शंभुनाथ
ॠषि याज्ञवल्क्य ने गार्गी के लगातार सवाल करने पर गुस्से से कहा था, ‘ज्यादा पूछा तो तुम्हारा मस्तक फट जाएगा।’ प्राचीन युगों की तरह वर्तमान युग में भी स्त्रियां ज्यादा सवाल करने से रोकी जाती हैं। उनके साहस की हद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से बांध दी जाती है। आमतौर पर वे राष्ट्र में वीरांगना, समाज में धर्म-संस्कृति की मशाल और बाजार में कभी ‘कमोडिटी- कभी कंज्यूमर’ सब एक साथ हैं। क्या उनके सवालों की हद का निर्धारण स्त्री विमर्श को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है?
भारत में स्त्रीवाद पश्चिम के गोरे स्त्रीवाद की कार्बन कॉपी है। वह स्त्री-पुरुष असमानता के कुछ रूपों को अनावृत्त करने के बावजूद आम भारतीय स्त्रियों से संवाद करने में सक्षम न हो सका। एलीट मध्यवर्गीय स्त्रियों तक सीमित बौद्धिक संवाद स्त्रीवाद की पहली सीमा है। दूसरी सीमा है, उसकी उग्रता ने देश के दूसरे वंचित समुदायों और विमर्शों से उसका अंतर्संपर्क विकसित होने नहीं दिया, जैसा कि पश्चिमी देशों में चौथी लहर के स्त्रीवाद ने किया। तीसरी सीमा है, स्त्रीवाद की दृष्टि स्त्रियों पर होने वाले अदृश्य अत्याचारों की ओर नहीं गई। इसने पुरुषसत्ता के विस्तृत रूपों और अत्याचारों पर ध्यान नहीं दिया। इस तरह स्त्री विमर्श शैक्षिक-व्यापारिक क्षेत्र में लोकप्रियता के बावजूद वैचारिक स्तर पर एक छोटी बाउंडरी में रह गया।
भारत में स्त्रीवाद मुख्यतः सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व या एलीट महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ी बन गया है। उसपर अंततः स्त्री की धार्मिक मातृ छवि भारी पड़ गई। इसके तहत स्त्रियों का ध्यान पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था से हटा कर ‘भिन्नता’ की धारणाओं की ओर आसानी से मोड़ दिया गया।
ये बातें बार-बार दुहराई जाती हैं- ‘गरीबों की उन्नति करनी है’, ‘स्त्रियों की उन्नति करनी है’। लेकिन गरीबों और स्त्रियों की उन्नति में लगे व्यक्तित्व कभी समझ नहीं पाए कि ‘गरीब स्त्रियों’ की उन्नति एक अलग मामला है!
आम स्त्री के यथार्थ
भारतीय स्त्रियों के यथार्थ विचित्र से भी अधिक विचित्र हैं। वे विविधतापूर्ण भी हैं। इस देश में स्त्री की पहचान ‘घर की इज्जत’ के रूप में होती है। वह परिवार ही नहीं, जाति, जनजाति और कई बार ‘राष्ट्र’ के लिए भी ‘प्रतिष्ठा चिह्न’ बना दी जाती है। उसके आज्ञापालन की जगह जरा भी बराबरी दिखाने, सवाल करने या अधिक स्वतंत्रता लेने पर उसे ‘कुलटा’, ‘परिवार और जाति की प्रतिष्ठा पर दाग’ आदि कहकर अपमानित किया जाता है। इधर संस्कृति की दुहाई देकर भी स्त्रियों को जड़ हो चुके पुराने विश्वासों और रीतियों की ओर लौटाने की कोशिश हो रही है। एक बागेश्वरी बाबा हैं, वे कुआंरी लड़कियों को ‘खाली प्लॉट’ कहते हैं और स्त्रियां चुपचाप सुनती हैं। स्त्रियों का एक अपना आत्मसम्मान है, आधुनिक गरिमा है और उनमें खुद निर्णय लेने की क्षमता है, अब इन चीजों की जम कर उपेक्षा होने लगी है।
ऐसी विडंबनाएं भी हैं कि किसी स्त्री की डाइन छवि निर्मित करने और उसे सजा देने के पुरुषसत्तात्मक सुख में कई बार खुद स्त्रियां शामिल रहती हैं। मीडिया स्त्रियों से मनोरंजन करने के लिए किसी स्त्री की ‘डाइन-छवि’ बनाता है तो किसी स्त्री की ‘वीरांगना-छवि’। ये एक ही पुरुषसत्तात्मक सिक्के के दो पहलू हैं।
आम परिवारों में सामान्यतः वधू ‘ग्रेजुएट और गृहकार्य में निपुण’ चाहिए! कई लड़कियां जानती हैं कि वे सिर्फ इसलिए पढ़ती हैं कि उन्हें अच्छा वर मिले। दहेज एक बड़ी समस्या है। यह लज्जा की बात है कि 2021 में दहेज न देने पर सताई जा रही 6.8 हजार स्त्रियों ने आत्महत्या की। आज भी शादी से पहले प्रश्न होता है- कितना खर्च करेंगे? एक बिस्कुट कंपनी के विज्ञापन में था- वर को उपहार में ज्यादा से ज्यादा बिस्कुट दें, पैकेट में सोना मिल सकता है! दहेज सभ्य भाषा में उपहार है।
इधर एक नया यथार्थ यह है कि कई लड़कियां खुद ‘डिस्टिनेशन मैरेज’ की मांग करती हैं, माता-पिता की पर्याप्त क्षमता न हो, तब भी। दूसरी तरफ, आज भी लाखों लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी जाती है। गांवों-कस्बों में माना जाता है कि उनके लिए उच्च शिक्षा जरूरी नहीं है। स्त्रियां बीमार होने पर कह नहीं पातीं कि वे बीमार हैं। हर पवित्रता और पाप-पुण्य का ठीकरा उनके माथे पर फूटता है, लेकिन जुलूसों में वे सबसे आगे रखी जाती हैं।
रोजगार करने वाली स्त्रियों की स्थिति देखें तो शहरवासी स्त्रियों में वे 21 प्रतिशत से भी कम हैं। बहुत से कामों के लिए स्त्रियों को उपयुक्त नहीं समझा जाता और इनका वेतन पुरुषों की तुलना में कम होता है। इस तरह भी सोचा जाता है कि नौकरियां कम हैं, अतः इनके लिए पुरुष को ही प्रधानता मिलनी चाहिए। इसके अलावा, गरीब और वंचित स्त्रियां आवाजहीन हैं। मध्यवर्गीय स्त्रीवाद की चिंताओं के दायरे में स्त्रियों के यथार्थ का एक बड़ा संसार नहीं है।
धर्म में स्त्री का भविष्य
दुनिया भर के धर्म पुरुषसत्तात्मक हैं। अकसर कहा जाता है कि स्त्रियां हैं तो धर्म बचा है! यह बोल-बोलकर स्त्री की पराधीनता का तार्किक आधार बनाया जाता रहा है और स्त्री व्यक्तित्वहीन की जाती रही है। उदाहरण के तौर पर विवाह के बाद लड़कियों को अपना सरनेम बदलना पड़ता है। साठ-सत्तर साल पहले स्त्रियों का सरनेम दूर की बात है, लोग उनका नाम तक नहीं जान पाते थे। वे अपने पति की बहू के रूप में जानी जाती थीं या अपने बच्चे की अम्मा के रूप में। फर्क यह है कि अब उनके परिचय के साथ इनके ससुराल की ‘पदवी’ है!
इस संबंध में प्राचीन इतिहास से एक गौरवपूर्ण उदाहरण है, वाकाटक साम्राज्य के राजा के मरने पर इनसे ब्याही गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय की बेटी प्रभावतीगुप्त अपने पुत्र को न बिठाकर खुद सिंहासन (390 ई.) पर बैठी। लक्ष्मीबाई को अपने पुत्र को गद्दी पर बैठाना पड़ा था!
हम स्पष्ट देखते हैं कि हिंदू धर्मध्वजवाहक हों या मुल्ला-मौलवी, वे स्त्री-पुरुष बराबरी के सख्त विरोधी हैं। हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों के क्षमतावान लोग मानते हैं कि स्त्री-पुरुष की क्षमताएं और जिम्मेदारियां भिन्न हैं और स्त्रियों को पुरुषों की छाया में जीना है। कई बार धर्म और न्याय दो विपरीत तटों पर होते हैं। दिल्ली के ‘निर्भया’ मामले के समय एक धर्मपुरुष का बयान आया था- ‘लड़कियों के इन दिनों ग्रह-नक्षत्र खराब हैं। निर्भया को लड़कों को भाई कहकर उनके सामने रोना-गिड़गिड़ाना चाहिए था और भगवान को बुलाना चाहिए था।’ ऐसे दकियानूसी बयान अकसर सुनने को मिलते हैं। उनमें स्त्री के प्रति यौन हिंसा का अप्रत्यक्ष समर्थन रहता है।
धार्मिक कट्टरता स्त्री की पहचान, स्वाभिमान और यौनिकता को नियंत्रित करने में सदा सक्रिय रही है। सामान्यतः धर्म स्त्रियों को वह स्वतंत्रता नहीं देता जो पुरुषों को सहज सुलभ है। अधिकांश समर्थ पुरुष अपने घर की स्त्रियों को इज्जत समझते हुए अन्य स्त्रियों को भोग्य वस्तु समझते हैं। राजस्थान में 2023 में एक मंत्री ने विधानसभा में कहा कि बलात्कार के मामले में राजस्थान देश में नंबर एक पर है, इसमें संदेह नहीं। इसके बाद पीछे विधायकों और मंत्रियों की ओर देखकर उसने आगे कहा, ‘दरअसल राजस्थान तो पुरुषों का राज्य है, इसलिए कुछ किया नहीं जा सकता!’ इसके बाद सारे मंत्री और विधायक ठठाकर हँस पड़ते हैं। उत्तर प्रदेश में पुरुषसत्ता को दोष न देते हुए एक बार कहा गया था कि लड़कियां शाम के बाद घर से बाहर अकेली निकलें तो बलात्कार घटित होंगे!
कहा जा सकता है कि जिस तरह नई डिजाइन की ज्वेलरी को स्त्री के बाह्य ऐश्वर्य का मामला माना जाता है, उसी तरह स्त्रीत्व की पुरानी धारणाओं, जैसे व्रत-उपवास, मौन मर्यादा पालन, आज्ञाकारिता, यौन पवित्रता, गृह कार्य में समर्पण, पति को परमेश्वर या स्वामी मानने आदि को आंतरिक ऐश्वर्य का लक्षण माना जाता है। पति का अर्थ ही है स्वामी। कोई स्त्री यदि अपनी इच्छा से थोड़े मुक्त ढंग के कपड़े पहने, अपनी इच्छा से प्रेम करे और कभी प्रतिवाद में बोले तो वह ‘बिगड़ैल’ समझी जाती है।
धर्म की लहर ऐसी चली कि एक बार सीबीएसई की कक्षा 10 के अंग्रेजी के प्रश्नपत्र (2022) में जो पैसेज आए थे, उनमें ये बातें शामिल थीं, ‘स्वतंत्रता पाकर स्त्री कई सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की मुख्य वजह बन जाती है।’ और ‘पत्नियां अपने पतियों की आज्ञा का पालन ठीक से नहीं करतीं, इसलिए बच्चे और नौकर भी अनुशासनहीन हो रहे हैं।’ देश भर के लाखों बच्चों को ऐसे प्रश्न हल करने थे। उपर्युक्त विचारधारा विगत स्त्री जागरण का विपर्यय है।
अब लाखों पिता पुरुषसत्तात्मक नहीं हैं, पर पति?
दरअसल धार्मिक पुनरुत्थान के साथ पुरानी रूढ़ियों के बंधन और आडंबर फैलते हैं। हम देख सकते हैं कि समाज में अति-आधुनिक विकास और स्त्री-पुरुष असमानता के विचारों का पोषण साथ-साथ चल रहा है। इन दिनों स्त्री की स्वतंत्रता को खराब माना जाने लगा है, वे सिर्फ अनुशासित गृहलक्ष्मी बनी रहें। हर प्रबुद्ध व्यक्ति को सोचने की जरूरत है कि निर्बुद्धिपरक तरीके से शिक्षा को सड़ाकर शराब बनाने से वर्तमान युग में स्त्रियों पर अत्याचार बढ़ेंगे या कम होंगे।
धर्म स्त्री के पुराने बंधनों का ही संरक्षण नहीं करता, स्त्री की कल्पनाशीलता और बौद्धिकता को भी नियंत्रित करने लगा है। स्त्रियों के लिए खास तौर से बने जो पुराने विधि-निषेध हैं, उनके बारे में कई बार खुद स्त्रियां सोचती हैं कि वे जरूरी हैं। लड़कियों को कई बार ‘स्त्री धर्म’ पर चलने के लिए अपनी उच्च शिक्षा रोक देनी पड़ती है या आर्थिक आत्मनिर्भरता के विचार त्याग देने पड़ते हैं। पति पर आर्थिक निर्भरता के बाद सामान्यतः स्त्री अपने आत्मसम्मान की बात सोच नहीं पाती। देश में 95 प्रतिशत स्त्रियां घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। कई सोचती हैं कि मर्द मारता है तो बुरा नहीं करता, सुख और सुरक्षा भी तो देता है!
स्त्रियां छोटे-बड़े अपमान सहते हुए सदियों से पुरुषसत्ता को ढोती रही हैं। घर में उनका कोई अपना कमरा दूर की बात है, अपना कोना भी नहीं होता, जहां वे धार्मिक भजन के अलावा कुछ गा सकें, कुछ रच सकें। उन्हें ऐसा करने पर व्यंग्य सहने पड़ते हैं। देश में अभी भी 90 प्रतिशत स्त्रियों की नियति यही है।
कहना न होगा कि उदार धार्मिक परिवेश में ही स्त्री अपनी मेधा का स्वतंत्र विकास कर सकती है, वह अपनी शिक्षा, अपनी गरिमा और हक के प्रति जागरूक रह सकती है। कट्टर धार्मिक परिवेश सांस्कृतिक छद्मवेश में स्त्री को सिर्फ गुलामी देता है। वह स्त्रियों को अतीत के ऐसे अंधेरे का हिस्सा बना देता है, जहां घुटन और उत्पीड़न के सिवाय कुछ नहीं है। यह सिर्फ बेटियों को नहीं, पिताओं को भी सोचना है कि अतीत नहीं, भविष्य के लिए है हमारा जीवन संघर्ष। इसलिए हम अतीत के मृत हिस्से को साथ लेकर नहीं चल सकते। दरअसल अपनी बेटी के मामले में अब लाखों पिता पुरुषसत्तात्मक नहीं हैं, पर पति?
स्त्री आंदोलन – स्त्री विमर्श
19वीं सदी में स्त्रियों ने अपनी मुक्ति के लिए आंदोलन शुरू कर दिया था। 8 मार्च 1857 को न्यूयार्क में कपड़ा-मजदूरिनों ने 16 घंटे काम कराने की अमानवीय शर्तों का विरोध किया तो 8 मार्च 1882 को इंग्लैंड की माचिस मजदूरिनों ने आवाज उठाई। पश्चिमी देशों में स्त्रियों को इसलिए भी लड़ना पड़ा कि काम करने पर मजदूरी उनके हाथ में दी जाए, उनके पति के हाथों में नहीं, और उनके नाम से भी मकान हो सके। स्त्री मजदूरिनों का दिन ‘8 मार्च’ धीरे-धीरे एलीट स्त्रियों के ‘वीमेंस डे’ में बदल गया, अब साधारण मजदूरिनें ‘वीमेंस डे’ नहीं मना पातीं!
19वीं और 20वीं सदी के भारतीय सुधार आंदोलन के व्यक्तित्वों को भी स्त्री मुक्ति के लिए न केवल काफी संघर्ष करना पड़ा था, बल्कि बहिष्कार और अपमान भी झेलने पड़े थे। सावित्री फुले ने 1848 में लड़कियों के लिए देश का पहला स्कूल खोला था। वे पढ़ाने जाती थीं तो एक अतिरिक्त साड़ी अपने पास रख लेती थीं, क्योंकि कट्टरवादी अकसर रास्ते में उनपर कीचड़ फेंक देते थे। 1856 में विधवा पुनर्विवाह का कानून पास हुआ था। इसके लिए विद्यासागर ने 987 व्यक्तियों के हस्ताक्षर के साथ सरकार को जो प्रतिवेदन दिया था, उसके विरोध में संरक्षणवादियों ने 36,763 लोगों से हस्ताक्षर कराए थे। इससे समझ में आ सकता है कि 19वीं सदी के सुधार आंदोलनों के दौर में संरक्षणवाद कितना मजबूत था और कितनी बाधाओं के बीच सुधारवादी लोग स्त्री मुक्ति का काम कर रहे थे।
एक और उदाहरण है, 1921-22 में कोलकाता के बड़ाबाजार इलाके में स्त्रियों ने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए धरना दिया। व्यापारियों को विदेशी कपड़ों की अपनी गठरी बांध लेनी पड़ी। हाकरों ने उन स्त्रियों को बिना पैसे लिए शरबत पिलाई! स्त्रियों के आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने स्त्रियों पर लाठी चार्ज किया और देशी सिपाही हटाकर गोरे सिपाही भेजे। कहने का आशय है, स्त्रियों ने एक समय राष्ट्रीय मुद्दों पर भी जोखिम उठाए थे। राष्ट्र और स्त्री के बीच संवाद था।
19वीं सदी में स्त्री को केंद्र में रखकर जो सुधार आंदोलन चले थे, उनका बौद्धिक प्रभाव अब मिटता जा रहा है। इधर जेंडर मुद्दे पर नए-नए ढंग से कूपमंडूकता बढ़ाई जा रही है। नतीजतन स्त्री-पुरुष असमानता, स्त्री की धार्मिक अंधविश्वासों से जकड़न, दहेज-हत्या, घरेलू हिंसा आदि प्रश्नों पर सामाजिक चिंताओं में ह्रास आया है। ऐसी खबरें आई हैं कि इधर आवेगमयी धार्मिक आस्था का फायदा उठाकर तांत्रिक साधु घूम-घूमकर स्त्रियों को संतान की मृत्यु आदि की भविष्यवाणी कर रहे हैं। फिर वे उनसे पूजा-पाठ के नाम पर सोने के कंगन, चूड़ियां लेकर चंपत हो जा रहे हैं। ऐसी घड़ियों में क्या स्त्री-बुद्धिजीवी संकुचित स्त्री विमर्श से बाहर आकर समाज के जमीनी स्तर पर सुधार आंदोलन को पुनर्जीवित कर सकती हैं? जिस ‘आधी दुनिया’ में, जिस स्त्री में पूरी दुनिया को बदलने की ताकत है, उसपर ही इस समय सबसे ज्यादा धार्मिक-सांस्कृतिक नियंत्रण है।
पुरुषसत्ता के नए चेहरे
आज स्त्री की सामाजिक स्थिति को समझने के लिए पितृसत्ता की जगह ‘पुरुषसत्ता’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए, साथ ही पुरुषसत्ता की समझ का विस्तार जरूरी है। दरअसल स्त्री की मुक्ति का प्रश्न कई बड़े प्रश्नों से जुड़ा है। मुक्त बाजार व्यवस्था और राजनीतिक सत्ताओं के स्त्री से संबंध को समझे बिना आज की पुरुषसत्ता का विस्तृत स्वरूप उजागर नहीं हो सकता। पिछले तीन-चार दशकों से जेंडर-मुद्दे पर कुछ लोकप्रियतावादी सवाल ज्यादा उठाए गए हैं। जवाब में व्यापक जन समर्थन लेकर कठोर प्रति-विमर्श भी सामने आया है।
निश्चय ही आज पुरुषसत्ता बहुआयामी है। उसका एक बड़ा हिस्सा अदृश्य है। इसलिए हमारे लिए धर्म के अलावा बाजार की भी पुरुषसत्तात्मकता को समझना जरूरी है, क्योंकि धर्म और बाजार दोनों ही पुरुष को ‘हिंसक शिकारी’ और स्त्री को ‘शिकार’ बनाते हैं। स्त्री शार्ट्स पहने या बुर्का- दोनों चीजें वस्तुत: पुरुषसत्ता द्वारा निर्धारित हैं। बाजार संस्कृति में स्त्री उससे भिन्न कुछ नहीं बन रही है, जो पुरुष देखना चाहता है। स्त्री की समस्त रुचियों पर बाजार के रास्ते से पुरुषसत्ता का कब्जा है।
पुरुषसत्ता का इतना दबाव रहा है कि कई कमाने वाली स्त्रियों को अपने पास पर्याप्त धनराशि रखने के लिए अपने ही वेतन से चोरी करनी पड़ती थी। उन्हें पति और घर वालों से अपनी पूरी आमदनी छिपानी पड़ती थी। ऑनलाइन ट्रांसफर के जमाने में अब यह संभव नहीं रह गया है!
बाजार के प्रचार स्त्रियों को जल्दी प्रभावित करते हैं। हाल के एक बैंक के विज्ञापन में पुरुष स्त्री को सिंदूर लगाता है और एक शब्द उभरता है- सुरक्षा! अर्थात यह बैंक पुरुष की तरह ही एक सुरक्षा है। इन दिनों स्त्री की सुरक्षा और स्वतंत्रता के बीच अंतर्विरोध देखा जाने लगा है- दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। इसके अलावा स्वतंत्रता के अर्थ को सीमित किया जाने लगा है। किसी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बड़े ज्वेलरी शॉप का एक विज्ञापन निकला था- ‘गहना सौंदर्य ही नहीं, स्वतंत्रता का चिह्न है!’ इधर बड़ी कंपनियों का सौंदर्य उद्योग देह के सुंदर दिखने को चरम मूल्य बना देता है, बुद्धिपरकता गौण हो जाती है।
बाजार की नजर में स्त्री की सबसे बड़ी संपत्ति उसकी देह है। यदि धर्म स्त्री को ‘पराया धन’ समझने की जमीन देता है, तो बाजार उसे ‘देह’ से ज्यादा नहीं समझता। इस दौर में बाजार के आपसी प्रतिस्पर्धात्मक युद्ध का एक बड़ा इलाका स्त्री देह है। अधिकांश फैशन, विज्ञापन, देह विमर्श, यौनिक दृश्य, आइटम सांग जैसी चीजें पुरुष सोच के ही स्त्री बिंब हैं और स्त्री सोचती है कि वह स्वतंत्र हो रही है! खरबूजे पर छुरी गिरे या छुरी पर खरबूजा, कटता खरबूजा ही है। राष्ट्र हो, धर्म हो, जाति हो या बाजार हो, अभी भी यह दुनिया पुरुष की है।
यह भी देखना होगा कि कई स्त्रियों के लिए आज स्वतंत्रता की कसौटी यह है कि उनके पास कितने सूट, साड़ियां, चप्पलें, कॉस्मेटिक सामान और गहने हैं। उन्हें महादेवी वर्मा की यह पंक्ति सुनाई नहीं देती, ‘जाग तुझको दूर जाना’! सुधार आंदोलन के दौर में एक महत्वपूर्ण बात यह कही जाती थी कि कुछ भी आंख मूंदकर स्वीकार न करो, न किसी परंपरा को और न किसी आधुनिकता को। इन दिनों उपभोक्तावाद द्वारा बढ़ा दिए गए बौद्धिक सतहीकरण के कारण, ऐसा बहुत कुछ आंख मूंदकर और बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाता है जिसमें मजा है, मनोरंजन है और तात्कालिक फायदा है, पर सचाई नहीं है।
स्त्री विमर्श में गत्यवरोध
वर्तमान स्त्री विमर्श के निशाने पर सामान्यतः एक सीमित पुरुषसत्ता है। दूसरे, यह आंदोलनात्मक कम और एकेडेमिक-साहित्यिक दायरों तक बंधा मामला ज्यादा है और कई बार निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए ‘शार्टकट’ है। यह कभी संभव नहीं हुआ कि निजी दायरे से ऊपर उठ 10 हिंदी लेखिकाएं मिलकर स्त्री-प्रश्नों पर एक साथ आवाज उठाएं!
दरअसल भारत में स्त्री को लेकर संवेदनशीलता और बुद्धिपरक सोच कई अवरोधों से घिर गई है। कभी यह धारणा थी कि आर्थिक समस्याओं का समाधान हो जाए तो स्त्रियों की सारी समस्याओं का खुद समाधान हो जाएगा। अब कइयों को लगता है कि सिर्फ स्त्रीवाद स्त्री की सारी समस्याओं का समाधान कर देगा। ‘फेमिनिज्म’ का एक रूप पुरुषों का अंधा अनुकरण है।
वैश्वीकरण के इन लगभग 35 सालों में भौतिक समृद्धि चाहे जितनी आई हो, बौद्धिक-नैतिक विकास नहीं हुआ है। स्त्री के बारे में खुद स्त्री की सोच नहीं बदल रही है। समाज में दिखावा के साथ कूपमंडूकता बढ़ी है। एक नमूना यह भी है कि स्त्री जब यौन-हिंसा का शिकार होती है तो उसकी जाति, उसका धर्म, उसकी जातीयता-पुराजातीयता ही सबसे पहले उद्घाटित की जाती है, उसका स्त्री होना गौण हो जाता है। उसकी पहचान को संकुचित करने में आज की पुरुषसत्ता निर्ममता की हद तोड़ चुकी है। कोई दंगा स्त्री से पूछकर नहीं होता! आज की नई स्थितियों में स्त्री की पहचान, स्वतंत्रता और आवाज पर नए सिरे से चर्चा जरूरी हो उठी है।
एक बड़ा सवाल यह है कि पिछले लगभग 200 सालों में जिन सामाजिक बुराइयों से लड़ाइयां चलीं, वे ताकतवर होकर फिर क्यों लौट आईं? देखा जा सकता है कि स्त्रीवाद की माडर्न छतरी फट गई है, स्त्री विमर्श में गत्यवरोध उपस्थित है। अब यह चुनौती है कि धर्म, जातिवाद, राष्ट्रवाद और बाजारवाद के मुद्दों पर स्त्रियां क्या बोलती हैं और वे कुछ बोल पा रही हैं या नहीं। इन मुद्दों को शामिल किए बिना स्त्री विमर्श आधा-अधूरा है।
स्त्री की समस्या इसलिए ज्यादा जटिल है कि दलितों, आदिवासियों या विभिन्न जातीयताओं (मराठी, बंगाली, तमिल) की तरह स्त्री एक बिलकुल अलग ‘कैटेगरी’ या ‘कम्युनिटी’ नहीं है। स्त्रियों का दलितों की तरह अपना अलग ‘गांव’ नहीं हो सकता! हर स्त्री अपने धर्म, अपनी जाति, अपने प्रांतीय समुदाय और अपने परिवार में होती है। वह जहां जाए, उसे अपने परिवार में लौटना होता है और कई बार वह बेहद अकेली होती है।
स्त्री मुक्ति और स्त्री–सशक्तिकरण में क्या फर्क है
2001 में स्त्री-सशक्तिकरण चर्चा के केंद्र में आया। संयुक्त राष्ट्र ने लैंगिक समानता और समेकित विकास के उद्देश्यों से एक संस्था ‘यूएन-वूमेन’ का गठन किया। गौर करने की चीज है कि आजकल स्त्रियों के यौन-उत्पीड़न पर ज्यादा चर्चा होती है, पर स्त्री मुक्ति की जगह फोकस स्त्री-सशक्तिकरण पर है।
स्त्री मुक्ति का अर्थ है समाज के उन सभी बंधनों और रूढ़ियों से स्वाधीनता, जो स्त्रियों को दीन-अधीन बनाती हैं और उनके उत्पीड़न में सहायक होती हैं। स्त्री मुक्ति दरअसल व्यवस्था को चुनौती देते हुए पुरुषसत्ता से स्त्रियों की बराबरी के अधिकार पाने और वैयक्तिक स्वतंत्रता की लड़ाई है, जबकि स्त्री-सशक्तिकरण है वर्तमान पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर रखते हुए कुछ स्त्रियों को सत्ता का अंग बनाना, अर्थात उनको शिक्षा, सभा-संगोष्ठी, प्रशासन, संसद-पंचायत, मंत्रालय आदि में हिस्सेदारी!
स्त्री-सशक्तिकरण का उद्देश्य है स्त्रियों की शिक्षा और तकनीकी कुशलता बढ़ाकर उन्हें भी उस व्यवस्था के कल-पुर्जे में बदल देना, जिसका एक प्रभावशाली तत्व पुरुषसत्ता है। इसपर बहस की जरूरत है कि स्त्री-सशक्तिकरण स्त्री मुक्ति में कितना सहायक है और उसकी क्या सीमाएं हैं। क्या स्त्री-सशक्तिकरण सुअवसर पैदा करने के साथ स्त्री स्वतंत्रता की चेतना को जगाकर रख पाता है?
दरअसल सत्ता को सिर्फ पाए हुए पद, सम्मान, सीट आरक्षण या मिली कुछ विशेष सुविधाओं में सीमित करके नहीं देखना चाहिए, क्योंकि एक बहुआयामी ‘बड़ी सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक सत्ता’ पहले से रुचियों-विचारों, नियम-कायदों और व्यवहारों को नियंत्रित करती रहती है। नए परिदृश्य में सशक्तिकृत एलीट स्त्रियां उपर्युक्त ‘बड़ी सत्ता’ के नियंत्रण में पुरुषसत्ता के उद्देश्यों के अनुरूप कार्य करती हैं और सामान्यतः पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था की रिमोट बन जाती हैं! क्या ऐसी स्त्रियां स्त्री मुक्ति की संभावनाएं खत्म कर रही हैं? क्या स्त्री-सशक्तिकरण स्त्रियों में इतना आत्मविश्वास पैदा कर सका है कि वे ऊँचे पदों पर विराजमान पुरुषसत्तात्मकता को चुनौती दे सकें और उसके द्वारा अनुकूलित न होकर वे अपने ‘स्व’ और न्यायबोध को बचा सकें? यथार्थ यह है कि सशक्त स्त्रियां पुरुषसत्तात्मक ‘बाजार राज्य’ की पुरानी-नई जंजीरों के बाहर नहीं निकल पातीं। वे सम्मोहन में उन जंजीरों से बंधी रह जाती हैं।
निश्चय ही इधर स्त्रियों की रोजगार में हिस्सेदारी पहले से बढ़ी है। फिर भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में आज भी महिला सीईओ की संख्या 4 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है।
दरअसल कुछ स्त्रियों के हाथ में पावर आ जाने से, मसलन कोई स्त्री प्रधानमंत्री बन गई, मंत्री बन गई, वीसी बन गई, सीईओ बन गई- इससे स्त्री मुक्त हो गई, यह समझ लेना एक भ्रम है। खासकर भारत में आर्थिक स्थिति के अलावा धर्म, जाति और प्रांत के आधार पर भी स्त्रियों की दशा में काफी विविधता है। इसका अर्थ है, स्त्री विमर्श को एक श्वेत सरलरेखा नहीं होना है और इस विविधता को समझना है।
सबसे ज्यादा खुशी स्वतंत्रता में है
नए दौर में स्त्री को लेकर चिंता वस्तुतः उसकी शिक्षा के अलावा मुख्य रूप से उसकी सुरक्षा तक सीमित है। यौन हिंसा रोकने के लिए पोक्सो सहित कई कानूनी प्रावधान अस्तित्व में आए हैं, हालांकि स्त्रियों के यौन-उत्पीड़न, दहेज को लेकर आत्महत्या और अवसाद की घटनाएं रोज बढ़ रही हैं। स्त्री पर पुरुष के अत्याचारों और जड़ता का चरित्र काफी बदला है। यह भी देखा जा सकता है कि स्त्रियों की तुलना अब सरस्वती से ज्यादा दुर्गा से होने लगी है। स्त्री को राजनीतिक-सांस्कृतिक चिह्न में बदला जा रहा है, जो एक सामाजिक छल है।
सवाल है, क्या नवजागरणकालीन स्त्री-मुक्ति के सारे आंदोलन, स्वतंत्रता के लिए सारी लड़ाइयां और वे सारे जज्बे आज स्त्री-सशक्तिकरण की चमक में खो गए हैं? स्त्री-सशक्तिकरण उपर्युक्त हलचलों की ही देन है और एक ठंडा बस्ता भी। कहना न होगा कि इन दिनों स्त्री चेतना के सामने चुनौतियां बढ़ी हैं। इसलिए स्त्री चेतना को अब स्त्रीवाद के पार जाकर देखने की जरूरत महसूस हो सकती है। कई स्त्री रचनाकार, समाज-कर्मी, शिक्षिकाएं हैं, जो नए खतरों को देख रही हैं। कई स्त्रियां ऐसी भी हैं जो मछली पकड़ना चाहती हैं, पर हाथ में पानी नहीं लगना चाहिए!
यशस्वी बनने में खुशियां हैं, खाने-पीने में खुशियां हैं, शृंगार में खुशियां हैं, लेकिन सबसे ज्यादा खुशी स्वतंत्रता में है!
vagarth.hindi@gmail.com (All paintings : Subhajit Paul)
‘वागर्थ’ का मार्च 2024 यह अंक स्वागत योग्य है।इसकी संपादकीय एवं अन्य सामग्री पठनीय एवं संग्रहणीय है ।
एक सजग पाठक के लिए इसे पढ़ते रहना अनिवार्य जैसा है। धर्म और स्त्री को लेकर लिखा गया लेख बहुत मार्मिक है। इनका गठजोड़ सदियों से भारतीय जनता के शोषण का बड़ा हथियार रहा है।
आदरणीय संपादक जी को नमन करता हूं। क्योंकि 8 मार्च महिलाओं के सम्मान में यह वैचारिक अभिव्यक्ति की है। आज के दौर में जो कलम को कलम होने नहीं दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी को संबोधित किया है।आठ मार्च को शुभकामनाएं एक तरफ से दी जाती है और दूसरी तरफ स्त्री को नियंत्रित किया जा रहा है। दुनिया में नारी अस्मिता को लेकर बहुत उत्साहित एवं गम्भीरता पूर्वक विचार हो रहे है तो कहीं स्त्री को निर्वस्त्र कर भीड़ में अत्याचार करके घुमाया जा रहा है। आधुनिकता के नाम पर आज अनेक अत्याचार हो रहे है। जिसमें धर्म, जाति, बिरादरी, प्रांत, एवं वर्गविशेष के द्वारा भयानक शोषण होता है। इसलिए डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था कि नारी दलितों में भी दलित है। वर्ण व्यवस्था में वह छटे नंबर पर है। सामाजिक परिवर्तन की अभिव्यक्ति आज कितनी भी जोर शोर से है स्त्री पर होने वाले शोषण कम नहीं होंगे केवल उसके स्वरूप में बदलाव होगा। आज भारतीय समाज में जाति व्यवस्था में बदलाव हुआ है ऐसा लगता है लेकिन अंदर से इसकी फसल जोरों से फल-फूल रही है। कहीं कहीं तो दलित स्त्री को अपने देश में आजादी का सूर्य दिखा ही नहीं है। हम सब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे है और कह रहे है भारत मेरा देश है सभी भारतीय मेरे भाई बहन है । हमें इस पर विचार करना चाहिए नहीं तो हम चांद पर पहुंच जाए या और कहीं पर स्त्री को मान सम्मान मिलना देश के विकास में महत्त्वपूर्ण रहेगा।
संपादकीय पढ़ना मुझे नई चुनौती और संवेदनशील बना देता है।
धन्यवाद
आपका
डॉ विश्वनाथ भालेराव
शंभुनाथ जी का संपादकीय इतना तथ्यपूर्ण और तर्कपूर्ण होता है कि पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित करता है! शंभुनाथ जी हिन्दी आलोचना को समृद्ध करने वाले विद्वान हैं।
मार्च 2024 के ‘वागर्थ’ में स्त्री मुक्ति और स्त्री सशक्तिकरण के प्रश्न पर की गई टिप्पणियां बहुत ही प्रभावशाली है। इसमें इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि कैसे कामकाजी महिलाओं का “8 मार्च” एलिट स्त्रियों का “महिला दिवस” बन गया।