वरिष्ठ कवि। पांच कविता संग्रह तथा एक कहानी संग्रह प्रकाशित।
ओ हमारी मातृभूमि के महावृक्ष!
तुम मुझसे उतने ही दूर हो
जितना मैं अपने आपसे
तुम्हारे पत्ते
छाया भी बने दूसरों के लिए
और झरकर राख भी
कैसे भले दिन थे वे
जब हम बच्चे अबोध थे
न हमें अपना इतिहास ज्ञात था
न हम धर्म को संदेह से देखते थे
हमारे लिए जीवन तो बस एक खेल था
जिसमें सब बराबर थे
नाम भिन्न-भिन्न मगर
न कोई हिंदू था न मुसलमान न सिख
भाषा एक थी
खानपान भी एक समान
ओढ़ना-बिछौना भी एक जैसा
हवा में प्यार था
जिह्वा पर मिठास थी
आत्मा निष्कलंक थी
नदियां दूषित नहीं थीं
हमने पिया
इन्हीं पावन नदियों का जल
वे दिन थे
जब हम दुआओं में
सबकी खैर मांगते थे
आज
हम जहां हैं
वहां गरजता हुआ एक लाउड स्पीकर है
जो याद दिलाता है
कौन हिंदू कौन मुसलमान कौन सिख
ओ हमारी मातृभूमि के महावृक्ष!
क्या यही है हमारे जीवन का हासिल
कि न मैत्री काम आई
न सादगी न शुचिता
न सौंदर्य में विश्वास
कौन हमें छल गया
कौन हमें रंगों में इस तरह बांट गया
कि न रोशनी सलामत रही
न इंद्रधनुषी छटा
हमने इतिहास से पूछा
वह चुप रहा
हमने समय से पूछा
वह भी टाल गया
हमने सबसे पूछा
पर हर बार भूल गए
अपने आपसे पूछना
हम स्वयं हैं उत्तरदायी
हमने धर्म को बना दिया युद्ध जैसा
और हम ही हैं
जो दिखाते फिरते हैं अपने घाव
ओ हमारी मातृभूमि के महावृक्ष!
जैसे डरता हूँ मैं अपने हमशक्ल से
क्या डरता होगा वह भी मुझसे
पर मैं ही तो हूँ उसके भय का कारण
जैसे वह है मेरे भय का कारण
थकान और गहन निराशा में
जब हम इतिहास की शरण जाते हैं
तो वहां से कुछ और घृणा लाते हैं
कुछ और क्रूरता कुछ और उन्माद
ओ हमारी मातृभूमि के महावृक्ष!
तुम ही बताओ कि
जिस कश्यप ॠषि ने बसाया हमारा सतीदेश
उस सतीदेश को
क्या किसी ने यह शाप दिया था
यहां सदा रहेगी अशांति
क्या भिन्न-भिन्न रूप लेकर
लौट आएगा बार-बार जलोद्धभव
और उत्पात मचाता रहेगा
क्या यही है नियति हम सबकी
ओ वितस्ता!
ओ हवाओ!
ओ हिमशिखरो!
क्या तुम्हारे पास नहीं है कोई उपाय
क्या यह उपत्यका
फिर से नहीं बन सकती पावनता का पर्याय
नित्य नूतन संवाद की वाहक
पर यहां सब चुप हैं
पता नहीं क्यों किस कारण
ओ हमारी मातृभूमि के महावृक्ष!
तुम ही बताओ
मैं किस से पूछूं
किसने हमारे लिए
यह विपदा का बीज बोया
हमें भरोसा है
हमारी जिजीविषा ही हमें साहस देगी
फिर चाहे घर उजड़े या वतन छूटे
हम जहां रहेंगे
जाफर फूलों की मालाएं
हमारे होने का सबूत देंगी
हमारे पास
कहने के लिए भाषाएं बहुत होंगी
पर हम ललद्यद के वंशज
अपनी प्रार्थनाओं में नित्य यही बुदबुदाते रहेंगे
कश्मीर!
कश्मीर!
कश्मीर!
संपर्क : 113-ए/4 आनंदनगर, बोहरी, तालाब तिल्लो, जम्मूतवी–180001, मो.9419020190
संतोषी जी,कविताएं सुखकर हैं, पढ़ने के बाद जिन प्रतीकों के माध्यम से आपने कुछ चोट करने की कोशिश की है वह प्रशंसनीय है, साधुवाद