वरिष्ठ कवि और अनुवादक। चार कविता संकलन और चार अनुवाद की पुस्तकें प्रकाशित। संप्रति गंज बासौदा में अध्यापन।
इतना भर
ज़्यादा नहीं
इतना भर उठा रहूँ
धरती की सतह से
जैसे गेहूँ की बालियों के ऊपर
खिली-खिली रहती हैं सरसों
ज्यादा नहीं
इतना भर खिला रहूँ
कि मुझे निहारते हुए
लड़खड़ाए नहीं
किसी की निगाह!
यूँ भी सुबह होती है
ढूंढते हुए
रात के ताले की चाबी
हर बार
सुबह हो जाती है!
एक सर्द रात
बहुत सर्द थी रात
जब घर लौटा तो देखा
दरवाज़े पर लटक रहा था
ब़र्फ का ताला
जिसकी चाबी नहीं थी मेरे पास
मैं इंतज़ार करता रहा
ब़र्फ के पिघलने का।
जगह
बहुत शोर है यहां
अट्टहास है चारों तरफ
बिना साइलेंसर की जैसे हजारों बाइक
एक साथ ठहाके लगा रही हैं
सिसकियों और शोक के लिए
अब यहां कोई जगह नहीं।
पगडंडी
बहकर सूख गई
अश्रुधार
आंखों से ठोड़ी तक पसरे
दुख से तपते पठार पर
बन गई एक पगडंडी!
प्रार्थनाएं
सब खत्म हुआ
सिर्फ प्रार्थनाएं बची रहीं अंत में
धीरे-धीरे सूखती किसी नदी में
तड़पती-दम तोड़ती मछलियों की तरह।
कहा एक दिन कवि ने
कहा एक दिन मैंने उससे-
चलो कुछ देर
प्रेम कविताओं के भीतर टहलते हैं
वहीं बैठेंगे बतियाएंगे कुछ देर
उसने कहा – वक्त नहीं है मेरे पास
बहुत काम बाकी है अभी
मैंने कहा चलो भी
अपने सब काम समेटकर ले चलो
वहीं बैठकर निपटाएंगे सब काम
उसने कहा – सोच लो
क्या वहां इतनी जगह
और इतना वक़्त होगा!
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