उदारपंथी राज्यव्यवस्था तथा उसका हिस्सा बन चुके बुद्धिजीवियों, विषय-विशेषज्ञों और तर्कवादियों की सत्ता का भय दिखाकर एकजुट किया जाता है।
इस प्रकार राजनीति-विज्ञान में लोकप्रियतावाद एक बहुअर्थी पद है, जिसमें अंतर्विरोध बहुत हैं तथा वह साहित्य-कला के क्षेत्र में भी इस शब्द के निहितार्थ को प्रभावित करता है। ‘पॉपुलर साहित्य बनाम सीरियस लिटरेचर’ के बीच एक ऐतिहासिक अंतर्विरोध रहा है। जासूसी कथानक, सेक्स, हिंसा, सनसनी, बाजारू देशप्रेम आदि के साहित्य को लुगदी एवं फुटपथिया साहित्य के साथ-साथ लोकप्रिय साहित्य भी मान लिया गया। जबकि मानव मूल्यों, क्रांतिकारी आदर्शों, भावगत गहनता तथा वैचारिक परिपक्वता वाले साहित्य को गंभीर श्रेणी वाला शिक्षितों का साहित्य माना गया।
प्रायः देखा गया है कि श्रेष्ठ साहित्य-कलाएं लोकप्रियता के मानदंडों पर हमेशा खरी नहीं उतरती हैं। वैसे ही जैसे गंभीर मुद्दों पर राजनीति करने वाले नेता कई बार जनता में आसानी से लोकप्रिय नहीं हो पाते हैं। गंभीर कृतियां नवीन मूल्यों की रचना करने में विश्वास करती हैं और लोकप्रियता की दौड़ से स्वयं को अलग करना पसंद करती हैं। वे लोकप्रिय भी हो सकती हैं, जैसे कबीर, रहीम, प्रेमचंद, टैगोर आदि की रचनाएं लोकप्रिय हैं और व्यापक जन तक पहुंचीं।
लेकिन कुल मिलाकर लोकप्रियता के साथ गंभीर साहित्य का सहज संबंध नहीं है। बहुत सारे रचनाकार पारंपरिक अर्थ में बहुत लोकप्रिय नहीं रहे, जैसे निराला, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल आदि, पर उनका लेखन असंदिग्ध रूप से महान है। इसी प्रकार कलाओं में कुमार गंधर्व तथा किशोरी अमोनकर का गायन, स्वामीनाथन तथा विवानसुंदरम के चित्र, यामिनी कृष्णमूर्ति तथा मल्लिका साराभाई का भरतनाट्यम बहुत लोगों द्वारा सराहा गया, पर वह साधारण जन तक न तो पहुंचता है न वह गली-गली में रेडियों में बजने वाले फिल्मी गानों की तरह लोकप्रिय है।
(2)नई तकनीक से अगर यूट्यूब, सोशल मीडिया, स्मार्ट कैमरे-मोबाइल आदि से तात्पर्य है तो यह देखने में आ रहा है कि नई तकनीक ने साहित्य या कला के क्षेत्र में कोई मौलिक या ताजगीपूर्ण नवाचार नहीं पैदा किया है। केवल फिल्मों और उसके आनुषांगिक रूपों को इसने अधिक प्रभावित किया है। कहानी-उपन्यास-कविता आदि की रचनाशीलता पर इसका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं है। बल्कि नई तकनीक ने साहित्य को पढ़ने के धैर्य तथा विचारों को ग्रहण करने की पारंपरिक शिक्षा को कमजोर अवश्य किया है।
नई तकनीक ने साहित्य से जुड़े प्रचार, विनिमय, सूचना, खरीद-फरोख्त आदि के लिए सस्ते और तेज गति से काम करने वाले माध्यम का कार्य किया है, पर घर-घर में साहित्य को लोकप्रिय बनाने में जितनी भूमिका लघु-पत्रिकाओं और समाचारपत्रों की थी, उसकी तुलना में कम योगदान दिया है। इसलिए यह मान लेना कि लोकप्रियता व ख्याति आदि की सारी जिम्मेदारी सस्ती-सुलभ नई तकनीक को देकर हम आराम से बैठें तो यह आत्मघाती विचार होगा।
नई तकनीक साहित्य की कई विधाओं, जैसे डायरी, नाटक, पत्र, रिपोर्ताज, उपन्यास, एकांकी आदि को अप्रासंगिक बना रही है। यह ऐसा पाठक-श्रोता वर्ग पैदा कर रही है जिसका मस्तिष्क अस्थिर है और जो बहुत सारी सूचनाओं के घने-जालदार कबाड़ को अपने भीतर ढो रहा है। वह साहित्य-कला से जुड़े धैर्य, साधना, प्रतिभा-विकास, एकाग्रता, औदात्य आदि के महत्व को समझता तो है, पर अंततः नई तकनीक की भागमभाग भरी तीव्रता उसे साहित्य का भी ‘उपभोक्ता’ बनाती है। वैसा ही जैसा उपभोक्ता माल संस्कृति पैदा करती है, जिसमें आवश्यकता-पूर्ति के स्थान पर खरीदने के लिए खरीदने का चलन विकसित होता है।
मशहूर मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद के शब्दों में यह ‘मार्केटप्लेस आफ आइडिया’ होता है। वह कविता की चंद पंक्तियों, उत्तेजनापूर्ण टिप्पणियों, टुकड़ों-टुकड़ों में लिखे विचारपूर्ण गद्य आदि को पढ़ता है, पर एक संपूर्ण उपन्यास पढ़ने के सुख, एक जगह बैठकर पूरे नाटक को देखने के आनंद या समूचे काव्य-संग्रह को पढ़कर दीर्घावधि तक उससे संवेदित रहने की आत्मिक प्रक्रिया से वंचित हो जाता है। उसके साहित्य-संस्कार को घिस-घिसकर छोटा किया जाता है तथा खंडित, अधूरे, छोटे, सीमित किस्म के साहित्यिक आस्वादन का अभ्यस्त बनाया जाता है।
इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि नई तकनीक ने साहित्य-कला को लोकप्रिय नहीं बनाया है, बल्कि इनके पास जो लोकप्रियता पहले थी, केवल उसकी ‘रिपैकेजिंग’ कर दी है। ठीक वैसे ही जैसे किशोर कुमार और लता मंगेशकर के पुरानें गीतों को अब नए तरह से लोग इंस्टाग्राम आदि पर गाने लगे हैं। पर इंस्टाग्राम तथा यूट्यूब जैसी चीजें स्वयं संगीत की दुनिया में कोई मोहम्मद रफी या साहित्य की दुनिया में कोई राहुल सांकृत्यायन नहीं पैदा कर सकते हैं। इसने साहित्य को ‘पूर्वनियोजित यांत्रिक ताकतों’ की उपज बना दिया है और ‘अनिश्चित भाव-संवेदना’ से साहित्य के उत्पन्न होने की प्रक्रिया को नष्ट कर दिया है। इसी के बारे में फ्रांस के हेनरी लुईस बर्गसां जैसे चिंतक एक समय चेतावनी दिया करते थे।
(3)लोकप्रियतावाद ने दुनियाभर के अधिनायकों को जनता को मूर्ख बनाने के अवसर दिए हैं। इसने जनता की अंतरात्मा को क्षुद्र और बौना बनाया है तथा भटकाया है। शैतान, कुटिल और पाजी अधिनायकों ने उदारवादी सिस्टम और सत्ता के मूल्यों के विपक्ष में बातें की हैं और सामान्य लोगों को बड़बोले, मिथ्यावादी तथा झूठे सपने दिखाने वाले नेताओं का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया है। साहित्य में हम देख सकते हैं कि वीर रस की घटिया कविताएं, सस्ती शायरी, कामोत्तेजक प्रेमकथाएं भी लिखी और पढ़ी जाती हैं। इंटरनेट पर इन दिनों पोर्न साहित्य के दर्शकों-श्रोताओं की संख्या करोड़ों में है। कवि सम्मेलनों में पड़ोसी देशों को लेकर युद्धोन्माद फैलाने वाले कवियों की लोकप्रियता बहुत रही है। वे पाक-चीन को लेकर पंक्तियां सुनाते हुए घरेलू शांतिवादियों को भी ललकारते थे और कहते थे- ‘पहले घर के गद्दारों का मिटना बहुत जरूरी है।’ इस पर लोग उत्तेजना में आकर तालियां पीटते हैं और शांतिवादियों-अहिंसावादियों को खलनायक मानने लगते थे। वे युद्ध की हिंसा को अपने मनोरंजन की तरह प्रयोग करते हैं। इसमें कस्बाई मानसिकता को भुनाया जाता है और देशभक्ति के नाम पर अशिक्षित और अर्धशिक्षित लोगों की पाशविक वृत्तियों को भड़का दिया जाता है।
लोकप्रिय साहित्य के विरोध में शिक्षितों का अभिजन साहित्य दिखता है। जिसे हम एलीट अभिरुचि कहते हैं, वह जनविरोधी हो सकती है और समाज के सुविधाखोर संपन्न वर्ग के हितों को प्रतिबिंबित कर सकती है। पर कई बार अभिजन अभिरुचि की निंदा के नाम पर उन मूल्यों को निशाना बनाया जाता है जो जनता के हित में भी हैं। जैसे अच्छी शिक्षा, उच्चकोटि का सौंदर्य, तार्किकता, वैज्ञानिकता, निजी स्वाधीनता, वस्तुगतता, संवैधानिक मूल्य आदि को भी आम जनता का विरोधी बताया जाने लगता है। इन मूल्यों का पक्ष लेने वालों को लुटियन्स, देशद्रोही तक कह दिया जाता है। कहा जाता है कि जनता को धर्म-अंधविश्वास, भीड़वादी मानसिकता तथा उन्मादपूर्ण मनोदशा के साथ जीने के स्वाभाविक हक से वंचित नहीं किया जा सकता। ‘एंटी- इंटलैक्चुअल’ और उदारवाद-विरोधी विचारों को फैलाया जाता है।
ऐसे में इस बात को लेकर चिंता करनी चाहिए कि अच्छा साहित्य कैसे अधिकाधिक लोकप्रिय हो। पर लोकप्रियतावाद के नाम पर जनता में कुरुचि, भ्रम, पाशविकता आदि फैलाने वाले कथित साहित्य को लेकर सावधान भी रहना चाहिए। केवल लोकप्रियता को साहित्य में अंतिम कसौटी नहीं बनाना चाहिए। लोक-साहित्य और लोकप्रिय साहित्य में अंतर भी रखना चाहिए।
प्रायः विखंडन और स्थानीय दृष्टियों में रुचि रखने वाले उत्तर-आधुनिकों की तरह लोक साहित्य से उपजी शैलियों, जैसे रामलीला, रास, नौटंकी, पांडवानी आदि को ‘पॉपुलर कल्चर’ का हिस्सा बताकर गंभीर साहित्य की गरिमा पर आक्रमण नहीं करना चाहिए। लोक-साहित्य एक ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया का अंग हैं, जबकि लोकप्रिय साहित्य के जन्म का संबंध आधुनिक काल में प्रकाशकों, प्रिंटर्स, रोजगार आदि के नेटवर्क से रहा है।
(4)वर्तमान युग में विचार या मनुष्य की सत्ता की तुलना में बाजार की सत्ता प्रमुख है। इस कारण लोकप्रियतावाद की अवधारणा निर्दोष न रहकर मुनाफे, सत्ता, बाजार, राजनीति, पुरातनपंथी वैचारिकी आदि से बुरी तरह प्रभावित है। विगत वर्षों में हमने देखा कि कैसे बाबाओं, झूठे शायरों तथा छिछले उपन्यासकारों को अचानक से मीडिया में बड़ा स्थान मिलने लगा। बाबा रामदेव के बाद अब बाबा बागेश्वर लोकप्रिय हो गए।
अंग्रेजी में पुराने हिंदू मिथकशास्त्र पर उपन्यास लिखने वाले औसत किस्म के विचारहीन रचनाकारों का समूह बाजार में आ गया। पुराने महाराजाओं की अय्याशी, रानियों के रतिक्रीड़ा वाले वस्त्र तथा हरमों पर भी संस्मरण और इतिहास खूब बिक रहे हैं, जिसे इतिहास का पोर्नोग्राफीकरण कहा जाता है। वेश्याओं-तवायफों के जीवन के प्रति संवेदनशीलता के नाम पर कामरस प्रदान करने वाली उनकी कहानियां सुनाई जाती हैं। संदिग्ध किस्म के इतिहासकारों की किताबें जबरन पाठकों पर थोपी जा रही हैं और उन्हें लोकप्रिय बनाया जाता है। यानी जैसे-जैसे समाज में दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति का असर बढ़ा है, साहित्य में भी विचारहीन लोकप्रियता वाली वस्तुओं को प्रोत्साहन मिल रहा है।
जनता को शिक्षा, समानता और एकता के मूल्यों से दूर ले जाने के लिए बेस्ट सेलर साहित्य के नाम पर लफ्फाजी भरा भ्रमलोक सृजित हो रहा है। जिसे हम सबाल्टर्न राजनीति कहते हैं, वह निम्नवर्गों, आदिवासियों, निम्नजातियों, स्त्रियों आदि की आवाजों को इतिहास में दर्ज करने की वकालत करती है, पर वह उस पॉपुलिज्म की वकालत नहीं करती जो जनता का मित्र बनकर उसके साथ विश्वासघात करे तथा लोकतंत्र को कमजोर करे।
यह विस्मरण घातक होगा कि लोकप्रियता को भी राज्यव्यवस्था तथा बाजार के द्वारा नियंत्रित और उत्पादित किया जाता है। वह स्वतःस्फूर्त नहीं होती। अगर पुस्तक की दुकानों से प्रेमचंद के साहित्य को हटाकर वहां केवल अंग्रेजी साहित्य बेचा जाए या चैनलों से बिरजू महाराज और कुमार गंधर्व को विलुप्त कर वहां केवल सपना चौधरी के फूहड़ नाच या कपिल शो की कामेडी को दिखाया जाए तो लोकप्रियता किसकी स्थापित होगी, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
यानी किसी समय की राजनीति, अर्थनीति और सूचनानीति मिलकर तय कर लेते हैं कि क्या लोकप्रिय होगा और क्या नहीं। इसीलिए जो साहित्य मनुष्यता, स्वाधीनता और महान मूल्यों के पक्ष में है, उसे लोकप्रिय होने में बहुत बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उसमें लोकप्रियता के गुण होते हैं, पर उसे आम जनता तक पहुंचने नहीं दिया जाता है।
(5)लोकप्रियतावाद के साथ एक समस्या यह है कि इतिहास में उसके बड़े भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। एक समय अमेरिका तथा रूस में ‘स्माल मैन’ की अवधारणा का जन्म हुआ, जिसमें बड़े बैंकों और बड़े निवेशकों के द्वारा उपेक्षित बहुसंख्यक छोटे किसानों के पक्ष में राजनीति करने को कहा गया तथा इसे पॉपुलिज्म से जोड़ा गया। इसने ग्रामकेंद्रित अर्थनीति और किसानों की वकालत की।
1960 के दशक का समय ‘न्यू सोशल मूवमेंट’ का समय भी है, जब समलैंगिक अधिकारों, पर्यावरण, शस्त्रविरोध, शांति, स्त्री अधिकारों, अश्वेत-अधिकारों को लेकर एक-नए लोकप्रिय आंदोलन जन्म लेने लगे, जिन्होंने स्टेट यानी राज्य की पुरानी कार्यप्रणाली को प्रश्नांकित कर दिया। इसने नए कानून बनवाने के लिए जनता से सीधा संवाद किया तथा परंपरागत दलगत जनप्रतिनिधियों की सत्ता को नकार दिया। इसकी बुनियाद ‘सामूहिक संदर्भों में निजी हित’ (पर्सनल डेवेलपमेंट इन कोलेक्टिव कांटेक्स्ट) की अवधारणा पर केंद्रित थी।
पर इतिहास में एक समय ऐसा ‘पॉपुलिज्म’ भी आया, जिसने हिटलर जैसे तानाशाह को पैदा किया और उसने यहूदियों के खिलाफ घृणा को पूरे समाज में फैला दिया। भारत में भी इस समय ऐसा ही दौर है जब सिनेमा, शिक्षा, राजनीति हर जगह उदारपंथी सोच पर हमला कर जनता की धार्मिकता को भड़काया जा रहा है और यह भी लोकप्रियतावाद का लक्षण है। अमेरिका में ट्रंप ने अप्रवासियों, मुस्लिमों और चीनियों के विरोध में उग्र भाषण देकर अपने को काफी लोकप्रिय बना लिया था। यानी लोकप्रियतावाद स्वयं में मूल्यनिरपेक्ष नहीं होता और न वह कोरा अकादमिक विषय है।
यदि गांधी जैसे नेता लोकप्रिय होता है तो उससे समाज में शांति और सहिष्णुता के मूल्य फैलते हैं, पर गोडसे को यदि लोकप्रिय बनाया जाने लगे तो हत्या और प्रतिशोध की बुराइयां ही लोकतंत्र के भीतर पनपने लगती हैं। लोकतंत्र कुछ संवैधानिक मूल्यों और संस्थाओं/न्यायप्रणाली की स्वतंत्रता पर आधारित होता है, न कि लच्छेदार भाषण करने वाले नेताओं के राजनीतिक स्वार्थों पर। जिन्हें लोकतंत्र की चिंता है, उन्हें सचमुच ऐसे साहित्य, कला और कथित जननेताओं से जनता को सावधान करना होगा, जो संविधान से ऊपर किसी धर्म-बिरादरी की सत्ता को स्थापित करने के नाम पर जनता का भावनात्मक दोहन करते हैं।
403, सुमित टॉवर, ओेक्स हाइट्स, सेक्टर-86, फरीदाबाद, हरियाणा-121002 मो.9711312374
विनोद शाही |
लोकप्रियतावाद विविधता को ‘हम’ और ‘वे’ में विभाजित कर सकता है
(1)लोकप्रियतावाद की पहुंच जनता के उस वर्ग तक अधिक होती है, जिसका एक खास तरीके से राजनीतिकरण हो गया होता है। इस वर्ग का संबंध उस राजनीतिक विचारधारा से है, जो खुद को मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानती है। इस विचारधारा का गठन राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता जैसी चीजों की विभाजनकारी सोच को लोकतांत्रिक शक्ल प्रदान करने से होता है। इसकी पहुंच समाज के एक व्यापक वर्ग तक हो सकती है, पर जरूरी नहीं कि वह सभी को यकसां प्रभावित करती हो।
साहित्य और कलाओं के संदर्भ में उसे सत्ता-ज्ञान की संस्कृति से संबंधित माना जा सकता है। लोकतांत्रिक राजनीति के उभार के उत्तर-काल में, लोकप्रियतावाद के द्वारा समाज की सोच और समझ को नियंत्रित करने का प्रयास लगातार बढ़ता गया है। उसी अनुपात में इसने साहित्य और कलाओं की दुनिया को भी, विचारधारा के तल पर, दोफाड़ करने की कोशिश की। परंतु वह बहुत गहरे में उतर पाई हो, ऐसा नहीं लगता।
आधुनिक-काल की शुरुआत में साहित्य और कला की दुनिया पर ‘शिक्षित समाज’ का वर्चस्व अधिक था। हमारे यहां भी साहित्येतिहासकार रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को, शिक्षित समाज की चित्त वृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना है। यह सोच, लोकप्रियतावादी सोच और समझ के उलट है।
राजनीति में सामंत, बूर्जुआ एवं पूंजीपति के वर्चस्व को उलटते हुए, जनता या लोक के प्रतिनिधि, खुद को सत्ता में लाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। समांतर रूप में साहित्य और कलाओं की दुनिया में जो उलटफेर हुआ है, वह प्रतिनिधित्व-मूलक उतना नहीं है, जितना अंतर्वस्तुमूलक। लोक-साहित्य और लोक कला के प्रतिनिधित्व का मुद्दा, अभी तक मुख्यधारा का केंद्रीय स्वर नहीं हो सका है। इससे साहित्य और कलाओं में लोकप्रियतावाद की भूमिका और प्रभाव के कुछ भिन्न होने का अनुमान लगाया जा सकता है। साहित्य और कलाओं में लोक-केंद्रित राजनीति के प्रभावी होने की संभावनाएं अधिक नहीं दिखतीं। फिर भी हिंदूवादी अथवा इस्लाम या सिखपरस्त साहित्य को अगर कोई शेष साहित्य से बेहतर बनाने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप करता है, तो उसे साहित्य में लोकप्रियतावादी प्रवृत्ति के उभार की तरह अवश्य देखा जा सकता है। इसके बावजूद लोकप्रिय साहित्य लोकप्रियतावादी साहित्य भी हो, यह जरूरी नहीं है।
लोकप्रियतावाद के आधार हैं, लोकतंत्र की अनेक तरह की विभाजनकारी सियासतें। दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान, लोकप्रियतावाद का एक रूप, फासीवाद की तरह भी दिखाई देता है। वह लोक की अपनी तरह की व्याख्या के लिए, राष्ट्रवाद और नस्लवाद को आधार बनाता है।
हालांकि इसमें सभी की व्यापक सहमति नहीं होती, परंतु सत्ता खुद को जनता का वास्तविक प्रतिनिधि मानती है। यही स्थिति समाजवादी चिंतन-धारा से जुड़े लोकप्रियतावाद की है। उसके भीतर से ऐसे तानाशाह प्रकट हुए हैं, जो पूरे समाज को एक ही लाठी से हांकने की कोशिश करते रहे हैं। यह सवाल किसी विचारधारा के अच्छे या बुरे होने का नहीं है। उस आधार पर व्यापक प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली राज्य-सत्ता के केंद्र में आने का है।
पर साहित्य और कलाओं में ‘हम’ और ‘वह’ के बीच इस तरह का स्पष्ट विभाजन अक्सर दिखाई नहीं देता। फिल्म और मीडिया में इस तरह के लोकप्रियतावादी रुझान अनेक दफा सिर उठाते अवश्य दिखाई देते हैं। राष्ट्रवाद, पुनरुत्थान, भक्तिवादी मर्यादा या नैतिकता, दरिद्र-नारायण, अल्पसंख्यकों अथवा वंचित जनसमूहों और जन-कल्याणकारी नीतियों के आधार पर समाज के अंतर्विभाजन की कोशिशें, इनका उदाहरण हैं। यहां ध्यान रखना ज़रूरी है कि देशभक्ति के आधार पर कोई फिल्म यदि लोकप्रिय होती है तो उसे हम लोकप्रियतावादी नहीं कह सकते। लोकप्रियतावादी तत्व उसमें तभी दिखाई देंगे, जब वह अपने समाज के किन्हीं लोगों को, देशभक्त और अन्य जनसमूहों को गद्दार या राष्ट्र-विरोधी घोषित करने के लिए प्रयास करें।
साहित्य और कलाएं कई बार समाज के इस तरह के अंतर विभाजन के लिए भक्तिवादी नैतिकता, पुनरुत्थान अथवा राष्ट्रवाद का सहारा लेकर, मिथकों और इतिहास-नायकों को विभाजित कर सकती हैं। इसी तरह समाजवादी साहित्य में वर्ग विभाजन विद्वेषपूर्ण रुझान में बदलता दिखाई दे सकता है।
ऐसे में साहित्य की आलोचना, अपनी भूमिका निभाने के लिए, अनेक बार आगे आ जाती है। ऐसे साहित्य को राजनीतिक दुष्प्रचार की कोटि में रखकर, उससे लोहा लेने की कोशिश ़होती है।
अतः हम यह कह सकते हैं कि साहित्य और कलाओं की दुनिया, एक हद तक ही लोकप्रियतावाद का शिकार होती है और एक हद तक ही ऐसे रुझानों के पक्ष या विपक्ष में लोगों को प्रभावित कर पाती है।
(2)लोकप्रियतावाद के पुराने रूप, राजनीति के द्वारा धर्म के सांप्रदायिक इस्तेमाल से अधिक जुड़े हुए थे। परंतु राज-सत्ता इस प्रवृत्ति का इस रूप में गठन नहीं कर पाती थी कि खुद को व्यापक जन-समाज के वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में स्थापित कर सके। पुरोहिताई के प्रतिनिधि होने भर से अब काम चलना बंद हो गया है। राष्ट्रवाद का गठन और उसे लोकप्रियतावाद की शक्ल देने का काम, ठीक से आधुनिक लोकतंत्र में ही संभव हुआ है। इससे पहले राजसत्ता को आप तानाशाहों या उदार शासकों में विभाजित कर सकते हैं। परंतु वे मौजूदा अर्थ में लोकप्रियतावादी नहीं कहे जा सकते।
मीडिया पर राज-सत्ता के नियंत्रण से यह संभव है कि उसे लोकप्रियतावाद के प्रचार-अभियान का एक अंग बना लिया जाए। लोकतंत्र के साथ स्वतंत्र पत्रकारिता को भी एक मूल्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया था। लोकतंत्र का संबंध समाज की विविधता-बहुलता को बचाए रखने के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। स्वतंत्र पत्रकारिता इसमें उसकी मदद करती है। लोकप्रियतावाद लोकतंत्र के भीतर से ही जन्म लेता है, परंतु वह इस विविधता-बहुलता का दमन करके उसे, ‘हम’ और ‘वह’ के बीच विभाजित कर देता है।
मीडिया पर राज-सत्ता का कब्जा होने से समाज के इस ध्रुवीकरण को और अधिक गहराया जा सकता है। फिर उसे लोगों की आकांक्षाओं से जोड़ दिया जाता है। विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नाम पर इस ध्रुवीकरण को और गहराया जाता है। जैसे हमारे यहां हिंदू-मुसलमान के बीच विभाजन को गहराने के लिए मीडिया-बहसें प्रायोजित की जाती हैं। इनमें ऊपर से लगता है कि हिंदू और मुसलमान दोनों को बोलने का बराबर मौका मिला है, परंतु हकीकत में उसका प्रयोजन इन दोनों वर्गों के बीच वैमनस्य और दूरी को और बढ़ाने का होता है। इस तरह की कोशिशें लोकप्रियतावादी एजेंडे की पूर्ति के रूप में हमारे सामने आती हैं।
मीडिया की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले लोग इस प्रवृत्ति का विरोध करते हैं। भारत में पिछले कुछ समय में मुख्यधारा के मीडिया पर राज-सत्ता के कब्जे के बाद हुआ यह है कि बहुत से महत्वपूर्ण मीडिया कर्मियों ने अपने स्वतंत्र चैनल खोल लिए हैं। बेशक उनकी पहुंच लोगों तक उतनी नहीं है। परंतु वे इस प्रवृत्ति के एक विकल्प की तरह हमारे सामने अवश्य दिखाई देते हैं।
(3)लोकप्रियतावाद का दावा यही होता है कि वह एलीट अथवा अभिजात के विरोध में जनता की आवाज को बुलंद करने के लिए प्रयासरत है। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि लोकप्रियतावादी सत्ता अपनी सांस्थानिक गतिविधियों का नेतृत्व करने के लिए अपने नए ‘एलीट’ या अभिजात खड़े कर लेती है। लोकप्रियतावादी एलीट अपने इस कार्य की पूर्ति के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कब्ज़ा करने की कोशिश करता है। वह विचारों की लड़ाई लड़ने के बजाय, भावनाओं और सपनों की लड़ाई अधिक लड़ता है। वह खुद को व्यापक जनता की भावनाओं और उम्मीदों के प्रतिनिधि के रूप में पेश करता है। उनके विरोध में बात करने से जनता की भावनाओं के आहत होने के खतरे को भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल में लाया जाता है। विरोध की आवाजों को जनता-विरोधी या राष्ट्र-विरोधी कह कर दबाया जाने लगता है।
इस तरह लोकप्रियतावाद का प्रतिनिधित्व नई विचारधारा वाले नए एलीट द्वारा होने लगता है। सामाजिक मुद्दों और समस्याओं पर वैज्ञानिक बहस के स्थान पर राष्ट्रवादी भावनाओं और पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को अकाट्य तर्कों का रूप दे दिया जाता है। इन्हें पराजित करना, राष्ट्र-द्रोही होने के आरोप से बचे बिना, कठिन है।
मध्यकालीन सोच वाले अनेक राष्ट्र अपने यहां ईश-निंदा कानून को संवैधानिक रूप में लागू करते हैं। वह भी विरोध को दबाने का एक तरीका है। लोकप्रियतावादी यही काम अपने नए एलीट के माध्यम से करते हैं। परंतु उनके लिए पुनरुत्थानवादी नैतिकता और राष्ट्रवादी सियासत काम की चीज अधिक होती है। इससे पूरे राष्ट्र को वैज्ञानिक और आलोचनात्मक विवेक के स्थान पर, अतीत में हुए अन्याय का बदला लेने और खुद को दुनिया का सिरमौर बनाने के लिए, गैर-जरूरी बहस में उलझा दिया जाता है। कुल मिलाकर विवेकपूर्ण जनता की आवाज को ये नए एलीट या अभिजात अपने ‘हम’ और ‘उस’ के विभाजन के द्वारा हाशिए पर डाल देते हैं।
(4)लोकप्रियतावादियों का सीधा और साफ सरोकार यह होता है कि समाज की सभी विविधताओं और बहुलताओं को किसी प्रकार उनकी ‘हम’ की व्याख्या के द्वारा आत्मसात कर लिया जाए। दलित, स्त्री, वनवासी, प्रवासी, अश्वेत आदि जितनी भी ‘सबाल्टर्न’ जनसमूहों की कोटियां हैं, उन्हें लोकप्रियतावादी तर्क के द्वारा या तो राजसत्ता के पक्ष में लाया जाता है, या फिर उन्हें विभाजित करके एक-दूसरे के विरोध में इस तरह खड़ा कर दिया जाता है, जैसे उनके बीच देश के दुश्मनों ने घुसपैठ कर ली है। हाल ही के किसान आंदोलन में इस तरह के प्रयास साफ तौर पर दिखाई देते रहे हैं। किसानों के गांधीवादी विरोध को ठुस्स करने के लिए कोशिश की गई कि उनमें किसी प्रकार खालिस्तानी तत्वों को प्रविष्ट करा दिया जाए। ऐसा होने पर उनका दमन संभव हो सकता था।
जन-सुधार के वे प्रयास, जो किसी ‘सबाल्टर्न’ समूह को अधिक फायदा पहुंचाते हैं, उन्हें ‘रेवड़ियां बांटने’ का नाम देकर भी निशाने पर लिया जाता है। इस तरह भारत में ‘सबाल्टर्न’ जन-समूहों को, हिंदूवादी और गैर हिंदूवादी, या भारतीय अथवा अभारतीय जन-समूहों में विभाजित करने की कोशिशें होती रहती हैं। इससे वास्तविक समस्याएं हाशिए पर चली जाती हैं। लोकप्रियतावादी रणनीति से राजसत्ता को फायदा पहुंचता है।
(5)मौजूदा समय में लोकप्रियतावाद लोकतांत्रिक होने का दिखावा करने वाली लोकतंत्र-विरोधी विचारधारा के रूप में हमारे सामने है। इसे पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में दक्षिण पंथ की वापसी की तरह भी देखा जा रहा है।
लोकतंत्र की आत्मा विविधता और बहुलता को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने और समाज के सभी वर्गों को समानता के आधार पर न्याय देने से जुड़ी हुई है। जब समाजवाद को गिराने की बात थी, तब पश्चिम लोकतंत्र की विश्व विजय की बात कर रहा था। तब पूरी दुनिया में लोकतंत्र के विस्तार की बात सामने आ रही थी। परंतु जैसे ही समाजवाद गिरा लोकतंत्र के पैरोकार राष्ट्र, भूमंडलीकरण और मुक्त बाजार की लोकतांत्रिक जमीन को छोड़कर खुद को बंद करने लगे।
मुक्त बाजार और भूमंडलीकरण का फायदा केवल उन्हें ही पहुंचना चाहिए, इस आधार पर उनके यहां लोकप्रियतावाद का नया रूप सामने आया। वह प्रवासियों के विरोध में खड़ा हो गया और नौकरियों में अपने देश के अधिक प्रतिनिधित्व की बात करने लगा। लोकतंत्र के इस राष्ट्रवादी रूप ने उसके वैश्विक रूप को धक्का पहुंचाया। प्रवासी जनसमूहों को पश्चिम में ‘सबाल्टर्न’ समूह के रूप में चिह्नित किया जाता है। ‘सबाल्टर्न’ का एक अर्थ दोयम होता है। जो ‘सबाल्टर्न’ है, वह दोयम है। ऐसे में वह लोकतांत्रिक समानता का हकदार कैसे हो सकता है। भले ही उसे संवैधानिक रूप में समान अधिकार दे दिए गए हैं, परंतु सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप में नस्ल-विभेद का सामना प्रवासियों को अक्सर करना ही पड़ता है।
लोकतंत्र का बहुसंख्यकवाद में बदलना और फिर बहुसंख्यकवाद का लोकप्रियतावाद में बदलना, लगातार जारी है। वह उसकी आत्मा को कुंठित करता है और उसके सरोकारों को सीमित बनाता है।
ए 563 पालम विहार, गुरुग्राम–122017 मो.9814658098
अनिल कुमार राय |
संस्कृति का विरूपीकरण लोकप्रियतावाद का जरूरी उत्पाद है
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकप्रियता के तत्वों ने कला और साहित्य की अभिव्यक्तियों को व्यापक सामुदायिक जीवन तक पहुंचाने में सहयोग किया है। दुनिया की विभिन्न सभ्यताओं में बहुत पहले से लोकप्रियतावाद के तत्व मौजूद रहे हैं, वे मनुष्य की चेतना और संवेदना को प्रभावित करते रहे हैं और अनेक बार तो इसी वैशिष्ट्य के कारण कलात्मक-साहित्यिक कृतियां समाज के बीच प्रतिष्ठा प्राप्त करती हुई जन-स्मृतियों में सुरक्षित रही हैं।
आज के दौर में कला और साहित्य के वस्तु-रूप की संरचना में लोकप्रियता के तत्वों की उपस्थिति तथा उसकी अभिव्यक्ति के विभिन्न मंचों, माध्यमों और प्रविधियों की भूमिकाओं को देखें, तो लगता है कि दर्शकों, श्रोताओं और पाठकों की एक बड़ी संख्या इससे जुड़ती चली गई है। संस्कृति-विरोधी कहे जाने वाले आज के समय में यह दृश्य कम आश्वस्तिकर नहीं है। न्यू मीडिया पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार के कंटेंट्स की लोकप्रियता ने एक ऐसा वातावरण निर्मित किया है, जो आज के पहले इस रूप में संभव नहीं था। टीवी चैनल्स में गीत- संगीत के विभिन्न आयोजनों-प्रतियोगिताओं ने नई पीढ़ी के मन में इसके प्रति जिस तरह का आकर्षण और दीवानगी पैदा की है, वह इस नए लोकप्रियतावादी प्रभावों का ही नतीजा है। यह दृश्य इसके पहले कल्पनातीत था।
लोकप्रियता के तर्कों ने ही कला-साहित्य के विकेंद्रीकरण का एक व्यापक दृश्यालेख निर्मित किया है। यह अभी कल तक महज़ कुछ संस्थाओं और अकादमियों के सभागारों और प्रेक्षागृहों के दायरे तक सीमित कुछ एलीट अभिरुचियों की संतृप्ति का स्रोत था। हम अनुभव कर सकते हैं कि कला-संस्कृति के इस लोकतांत्रिक प्रसार के पीछे इसी लोकप्रियतावाद की भूमिका है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों के पुराने रूपों को हाईटेक कविता- महोत्सवों के प्रत्यक्ष और आभासी आयोजनों ने बहुत पीछे छोड़ दिया है। कविता पहले पत्र- पत्रिकाओं, कविता-संकलनों, पुस्तकालयों, कक्षाओं और गोष्ठियों या कुछ कार्यक्रमों तक सीमित थी। आज वह रेडियो से भी आगे, संचार के नए माध्यमों से, अपने लिखित-मुद्रित रूप से बाहर निकलकर खुद कवि की वाणी से, उसकी सजीव छवियों के साथ अपने पाठक को श्रोता-दर्शक में बदलकर उनसे संवाद बना रही है। कवि-लेखक- कलाकर अब इन माध्यमों से अपने उपभोक्तावर्ग के बीच सीधे प्रत्यक्ष उपस्थित है और वहां मिल रही प्रतिक्रियाओं से अपनी लोकप्रियता के नए रोमांचक अनुभव प्राप्त कर रहा है।
नई लोकप्रियतावादी तकनीक ने कवियों- कलाकारों को अपने साथ बनने वाली दर्शकों-श्रोताओं की अंतःक्रिया का जो अनुभव उपलब्ध कराया है, वह उनके लिए अभूतपूर्व है। अनेक कवि-कलाकार साहित्य-संस्कृति के उत्सवों की सार्थकता को अपने इन अनुभवों की नजर से देखते हुए अभिभूत हैं। उनके इस आनंद और सम्मान की अपूर्व अनुभूति को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह भी कला-साहित्य की इस नई लोकप्रियता का ही एक रूप है।
पिछले दिनों गोरखपुर विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के पाठ्यक्रम में लोकप्रिय साहित्य को शामिल किए जाने की खबर आने के बाद एक व्यापक बहस छिड़ गई थी। अखबारों तथा सोशल मीडिया में हफ्तों तक इस मुद्दे पर होने वाली चर्चा छाई रही। लोकप्रिय साहित्य के बारे में लेखकों, शिक्षकों और अध्येताओं के बीच चली उस बहस से निकलकर अनेक प्रश्न सामने आए थे और उन्हें देखते हुए यह अनुभव करना कठिन नहीं था कि इस विषय के अनेक अन्य पक्षों पर भी गंभीरतापूर्वक विचार किए जाने की जरूरत बनी हुई है।
साहित्य और कलाओं की दुनिया में लोकप्रियता के तत्वों का प्रभाव कोई आकस्मिक परिघटना नहीं है। यह सही है कि नई तकनीक से उपजी इसके प्रवृत्तिगत प्रभाव की आक्रामकता ने इसे अभूतपूर्व बना दिया है, पर अपने विभिन्न रूपों में लोकप्रियता का तत्व पहले से मौजूद रहा है और अपने ढंग से यह लोगों को प्रभावित करता रहा है। इसे लेकर चलने वाली चर्चाओं में अनेक लेखकों-पत्रकारों-शिक्षकों को साहित्य की अपनी आरंभिक पाठकीय अभिरुचियों के विकास का श्रेय ‘लोकप्रिय साहित्य’ को देते हुए देखा गया है।
प्रदर्शनकारी कलाएं लोकप्रियता के सबसे बड़े स्रोत के रूप में पहचानी गई हैं। रंगमंच, नृत्य, संगीत और साहित्य के विभिन्न रूपों को याद करें। नौटंकी, रामलीला, रासलीला, आल्हा, बिरहा से होते हुए रोमानी-जासूसी उपन्यासों तक की फैली हुई यह दुनिया ‘लोकप्रिय’ से कभी भी विच्छिन्न नहीं रही है। कला और साहित्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों की प्रकृति और संरचना के अंतर के बावजूद इनके कलात्मक संप्रेषण, प्रभाव और आस्वाद में लोकप्रियता के मानकों की चिंताएं प्रायः मौजूद रही हैं।
कला और साहित्य के किसी पाठक, दर्शक, श्रोता या ग्रहीता की अभिरुचियों के निर्माण और विकास में लोकप्रियता के तत्वों की प्राथमिक भूमिकाओं को स्वीकार करते हुए भी यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि कल का ‘लोकप्रिय’ अब ‘लोकप्रियतावाद’ में विकसित हो चुका है। कला-साहित्य के पुराने ग्रहीताओं की जगहों पर अब ज्यादातर एक नए उपभोक्ता-वर्ग ने कब्जा जमा लिया है। यह अचानक नहीं हो गया है। पूंजी, बाजार और टेक्नोलॉजी की नई बनती संधियों के गर्भ से इस नए परिदृश्य का जन्म हुआ है । इसका स्वरूप मिश्रित है। बाई प्रोडक्ट के तौर पर यहां एक साथ बहुत सारी रचनात्मकताओं का दिख जाना असंभव नहीं है। संस्कृति का विरूपीकरण इस ‘लोकप्रियतावाद’ का एक अनिवार्य उत्पाद है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है।
नई टेक्नोलॉजी ने लोकप्रिय कला-साहित्य के पारंपरिक रूपों को काफी हद तक बदल दिया है। नई टेक्नोलॉजी पुरानी को चलन से बाहर कर ही देती है। इस प्रक्रिया में वह पुरानी टेक्नोलॉजी पर आधारित कला-साहित्य के पुराने रूपों को अपने ढंग से नियंत्रित-नियोजित करती है और फिर उसका नतीजा यह होता है कि टेक्नोलॉजी के साथ ही कला-साहित्य के पुराने पड़ गए रूप भी बदल जाते हैं। उन्हें अपना नया रूप-संस्कार करना पड़ता है।
नई टेक्नोलॉजी के कारण जन-संचार-माध्यमों के क्षेत्र में बड़े बदलाव हुए हैं और पुराने मुद्रित कला-साहित्य-रूपों को अपने नए संस्करण बनाने पड़े हैं। अब पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं का स्थान इलेक्ट्रॉनिक-डिजिटल माध्यमों ने ले लिया है। अब महज एक स्पर्श से साहित्य-कला की डिजिटल-आभासी निर्मितियां हमारी आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो सकती हैं। यह एक नए माध्यम तक किसी कृति के पहुंचने की ही नहीं, पाठक-दर्शक को एक डिजिटल उपभोक्ता में रूपांतरित कर देने की भी नई घटना है। पुराने दृश्य-श्रव्य माध्यमों से प्रत्यक्षतः हमारी इद्रियों का जो संबंध बनता था, नए बनने वाले संबंध अब नहीं रह गए हैं!
इधर बहुत सारी पत्र-पत्रिकाएं बंद हुई हैं। यदि प्रकाशित हो रही हैं, तो उनकी प्रसार-संख्या में कमी आई है। बच्चों की पत्रिकाओं और उनकी चित्र-कथाओं का स्थान नए डिजिटल-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नई प्रस्तुतियों ने ले लिया है। दृश्य और श्रव्यता इसकी एक बड़ी शक्ति है। इस शक्ति के इस्तेमाल से उसने बाल-मनोरंजन के पिछले कला-साहित्य रूपों को लगभग अतीत के स्मरण का विषय बना दिया है।
लोकप्रिय साहित्य के पारंपरिक मुद्रित रूपों की जगह नए मीडिया पर आ रही आभासी छवियों में रची-बसी साहित्यिक निर्मितियों और उसके प्रभाव तथा आकर्षण में ‘लोकप्रियतावाद’ की नई भूमिका देखी जा सकती है। मनोरंजनपरक रहस्य-रोमांच तथा अपराध की कथाओं, रोमानी-जासूसी उपन्यासों के मुद्रित संस्करणों और उनकी प्रसार-संख्या में कमी आई है । टीवी चैनल्स के विभिन्न धारावाहिकों और कार्यक्रमों ने उनकी जगह ले ली है। इन्होंने कहानी-उपन्यास के ‘पाठ’ को अब आंखों-कानों की आस्वादपरक इंद्रियानुभूति में परिवर्तित कर दिया है। ‘पाठ’ का विलोपन नहीं हुआ है, वह नए डिजिटल फॉर्म में अब हमारी उंगलियों की जद में है। ब्लॉग्स, पेज, साइट्स, किंडल आदि के प्रयोग पाठ आधारित ही हैं। यह सब टेक्नोलॉजी के नए विकास से ही संभव हुआ है। पर, टेक्नोलॉजी ने पाठ की ‘दृश्यता’ को यूट्यूब और ऑनलाइन की दृश्यात्मक श्रव्यता में बदल दिया है। यह इंद्रियों के आपसी तालमेल और घमासान का दौर है।
‘पाठ’ के साथ पहले केवल आंख थी, पर अब कान भी जुड़ गया। आंखों के लिए भी अब केवल लिपि नहीं, उसके साथ उसे प्रस्तुत करती रंगीन छवियां और उनकी सजीव गति-क्रियाएं, सभी उपलब्ध हैं। लोकप्रियतावाद के ये सूत्र बहुत गहरे और व्यापक हैं। इन सबने मिलकर एक नया वातावरण बनाया है, जिसमें पुरानी किस्म की लोकप्रियताएं पीछे छूटती चली गई हैं।
शास्त्र और लोक की भांति ही अभिजात रुचियों वाले सांस्थानिक मानदंडों और लोकप्रियतावाद के बीच द्वंद्व है। कला-साहित्य के शास्त्रीय मानकीकरण के पीछे सृजनात्मक क्षमता, अध्ययन, रुचि और संस्कार के वर्गीय-सामुदायिक आधार हैं तथा उसकी सौंदर्यशास्त्रीय अभिरुचियों, कल्पनाशीलता और आस्वादबोध के अपने सामाजिक-सांस्कृतिक तर्क। कला-साहित्य-संस्कृति की ये निर्मितियां प्रायः अपने वर्गीय आधारों से जुड़ी पाई जाती हैं। लोकप्रियतावाद इस सांस्थानिक सौंदर्यशास्त्र और उसके शास्त्रीय मानकीकरण की स्थापित पद्धति को तोड़ता है। वह अपने एक नए रूप में एक नई अंतर्वस्तु प्रस्तावित करता है। वह हाशिए पर छोड़ दिए गए, या वर्चस्वी धारा से बहिष्कृत कर दिए गए कला-साहित्य के वस्तु-रूप की, स्थापित और प्रचलित ‘वस्तु-रूप’ के समानांतर एक प्रभावी मौजूदगी दर्ज कराना चाहता है। स्थापित सौंदर्यशास्त्र को उसकी यह कोशिश स्वीकार्य नहीं होती। उसे अपने आभिजात्य के आरक्षित दायरे में हाशिए का यह अवैध अतिक्रमण जैसा लगता है। लोकप्रियतावाद उसे अपने प्रतिद्वंद्वी की तरह नज़र आने लगता है ।
हम विचार करें, तो कई बार लोकप्रियतावाद प्रतिद्वंद्वी की जगह अभिजात कला-साहित्यिक अभिरुचियों और उसके सौंदर्यशास्त्र के परिसर में छूट गई कुछ खाली जगहों को भरता हुआ दिखता है। इन जगहों पर उसे प्रतिद्वंद्वी नहीं, पूरक की भूमिकाओं में देखा जा सकता है। केवल आनंद और मनोरंजन जैसी जगहों पर नहीं, साहित्य की मुख्य धारा में देश-दुनिया, जीवन और समाज के कुछ गैरजरूरी समझकर नजरअंदाज कर दिए गए प्रसंगों पर केंद्रित होते हुए लोकप्रियतावाद अपने एक विरल महत्व की भूमिका में खड़ा नजर आता है।
‘साहित्य का समाजशास्त्र’ लोकप्रियतावादी प्रवृत्तियों के रचनात्मक स्रोतों को शोध और अध्ययन का विषय बनाता है और अनुभव करता है कि जीवन-जगत के प्रत्यक्ष यथार्थ से पूरी तरह असंबद्ध और कोरी काल्पनिक दिखती कृतियों में भी कहीं बहुत गहरे और अदृश्य स्तर पर एक प्रतीकात्मक संरचना के भीतर अपने समय और समाज के यथार्थ की अनुगूंजों को सुन-समझ पाना असंभव नहीं है। ऐसे यथार्थ को, उसके मूल रूप में पकड़ने के लिए कला-साहित्य की व्याख्या की प्रचलित प्रविधियों से भिन्न साहित्य के समाजशास्त्र के अपने उपकरणों का उपयोग जरूरी होता है।
लोकप्रियतावाद के मूल्यांकन के खतरों से भी सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल, कला-साहित्य की दुनिया में इसकी अनेक भूमिकाएं हैं। यह मिश्रित प्रभावों और परिणामों वाली प्रवृत्ति है। इसने कला-साहित्य की अति बौद्धिक, जटिल और गंभीर दुनिया के सापेक्ष साधारण जन तक को उपलब्ध हो सकने वाले एक सहज-संप्रेषणीय कला-साहित्य रूप का एक विकल्प प्रस्तावित किया है, तो दूसरी ओर इसने अपने से इतर वैचारिक और सृजनशील कला-साहित्य रूप की शक्ति और संभावनाओं के क्षेत्र में भी दखल देने की कोशिश की है।
लोकप्रियतावाद ने कला-साहित्य की एक बेहद जरूरी भूमिका के महत्व को संदिग्ध बना दिया है। वंचित-उपेक्षित सामान्य जन के पक्ष में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना के निर्माण और उनकी संघर्ष- चेतना के संगठन की किसी प्रगतिशील- क्रांतिकारी भूमिका की इससे अपेक्षा नहीं की जा सकती। लोकप्रियतावाद के प्रभाव के दायरे में लिखे और रचे जा रहे कला-साहित्य से पाठ और दृश्य-श्रव्य के आनंद और मनोरंजन से बहुत आगे की कोई उम्मीद पालना व्यर्थ है। प्रदीप सक्सेना द्वारा देवकीनंदन खत्री और उनकी चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति के किए गए विश्लेषण के प्रसंग में हम संपूर्ण लोकप्रियतावादी उत्पादों के मूल्यवान होने का तर्क नहीं दे सकते। साहित्य के समाजशास्त्र के अंतर्गत ऐसी कृतियों के सार्थक सामाजिक अभिप्राय तलाश करने की कोशिशें की जा सकती हैं। पर इन कोशिशों के सार्थक परिणाम ही निकलेंगे, इसका दावा नहीं किया जा सकता।
हिंदी पट्टी में इक्के-दुक्के लेखकों-गायकों- कलाकारों के उदाहरण से लोकप्रियतावादी कला- साहित्य की किसी प्रगतिशील सामाजिक भूमिका की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। लोकप्रिय और सृजनशील का ऐसा ध्रुवांतक अंतर पहले नहीं था। लोकप्रियतावाद मनुष्य के, समाज के, जीवन- जगत के परिवर्तन और अपने इतिहास तथा वर्तमान की व्याख्या के तर्कों को विस्थापित कर, आंख मूंदे अपनी ही चुनी हुई राह चलेगा, तो दुखी- पीड़ित आम लोगों के बीच भला कौन-सी भूमिका निभा सकेगा!
लोकप्रियतावाद और लोकतंत्र के बीच के वर्तमान संबंध के मूल्यांकन के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ की बात करें, तो यहां कहना जरूरी होगा कि भारतीय लोकतंत्र का इतिहास लोकप्रियतावादी फार्मूलों के प्रयोग की असंख्य दुर्घटनाओं का इतिहास है। इसे देखें, तो पता चलता है कि लोकप्रिय होना लोकबद्ध होना नहीं है। लोकबद्ध के अलोकप्रिय होने और लोकप्रिय के लोकविरोधी होने के बेशुमार साक्ष्यों से भारतीय जनता का सामान्य ज्ञान भरा पड़ा है।
लोकप्रियतावाद वर्तमान लोकतंत्र के लिए खतरा है। मीडिया, प्रचार, विज्ञापन और अनेकानेक माध्यमों से लोकप्रिय बनाए जाने के कपटपूर्ण अभियानों ने लोकप्रियता के पारंपरिक, मूल्याधारित और किंचित शास्त्रीय मानदंडों वाले पुराने युग के अवसान की घोषणा कर दी है। वर्तमान किस्म का लोकप्रियतावाद विज्ञापन-तंत्र और मीडिया के कारखाने में तैयार किया गया एक उत्पाद है, जो बाजार में आकर असली-नकली का भेद खत्म कर दे रहा है।
लोकप्रियतावाद और लोकतंत्र के वर्तमान संबंध को सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ के साथ कला-साहित्य के संदर्भ में भी यदि एक रूपक की तरह रखकर समझने की कोशिश की जाए, तो कई तरह की व्याख्याएं बनती नज़र आती हैं। सामाजिक- राजनीतिक लोकतंत्र का अभिजनवाद बहुसंख्यकवादी हस्तक्षेपों को बौद्धिक, परिष्कृत, स्तरीय और श्रेष्ठ मानकों पर आधारित समाज-व्यवस्था की कल्पना के लिए जैसे अहितकर मानता है, वैसे ही वह कला-साहित्य के लोकतंत्र के लिए भी लोकप्रियतावाद के पीछे मौजूद बहुसंख्यकवाद के तर्कों को खतरनाक मानता है। उसके लिए संस्कृति के लोकतंत्र में लोकप्रियतावाद का प्रवेश कलात्मक आदर्शों और मर्यादाओं का निषेध है। यह सिर्फ शास्त्रीय धारणा नहीं है। लोकप्रियतावाद हिंदी की कला-साहित्य की दुनिया में जो करता दिख रहा है, उसकी एक तस्वीर तो यह है ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
पर, इसे ही पूरा सच मान बैठने की गलती नहीं की जा सकती। इसे भला कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि कला-साहित्य की दुनिया के सांस्कृतिक लोकतंत्र के अभिजनीकरण के भी अपने ख़तरे हैं, जिनके अनेक रचनात्मक जवाब लोकप्रियतावाद ने अपने ढंग से ढूंढने की कोशिश की है। इस द्वैध में भी लोकप्रियतावाद की भूमिकाओं की गहरी शिनाख्त की जाने की जरूरत है। यह जरूरत इसे अस्पृश्य और अविचारणीय मानकर नहीं, कला-साहित्य के समाजशास्त्र की एक गंभीर समस्या के रूप में शोध और अध्ययन का विषय बनाकर ही पूरी की जा सकती है।
एच – 15 , हीरापुरी, विश्वविद्यालय परिसर, गोरखपुर–273009 (उप्र) मो.9415080500
संपर्क : 20/1, खगेंद्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कोलकाता-00002 मो..8420627693
चर्चित युवा कवि तथा लेखक अच्युतानंद मिश्र का यह कथन की वही साहित्य श्रेष्ठ है जो आलोचनात्मक विवेक पैदा करे अपने आप में काफी कुछ कहता है।
जरूरी विषय पर अर्थपूर्ण चर्चा।