युवा कथाकार। प्रकाशित कहानी संग्रह घर वापसी। हिमाचल प्रदेश के एक ग्रामीण बैंक में कार्यरत।

बकरियों को चराते-चराते सोनम दोरजे आज घर से काफी दूर निकल आए हैं। पूर्वोत्तर की तरफ पड़ने वाला यह चरागाह गांव से दूर है। सोनम दोरजे का घर पहाड़ की ऊंचाई पर है। यहां वनस्पति के नाम पर छोटी-छोटी झाड़ियां उगी हैं। सर्दियों में होने वाले हिमपात की वजह से इस क्षेत्र को शीत मरुस्थल भी कहा जाता है। यहां सितंबर माह से हिमपात शुरू होकर मार्च महीने के अंत तक चलता है। ग्रीष्म ऋतु में मौसम सुहावना होता है, लेकिन तापमान 20-25 डिग्री से ऊपर कभी नहीं जा पाता। यहां के लोगों ने ज्यादातर भेड़ बकरियां पाल रखी हैं। कइयों ने याक भी पाले हुए हैं।  सोनम दोरजे के पास कुल पचीस बकरियां हैं। ये बकरियां मैदानी क्षेत्रों में पाई जाने वाली बकरियों से भिन्न हैं। इनके सींग काफी बड़े-बड़े एवं पीछे की तरफ मुड़े हुए हैं। ये पथरीली चट्टानों पर बड़ी आसानी से चढ़ जाती हैं।

एक बार जब सोनम दोरजे अपनी बकरियों को चरा रहे थे तो घात लगाए हुए भेड़िए ने अचानक बकरियों के झुंड पर हमला कर दिया। बकरियों में हलचल मच गई। सोनम दोरजे ने लाठी को हवा में लहराते हुए एक जोरदार गर्जना की। एक बकरी को छोड़ बाकी सभी बकरियां मिमियाती हुई सोनम दोरजे के पास पहुंच गई। दूसरी दिशा की तरफ भागी उस बकरी के पीछे भेड़िया द्रुतगति से भागा। मगर बकरी उससे भी ज्यादा तेजी से भागकर एक खड़ी चट्टान के ऊपर जा चढ़ी। भेड़िया बकरी तक नहीं पहुंच पाया। तब तक दोरजे भी वहां पहुंच चुका था। उन्हें देखकर भेड़िया नौ दो ग्यारह हो गया। दोरजे ने गालियां बकते हुए कुछ पत्थर उस भेड़िया के पीछे दे मारे। शायद एक आध भेड़िया को लगा भी। सारी बकरियां सोनम दोरजे के पास पहुंच कर मानो अपनी जान सलामती के लिए उनका धन्यवाद कर रही थीं। उनकी तरफ देखकर सोनम दोरजे मुस्कराते हुए बुदबुदाया ‘आज तो बच गई तुम’।

दोरजे के लिए ये चीजें आम हैं। अक्सर उन्हें इस तरह की घटनाओं का सामना करना पड़ता है। सोनम दोरजे की उम्र लगभग 50 के आसपास है। अपने गांव में वह सबसे लंबे कद काठी के हैं। कद लगभग साढ़े 6 फुट होगा। इस उम्र में भी अच्छी सेहत बरकरार है। चौड़ा माथा। भौंहें लगभग बाल रहित हैं। आंखें छोटी-छोटी मानो कोई नेपाली मूल का व्यक्ति हो। दाढ़ी के नाम पर गिन कर कोई पचास बाल होंगे।

सर पर गोल हिमाचली टोपी लगाए सोनम दोरजे एक मोटा ऊनी कोट पहने हुए हैं। सर्दियों का आगाज हो चुका है। हाथ में एक छड़ी, जिससे दोरजे बकरियों को हांकते हैं। जब भी मौका मिले  दोरजे अपने ऊनी कोट की जेब में रखी माला को फेरने लगते हैं। उनकी नजर में धर्म का मतलब किसी संप्रदाय विशेष से संबंध रखना नहीं, बल्कि ईश्वर की बनाई हर रचना के प्रति प्यार व क्षमाभाव रखना है।

दोरजे दूर सामने रोहतांग दर्रे की बर्फ से लदी चोटियों को देख रहे हैं। अब चोटियों पर बर्फ लगभग खत्म है। पिछली सर्दियों में बर्फबारी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई थी। पहले जाड़ों में कई-कई महीने घरों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता था। सर्दियों की छुट्टियों में स्कूल महीनों बंद रहते थे। बर्फ घरों को आधा-आधा खुद में समेट लेती थी। सभी अपने घरों में अपनी क्षमतानुसार सर्दियों के लिए राशन जमा कर लेते। तंदूर के लिए लकड़ियां इकट्ठा कर लेते। सोनम दोरजे नजरें गड़ा कर रोहतांग दर्रे की पहाड़ियों पर पर्यटक वाहनों के काफिले को गुजरता हुआ देख रहे हैं। वे अतीत में गोते लगाते हुए सोच रहे हैं कि समय कितना परिवर्तित हो चुका है, पहले इन दुर्गम पहाड़ियों को लांघना हर किसी के बस में नहीं था। लेकिन अब सरकार ने सड़कों के जाल बिछा दिए हैं …पहाड़ का सीना छीलकर… पेड़ों को गिराकर… जंगली जानवरों के आवास में नाजायज हस्तक्षेप करके… जख्मी ऊंचे पहाड़ों पर अपनी झूठी कामयाबी का झंडा गाड़ दिया है।

दोरजे एवं अन्य ग्रामवासियों के रिश्तेदार रोहतांग दर्रे से दूसरी तरफ पड़ने वाले पहाड़ी गांव में रहते हैं। सोनम दोरजे की बुजुर्ग बुआ का घर भी रोहतांग दर्रे से दूसरी तरफ पड़ने वाले किसी गांव में है। बचपन में जब भी वे मां-बाबा के साथ बुआ के घर जाते तो वे सुबह अपने साथ खाने के लिए सत्तू व पानी लेकर निकल पड़ते। पूरा दिन पैदल चलने के बाद रात को सात बजे बुआ के घर पहुंचते।

एक बार की बात है, सर्दियां शुरू होने वाली थी। बुआ के घर से लौटते हुए मौसम अचानक बिगड़ने लगा। अंबर पर काले बादलों का डेरा हो गया। देखते ही देखते बर्फ के फाहे आसमान से धरती को छूने लगे। वे लोग कहीं नहीं रुके। बीच में कोई ठौर ठिकाना, कोई घर बस्ती भी नहीं थी। बर्फबारी और तेज होती गई। गगन से गिरते बर्फ के श्वेत फाहे कपास के सफेद गोलों की तरह प्रतीत हो रहे थे। ऐसे में किसी अजनबी का रास्ता भूल जाना आम बात है। लेकिन नन्हें दोरजे के बाबा सबसे आगे चलकर रास्ते को पहचानते हुए घर की ओर बढ़ते रहे। रात के लगभग 11 बजे वे घर पहुंचे थे। भूतकाल की वे स्मृतियां आज भी दोरजे के मन में ताज़ा हैं।

दोपहर होने को आई थी। सोनम दोरजे को भूख भी सताने लगी थी। वे अपनी बकरियों को घर की तरफ ले चले। बकरियों सहित जैसे ही दोरजे ने गांव में प्रवेश किया तो देखा कि कुछ लोग किसी महिला को पालकी में उठाकर ले जा रहे थे। घर पहुंचने पर पता चला कि पड़ोसी छेरिंग की बहू को बच्चा होना है इसलिए गांव से थोड़ा नीचे एंबुलेंस आया है। इससे पहले भी एक बार गांव में एंबुलेंस आ चुका था।

दोरजे समय के साथ आए बदलावों को महसूस कर रहे थे। एक बार मां ने उसे बताया था कि उसका जन्म जाड़ों की एक बेहद ठंडी रात को हुआ था। पड़ोस के गांव की दाई ने बर्फबारी में अपने घर से निकल लालटेन की रोशनी में रास्ता तय कर प्रसव क्रिया में सहायता की थी।

दोरजे के परिवार में उसकी पत्नी, बेटा-बहू के अलावा एक पोता भी है। बेटा और बहू मजदूरी करने अक्सर घर से बाहर ही रहते हैं। इस घाटी में आलू, मटर, फूलगोभी, पत्तागोभी आदि बहुत अधिक मात्रा में उगाए जाते हैं। सीजन के दौरान बाहरी राज्यों के मजदूर यहां आकर साहूकारों के खेतों में महीनों काम करके अच्छे पैसे बनाकर घर लौट जाते हैं। कुछ जगहों पर सेब की फसल भी होती है। दोरजे कई दफा सोचते हैं कि कैसे धरती माता हम सभी का पालन-पोषण कर रही है। अपने जन्मस्थान से कितना दूर आकर ये प्रवासी अपनी आजीविका तलाशते हैं, परिवार का भरण-पोषण करते हैं। कुछ तो यहीं के होकर रह जाते हैं।

दोरजे हाथ पैर धोकर, खाना खाकर अपने कमरे में आकर आराम करने लगे। कमरे के एक कोने में पूजा-पाठ की व्यवस्था की गई थी। पूजा स्थल पर राजा घेपन की एक बड़ी फोटो लगी है। राजा घेपन उस घाटी के आराध्य देव हैं, जिन्होंने समय-समय पर अपने भक्तों की रक्षा की है। वहीं महात्मा बुद्ध और पदमसंभव और उनकी पत्नी की प्रतिमाएं भी हैं। दोरजे सुबह शाम धूप अगरबत्ती कर पूजा करते हैं। रोहतांग दर्रे से दूसरी तरफ पड़ने वाली घाटी में रहने वाले अधिकतर लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। दोरजे को बचपन से ही बुआ के गांव में बनी बौद्ध मोनेस्ट्रीज को देखना बहुत अच्छा लगता था। वह मंदिरों और  देवी देवताओं से जुड़ी प्राचीन कहानियों को बड़े चाव से सुनते। गांव के ऊपर ऊंची चट्टानों में हवा से झूल रहे रंग-बिरंगे शांति का संदेश देते बौद्ध धर्म के प्रतीक उन झंडों (दारचूक) को देखना उन्हें बहुत अच्छा लगता। वे ऊंचे दारचूक के पास खड़े होकर उन पर लिखे मंत्रों को पढ़ने की कोशिश करते।

बचपन में दोरजे के पूछने पर बुआ ने बताया था कि जो लड़ीदार रंग-बिरंगे झंडे ऊंची पहाड़ियों या ऊंची जगह पर दो छोरों पर बांधे जाते हैं, उन्हें लंगता यानी समीर अश्व कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि हवा के झोंकों के संग ये झंडे जिस भी दिशा की तरफ लहराते हैं उस ओर सुख, शांति एवं अमन फैलाते हैं।

बुआ ने बताया था कि पांच रंगों के बने ये झंडे हिंदू धर्म के जैसे ही पंचतत्वों  यानी आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को प्रदर्शित करते हैं।

दोरजे ने पंचतत्व की बात अपने पिताजी से सुन रखी थी। दोरजे ने अपनी संस्कृति, परंपराओं, प्रकृति से प्यार करना अपने पिता से ही सीखा है। पिता जी उसे समझाया करते थे कि यह धरती हम सबकी मां है। इसी से प्राप्त अन्न, फल, जल, आश्रय से हमारा जीवन संभव है। परिणामस्वरूप उन्हें अपनी घाटी, ऊंचे पहाड़ों से विशेष लगाव है। बर्फ पड़ने पर जनजीवन के प्रभावित होने पर भी उन्हें जिंदगी की मध्यम पड़ती रफ्तार अच्छी लगती है। पहाड़ की तलहटी में बहने वाली दूर पहाड़ों की गोद से आने वाली चंद्रा नदी उन्हें अपनी सहेली-सी लगती है।

बचपन में दोरजे ने अपनी बुआ से सुन रखा था कि उनके गांव से दूर ऊंचे पहाड़ों पर एक ऐसी पवित्र झील है जिसका पानी एकदम साफ है। इतना साफ कि उसकी तलहटी बिलकुल साफ दिखती है। यह एक दैविक झील है। ऐसी मान्यता है कि इस झील में विहार करने के लिए देवलोक से परियां आया करती थीं। दोरजे अक्सर यह कल्पना करने लगते कि वे उस झील के पास पहुंच गए हैं और वहां की परम शांति को अनुभव कर रहे हैं। हवा में झूलते रंग-बिरंगे लंगता को देख उन्हें ऐसा लगता मानो वे भगवान बुद्ध के फरिश्ते हों जो लगातार मंत्रोच्चारण करके शांति का पैगाम दूर तक पहुंचा रहे हैं।

एक बार की बात है जब बुआ भी छोटी बच्ची थी। गांव के बच्चे अपनी भेड़-बकरियों को चराने काफी ऊपर तक आ गए थे। बच्चे अपने खेल में मस्त थे। जब शाम होने लगी तो सभी को घर जाने का ख्याल आया। लेकिन जब देखा कि उनकी भेड़-बकरियां चरते-चरते कहीं दूर निकल गई हैं। सभी बच्चे अपनी अपनी भेड़ बकरियों को ढूंढने लगे। एक तो अंधेरा होने का डर और दूसरा भेड़िए व बर्फानी तेंदुए का खतरा। ढूंढते-ढूंढते बच्चे पहाड़ी के ऊपर बनी धार्मिक झील तक पहुंच गए। सबसे पहले जिस बच्चे ने झील के नजारे को देखा वह दंग रह गया। झील का पानी जगमगा रहा था मानो हजारों दीपक झील की सतह पर तैर रहे हों। जैसे ही उसने बाबी बच्चों को इस अद्भुत नजारे को दिखाने के लिए आवाज दी सब गायब हो गया। कुछ बच्चों ने तो यही समझा कि उनके साथी ने कोई मजाक किया था। लेकिन उसके बाद इस तरह की और भी घटनाएं सुनने को मिलती रहीं।

जैसी एक पवित्र झील बुआ के घर के पास थी बिलकुल वैसी ही एक झील दोरजे के घर के पास वाली घाटी में भी थी। दूसरी झीलों से निकलने वाली जलधाराएं एक जगह पर मिलकर एक बड़ी नदी का रूप ले लेतीं। दोरजे कभी-कभी सोचा करते कि ये दोनों घाटियां एक-दूसरे की पूरक हैं। दोनों दूर होकर भी एक दूसरे से जुड़ी हैं। दोनों ऊंचे पहाड़ों की सुंदर बेटियां हैं।

सदीं अब अपने पूरे शबाब पर थी। सूरज ढलते ही तापमान तेजी से नीचे गिरने लगता। एक ऐसी ही शाम तंदूर के पास बैठे दोरजे कोई किताब पढ़ रहे थे तभी पोते ने चुपके से आकर अपने ठंडे हाथों से उनकी आंखें बंद कर दीं।

‘इतने ठंडे हाथ …शरारती दादू …चल हाथ गर्म कर पहले’ सोनम दोरजे ने पोते से कहा।

पोता अपनी किताबें तंदूर के पास लेकर आया और पढ़ाई करने लगा। फिर यकायक बोला, ‘दादू! आपको पता है एक बहुत बड़ी सुरंग बन रही हैकई किलोमीटर लंबी! जल्द ही तैयार होकर हमारी घाटी तक पहुंच जाएगीजिससे हमारे यहां आनाजाना आसान हो जाएगास्कूल में मास्टर जी बोल रहे थेयहां अब टूरिस्ट भी आ सकेंगे पूरे साल भर।

‘हां बेटा, सुना तो मैंने भी है…’ उनके मन में विचार आया कि समय कितना बदल गया है… आदमी प्रकृति के विरुद्ध जाकर भी काम करने लगा है। पहले जहां इन घाटियों में जाड़ों में आना नामुमकिन था अब लोग आ सकेंगे। वे सुरंग बनने के बाद के परिणामों पर सोचने लगे थे। उन्हें पता था कि अब उनकी घाटी में उगने वाले अनमोल फल, सब्जियां और औषधियां बारह महीने निर्यात होंगी। आमदनी के चार साधन उपलब्ध होंगे। कोई अपने इलाज के लिए आसानी से शहर जा सकेगा। बच्चे पढ़ाई करने दूसरी जगह जा सकेंगे। लेकिन दोरजे के मन में कुछ बातें आकर उनकी मानसिक शांति को भंग भी कर रही थीं।

उसी सुरंग के निर्माण कार्य हेतु कितने ही मजदूरों ने अपनी जान जोखिम में डालकर काम किया है, कुछ प्रवासी मजदूरों को इसके लिए अपने प्राण भी गंवाने पड़े। उनके गांव के मूलचंद के दामाद का आज तक कोई पता नहीं चल पाया। सुरंग बनाने के लिए बड़ी-बड़ी मशीनों को जमीन के अंदर कई-कई महीनों तक खनन में लगाया गया था। जरूरत पड़ने पर ब्लास्टिंग भी करनी पड़ी, जिससे आसपास के क्षेत्रों में भूस्खलन की समस्या पैदा हो गई और जमीन में दरारें आ गई थीं। रिहायशी इलाकों में घरों को नुकसान भी हुआ। लोगों में दहशत पैदा हो गई थी। कई परिवारों को अपना घर-बार छोड़कर दूसरी जगह बसना पड़ा था।

दोरजे ने महसूस किया था कि पिछले दस बारह सालों से अब हिमपात उतना नहीं होता। सर्दियों में तापमान उतना नहीं गिरता जितना पहले गिरा करता था। ग्लेशियर लगातार सिकुड़ने लगे हैं। पिछले साल गांव के साथ वाली ऊंची पहाड़ी पर से एकाएक बर्फ की बड़ी-बड़ी शिलाएं अपने स्थान से खिसकते हुए एक बड़ा बर्फीला तूफान लेकर गांव तक पहुंच गई थी। घरों, पेड़-पौधों पर बर्फ की एक चादर-सी बिछ गई। कुछ देर तक आस-पास कुछ भी नहीं दिख पाया था। लोग इस भयानक मंजर को देखकर घंटों अपने घरों में दुबके रहे।

पिछले साल गर्मियों में अपनी बुजुर्ग और बीमार बुआ का हाल जानने दोरजे जब बुआ के घर गए तो देखा कि सड़क पर गाड़ियों का बहुत बड़ा हुजूम था। खूब भीड़ इकट्ठा हुई थी। भीड़ इतनी थी कि बस ड्राइवर को रफ्तार एकदम धीमी करके  बस आगे बढ़ानी पड़ी थी। बाहरी राज्य से आए लोग बर्फ को देखकर हो-हल्ला कर रहे थे। कुछ पर्यटक हाथ में शराब की बोतलें लेकर झूम रहे थे। दूर चोटियों पर जो बर्फ दिख रही थी उस पर धूल और धुएं की मोटी चादर जमी थी। सड़क के साथ छोटे-छोटे ढाबे थे, उनके आसपास कचरा ही कचरा फैला था। पानी की खाली बोतलें, प्लास्टिक के रैपर आदि पहाड़ की खूबसूरती को कम कर रहे थे।

‘अगर घूमने का इतना ही शौक है तो इस जगह की साफ सफाई का ध्यान भी तो रखो’ दोरजे सीट पर बैठे-बैठे बड़बड़ाए।

बूढ़ी बुआ के घर पहुंच कर दोरजे ने यह वाक्या उनके साथ साझा किया। बुआ ने चिंता जताते हुए कहा, ‘लोगों के पास पैसा हो गया है तो सोचते हैं पूरी दुनिया को खरीद लेंगे। अभी कुछ महीने पहले की ही बात है। बाहरी राज्य से घूमने आए हुड़दंगियों ने पहाड़ पर स्थित हमारी पावन झील में अपनी गाड़ी उतार दी। झील में दारू की बोतल ले जाकर, वहां हो-हल्ला करके उन बदमाशों ने मर्यादा का उल्लंघन किया। उनकी खबर तो भगवान ही लेंगे…’ बोलते-बोलते बुआ रुआंसी हो गई।

दोरजे बूढ़ी बुआ की बात सुनकर सन्न रह गए। किसी भी धर्म के तीर्थस्थल पर ऐसी हरकतें करना कहां तक उचित है? वह स्थल जो किसी की आस्था का केंद्र है वहां की शुचिता को कायम रखना क्या हम सबका कर्तव्य नहीं है?

पहाड़ पर सर्दियां समाप्ति की ओर थीं। मैदानी इलाकों में तापमान बढ़ने लगा था। यही वह समय होता है जब पर्यटक पहाड़ों की तरफ रुख  करना शुरू करते हैं। इस वर्ष सुरंग भी बनकर तैयार हो चुकी थी। लोकार्पण समारोह कुछ ही दिनों में होने वाला था। उसके बाद इसे आम जनता के लिए खोल दिया जाना था।

घाटी में मौसम बदलने लगा था। पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी थी। दोरजे एक दोपहर को बकरियां चराने गए थे। सुंदर नीले आसमान में सूर्यदेव की किरणें घाटी की तलहटी में बह रही नदी के साथ कोई गुफ्तगू कर रही थीं। एक बड़े पत्थर पर बैठकर दोरजे माला जप कर रहे थे। तभी दोरजे ने ध्यान दिया कि नीचे सड़क पर वाहनों का एक बड़ा सा काफिला गुजर रहा है। दस-पंद्रह दुपहिया वाले मस्ती में चिल्लाते हुए, लापरवाही के  साथ एक दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी इस हरकत से सड़क के किनारे विद्यालय से घर लौट रहे स्कूली बच्चे लगभग चपेट में आते आते बचे।

उनके ठीक पीछे गाड़ियों की लंबी कतार घाटी में प्रवेश कर रही थी। हॉर्न की आवाजें वादियों की शांति को भंग कर रही थीं। दोरजे ने दोनों हाथों से अपने कानों को बंद कर लिया।

एक दिन जब दोपहर बाद दोरजे बकरियां चराकर घर लौट रहे थे तो गांव के पास एक बड़ी पर्यटक बस देखकर हैरान रह गए। कुछ पर्यटक बस में बैठे थे और कुछ गांव की तरफ निकल गए थे। गांव की गलियों में जाकर वे घरों के एवं घरों के बाहर बैठे बुजुर्गों, बच्चों के फोटो लेने में मशगूल थे।

दोरजे ने देखा कि एक पड़ोस के गांव वाला जो उनको वहां लेकर आया था, घरों और आसपास की चीजों के बारे में उनको अंग्रेजी में कुछ समझा रहा था। कुछ पर्यटक गांव के बुजुर्गों की वेशभूषा देखकर कर खींखीं कर हँस रहे थे। कुछ सिरफिरे पर्यटक असहज महसूस कर रही गांव की महिलाओं और बेटियों के चुपके से फोटो लेने की कोशिश कर रहे थे।

दोरजे को यह सब देखकर यों लग रहा था मानो उनकी शांत निजी जिंदगी में कोई बेवजह दखल दे रहा है। हमेशा ‘अतिथि देवो भव’ भाव पर विश्वास करने वाले दोरजे को एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि उन लोगों को मेहमान समझकर उनका आदर सत्कार करना चाहिए या उन्हें अपने घर में बिठाकर अपनी खास नमकीन चाय पिलानी चाहिए या खाने के लिए विशेष पहाड़ी व्यंजन परोसने चाहिए। दोरजे उन सबसे नजरें चुराकर अपने घर की तरफ बढ़ गए।

एक शाम किसी खास मौके पर दोरजे अपने गांव से ऊपर स्थित पवित्र झील की तरफ जा रहे थे। लगातार चढ़ाई चढ़ने से उनकी सांसें फूलने लगी थीं। थोड़ी दूर और चलने के बाद जब वे झील तक पहुंचने ही वाले थे कि उन्हें ऊंची आवाज में गाने बजते हुए सुनाई दिए। आवाज की उत्सुकता को लेकर दोरजे के कदम और तेजी से झील की तरफ बढ़ने लगे। झील का दृश्य देखते ही दोरजे की आंखें फटी की फटी रह गईं। पर्यटकों की एक बहुत बड़ी भीड़ झील के नजदीक पहुंच चुकी थी। कुछ हुड़दंगियों ने अपनी गाड़ियां झील के पानी में उतार दी थी। पर्यटक हो-हल्ला करते हुए झील के पानी में अठखेलियां कर रहे थे। यहां वहां गंदगी ही गंदगी फैली थी। कुछ शरारती तत्वों ने पवित्र लंगताओं यानी झंडों को फाड़कर जमीन पर फेंक दिया था तो कुछ लंगता झील के पानी में तैर रहे थे। दोरजे यह सारा दृश्य देखकर जोर से चिल्लाए। तभी पास में सोए पोते ने दोरजे को जोर से हिलाते हुए कहा ‘क्या हुआ बाबा… क्या हुआ…’ दोरजे सपना देख रहे थे। हड़बड़ाहट में जागे दोरजे का शरीर तप रहा था। धड़कनें तेज थीं। पसीनें की बूंदों से कपड़े जिस्म से चिपक गए थे।

दोरजे पर्यटकों की बढ़ती तादाद और आए दिन उनके द्वारा की गई उटपटांग हरकतों के बारे में सुनकर हैरत में थे। उनके स्वभाव में एक चिड़चिड़ापन आ गया था। दोरजे को लग रहा था कि उनकी संस्कृति, उनके पहाड़, उनकी नदी, गांव आदि का अस्तित्व खतरे में पड़ने वाला है। कोई है जो उनसे उनकी अनमोल धरोहर को छीनना चाह रहा है। मानो कोई षड्यंत्र रच रहा हो कि कैसे इन शांत पहाड़ों की शांति को भंग किया जाए। दोरजे भौतिक विकास के नाम पर खुद को ठगा-सा महसूस करने लगे थे।

एक खुशनुमा शाम को जब सूरज पहाड़ी के आंचल से सरक कर डूबने वाला था, दोरजे अपने पोते के साथ टहलते टहलते गांव से थोड़ी दूर निकल आए थे। सूरज ढलते ही घाटी में तापमान तेजी से नीचे गिरने लगा था। गांव में भौंक रहे कुत्तों का शोर साफ सुनाई दे रहा था। कुछ ग्रामीण अपनी दिहाड़ी लगाकर घर लौट रहे थे। दोरजे पोते संग घूमते-घूमते गांव के एक सिरे पर स्थित मंदिर तक पहुंच चुके थे कि तभी मंदिर से पिछली तरफ झाड़ियों की ओर से उन्हें कुछ अस्पष्ट स्वर सुनाई दिए। उन आवाजों में शब्दों की लड़खड़ाहट साफ सुनाई दे रही थी। उत्सुकतावश आवाजों का पीछे करते हुए दोरजे ने देखा कि तीन-चार लोग वहां बैठकर शराब पी रहे थे। दो-तीन बोतलें खुली हुई थीं। एक प्लास्टिक की थैली में चिकन के टुकड़े पड़े थे। दरअसल बाहरी राज्य के कुछ लोग गांव में घूमने के बाद वहां बैठकर मदिरापान करने लगे थे। उनकी भाषा यहां कि नहीं लग रही थी। उन्हें देखकर दोरजे गुस्से से तमतमा उठे।

‘ओए सूअर दे बच्चों! हरामजादों… मंदिर का तो ध्यान रखो… यहां आते ही क्यों हो तुम लोग? गंदगी फैलाने? अपने घर में भी यही सब करते हो क्या?’

‘अरे अंकल …अंकल …लो आप भी लगा लो न…एक पैग …मज़ा आ जाएगा…’ एक शराबी ने अपना शराब से भरा गिलास दोरजे की तरफ बढ़ाते हुए कहा।

‘तेरी ये हिम्मत…’ दोरजे ने आगे बढ़कर हाथ जोर से घुमाया तो शराब से भरा गिलास दूर जाकर गिरा। दोरजे  को आग बबूला होता देख वे सभी अपना सामान वहीं छोड़ गिरते पड़ते ढलान से नीचे भागते हुए चिल्ला रहे थे।

‘बूढ़ा पागल हो गया है …पगला गया है साला…’

दोरजे को लगा कि ये वही लोग हैं जो उनकी झील की पवित्रता को नष्ट करने आए हैं, ये वही लोग हैं जो उनकी धार्मिक और सामाजिक जिंदगी में बेवजह हस्तक्षेप कर रहें हैं, ये वही लोग हैं जो उनकी बहन, बेटियों पर बुरी नजर रखकर उनके साथ दुर्व्यवहार का कोई मौका नहीं चूकेंगे।

दोरजे वहां पड़े उनके सामान को उठा कर उनके पीछे फेंकने लगे। क्रोध और भय के मिले-जुले भाव दोरजे के चेहरे पर साफ देखे जा सकते थे। नन्हा पोता अक्सर शांत रहने वाले अपने दादा के इस रूप को देखकर हैरान था।

संपर्क सूत्र : गांवध्याल, डाकघर नम्होल, तहसीलसदर, जिलाबिलासपुर, हिमाचल प्रदेश-174032  मो.8679146001