दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्राध्यापक होने के साथ–साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक| अद्यतन प्रकाशित पुस्तक ‘स्त्री–कविता पहचान और द्वंद्व’|
के सच्चिदानंदन
द्विभाषी कवि, कथाकार, लेखक, आलोचक, नाटककार तथा संपादक| मलयालम में तीस कविता संग्रह, अंग्रेजी में नौ और अरबी, आयरिश, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, स्पेनिश, चीनी और जापानी सहित सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में तैंतीस संग्रह| अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित| लंबे समय तक साहित्य अकादमी की पत्रिका इंडियन लिटरेचर के संपादक रहे| अंग्रेजी में उनकी कविता की नवीनतम पुस्तकों में शामिल हैं– ‘वाइल आई राइट’, ‘मिसप्लेस्ड ऑब्जेक्ट्स एंड अदर पोएम्स’, ‘द मिसिंग रिब, नॉट ओनली द ओशन्स’,’द व्हिस्परिंग ट्री’, ‘नो बॉर्डर्स फॉर मी’ आदि| भारतीय साहित्य पर उनके चयनित निबंधों का संकलन ‘पोज़िशन्स’ शीर्षक से प्रकाशित|
तेरह साल की लड़की
तेरह साल की लड़की
तेरह साल का लड़का नहीं है
वह दुःस्वप्नों में डूबकर मरी है
जब तक कि वह भूल नहीं गई अपनी तितलियां
लोरियों को पीछे छोड़
वह अंधेरी सुरंगों से गुज़री है
तेरह साल की लड़की तैंतालीस की होती है
वह पहचान लेती है भद्दे स्पर्श को सच्चे से अलग
वह जानती है कि बचे रहने के लिए
झूठ बोलना गलत नहीं है
वह जानती है कैसे लड़ा जाता है युद्ध
कभी दांत से और कभी गीत से
तुम देखते हो केवल गुलाब उसके तन पर
लेकिन वह कांटों से भरी है
तेरह साल की लड़की उड़ सकती है
सूर्य और किताबों को वह नहीं छोड़ना चाहती
केवल पुरुषों के लिए
उसका झूला करता है चांद की परिक्रमा
और घूमता है उदासी से पागलपन तक
वह राजकुमार के सपने नहीं देखती
जैसा कि तुम सोचते हो
तेरह साल की लड़की के पैर हैं पाताल में
जबकि वह छू रही इंद्रधनुष
एक दिन, तलवार हाथों में लिए
वह आएगी सफेद घोड़े पर सवार
बादलों में उसके टाप की प्रतिध्वनि सुन
समझ जाओगे तुम
पुराणों की भविष्यवाणी
दशम अवतार है एक स्त्री|
सत्तर और पचहत्तर के बीच
सत्तर और पचहत्तर के बीच
एक अंधेरी जगह है
स्मृति-सी चौड़ी, मृत्यु-सी गहरी
वापसी नहीं कोई उनके लिए
जो फँसे हैं वहां
वे भटक रहे बचपन की झाड़ियों में
या सिर के बल गिरे हैं पुरातन के कुएं में
सावधान!
यदि सत्तर और पचहत्तर के बीच के लोग
युवाओं की तरह व्यवहार करने लगें
क्योंकि जवान तो वे हैं ही
प्रेम कर सकते हैं, संगीत पर थिरक सकते हैं
और जरूरत होने पर एक युद्ध या क्रांति का
नेतृत्व भी कर सकते हैं| असल में
वे मरे नहीं हैं जैसे कि ज़्यादातर युवा लोग
जो हैं सत्तर और पचहत्तर के बीच
भ्रम में पड़ जाते हैं|
कभी-कभी वे चाहते हैं घुड़सवारी करना
कभी पहाड़ों और समुद्रों पर से उड़ जाना
भटकना रेगिस्तान में गरुड़ की पीठ पर
उस पानी को तलाशते जो वहां है ही नहीं
नंगे बदन बारिश में भीगना
या पढ़ना वह कविता जो अभी तक
किसी ने लिखी ही नहीं
कभी कभी जब उन्हें लगता है कि
इतिहास पीछे लौट रहा है
जोर से रोना चाहते हैं
लगभग दहाड़ते हुए
सत्तर और पचहत्तर के बीच वालों का अकेलापन
सीपिया है जैसे सुबह सवेरे के सपने या
पुरानी एलबमों में रखी दोस्तियां
जब वे हँसते हैं
धूप लौट जाती गाँव की गलियों में
उनके पसीने की गंध जैसे तिल के फूल
उनकी चाल जैसे सवेरी राग का अवरोह
और उनके लरजते बोलों में
बिखरी हैं संगीत की मुरकियां
आप सोच रहे होंगे
यह सब पुरुषों के विषय में ही क्यों
हां, स्त्रियां इसमें नहीं आतीं
सत्तर से पचहत्तर के बीच की स्त्रियां
अदृश्य हैं हमारे लिए
वे बस फिसल जाती हैं
ममता के कोमल इंद्रधनुष पर
परियों से कोमल पैरों के साथ
स्वर्ग-सी महकतीं
कनेर की मुस्कुराहट और मोक्ष का निमंत्रण|
पक्षियों का राष्ट्र
पक्षियों के राष्ट्र की सीमाएं नहीं होतीं
न ही कोई संविधान
वे सभी जो उड़ सकते हैं उसके नागरिक हैं
कवियों समेत
पंख ही उनका ध्वज है
क्या आपने कभी सुना है कोयल को
बुलबुल से झगड़ते, उनके गीत के लिए
या सारस को कौए को हड़काते
उसके रंग के लिए
उल्लू जब बोलता है तो इसलिए नहीं कि
डाह है उसे तोते से
शुतुरमुर्ग या पेंगुइन ने की है
कभी शिकायत कि वे उड़ नहीं पाते
वे पैदा होते ही आसमान से बतियाते हैं
बादल और इंद्रधनुष उतर आते हैं
सहलाने उनको, बहुत बार
वे दे जाते अपने रंग पक्षियों को
जैसे बादल फाखता को
और इंद्रधनुष मोर को
सूरज और चांद के बीच बैठे
जब वे सपने देखते हैं
तब आसमान भर जाता है
देवदूतों और तारों से
वे अंधेरों में भी देख पाते हैं
बतियाते हैं बौनों और परियों से
वे उतर आते हैं धरती पर
घास को सहलाने या फिर
बंद कलियों को खोलने अपने गीतों से
जो फल और कीट वे खाते हैं
फूट पड़ते हैं उनके अंडों से नन्हें पंख लिए
एक दिन मैंने कोशिश की पक्षी की तरह जीने की
खो बैठा अपनी राष्ट्रीयता
राष्ट्र एक पिंजरा है| वह पालता है तुम्हें
पहले तुम्हारे गीत के लिए और जब
चुभने लगता है उसे तुम्हारा गीत
पालता है तुम्हें तुम्हारी मांस-मज्जा के लिए|
गढ़ना
एक मूर्तिकार की छैनी
गढ़ती है प्रतिमा हवाओं में
जो बहा ले जाती खुशबू जंगली फूलों की
एक नाविक की पतवार, गहरी रात के रंग-सी
गढ़ती है मूरत नदी की लहरों से
हवाओं में उड़ते विमानक
गढ़ते हैं मूरत
बादल लिपटे आकाश में
और मैं अपनी कलम की नोक से
गढ़ता जाता
शब्दों का अंतहीन बिंब
कलम फिसलती जाती
कागज की चिकनी सतह पर
कांपती हैं मेरी उंगलियां
जैसे मैं गढ़ रहा समय में
जो स्थिर नहीं रहता|
संपर्क:
के सच्चिदानंदन, 7 बी, निति अपार्टमेंट, प्लॉट नं.84, आई पी एक्सटेंशन, दिल्ली–110092
रेखा सेठी, एसोसिएट प्रोफेसर, इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय पिन–110054 मो.9810985759