शंभुनाथ
ये कुछ समाचार हैं जिनसे स्त्री की दशाओं का बोध होता हैः
– कोरोना महामारी के दौर में स्त्रियां सबसे ज्यादा बेरोजगारी और घरेलू हिंसा की शिकार हुईं।
– स्त्रियां मर्यादा न लांघें।मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीताहरण हो जाता है।अगर कोई स्त्री मर्यादा लांघती है तो उसे दंड मिलना तय है।
– सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का स्त्रियों ने किया विरोध।
– रेप से पीड़ित एक लड़की का जबरदस्ती अंतिम संस्कार, बुलंदशहर में दुहराई गई हाथरस की घटना।
– छात्राओं द्वारा हिजाब पहन कर कक्षा करने करने की मांग।
समाज की विविध घटनाओं और स्त्री विमर्श के बीच फिलहाल क्या संबंध है, इसपर विचार करने का वक्त आ गया है।21वीं सदी का वर्तमान दौर एक बड़ी उथलपुथल से गुजर रहा है और नया परिवेश बन रहा है।यह बदलाव स्त्री के चिंतन में किस तरह विस्तार ला सकता है, स्त्रियों की अवमानना के नए रूप कौन-से हैं और वर्तमान चकाचौंध के बीच उनकी दबी आवाजें और स्वप्न क्या हैं, इन मुद्दों पर अब व्यापक चर्चा की जरूरत है।
स्त्री आंदोलनों का असर
1792 में ब्रिटिश लेखिका मेरी विलस्टोनक्राफ्ट ने पूछा था, ‘क्या पुरुष उदारतापूर्वक हमारी बेड़ियां तोड़ देंगे और आज्ञाकारी गुलाम बनाकर रखने की जगह हमारा बुद्धिपरक साथ चुनेंगे?’ उस समय से स्त्री चिंतन के संसार में न जाने कितना पानी बह चुका है।स्त्रियां अतीत की न जाने कितनी दीवारें तोड़कर २१वीं सदी में पहुंची हैं।
19वीं सदी के भारतीय नवजागरण के दौर में स्त्री को कई सामाजिक कुप्रथाओं से आजादी मिली थी।सुधारकों ने स्त्री प्रश्न पर आंदोलन किए, कष्ट सहे।स्त्रियां शिक्षित होने लगीं।राजा रवि वर्मा (1848-1906) की एक पेंटिंग में एक संपन्न स्त्री लेटकर पुस्तक पढ़ रही है और एक सेविका उसे पंखा झल रही है! नवजागरण का असर साधारण वर्गों तक भी पहुंचा था और एक जागरूक नागरिक परिसर बन रहा था।
उन सुधार आंदोलनों का आज भी असर बना हुआ है।इसी कारण यदि कहीं दहेज को लेकर अत्याचार, स्त्री-अवमानना या यौन हिंसा होती है तो देश, थोड़ी देर के लिए ही सही, क्रुद्ध हो जाता है।
20वीं सदी के स्त्री आंदोलनों के साथ भारत सहित दुनिया के सभी देशों में स्त्रियों से सलूक में तेजी से बदलाव आना शुरू हो गया था।स्त्रियां राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने लगीं और अपने मत व्यक्त करने लगीं।अच्छी या आदर्श स्त्री की धारणाा में परिवर्तन आया।स्त्रियों की स्वतंत्रता में वृद्धि हुई।हर वर्ग की स्त्रियों के अंदर समझ, आत्मविश्वास और साहस पैदा होने लगा, बल्कि स्त्री आंदोलनों ने बड़ी संख्या में पुरुषों को अपना हृदय टटोलने के लिए प्रेरित किया।
20वीं सदी के स्त्री आंदोलनों ने स्त्री-पुरुष बराबरी के तर्क को परिवार, समाज और कर्म संस्थानों में प्रतिष्ठित किया।पहले स्त्रियों का यौन उत्पीड़न या बलात्कार चुपचाप, प्रतिरोधहीन था।अब प्रतिरोध होने लगा।इस वजह से बलात्कार करके मार डालने की यौन हिंसा बढ़ गई।
स्त्री आंदोलन की परंपरा में एक मोड़ तब आया, जब 1980-90 के दशक से स्त्रीवाद का प्रचार होने लगा।इसने साहित्य के क्षेत्र में श्रेष्ठ कृतियां दीं, पितृसत्ता पर निर्मम प्रहार हुए।बड़ी संख्या में उभरी लेखिकाओं ने स्त्री यौनिकता की समस्याओं पर खुलकर चर्चा शुरू कर दी।हिंदी के विचार जगत में पश्चिमी स्त्रीवाद लोकप्रिय होने लगा।स्त्री प्रश्न पर किताबों और सेमिनारों की बाढ़ आ गई।
फिर भी यह देखा जाना है कि स्त्रीवाद एलीट बौद्धिक वर्गों से आगे बढ़कर आम स्त्रियों की चेतना को कितना छू पाया है और आमतौर पर स्त्री जीवन में वह क्या नया जोड़ सका है।1980-90 के दशक से आज तक इन लगभग 40 वर्षों में कहना न होगा कि स्त्री-सशक्तिकरण की घोषणाओं के बावजूद वैश्वीकरण के समानांतर धार्मिक कट्टरवाद और संरक्षणवाद बढ़ा है।इसका स्त्रियों पर व्यापक असर पड़ा है।स्त्रियों को फिर से धर्म, संस्कृति और पारिवारिक सम्मान के वाहक के रूप में खड़ा किया जा रहा है।साथ ही स्त्री यौनिकता पर पुरुष के विशेषाधिकार को खुलकर स्वीकृति दी जा रही है।यह भी देखा जा सकता है कि स्त्रीवाद को लेकर किताबों और सेमिनारों में मुखर ज्यादातर स्त्रियां व्यावहारिक जीवन में दबाववश रूढ़िवादी बनी रहती हैं।
स्त्रीवाद को व्यावसायिक सफलता मिली है।वह चर्चित है और शैक्षिक दुनिया में प्रतिष्ठित है।इसके बावजूद, कहा जा सकता है कि एलीट बौद्धिकों के एक छोटे तबके को छोड़कर वह बृहत्तर समाज की प्रेरणा नहीं बन पा रहा है।इस स्थिति में स्त्री विमर्शकारों को विस्तृत आत्मनिरीक्षण और स्त्रीवादी पुनर्गठन की जरूरत महसूस हो सकती है।
स्त्री विमर्श के लिए अनुभववाद कारागार है
हिंदी में स्त्री विमर्श की आधारशिला राजेंद्र यादव ने रखी थी, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है, जबकि खुद राजेंद्र यादव का कहना है, ‘साहित्य में इस तरह का विमर्श कोई नई बात नहीं है।यह बहुत दिनों से चला आ रहा है।साहित्य हमेशा उन्हीं पक्षों की बात करता है जो दबे-कुचले, शोषित वर्ग हैं।साहित्य हमेशा उन्हीं लोगों की आवाज बनता है, जिनके पास आवाज नहीं ।’ हालांकि यह मानते हुए भी उनके मन में प्रतिवाद की पुरानी साहित्यिक परंपराओं के प्रति जबरदस्त नकारवाद था और नई कहानी के जमाने का व्यक्तिवाद जारी था।वे उस दौर की ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ की धारणाओं को ही स्त्री या दलित विमर्श में समुदायवादी जमीन दे रहे थे।उन धारणाओं के मिलन के बाद यह स्थापित किया गया कि स्त्री स्वानुभूति या दलित स्वानुभूति ही प्रामाणिक है, बाकी उपेक्षणीय है।दरअसल राजेंद्र यादव अपने जमाने के अनुभववाद को ‘सामुदायिक अनुभववाद’ में बदल रहे थे।वे नई कहानी युग की ‘वैयक्तिक सामाजिकता’ की धारणा को नए ढांचे में पुनर्प्रतिष्ठित कर रहे थे।स्व-अनुभववाद, सामुदायिक अनुभववाद, नव-अनुभववाद सब एक मामला है।
1980 के दशक के आसपास शुलामिथ फायरस्टोन, जर्मेन ग्रीर, जुडिथ बटलर आदि लेखिकाओं की स्त्रीवादी कृतियां आ चुकी थीं।1980 में दिल्ली में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया था।महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स (1972) का आंदोलन पहले ही शुरू हो चुका था और नामदेव ढसाल जैसे दलित कवि (‘गोलपीठ’, 1978) और अपनी आत्मकथा के साथ दया पवार (‘बलुत’, 1978) जैसे दलित लेखक उभर चुके थे।हिंदी क्षेत्र में कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना करके दलितों के लिए उग्र राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत कर दी थी।इन घटनाओं का असर साहित्य पर पड़ा।राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ (1986) में अपनी नई पारी शुरू की तो कुछ समय बाद ही इसे स्त्री और दलित विमर्शों का मंच बना दिया।वे अपनी आधुनिकतावादी मानसिकता के साथ इन विमर्शों को बढ़ा रहे थे।इसलिए नई कहानी की ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ ही ‘स्व-अनुभववाद’ में ढले।इसे ‘स्वानुभूति’ कहा गया।यह विमर्शों की शक्ति बनी और उसकी कठोर सीमा भी।
नई कहानी युग का भोगा हुआ यथार्थ सामुदायिक विमर्शों में इतने उग्र रूप में था कि उसके साथ ‘इनसाइडर-आउटसाइडर’ का सिद्धांत भी चलने लगा।स्त्री विमर्श में दलित आउटसाइडर थे।दलित विमर्श में स्त्री आउटसाइडर थी।दोनों दायरों के लेखक राजेंद्र यादव से संवाद करते थे, पर आपस में जुड़े हुए नहीं थे।इस उत्तर-औपनिवेशिक विडंबना पर गौर करने की जरूरत है कि किसी भी सामुदायिक विमर्श में दूसरे के इतिहास से मतलब नहीं है।किसी लेखक को दूसरे के अनुभव से मतलब नहीं है, दूसरे के उत्पीड़न और अशांति से मतलब नहीं है।वैश्वीकरण के युग में एक समुदाय के लिए दूसरा ‘आउटसाइडर’ है और लोगों का कोई साझा भविष्य नहीं है!
उल्लेखनीय है कि पश्चिम की कई स्त्रीवादियों ने नस्लवाद का विरोध करते हुए ‘ब्लैक लिटरेचर’ का समर्थन किया था।मराठी लेखकों ने प्रतिवाद की पुरानी परंपराओं के प्रति उच्छेदवाद की जगह आलोचनात्मक सराहना का रुख रखा था।यह खुलापन हिंदी में नहीं था।हिंदी साहित्य के इतिहास को हिंदू साहित्य का इतिहास और पुरुषवादी साहित्य का इतिहास कहा जाने लगा था।भारतेंदु, प्रेमचंद, निराला आदि नकारे जाने लगे थे।
भारत में सामंतवाद ने कभी किसी का वैचारिक पीछा नहीं छोड़ा, कोई लाख आधुनिक या विमर्शवादी हो जाए।हर आधुनिकता के साथ अतीत का रूढ़िवाद कुछ न कुछ नत्थी रहा है।राजेंद्र यादव नई कहानी के दौर में लोकतांत्रिक और प्रगतिशील परंपराओं के प्रति क्रिटिकल थे ही, वे कहानी छोड़कर साहित्य की अन्य विधाओं के प्रति नकारवाद प्रदर्शित करते थे।उन्होंने कहानी को केंद्रीय विधा घोषित कर दिया, मानो उपन्यास, कविता, नाटक, आलोचना आदि विधाएं मिट रही हों।जो किसी भाषा में घटित नहीं हुआ, वह हिंदी में हुआ था।
इसी तरह विभिन्न विमर्श अलोकतांत्रिक होते जा रहे ‘राष्ट्र’ से अपनी टकराहटों के बीच पुल बनाने की जगह अपना पृथक-पृथक वृत्त बनाने लगे।इन घटनाओं ने सामुदायिक तौर पर काफी लोगों को एक हद तक जागरूक बनाया, लेकिन संकीर्णताएं भी फैलीं और मानवीय साझापन को धक्का लगा।हिंदी साहित्य की महान परंपराओं के प्रति उग्र उच्छेदवाद फैला, इसने माहौल को प्रदूषित किया।क्या प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’, प्रसाद की कहानी ‘आकाशदीप’, निराला की ‘देवी’ या निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ कहीं से पितृसत्तावादी है? उच्छेदवाद का गाज इन पर भी गिरा।
यह भी देखा गया कि ‘दूसरा’ के भीतर कई ‘दूसरे’ हैं।हाशियों के बीच दीवारें उठ रही हैं, जबकि ‘राष्ट्र’ धृतराष्ट्र होकर अंध-राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रहा है।वह हाशियों को निगलने की तैयारी में है।धर्मांधता की राह से वह सफल भी होता गया।सबने देखा कि धार्मिक महाविमर्श अंततः लिंग और जाति आधारित विमर्शों पर भारी पड़ा और उसका प्रभाव कई तरह से पड़ा।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हिंदी में स्त्री और दलित विमर्श ने जो साहित्य दिया, वह महत्वपूर्ण नहीं है।वह तात्पर्यपूर्ण है और एक बड़ी क्षतिपूर्ति है।इसने सामंती वर्चस्वों और बहिष्कारपरकता की प्रवृत्ति पर प्रहार किए।जब तक समाज में आक्रामक सामंती वर्चस्व हैं, विमर्शों की एक भूमिका है।हालांकि हाशिए के सभी विमर्शों और वंचितों के बीच पुल की भी जरूरत है।इसकी तरफ विमर्शों में न सिर्फ उदासीनता रही है, बल्कि उनमें जड़ इकहरापन भी रहा है।स्त्रियों को दलितों से मतलब नहीं रहा है।दलित आमतौर पर स्त्री प्रश्न पर चुप रहे हैं।नव-अनुभववाद के कारागार से बाहर न निकलने की वजह से विमर्शों का साहित्य धीरे-धीरे होमोजीनियस होता गया, भले वह एकेडेमिक फैशन में रहा हो और व्यावसायिक दृष्टि से सफल हो।इस पर ध्यान जाना चाहिए कि खंड-खंड अनुभववाद ने, मेरा अनुभववाद-तुम्हारा अनुभववाद ने और इनसे जुड़े उत्तेजक कथनों ने अंततः सभी को बौद्धिक रूप से एकाकी किया।इसने ‘एकमात्र मैं’ की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा दिया।जाहिर है, इन बुरी स्थितियों से सामाजिक-राजनीतिक प्रस्थान ही नहीं, साहित्यिक प्रस्थान भी जरूरी है।
विमर्श में खिड़कियां
20वीं सदी स्त्री के उद्धार से स्वतंत्रता की ओर, स्वतंत्रता से पहचान की ओर तथा पहचान से अधिकार के लिए संघर्ष की ओर बढ़ने की सदी रही है।यह सदी स्त्री के लिए खास अर्थ रखती है।इस सदी ने उसे रूढ़िवादी धार्मिक धारणाओं के बोझ से कितना मुक्त किया, उसके अधिकारों को कितना सुरक्षित किया और उसके भीतर कैसा सांस्कृतिक रूपांतरण घटित हुआ, इन सवालों पर विचार करना चाहिए।इस सदी में ही विमर्श आए।देखा जा सकता है कि स्त्री-विमर्श ने स्त्री को ‘वस्तु’ से कितना ‘मनुष्य’ बनाया, व्यक्तिवादी से कितना बुद्धिपरक और सामाजिक बनाया, विमर्श समाज में ‘अन्य’ का बोध कितना मिटा पाया और सुधार ला पाया।
पश्चिम के बौद्धिक संसार में 1980 के दशक में ‘डिस्कोर्स’ शब्द लोकप्रिय हुआ था।इसका शाब्दिक अर्थ है- सर्मन, धार्मिक प्रवचन, उद्देश्यपूर्ण भाषण और एकतरफ से कुछ बोलना! मिशेल फूको ने इसे सत्ता और राज्य के संदर्भ से जोड़ दिया।विमर्श न संवाद है, न विचार-विमर्श है।इसमें तय रहता है कि क्या बार-बार कहा जाना है और क्या बिलकुल नहीं कहना है।निःसंदेह विमर्शों में उत्पीड़ित की वैचारिकता है, जो मुख्यतः सामंतवाद-विरोधी वैचारिकता है।विमर्शों में उन्होंने बोलना शुरू किया था, जो हजारों साल से सिर्फ सुन रहे थे।उनकी उग्रता कई जगहों पर ‘इर्रैशनल’ लग सकती है, पर यह अंततः उनकी एक असहाय जिज्ञासा है-उत्पीड़न और कब तक?
भारत में विमर्शों का जोर सामुदायिक प्रतिनिधित्व पर है।इसलिए उनका सीमित लक्ष्य है तात्कालिक फायदा, सभी पर जीत और संभव हो तो प्रति-वर्चस्व।राजेंद्र यादव ने ‘स्व-अनुभववाद’ के प्रचार द्वारा इसकी जो वैयक्तिक समुदायवादी सीमाएं सुनिश्चित कर दी थीं, हिंदी में कोई विमर्श उन सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाया।उसमें खिड़कियां नहीं बन सकीं।इसका नतीजा है कि २१वीं सदी में वह विश्वबाजार तथा धार्मिक कट्टरवाद की नई चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रहा है।
दूसरे देशों में स्त्री-विमर्श इतना इकहरा नहीं रहा है, जितना भारत में।फेमिनिज्म से भिन्न ‘वीमेनिज्म’ की एक धारणा अफ्रीकी तथा अफ्रीकी मूल की अमरीकी नारीवादियों ने प्रस्तुत की थी।वे काली अस्मिता को समान रूप से महत्व देने के उद्देश्य से वस्तुतः श्वेत स्त्रीवादियों से एक अलग जमीन से बोल रही थीं।उनके सामने पितृसत्ता के अलावा नस्लवादी विद्वेष भी एक चुनौती के रूप में मौजूद था।इस वजह से काली स्त्रियां काले पुरुषों को उत्पीड़ित और सहयात्री के रूप में देखती थीं।उन्होंने स्थानीय संदर्भ में न सिर्फ पितृसत्ता के विरोध और पुरुष के विरोध के बीच फर्क किया, बल्कि स्त्री-विमर्श को यौनिकता की समस्या या देह-केंद्रित सोच से बाहर निकालते हुए गरीबी, कुपोषण, नस्लवाद, सामाजिक भेदभाव, परिवार और उदात्त सांस्कृतिक परंपराओं को भी अपनी विषयवस्तु में शामिल किया।
‘वीमेनिज्म’ की एक प्रमुख प्रवक्ता एलिस वाकर का उपन्यास ‘द कलर पर्पल’ इस दृष्टि से काफी चर्चित हुआ था।उन्होंने स्त्री को पृथकतावादी नजरिए से न देखकर ‘जनता की संपूर्णता’ में देखा था।उनकी सूची में प्रेम था, संगीत था, नृत्य था, लोक साहित्य था और चांद भी था!
हिंदी स्त्री–विमर्श की सीमाएं
हिंदी के स्त्री-विमर्श को सामुदायिक पृथकतावाद ने सीमित किया।इसने गरीबी ही नहीं सांप्रदायिकता तथा ‘सौंदर्य उद्योग’ समेत बाजारवाद के संदर्भ में उसके मुंह पर पट्टी बांध दी।भारत में स्त्री विमर्श ने ब्लैक नारीवादियों की तरह स्थानीय स्थितियों के अनुरूप अपना शत्रु और संगी नहीं चुना।कई बार वह श्वेत स्त्रीवाद का मंत्रोच्चार होकर रह गया और यौनिकता की समस्या के आसपास घूमता रहा।उसका निशाना एकांगी मर्दवाद था।
हिंदी में स्त्री-विमर्श की एक सीमा यह है कि पश्चिमी और अफ्रीकी स्त्रीवादियों के बीच जिस तरह से तीखी बहस चली है, हिंदी स्त्रीवादियों के बीच वैसी बहस देखने को नहीं मिलती।वे कभी एक-दूसरे से मिलकर संवाद करतीं या साथ आंदोलनरत नहीं देखी गईं।दूसरे देशों की स्त्रीवादियों ने वर्ग, नस्ल, श्वेत विशेषाधिकार, विवाह, यौनिकता, ‘पॉप फेमिनिज्म’ के प्रश्नों पर बहसें की हैं और साथ मिलकर स्त्री के वस्तुकरण और लैंगिक हिंसा का विरोध किया है।
एक साहित्यिक दृश्य यह है कि हिंदी की कई लेखिकाएं अपने को स्त्रीवादी नहीं मानतीं।वे आधुनिकता के दुख-सुख से गुजरते हुए संरक्षणवाद में विश्राम करती हैं और ‘नारीसुलभ’ पर जोर देती हैं।ये स्त्री लेखन का दूसरा छोर बनाती हैं, जहां बहुत-सी सामाजिक समस्याओं से बचा जाता है।ऐसी लेखिकाओं के लिए धर्मोन्माद का विरोध मुश्किल है।इनकी आदर्शवादी पहुंच ‘एलजीबीटी’ में सिर्फ थर्ड जेंडर तक है।ऐसी लेखिकाओं की भी अब कमी नहीं है जो स्त्रियों को धर्म रक्षक बता रही हैं- स्त्रियां हैं तो धर्म है! वे लैंगिक विभेद को प्राकृतिक मानती हैं, पितृसत्ता को समस्या के रूप में नहीं देखतीं और जड़ सांस्कृतिक आदर्शवाद का रास्ता चुनती हैं।
यह भी बहुतों को चिंताजनक लग सकता है कि भारत की एलीट स्त्रीवादियों ने सामान्यतः न इसपर ध्यान दिया कि वे किसानों से कैसा संबंध रखें, सौ दिन की रोजगार-गारंटी में लगीं स्त्रियों से कैसा संबंध रखें, दलितों से कैसा संबंध रखें और न इसपर ध्यान दिया कि वे धर्म, पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक अतीत और साहित्यिक परंपराओं के बारे में किस तरह आलोचनात्मक हों कि आम स्त्रियों से भी अपने को कनेक्ट कर सकें।उनमें ऐसी कई हैं जो धार्मिक कट्टरवाद और बाजारवाद के बारे में सोचने से बचती हैं।ऐसी लेखिकाओं के लिए पितृसत्ता एकदम सरल रेखा जैसी कोई चीज है।
हर नया बौद्धिक आंदोलन ‘प्रचलित’ और ‘प्रचारित’ से विद्रोह है।लेकिन भारत में स्त्रीवाद का सामान्य हाल यह है कि वह ‘प्रचलित’ और ‘प्रचारित’ व्याख्याओं से बाहर नहीं निकल सका।स्त्री चेतना पर संरक्षणवाद और उपभोक्तावाद के छा जाने और व्यापक विपर्यय की यह एक बड़ी वजह है।
आज की हालत है, भारतीय समाजों पर स्त्री विमर्श और स्त्रीवाद का कोई असर नहीं है।स्त्रियां सामान्यतः धार्मिक अंधविश्वास और पश्चिमी सभ्यता के बीच सैंडविच बन गई हैं।उनमें पर्याप्त बहनचारा नहीं है।वे झूठ की टकसाल में सच खोजती हैं।एकबार फिर धर्म का राजतंत्र आया है और सांप्रदायिक तनावों ने संरक्षणवाद को मजबूत किया है।धार्मिक कट्टरवाद ने आज अंधविश्वास को भी मानवाधिकार बना दिया है और काफी पढ़े-लिखे लोग भी इसके पक्ष में हैं।अपनी दृष्टि में सुधार न करके स्त्रियों से कहा जाता है- यह पहनो, यह न पहनो।स्त्री की स्वतंत्रता और अब तक के अर्जित अधिकार संकट में हैं।जगह-जगह फिर लाठियां दिखने लगी हैं, स्वनियुक्त सांस्कृतिक अभिभावक सड़कों पर हैं।
आज स्त्री-स्त्री के बीच काफी दूरियां हैं, उनके बीच एक-दूसरे की शिकायतें हैं।दरअसल जब वे निर्भय होकर किसी मजबूत सत्ता से शिकायत करने की हिम्मत ला देंगी और अन्याय सहना बंद कर देंगी, तो उनके बीच दूरियां मिटने लगेंगी।
5जी के जमाने में भी करोड़ों पत्नियां उम्र में करीब होने पर भी अपने पति को ‘तुम’ नहीं कह सकतीं, मुंह से पति का नाम लेना तो दूर की बात है।स्त्री पक्ष की कैसी बुरी दशा है, इसे विवाह समारोह के एक उदाहरण से समझा जा सकता है।अब हर जाति में वर पक्ष के लोग पुराने क्षत्रियों की तरह बारात में पगड़ी पहन कर आते हैं, जबकि वधू पक्ष में सामान्यतः पगड़ी नहीं दिखती, मानो वह हारकर आत्मसमर्पण करने के लिए खड़ा हो!
क्या स्त्री आंदोलन अब एक स्मृति है
स्त्रीवाद साहित्यिक-एकेडेमिक चर्चा में रहने के बावजूद उस तरह सामाजिक आंदोलन नहीं बन पाया है, जिस तरह कभी 19वीं -20वीं सदी का सुधार आंदोलन या पहली लहर का नारी आंदोलन था।क्या संपूर्ण स्त्री आंदोलन ही अब एक स्मृति है? कई स्त्रीवादी संगठन हैं जो घरेलू हिंसा, सांप्रदायिकता और धार्मिक पितृसत्ता पर मुखर नहीं हैं, जबकि ये समस्याएं विकराल होती जा रही हैं।स्त्रीवाद से सांप्रदायिकता शब्द ही जैसे निष्कासित है।प्रायः सभी संगठन एनजीओ में सीमित होकर रह गए हैं- अनुदान लो, कार्यशाला या सेमिनार करो और कुछ को थोड़ी राहत थमा दो।ऐसे संगठन के लोगों में कुछ अच्छा खो देने का अफसोस भी शायद ही बचा हो।सबसे भयावह है प्रतिवाद का ‘सेलिब्रेशन’ हो जाना!
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कोई महादेवी वर्मा को याद नहीं करता, जबकि उनका जन्म मार्च महीने में हुआ था।भारत में कृतघ्नताओं का एक सिलसिला है।अमेरिका में हाल में ब्लैक स्त्रीवादी माया एंजेलो के नाम पर सिक्का बना, क्या वर्तमान माहौल में महादेवी वर्मा या महाश्वेता देवी के नाम पर स्त्रियों के आंदोलन का सम्मान करनेवाले बड़े स्मारक विभिन्न नगरों में बन सकते हैं?
दरअसल भारत में कोई कट्टरवादी व्यक्ति सामाजिक मुद्दों पर स्त्रियों को प्रतिवाद करते हुए देखना नहीं चाहता, इन्हें राजनीतिक रैलियों में भले शामिल करता रहे।उसे लगता है, प्रतिरोध की राह चुनकर स्त्री अपना जीवन बरबाद करती है।कट्टरवादियों की हार्दिक आकांक्षा है, स्त्रियां हमेशा लक्ष्मणरेखा के भीतर रहें!
मीडिया, बाजार और पॉप फेमिनिज्म
आज स्त्रियों, खासकर करोड़ों युवतियों के मन-आचरण पर स्त्रीवादी विचारों की जगह पॉप फेमिनिज्म का असर ज्यादा है।पॉप फेमिनिज्म स्त्रीवाद को दौलत, सौंदर्य की ताकत, सत्ता और सुखवाद का पर्याय बना देता है।इन दिनों धार्मिक अंधविश्वास और पॉप फेमिनिज्म की जुगलबंदी सफल हो रही है।धार्मिक अंधविश्वासों के बारे में ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है कि किस तरह मीडिया और बाजार इन्हें मजबूत बनाने में लगे हैं।मीडिया और बाजार पॉप फेमिनिज्म के भी बड़े प्रचारक हैं।उन्होंने स्त्री सौंदर्य और शक्ति का जमकर उपयोग किया है।वे युवतियों को ‘फन गर्ल’ बना देना चाहते हैं।उनका उद्देश्य पॉप फेमिनिज्म के जरिए पितृसत्ता, धर्म के राजतंत्र और दूसरी अन्यायपूर्ण सत्ताओं को मजबूत बनाना ही हो सकता है, उन्हें स्त्री स्वाधीनता के मूल्यों से क्या मतलब!
स्त्री विमर्शकार और स्त्रीवादी लेखिकाएं सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं।यह आज के समय में एक बड़ा मंच है।यह स्त्रीवाद को कितनी जीवनीशक्ति दे रहा है और इसे वस्तुतः वास्तविक सामाजिक सक्रियता से कितनी दूर कर दे रहा है, इसपर विचार किया जाना चाहिए।जब उत्तेजनापूर्ण बातों के अलावा कुछ भी गंभीर पढ़ने-सुनने की प्रवृत्ति का काफी ह्रास हो चुका है, यौन उत्पीड़न से संबंधित ‘मी टू’ (2017) जैसी चीजें ही सोशल मीडिया पर स्त्रीवाद के चिह्न हैं।हालांकि निर्भया कांड (2012) के समय सोशल मीडिया ने एक गौरवमय भूमिका निभाई थी और हिंसक बलात्कार के विरुद्ध बिखरे जन-आक्रोश को जोड़ा था।
यह भी लक्षित किया जा सकता है कि सोशल मीडिया पर पितृसत्ता के विरुद्ध किसी स्त्री द्वारा विद्रोही बात कहने पर किस तरह धार्मिक संरक्षणवाद की भौंहें तन जाती हैं।ऐसी लेखिकाओं का हिंसक ट्रोल होता है, कट्टरवादी उनके पीछे पड़ जाते हैं!
बिग मीडिया के विभिन्न मंचों पर स्त्रीवाद अब एक स्वादिष्ट चीज है।न्यूज चैनेल में कुछ स्त्री एंकर पॉप फेमिनिज्म की सटीक उदाहरण हैं। ‘आज तक’ की भड़कदार रूप में आती एंकर का आक्रामक समाचार वाचन हो, विद्या बालन अभिनीत ‘कहानी’ (2012), रानी मुखर्जी अभिनीत ‘मर्दानी’ (2014) जैसी फिल्में हों या ‘अगले साल छोरा’ कहकर अभी-अभी जन्मी कन्या भ्रूण की चीख दिखाने वाली ‘लाडो’ जैसी टीवी सीरियल हो, ये सभी स्त्री के जरिए आक्रामक मर्दवाद परोसने के मामले हैं।इनमें हिंसा भरी होती है।आधुनिक फैशन में डूबी कंगना रणौत की स्त्री चेतना से झांकती नग्न धार्मिक पितृसत्ता भी एक नमूना है।चिंताजनक है, इन सबको व्यापक जन समर्थन भी है।
मीडिया में एक तरफ धार्मिक विद्वेष का व्यापक प्रचार है, दूसरी तरफ फैशन परेड, ज्वेलरी-कास्मेटिक्स के प्रचार और नई लहर के पॉप गानों में कामुकता का उत्सव है।टिकटाक जैसे ब्रांड और यूट्यूब के मुक्त संसार के ऐसे करोड़ों छोटे-छोटे वीडियो हैं जो पॉप फेमिनिज्म का प्रचार करते हैं।ये स्त्री का वस्तुकरण करते हैं।मनोरंजन उद्योग की दुनिया में कई पॉप स्टार स्त्रीवादी हैं।ऐसी स्त्रियां एक बड़ी प्रभाव क्षमता के साथ स्त्री चेतना को मिटाने का काम करती हैं।यह सब बाजार-पोषित अदृश्य पितृसत्ता की निर्मिति हैं जो लगभग दो सौ सालों के स्त्री आंदोलन की चेतना को ध्वस्त करने में लगी हैं।चिंताजनक यह है कि इन चीजों पर साहित्यिक-एकेडेमिक स्त्रीवाद लगभग मौन है।
फिर भी निराला के शब्द लेकर कहें तो, ‘अभी न होगा मेरा अंत’! यह आज स्त्री चेतना की एक घायल आवाज है।
कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती
यदि वह है तो सबके साथ है
मुख्य सवाल है, क्या पितृसत्ता कोई निरपेक्ष शक्ति है? क्या राष्ट्र के अवमाननावादी चरित्र की पड़ताल पितृसत्ता की पुरानी व्याख्याओं के आधार पर की जा सकती है? यदि हम यह नहीं जान पाते कि पितृसत्ता को खुराक और मजबूती किन चीजों से मिलती है और उसके ‘वैरिएंट’ क्या हैं तो पितृसत्ता से लड़ नहीं सकते।दरअसल हाशिए के अलग-अलग एकाकी कोण से लड़ना हमेशा केंद्रवाद और वर्चस्वों को मजबूत करता है, वह अंततः सत्ता की निरंकुश राजनीति का भोज्य पदार्थ बन जाता है।
भारतीय राष्ट्र में मोटे तौर पर सात वर्चस्व मौजूद हैं- (1)पितृसत्ता का वर्चस्व, (2) जाति वर्चस्व, (3) सांप्रदायिक वर्चस्व, (4)अंध-प्रांतीयतावादी वर्चस्व, (5) महानगरीय केंद्रीकरण (6) अंग्रेजी वर्चस्व और (7) कारपोरेट वर्चस्व।ये भारतीय राष्ट्र में मौजूद जोंकें हैं और परस्पर आश्रित हैं।सिर्फ एक खास रंग की जोंक से लड़कर उसको कभी मिटाया नहीं जा सकता, ‘राष्ट्र’ से सारी जोंकों का सफाया जरूरी है।
संभव है कि समाज में कोई व्यक्ति एक वर्चस्व का शिकार हो और दूसरी जगह किसी अन्य वर्चस्व का अंग हो, जैसे-वह जातिवादी वर्चस्व का शिकार हो और लैंगिक वर्चस्व का अंग हो।कारपोरेट वर्चस्व का शिकार हो और जाति या लैंगिक वर्चस्व का अंग हो।अंग्रेजी वर्चस्व का शिकार हो, लेकिन सांप्रदायिक वर्चस्व का अंग हो।यह भी देखा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुक्त बाजार व्यवस्था में ‘राष्ट्र’ का उदार रूप धीरे-धीरे भाप बनकर खोता जा रहा है और ‘राष्ट्र’ मल्टीनेशनल व्यापारियों के खेलने का मैदान बन गया है। ‘राष्ट्र’ बाजार के खेलने का मैदान बन जाए, इससे अधिक अभिशप्त और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं हो सकती।
भारत में मुक्त बाजार के बरक्स समाज में कई ‘हम’ और ‘वे’ बना दिए गए हैं। ‘हम’ से नए-नए ‘वे’ निकल रहे हैं, ‘हम’ सिकुड़ रहा है।मनुष्य की अस्मिता एक रणभूमि में बदल गई है।अचानक कब कौन कहां ‘दूसरा’ के रूप में देखा जाने लगेगा और हिंसा का शिकार होगा, कहना मुश्किल है।सर्वत्र असुरक्षा और अशांति है।सभी असुरक्षित हैं, लेकिन विमर्शवादी दिखाते हैं कि सिर्फ उनका समुदाय असुरक्षित है।ऊपर से बढ़ती हुई विषमता है जो ईंधन का काम करती है।
इधर स्थानीयतावाद में भी उग्रता आ गई है, ‘बाहरी’ की धारणा स्थापित हो रही है।दलित अलग बोल रहे हैं, पिछड़े अलग हैं।किसान अलग बोल रहे हैं, मजदूर अलग हैं।हर तरफ खंड-खंड विमर्श है, मनुष्य की पीड़ाओं में शिविरबंदी है।मुक्तिबोध ने कहा था, ‘अब तो रस्ते ही रस्ते हैं/मुक्ति के राजदूत सस्ते हैं!’
इस संदर्भ में स्त्रियां एक बड़ी भूमिका इस अर्थ में निभा सकती हैं कि वे सभी समुदायों में हैं, हर जगह हैं और हर परिवार में हैं।वे एक या कई तरह से पीड़ित हैं।इसलिए उन्हें अपनी पीड़ा को विस्तार देने की, ‘सभी दूसरों’ की पीड़ा को समझने की जरूरत महसूस हो सकती है।इस राह में सबसे बड़ी बाधा है नव-अनुभववाद, जिससे निकलकर ही अपनी समवेदना को विस्तार देना और एक बड़ी लड़ाई संभव है।स्त्रियां आधी दुनिया हैं और वे चाहें तो पूरी दुनिया को बदल सकती हैं।
स्त्रीवाद स्त्री चेतना की आखिरी मंजिल नहीं है
21वीं सदी के वर्तमान दौर में दमन, संघर्ष और स्वतंत्रता के नए रूपों को समझना जरूरी है।संभवतः नई स्थितियां स्त्रीवाद के पुराने अतिवादी और सीमित रूपों से बाहर आने की मांग करें और अधिक यथार्थपरक होकर सोचने का ऐतिहासिक दबाव बनाएं।दरअसल पितृसत्ता स्थिर मामला नहीं है, वह रूप बदलती है।वह प्रभुत्व के लिए व्यापारिक गठबंधन करती है और तरह-तरह से संस्कृति की खाल ओढ़ती है।वह सार्वभौम रूप से धर्म को उपभोग और उपभोग को धर्म बना देने में प्रवीण है।ऐसे में स्त्री चेतना पुरानी स्त्रीवादी लफ्फाजी और चौहद्दी में फँसी नहीं रह सकती और न दमनात्मक संरक्षणवाद को स्वीकार कर सकती है।
स्त्रीवाद स्त्री चेतना की आखिरी मंजिल नहीं है।स्त्री चेतना को सिर्फ देह का नहीं, एक जुझारू और समावेशी उदार मन का मामला भी होना चाहिए।इसलिए स्त्रीवाद को एक मोड़ की जरूरत है।
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पहली बार इस लेख में एक नए रूप में विमर्श को समझा जो स्वच्छंद, जीवनविषयक उपयोगी ज्ञान से युक्त है जिसमे व्यक्ति का उत्तरदायित्व गुरुत्तर व कार्येक्षेत्र विस्तृततर हैं।मेरी कोशिश होगी कि इस नए दृष्टिकोण के साथ हम अपनी संकरी सोच को विस्तार दे सक जिसे हम महादेवी जी की श्रृंखला की कड़ियों में जोड़ कर देख सकते हैं।आभार सर…🙏✨💐☘️
बहुत ही विस्तारपूर्वक विश्लेषण। सूक्ष्म दृष्टि ने स्त्रीविमर्श से जुड़े नए किबाड़ो को खोला है।