अनुवाद, लेखन तथा संपादन का लंबा अनुभव।
के. श्रीलता
अंग्रेजी साहित्य की जानी पहचानी लेखिका। कवि, उपन्यासकार औरसंपादक। आई.टी. मद्रास में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं। इनके अनेक कविता संग्रह तथा एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें अनेक साहित्यिक सम्मान भी मिले हैं। कविताओं में महाभारत की कथाओं को स्त्री के नजरिए से समझने की कोशिश की गई है। कविताओं की शुरुआत गद्यात्मक टिप्पणी से होती है जो कविताओं के अभिन्न अंग हैं।
माधवी अपनी सखियों से कहती है
देवदत्त पटनायक ने इसे जया में एक नए पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। माधवी की कहानी महाभारत के पांचवें सर्ग के उद्योग पर्व में आती है। गालव ऋषि राजा ययाति से आठ सौ सफेद घोड़ों की मांग करते हैं जिनके एक कान काले होते हैं। इन्हें श्याम कर्ण अश्व कहते हैं। वे इन्हें अपने गुरु विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा के रूप में देना चाहते हैं। ययाति के अस्तबल में इस दुर्लभ किस्म के घोड़े नहीं थे। लेकिन वे गालव को खाली हाथ वापस नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए वे ऋषि को अपनी बेटी माधवी का हाथ सौंपने का प्रस्ताव करते हैं। कहते हैं कि माधवी को अक्षत कौमार्य का वरदान था। वह चाहे कितने ही लोगों के साथ संबंध बनाती या बच्चों को जन्म देती, उसका कौमार्य हमेशा बना रहता। ययाति ने गालव से कहा कि वे माधवी को चार लोगों से संबंध बनाने के लिए भेज सकते हैं। इसके बदले में वे प्रत्येक व्यक्ति से दो सौ ऐसे घोड़े मांग सकते हैं। गालव माधवी को तीन ऐसे राजाओं के पास भेजते हैं और प्रत्येक से उसे एक एक पुत्र की प्राप्ति होती है। इस तरह गालव को छह सौ घोड़े मिल जाते हैं। हर बार माधवी का कौमार्य वापस आ जाता है। इसके बाद गालव विश्वामित्र से मिलते हैं और वे उनसे कहते हैं, ‘आप के आठ सौ घोड़ों में ये छह सौ घोड़े हैं। आप माधवी से एक पुत्र की प्राप्ति कर सकते हैं जो बाकी दो सौ घोड़ों के बराबर होगा।’ विश्वामित्र छह सौ घोड़ों सहित माधवी को स्वीकार कर लेते हैं। शीघ्र ही उन्हें माधवी से एक पुत्र की प्राप्ति होती है। इस प्रकार गालव विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा चुकाने में सफल होते हैं। चार पुत्रों को जन्म देने के बाद माधवी अपने पिता के पास वापस लौटती है जो उसका विवाह उसकी इच्छा के अनुरूप पुरुष से करने का प्रस्ताव देते हैं। माधवी इनकार कर देती है। वह ऋषियों का जीवन बिताने का फैसला करती है।
भूल जाती हूं मैं
माला के मनके गिनना
गालव के लिए तो सिर्फ गिनती का महत्व था
विश्वामित्र की गुरुदक्षिणा के लिए किसी भी तरह
जुटाने थे चांद की तरह श्वेत आठ सौ घोड़े
जिनके एक कान हों श्याम-वर्ण।
और यही तो उन्होंने मांगा था मेरे पिता से
आगे तो तुम जानती हो सखी
मैं बन गई गालव का पथ
कि सब मिल कर पूरा हो सके
मेरा शरीर था उपहार जिसका सौदा हुआ
मेरे घर आने वाला कोई व्यक्ति नहीं लौटता था खाली हाथ-
आत्मसम्मान और उदारता से भरे मेरे पिता को जानती हो तुम, सखी
उनकी आज्ञा से मैं चली गई उनके साथ
तीन राजाओं के साथ तीन साल तक उनके शयन-कक्ष में
और फिर विश्वामित्र के साथ भी
सबसे हुए मेरे एक एक पुत्र।
और क्या चाहिए था मुझे?
गालव के लिए भी इससे अच्छा और क्या होता?
आखिर, मैने पुत्री के कर्तव्य का किया पालन
स्वर्ग में सुरक्षित है मेरा स्थान
और मेरा तो कुछ नहीं हुआ नुकसान
क्योंकि मैं तो हमेशा वापस पा जाती थी अपना कौमार्य,
फिर कैसी शिकायत, गिले शिकवे कैसे?
पता नहीं तुम्हें छोड़कर किसे कहूं यह सब, सखी,
कभी कभी रातों में जगती हूँ
तो लगता है मेरी छातियों पर रेंग रहे हैं तिलचट्टे
लगता है मेरी त्वचा याद कर रही है उन पुरुषों को
और वे कहते हैं कि मै हूँ कुंवारी
जिसे कोई गिले शिकवे नहीं।
गांधारी अपनी सखियों से कहती है-1
कहा जाता है कि गांधार के राजा सुबल की पुत्री गांधारी को भगवान शिव ने सौ पुत्रों का वरदान दिया था। भीष्म ने इसी कारण से उसका चयन अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र से विवाह के लिए किया। इस तरह वह कुरुवंश की सबसे बड़ी पुत्रवधू बनी। महाभारत के प्रचलित आख्यानों में माना जाता है कि जब गांधारी को पता चलता है कि धृतराष्ट्र जन्मांध हैं तो वह भी आजीवन अपनी आंखों पर पट्टी बांधने का फैसला कर लेती है। लेकिन वह ऐसा क्यों करती है? शायद उसने ऐसा विशुद्ध प्रेम और पत्नी की भक्ति के रूप में किया। शायद अपने पति की तरह जीवन बिता कर वह उनके जीवन में पूर्ण रूप से शामिल होना चाहती थी।
कल रात के स्वप्न में
पहाड़ी पर फैला नीला रंग
जैसे भौंहे
सखी, तुम्हें याद है वो दिन जब तुम्हें पता चला था?
मैं बारिश में नाचते मोरों को देख रही थी
चमक रही थी उनकी नीली गर्दन
तुम दौड़ती आई थी मुझे बतलाने
मेरे साथ धोखा हुआ था, तुमने कहा, वे अंधे हैं
उसी सुबह तो तुमने मेरी आंखों में लगाया था सुरमा
तुम हमेशा कहती थी, सुरमे के बिना राजकुमारी राजकुमारी नहीं होती
चक्कर आने के पहले मेरे दिमाग में कौंधा था यह
आगे तो तुम जानती हो बेशक…
बच्चियों की तरह मैंने किया फैसला अपनी आंखें ढंकने का
आदर्श अर्द्धांगिनियां यही तो करती हैं
वैसे तुमने मुझे रोकना चाहा था
तुम्हें तो पता है कितनी असमान होती हैं चीजें, इकतरफा,
‘क्या वे भी ऐसा करते अगर तुम होती अंधी?’ तुमने पूछा था
लेकिन अच्छी सलाह के लिए मैंने अपने कान बंद कर लिए थे
मैंने जने सौ पुत्र और एक पुत्री
लेकिन मैं नहीं जानती कैसे दिखते हैं वे, प्यारी सखी
सच है, मैंने अपनी उंगलियों से सीख लिया है उनके चौड़े शरीर को देखना
बिना लड़खड़ाए अपने कक्ष में चल सकती हूं ठोस कदमों से
लेकिन उनसे अलग मेरा देखना पूर्ण नहीं
क्योंकि मैंने देर से शुरू किया है इसे
नीली पहाड़ियों को नहीं देख सकती
मेरी उंगलियां
सूरज के नारंगी छोरों को नहीं महसूस कर सकतीं
मेरे कान नहीं देख सकते दुर्योधन की बांकी गर्दन
और न ही उसके झुकने पर होने वाली सरसराहट
धृतराष्ट्र देख सकते हैं जो कुछ, मैं नहीं देख सकती
वे देख सकते हैं हमारे बच्चे, मैं नहीं,
जैसे मैंने देखा था बारिश में नाचते उन मोरों को
उस दिन जब मेरे भाग्य ने फेरा था मुंह
सखी, किसी किसी दिन मेरी उंगलियां मचलती हैं
बस दुश्शला की हँसी देखने, चाहती हूँ कि खोल दूं पट्टियां
फिर कौन सी चीज रोकती है मुझे, पूछोगी तुम
सोचती हूं कि क्या मेरी आंखें सह पाएंगी रोशनी?
क्या दुनिया में आएगा रूप और रंग वापस
क्या फिर से भरोगी सुरमा मेरी आंखों में तुम
शायद और भी कम देख पाऊं जितना देखती हूं अब?
गांधारी अपनी सखियों से कहती है-2
इरावती कर्वे गांधारी के द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांधने के निर्णय को प्रतिरोध और नाराजगी के रूप में देखती हैं। अपने उपन्यासयुगांतमें वे गांधारी और धृतराष्ट्र के बीच एक बातचीत के बारे में लिखती हैं जिसके दौरान कुंती और विदुर भी उपस्थित हैं। उन चारों ने वाणप्रस्थाश्रम को वरन कर लिया है और वे जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम अध्याय में प्रवेश कर लिया है। धृतराष्ट्र गांधारी से कहते हैं, ‘तुम्हें मेरे अंधेपन के बारे में बिना बताए, तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया गया। हमने तुम्हारे साथ हजारों अन्याय किए हैं, गांधारी। लेकिन तुमने सब कुछ वापस कर दिया। क्या तुम कभी इसे भुला कर माफ नहीं कर सकती?’ वे आगे कहते हैं कि गांधारी ने उन्हें अपनी गलतियों की सख्त सजा दी। ‘….विवाह के समय जब तुम आंखों पर पट्टी बांध कर खड़ी थी, तो मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया था।’ वे कहते हैं, ‘मुझे लगा था कि मैं तुमसे आग्रह करूंगा और अपने प्रेम से तुम्हारे गुस्से को शांत कर पाऊंगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रात में जब तुम शयन-कक्ष में आई तब भी तुम्हारी आंखों पर पट्टी बंधी थी। तुम किसी का हाथ पकड़ कर लड़खड़ाती हुई अंदर आई। मैं जन्मांध हूं। मुझे बिना देखे चलने की आदत हो गई थी। लेकिन तुमने अपनी आंखें जानबूझ कर बंद कर ली थीं। तुम्हारे शरीर को इसकी आदत नहीं थी।….मैंने सोचा कि मैं अपने अधिकार का प्रयोग किए बिना तुम्हें समय के साथ मना लूंगा। लेकिन पहले दिन की तुम्हारी नाराजगी स्थायी हो गई। जब तुम्हारे बच्चे हुए तो मैं तुम्हें कहना चाहता था कि गांधारी, मेरे लिए नहीं तो कम से कम अपनी संतान का चेहरा देखने के लिए आंखों से पट्टी हटा लो। लेकिन तब तक मेरा हृदय भी कठोर हो चुका था। शायद तुम अपने बच्चों के लिए यह कर सकती थी, लेकिन मैं तुम्हें यह अवसर देने के लिए तैयार नहीं था। मुझे इस बदले में आनंद का अनुभव हो रहा था कि तुम कभी अपने पुत्रों का चेहरा नहीं देख पाओगी। आंखों पर पट्टी बांध कर तुम एक समर्पित पत्नी की भूमिका निभा रही थी।’ इसके बाद धृतराष्ट्र गांधारी से पट्टी हटाने के लिए कहते हैं। जब वह अपने आंखों की पट्टी हटाती है तो शुरुआत में उसे साफ साफ नहीं दिखाई देता। वह धीरे-धीरे अपनी आंखों का उपयोग करना सीख जाती है।
कल रात का सपना देखते
मेरी आंखें नहीं देख रही थीं…
‘अपने को खुद कारागार में नहीं डालो, गांधारी,’ तुमने कहा था
‘प्रतिरोध का यह कोई तरीका नहीं। हम कोई दूसरा रास्ता ढूंढेंगे।’
शायद तुम ठीक कह रही थी, सखी
लेकिन मेरे क्रोध की अग्नि थी रेगिस्तान में चमकते सूरज से भी तेज
और मुझे पता था कि यही तरीका यकीनन होता कारगर
मैं चली गई कारागार में
खुद के बनाए जेल में, तुम हमेशा कहती थी
वे भी कहते थे, कभी कभार
ढो रहा हूँ मैं एक बहुत भारी सलीब, माफ नहीं करोगी मुझे, गांधारी?
लेकिन बताओ सखी, इतने वर्षों के दौरान
तुमने सोचा है प्रतिरोध का दूसरा तरीका?
देवयानी अपनी सखियों से कहती है
सी. राजगोपालाचारी द्वारा लिखित महाभारत में दी गई कथा के अनुसार शुक्राचार्य की बेटी देवयानी को राजकुमारी शर्मिष्ठा ने एक बार कुएं में धक्का दे दिया। क्षत्रिय राजा ययाति ने कुएं से निकलने में उसकी सहायता की। देवयानी उससे शादी करने को कहती है क्योंकि कुएं से बाहर निकालते हुए उसने देवयानी का दाहिना हाथ पकड़ा था। ययाति मना कर देता है, क्योंकि वह क्षत्रिय है और देवयानी ब्राह्मण। लेकिन अंततः देवयानी ययाति को विवाह करने के लिए मना लेती है। देवयानी को कुएं में धक्का देने के अपराध में शर्मिष्ठा को उसकी दासी बनना पड़ता है। आगे चल कर ययाति शर्मिष्ठा से भी विवाह कर लेता है। नाराज होकर देवयानी शुक्राचार्य से शिकायत करती है। वे ययाति को समय से पहले बूढ़ा होने का श्राप देते हैं। ययाति उनसे क्षमा मांगता है। शुक्राचार्य कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति उसे अपना यौवन देना चाहे तो वह फिर से जवान बन सकता है। ययाति अपने बेटों से मदद मांगता है। केवल उसका पांचवां बेटा पुरु इस लेन-देन के लिए तैयार होता है। ययाति फिर से जवान हो जाता है, जबकि पुरु अपने ऊपर वृद्धावस्था धारण कर लेता है। कई वर्षों तक कुबेर के उपवन में एक अप्सरा के साथ रहने के बाद ययाति को अपनी गलती का अहसास होता है। वह पुरु को उसकी जवानी वापस कर देता है और स्वयं वृद्धावस्था धारण कर लेता है जो उसके लिए पहले से ही निर्धारित था।
अमलतास के फूल झड़ते हैं
अपनी उदासी से
बचती हूँ खुद
सखी, जल्दी खींच दो परदे
अब और नहीं देख सकती
अमलतास का फूलना
मेरे पति नाराज हैं मुझ पर, मेरे धोखेबाज पति
सफेद बालों और झुर्रियों वाले चेहरे के लिए मुझे कहते हैं दोषी
कहते हैं सब तुम्हारी ही है गलती
और तुम्हारे पिता की
क्रोध में आने की जरूरत क्या थी
अपनी छोटी-सी शिकायत लेकर क्यों गई थी तुम पिता के पास?
औरतों को गुस्सा शोभा नहीं देता
इस धरती के सभी राजाओं की हैं
एक से अधिक पत्नियां
यही है क्षत्रिय धर्म
तुम्हें भी पता है यह जैसे कि मुझे
उसे मिल जाएगी वापस जवानी तथा औरतें भी,
मुझे पता है, मिलेगी उसे। वह बना रहा है मंसूबे
लेकिन सखी, बताओ क्या कर सकती है मुझ जैसी औरत, जो है
जवान, और चाहती है अपने हिस्से का आनंद?
मेरे लिए तो कोई दूसरा रास्ता नहीं, दूसरा मौका नहीं
परदे जल्दी खींचो सखी,
अब और नहीं देख सकती
अमलतास का फूलना।
अंतर्दृष्टि
‘तुम्हें क्या दिखाई दे रहा? मुझे बताओ।’ द्रोण ने अपने शिष्यों से कहा। जाहिर है कि यह चालाकी भरा सवाल है। उन्होंने एक लक्ष्य निर्धारित किया था। पेड़ पर भूसा भरा तोता टंगा था। उनके शिष्यों को इसकी आंख पर निशाना साधना था।
सबसे पहले युधिष्ठिर ने जवाब दिया। ‘मुझे तोता दिखाई दे रहा है।’ उन्होंने कहा। फिर दुर्योधन की बारी आई। उसने अपने जवाब में कुछ और मसाला लगाकर कहा। ‘मुझे आम के पेड़ की टहनी पर भूसा भरा एक तोता दिखाई दे रहा है। मुझे आम की टहनी से लटका एक आम का फल भी दिख रहा है।’ अब अर्जुन की बारी थी। ‘मुझे सिर्फ तोते की आंख दिखाई दे रही है।’ उसने कहा। द्रोण ने पूछा, ‘और तोते का शरीर, आम का पेड़, टहनियां, टहनियों में लटके आम?’ ‘मुझे वो सब नहीं दिखाई देता। मैं सिर्फ तोते की आंख देख रहा हूँ।’ अर्जुन ने यह कहते हुए तीर का निशाना सीधे तोते की आंख में लगा दिया।
बस वही एक शब्द
ठीक ठीक मिलता है
तो बन जाती है कविता।
अंतराल, खाली स्थान
देवदत्त पटनायक जया में बताते हैं, पांडु को अभी-अभी अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हुआ था। वे अपने बेटों, पांडवों को एक राज की बात बताते हैं। वे बताते हैं कि ब्रह्मचारी के रूप में उन्होंने अपने जीवन के जितने साल ध्यान में बिताए हैं उसके बदले में उन्हें महान ज्ञान मिला है। ‘मेरी मृत्यु के बाद’, वे कहते हैं, ‘तुम लोग मेरा मांस अवश्य खाना। मेरा सारा ज्ञान तुमलोगों के अंदर चला जाएगा। तुम इसे अपनी विरासत मानो।’
पांडु की मृत्यु के बाद, पांडव उनका दाह संस्कार कर देते हैं। अपने पिता के मृत शरीर का मांस खाने की बात वे सोच भी नहीं सकते। विशेष कर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और नकुल तो बिलकुल नहीं। लेकिन सबसे छोटे बेटे सहदेव, जो बाद में चलकर तंत्र विद्या के जनक के रूप में जाने गए, की दृष्टि चीटियों के एक झुंड पर जाती है जो उनके पिता के शरीर से मांस का एक छोटा सा टुकडा़ अपने मुंह में लेकर जा रही थी। वह उस टुकड़े को अपने मुंह में डाल लेते हैं। तुरंत उनके अंदर भूत और भविष्य का ज्ञान जागृत हो जाता है।
यह लड़का योद्धा नहीं था
देखने से कवि लगता था वो।
लेकिन देख लेता था छोटी-सी छोटी चीज…
श्मशान भूमि में चलती चीटियों को भी
जो अपने चिमटे जैसे डंक में कस कर पकड़े थी
उसके पिता के शरीर के मांस का टुकड़ा
मेरे सभी भाई जा चुके हैं आगे
कपड़ों से चिता की राख झाड़ने को व्यग्र
दिन के कार्यव्यापार में
उनका मस्तिष्क हो चुका है व्यस्त
वे चिढ़ाते हैं, तुम नकली क्षत्रिय हो सहदेव,
त्याग दो अपना तीर-धनुष!
जिसे है अंतराल की तलाश
पन्ने के अनलिखे हिस्से को पढ़ने वाला
पक्षी, हवाओं की सरसराहट, चीटियां
धरती के अंदर उगने वाले
जो हैं कीमती, महत्वपूर्ण
धीरे से मैं चीटियों के डंक से निकालता हूं बाहर
रखता हूं अपनी जीभ पर
कैसा भारीपन है यह…
जानने के बोझ से लड़खड़ा रहे हैं मेरे कदम
मैंने क्यों इस अंधकार को दिया न्योता अपने ऊपर?
धरती पर नजरें
फिर से पढ़ रहा हूँ
जमीन पर गिरी हर पत्ती का आकार
देखता हूं लाल गुबरैले और झिंगुरों के पैरों से बने मानचित्र,
कदमों के नीचे चरमराती
हर पत्ती का सुन रहा हूं स्वर,
ज्ञान का अट्टहास हो रहा है कम
पक्षी, हवाओं की सरसराहट, चीटियां
धरती के अंदर उगने वाले। जो हैं कीमती, महत्वपूर्ण।
के श्रीलता ने महाभारत के आख्यान पर बहुत ही बेहतरीन कविता रची है। उनकी कविता दिल को छू गयी।
बधाई सर। हिंदी में इन कविताओं को नई पहचान मिली है। ये पहचान मौलिकता की है।काल कोई हो, स्त्री के नजरिए को समझा ही कितना गया है।
अनुवाद से लगता है कि कविताएँ आलोचना की दृष्टि से लिखी गयी हैं। किसी भी पौराणिक घटना को एक खास नजरिये से देखने पर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है। कविता की मौलिकता नष्ट हो जाती है और सहृदय के लिए स्वतंत्र होकर सोचने का मौका हाथ से जाता रहता है। वैसे इस तरह की रचनाओं को हिंदी जगत में पहचान दिलाने के लिए धन्यवाद।
महाभारत के त्रासद आख्यानों पर बहुत ही खूबसूरत कविताएं