ममांग देई

अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में जन्मी अंग्रेज़ी की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं।उनका संबंध पूर्वोत्तर की आदि जनजाति से है।उनकी कविताओं में जनजातीय संस्कृति को महसूस किया जा सकता है।ऐसे प्रदेश में रहने की जो दुश्वारियां होती हैं उनका संकेत उनकी कविताओं में है।ममांग देई भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी रही हैं, लेकिन उन्होंने अपनी सामाजिक भावना के कारण सेवा से त्यागपत्र देकर स्वयं को पूरी तरह अपने प्रदेश की पारिस्थितिकी, पर्यावरण और विकास की पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दिया।उनकी साहित्य यात्रा उनकी इसी प्रतिबद्धता का महत्वपूर्ण है।उनकी कविताओं में पूर्वोत्तर की निश्छलता, सुरम्यता, उत्साह, दुख और संताप है।उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैंरिवर पोएम्स’, ‘मिड्समर सर्वाइवल लिरिक्स’, ‘द लेजेंड्स ऑफ पेनसेम’, ‘स्टूपिड क्यूपिडआदि।अरुणाचल प्रदेश द हिडनलैंडपुस्तक पर उन्हें वेरियर एलविन अवॉर्ड मिला है।उन्हें पद्मश्री की उपाधि भी मिली है।

रेखा सेठी

लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक।अद्यतन प्रकाशित पुस्तकों में स्त्रीकविता पक्ष और परिप्रेक्ष्यतथा स्त्रीकविता पहचान और द्वंद्व।दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफेसर।

 

नदी

बहुत देर तक नदी किनारे मत रहो
भटकी हुईं देवी है नदी
वह एक हाथी है, एक शेर है
कभी-कभी उसे घोड़ा भी कहते हैं वे
एक गर्म मौसम में हमने सोचा कि
पीली धूप में लोटता मोर है वह
भर देता है जो हमारी आंखों को सुनहलेपन से

लिली के ताल में तिर आई एक औरत को देखा
कोहरे के पहाड़ में
बादल में लिपटी
पत्तों के घूंघर और छिटके पराग के साथ बहती

मैंने सोचा, नदी एक औरत है
एक देश, एक नाम
श्वेत तीव्र बहाव में अटका संगीत का एक सुर
गुप्त किसी मानचित्र को समेटे कागज का एक पन्ना

वहीं है आकाश की सीमा-रेखा
अंधेरे और शिखर के बीच
प्यास की जन्मभूमि पर!

बहुत देर तक नदी किनारे मत रहो
डूबती आत्मा है वह
सशक्त सशस्त्र देवी
बनाता-मिटाता ऐसे मौसम
कभी नदी बहती, कभी ठहरी हुई
कभी सागर, कभी महासागर
हमारे गर्म मौसम की नदी
हमारी जिंदगियों का नमक समेटती!

इन गर्मियों

इन गर्मियों, गाऊंगी
बंदी योद्धा के गीत
गाती हुई पेड़ों की खुरदरी गुमनामी के लिए :
इन टहनियों पर
छोड़ जाऊंगी अपना खाली जिरहबख्तर
भूले हुए शब्दों के खोखल
याद करते हुए वह सब जो कभी जानते थे हम
समय – क्या है?
प्रतीक है वह उस आदमी का
बादलों और कोहरे से प्यार करते हुए
जो गीत बांटता फिरता है
समय – क्या फर्क पड़ता है उससे?
हमने बनाए फूल और धूप
और बारिश के हथफूल
गीत बांटते हुए

अब गाऊंगी
चमकीले-चटकते शब्द
गीतों की याद में
माफी मांगती तितलियों से
और उस सौंदर्य से
जिसे नष्ट किया हमने
जीवन की तृष्णा में

इन गर्मियों
समय ही बताएगा
तिरछे झुकता हमारी जमीन पर
क्या अर्थ है
दूर से किसी को चाहने का।

प्रार्थना पताकाएं

भीगी पहाड़ी सड़क
यही है जहां गुजारा हमने
अपना सारा वक्त
यह सोचते हुए कि
पार उतरेंगे कभी?
किसी ने मेरे दिल में रख दी
एक प्रार्थना की पताका
जीवन का प्रतीक हरा
धरती का पीला
सफेद बादल का
और जूनिपर की गंध
घुली-मिली सागर की उस छोड़ी हुई नीलाई में
जो कभी इस धरा का स्वामी रहा

शायद कोई तूफान इसे झुका देगा
किसी दिन, जबकि इसने रोका हवाओं को
हजारों बार
हमने पाया एक दूसरे को कल ही
जब उन्होंने हमें बताया कि
अतीत गुजर चुका है
अब हम तैरते हुए रंगों के पुंज हैं
पर्वत के अवरोध के
बहुत ऊंचे उड़ते हुए।

तैरता टापू

झुका हुआ पहाड़
मुझ तक पहुंचने की कोशिश में है
खींच लाया है खुद को पानी तक
ओ प्रिय, चले मत जाना
रुको, ठहरो मेरे कंधे पर

गहरे मेरे भीतर एक स्त्री सोई है
मेरे तकिए पर रखे अपने गाल
चमकीले सपनों से भरी
गर्मियों के पक्षी
बना रहे घरौंदा उसके वक्ष में

कौन जानता है यह चक्रवाती बहाव
किस ओर मुड़ेगा
अलविदा, आसमान पर टिके अदेखे पर्वत
जब दिन सिमट जाता है
मेरा हृदय जुड़ जाता है पानी में जीवन से
बहुत गहरे समुद्र की हरियाई में
दिल की धड़कन पर मचलते
उठती है कुमुदिनी चुभाती हुई सी
तीखी मछलियों की तरह
और वह स्त्री हँसती है
हँसती चली जाती है।

मृत्यु

सर्दियां लंबी थीं
हमने कई बलिदान दिए
आज बहुत सवेरे
एक युवा लड़का चल बसा

क्या वह बीमार था?
उसके दिल को कुछ हुआ?
कहीं कोई नशा (ड्रग्स) तो नहीं

उसकी मां ने कहा
वह मेरी मदद करता था
अब सुधर गया था
वह इंतजार करती रही उसके जगने का
‘मृत्यु’ वह बोली
चोर की तरह आई और उसे मुझसे चुरा ले गई
और अब वह जा चुका था
क्या अर्थ है किन्हीं भी शब्दों का
उनके लिए जो जीवित रह गए?

ऊंचे पहाड़ पर
प्रार्थना पताकाएं लहरा रही हैं खामोश
प्रार्थना करो, मृत्यु इस घर न विराजे!

संपर्क : रेखा सेठी, प्राध्यापक, इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वुमेन, दिल्ली विश्वविद्यालय/ मो.९८१०९८५७५९