पश्चिम बंगाल के चर्चित दलित लेखक।कई पुस्तकों के रचयिता।चंडाल जीवनप्रसिद्ध पुस्तक।संप्रति विधानसभा में विधायक।

अनुवादक : युवा शोधकर्ता और अनुवादक।

शाम गाढ़ा होने पर पियाली स्टेशन से सियालदह को जाने वाली रेलगाड़ी में दो लोग चढ़े थे।बैठने के लिए कोई जगह खाली नहीं थी।इसलिए दरवाजे के पास गमछा बिछा कर बैठा था रघू।साड़ी में धूल लग जाएगी, इस डर से खड़ी थी बातासी।उसने गोद में लिए बच्चे को रघू की गोद में दे दिया था।पियाली स्टेशन से सियालदह पहुंचने में करीब घंटे भर का समय लगता है।इसी समय वे दोनों आखिरी रेल से लौटते हैं।रेलगाड़ी सियालदह तक पहुंचते ही रघू की गोद से बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए बातासी पूछती है, ‘उठ पाओगे?’

‘हां उठ पाऊंगा’, रघू कहता है।उसके पास एक लाठी है जिसके सहारे वह चलता-फिरता है, उठता-बैठता है।लेकिन अभी उठते समय उसके सिर में जैसे चक्कर-सा होने लगा।थोड़ा स्थिर होने पर वह बातासी का हाथ पकड़कर नीचे उतर गया।

पहले रघू एक सख्त समर्थ जवान आदमी था।वह राजमिस्त्री था और मजदूरी करने जाता था।आलसी और लापरवाह नहीं होने के कारण वह रोज काम पर जाता था।कहा जाए तो मेहनत-मजदूरी करके उसका परिवार ठीक-ठाक स्वच्छंद रूप से चल रहा था।दोपहर में नहीं भी हुआ तो रोज रात को चूल्हा जलता था उसके घर में।अपनी मेहनत के पैसे से वह नारियल के बगीचे के पास एक झोपड़ी बना पाया था।इससे हर महीने घर-किराया देने की समस्या से मुक्ति मिल गई थी।उन दिनों बातासी गृहवधू हुआ करती थी।बस्ती का निवासी रामपद बानतल्ला इलाके के पास से माल लाकर बस्ती की लड़कियों और औरतों को मोतियों की माला बनाने के लिए देता था।एक किलो मोतियों की माला बनाने पर चालीस रुपये मिलते थे।दिन भर में कभी एक किलो तो कभी दो किलो मोतियों की माला बना लेती थीं लड़कियां।

घर के काम संभालने के बाद बातासी को जब कभी समय मिलता, वह मोतियों की माला बनाने बैठ जाती।दो-चार पैसे घर बैठे ही रोजगार कर लेती थी।इस सुखी परिवार में अचानक एक दिन आग लग गई।एक दिन माथे पर ईंटों की टोकरी लेकर बांस की सीढ़ियों के सहारे ऊपर उठते समय अचानक रघू के पैर फिसल गए।वह जमीन पर गिर पड़ा।ईंटों की टोकरी उसके बाएं पैर पर गिर पड़ी, जिसके आघात से पैर की हड्डियों के कई टुकड़े हो गए।घुटने के निचले हिस्से को डॉक्टर ने इलाज के दौरान काट डाला।अब वह कटे हुए पैर को लेकर मजदूरी करने नहीं जा पाता।घर का एकमात्र मजदूरी करने वाला आदमी बेरोजगार हो गया था।अपाहिज हो जाने के कारण अब परिवार का भरण-पोषण कैसे चले? मोतियों की माला बनाने पर सामान्य-सी मजदूरी से क्या हो सकता है! जहां दिन में एक बार चूल्हा जल पाता था अब वह भी बंद हो गया।खाने को लाले पड़ने लगे।भूखे रहकर गुजारा करना शुरू हो गया।इसके अलावा अस्पताल से वापस आने के बाद रघू का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।किसी भी तरह उसकी शारीरिक स्थिति ठीक नहीं हो पा रही थी।इस दयनीय स्थिति में हालात से तंग आकर यहां की बहू-बेटियां जो करती हैं वह बातासी भी तो नहीं करने लग जाएगी? इसी डर से रघू के मन में बहुतों की तरह हलचल थी कि कहीं भाग तो नहीं जाएगी बातासी, सब कुछ छोड़ कर कहीं किसी और के साथ?

लड़कियों के मन का हाल लड़कियां ही अनुभव कर पाती हैं।उसी बस्ती में रहने वाली गोलापी पतिहारा थी।वह एक दिन बातासी से कहती है, ‘तुझे जोर-जबरदस्ती पकड़कर, मार-पीट कर नहीं, बल्कि मां काली को साक्षी मानकर ब्याह कर के रघू ले आया है।वह तेरा विवाहित पति है।उसके नाम का सिंदूर तेरे माथे पर लगा है।उसे विपद के समय छोड़ कर चले जाना महा पाप होगा।टूटा-फूटा अपाहिज जैसा भी हो तेरे बिस्तर से जकड़ कर पड़ा तो है।लड़कियां होती हैं लता की तरह, जो अकेले ऊपर नहीं उठ पातीं।उन्हें सहारे की जरूरत होती है।रघू तेरा वही सहारा है।उसे दुत्कार मत रे बहन, आज है, कल नहीं रहेगा तो समझ पाएगी क्या खो दिया है।आदमी जितने दिन तक कर सका, मेहनत-मजदूरी करके तुझे ही तो खिलाया और अब यदि वह बिस्तर पर पड़ गया तो उसके मुंह में चार दिन भात-दाल खिलाकर बचाए रखना तेरी जिम्मेदारी है।जो भी कर, जहां से भी कर, दो पैसे लाकर थोड़ा माड़-भात खिलाकर बचा ले।भगवान बहुत पुण्य देगा।’

भर्राए गले से बातासी ने कहा, ‘कहीं भी नहीं जाती हूँ, किसी को भी नहीं पहचानती हूँ।कहां से क्या रोजगार करूं बताओ।एक परिवार का पेट चलाना क्या इतनी सीधी बात है?’

गोलापी कहती है, ‘मैं भी पहले तेरी ही तरह सोचती थी।मुझे भी छोड़ कर जब मेरा पति भाग गया था, मैं भी एक पत्थर की तरह हो गई थी।दो बच्चों को कैसे बचाती? उस समय मुझे रास्ता दिखाया था एक और अन्य अभागी स्त्री ने।

 

बोली थी, ‘स्त्री जाति में जन्म लेकर भी स्वयं की कीमत खुद नहीं जानती।रास्ते पर निकल कर तो देख उस तरह के सौ मर्द पैरों में आकर गिरेंगे।वे लोग पैसे भी देंगे और प्यार भी देंगे।उसी की बातों में आकर घर से निकली।आज देख, मैं मछली और चिंगरी भी खाती हूँ।मैं कहती हूँ पांच जन क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे यह सब सोचना छोड़ दे।लोगों की बातों में कान देने की क्या जरूरत है? मेरे साथ चल तुझे दिखा और सिखा दूं किस तरह से रोजगार किया जाता है।

भुखमरी बड़ा दुश्मन है।वह सबसे पहले मनुष्य की समझ, विवेक-बुद्धि, न्याय-अन्याय का बोध सब ग्रस लेती है।पेट के अंदर पड़े हुए अजगर के मचोड़ से असह्य होकर बातासी रघू से कहती है, ‘गोलापी मुझे बोली है, ले जाएगी।तू यदि कहता है तो मैं जाऊं?’

रोजगार करने की अनुमति नहीं, जैसे आत्महत्या करने की अनुमति मांगती है बातासी।ऐसा करने के अलावा कोई और उपाय उसके पास नहीं है।रघू से बातासी प्यार करती है।वह उसको छोड़ कर चली भी नहीं जा सकती।कोई दूसरी लड़की होती तो चली भी जाती।यहां पर पति पत्नी को छोड़ कर किसी और के साथ चला गया, पत्नी पति को छोड़ कर किसी और के साथ चली गई, यह कोई नई बात नहीं थी।बातासी ऐसा नहीं कर सकती है।वह रघू को जिंदा रखना चाहती है।निरुपाय रघू ने एक बार बातासी को देखा और एक बार टूटे हुए घर के छप्पर को।प्रत्येक वर्ष वह कुछ पत्ते और लकड़ियां लाकर छप्पर को छा देता था।इस बार  यह भी नहीं किया जा सका।टूटे हुए छप्पर के छेद से आकाश दिखाई देता है।रुंधे गले से रघू बोला, ‘अपाहिज होकर पड़ा हूँ मैं और क्या बोलूं।जिस तरह से बचकर रहना संभव है, बच कर रह।

बातासी अब कमाने खाने वाली लड़की है।पहले ही दिन गोलापी के साथ बाजार में आकर वहां का दृश्य देखकर उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं।चारों तरफ सिर्फ लड़कियां और लड़कियां।एक दो-सौ नहीं, बल्कि बहुत अधिक।कोई चेहरे पर सस्ता पाउडर लगा कर हांथों में कांच की चूड़ियां पहनकर घूम रही है तो कोई लाइट पोस्ट पर रुकी हुई गाड़ियों के ऊपर भार देकर खड़ी है।सभी उसी की तरह काली-कलूठी, दुखी-उदास चेहरे वाली हैं।गोलापी ने बताया था, इस जगह का नाम हाड़काटा गली है।

जो लड़कियां बाबुओं के घर में बर्तन माजती थीं, जो लड़कियां बाज़ार जाती थीं कच्चू, केला, मोचा या थोड़ा समान लेकर, जो लड़कियां किसी छोटे कारखाने में काम करती थीं, उनमें से बहुतों को देखा जा रहा है कि अब लाइन में खड़ी हैं।

दस-बारह दिनों के भीतर करीब अड़सठ लोग बातासी के ग्राहक बन चुके थे।रास्ते पर चलते हुए कोई यदि उसकी तरफ देखता, तो उनके देखने का अर्थ समझ लेने की क्षमता अब बातासी के भीतर जन्म ले चुकी थी।उलटकर आंखों के इशारे को समझाना भी सीख गई थी – जो समझ रहे हो, मैं वही हूँ, सस्ता और सहज उपलब्ध।कोई डर नहीं है।पास आओ और दर-दाम करो।दर-दाम पक्का हो जाए तो चले आओ मेरे पीछे-पीछे।यहां पर प्रति घंटे के हिसाब से घर किराए पर मिलता है।घर में ले जाकर दिए हुए दाम को वसूल कर लो।

एक – डेढ़ वर्ष बीत गए, बातासी इसी पेशे में है।किसी दिन एक सौ तो किसी दिन दो सौ रुपए, पर किसी दिन बिलकुल खाली।फिर भी, कुल मिलाकर महीने में अच्छा रोजगार हो जा रहा था।इससे माड़-भात खाकर दिन बीत रहा था।उन्हीं दिनों वह गर्भवती हो गई और असुविधा में पड़ गई।आय-लाभ-रोजगार कुछ नहीं था।बच्चा जन्म देने के बाद अब जाकर बातासी फिर से लाइट पोस्ट पर भार देकर खड़ी हो पा रही है, एक-दो ग्राहक भी मिलने लगे थे।यदि बच्चा गोद में रहा तो एक भी ग्राहक नहीं आएगा, एक पैसे का भी रोज़गार नहीं होगा।एक आदमी ने कहा था, ‘तेरे पास क्या जाऊं बता, बच्चा गोद में लेकर तू मां जैसी दिखती है।तेरा शरीर देखकर प्यास ही नहीं लगती, कोई आकर्षण ही नहीं लगता।बच्चा गोद में रहने से बहुत दिनों तक घूमकर खाली हाथ आ जाना पड़ा था।

वह था त्योहार का एक दिन।बहुतों ने बहुत पैसे कमाए थे, सिर्फ वही एक पैसा भी नहीं कमा पाई थी।बच्चा बहुत ही छोटा है, उसे हर एक घंटे के बाद दूध पिलाना पड़ता है।देर तक दूध नहीं पिलाने से वक्ष सूख सकता है।अन्ना मासी कहती है, ‘इस अवस्था में बच्चा मर भी सकता है।

बातासी के वक्ष में बहुत दूध है।वह सोचकर हैरान हो जाती है कि भर पेट भोजन नहीं करने के बावजूद इतना दूध आता कहां से है।अगर ज्यादा देर तक वक्ष से दूध खाली न हो तो दोनों वक्ष फूल कर ईंट की तरह सख्त हो उठते हैं और दर्द से टस-टसाने लगते हैं।खुले नल के जल की तरह वक्ष से दूध बहने लगता है और चोली पूरी तरह  भिगो देता है।

बच्चा जन्माने के दूसरे ही दिन वह बच्चे को झोपड़े में रख कर पेशे में आई थी।थोड़े समय तक वह ठीक से रह पाई थी।फिर उसे अनुभव हुआ कि उसके दोनों स्तन भारी हो रहे हैं, खिंचाव भी शुरू हो गए।वह असहनीय दर्द के कारण सीधी खड़ी नहीं हो पा रही थी।

‘क्या हुआ है बातासी?’ गोलापी जानना चाहती थी।उसे बातासी ने अपनी तकलीफ बताई।चिंतित स्वर में बोली गोलापी, ‘शरीर में इस तरह की तकलीफ होने पर अपने पास ग्राहकों को कैसे बैठाओगी।आज बाजार तो ठीक चल रहा है।’

‘मैं तो बोहनी भी नहीं कर पाई।’

‘इस तरह से तकलीफ लेकर बैठे रहने से कौन आएगा तेरे पास?’

बाबू लोग हँसी-खुशी से झूमती बाजारू औरतों को पसंद करते हैं।मन के कष्ट को मन में छुपा कर हँस-हँस कर रस भरी बातें करनी पड़ती हैं।जिसके चहेरे पर मां-बाप के मरने जैसी उदासी छाई रहे, उसके पास कोई क्यों आए?

शाम के लगभग साढ़े आठ बज रहे थे।कुछ दुकान-बाजार बंद हो गए थे।गली के कोने-कोने में अंधकार छा गया था।साधारण मनुष्यों का चलना-फिरना बंद हो गया था इस रास्ते में।अभी जो लोग आ रहे हैं वे लक्ष्मी हैं।आज आ भी रहे हैं दल के दल।घंटे के हिसाब से भाड़े के कमरे को किराए पर लेने के लिए बाहर लंबी कतार लगी हुई है, जैसे सुलभ शौचालय के बाहर कतार लगी  होती है।

इन ग्राहक लोगों की दोनों आंखों में भूख भरी हुई है, चाट-चाट कर, चूस-निगल कर खाने और भूख मिटाने की लालसा।जो पैसा खर्च करेंगे, उसका सोलह आना वसूल करेंगे।

जिस जगह सभी लोग पेशाब करते हैं उसी अंधेरे कोने में गोलापी बातासी को आवाज लगाती हुई बुलाती है, थोड़ा यहां आना।

‘क्या करोगी?’

‘आ बताती हूँ।’

बतासी के पास आते ही गोलापी उससे कहती है- ‘खोल अपने दोनो स्तनों को।’

‘यहां?’

‘कुछ नहीं होगा।खोल।’

‘गोलापी के कहे अनुसार बातासी अपनी ब्लाउज़ को सरका कर फूले हुए दोनों स्तनों को सरकाकर बाहर निकाल लेती है।आंचल से ढंक कर गोलापी बातासी के स्तन को बच्चों की तरह चूस कर दूध को बाहर निकालती है।लगभग दस-पंद्रह बार इस तरह करने के बाद दर्द और वजन कम हो जाता है।फिर बातासी कुछ सहज अनुभव करती है और कहती है, बस अब रहने दे।तभी गोलापी जानना चाहती है बातासी से, ‘तेरे पास आकर कोई ग्राहक तेरे इन दोनों स्तनों को मुंह में लेना नहीं चाहता क्या?’

‘चाहता नहीं मतलब?’ बातासी कहती है, ‘मैं किसी को छूने नहीं देती।’

‘एक आदमी तो बीस रुपए ज्यादा देना चाहता था।उसके मुंह पर सीधे बोल दिया था, जो करने आया है वही कर।सीने पर हाथ मत रखना।ये दूध मेरा बच्चा पीता है, तेरे इस दस-बीस रुपए के लिए उसे मैं अपवित्र नहीं कर सकती।’

उस दिन के दर्द और एक दिन खाली हाथ लौट जाने की वेदना ने बातासी को अपने नवजात बच्चे को साथ लेकर आने के लिए मजबूर कर दिया था।रघू को बोली थी, ‘तुझे कुछ नहीं करना पड़ेगा, मैं जिस तरफ खड़ी रहूंगी तू उसकी विपरीत दिशा में फुटपाथ पर पत्थरों के ऊपर बच्चे को गोद में लेकर बैठे रहना।मैं एक के बाद एक आदमी के साथ बैठूंगी और भाग कर आऊंगी, फिर बच्चे को दूध पिला कर चली जाया करूंगी।’

बातासी ने रघू से पूछा, ‘तू नहीं कर पाएगा!’ नहीं करने पर अब दूसरा उपाय ही क्या है? बातासी कमाने न जाए तो घर में अब चूल्हा भी नहीं जलेगा।सभी को बिना खाए ही रहना पड़ेगा।भूख का कष्ट सबसे बड़ा कष्ट होता है।

सिर हिलाते हुए रघू कहता है, ‘करूंगा।’

उस दिन से बातासी के पीछे-पीछे रघू भी आता है।शाम से लेकर रात दस बजे तक इस पार फुटपाथ पर बैठा रहता है।यह असहनीय वेदना से भरी परीक्षा है।इस पार फुटपाथ पर बैठा रघू उस पार बातासी को देखता है।भिन्न-भिन्न उम्र के लोग आकर बातासी के पास खड़े हो जाते हैं।कीमत पक्की करने के बाद उसके पीछे-पीछे चलने लगते हैं।कभी एक घंटा तो कभी एक घंटे से कुछ ज्यादा समय के बाद वापस आ जाती है बातासी।इस पार आकर अपने आंचल से ढंक कर अपने बच्चे को दूध पिलाती है और रघू के हाथों में अपने रोजगार के रुपए थमा देती है।कभी कहती है- ‘साला खानकी की औलाद के साथ बैठी थी कि पैसा दिया अस्सी रुपए और जिस तरह का अत्याचार किया कि वह कहने लायक नहीं है।’ फिर कभी कहती है, ‘यह आदमी बहुत अच्छा था शरीर में दया-माया है, किसी तरह का खराब व्यवहार नहीं किया।सौ रुपए लिखाया था, बीस रुपए अपनी तरफ से ज्यादा दिया।’

बातासी की बातें, दिए हुए रुपए सबकुछ रघू के सीने में सांप की तरह रेंगता है।सहा भी नहीं जाता, कहा भी नहीं जाता।इस तरह एक गंभीर पीड़ा उसे कुरेदते हुए खाती रहती है।बातासी के पका कर दिए हुए चावलसब्जी रघू के गले से नीचे नहीं उतारना चाहते।जैसे खाने का हर एक निवाला उसे धिक्कारता हैमर, मर तू।तेरे जैसे मनुष्य का जिंदा रहना बेकार है।

वे लोग अभी रेलगाड़ी से उतरकर आगे की ओर बढ़ रहे थे।प्लेटफार्म के मुख्य द्वार पर टिकट जांच करने वाला है।चेहरे पर मोटी परत का पाउडर, हाथों में कांच की चूड़ियां, ग्राम बांग्ला से आने वाली ऐसी अभागी-अभावग्रस्त लड़कियों से ये लोग टिकट नहीं मांगते।बिना टिकट के यात्री जानकर भी छोड़ देते हैं।

वे लोग प्लेटफार्म के बाहर आ जाते हैं, चलते रहते हैं सामने की ओर।ओवरब्रिज के नीचे से कोले बाजार के सामने के रास्ते से चलते-चलते पहुंच जाते हैं बऊ बाजार मोड़ पर।मोड़ पार होने से ही दाहिनी तरफ वह कुख्यात गली है।गली के भीतर हजारों हजार घर हैं, लेकिन कुछ लड़कियां गली के बाहर आकर खड़ी हो गई हैं।यहां से ग्राहक पकड़ कर ले जाएंगी गली के भीतर भाड़े के घर में।

बातासी की गोद से बच्ची को लेकर रघू रास्ता पार करके उस पार चला जाता है।बहुत लड़कियों के संग वह भी खड़ी हो जाती है।सभी की तरह वह भी करुणा और कातर नजरों से यहां-वहां देखती है कि कौन उसकी तरफ देख रहा है, कौन उसे पसंद कर रहा है, कौन उसे कुछ समय के सुख के लिए पैसे देगा – उसे वह खोजती है।

ऐसे समय में रघू के मन में प्राण निकालने वाला कष्ट उत्पन्न होने लगता है, रोने का मन होता है।उस समय वह अपना ध्यान भटकाने की चेष्टा में बीड़ी सुलगाता है।

सांझ की रोशनी से सज उठता है कलकत्ता महानगर।इसके नीचे जो भयावह अंधकार है, वह किसी की आंखों में नहीं दिख रहा है।पास की सोने-चांदी की दुकानों में लाखों-करोड़ों रुपए के आभूषण सोकेस में बेचने के लिए सजा कर रखे हुए हैं।उन्हीं दुकानों के बगल की गलियों के सामने वे लोग घूम रही हैं, जिनके पास अपने शरीर के अलावा बेचने के लिए कुछ भी नहीं है।

आज बाजार बहुत खराब है।बातासी की बात कुछ अलग है जो दिखने में थोड़ी-सी सुंदर है।वह भी आज ग्राहक नहीं पा रही है।समझ ही नहीं पा रही हैं ये लड़कियां कि आज क्या हुआ है सभी को? कोई इधर आ क्यों नहीं रहा है आज? सभी चरित्रवान, पत्नीव्रता और ब्रह्मचारी हो गए हैं क्या? सभी मनुष्य ऐसे हो गए तो हमलोग खाएंगे क्या? जिएंगे-बचेंगे कैसे?

लंबे समय बाद देखा गया कि एक ही साथ आठ-दस ग्राहक आठ-दस लड़कियों के सामने आकर खड़े हो गए।एक आदमी बातासी के सामने भी आकर उससे पूछता है, ‘बैठाओगी क्या?’ इस प्रश्न के उत्तर में जो बोला जाता है वह बातासी ने कहा, ‘हां।’ इस पेशे के नियम हैं – ग्राहक लक्ष्मी होता है।वह काना – कुतरा, टेढ़ा – मेढ़ा जैसा भी हो उसे ‘ना’ बोलने पर लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं।मनुष्य को नहीं, उसके रूप – गुण को भी नहीं, तुम देखोगी उसके दिए हुए पैसे को! दिखने में सुंदर, मनपसंद होने पर उपभोग करो, वरना कुछ समय आंखें बंद करके पड़े रहो, उसे जो करना होगा करके विदा लेगा।

बातासी समझ नहीं पाती है, पर सभी लड़कियां क्या एक साथ इस प्रश्न के सामने खड़ी थीं? सभी ने क्या एक साथ ‘हां’ कहा था? तभी बातासी देखती है कि आए लोग एक साथ सभी लड़कियों का हाथ चाप कर पकड़े हुए हैं।बातासी को अनुभव होता है कि उनके हाथ को पकड़ कर रखना जैसे लोहे की कठोर सड़सी से जकड़ लेना है।उन हाथों की जकड़न से जैसे नसों में रक्त प्रवाहित होना बंद हो गया।कुछ ही क्षणों के बाद एक जालीनुमा पुलिस की काली गाड़ी इस तरफ बढ़ती हुई आई और जिन लड़कियों के हाथों को जकड़ कर पकड़ रखा था, सभी को खींच-तान कर पुलिस वैन में उठा लिया गया।साथ ही जैसे आवाज गूंज उठी- ‘रेड पड़ा है, रे – ए – ए – ए – ड !’

जो लड़कियां अभी आजाद थीं, सभी दिशाहीन होकर जो जहां जा सकीं, वहां भागने लगीं।चारों तरफ शोर-गुल, भाग-दौड़ शुरू हो गई।पुलिस गाड़ी के भीतर से बातासी की रुंधे गले से आवाज आती है, ‘बाबू जी, आपलोगों के पैर पड़ती हूँ।मुझे छोड़ दीजिए।मेरा बच्चा है।उसे दूध नहीं मिलने से वह सूख कर मर जाएगा।’ इस रुलाई से पुलिस की गाड़ी में बैठे हुए पत्थर से बने मनुष्यों का दिल नहीं पिघला।बातासी और कई दूसरी लड़कियों को लेकर पुलिस गाड़ी तेज गति से आगे की ओर बढ़ने लगी।घटना की आकस्मिकता के कारण उस पार बैठा रघू विह्वल हो उठा था।क्या करे वह समझ नहीं पा रहा था।जब होश आया, तब वह लंगड़े पैर से ही दौड़ पड़ा कुछ दूर तक गाड़ी के पीछे-पीछे।लेकिन गाड़ी बहुत दूर जा चुकी थी।

एक आदमी रघू से पूछता है, ‘गाड़ी में कौन है?’

रघू कहता है, ‘मेरे बच्चे की मां।’

वह आदमी कहता है, ‘गाड़ी के पीछे दौड़ने से क्या होगा? सौ-पांच सौ रुपए लेकर थाने चले जाओ और छुड़ा कर ले आओ।’

‘इतना रुपया कहां से पाऊंगा?’, सोचता है रघू।

‘कल उन लोगों को कोर्ट में भेजा जाएगा, जुर्माना नहीं दे पाने पर पंद्रह दिन सजा काट कर रिहाई पाने के बाद झोपड़े में वापस आ जाएगी।चिंता कर के कोई लाभ नहीं है।’

बहुत देर तक वहीं असहाय बैठे रहने के बाद धीरे-धीरे लंगड़ पैर को घसीट-घसीट कर स्टेशन के पास आया था रघू।

उस रात रघू झोपड़ी में वापस नहीं लौटा था, कहां गया था कोई नहीं जानता।अगले दिन सुबह अखबार के द्वारा पता चला, सियालदह से कुछ दूरी में एक अपरिचित व्यक्ति रेल से कट कर मर गया है, और स्टेशन पर एक नवजात बच्चा पाया गया है।

एन आर सेतुलक्ष्मी, नोचिकाट्टू हाउस, मलकुन्नम, चंगनाचेरी, केरल६८६५३५  मो.९७४७३९४५०३