युवा कवि। प्रकाशित कृतियाँ–दो नवगीत संग्रह ‘एक बूँद हम’ और ‘धूूप भरकर मुट्ठियों में’। संप्रति– सीगल लैब इंडिया प्रा. लि. में मैनेजर।
एक मुट्ठी रेत
एक तू ही
भर नहीं
अनिकेत
मैं नदी थी
रह गई हूँ
एक मुठ्ठी रेत
गाल मेरे
चूमते थे
पाखियों के दल
मुग्ध होती थी
स्वयं की सुन
सजल कलकल
अब सिमट
कर रह गई हूँ
आह भर समवेत
पेंग भरते
घाट पर आ
शावकों के झुंड
अब नहीं हैं
पास में सूखे
हुए दो कुंड
कूदते हैं
वक्ष पर मेरे
धमाधम प्रेत
एक पन्ना अथ
रहा तो एक
इति इतिहास
मैं बुझाना
चाहती अब भी
सदी की प्यास
ईख तो मैं
हूँ नही!
ओ रे सचेतक
चेत!
संपर्क : 106, विट्ठलनगर, गुफामंदिर रोड, लालघाटी, भोपाल-462030 मो.9301337806
गाल मेरे
चूमते थे
पाखियों के दल
एकदम टटका बिम्ब
ताजे बिम्बों से सुसज्जित अद्भुत नवगीत!
मैं बुझाना
चाहती अब भी
सदी की प्यास
बहुत खूब लिखा है ।
कल कल बहते पानी से बनी रेत की भी सदियों की प्यास न बुझी ।।।।।
वाह उत्कृष्ट नवगीत,बहुत बहुत बधाई आदरणीय