युवा लेखिका और संस्कृतिकर्मी। विद्यासागर विश्वविद्यालय से हाल में डॉक्टरेट की उपाधि। कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
हिंसा एक ऐसी समस्या है जो आज पूरे विश्व को प्रभावित कर रही है। यह न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती है, बल्कि पूरे देश और समाज को भी प्रभावित करती है। अपनी ताकत दिखाने और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए कोई व्यक्ति या किसी जाति, धर्म, प्रांत का समूह हिंसक घटनाओं को अंजाम देता है। हर साल हिंसा के कारण लाखों लोग मारे जाते हैं, लाखों घायल होते हैं और असंख्य लोग विस्थापित होते हैं।
सभ्यता के विकास के साथ हिंसा बढ़ रही है। इसके अलग-अलग रूप ने समाज में अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं। एक सच यह है कि दुनिया की कई सभ्यताएं हिंसा के रास्ते से पनपीं। अतीत के कई युद्धों को मानव हित के लिए सही ठहराया गया और आज आलम यह है कि पेशेवर तरीके से हिंसा पूरे विश्व में संक्रमण की तरह फैल गई है। हिंसा का वैश्विक ग्लैमर बढ़ गया है। हिंसा के विस्तार को देखकर ऐसा लगता है कि यह मनुष्य के स्वभाव का अंग बन चुका है।
विश्व इस समय युद्ध, आतंकवाद, अपराध, घरेलू हिंसा और साइबर हिंसा से घिरा है। ये सभी रूप समाज को कमजोर करते हैं। इससे विकास प्रभावित होता है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक टीवी पर हिंसा की घटनाओं को देखते हैं और हिंसात्मक चर्चाओं में भाग लेते हैं। सोशल मीडिया, फिल्म, टीवी सिरियल, वीडियो गेम आदि के माध्यम से आज हमारे समक्ष हिंसा रंगीन दृश्यों के साथ परोसी जा रही है। नतीजतन आज पबजी, फोर्टनाइट, एपेक्स लेजेंड्स, गारेना फ्री फायर जैसे वीडियो गेम में बच्चे दिन भर रमे रहते हैं। यूं कहें कि हिंसा को ग्लोरिफाइ करके दिखाया जाता है।
आज हिंसा का हीरोइज्म भी चिंताजनक है। वस्तुतः हिंसक घटनाओं के दृश्य पर बड़ी संख्या में दर्शक सिनेमा हॉल में तालियां पीटते नजर आते हैं। आज हर जगह हिंसा को सेलिब्रेट किया जा रहा है। संप्रदाय विशेष द्वारा मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को जस्टिफाई किया जा रहा है। ऐसी घटनाओं की निंदा करने की जगह स्वाभिमान से जोड़ा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।
हिंसा की घटनाओं की वृद्धि में सोशल मीडिया प्रदत्त अफवाहों और झूठ का बड़ा योगदान है। सोशल प्लेटफार्म के जरिए हिंसा की घटनाएं जन-जन तक पहुंच रही हैं। लोग अपने मोबाइल पर घंटों तक इसे स़िर्फ देखते ही नहीं, बल्कि दर्पपूर्ण कमेंट के साथ फारर्वड भी करते हैं।
हिंसा का एक और रूप घरेलू हिंसा है जिसमें लगातार वृद्धि हो रही है। देश में बढ़ती बलात्कार की हिंसक घटनाओं ने महिलाओं को अंदर से डरा दिया है। हाल ही में कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल हास्पिटल में एक महिला डॉक्टर के साथ रेप और उसके बाद उसकी जघन्य हत्या ने लोगों के भीतर कई सवालों को जन्म दिया है। महाराष्ट्र, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, हाथरस, उन्नाव आदि में भी यौन हिंसा की घटनाएं देखने को मिली हैं।
आज जब हम हिंसा की बात करते हैं तो एक महत्वपूर्ण पहलू हमारे समक्ष उभर कर आता है कि आज हिंसा जितनी दृश्य है उतनी अदृश्य भी। जिस देश में महावीर, बुद्ध, कबीर और गांधी जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ और उन्होंने अपनी वाणी में अहिंसा की बात की, वहां हिंसा अपने शिखर पर है। गांधी की दृष्टि में हिंसा का व्यापक अर्थ यह है कि वे न केवल शारीरिक हिंसा की बात करते हैं बल्कि वे मानसिक और भावात्मक हिंसा की भी बात करते हैं। गांधी कहते हैं, ‘अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है।’
अगर हम साहित्य की बात करें तो युद्ध पर कई कृतियां हैं। धर्मवीर भारती ने ‘अंधायुग’, दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ और नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’, ‘महाप्रस्थान’, ‘समय देवता’ आदि के माध्यम से युद्ध की विभीषिका का वर्णन किया है और यह बताने की कोशिश की है कि युद्ध से किसी का भला नहीं होता है। युद्ध से परिवार बिखरते हैं, समाज और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है, आर्थिक हानि होती है।
हिंसा अकसर गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा की कमी, धार्मिक कट्टरता और सामाजिक असमानता के कारण होती है। इसलिए हमें इन मुद्दों को हल करने के लिए काम करना होगा। इसके अलावा, हमें समाज में शांति और प्रेम को बढ़ावा देना होगा। हमें एक दूसरे का साथ देना होगा, और हिंसा को नकारना होगा। हमें शिक्षा को बढ़ावा देना होगा, ताकि लोग हिंसा के बजाय शांति का रास्ता चुनें। हिंसा के व्यापक प्रभावों को समझना जरूरी है, ताकि इसके प्रति जागरूकता पैदा हो। हिंसा के कारण परिवार टूटते हैं, बच्चे अनाथ होते हैं और समाज में अस्थिरता फैलती है।
आज के समय में हिंसा से घिरे विश्व को बदलने की जरूरत है। इसके लिए हमें हिंसा के खिलाफ एकजुट होना चाहिए और शांति के लिए लड़ना चाहिए, केवल तभी हम एक बेहतर मानव भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इस परिचर्चा में लेखकों ने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनके माध्यम से हम हिंसा से घिरे विश्व को समझ सकेंगे और समाधान के बारे में सोचेंगे।
सवाल
(1)आपको ‘हिंसा’ शब्द सुनकर और आसपास हिंसक घटनाएं देखकर क्या महसूस होता है?
(2)आज का विश्व हिंसा से कितनी तरह से घिरा है? बढ़ती जा रही हिंसा विकास को किस तरह प्रभावित करती है?
(3)मीडिया, वीडियो गेम, सोशल मीडिया आदि की हिंसा को बढ़ावा देने में क्या भूमिका है?
(4)क्या इधर घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई है? स्त्री के प्रति हिंसा के नए रूप क्या हैं?
(5)गांधी की दृष्टि में हिंसा का व्यापक अर्थ क्या है?
(6)दुनिया में हिंसा आज भी एक बड़ी समस्या है। इसे रोकने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं? क्या भारत में हिंसा रोकने के लिए कोई सामाजिक अभियान है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है?
अशोक वाजपेयी
प्रसिद्ध हिंदी कवि–आलोचक। भोपाल के भारत भवन के निर्माण में बड़ी भूमिका। प्रमुख कृतियां – ‘इस नक्षत्रहीन समय में’, ‘कवि ने कहा’, ‘कुछ रफू कुछ बिगड़े’। हाल में तीन खंडों में ‘सेतु समग्र : अशोक वाजपेयी’।
विश्व में पहले की तरह शांति के लिए कोई अभियान नहीं है
(1)हिंसा शब्द के साथ, हमारे देश और समाज में कुछ और शब्द अनिवार्यत: जुड़ गए हैं : झूठ, नफ़रत, अफ़वाह, भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, आहत भावनाएँ। विशेषतः पिछले एक दशक में हिंसा सामाजिक अभिव्यक्ति की एक लगभग वैध शैली बन गई है। हम तरह-तरह की हिंसा से घिरे हैं : वाणी और कर्म की हिंसा, दंगों-फसादों की हिंसा, राज्य-पुलिस-सेना की हिंसा, मीडिया की हिंसा, धर्मों की हिंसा, फैन-मनोरंजन-सिनेमा की हिंसा, खेलकूद और बाजार की हिंसा। इनमें से कई तरह की हिंसा बेहद अभद्र, अश्लील और हत्यारे रूप ले लेती है। स्त्रियों और बच्चों के विरुद्ध जघन्य अपराधों, हत्या-बलात्कार और हिंसा के आँकड़े बताते हैं कि देश में होने वाली हिंसक वारदातों का लगभग दो तिहाई अकेले हिंदी अंचल में होता है। सार्वजनिक रूप से, राजनीति-धर्म-मीडिया-बाजार ने मिलकर हिंदी में अपार हिंसा-घृणा-असत्य भर दिए हैं कि वह उनकी लगभग राजभाषा बनी जा रही है। यह हिंदी लेखक के लिए बड़ी यंत्रणा का क्षण है। निरपराध की हत्या करना अकसर सामूहिक ढंग से वीरता का नया संस्करण है, विशेषत: हिंदी अंचल में।
(2)भारत ही नहीं विश्व में भी हिंसा का भयानक विस्तार हुआ है। जितना सैन्यीकृत विश्व आज है उतना पहले कभी नहीं था, बेहद खूँखार, बीसवीं शताब्दी में भी नहीं। दुर्भाग्य यह है कि हिंसा विकास का भी एक कारक तत्व बन गई है। बहुत सारा विकास पर्यावरण, जल-जमीन-जंगल के विरुद्ध हिंसा से ही हो पा रहा है। इस समय का विश्व बेहद अशांत विश्व है जिसमें यूक्रेन पर रूसी आक्रमण और गाजा पर इजराइली आक्रमण को न जाने कितने महीने बीत गए हैं और युद्ध जारी है : लोग और बच्चे मारे जा रहे हैं, बस्तियां-अस्पताल-स्कूल तबाह हो रहे हैं और सारा विश्व देख रहा है, कुछ कर नहीं पा रहा है। युद्ध और शांति को लेकर विश्व इस कदर लाचार पिछले सौ सालों में नहीं हुआ।
(3)सोशल मीडिया और अन्य सभी माध्यम एक ओर हमारी लोकतांत्रिकता में इजाफा करते हैं तो दूसरी ओर बेहद गैरजिम्मेदार और अनैतिक ढंग से हिंसा का सहारा लेते और उसे बढ़ाते हैं। यह हिंसा वे सत्ता और बाजार के समर्थन और पोषण से कर रहे हैं। वे अपनी स्वायत्तता और नैतिकता को पूरी बेशर्मी से गिरवी रख चुके हैं। उनके साथ व्यापक असहयोग करने का आंदोलन होना चाहिए।
(4)यह कहना कठिन है कि घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई है। लेकिन उसके मामले अब अधिक सामने आ रहे हैं। फिर आँकड़े बताते हैं कि भारत में हर मिनट एक बलात्कार होता है। समाज में स्त्री की स्थिति की बुनियादी विडंबना फिर सामने है। आज स्त्री अधिक सक्रिय, सामाजिक परिवेश में अधिक दृश्य और मुखर, अपनी स्वतंत्रता का इसरार कर रही है। दूसरी ओर सत्तारूढ़ राजनीति, जो दबंगई-लफंगई-टुच्चई का सहारा ले रही है, वह स्त्री के विरुद्ध भावनाएं और हिंसा उकसा रही है। एक उग्र राजनैतिक विचारधारा हिंदुत्व तो पौरुष-प्रधान समाज की ही कल्पना पोसता है।
बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्कार आदि हिंसा के पुराने रूप इस बीच ज्यादा उग्र-आक्रामक हुए हैं और ‘ट्रोलिंग’ आदि नए रूप भी सामने आए हैं।
(5)यह याद करना चाहिए कि जब पश्चिम में क्रांति, युद्ध, झगड़े आदि सभी भयानक हिंसा के साथ हो रहे थे और लड़े जा रहे थे, तब गांधी ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम के लिए अहिंसा चुनी थी और अंतत: उसे सफल कर दिखाया था। गांधी वाणी और कर्म, सामाजिक व्यवहार और धार्मिक आचरण, राजनैतिक कर्म और अभिव्यक्ति सभी में हिंसा का प्रतिकार करते और अहिंसा का आग्रह करते थे। उनकी धार्मिक आस्था जो भी रही हो, उनके लिए सत्य और अहिंसा परम धर्म थे।
(6)इस समय बेहद हिंसक विश्व में युद्ध विराम और समझौते की कोशिश बहुत अन्यमनस्क भाव से होती है : वह हिंसा को स्थगित करती है, दूर या समाप्त नहीं। दूसरे महायुद्ध के बाद पूरे विश्व में शांति आंदोलन हुआ था, जिसकी अगुवाई कुछ सजग दार्शनिकों-लेखकों ने की थी। आज शांति के लिए ऐसा कोई अभियान नहीं है। जैसे पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विश्व व्यापी चिंता और अभियान के विषय बन गए हैं, वैसे ही हिंसा को लेकर आंदोलन होना चाहिए। भारत पहल कर सकता है, पर वह खुद हिंसा को पोसने-बढ़ानेवाली वृत्तियों के चंगुल में है तो वह क्यों और कैसे, किस मुंह से ऐसा अभियान शुरू कर सकता है!
सी–60, अनुपम हाउसिंग सोसायटी, बी–13, वसुंधरा एन्क्लेव, नई दिल्ली–110096 मो. 9811515653
कुमार प्रशांत
प्रसिद्ध गांधीवादी। विभिन्न आंदोलनों में हिस्सेदारी। ‘गांधी मार्ग’ का प्रकाशन और संपादन। गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली के अध्यक्ष।
गांधी ने हिंसा के हर स्वरूप के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था
(1) एक पछतावा एक चुनौती… कि भीड़ से नागरिक बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया चलाने में हम सब एक राष्ट्र के रूप में कितने विफल रहे हैं। हम लोकतंत्र को जब तक शासन की एक पद्धति के रूप में देखते-मानते रहेंगे, यह समझ नहीं सकेंगे कि यह जीने की वह शैली है जो हमेशा दूसरों के लिए अवसर और सम्मान बनाती चलती है। जितनी हिंसा तथा हिंसक वारदातें हैं, सब मनुष्य की लाचारी और विकृति का घोषणा-पत्र हैं।
(2) हजारों सालों से या कहूं कि अनगिनत शताब्दियों से हर मनुष्य हर नए मनुष्य को हिंसा की विभिन्न विभावनाओं से सज्जित करता आया है। यह इस हद तक हुआ है कि हमें लगने लगा है कि हिंसा मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव है। समाज हमें, मां-बच्चे को और राष्ट्र- राष्ट्रों को यही बताते हैं, सिर्फ यही बताते हैं कि दूसरे को भयभीत नहीं रखोगे तो वह तुम्हें खत्म कर देगा। अगर यह सही होता तो अब तक मनुष्यों के बीच यादवी हो चुकी होती और सृष्टि समाप्त हो चुकी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, जबकि हमारे बीच कोई कृष्ण नहीं आया है। हम ही हैं जो हिंसा के घटाटोप के बीच से भी इंसान को खोजते-बचाते यहां तक पहुंचे हैं।
संसार में हिंसा बहुत है लेकिन उसका शमन करने की कोशिशें भी कम नहीं हैं। मौत बहुत है, रोज ही है लेकिन जीवन उससे कहीं ज्यादा है। हर कहीं श्मशान गांव से छोटा होता है। हिंसा से घिरे संसार में सक्रिय प्रेम की अंतहीन कोशिशों को देखने तथा पहचानने की जरूरत है। मैं कहूंगा कि हिंसा से जलते विश्व में प्रेम के खिलते फूलों को देखेंगे तो साफ समझ में आएगा कि यह वैश्विक सांस्कृतिक आरोहण है, जिसमें सांप जैसे केंचुल छोड़ता है वैसे ही मनुष्य हिंसा छोड़ रहा है। संस्कार बहुत गहरे व पुराने हैं। पूरा केंचुल छोड़ने में सांप को भी वक्त लगता है तथा वह पीड़ा से भी गुजरता है।
आप भौतिक विकास को प्रभावित करने की बात पूछ रही हैं लेकिन मैं कह रहा हूं कि हिंसा मनुष्य को मनुष्य की तरह विकसित ही नहीं होने देती है। इस संकट को हमें समझना है।
(3) यह बाजार है। यह वही बेचता है जो मनुष्य की चयन की स्वतंत्रता को सीमित करता है। लोग चुनने की स्वतंत्रता का आनंद समझ लेंगे तो बाजार का अंत हो जाएगा। इसलिए मीडिया हिंसा तथा इंसान के पतन की खबरें बड़े अक्षरों में छापता है, वीडियो गेम बच्चों को हिंसा-हत्या-क्रूरता में आनंद लेना सिखाते हैं और हम अपने बच्चों को इस नरक में धकेलते हैं, क्योंकि हम डरते हैं कि हमारा सजग बच्चा कहीं हमसे आज से बेहतर परिवार-समाज और संसार की मांग कर बैठेगा तो हम क्या करेंगे। हिंसा की अफीम चटा कर हम उसे सुलाए रखना चाहते हैं। इसमें सोशल कुछ भी नहीं है। जो आत्मत: एंटी-सोशल है, उसे सोशल मीडिया कह कर हम प्रचारित और प्रतिष्ठित कर रहे हैं। यह निहायत ही गंदा व दूषित है।
(4) मैं पूछता हूँ कि जो घर हैं नहीं, उनके भीतर की हिंसा को हम घरेलू हिंसा कैसे कहते हैं! एक साथ रहने वाले दो लोग यदि एक दूसरे का सम्मान नहीं करते, एक-दूसरे से स्नेह नहीं करते तो एक-दूसरे के साथ घर कैसे बना सकते हैं। घर दीवारों का नाम नहीं है। ऐसे घर मनुष्यता के श्मशान-घर भर हैं। स्त्री पर हिंसा वस्तुतः शक्ति का मुहावरा गढ़ने की क्रूरता है। ऐसे घर, ऐसे रिश्ते से जब तक स्त्री व पुरुष दोनों इनकार नहीं करेंगे, वे मनुष्य नहीं बन सकेंगे।
स्त्री पर हिंसा करने वाला पुरुष सबसे पहले इंसान की कोटि से नीचे गिरता हुआ, पशुवत (पशुओं से क्षमायाचना सहित!) होता है। यह उसकी आंतरिक हिंसा का परिणाम है कि वह हिंसा स्त्री पर करता है और मारा खुद जाता है। स्त्री हिंसा से मारी जा सकती है, घायल हो जा सकती है, टूट जा सकती है, अपमानित हो सकती है, लेकिन पुरुष? वह तो मनुष्य ही नहीं रह जाता है। स्त्री हिंसा का चारदीवारी से बाहर आ जा सकती है, पुरुष हिंसा की विरूपता से कभी बाहर नहीं आ सकता। हिंसा के नए रूप की बात मैं समझ नहीं पाता हूँ, उसका तो आदिम स्वरूप है।
(5) गांधी के पास हिंसा का व्यापक या संकीर्ण स्वरूप एक ही है : मनुष्य का हीनतर स्वरूप ! यह अलग-अलग अवसरों पर, अलग-अलग तरह से सामने आता है लेकिन होता एक ही है – मनुष्य को उसकी मनुष्यता से विलग करने वाला अहंकार! जब बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी खुद के अहंकार को पहचानने तथा उससे मुक्त होने की लड़ाई दक्षिण अफ्रीका में लड़ रहा है, तब एक रात क्रोध में उबलते हुए अपनी पत्नी कस्तूर को घर से निकालने लगता है- ‘तब मेरे घर में तेरी जगह नहीं है!’ कस्तूर प्रतिकार में इतना ही कहती है : ‘तुम्हें शर्म नहीं आती है!’ और मोहन में क्रोध उभरता है, और वह बार-बार यही दोहराता है : ‘यह मुझे क्या हो गया था!’ यह सवाल जब-जब हमारे भीतर उठता है, जब-जब उठेगा हम मनुष्य बनने की तरफ उन्मुख होंगे। यह हमारे भीतर चलने वाला राम-रावण युद्ध है। गांधी हिंसा के, उसके हर स्वरूप के खिलाफ युद्ध छेड़े रहे, और सारे मानवीय समाज को उसमें शरीक करते रहे।
(6) हिंसा समस्या है, प्रेम उसका विकल्प है। प्रेम का विकल्प क्या है? हिंसा! तब चुनाव जैसा कुछ बचता है क्या? जीवन का विकल्प यदि मौत है, सर्वोदय का विकल्प यदि सर्वनाश है तो यह कोई विकल्प है क्या?
हम यह देखें और पहचानें कि वर्ष भर से ज्यादा हुआ, रूस यूक्रेन में अंधी हिंसा में जुटा हुआ है। यूक्रेन भी उसकी हिंसा का हिंसा से ही जवाब दे रहा है। लेकिन पुतिन सारी दुनिया से नजर बचा कर जी रहा है, जेलेंस्की सारी दुनिया में नायक की भूमिका में आ-जा रहा है। पुतिन किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, जबकि जेलेंस्की के लिए अंतरराष्ट्रीय आयोजन किए जा रहे हैं। दो हिंसाओं में यह फर्क क्या है? एक हिंसा अहंकार की कोख से पैदा हुई है, दूसरी मानवीय गरिमा व स्वतंत्रता की गहरी प्रतिबद्धता में से जनमी है। मतलब हिंसा ही एकमात्र आधार नहीं है, बल्कि हिंसा का भी एक अहिंसक आौचित्य है।
गांधी ने जब कहा कि हिंसा व कायरता में से चुनने की नौबत आई तो मैं हिंसा का चुनाव करूंगा, तो वे इसे ही रेखांकित कर रहे थे। संसार का जनमत आज हिंसा का जैसा मुखर विरोध करता है, वह बताता है कि हिंसा की स्वीकार्यता कम हो रही है।
भारत शांति का वैश्विक प्रवक्ता बने, इसकी नैतिक हैसियत उसने खो दी है। आज की सरकार भारत की सबसे हिंसक सरकार है जो हर स्तर पर, हर तरह की हिंसा को बढ़ावा देती है। अपने नागरिकों का हिंसक दमन, उनमें हिंसक भेद-भाव आदि इस सरकार की नैतिक जड़ खोखली करती है। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में हिंसा का निषेध बढ़ा है। यह निषेध आशा की किरण है।
अहिंसक अभियान आसमान में से पैदा नहीं होता है। उसका सामाजिक वातावरण बनता है तो अहिंसक अभियान को चालना मिलती है। इसकी कोशिश कई स्तरों पर चल रही है। जगह-जगह शांतिमय अभियान के आयोजन की कोशिश चली है, बढ़ी है आौर बढ़ रही है। इसे एक परिपूर्ण नेतृत्व की जरूरत है, जिसकी खोज चल रही है। खोज है तो संभावना है!
गांधी शांति प्रतिष्ठान, 221-23, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-110001 फोन-011 23237491
मृत्युंजय श्रीवास्तव
प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
हिंसा को विकास का पूरक बना दिया गया है
हिंसा बाय-प्रोडक्ट है, यह नितांत अभाव से पैदा होती है या अनंत लोभ से। लोभ और हिंसा के मैराथन मैथुन से विषमता पैदा होती है। विषमता को ढकने और कई बार जायज ठहराने के लिए हिंसा की जाती है। दुनिया में कहीं भी असमानता मिटाने का स्वप्न अब नहीं बचा है। इसलिए हिंसा बेलगाम है। व्यवस्था हर कहीं ऐसी दरार ढूंढ़ निकालने में लगी रहती है, जिसे खाई में बदला जा सके। खाई जैसे-जैसे चौड़ी होती जाती है, हिंसा का दायरा बढ़ता जाता है।
हिंसा के कई रूप हैं- दैहिक हिंसा, वाचा हिंसा, भावनात्मक हिंसा, यौन हिंसा, राज्य हिंसा, परिवर्तन के लिए हिंसा, आतंकवादी हिंसा और भी न जाने कितने तरह के रूप। हिंसा का एक हथियार अगर शब्द है तो दूसरा हथियार है दैनंदिन बुरा व्यवहार।
कई आयोजित-प्रायोजित हिंसाएं हैं। युद्ध आयोजित किए जाते हैं। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध का निजीकरण हुआ है, वैसा ही जैसा शिक्षा, व्यापार और सेवाओं के क्षेत्र में हुआ है। फिलवक्त दुनिया में 6500 ऐसी निजी कंपनियां हैं जो हथियार सहित शांति बहाल के लिए सैनिक सप्लाई करती हैं।
हिंसा चाहे जैसी हो, वह नागरिक की देह और दिमाग को तोड़ती है और दम निचोड़ लेती है। एक आर्थिक हिंसा है, जो बड़े पैमाने पर नागरिक के बड़े हिस्से का पेट खाली करती है। वह कमर तोड़ देती है। इसके अलावा, घरेलू हिंसा है। कोरोना महामारी के दौरान पूरी दुनिया में स्त्री के साथ होने वाली घरेलू हिंसा ने नई ऊंचाइयां हासिल कीं।
हिंसा अब विकास का अनिवार्य आधार बनी हुई है। ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ कथन ऐसा ही है। जॉन पार्किंसंस के उपन्यास ‘कन्फेशन ऑफ इकॉनोमी हिटमैन’ की कथा-वस्तु इसकी गवाही देती है।
विकास का आज का माडल हिंसा को एक विकल्पहीन दुनिया बनाता है। उसका वैश्विक परिणाम यह निकला है कि हर जगह एक छोटी आबादी ने साधन और उत्पादन पर अपना कब्जा बना लिया है। छोटी आबादी ने अकूत संपदा को अपनी मुट्ठी में समेट ली है। इन महा अभियानों से जो इकॉनोमी पैदा हुई, वह जैसे-जैसे वयस्क होती गई, उसकी शिकार करने की ताकत बढ़ती गई।
हिंदी कथा साहित्य में हिंसात्मक इकॉनोमी का एक प्रतिनिधि चरित्र प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का जॉन सेवक है। जॉन सेवक का साम्राज्य अब विस्तार पा चुका है। मुंबई में किसी एक व्यक्ति का तामझाम के साथ अपना निजी अट्ठाईस मंजिला भवन होना और उसके पुत्र की शादी में अरबों के वैश्विक तमाशे का आयोजन उत्तर-आधुनिक हिंसा की चरम अभिव्यक्ति है। ऐसी इकॉनोमी जिसमें इस तरह की गुंजाइश बनी रहती है, हिंसा की एक वैधानिक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था हथियार को ही ढाल घोषित करती है।
दुनिया में फैली हर वैधानिक हिंसा को सामाजिक और नागरिक सहमति भी चाहिए। भारत में इसके लिए भगत सिंह और नेताजी का नाम लेकर हवा बनाई जाती है। मगर जब इनके इस्तेमाल से बात नहीं बनती है, तब महाभारत के धर्मयुद्ध के हुंकार से वातावरण को गरमाया जाता है, गोया धर्मयुद्ध के लिए हिंसा अनिवार्य हो।
कृष्ण भक्तों की एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने धार्मिक राज्य की स्थापना के लिए हिंदी में हिंसा की मार्केटिंग करते हुए एक वीडियो सोशल मीडिया पर जारी किया है। चैनल का नाम है ‘योगा फॉर लव’। कृष्ण-अर्जुन संवाद के माध्यम से यह समझाने की कोशिश है कि हिंसा अनिवार्य है। यह महज नासमझी नहीं है, धोखा है- उपर्युक्त महाकाव्य से और नागरिक समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक समझ से। यह भावनात्मक हिंसा तो है ही। भारत की विरासत से बेईमानी भी है।
अर्जुन वह चरित्र है जो युद्ध-रथ पर सवार होकर अपने सारथी से सवाल करता है। कृष्ण की जीवन-यात्रा सामान्यतः वर्चस्ववादी प्रवृत्ति को मिटाने के लिए है। दुर्योधन से कंस तक। कृष्ण की ‘गीता’ समन्वय का स्वर है।
जिस समाज में सवाल करने का विवेक और उत्तर पाने का धैर्य बचा है, वहां हिंसा सहज कर्म नहीं है। जहां अपनत्व का अहसास है, वहां हथियार उठाना सहज नहीं है। ऐसा नहीं है कि अर्जुन अपने जीवन में पहली बार महाभारत के युद्ध से हिंसा का श्रीगणेश करने जा रहे हों। उन्होंने मार-काट पहले भी की है। पहले जिन्हें मारा-काटा होगा, वे सब ‘अन्य’ रहे होंगे। यहां सब अपने थे।
धर्म-हिंसा, राज-हिंसा और अर्थ-हिंसा वस्तुतः वर्चस्व के लिए आयोजित हिंसाएं हैं। इनमें कोई अपना नहीं होता, सब ‘अन्य’ होते हैं।
जो हिंसा के पैरोकार हैं, वे अपने को केवल मनुष्य को मारने तक सीमित नहीं रखते। वे उन सब तत्वों के प्रति हिंसक होते हैं जिनसे मनुष्य का सांस्कृतिक मानस ड्राइव लेता है। सोशल मीडिया पर पिछले दिनों ‘हिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च’ को खूब घुमाया गया। यह भरमाने वाली पंक्ति किसी महाकाव्य की नहीं है, बल्कि किसी आइटी सेल ने अभी-अभी रची होगी! इसका अर्थ है, धर्म की रक्षा के लिए हिंसा अनिवार्य है। इस तरह की पंक्ति महाभारत में है क्या? यह सरासर बौद्धिक बेईमानी है और सोद्देश्य भरमाने का एक उदाहरण है।
महाभारत में कहा गया है, ‘अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है’। श्लोक देखिए-
‘अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दम:।
अहिंसा परमं दानम हिंसा परमं तप:॥’
-116.28, अनुशासन पर्व।
इसी पर्व के 245.4 में कहा गया है कि अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम सुख है। सभी धर्मशास्त्रों में अहिंसा को परम पद बताया गया है।
इससे भी आगे बढ़कर आश्वमेधिक पर्व के 43.2 और 43.21 में कहा गया है कि अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है और हिंसा अधर्म का लक्षण है।
महाभारत में बात यहीं खत्म नहीं होती। यह भी कहा गया है कि जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है।
फिर भी दुनिया है कि हिंसा से बाज नहीं आ रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया हिंसा की चपेट में है। हिंसा को रोका जा सके, इसके लिए अब दिखनौटी कोशिश भी नहीं है। हिंसा देश की सीमाओं पर ही नहीं हो रही है, बल्कि नागरिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी हिंसा का खुला खेल जारी है। विवेकानंद ने जब अपने संबोधन का आरंभ ‘भाइयो और बहनो’ से किया था, शिकागो का प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया था। भारतवासी विवेकानंद के इस संबोधन को आज भी गर्व से याद करते हैं।
सच यह है कि ‘भाइयो और बहनो’ का बोध न भारत में सांस ले रहा है और न कहीं और। मारो और मारो। जहां पाओ वहां मारो। घर में घुस कर मारो। जेल में मारो। अस्पताल में मारो। बच्चों को मारो। किसानों को मारो। शत्रु को जैसे पाओ वैसे मारो का नजारा हर तरफ नजर आ रहा है। एक खबर आई है कि चल रहे एक युद्ध में एक ही परिवार के अट्ठारह लोगों को उड़ा दिया गया। हिंसा के नए परिदृश्य के लिए 1936 में छपा अंग्रेजी उपन्यास ‘गॉन विद द विंड’ का नया पार्ट लिखना अब जरूरी लग सकता है।
हालांकि यह कहना एकतरफा होगा कि दुनिया में युद्ध के खिलाफ आवाजें नहीं उठ रही हैं। अलग- अलग भाषाओं में लिखी जा रही कविताएं चीख-चीख कर आवाज उठा रही हैं। पर ‘पीस मार्च’ पहले से कम हो गए हैं।
सांप्रदायिक हिंसा सत्ता की राजनीतिक कुटिलताओं की ही हिंसात्मक अभिव्यक्ति है। बुरा होता है, ऐसी हिंसा के लिए नागरिक-समर्थन का वातावरण बनाना। आज यह वातावरण न केवल चरम पर है, बल्कि इसका कोई सामाजिक प्रतिरोध नहीं है।
केवल युद्ध या सत्ता की राजनीति में ही स्त्रियां और बच्चे हिंसा के शिकार नहीं होते। डब्ल्यू. एच. ओ. ने बताया है कि दुनिया की एक तिहाई स्त्रियां अपने इंटिमेट पार्टनर की हिंसा का शिकार हो रही हैं। स्त्री की सुरक्षा और शांति के मामले में 2023 में भारत 177 देशों की सूची में 117 वें स्थान पर है। जब दुनिया के किसी चौपाल पर, बस में, प्लेटफार्म पर स्त्रियां हिंसा का शिकार होती हैं, तो वह हर नागरिक को एक धमकी होती है। जब किसी स्त्री को नंगी करके सड़क पर प्रायोजित हिंसा घटित होती है, समाज में डर का भौकाल बनाया जाता है। स्त्री के साथ ऐसा सलूक बढ़ा है।
हिंसा के खिलाफ कानून के बावजूद हिंसा अपना क्षेत्रफल और शिकार का विस्तार करती रहती है। नई दास्तानें लिखती रहती है। दुनिया हिंसा की आग में जल रही है, मगर वर्चस्ववादी सत्ताओं और उनके रहनुमाओं के न हाथ झुलसते हैं न चेहरे। बल्कि उनके चेहरे अधिक दमकने लगते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि एक समय युद्ध में मारे जाने वालों में 90 प्रतिशत सैनिक होते थे, लेकिन अब 90 प्रतिशत आम नागरिक मारे जाते हैं। गरिमा श्रीवास्तव ने इसी दर्द और चिंता से ‘देह ही देश’ और ‘आउशवित्ज’ लिखा है। संयुक्त राष्ट्र की उपस्थिति के बावजूद युद्ध का लगातार होना यह विश्वास पुख्ता करता है कि जिस इकॉनोमी की लहरों पर दुनिया उछल रही है, उसके लिए नृशंस वातावरण बनाए रखना अनिवार्य हो गया है। आंकड़े बताते हैं कि 2010 के बाद हिंसा में उछाल आई है।
इस युग में आर्थिक विकास हिंसा के रास्ते से हो रहा है। बाजार वह नया कर्बला है जहां इसके नजारे हैं।
दुनिया के किसी देश के संविधान में यह नहीं लिखा है कि दूसरे देशों की जमीन पर कब्जा करना असंवैधानिक है। यह चीज युद्ध और हिंसा के लिए पर्याप्त गुंजाइश छोड़ती है। दूसरे देश की जमीन हड़पना केवल देश की सीमा का विस्तार नहीं है। युद्धों में धरती को लहूलुहान किया जाता है, लेकिन इसके लिए आकाश अनिवार्य है। जिस आकाश से पहले वरदानों की आकाशवाणी होती थी, जिस आकाश से फूल बरसते थे, उस आकाश से अब आग बरसती है।
तत्काल खबर यह है कि चीन ने एक कदम आगे बढ़कर जापान की आकाश-सीमा में घुस कर ड्रिल की है। इस तरह की घटना द्वंद्व का नया द्वार खोलना है। इस पर जापान ने चेतावनी जारी की है।
हर साल 16 लाख से अधिक लोग हिंसा से मारे जाते हैं। इनमें से लगभग साढ़े 7 लाख युवा, स्त्री-पुरुष और बच्चे होते हैं। दर्दनाक यह है कि इनमें से अधिकांश लोग युद्ध भूमि में नहीं मारे जाते, युद्ध भूमि के बाहर मारे जाते हैं। इनकी जिंदगी गुरबत में गुजरती है। जहां-जहां युद्ध चल रहा है वहां-वहां भुखमरी स्वागत के लिए तैयार है। सांघातिक हथियारों की बात जाने दें, कम सांघातिक हथियार जिस पैमाने पर बन रहे हैं, वह यह भरोसा नहीं देता कि हम कभी हिंसा के दायरे से बाहर निकल पाएंगे। दुनिया में हर साल 8 करोड़ कम सांघातिक (लाइट आर्म्स) हथियारों का उत्पादन होता है।
अभी-अभी बांग्लादेश में हिंसा का जो नजारा देखने को मिला है, वह क्या कहता है? लोकतांत्रिक देश की वर्चस्ववादी सत्ता जब हिंसा के दम पर प्रशासन चलाती है तो वह सीधे -सीधे लोकशाही की जगह राजशाही के लिए सिंहासन तैयार कर रही होती है। बांग्लादेश के बनने के बाद शुरुआती वर्षों से ही इसकी झलक देखी गई है।
समझा जा सकता है कि हिंसा आमलोगों की साझी संस्कृति को नष्ट करती है। वह अंधता फैलाती है और कट्टर राष्ट्रवाद का रास्ता बनाती है। क्या भारत को इस आंधी से बचाया जा सकता है? यह केवल सवाल नहीं, एक चुनौती है। भारत के लिए नहीं, विश्व के लिए भी। जब चुनौती इतनी गहरी हो तो वाल्मीकि, कबीर और तुलसी जैसे कवि अंजोर बनकर चमकते हैं जिन्होंने अंधेरगर्दी, अनीति, डर, हिंसा और आतंक के साए से बाहर निकलने के लिए रास्ते बताए थे। तुलसी का मानस में यह कहा सदैव याद रहे, ‘हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मति’, अर्थात जो हिंसा से ही प्रीति करते हैं उनके पापों का कहां अंत है!
सी-11.3, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता-700156, मो.9433076174
गरिमा श्रीवास्तव
चर्चित स्त्री विमर्शकार। अद्यतन पुस्तक :‘आउशवित्ज एक प्रेमकथा’। जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर।
घरेलू हिंसा में वृद्धि का कारण स्त्रियों का पहले से अधिक मुखर होना है
(1)‘हिंसा’ शब्द सुनकर और आसपास की हिंसक घटनाएँ देखकर मुझे कवि दिनकर की ‘रश्मिरथी’ की एक पंक्ति का अनायास स्मरण हो आता है :
झर गयी पूँछ रोमांत झरे,
पशुता का झरना बाकी है
बाहर–बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।
चौबीसों घंटे चलने वाले समाचार चैनेल के कारण अब आसपास का दायरा पहले जैसा नहीं रहा। अब लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि हिंसा को टेलीविज़न स्क्रीन पर अपने ड्राइंग रूम में देखकर सबसे पहले अपनी बिल्डिंग, अपने मुहल्ले या परिसर की सुरक्षा की चिंता करते हैं।
सच तो यह है कि हमारे समय में हो रही हिंसा का एक पहलू वह है जो समाज में गाहे- बगाहे होने वाली यौन हिंसा और ‘मॉब लिंचिंग’ से लेकर मणिपुर में दो जनजातियों के बीच लंबे समय से चल रही मारकाट, आतंकवादियों द्वारा जम्मू-कश्मीर में हिंदुस्तानपरस्त निहत्थे बेगुनाह मुस्लिम-हिंदू नागरिकों के साथ ही भारतीय सुरक्षाकर्मियों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले और उनकी जवाबी कार्रवाई के रूप में दिखाई देती है। इसका दूसरा पहलू गतवर्ष 7 अक्तूबर को इज़राइल पर ‘हमास’ द्वारा किए गए भयानक हमले और फिर उसके ज़वाब में लगभग नेस्तनाबूत गाज़ापट्टी में रोते-बिलखते बच्चों, बुजुर्गों और स्त्रियों के साथ ही, रूस-युक्रेन युद्ध में हताहत होने वाले लोगों के हृदयविदारक दृश्य भी सामने आए हैं।
यह सब देख-जानकर यही लगता है कि तमाम वैज्ञानिक एवं भौतिक संसाधनों के विकास के बावजूद युवल नोहा हरारी का कथन कमोबेश सही प्रतीत होता है कि इतिहास की प्रक्रिया में जंगली बौद्धिक यात्रा अटकलों के सनसनीखेज प्रदर्शनों से युक्त और खून-खराबे के साथ समाप्त होती है।
‘आरंभ और अंत’ कविता में पोलिश कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का लिखती हैं:
हर युद्ध के बाद
करनी होगी किसी को तो सफ़ाई
आखिर, सब स्वयं ही
ठीक तो नहीं हो जाएगा।
किसी को तो हटाना होगा मलबा
करनी होगी सड़कें साफ़
ताकि मिल सके रास्ता
लाशों से लदी गाड़ियों को।
(2) आज का विश्व अनेक तरह से हिंसा से घिरा है। किंतु, इसके मूल में पूंजी की वह वैश्विक दिग्विजय यात्रा है जो चंद विकसित देशों के हित में पूरी धरती ही नहीं, बल्कि महासागर और अंतरिक्ष तक पर अपना एकाधिकार जमाकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की कोशिश में है। विचित्र बात है कि इस अंधी दौड़ में कम्युनिस्ट कहा जाने वाला ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ भी शामिल हो गया है। हाल में ‘दक्षिण चीन सागर’ में चीन के युद्धपोतों ने फिलिपींस के एक व्यापारिक जहाज को जिस प्रकार घेरकर उसके एक द्वीप पर कब्जा करने की कोशिश की है, वह हिंसा नहीं तो और क्या है। क्या इसी दौड़ में शामिल होने के लिए चेयरमैन माओत्से तुंग ने ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का सूत्रपात किया था। हालांकि उस क्रांति में हुई हिंसा के भी किस्से हजार हैं।
इसी प्रकार गाजा पट्टी में हुए नरसंहार के मूल में इजराइल को परिष्कृत अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति है, जो निश्चित तौर पर मुफ्त नहीं है। हमारे अपने देश भारत ने संभावित चीनी विस्तारवादी आक्रमण और पाकिस्तानी हमले का मुकाबला करने के लिए फ्रांस से राफेल विमानों की खरीददारी पर जितना खर्च किया है, उस राशि से न जाने कितने पिछड़े इलाके विकसित हो जाते। याद रहे कि एक विकसित राष्ट्र अमेरिका पाकिस्तान को हथियार बेचता है या कुछ अलग तरह की सामरिक सौदेबाजी के एवज में मुफ्त आपूर्ति करता है तो दूसरा विकसित राष्ट्र फ्रांस भारत को हथियार बेचकर अकूत धन कमाता है। इसलिए हिंसा के मूल में पूंजी के खेल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस हिंसा की सभ्यता और विकास के बीच सांप और सीढ़ी का खेल हमारे समय में चरम पर है जिसका दुष्परिणाम है विकसित देशों का विकास और विकासशील देशों का विनाश।
(3) मीडिया, वीडियो गेम, सोशल मीडिया आदि की हिंसा को बढ़ावा देने में महती भूमिका है। मीडिया पर लगातार हिंसक दृश्यों को बारंबार देखना दर्शक को हिंसा के प्रति संवेदनहीन बनाता है। नतीजतन दर्शक कालांतर में हिंसा को सामान्य मानकर उसकी अनदेखी करने लग जाता है। इससे भी आगे, सुस्वादु भोजन करते हुए उसे यमन या नाइजीरिया में भूख से बिलखते हुए लोगों पर होने वाली हिंसा रोमांचक प्रतीत होने लगती है। वह पहले देखे गए हिंसक दृश्यों से ज्यादा हिंसा देखे बगैर विचलित नहीं होता।
गूगल की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में ट्विन टॉवर पर हुए आतंकवादी हमले को यूट्यूब पर देखने वालों की संख्या कई बिलियन है। इससे पूर्व अमेरिका द्वारा इराक पर और बाद में अफगानिस्तान पर की गई बमबारी को टेलिविजन पर देखकर अमेरिकी रक्षा अनुसंधान एवं सामरिक शक्ति की प्रशंसा करने वाले दुनिया के खुशहाल मध्यवर्गीय समुदाय की संख्या भी कम नहीं रही है।
वीडियो गेम का बच्चों के मन पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के अध्ययन का विषय है। इनमें से अधिकांश का मत है कि बहुत ज्यादा विजुअल्स देखना बालमन के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध ही नहीं, बल्कि विकृत करता है। आजकल के ज्यादातर परिवारों में बच्चों द्वारा इंटरनेट और खास तौर पर मोबाइल की लत एक बड़ी समस्या है। जो माता-पिता शिशु को रात में सोते समय कहानी या लोरी सुनाने की जहमत न उठाकर मोबाइल पकड़ा देते हैं वे ही आगे मोबाइल की लत के कारण बच्चे की पढ़ाई में पिछड़ने का रोना रोते दिखाई देते हैं।
इससे भी भयानक स्थिति वह है जब कुछ विकृत बोहेमियन युवा इंटरनेट पर बच्चों को वीडियो गेम खेलने के लिए उकसाते हैं और बच्चे रातभर जागकर वीडियो गेम खेलने में डूबे रहते हैं। यह हादसा उन परिवारों में अधिक देखा गया है जहां सुख-सुविधा के नाम पर बच्चे को घर में अलग कमरा दे दिया जाता है। दुर्भाग्यवश कभी-कभार बच्चे इस क्रम में चाइल्ड पोर्नोग्राफी के जाल में फंसकर डिजिटल अपराध जगत में प्रवेश कर जाने को अभिशप्त होते हैं।
(4) इधर घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई ही है, उसका स्वरूप भी बदला है। सच यह है कि हमारे समय में घरेलू हिंसा पहले के मुकाबले में अत्यधिक सूक्ष्म और शायद ज्यादा क्रूर होती चली जा रही है। घरेलू हिंसा में वृद्धि का सबसे बड़ा कारण स्त्रियों का पहले की तुलना में ज्यादा मुखर होना है। आज की स्त्री आंसुओं से भीगी हुई आंखों (‘दीदा-ए-तर’) वाले चेहरे के बजाय पितृसत्ता की तिकड़म को भलीभांति समझने वाली आंखों वाले दृढ़ मुखमंडल से लैस है। उसका प्रतिवाद सहन न कर पाने की वजह से पुरुष उसे प्रताड़ित करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाता है। हिंसा के अनेक रूपों में वाचिक हिंसा, गैस लाइटिंग, विवाह में यौन शोषण और मानसिक हिंसा के विविध रूप शामिल हैं। भारत में निम्नवर्गीय एवं निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में इसकी वजह अधिकतर आर्थिक होती है, जबकि उच्च-मध्यवर्गीय एवं उच्चवर्गीय परिवारों में कई बार अहं की टकराहट इसका कारण हुआ करता है। केदारनाथ सिंह की ‘जाना’ कविता इस टकराहट को ध्वनित करती है:
मैं जा रही हूँ -उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि ‘जाना’-
हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है।
सिमोन द बोउआर ने लिखा है कि जो व्यक्ति दूसरों की यातना के लिए हृदयहीन हो सकता है, वह खुद अपनी तकलीफ के लिए पहले ही संवेदनहीन हो चुका होता है। इसलिए परिवार में इन स्थितियों को संवेदनशून्यता कहना सही होगा। इससे विलग और मनोरंजक स्थति वह होती है जब एक-दूसरे से ऊबे हुए दांपत्य का बोझ ढो रहे पति-पत्नी फेसबुक आदि के माध्यम से परस्पर विवाह की सालगिरह का बधाई संदेश प्रसारित करते हैं।
आजकल स्त्री के प्रति यौन हिंसा में जो वृद्धि दिखाई दे रही है उसका एक बड़ा कारण हिंसा की रिपोर्टिंग भी है, जो पहले न के बराबर होती थी। मोबाइल पर एक क्लिक से पोर्नोग्राफी देखने की सुविधा और शराब का हर जगह सुलभ होना यौन हिंसा में बढ़ोतरी का बड़ा कारण है। खुशहाल परिवारों में स्त्री के प्रति हिंसा के नए रूपों में सबसे ज्यादा प्रचलित रूप उसकी उपेक्षा करना या उसे मजाक का विषय बना देना है।
(5) गांधी की दृष्टि में हिंसा का अर्थ अत्यंत व्यापक है। याद रहे कि अहिंसा के पुजारी कहे जाने वाले गांधी कायरता को अहिंसा नहीं मानते। उन्होंने स्पष्ट लिखा है : हालांकि हिंसा वैध नहीं है, लेकिन जब यह आत्मरक्षा में या असहाय लोगों की रक्षा के लिए की जाती है, तो यह कायरतापूर्ण समर्पण से कहीं बेहतर बहादुरी का कार्य है। कायरता न तो पुरुष और न ही महिला को शोभा देती है। हिंसा के अंतर्गत वीरता के कई चरण और प्रकार होते हैं। प्रत्येक मनुष्य को इसका निर्णय स्वयं करना चाहिए। वे मानते हैं कि एक खुद्दार हिंसक मनुष्य कालांतर में अहिंसक हो सकता है, पर कायर कभी सच्चे अर्थों में अहिंसक नहीं हो सकता। उपस्थित कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि गांधी हिंसा को महिमामंडित करते हैं। उनके व्यक्तित्व में भारतीय धर्मग्रंथों का सार समाहित है। और कहना न होगा कि जिस ‘महाभारत’ को आम तौर पर युद्ध का ग्रंथ माना जाता है उसके आरंभ और अंत, दोनों में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। गांधी हर तरह की हिंसा के विरुद्ध थे। वे मृदुभाषी थे और वाचिक हिंसा भी उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति की अपील करते हुए अडोल्फ हिटलर को दो पत्र लिखे थे।
उन्होंने एक पत्र में लिखा था : ‘हमें आपकी बहादुरी या अपनी पितृभूमि के प्रति समर्पण के बारे में कोई संदेह नहीं है, न ही हम मानते हैं कि आप अपने विरोधियों द्वारा वर्णित राक्षस हैं। लेकिन आपके स्वयं के लेखन और घोषणाएं और आपके मित्रों और प्रशंसकों के लेखन और घोषणाएं संदेह के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती हैं कि आपके कई कृत्य राक्षसी और मानवीय गरिमा के लिए अशोभनीय हैं, विशेषकर मेरे जैसे लोगों के लिए, जो सार्वभौम मित्रता में विश्वास करते हैं।’
यह अलग बात है कि गांधी के पत्रों का हिटलर पर कोई असर नहीं हुआ।
(6) यह सच है कि दुनिया में हिंसा आज भी एक बड़ी समस्या है, पर इसे रोकने के लिए अकसर उल्टी गंगा बहाई जा रही है। उदाहरण के लिए आज दुनिया का हर समर्थ देश परमाणु बम बनाकर खुद को दूसरे देशों की संभावित हिंसा से बचाने की सोच रहा है। उदाहरण के लिए विकसित देशों की कतार में खड़ा होने के लिए चीन ने परमाणु बम बनाया, जिससे खौफ खाकर भारत ने परमाणु परीक्षण किया। और, भारत की परमाणु शक्ति से भयभीत होकर जुल्फीकार अली भुट्टो ने नारा दिया- घास की रोटी खाएंगे, एटम बम बनाएंगे! जाहिर है कि अब भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। हाल में ईरान के बारे में कहा जाने लगा है कि वह गुपचुप परमाणु बम बना चुका है।
धार्मिक आतंकवाद और अलगाववाद हिंसा को महिमामंडित करता है, जिससे निपटने के लिए धार्मिक के बजाय विज्ञान-सम्मत आधुनिक शिक्षा का व्यापक प्रसार जरूरी है।
इससे इतर हिंसा का एक बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन देशों और अपने देश के भीतर लगातार बढ़ती जा रही आर्थिक असमानता है। कुछ विचारकों का कहना है कि धार्मिक मूलगामिता की जड़ में बाजारवादी मूलगामिता (मार्केट फंडामेंटलिज्म) है। ‘हिजबुल्लाह’, ‘बोकोहरम’, ‘तालिबान’ या ‘हमास’ के जन्म के कारणों पर विचार करने पर कई चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आते हैं।
भारत में हिंसा को रोकने के लिए कोई सामाजिक अभियान दिखाई नहीं पड़ता। इसका सबसे बड़ा कारण समाज का राजनीति केंद्रित होकर रह जाना है। सामाजिक अभियान चलाना एक साधना है। इसके लिए नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की दरकार होती है। अफसोस की बात है कि हमारे देश में कुछ वर्षों तक सामाजिक कार्य कर लेने के बाद लोग राजनीति में आकर जल्द से जल्द अपने सामाजिक कार्य की कीमत वसूल लेना चाहते हैं। उन्हें शायद लगता है- ‘ज़िंदगी न मिलेगी दुबारा!’
प्रोफेसर, सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्विजेज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली–110067 मो.7678380738
सौरभ वाजपेयी
गांधीवादी लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के सहायक प्रोफेसर।
मूक समुदायों के मुखर होने से उनपर हिंसा बढ़ी है
(1)मानव सभ्यता के लिए हिंसा शब्द अपरिचित नहीं है। मनुष्य अपने उद्भव और विकास के क्रम में ही हिंसक रहा है। अहिंसा शब्द भी अपने आप में हिंसा का विरोधाभासी शब्द है। यानी हिंसा मूल है और अहिंसा मानव चिंतन की उपज। इसीलिए हिंसा शब्द सुनकर मुझे दुख भले महसूस हो, कुछ भी अस्वाभाविक महसूस नहीं होता। यह ऐतिहासिक सत्य है कि सभ्यतागत रूप से कहें तो हिंसा और अहिंसा के बीच हमेशा एक संघर्ष रहा है। यहां तक कि कई बार अहिंसा की स्थापना के क्रम में भी हिंसा का सहारा लेना उचित माना गया है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण समाज में व्याप्त हिंसा के अंत के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। इस तरह हिंसा के पक्ष में पवित्र और शास्त्रीय आधार मौजूद रहे हैं। यह भी उतना ही सत्य है कि अहिंसा से कहीं ज्यादा हमारे चारों और हिंसा ही अधिक व्याप्त रहती है। हिंसा के सभी प्रकार और विचार किसी न किसी रूप में हमें घेरे रहते हैं। इसलिए हिंसा शब्द सुनकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। समाज में अन्याय के अनगिनत प्रकार हैं। यह हमारे परिवार से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों तक विविध रूप से हमें पीड़ित करती है। हर युग में अन्याय के विरुद्ध संघर्षों को देखें तो मुझे भोली-भाली अहिंसा नापसंद है। इससे मेरा आशय है कि अगर हम समाज और हिंसा के अंतर्संबंध को नजरंदाज करेंगे तो हम अहिंसा की स्थापना के लिए काम कैसे कर पाएंगे। दुख एक चीज है, समाज-संदर्भ की समझ एकदम अलग।
(2)असामनता विश्व की सबसे बड़ी हिंसा है। हम अक्सर हिंसा में युद्ध, गृहयुद्ध, जातीय हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा को ही हिंसा मान बैठते हैं। यह शोर मचाने वाली हिंसा है। यानी ऐसी हिंसा जिसपर बहुत स्वाभाविक रूप से बहुत चर्चा होती है। लेकिन मूक हिंसा कई बार अधिक गंभीर होती है और आबादी के बहुत बड़े हिस्से को चुपचाप प्रभावित करती है। दुनिया में उपनिवेशवाद से अधिक हिंसक कुछ नहीं रहा है। उपनिवेशवाद पूंजीवाद का सह-उत्पाद है। इन दोनों प्रवृत्तियों ने दुनिया को शोषण, अन्याय और मूक हिंसा के कुचक्र में फंसा दिया है। अमेरिका के भीतर पूंजीवाद और उपनिवेशवाद ने रेड इंडियंस की तमाम प्रजातियों का सफाया कर दिया। यह दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार था। लेकिन चूंकि दुनिया में विमर्श पर भी पूंजीवादी कब्जा हो गया, इसपर न उतनी चर्चा हुई न उतना विमर्श। जो हुआ भी वह हाशिए के बौद्धिक विमर्श तक सीमित हो गया। अफ्रीकी समाज के मूल चरित्र को उपनिवेशवाद ने पूरी तरह कुचल दिया है और सभी समाज खिचड़ी समाज बन गए हैं। उसके बाद उनके बीच सबसे बड़ा विमर्श ब्लैक आइडेंटिटी बन गया जो दरअसल उपनिवेशवाद के विरुद्ध उनके संघर्ष की उपज था। वरना उपनिवेशवाद से पूर्व समाज में ब्लैक आइडेंटिटी एक स्वाभाविक आइडेंटिटी हुआ करती थी। वह कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसके इर्द-गिर्द कोई राजनीति खड़ी हो।
कहने का अर्थ यह है कि जब हम वैश्विक संदर्भ में बात करें तो इन मूक हिंसाओं पर भी तो बात करें। कहीं ऐसा न हो कि रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध और इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को हम हिंसा मानें लेकिन ऐसी मूक हिंसाओं पर बात न करें। अब विकास की बात करें और ऊपर के संदर्भ को ध्यान में रखें तो प्रश्न उठता है कि विकास से हमारा अर्थ क्या है? विकास का एक मॉडल यूनिवर्सल कैपिटलिस्ट मॉडल है। सड़क, फैक्ट्री, मॉल, पार्क अब हमारी विकासात्मक चेतना के प्रतीक बन गए हैं। आम जनता अब विकास से यही अर्थ लगाती है। ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स विकास की हमारी जनचेतना का हिस्सा नहीं रह गए। जिस समाज में किसी विदेशी मेहमान के आने पर गरीबों को विस्थापित कर दिया जाता हो या झुग्गी झोपड़ियों को हर रंग के कपड़ों से ढक दिया जाता हो, उसमें विकास से हमारा आशय क्या है, यह स्पष्ट करना पड़ेगा।
(3)दुनिया में वैश्विक शक्तियों ने पहले तो उपनिवेशवादी प्रोपगंडा के लिए अपनी तरह का साहित्य उत्पादित किया। गुलाम देशों को हेय दिखाने के लिए बौद्धिक हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। उसके बाद दुनिया भर में उपनिवेशवाद-विरोधी चेतना ने कुछ हद तक इसका प्रतिकार किया। लेकिन शीतयुद्ध के दौरान और उसके बाद नए-नए तरीकों से दुनिया में नए-नए प्रोपगंडा टूल बनाए गए। सोचने की बात है कि आखिर दुनिया को बचाने के सर्वाधिक लोकप्रिय महानयक अमेरिकी ही क्यों हैं? आखिर दुनिया को बचाने के लिए दुनिया को मिस्टर अमेरिका जैसे सुपरहीरो की जरूरत बच्चों के दिमाग में क्यों भरी गई? यह सब अमेरिकी प्रोपगंडा था और इसी तरह का प्रोपगंडा टीवी से लेकर विडियो गेम तक परोसा गया।
अगर आप हॉलीवुड की फिल्में देखें तो पता चलेगा कि वहां अधिकतर फिल्मों में खलनायक या शत्रु रूसी ही बनाए जाते रहे हैं। शीतयुद्ध और उसके बाद दुनिया भर के शक्तिशाली देशों की हिंसा को यथोचित ठहराने के लिए अपरोक्ष रूप से इन सबका इस्तेमाल किया गया है। अब पबजी जैसे गेम भी वही काम कर रहे हैं कि हर एक खिलाड़ी को मारकाट करने के ट्रेंड के तहत एक वर्चुअल सोल्जर बना दिया गया है। छोटी उम्र के बच्चे ऐसे गेम खेलते हुए हिंसा के प्रति अभ्यस्त होते चले जा रहे हैं। यह हिंसा के जनरलाइजेशन का एक सुनियोजित प्रपंच है।
(4)मेरे हिसाब से घरेलू हिंसा का परिदृश्य थोड़ा बदला है। पढ़ी-लिखी लड़कियों में बहुतेरी अब घरेलू हिंसा के प्रति नो-टॉलरेंस रखती हैं। इसलिए तलाक अब समाज में सामान्य होता जा रहा है क्योंकि लड़कियां किसी प्रकार की घुटन, दबाव या अन्याय को सहती नहीं रहती हैं। यह रूढ़ि भी टूटी है कि जिस घर में डोली उतरी है, वहीं से अर्थी उठेगी। लेकिन समाज के बड़े तबके में अभी भी घरेलू हिंसा व्यापक है। परंतु यहां भी अब स्त्रियों में प्रतिरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। इसलिए हिंसा में स्वाभाविक रूप से वृद्धि हुई है। जब तक कोई समाज, समुदाय या वर्ग चुपचाप अन्याय सहन करता है, शांति बनी रहती है। जैसे ही लोग अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू करते हैं, उनपर हिंसक आक्रमण बढ़ जाता है। स्त्रियों के प्रति हिंसा के मामले में भी यही सही है।
कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर शोषण के नए रूप सामने आ रहे हैं। अब महिलाएं पढ़-लिखकर काम कर रही हैं। काम करने वाली महिलाओं के यौन शोषण के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इसके अलावा, समाज में एक ओर बलात्कार जैसे घृणित अपराधों के विरुद्ध चेतना का प्रसार हुआ है। दूसरी तरफ बलात्कार के बाद उनकी हत्या और उनके शरीर को विकृत करने जैसे अपराध भी बढ़ते चले जा रहे हैं। कोलकाता में घटी हालिया घटना इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। अपराधी को पता है कि स्त्रियां अब बलात्कार को मुंह काला होना नहीं मानतीं और चुपचाप इस कुकृत्य को छुपाकर नहीं रखतीं। वे बोलती हैं और समाज उनका साथ देता है। इसलिए सुबूत मिटाने के क्रम में उनकी हत्या की प्रवृत्ति बढ़ी है।
(5)दरअसल यह उत्तर एक तरह से पहले उत्तर का विस्तार है। गांधीजी संभवतः पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंसा को हिंसा से मिटाने के बरक्स हिंसा को अहिंसा से मिटाने की पद्धति विकसित की। वे छोटी-से छोटी हिंसा से लेकर परमाणु बम तक पर इसी पद्धति को विस्तार देने का प्रयास करते रहे। अमेरिकी पत्रकार मार्गरेट बोर्क वाइट ने गांधीजी से सवाल पूछा- आप परमाणु बम का अहिंसा के साथ सामना कैसे करेंगे? गांधीजी का जवाब था- मैं भूमिगत नहीं होऊंगा। मैं सुरक्षा घेरे में नहीं जाऊंगा। मैं खुले में आऊंगा और पायलट को दिखाऊंगा कि मेरे मन में उसके प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। पायलट अपनी ऊंचाई से हमारा चेहरा नहीं देख पाएगा, यह मैं जानता हूँ। लेकिन हमारे दिलों में जो इच्छा है- कि उसे कोई नुकसान न पहुंचे- वह उस तक पहुंचेगा और उसकी आंखें खुल जाएंगी। युद्ध के संबंध में वे मानते थे कि युद्ध शक्ति के अतिरिक्त कोई नियम नहीं जाता। यानी जिसके हाथ में शक्ति है वह हिंसक हो सकता है।
(6)दुनिया में हिंसा को रोकने के अभियान शक्तिशाली सत्ताओं के सामने नतमस्तक हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की जिम्मेदारी विश्व शांति की स्थापना थी। लेकिन उसकी संरचना ऐसी थी कि संयुक्त राष्ट्र दुनिया के ताकतवर देशों के हाथ की कठपुतली बन गया। सुरक्षा परिषद में ‘बिग 5’ के वीटो पॉवर ने विश्व शांति को संकल्प नहीं सुविधा बना दिया। इसलिए दुनिया की सबसे बड़ी संस्था ही एक तरह से विश्वशांति की स्थापना में असफल सिद्ध हुई है। तृतीय विश्वयुद्ध नहीं लड़ा गया, इसकी बड़ी वजह यह थी कि परमाणु युद्ध जैसे विनाशकारी युद्ध से सभी देशों को खतरा था।
विश्वशांति की सबसे बड़ी अलख गांधीजी के बाद नेहरूजी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से निरस्त्रीकरण के तहत जगाई थी। लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री ने तो पोलैंड और ऑस्ट्रिया के अपने दौरे पर लगभग इसके औपचारिक समापन की घोषणा की है।
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