आचार्य एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, वसंत महिला महाविद्यालय, राजघाट फोर्ट, वाराणसी।

‘राजेंद्र जी गोष्ठियों में खूब जाते हैं, आप क्यों नहीं?’ हौजख़ास के राजेंद्र दंपती-आवास पर हुई एक भेंट में मैंने मन्नू जी से पूछा था।उनका उत्तर था- ‘राजेंद्र जी का अपना एक सुनिश्चित विचार- चिंतन है, जिसे साझा करने के लिए वे गोष्ठियों में जाते हैं।मगर मैं क्या बोलूंगी?’ जाहिर है, उनका यह सरल निष्कपट उत्तर उनके पारदर्शी, सहज और निर्कुंठ व्यक्तित्व का ही उद्घोष था और यही सहजाभिव्यक्ति उनकी कहानियों की ताकत रही है।लेखन उनके अंतस का दर्पण है तो आंतरिक और बाह्यजगत के मध्य सामंजस्य हेतु एक संवाद भी है।इसी सकारात्मक सोच से हिंदी कथालेखन में उनकी विशिष्ट पहचान बनती है।लोकप्रिय उपन्यास- ‘आपका बंटी’ को कौन भूल सकता है।रचनात्मक लेखन उनके लिए सांस लेने जैसी अनिवार्यता थी इसीलिए रचना-प्रक्रिया भी आसान थी; कसरत, प्राणायाम या प्रसव-पीड़ा जैसी अनुभूति नहीं।

१९५० के बाद की कहानियों को पढ़ते हुए जो विशेषताएं पाठकीय मानस पटल पर रेखांकित होती हैं उनमें आधुनिकताबोध, अकेलापन, संत्रास, टूटन और अलगाव जैसे भावबोध के गहरे रंग होते हैं।ये प्रवृत्तियां, पश्चिमी दर्शन के प्रभाववश भारतीय व्यक्ति की शिराओं में भी रक्तधारा की भांति प्रवाहित होने लगीं।पहली बार इन प्रवृत्तियों को साहित्य में, खास तौर से कथा कृतियों में चिह्नित किया गया और इनका प्रस्तुतीकरण आधुनिक जीवन के यथार्थबोध और आनुभूतिक सचाई के रूप में हुआ।अठारहवीं सदी की औद्योगिक क्रांति, बौद्धिकता, वैज्ञानिक सोच, तार्किकता और प्रश्नाकुलता जैसी चीजें भारत में दो सौ वर्षों के पश्चात बीसवीं शताब्दी के समाज, संस्कृति और कला-साहित्य में स्पष्ट दिखाई देने लगीं।इस संक्रमण काल में पारंपरिक जीवन-मूल्यों की अहमियत घटी और रुझान बढ़ती है नए मूल्यों के प्रति।मनोविश्लेषणवाद, मार्क्सवाद और अस्तित्ववादी जैसी विचारधारा ने स्वयं भारतीय बाना धारण कर लिया।फलत: उनके ही आलोक  में नए रचनाकारों ने परिस्थिति, परिवेश की संरचना की और जो चरित्र गढ़े, उनसे सामाजिकता के छोर छूट रहे थे।उनका व्यवहार मर्यादित न था और न ही नैतिक, मगर उनके वजूद को खारिज करना आसान भी नहीं था।अस्तु, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा अग्निहोत्री जैसी लेखिकाएं उस दौर में महिला लेखन का परचम फहराती हुई दिखाई देती हैं।सबने बदलती हुई जीवनधारा की बखूबी शिनाख्त की और उसे गहराई से अभिव्यंजित किया।

मन्नू भंडारी की कहानियों में परिवेश, चरित्र, परिस्थिति और घटनाओं का प्रतिबिंबन प्रामाणिक ढंग से हुआ है।विषयवस्तु  प्राय: उनके ही जीवन के इर्दगिर्द से चयनित हुई प्रतीत होती हैं।नई कहानीआंदोलन में अनुभव की प्रामाणिकता’  और आनुभूतिक ईमानदारीपर बल भी अधिक था।

अत: कथाविन्यास में बदलते जीवन-मूल्य, संबंधों का खोखलापन, पीढ़ियों के विरोधाभासी संबंध, अंतर्विरोध की जटिलता, स्त्री की पराधीनता, स्वतंत्रता की जद्दोज़हद, नैतिकता के बजाय जीवन सच के साक्षात्कार और महानगरीय जीवन की त्रासद विडंबनाओं को विषयवस्तु के रूप में वर्णित किया गया है।उनके कहानी संग्रहों के नाम हैं- एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, नायक खलनायक विदूषक, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियां और पांच लंबी कहानियां।प्रस्तुत लेख में उनकी प्रमुख कहानियों- ‘त्रिशंकु’, ‘अभिनेता’, ‘तीसरा आदमी’, ‘मै हार गई’, ‘एक प्लेट सैलाब’, ‘अकेली’, ‘रजनी’, ‘सयानी बुआ’, ‘स्त्री सुबोधिनी, ‘मुक्ति’ और ‘यही सच है’ के पाठ-संवाद और विवेचन-विश्लेषण द्वारा मन्नू जी की संवेदना-धुरी को चिह्नित किया जाना चाहिए।इनसे ही उन्हें कहानीकार के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त होती है और वे कथालेखन की प्रमुख स्तंभ बनाती है।

परंपरा बनाम आधुनिकता अर्थात पीढ़ियोंं के अंतर्विरोध की द़ृष्टि से कहानी ‘त्रिशंकु’ उल्लेखनीय है।तीन पीढ़ियों के मध्य सरकते-खिसकते पारंपरिक मूल्य, संस्कार, आस्था, विश्वास, नैतिकता और आधुनिकतावादी विचार-बौद्धिकता, तार्किकता, वैज्ञानिकता आदि के टकराहटों की कहानी त्रिशंकु में माँ-बेटी के मध्य नाना की भी उपस्थिति जब-तब होती है।कहानी लेखन का यह वह दौर था, जब आधुनिकता और आधुनिकतावाद के प्रति  खासा आग्रह लेखकों में दिखाई देता है।रचनाकारों की कथात्मक अभिव्यक्तियों में यही सोच स्पष्ट होती है कि तत्कालीन स्थितियां संक्रमण के कारण परिवर्तनशील थीं।वैज्ञानिक द़ृष्टिसंपन्न व्यक्ति लीक का फकीर नहीं होता, उसमें बदलाव के लिए तड़प होती है, किंतु संस्कार और सामाजिक दबाववश वह दो कदम पीछे भी हो लेता है। ‘त्रिशंकु’ कहानी में तनु की मम्मी स्वयं को आधुनिक, बौद्धिक और विचारशील मानती हैं, विशिष्ट भी, क्योंकि उन्होंने अपने पिता का विरोध कर प्रेम विवाह किया।स्वजीवन के लिए निर्णय लेना द़ृढ़ता और बुद्धिमत्ता का परिचय जो होता है।इसीलिए उनकी निगाह में मुहल्ले की औरतें पिछड़ी मानसिकता की हैं।व्यक्ति स्वयं जब नई राह पकड़ता है तब वह परिजनों का विरोध कर स्वयं के कार्य को प्रशंसित भी करता है।परंतु जब उसके बच्चे पारंपरिक मूल्य को तिलांजलि देकर नए पथ पर चलने का जोखिम उठाना चाहते हैं तब वही उन्हें रोकने का भरपूर प्रयत्न करता है।मानो उसके भीतर परकाया प्रवेश हुआ हो और उसके मां-बाप ही रोक-टोक कर रहे हों।व्यक्तित्वांतरण की इस प्रक्रिया में ही पारंपरिक मूल्य गतिशील होते हैं।निचोड़ यह कि अत्यधिक ममता और सुरक्षा की जिम्मेदारी के कारण बेटी के प्रति अभिभावक बेफिक्र नहीं हो पाते।जोखिम का खतरा अपने लिए युवावस्था में भले उठाएं हों, बच्चों के लिए सोचना भी नहीं चाहते।तनु कहती है, ‘मम्मी को अगर नाना बनकर ही व्यवहार करना है तो मुझे भी मम्मी की तरह मोर्चा लेना होगा। …दिखा तो दूं कि मैं भी तुम्हारी ही बेटी हूँ और तुम्हारे ही नक्शेकदम पर चली हूँ’।वस्तुत: व्यक्ति के द्वंद्व-अंतर्विरोध को रेखांकित करना ही कहानी का उद्देश्य है।कहानी में नई पीढ़ी की तनु एक आब्जर्वर के रूप में अपनी मां और नाना के संक्रमित होते विचारों की आवाजाही को  साफ-साफ देख पाती है और उसी के स्वर में कहानीकार का स्वर भी प्रस्फुटित होता है।

मन्नू भंडारी की कहानियां मनोवैज्ञानिक द़ृष्टि से उत्कृष्ट हैं।संबंधों की उधेड़बुन, खींचतान, अंतर्विरोध, रिसते सामाजिक सौहार्द, स्वार्थपरता, एकाकीपन, शिक्षित स्त्री की द्वंद्वात्मक राहें, निर्णय, दुर्बलता जैसे अंतर्भावों का बहुत गहराई से वर्णन अकेली’, ‘यही सच है’, ‘अभिनेताजैसी कहानियों मे किया गया है।इनमें सर्वाधिक प्रभावित करती है कहानी अकेली।इसकी मुख्य चरित्र सोमा बुआ की निर्मिति इतनी सजीव हुई है कि वे पाठकों के लिए अमर हो जाती हैं।

उनकी निजी जिंदगी एकदम सूनी है।जब उनका युवा पुत्र दिवंगत हुआ तो पुत्रशोक में पति संन्यासी बनकर हरिद्वार रहने लगता है।परिणामस्वरूप वे मुहल्ले-टोले की तमाम गतिविधियों में तत्परता से जुड़कर अपने जीवन की नैया स्वयं को व्यस्त रखकर पार करना चाहती हैं और इन गतिविधियों में प्रसन्न भी रहती हैं।इस युक्ति में वे अन्य से न सामाजिक शिष्टाचार की अपेक्षा करती हैं और न ही विवाह जैसे आयोजन के लिए निमंत्रण की अनिवार्यता समझती हैं, बस पहुंच जाती हैं।मगर पति की महीने भर बाद लौटने पर उनके इस तरह के कृत्यों पर पाबंदी लगती है।

‘बुआ’ जैसे रिश्ते में आत्मीयता के भावों-नि:स्वार्थ प्रेम, उज्ज्वल पवित्रता, सहज वात्सल्य और देखरेख की तत्परता का अतुलनीय सम्मिश्रण होता है।इसीलिए परिवार और मोहल्ले-टोले में इस रिश्ते का व्यवहार पक्ष अधिक सकारात्मक और व्यापक होता है।मन्नू जी को भी यह रिश्ता अधिक उद्वेलित करता है।उनकी एक और कहानी ‘सयानी बुआ’ है जिसकी चरित्र-निर्मिति अनूठे ढंग से हुई है।नियमों की सख्त पाबंद, सफाईपसंद और नपीतुली व्यवस्था में जीने और परिजनों को भी वैसा ही जीवन जीने के लिए मजबूर करने वाली बुआ के घर रहकर भतीजी नहीं पढ़ना चाहती।

नारी मन के चितेरे कथाकार जैनेंद्र जब अपने उपन्यास-कहानियों में स्त्री पात्रों के अंतर्मन को कुरेदते हैं तो सामाजिक नैतिकता की श्रृंखलाएं टूटती हैं।मनोजगत का सत्य सामाजिक व्यवस्था और उसके आदर्श के अनुरूप कभी नहीं होता।उनकी पहल पर फ्रायडीय विचारधारा को समझने और कृतियों में स्त्री मन के उत्खनन की भरपूर कोशिशें अन्य रचनाकारों के द्वारा भी हुईं।स्त्री- मन का पाठ और उसके अनछुए भावों की अभिव्यक्ति पितृसत्ता के लिए एक चुनौती थी तो साहित्य जगत के लिए ‘काव्य-न्याय’।वस्तुत: मन, पाषाण की भांति नहीं, जल जैसा प्रवहमान होता है।जहां उसे रास्ता मिलता है, उसकी धारा मुड़ जाती है; यही तथ्य ‘यही सच है’ कहानी का कथ्य है।दो शहरों- कोलकाता और कानपुर में विकसित कथावस्तु में युवती दीपा और दो युवकों-निशीथ और संजय की त्रिकोणात्मक प्रेम कहानी है।कभी दीपा का प्रेमी निशीथ था कोलकाता में, वर्तमान में कानपुर का संजय है।संजय जब भी आता, रजनीगंधा के ताजे फूलों से कमरा सुगंधित कर देता।परंतु दीपा को जब नौकरी के लिए कोलकाता जाना हुआ और निशीथ के प्रयास से ही सफलता मिली, तब उसकी मानसिक स्थिति असमंजस और अनिर्णय की होती है।कहानी का संकेत यही है कि शिक्षा और नौकरी हेतु घर से बाहर निकली युवतियों के लिए जीवन सहचर का चुनाव आसान नहीं होता।अकेली स्त्री को हर मोड़ पर कोई न कोई साथी मिलता है, मगर मनलायक तो कोई एक ही व्यक्ति हो सकता है।लेकिन एक व्यक्ति में सारे अपेक्षित गुण तो नहीं हो सकते फिर…।

सच यह भी है कि रिश्ते बनतेबिगड़ते रहते हैं, लेकिन वे सदा के लिए हृदय पटल से मिट नहीं जाते।पुन: टकराने पर सोई हुई भावलहरियां जाग्रत हो तरंगे, हिचकोले लेने लगती हैं।इसीलिए दीपा का झुकाव कभी निशीथ के प्रति होता है तो कभी संजय के प्रति।यह समाज के लिए आदर्शपरक स्थिति नहीं है, परंतु मनोवैज्ञानिक सचाई निस्संदेह है।संभवत: कथाभूमि के नएपन के कारण ही बासु चटर्जी ने इस पर रजनीगंधाफिल्म बनाई।

युवा स्त्री-मन का एक विरोधाभास यह है कि उसके निकट जो युवक आना चाहता है उसे वह अयोग्य समझती है।मगर आकर्षित होती है उसके प्रति जो उसे भाव नहीं देता।इस मनोविज्ञान से परिचित कहानी ‘अभिनेता’ का पुरुष पात्र दिलीप सौंदर्य और कला की मिसाल फिल्म अभिनेत्री रंजना को प्रेमपाश में फाँसकर ठगता है और इस तरह स्वयं को उससे बड़ा अभिनेता सिद्ध करता है।ऐसे घाघ लोग लड़कियों से मन ही नहीं बहलाते, उनसे धन भी ऐंठते हैं।अंतत: ठगी की शिकार पराजित रंजना उसे लिखती है, ‘दिलीप, मैं तो रंगमंच पर ही अभिनय करती हूँ, पर तुम्हारा तो सारा जीवन ही अभिनय है।बड़े ऊंचे कलाकार और सधे हुए अभिनेता हो।’ यह सत्य है कि पारदर्शिता व्यक्ति का एक बड़ा गुण है, लेकिन सभी पारदर्शी नहीं होते।जो दिखता है, प्राय: वह सच नहीं होता।वर्णनात्मक शैली में लिखित इस कहानी में कहानीकार की उपस्थिति सूत्रधार-सी प्रतीत होती है।

आत्मकथात्मक शैली में लिखी कहानी ‘स्त्री सुबोधिनी’ भी पुरुषों की भ्रमरवृत्ति, छल-प्रपंच और धोखाधड़ी जैसी कुवृत्तियों को चिह्नित करती है।किसी भी कार्यक्षेत्र में जहां स्त्री-पुरुष साथ-साथ काम करते हैं, वहां स्त्रियों का उत्पीड़न अकसर होता है।प्राय: बॉस के प्रेम-प्रपंच में फँसकर युवतियां अपनी जिंदगी बर्बाद कर बैठती हैं।स्त्री, भावुकता और सहज विश्वासी होने के कारण छद्म प्रेम को ही अपना सौभाग्य मानती हैं और भावावेग में सर्वस्व समर्पण कर बैठती हैं, मगर जब उसकी आंखें खुलती हैं तब तक उसका आत्मबल शीशे की तरह चकनाचूर हो चुका होता है।बॉस शिंदे विवाहित होने का रहस्योद्घाटन होने पर भी उसे ठगते रहने के लिए तलाक और पुनर्विवाह की आशा देता है।निस्संदेह, कहानी कामकाजी युवा स्त्रियों के लिए जागृति, समझदारी और बुद्धिमत्ता का एक पाठ देती है।

मन्नू जी की कहानियों में सभी उम्र की स्त्रियां अपनी अवस्थागत विशिष्टताओं के साथ मौजूद हैं।अधिसंख्य स्त्रियां आधुनिक हैं या सांस्कृतिक संक्रमण के कारण आधुनिक होना चाहती हैं।किंतु मुक्तिकी स्त्री मां दबी कुचली पूर्ण समर्पिता स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है।उपचार के लिए भर्ती पति के आदेश पर उनकी सेवा में दिनरात बगैर अपनी सुधि लिए बिता देती है।उसे अपनी तनिक भी परवाह नहीं होती, फिक्र होती है तो सिर्फ इतना कि पति कहीं नाराज न हो जाएं।पति का डर उसके अंतस को जकड़ा हुआ है।

बेटी उनकी इस चिंता को समझकर और सेवा देखकर हैरान है।मृत्यु के उपरांत भी अम्मा को लगता है कि वे बमुश्किल गहरी नींद सो पाए हैं – ‘कैसी बात करे है छोटी? कित्ते दिनों बाद तो आज इतनी गहरी नींद आई है इन्हें… पैर दबाना छोड़ दूंगी तो जाग नहीं जाएंगे… और जो जाग गए तो तू तो जाने है इनका गुस्सा… सो दबाने दे मुझे तो तू।खाने का क्या है, पेट में पड़ा रहे या टिफिन में एक ही बात है।’ जबकि असह्य दर्द से बचाने के लिए डॉक्टर के साथ परिजन भी बाबू की मुक्ति की कामना करते हैं।लेकिन अम्मा बाबू से मुक्त नहीं होतीं, अपितु उनके ही साथ प्राण त्याग देती हैं।कहानी उन स्त्रियों की ओर उंगली उठाती है जिनके लिए पति-उत्पीड़न भी प्रेम का हिस्सा होता है।ऐसी स्त्रियां पति के प्रति पूर्णतया समर्पण में ही अपना सौभाग्य मानती हैं और अपने जीवन की आहुति देना कर्तव्य।इस कहानी का मूल उद्देश्य उन स्त्रियों की मानसिकता का दिग्दर्शन कराना है जिनके लिए पति डर का पर्याय होते हैं।अत: उनकी सारी गतिविधियां भय से संचालित होती हैं, प्यार से नहीं।फिल्मी गीत की भांति- ‘जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां।’ यह बोध ही उन्हें निरीह बना देता है।आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी ऐसी अस्मिताहीन स्त्रियां हैं जो अपने दुख से भी परिचित नहीं होतीं।तात्पर्य यह कि एक ही समय में कई सदियां अपने-अपने मूल्यों के साथ गतिशील हुआ करती हैं।अलबत्ता, परिवेशगत भिन्नता के कारण उनके शिलालेखों में अंतर होता है।

मनोवैज्ञानिक कहानी ‘तीसरा आदमी’ के केंद्र में एक कुंठाग्रस्त पति है जो निस्संतान होने के कारण पत्नी पर शक करता है।कोई था जमाना, जब बांझ होने का आरोप महिलाओं पर मढ़ देना आसान होता था।लेकिन समकालीन आधुनिक शिक्षित समाज इस वैज्ञानिक तथ्य से परिचित हो चुका है कि निस्संतानता का कारण पुरुष भी हो सकता है।अत: कहानी में पति भयभीत है कि उसके पुंसत्व पर कोई उंगली न उठे।आशंका यह भी कि गोद भरने के लिए अन्य से पत्नी संबंध स्थापित न कर ले।यह दु:सह मन:स्थिति उसे रह-रहकर तोड़ती है।वह अजीबोगरीब हरकत करता है; यहां तक कि आमंत्रित साहित्यकार के गृह आगमन पर उसका तो मानसिक संतुलन ही गड़बड़ा जाता है।वैसे यह कहानी फिल्मी स्क्रिप्ट की भांति ‘पति, पत्नी और वो’ के तंतुओं से भी विकसित की जा सकती थी।परंतु ऐसी कथा विकसित करने की कोशिश कतई नहीं हुई है।परंतु यह सच पूरे भारतीय परिवारों का है जहां स्त्री के व्यक्तित्व विकास और सामाजिक संबंधों के विस्तार से आदर्श के व्याकरण में त्रुटियां आती हैं जिससे परिवार-समाज की भाषाएं गड़बड़ा जाती हैं।बहुधा रचनाकार विशेष मुद्दे पर लिखने के लिए एक प्रोजेक्ट की तरह काम करते हैं, किंतु मन्नू जी का लेखन विषयवस्तु, भाषा प्रवाह और अभिव्यक्ति की आत्मीयता से उनका भोगा हुआ यथार्थ-सा प्रतीत होता है।लेखकीय दुनिया उनका सुपरिचित क्षेत्र है अत: उसी भूमि से उनकी कई कहानियों का अंकुरण होता है।

‘मैं हार गई’ कहानी का केंद्रीय कथ्य रचना-प्रक्रिया का ही अंत:संघर्ष है।कहानीकार की धारणा है कि चरित्र निर्मिति की प्रक्रिया आसान नहीं होती।रचनाकार कहानी-उपन्यास लिखने के लिए लगातार स्वयं से, अपने कल्पित पात्रों से और समाज से ही संवाद नहीं करता, उसके समक्ष देश भी होता है।इसलिए कथानक में चरित्र निर्मिति उसके लिए बड़ी चुनौती भरी होती है।उसे बड़े सोच-विचार के साथ मशक्कत करनी होती है।बार-बार के प्रयास के बाद भी इच्छित पात्र की निर्मिति न होने पर वह पराजयबोध से ग्रसित होता है।

‘नई कहानी’ के रचनाकारों ने संबंधों पर केंद्रित कहानियां अधिक लिखीं।स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, बलिदान, विभाजन और खंडित आजादी के जख्म से कराहते भारतवासियों के पारस्परिक संबंधों पर आई आंच को उन्होंने अधिक महसूस किया।किंतु आश्चर्यजनक यह है कि वे राजनीतिक घटनाक्रम से सीधे-सीधे नहीं जुड़ सके।मन्नू जी की कहानियों में भी उनकी संवेदना के स्रोत वैयक्तिक संबंधों के ही इर्द-गिर्द फूटते हैं।नजदीकी संबंधों के विश्वास भी हिलते-डुलते से दिखते है।व्यक्ति, पद, परिवेश और परिस्थितियों के अनुसार सामाजिक संबंधों की शक्लें बहुरूपिया बन प्रकट होती हैं- इसे शिद्दत से महसूस किया जा सकता है उनकी कहानी ‘एक प्लेट सैलाब’ में।इस कहानी में परिवेश ही आलंबन रूप में प्रमुख पात्र है जिसे गेलार्ड और टी हाउस जैसे स्थलों के माध्यम से महानगरीय जीवन-शैली को निरूपित किया गया है।शाम के साढ़े छह बजते ही इन स्थानों पर दफ्तर व घरों से निकलकर हर उम्र और विभिन्न पेशों के लोग मनोरंजन हेतु पहुंचते हैं।कहानी में कहानीकार की उपस्थिति एक जासूस की भांति अध्ययनकर्ता की है जो व्यक्ति को उम्र, वर्ग और व्यवसाय के अनुसार देखता है और उसके चारित्रिक वैशिष्ट्य को रेखांकित करता है।

रचनाकार ने बच्चों के झुंड से बच्चों की चपल वृत्ति, महाविद्यालयीय छात्राओं की छुट्टीप्रियता, युवकयुवती के तटस्थ होते संबंध या खद्दरधारी नेता के अपने उठान की तैयारी जैसी प्रक्रियाओं द्वारा कथाविन्यास के वैशिष्ट्य का रेखांकन किया है।कहानी शीर्षक, विषयवस्तु  और संरचना आदि सभी पक्षों से प्रभावित करती है।

‘रजनी’ कहानी औरों से भिन्न इस रूप में है कि उसका वस्तुविन्यास नाटकीय शैली में हुआ है।इसे पटकथा की भी संज्ञा दी जा सकती है।रजनी विद्यालयीन व्यवस्था के मनमानेपन और छात्रों के प्रति भेदभाव का विरोध करने को आमादा होती है, जबकि बच्चे की मां ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहती, क्योंकि तब उत्पीड़न का खतरा और बढ़ सकता है।कहानी में पक्षपात जैसे मसले को एक समस्या के रूप में उभारा गया है जिसके विरुद्ध रजनी खड़ी होती है और अखबारों में उसकी खूब चर्चा भी होती है जिससे वे पति-पत्नी सफलता का स्वाद चखते हैं और उनकी हिम्मत में इजाफा होता है।एक तथ्य यह भी कि जोखिम वही उठाता है जिसके लुटने का डर नहीं होता।रजनी का बच्चा भी विद्यालयी छात्र नहीं था।

कहना न होगा कि विषयवस्तु की सामानता के बावजूद मन्नू भंडारी की कहानियों का बहुचर्चित या कालजयी होना आकस्मिक संयोग नहीं, अपितु उनकी भावव्यंजक रचनाशीलता, सहज संवेद्यता, संप्रेषण और अभिव्यक्ति कौशल जैसी खूबियों का प्रतिफलन है।मन्नू भंडारी को रचना संसार में प्रविष्टि और स्वीकृति के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा।उनकी कृतियों को आरंभिक समय में ही स्वीकृति मिल गई और सराहना भी।विश्वविद्यालयों में उन पर कई-कई शोध-ग्रंथ लिखे जा चुके हैं और लिखे जा रहे हैं।वास्तव में स्मृतिशेष रचनाकार की कृतियों का ही वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव होता है।

 

सृजन, बी ३१/४१, एस, भोगाबीर, संकटमोचन, लंका, वाराणसी२२१००५ मो.९९३६४३९९६३