महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा  में शोधार्थी।

मलूकदास (17वीं सदी) का पारिवारिक धंधा व्यापार था, जिसमें प्रायः उनका मन नहीं लगता था । वे अपने समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की दुश्वारियों से दो-चार हो रहे थे । न केवल उनका काव्य, बल्कि वैयक्तिक जीवन भी इसका सबूत पेश करता है कि वे अपनी जमीन से गहराई से जुड़े हुए थे। वे जनता के दुख-सुख, उसकी मुसीबतों और विपत्तियों से परिचित ही नहीं, सहभागी भी थे। मलूकदास की कविता में प्रायः एक न एक विपत्ति, उसकी भयावहता और उससे प्रभावित जन-जीवन की चर्चा है। एक कवि के रूप में क्या मलूकदास उस विपत्ति से निकलने का मार्ग सुझाते हैं, यह हमारी जिज्ञासा है ।

मलूकदास के रचनाकाल में जनता का जीवन स्तर अत्यंत निम्न था। कृषि और कुटीर उद्योग पर निर्भर लोगों को मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तरसना पड़ता था। सामंत वर्ग जनता को लूटने और खजाना भरने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता था। एक तरफ राज्य द्वारा कर अदा न करने पर किसानों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था, दूसरी तरफ, अनावृष्टि और अतिवृष्टि की स्थितियों में अकाल से सबसे ज्यादा परेशान किसान और अन्य श्रमजीवी जातियां होती थीं। इतिहासकार सैयद असलम अली ने लिखा है कि अकाल, महामारी तथा अन्य प्रकोपों के परिणामस्वरूप फसल नष्ट हो जाने से समस्त प्रजा सामान्य रूप से प्रभावित होती थी, परंतु सबसे अधिक विनाशकारी प्रभाव किसानों के जीवन पर पड़ता था। … किसान की गरीबी तथा कठिनाइयों का एक मुख्य कारण भू-राजस्व की ऊंची दर थी।  किसान दोनों तरफ से उत्पीड़ित थे। इस पीड़ा से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था।

मलूकदास अपने युग की नब्ज पहचानते थे । समाज की प्रत्येक गतिविधि की छाप उनके मनो-मस्तिष्क पर पड़ती थी, जिसकी अभिव्यक्ति उनकी लेखनी के माध्यम से होती है । भूख से परेशान जनता की पीड़ा को मलूकदास ने अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है –

‘देह धरे का बड़ा  जंजाल । जहँ तहँ फिरत ग्रासे काल ॥
आनि अचानक करत घात । जिय लै  भागै कहता बात ॥
एहि पापी सो कोउ न बाच । निति उठि पेट नचावै नाच ॥’

कवि अपने समय का सजग प्राणी होता है। वह अपनी समकालीन परिस्थितियों से जूझती जनता की दुश्वारियों का सटीक अंकन करता है। मलूकदास इसके अपवाद नहीं हैं। उन्होंने भी तदयुगीन संकट को पहचाना और जन सामान्य पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को अपनी कविता में व्यक्त किया। वे पेट को ‘पापी’ बताते हैं । स्पष्ट है कि भोजन समय से नहीं मिलता था। लोग केवल एक समय का भोजन करते थे और दूसरे समय प्रायः भुने हुए अनाज से भूख मिटाते थे, जबकि एक वर्ग ऐसा था जिसके पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी और उनका जीवन तड़क-भड़क से भरा हुआ था। फ्रांसिस्को पैलसर्ट के हवाले से विलियम हैरिसन मोरलैंड ने लिखा है, ‘धनी व्यक्तियों का जीवन बाहुल्य और निरंकुश शक्ति संपन्न है, जबकि साधारण व्यक्तियों का जीवन पूर्णरूपेण अधीनता और दरिद्रता का है : दरिद्रता इतनी अधिक और दयनीय है कि इन लोगों के जीवन का सही रूप में वर्णन या चित्रण करना संभव नहीं है।’ (अकबर से अंग्रेज तक) इससे स्पष्ट होता है कि सामान्य जनता की इस दयनीय अवस्था का मूल कारण शासक वर्ग की निरंकुशता और आर्थिक विषमता थी ।

मलूकदास जीवन को ‘जंजालों’ से घिरा हुआ पाते हैं, ‘आनि अचानक करता घात’। वह कौन है जो अचानक आघात करता है? वे किससे डर कर भागने की बात करते हैं? वह सामंत वर्ग है। यह आकस्मिक नहीं कि मलूकदास के समय के फ्रांसीसी यात्री बर्नियर (1620-1688) के एक पत्र में श्रमिकों की दयनीय अवस्था का अंकन मिलता है। ‘वह (श्रमिक वर्ग) जो कुछ करता है केवल अपनी जरूरतों से मजबूर होकर अथवा कोड़ों के डर से करता है। वह अमीर तो कभी हो ही नहीं सकता, और यदि उसे अपनी भूख मिटाने के लिए कुछ भोजन और तन ढकने के लिए मोटे-से-मोटा कपड़ा मिल जाता है तो वह इसे कोई मामूली बात नहीं मानता है।’ (बर्नियर की भारत यात्रा) ऐसी अवस्था में पेट को पापी कहना और जीवन को जंजाल बताना उस युग की दारुण दशा को दर्शाता है।

मलूकदास ईश्वर को संबोधित करते हुए अपना दुख अभिव्यक्त करते हैं –

अजब तमासा देखा तेरा । ता तें उदास भया मन मेरा ॥
उतपति परलय नित उठ होई । जग में अमर न देखा कोई ॥

मलूकदास की रचनाएं मलूकदास की बाणी (संपादक : चरण घूर) में संकलित हैं। वे ईश्वर को संबोधित करते हुए कहते हैं कि आपका तमाशा देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसका कारण यह है कि हमेशा अकाल पड़ जाता है जिससे जान-माल की भयंकर क्षति होती है। अकाल प्राकृतिक से ज्यादा मानव-निर्मित होते थे, इसलिए कवि उसे तमाशा मानता है।

दुर्भिक्ष में आम नागरिक की स्थिति और उनके संघर्ष की एक बानगी मलूकदास के यहां है –

भाई नाहिं बन्धु नाहिं कुटुम परिवार नाहिं,
ऐसा कोई मित्र नाहिं जाके ढिग जाइये ॥
सोने  की सलैया नाहिं, रूपे का रुपैया नाहिं,
कौड़ी  पैसा गाँठ नाहिं जासे कछु लीजिए ॥
खेती नाहिं बारी नाहिं बनिज ब्यौपार नाहिं,
ऐसा कोई  साहु नाहिं जासों कछु माँगिए ॥

कवि की सरल बात से स्पष्ट है कि ऐसी कोई आपदा आई है जिसमें सबकुछ तहस-नहस हो गया है। कोई ऐसा सगा नहीं बचा, जिसके पास जाकर वे अपनी विपत्ति के दिन गुजार सकें। खेती-बारी और व्यापार सब नष्ट हो गया है। व्यापार लगभग समाप्त हो गया है, इसलिए कोई ऐसा साहूकार भी नहीं है जिससे कुछ उधार लिया जा सके। इन सबके बीच वे यह भी कहते हैं कि उनके पास न तो ‘सोने की सलैया’ है और न ही ‘रूपे का रुपैया’। ध्यातव्य है कि बर्नियर ने भारत में मौजूद सोना-चाँदी के विषय में आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा है, ‘यह बात भी कम ध्यान देने योग्य नहीं है कि संसार में घूमघाम कर चाँदी सोना जब भारत पहुंचता है तो यहीं खप जाता है।’ सोना-चाँदी यदि अंतत: एक व्यक्ति के पास ही मौजूद है, तो इससे सामंतवादी जड़ें मजबूत होंगी, जबकि इसका विनिमय बढ़ने से कमजोर। मोरलैंड ने सोने की महत्ता के संदर्भ में लिखा है, ‘वस्तुओं की तुलना में सोने का मूल्य बहुत अधिक था … । सोने की सिर्फ एक मुहर पाने के लिए किसान को अपनी दो-तीन एकड़ जमीन की पैदावार देनी पड़ती होगी, और शहरी मजदूर को अपनी 200 दिनों की कमाई।’ अकाल के समय सभी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होना सामान्य बात है। ऐसे समय में कवि का यह संकेत वाजिब लगता है, ‘ऐसा कोई साहु नाहिं जासों कछु मांगिए’।

एक वर्ग के लोगों को अन्न और जल भी समय से नहीं मिलता है तो दूसरे वर्ग को अपनी विलासिता पर खर्च करने के लिए धन की किसी प्रकार की कमी नहीं थी । कृषक वर्ग की प्रताड़ना का कोई हिसाब नहीं था। उन्हें भुखमरी की अवस्था में जीने के लिए छोड़ दिया जाता था। मलूकदास अपनी कविता में अन्न की महत्ता अकारण ही नहीं बताते हैं-

धनि धनि अन्न देव धनि धनि पानी । जाकी भगति नारायन मानी ॥
अन्न में बसे जगत का प्राण । भूखै कछु न सोहाता आन ॥
बिनु अन्न बातै कहै बनाई । छूछ पछोरी उड़ि  उड़ि   जाई ॥
अन्न   देव  नाचै  अन्न  देव गावै । बिना अन्न मुख बात न आवै ॥
अन्न  पानी  की  भगति   अपार ।  भौजल  तरत  न  लागै   वार ॥
अन्न की  भगति  करहु  निहकाम ।  कहत  मलूक  रीझै   राम ॥

संत काव्यधारा के कवियों ने ज्ञान-चिंतन की परंपरा में अभूतपूर्व बदलाव किया। मलूकदास अन्न और जल को ईश्वर से भी बड़ा बताते हैं। अन्न और जल इतने बड़े हैं कि उनकी भक्ति नारायण भी करते हैं। संपूर्ण जगत का प्राण अन्न में बसता है। बिना अन्न और जल का अर्थात भूखे पेट रहकर किसी से बात करना ठीक वैसा ही लगता है जैसे बिना अनाज के खाली सूप फटकना। अन्न ही सबकुछ है, उसी के बल पर मनुष्य नाच सकता है, गा सकता है। मलूकदास की कविता में बटमारों और लुटेरों का वर्णन है । उन्होंने लिखा है –

अब मैं बाट न चलिहौं भाई ।
परग परग पर जोखिऊ लागै बहुत होत ठगहाई ॥
बड़े-बड़े लाख करोरिन लसिकर पैंड़े चलतें लूटे ।
काहू  का  खुर  खोज  न  रौखैं उनसे हाथी छूटे ॥

रास्ता चलने में भय लग रहा है, पग-पग पर जोखिम मौजूद है। कवि ने अपने समय के सामाजिक यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह जोखिम कुछ और नहीं, बल्कि उन लुटेरों से लूटे जाने और गुलाम बनाए जाने का है।  लुटेरों का संगठन है, ये आने-जाने वाले राहगीरों को लूटते हैं। इनके लूटने के व्यवसाय में बड़े-बड़े शासनाधिकारियों का भी सहयोग है। इस बात का अंदाज कवि की व्यंग्यात्मक पंक्ति से लगता है – काहू का खुर  खोज न रौखैं।

मनुष्यता की आवश्यक शर्त यह है कि भूखे को भोजन और प्यासे को पानी चाहिए। मलूकदास अपनी ओर से मनुष्यता की एक कसौटी पेश करते हैं । वे कहते हैं कि –

जो  प्यासे को  देवे  पानी । बड़ी  बंदगी  मोहमद मानी ॥
जो भूखे को अन्न खवावै । सो खिताब साहेब को पावै ॥
*          *          *          *          *          *
अपना सा दुख सबका जानै । दास मलूका ता को मानै ॥

मलूकदास ने अकाल और गरीबी से पीड़ित जनता को उससे मुक्ति का उपाय सुझाया है। समाज में धार्मिक बाह्याडंबर का बोलबाला था। बाह्याडंबर से समाज को मुक्त कराने की कोशिश मलूकदास करते हैं। कवि के मतानुसार अकाल से पीड़ित जनता के लिए यह सबसे जरूरी है कि वह धार्मिक बाह्याडंबर से मुक्त हो। वे परस्पर सहयोग के माध्यम से इस कठिन परिस्थिति से मुक्ति का मार्ग बताते हैं-

साधो दुनिया बावरी, पत्थर पूजन जाय ।
मलूक पूजै आतमा, कछु माँगै कछु खाय ॥
जेती देखै आतमा, तेते सालिगराम ।
बोलनहारा पूजिये, पत्थर से क्या काम ॥
आतम राम न चिन्हही, पूजत फिरै पषान ।
कैसेहु मुक्ति न होयगी, कोटिक सुनो पुरान ॥

मलूकदास बार-बार आत्मा की पूजा पर अत्यधिक बल दे रहे हैं। कवि ने आत्मा का प्रयोग ‘मेटाफर’ के रूप में किया है। उसकी सेवा का अर्थ है मनुष्यमात्र की सेवा। यह आत्मा कोई और नहीं, बल्कि वह निस्सहाय जनता है जिसका अकाल में सबकुछ बर्बाद हो गया है। उनका स्पष्ट मत है कि ‘बोलनहारा पूजिए’।

मलूकदास के विषय में प्राचीन भारतीय साहित्य के विद्वान एच. एच. विल्सन ने लिखा है, ‘मलूकदास के नाम से प्रचलित एक दोहा लोक में अत्यंत प्रसिद्ध है- ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका यों कहें सबका दाता राम।’ कहना न होगा कि औपनिवेशिक ज्ञानकांड के आलोक में एच. एच. विल्सन की इस आग्रहपूर्ण आलोचना से हिंदी जगत में एक गलत अवधारणा विकसित हुई। मलूकदास के साथ इस दोहे का संदर्भ जुड़ जाने के कारण साहित्य जगत का बहुत नुकसान हुआ है। बाद के आलोचकों ने तो इसे आलसियों का मूलमंत्र बताते हुए लिखा कि उक्त दोहा इन्हीं का है। सीधे-सीधे मलूकदास के नाम से ही लिख देना, एक तरह से उसके परीक्षण के अन्य सभी दरवाजों को बंद कर देना है। जिस दोहे को मलूकदास के नाम से लोक में प्रचलित बताया जाता रहा, उसका मलूकदास से कोई संबंध नहीं है। मलूकदास के अध्येता बलदेव वंशी ने बताया है, ‘यह साखी मलूक वाणी में कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यह प्रक्षिप्त साखी है।’

सारे संत कवि केवल रहस्यवाद और अध्यात्मवाद में आपादमस्तक डूबने वाले नहीं थे। भक्ति और अध्यात्म के भीतर उनके युग का यथार्थ विद्यमान है।

संपर्क: कमरा संख्या – 36, गोरख पाण्डेय छात्रावास महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र – 442001 मेल –alokprit3@gmail.com / मो. – 7522968490