युवा लेखिका और संस्कृतिकर्मी। विद्यासागर विश्वविद्यालय से हाल में डॉक्टरेट की उपाधि। कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
आज की कहानी नई रचनाधर्मिता और सामुदायिक उभार के कारण बदली दिखती है। इसका स्वर जितना आधुनिक विमर्शों से जुड़ा है, उतना ही वह आपस में विच्छिन्न भी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि 20 वीं सदी के अंतिमडेढ़ दशक और 21 वीं सदी के प्रथम दो दशकों में हिंदी कहानी का मूल स्वर स्त्री, दलित और आदिवासी जीवन से जुड़ता गया। इसकी वजह यह है कि नई सदी की नई आर्थिक नीतियों ने वंचित और कमजोर वर्गों को पहले से ज्यादा हाशिए पर धकेल दिया है। हाशिए पर धकेले गए इन समुदायों की विविधतापूर्ण आवाजें हिंदी कहानी में सुनी जा सकती हैं।
‘मुझे किस बात का डर है? मैं व्यस्क हूँ, निडर हूँ, स्वावलंबी हूँ। आधुनिक विचारों की समर्थक हूँ। परंपराओं की जड़ में पड़े सड़ते रहने की अपेक्षा, अपनी नजर या दृष्टिकोण से उचित को अपनाकर, समय के साथ परिवर्तन की पक्षधर हूँ। |
‘कथारंग’दलित रचनाकार सुशीला टाकभौरे का नवीनतम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में अलग-अलग मिजाज की 39 कहानियां संकलित हैं। इनका मुख्य स्वर स्त्री दलितों के जीवन सत्य से जुड़ा है। वे भूमिका में अपने लेखन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखती हैं, ‘मेरे लेखन का उद्देश्य प्रमुख रूप से दलित विमर्श और स्त्री विमर्श है। इस दृष्टि से मैंने शोषित, पीड़ित एवं मानवीय अधिकारों से वंचित दलितों और स्त्री वर्ग की वास्तविक स्थिति से समाज को परिचित कराने का प्रयत्न किया है…। 21वीं शताब्दी में भी वर्ण भेद, जाति भेद और लिंग भेद की मानसिकता समाज में व्याप्त है।’ सुशीला टाकभौरे समाज में व्याप्त ऐसे भेद, विषमता और पुरुषसत्तात्मकता से चिंतित हैं।
‘कथारंग’ में जीवन के असंख्य रंग हैं। लेखिका अनुभूति की प्रामाणिकता के साथ दलित स्त्री-जीवन के आख्यान को अपनी कहानियों में दर्ज करती है। उसकी कहानियों में आए स्त्री-चरित्र कई स्तरों पर शोषण और अन्याय का शिकार होते हैं। एक ओर वे लिंगभेद तो दूसरी ओर जातिभेद – वे दोहरे दंश में पिसती हैं। ‘टूटता वहम’ कहानी में शिक्षित समाज की सवर्ण स्त्री की मानसिकता की ओर इशारा है। जब सवर्ण शिक्षिका अपने स्कूल की बाई के बारे में कहती है- ‘अपने सामने बाई गंदगी साफ करती है और बिना नहाये-धोये अपने पास बैठे, यह तो सचमुच अच्छा नहीं लगता।’ लेखिका का मन ऐसी बातें सुनकर बेचैन हो उठता है। यही वजह है कि वह अपने वंचित पात्रों के साथ पूरी सहानुभूति रखते हुए उनके आत्मसम्मान की जरूरत बताती है।
इस संग्रह की कहानी ‘धूप से भी बड़ा’ में रमा नाम सेएक ब्राह्मण चरित्र है, जो पति के अत्याचारों से व्यथित है। शराबी पति का नशे में गालियां बकना, मारना-पीटना उसे बर्दाश्त नहीं होता। लेखिका रमा को बेबसी के खांचे से बाहर निकालती है। इसलिए वह साहस के साथ कहती है ‘मैं सदा के लिए इस घर को छोड़कर जा रही हूं।…मैं बंटी से तलाक लेना चाहती हूं।’ सुशीला टाकभौरे के यहां स्त्री-पात्र कमजोर नहीं बल्कि साहसी और विवेकवान हैं। रमा अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए ब्राह्मण जाति के फ्रेम को तोड़कर एक पिछड़ी जाति के लड़के सुनील से विवाह कर लेती है। एक समय जाति भेद के प्रश्न पर सिकुड़ी रमा आगे चलकर जाति बंधन से खुद को मुक्त करती है।
सुशीला टाकभौरे की कहानियां वर्णनात्मक शैली में हैं। छोटी-छोटी घटनाओं के जरिए वे जीवन में एक बड़े सूत्र की तलाश करती हैं। वे स्त्रियों की उन बातों को नोटिस करती हैं, जिन्हें अधिकांश महिलाएं कह नहीं पाती हैं। इन कहानियों में एक बात यह है कि इनमें आसपास की घटनाओं के विवरण, सूचनाएं और संदर्भ ज्यादा हैं।
धर्म, परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों को बांधने का प्रयास हमारे समाज में होता रहा है। समर्पण और त्याग के आदर्श के बीच कैसे एक स्त्री को फंसाकर उसे मानसिक रूप से बीमार किया जाता है, उसका वर्णन सुशीला टाकभौरे अपनी कहानी ‘सारंग तेरी याद में’ में करती हैं। पुरुषसत्तात्मक मनुवादी व्यवस्था में बेटियों को सिखलाया जाता है – ‘बेटी दुख-सुख तो अपनी किस्मत का लिखा लेख है।… पति के घर रहकर, उनके परिवार की सेवा करना ही नारी का धर्म है।… दुख हो या सुख, ससुराल में ही रहो, वहीं जियो, वहीं मरो। इसी से तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, इसी से तुम धर्म का लाभ प्राप्त कर सकोगी।’ टाकभौरे स्त्रियों की ऐसी कंडीशनिंग को एक धोखा, लिंगवादी धारणा और संवेदनहीन विचार मानती हैं।
उनकी कहानियों में स्त्री मन की असंख्य दीवारों के पीछे का सच अंकित है। दुनिया की आधी-आबादी अपनी अतृप्त आकांक्षाओं, अशांत मन, थकी देह और दायित्वों के बोझ से दबी चुपचाप जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। लेखिका ऐसी स्थिति को उजागर करने में सफल है। तभी वह अपने एक चरित्र सौदामिनी की कथा की इति नहीं करती- ‘मुझे किस बात का डर है? मैं व्यस्क हूँ, निडर हूँ, स्वावलंबी हूँ। आधुनिक विचारों की समर्थक हूँ। परंपराओं की जड़ में पड़े सड़ते रहने की अपेक्षा, अपनी नजर या दृष्टिकोण से उचित को अपनाकर, समय के साथ परिवर्तन की पक्षधर हूँ।’ लेखिका का ऐसा कहना लैंगिक असमानता और स्त्री पर हो रहे अत्याचारों का विरोध है। वह यह भी मानती है कि संवेदनशीलता के बिना समानता का प्रश्न अधूरा है।
सुशीला टाकभौरे स्पष्ट शब्दों में कहती हैं-‘रोटी कम खाओ मगर बच्चों को पढ़ाओ।’ आज यह जरूरी है कि हम एक ऐसे नागरिक परिवेश का निर्माण करें,जहां सभी के लिए समान अवसर एवं सामाजिक स्वीकार्यता हो।
सुशीला टाकभौरे के ‘कथारंग’ में संकलित ‘संघर्ष’, ‘जन्मदिन’, ‘सिलिया’, ‘चुभते दंश’, ‘मेरा समाज’, ‘कड़वा सच’ आदि कहानियों में दलितों के जीवन का यथार्थ वर्णित है। वह एक कहानी में पूछती है- ‘क्यों जाती हो तुम घर-घर, गली, मोहल्लों में काम करने? क्यों जाती हो? क्यों गांव भर की गंदगी अपने सिर पर उठाती हो? क्या तुम्हारी नाक सड़ गई है?’
दलित लेखिकाएं दलित पुरुषों के समानांतर दलित स्त्री प्रश्नों को ज्यादा प्रमुखता से उठाकर विमर्श को अर्थपूर्ण बनाती हैं।
जिज्ञासा : आपके लिखने का उद्देश्य क्या है?
सुशीला टाकभौरे : मेरे लेखन का प्रमुख उद्देश्य दलित विमर्श और स्त्री विमर्श है। अधिकांश कहानियां जातिवादी उत्पीड़न और लिंग भेद के कारण स्त्री शोषण-उत्पीड़न की सत्य घटनाओं को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इन कहानियों को लिखने का उद्देश्य वर्ण भेद, जाति भेद और स्त्री पुरुष भेद की सामाजिक मानसिकता को तोड़ना है। कानून के समक्ष दलितों और स्त्रियों को सामाजिक समता, स्वतंत्रता और सम्मान का अधिकार मिलने के बाद भी सामाजिक व्यवहार में अभी भी उन्हें शोषित, पीड़ित और अपमानित किया जाता है। इन परंपराओं का अंत होना चाहिए, तभी समाज में समता आ सकेगी। सामाजिक विषमता को खत्म करने के उद्देश्य से, मैंने दलितों और स्त्रियों से जुड़े प्रश्नों को उठाया है।
जिज्ञासा : इन दिनों विमर्श का दौर चल रहा है। क्या धार्मिक सामुदायिक उभार के कारण विमर्श इकहरे और अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं? क्या आपको नहीं लगता कि विमर्शों के बीच साझेपन का संबंध होना चाहिए?
सुशीला टाकभौरे : विमर्शों का विशेष अध्ययन और अध्यापन किया जा रहा है, जिससे स्त्रियों, दलितों आदिवासियों, किसानों आदि के जीवन की समस्याओं को जाना जाए और इनके निराकरण के उपाय खोजे जाएं। इनकी व्याप्ति विश्व स्तर तक है।
विमर्श इकहरे और अलग-थलग कैसे पड़ते जा रहे हैं? यह तो देखने और समझने वालों की दृष्टि पर निर्भर है कि वे इन्हें किस रूप में देखते हैं। स्त्री विमर्श का विरोध पुरुष करते हैं। दलित विमर्श का विरोध गैर-दलित करते है। इसका स्पष्ट संकेत है कि उन्हें अधिक ऊंचाइयों पर न ले जाया जाए। हम अधिक ऊंचाई नहीं, समता चाहते हैं। समता, सम्मान और स्वतंत्रता का अधिवकार हमें भी सबके बराबर मिलना चाहिए। विमर्शों के बीच समभाव और साझेपन का संबंध होना चाहिए, यह केवल मुझे नहीं बल्कि सबको लगना चाहिए। मानवतावादी दृष्टि से, मानवाधिकार के रूप में, सबके साथ समान रूप से न्याय होना चाहिए।
जिज्ञासा : आपकी कहानियों से कई बार ऐसा क्यों लगता है कि आप सामाजिक यथार्थ का वृत्तांत लिख रही हैं, पर कहानीपन छूटता जा रहा है?
सुशीला टाकभौरे : समय और जरूरत के साथ साहित्यिक लेखन में परिवर्तन होते रहे हैं। भाषा, शिल्प और सौंदर्य कहानी में ‘कहानीपन’ को स्थिर रख सकते हैं, मगर जब कहानी का उद्देश्य ही अलग हो, तब? सामाजिक यथार्थ बताना मेरे लेखन का उद्देश्य है। यह यथार्थ कटु है, कठोर है मगर सत्य है। पीड़ा का चित्रण जब जनवादी और अंबेडकरवादी विचारधारा से होगा, तब वह सरल-सहज रूप में उद्देश्य की ओर ही अग्रसर होगा।
कहानी में ‘कहानीपन’ जरूर होना चाहिए। मगर ‘कहानीपन’ के लिए ही कहानी लिखी जाए, तब सामाजिक यथार्थ का वृत्तांत समाज के सामने कैसे लाया जा सकेगा?
कला जब जीवन से जुड़ती है तब उसकी कलात्मकता कम हो सकती है या वह अनदेखी भी की जाती है। जीवन से कला का जुड़ाव अधिक महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। लेकिन मैं मानती हूँ कि कला को जीवन से जोड़ते हुए कलात्मकता को बनाए रखना भी जरूरी है। इसके लिए मैं प्रयत्नशील रहूंगी।
दलित समाज और दलित स्त्री की शिक्षा की समानता का जो लक्ष्य 10 सालों में पूरा किया जाना था, वह आज 75 सालों में भी पूरा नहीं हुआ। इसलिए स्वाभाविक रूप से आज पीछे है। यह चिंताजनक है। पूना पैक्ट के तहत गांधी जी ने जो आश्वासन दिया था अस्पृश्यता के अंत का, वह भी आज तक नहीं हुआ, बल्कि अस्पृश्यता ने नए रूप ग्रहण किए हैं। |
रजत रानी मीनू द्वारा संपादित ‘दलित स्त्री केंद्रित कहानियां’ हाल में आई है। इस संग्रह की अधिकांश कहानियां दलित स्त्रियों के साथ हो रहे भेद-भाव का लेखा-जोखा हैं। इस संग्रह की 23 दलित लेखक-लेखिकाओं की कहानियों की विविधता आकर्षित करती है। इन रचनाओं ने दलित स्त्रियों के जीवन में उपस्थित उत्पीड़न, अशिक्षा, अंधविश्वास, अभाव और कई महत्वपूर्ण समस्याओं की ओर संकेत किया है। हमारे समाज और साहित्य में सामान्यतः दलित समुदाय के अस्तित्व को नकारा जाता है, दलित स्त्रियों के अस्तित्व को ज्यादा नकारा जाता है। भूमिका में रजतरानी मीनू लिखती हैं- ‘दलित स्त्री और उसकी रचनात्मकता को किसी कालखंड में बांधना असंभव है, क्योंकि दलित स्त्रियों और उनके लेखन को नजरअंदाज किया जाता रहा है। दलित स्त्री ही क्यों, संपूर्ण दलित वर्ग और उनके साहित्य को हाशिये पर धकेल दिया जाता रहा है।…यह सोच हाल के आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष तक नहीं बदली है। दलित साहित्य की तरह दलित स्त्रियां भी अस्मिता के लिए संघर्षरत हैं।’
इस संग्रह की कहानियों का मुख्य विषय दलित स्त्री जीवन की त्रासदी है। जयप्रकाश कर्दम की कहानी ‘पगड़ी’ में सरबतिया को सर्वसम्मति से उसकी मेहनत के आधार पर मुखिया का दर्जा दिया जाता है। कहानी उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच खाई दिखाते हुए महिला अधिकार एवं समानता की बात कहती है। यह भी दिखाने की कोशिश है कि अगर समाज का सहयोग हो तो किसी भी जाति की महिला हो, उसको उसका अधिकार और सम्मान मिल सकता है।
सूरजपाल चौहान की ‘चोट’ कहानी में यह दिखाने की कोशिश है कि समाज के हर क्षेत्र में जातिवाद ने अपनी जगह बना ली है। शिक्षा हो या नौकरी, अधिकांश क्षेत्रों में उच्च वर्ण अपना आसन लगा कर बैठा है। उसे व्यवस्था से कई अघोषित विशेषाधिकार मिले हैं। वह अपनी सवर्ण मानसिकता के साथ छोटी जाति के लोगों को अपमानित एवं वंचित कर उनके शोषण को जायज ठहराता है। इस कहानी में जाति के आधार पर नौकरी के पदों के वितरण, सवर्णों और प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा प्रेम जाल में फंसाकर दलित स्त्री का शोषण के चित्र हैं। ये सिर्फ एक क्षेत्र का सच नहीं हैं। ऐसी घटनाओं की शिकार लगभग हर जगह की स्त्रियां हो रही हैं।
मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘यात्रा’ में एक आदिवासी दलित स्त्री के अस्तित्व के प्रश्न को मार्मिकता के साथ उठाया गया है। यह एक दलित स्त्री के मुरिया से मारिया बनना और फिर मारिया से मोनिका बनने की कहानी है। दरअसल इस कहानी में धर्मांतरण की मजबूरी और चालाकी दोनों स्थितियां दिखाई गई हैं। वंचित आदिवासी दलित स्त्री को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कई बार अपने वजूद को मिटाना पड़ता है, जबकि धर्मांतरण से उसकी स्थिति में बदलाव स़िर्फ एक भ्रम है। उसे विस्थापन के दर्द के साथ अपनी अस्मिता के खोने का दोहरा दर्द झेलना पड़ता है।
श्यौराज सिंह चौहान की कहानी ‘हाथ तो उग ही जाते हैं’ एक साथ कई सामाजिक समस्याओं जैसे जातिगत भेद-भाव, ऑनर कीलिंग सांप्रदायिकता, शोषण आदि की तरफ इशारा करती है। एक दलित विधवा स्त्री, जिसका पति सांप्रदायिक दंगे में मारा जाता है, उसका गुजर-बसर घरों में काम करके होता है। वहां उसे अपनी जाति छिपानी पड़ती है। इस कहानी में हमारे समय की चिकित्सा व्यवस्था की पोल भी खुल जाती है, कैसे अस्पताल में एक अशिक्षित महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है- ‘हम तो चौधरियों के गांव के अछूत हैं, हम न हिंदू हैं न मुसलमान हैं। पर हमें लड़ाई के वक्त मुसलमान तो हिंदू समझकर मारते हैं और हिंदू अछूत जानकर।’ यह हमारे समय का सच है कि हम जब धर्म की बात करते हैं तब हिंदू बन जाते हैं और जब जाति की बात करते हैं तब दलितों को अस्पृश्य मानने लगते हैं।
स्त्री दलित कथाकार सुमित्रा महरोल की कहानी ‘प्रतिकार’ में इस सामाजिक सत्य को उजागर किया गया है कि दलित जाति के लोग चाहे कितने भी शिक्षित क्यों न हो जाएं या किसी भी बड़े पोस्ट पर क्यों न पहुंच जाएं, ऊंची जाति के लोग उन्हें सम्मान नहीं देते। मनुष्यता की जगह जातिवाद ने ले ली है।
हरिराम मीणा की कहानी ‘अमली’ नट-विद्या में निपुण अमली के साथ तिमनगढ़ के राजा और रानी द्वारा किए गए छल को दर्शाती है। हम जानते हैं कि कुछ लोग हारकर भी इतिहास में अमर हो जाते हैं। अमली छल से हार गई थी, पर आज भी तिमनगढ़ की वादियों में उसकी हार की कहानी गूंजती है।
इस संग्रह में प्रह्लाद चंद दास, अनिता भारती, कैलाश वानखेड़े, हेमलता महिश्वर, अजय नावरिया, रजनी दिसोदिया, रजनी तिलक, सूरज बड़त्या, कौशल पवार, टेकचंद, पूरन सिंह, नामदेव, सुनीता देवी, वंदना, दीपा एवं खुद इस कहानी संग्रह की संपादक रजत रानी मीनू की ऐसी कहानियां संकलित हैं, जो दलितों की पीड़ाओं को प्रतिरोधधर्मी मार्मिकता से प्रस्तुत करती हैं।
कैलाश वानखेड़े अपनी कहानी ‘महु’ में दलित युवाओं की सांस्थानिक हत्या जैसे बेहद जरूरी मुद्दों की तरफ पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं तो हेमलता महिश्वर ‘कर का मन का डारि के’ कहानी में दलित स्त्रियों की समस्याओं के निवारण में हो रहे भेद-भाव को उठाती हैं। अजय नवरिया की कहानी ‘इज्जत’ में सामूहिक बलात्कार के बाद समाज के नजरिये एवं अपना सबकुछ खो चुकी एक लड़की के उठकर खड़े होने की कहानी है। रजत रानी मीनू की कहानी ‘सरोगेट मदर’ किराए की कोख से बच्चे के जन्म एवं उससे जुड़ी समस्याओं और व्यवसायीकरण की तरफ इशारा करती है। कैसे एक दलित स्त्री को मात्र बच्चा जनने वाली मशीन के रूप में देखा जाता है और आवश्यकता पूरी होने पर वापस उसे उसकी हालत पर छोड़ दिया जाता है। कोख के व्यावसायीकरण ने दलित और अभावग्रस्त स्त्रियों को बहुत प्रभावित किया है।
इस तरह रजत रानी मीनू के इस कहानी संकलन से गुजरना दलित जाति के उन सैकड़ों लोगों की कथाओं तक पहुंचने जैसा है, जिनकी पीड़ा हम तक नहीं पहुंच पाती। इस कहानी संग्रह के संकलन में डॉ. वंदना ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जिज्ञासा : साहित्य और षिक्षा के क्षेत्र में दलित समाज अब भी पीछे है, इसके पीछे रहने की क्या वजह हो सकती है?
रजत रानी मीनू : भारतीय संविधान में जो कल्याणकारी नीतियों की व्यवस्था की गई थी, उसपर सामाजिक दुराग्रह के कारण अमल नहीं हुआ। दलित समाज और दलित स्त्री की शिक्षा की समानता का जो लक्ष्य 10 सालों में पूरा किया जाना था, वह आज 75 सालों में भी पूरा नहीं हुआ। इसलिए स्वाभाविक रूप से आज पीछे है। यह चिंताजनक है। पूना पैक्ट के तहत गांधी जी ने जो आश्वासन दिया था अस्पृश्यता के अंत का, वह भी आज तक नहीं हुआ, बल्कि अस्पृश्यता ने नए रूप ग्रहण किए हैं।
जिज्ञासा : आपको ऐसा क्यों लगता है कि दलित स्त्रियों और उनके लेखन को नजर अंदाज किया जा रहा है, जबकि इन दिनों लेखिकाएं अपने विमर्श को लेकर बहुत सजग हैं?
रजत रानी मीनू : पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा, कला, मीडिया, न्यायपालिका आदि क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी अभूतपूर्व ढंग से बढ़ी है। वे न्यायधीश बनी हैं। संपादक बनी हैं। वे नेत्री-अभिनेत्री, फिल्म निर्देशिका बनी हैं। वे सेना में गई हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि उनमें दलित स्त्रियों की भागीदारी कितने प्रतिशत है? साहित्य में उनकी कमी होना स्वाभाविक है, क्योंकि लेखन की पृष्ठभूमि में ज्ञान के क्षेत्र होते हैं। जब शिक्षा का प्रसार ठीक से नहीं हो पा रहा है, वे साहित्य के क्षेत्र में कहां दिख़ाई देंगी? आज साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ, बुकर आदि प्राप्त करने वाली लेखिकाओं की पारिवारिक, आर्थिक और जातीय पृष्ठभूमि किसी से छिपी है क्या? यह बड़ी बात है कि तमाम झंझावातों के बीच सुविधाभोगी लेखिकाओं की तुलना में हजार गुना कम लिख कर भी वे महत्वपूर्ण काम कर रही हैं। उनके एक शब्द का मूल्य एक पुस्तक के बराबर है। उन्हें सुविधापूर्ण लेखिकाओं से साझेदारीपूर्ण बहनापा कायम नहीं करना है।
जिज्ञासा : आज देश का प्रतिनिधित्व एक आदिवासी महिला कर रही है। ऐसे में क्या लगता है, इससे पिछड़ी-निम्न समझी जानेवाली जातियों को कोई लाभ मिल रहा है?
रजत रानी मीनू : पहली बात तो दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग- ये अलग-अलग श्रेणियां हैं। इनके अलग-अलग प्रतिनिधित्व निर्धारित हैं। आदिवासी विषयक साहित्यिक गतिविधियां निश्चित ही बढ़ी हैं, जैसे आदिवासी उत्सवों की संख्या बढ़ गई है। साहित्य अकादेमियों में आदिवासी संबंधी विषयों की बहुलता हुई है, जबकि दलित और पिछड़ी महिलाओं से संबंधित साहित्यिक विमर्श कम हुए हैं। यूजीसी, विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थाओं में आदिवासियों के लिए अनुदान राशि और छात्रवृत्तियां आंशिक रूप से बढ़ी हैं, किंतु दलित लेखिकाओं और छात्रों के लिए उन्नति के मार्ग अपेक्षाकृत बंद हैं।
जिज्ञासा : आज आप स्त्री प्रश्न को कहां से देखती हैं?
रजत रानी मीनू : इस संग्रह में चुनिंदा लेखकों की कहानियां हैं। ये दलित समाज के स्त्री विषयक अलग-अलग मुद्दों पर बात करती हैं। इस संकलन में स्त्री-पुरुष कथा द़ृष्टि को समग्रता में समझने का प्रयास किया गया है। स्त्री ने स्त्री के बारे में सोचा या पुरुषों ने स्त्री-विषयक प्रश्नों पर अपनी लेखनी उठाई, दोनों ही दो आंखों की तरह हैं।
समीक्षित कविता संग्रह :
(1) कथारंग : सुशीला टाकभौरे की संपूर्ण कहानियां, प्रलेक प्रकाशन, ठाणे, 2022
(2) दलित स्त्री केंद्रित कहानियां : संपादक – रजत रानी मीनू, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023
२०/१, खगेंद्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कोलकाता-७००००२ मो.८४२०६२७६९३