शंभुनाथ

पश्चिम में बाबेल की मीनार की एक कथा है। उसका संबंध भाषाओं की भिन्नता से है। कभी पूरी दुनिया में एक ही भाषा थी। सभी एक भाषा बोलते थे। लोगों ने ईंटें पकाईं। उन्होंने एक अच्छा शहर और एक ऊँची मीनार बनानी शुरू की, ताकि वे स्वर्ग तक पहुंच सकें। वे सभी श्रमिक ऐक्यबद्ध मानवजाति थे। मीनार स्वर्ग की तरफ बढ़ रही है, यह देखकर ईश्वर ने मीनार बनाने का काम तत्काल रोक दिया, सभी को धरती पर वापस भेज दिया और उन्हें एक-दूसरे से अलग कर दिया। इससे न सिर्फ मीनार अधूरी रह गई, बल्कि भाषा की भिन्नता की वजह से लोगों के लिए एक-दूसरे की बात समझ पाना भी कठिन हुआ और मानवजाति की एकता का स्वप्न भी अधूरा रह गया।

बेबीलोन से संबंधित उपर्युक्त कथा में एक संकेत यह है कि भाषा मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध, संवाद और उच्च साझा निर्माणों के लिए है। एक संकेत यह भी है कि ईश्वर ने ही भाषाओं की भिन्नता पैदा की।

वैश्वीकरण के बाद अंग्रेजी-वर्चस्व और तकनीकी क्रांतियां भाषाओं की भिन्नता भले कम करती जा रही हों, पर ये हर भाषा के भीतर भिन्नता बढ़ा रही हैं ताकि समाज में न्यूनतम संबंध, संवाद और साझापन बचे। यही वजह है कि अंग्रेजी छोड़कर दुनिया की सभी भाषाएं एक न एक तरह से संकट में हैं। कई भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। कई के भीतर भिन्नतावाद चरम पर है, दोहरा संकट है। यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि ईश्वर ने बाबेल के जिस मीनार को बनने से रोक दिया था, क्या मुक्त बाजार उस अधूरे मीनार को पूरा कर देगा? क्या अब दुनिया में एक भाषा हो जाएगी-अंग्रेजी? इस डिजिटल मीनार का रुख स्वर्ग की तरफ है या नरक की तरफ?

संकटग्रस्त भाषाएं

यूनेस्को में संकटग्रस्त भाषाएं चर्चा का विषय बनी थीं। 1993 में विलुप्त होती भाषाओं का वर्ष घोषित किया गया था। इस खतरे की तरफ इशारा किया गया था कि अब कम बोली जानेवाली सैकड़ों भाषाओं के खामोश हो जाने का समय आ रहा है। इससे भाषाई-सांस्कृतिक विरासत का एक बड़ा हिस्सा विलुप्त हो जाएगा।  यह घोषणा उस समय की गई थी, जब वैश्वीकरण के बाद अंग्रेजी और तकनीकी क्रांति का महत्व ज्यादा बढ़ गया और संकटग्रस्त भाषाओं का मिट जाना अधिक सुनिश्चित लगने लगा। मुख्य बात है, बाजार ऐसी स्थानीय भाषाओं से विमुख है। फिलहाल मुक्तिदाता बाजार है और संहारकर्ता भी वही है!

भारत में मातृभाषाएं संविधान की आठवीं सूची में दर्ज 22 राष्ट्रीय भाषाओं से अधिक हैं। 2011 के जन-सर्वेक्षण के अनुसार प्रमुख मातृभाषाओं की संख्या 271 हैं।

इनमें से कई भाषाओं का अपना साहित्यिक संसार है, लोक संस्कृति है और सभी का संरक्षण किया जाना चाहिए। लेकिन कई मातृभाषाओं में अब स्कूल नहीं हैं, अखबार नहीं हैं और ज्ञान की नई पुस्तकों का रचा जाना संभव नहीं है। इन भाषाओं को नई पीढ़ियां छोड़ती जा रही हैं। इसपर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसी भाषाएं यदि आधुनिक सामाजिक विकास की प्रक्रिया में किसी राष्ट्रीय भाषा द्वारा आत्मसात कर ली गई हैं- समझा बुझाकर या प्रचंड इतिहास-प्रवाह में तो उन्हें अलग से बचाकर कितनी दूर तक चलाया जा सकेगा? यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि भारत की 22 राष्ट्रीय भाषाओं पर उपस्थित खतरों को कैसे समझा जाए?

लोग अपनी ही भाषा में निस्सहाय हैं

भाषा की क्षमता को उद्घाटित करते हुए कहा गया है कि मनुष्य के सारे विचार भाषा की उपज हैं। इसका अर्थ है, मनुष्य भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, बल्कि भाषा ही मनुष्य का इस्तेमाल करती है। मनुष्य भाषा का औजार है- इसके चिह्नों, नारों, अपशब्दों और छवियों का कैदी। वह भाषा से नहीं खेलता, भाषा उससे खेलती है। आज देखा जा सकता है कि लोग अपनी भाषा में ज्यादा बड़ी घेरेबंदी में हैं और यह घेराबंदी आनंददायक है। लेकिन ऐसे भी कई मनुष्य हैं जो अपनी भाषा में  अपने को निस्सहाय महसूस करते हैं। वे अपने संसार के चिह्नों, नारों, अपशब्दों और छवियों से तनाव का अनुभव करते हैं। संभव है, हमारी भाषा हमें आत्मतृप्ति के साथ कभी-कभी असहायता के बीच छोड़ देती हो।

आज हम शिक्षण संस्थान, बाजार, मीडिया और राजनीति ही नहीं, व्यक्तिगत संबंधों की दुनिया में भी देखते हैं कि हमारी जो भी भाषा हो- हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल या अंग्रेजी-वह काफी बदल गई है। ऐसा नहीं है कि ये बदलाव सामाजिक जरूरत के तहत हो रहे हैं। वर्तमान युग में नई उपभोक्ता वस्तुओं, सेवाओं, आविष्कारों, विचारों या परंपराओं की व्याख्या पर सामाजिक या लोकतांत्रिक नियंत्रण नहीं रह गया है। समाज में विषमता और खाइयां बढ़ी हैं। उसे अराजक झुंडों में विभाजित किया जा रहा है। उच्च सांस्कृतिक आदर्शों का पतन हुआ है, लोभ बढ़ा है। मनुष्य की वैयक्तिकता खतरे में पड़ चुकी है। इन सबकी वजह यह है कि भाषा पर बाजार, राजनीति और मीडिया का निरंकुश कब्जा है। हर राष्ट्रीय भाषा वस्तुतः हायजैक की जा चुकी है।

आज लोग निस्सहाय होकर, शिकारियों के फेंके जाल में छटपटा रहे हैं। इसके नतीजे इकहरे अनुभव, अज्ञानता के प्रभावशाली विस्तार और संवेदनहीनता के रूप में देखे जा सकते हैं। भाषा अब सामाजिक निर्माण की जगह राजनीतिक-प्रौद्योगिक उत्पादन है। मुख्य बात है, लोगों के बीच संवाद अब कठिन होता जा रहा है, भले संचार क्रांति आ चुकी हो। यदि एक तरफ तकनीकी प्रगति ने भाषा में नई खिड़कियां खोली हैं तो दूसरी तरफ एक समुदाय, एक भाषा और एक राष्ट्र का बंद नजरिया भी बनते देखा जा सकता है।

इधर भाषा का व्यावसायिक और राजनीतिक प्रबंधन के लिए खास तरह से इस्तेमाल हो रहा है। वह कृत्रिम होने के साथ ‘इमोशनल’ भी है। भाषा इस तरह ‘सत्ता’ और ‘नियंत्रण’ का कौशल बन जाती है। यह भाषा का अप्रत्यक्ष शोषण है, जो कुशल व्यवहारकर्ताओं द्वारा सभ्यता के आवरण में होता है। ऐसी भाषा मायावी होती है।

उसकी विनम्रता में हिंसा छिपी होती है। स्मार्टनेस आंखों में धूल झोंकना होता है। वक्ता बड़े तरीके से लोगों को अपनी कुशल भाषा द्वारा प्रभावित करता है। वह शब्द या अवधारणा के अर्थ को उद्देश्य के अनुसार बदल देता है। जो बोला जाता है वह होता नहीं, जो होता है वह बोला नहीं जाता। फिर भी वक्ता के लच्छेदार झूठ को लोग सच मानते हैं, भले उनके हितों पर आघात हो रहा हो। इस तरह भाषा स्पष्टवादिता या पारदर्शी नदी की जगह दुनिया की गंदगियों के छिपने की जगह बन जाती है।

19वीं सदी के आसपास जब हम कृषि-आधारित समाज से औद्योगिक समाज की ओर बढ़ रहे थे, हर भाषा में, निश्चय ही हिंदी में भी एक स्वतंत्र सामाजिक ऊर्जा थी, दूसरी भाषाओं से जीवित संवाद था और उदारवाद की प्रधानता थी।  भाषा को गढ़ने की क्षमता मनुष्य के हाथ में थी। उत्तर-प्रौद्योगिक संसार में समाज के बोध में सिकुड़न आई। संस्कृति में काट-छांट शुरू हो गई। संस्कृति अब पहले की तरह सर्वोत्तम ज्ञान, उच्च विचारों, कलाओं, आदर्शों, विश्वासों, पर्व-त्योहार और परिष्कृत विश्वासों का संसार नहीं है। अब विकृति ही संस्कृति है। इसी के अनुरूप भाषा में भी सामुदायिक आत्मसंकुचन आया है। उसका अति- राजनीतिकरण और बाजारीकरण हुआ है। इसलिए भाषा पर उपस्थित वर्तमान खतरों को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।

भाषा का डिसइन्फार्मेशनके लिए इस्तेमाल हो रहा है

हम देख सकते हैं कि इन दिनों भाषा के ऐतिहासिक विकास के बारे में, भाषा परिवार के बारे में और एक भाषा की अर्थ-परंपरा का दूसरी भाषा की अर्थ-परंपरा से संबंध के बारे में नहीं सोचा जाता। इसके विपरीत, ‘मतरुकात’ अर्थात भाषिक शुद्धिकरण का अभियान है- दूसरी भाषाओं के शब्दों को ढूंढ-ढूंढकर बाहर निकालो! मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति के असामान्य व्यवहार की तरह ही बीमार राष्ट्र के ऐसे असामान्य भाषिक व्यवहारों का अध्ययन किया जाना चाहिए। इसके साथ अपने समय के नशीले चिह्नों-छवियों का भी अध्ययन जरूरी है।

भाषा को कुछ इस तरह सामाजिक संप्रेषण का माध्यम माना जाता है, जैसे जाति, समुदाय या समाज के संदर्भ के बिना भाषा की कोई भूमिका न हो। खासकर जनजातियों के अध्ययन में उनकी भाषाओं से समाज और संस्कृति को कसकर जोड़ना विद्वानों का प्रिय मामला रहा है। प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोऑम चाम्स्की ने इसे भ्रांत धारणा मानते हुए कहा है, ‘भाषा का इस्तेमाल मनुष्य बिना किसी सामाजिक संदर्भ के भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए करता है।’ भाषा कभी भी गणित की तरह जोड़-घटाकर नहीं बनती। वह स्पष्ट माध्यम होने के साथ एक रहस्यमय शक्ति भी है। विडंबना यह है कि भाषा को सीमित जातीय पहचान और कभी-कभी धार्मिक पहचान के तौर पर देखा जाता है। भाषा में इन सबका अतिक्रमण करने की जो राष्ट्रीय और सार्वभौम रचनात्मक शक्ति है, उसकी अवहेलना की जाती है। कहना होगा, एक जिंदा भाषा जातीय पहचान का बोध कराते हुए भी इसके बोझ से कभी अपनी आत्मा को दबने नहीं देती।

भाषा के वैकल्पिक उपयोग, शब्द के नएनए उपयोग होते हैं। कई शब्दों के मार दिए गए उच्चतर अर्थ फिर जी उठते हैं। शब्द दीवार बनाने के लिए हो सकते हैं तो पुल बनाने के लिए भी हो सकते हैं। भाषा से छला जा सकता है और भाषा दुख का शरणस्थल भी है। भाषा का एकायामी उपयोग और सिर्फ स्वार्थपूर्ति या जवाबदेही से बचने के लिए उपयोग उसकी भीतर से हत्या है।

इस युग में भाषा का  इस्तेमाल ऐसी सूचनाओं के रूप में ज्यादा हो रहा है जो वस्तुतः सूचनाओं को रोकती हैं। भाषा का ‘डिसइन्फार्मेशन’ के लिए इस्तेमाल हो रहा है। उसका अज्ञानता फैलाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है। भाषा का मीडिया, बाजार और राजनीति द्वारा तकनीकी क्षमता के बल पर व्यापक आत्मसातीकरण हुआ है। इन वजहों से उसकी संकटग्रस्त दशा को समझने के लिए यूनेस्को की एक बंधे ढांचे में बनी कसौटी को बदलने की जरूरत महसूस हो सकती है।

जातीय आंतरिकता का भाव

21वीं सदी में संकटग्रस्त भाषाओं को लेकर जो चिंता है, वह समुद्र में डूबते  टायटेनिक जहाज को चुपचाप देखने की तरह है। दरअसल आधुनिक शिक्षा और तकनीकी विकास के वर्तमान युग में कोई मनुष्य ज्यादा समय तक अपनी छोटी स्थानीय भाषा का कैदी बनकर नहीं रह सकता। वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को लेकर उस भाषा की ओर बढ़ता है जिससे जातीय आंतरिकता महसूस होती है।

भारत की भाषाई विविधता देखकर कुछ यूरोपीय विद्वानों ने इस देश को भाषाओं का अजायबघर कहा था। समझने की जरूरत है कि इस देश में भाषाई विविधता की तरह सांस्कृतिक और जातीय आंतरिकता भी महत्वपूर्ण चीजें हैं। यदि इस देश की दूसरी भाषाओं के लोग नजदीक लगते हैं तो सांस्कृतिक आंतरिकता की वजह से लगते हैं। इसी तरह यदि एक ही राष्ट्रीय भाषा क्षेत्र की दूसरी बोलियों, उपभाषाओं-भाषाओं के लोग नजदीक लगते हैं तो यह जातीय आंतरिकता की वजह से लगते हैं।

जातीय आंतरिकता एक ऐसा तत्व है जो मनुष्य की पहचान को पुरानी लघु सीमा से एक बृहत्तर दायरे में पहुंचाता है। उल्लेखनीय है कि जातीय आंतरिकता उपनिवेशवाद ही नहीं, संरक्षणवादी तत्वों के भी निशाने पर रही है। आए दिन धर्म और जातिवाद के अलावा, भाषा के मामले में भी विखंडनपरक संरक्षणवाद दिखता है। यह मन को कछुआधर्मी बनाता है। कहना न होगा कि लोककला, लोकसंस्कृति और लोक साहित्य की प्रयोगशील संरक्षणशीलता विखंडनपरक संरक्षणवाद से भिन्न मामला है।

विशाल हिंदी क्षेत्र में कुल दस राज्य हैं। 2011 के जन सर्वेक्षण के अनुसार हिंदी का इस्तेमाल करनेवालों की संख्या लगभग 53 करोड़ थी। इतनी बड़ी आबादी में हिंदी के मानक खड़ीबोली रूप के अलावा बोलचाल और व्यवहार के अनेक रूप हैं। हिंदी के भीतर बोलियों, भाषाओं और मातृभाषाओं की संख्या अवधी से लेकर सुरजपुरी तक 50 है। इनकी लोक संस्कृतियां, अद्भुत नाद सौंदर्य वाले शब्द और उच्च सामाजिक संस्कारों को बचाने की जरूरत है।

इसके अलावा, यह भी देखना होगा कि इन भाषाओं और बोलियों के लोग जब स्थानीयता से बाहर निकलते हैं, तब उनका पहला संपर्क खड़ी बोली हिंदी से होता है। हिंदी एक भाषा है या अनेक हिंदियां हैं? यदि कई हिंदियां हों भी तो देखने की जरूरत है कि इनके बीच जातीय आंतरिकता का अनुभव संभव हो पा रहा है या नहीं, सांस्कृतिक अंतरावलंबन बना हुआ है या नहीं। दरअसल हिंदी काफी संघर्ष करके एक समावेशी राष्ट्रीय भाषा के रूप में उभरी है, कु छ अधिक जिम्मेदारियों के साथ। इसकी राह में अभी भी कम रुकावटें और समस्याएं नहीं हैं। निःसंदेह विखंडनपरक संरक्षणवाद ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ (प्रताप नारायण मिश्र) तथा कई अन्य पृथकतावादी रूपों में है, लेकिन इससे हिंदी का अस्तित्व संदिग्ध नहीं हो जाता।

औपनिवेशिक बौद्धिकता के बावजूद

हिंदी को अनेक भाषाओं के रूप में देखनेवाले बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो ग्रियर्सन के औपनिवेशिक भाषा सर्वेक्षण (1898-1927) का अनुगामी रहा है। ग्रियर्सन का एक भाषावैज्ञानिक आविष्कार ‘बिहारी भाषा’ है। इस दृष्टिकोण का प्रतिवाद महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ में 1917 में किया था। ग्रियर्सन के औपनिवेशिक तोड़फा़ेड से भिन्न मत रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा का रहा है। उन्होंने हिंदी को हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-उपभाषाओं-बोलियों के जातीय विकास की रोशनी में देखा था। इस धारा के बुद्धिजीवी भारत की अन्य राष्ट्रीय भाषाओें के विकास की लाइन पर ही हिंदी के विकास को देखते हैं।

हिंदी कोई भाषा ही नहीं है, हिंदी सांप्रदायिक भाषा है, हिंदी हिंदी क्षेत्र की जातीय अखंडता की भाषा नहीं है, हिंदी एक भाषा नहीं है, हिंदी कई भाषाओं का गुच्छा है जो बिखर जाएगाइस तरह की एलीटवर्गीय चर्चा बौद्धिक उपनिवेशवाद के शिकार बुद्धिजीवियों द्वारा होती रही है। हिंदीउन्माद से भरे लोग हिंदी को धर्म से जोड़ते रहे हैं। गनीमत है, जनता भाषावैज्ञानिक नहीं होती, वह दीवारें नहीं बनाती!

हिंदी में विविध स्थानीय आवाजों और चेहरों का आना हिंदी की विविधता है जो उसकी जातीय शक्ति है। इससे हिंदी अनेक भाषाएं नहीं हो जाती। कहना होगा कि हिंदी क्षेत्र की देशज बौद्धिकता अपनी स्थानीय ठसक के साथ नए सिरे से सामने आ रही है। उसकी छवियां उपन्यास, कहानियों और अन्य साहित्यिक विधाओं में बड़े पैमाने पर दिखती हैं। यह हिंदी का लोकतांत्रिक रूप है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। निश्चय ही हिंदी को कॉस्मोपोलिटन भाषा समझना एक भूल है, जिस तरह इसे सिर्फ हिंदुओं की भाषा समझना भी भूल है।

हिंदी ऐसी भाषा नहीं हैै जिसमें अंध-राष्ट्रवाद कभी फल-फूल पाया हो। फिर भी गिलक्राइस्ट और गार्सा-द-तासी की औपनिवेशिक परंपरा में उच्छेदवादी औपनिवेशिक बौद्धिकता से प्रभावित कई बुद्धिजीवी हिंदी को खलनायिका साबित करते रहे हैं। वे हिंदी की उत्पत्ति को अंध-राष्ट्रवाद या सांप्रदायिकता से जोड़ते हैं। इसलिए भाषाओं पर उपस्थित संकट को जब एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने की बात कही जा रही है तो चुनौती सिर्फ विखंडनपरक संरक्षणवाद की तरफ से ही नहीं है, उच्छेदवादी औपनिवेशिक बौद्धिकता की तरफ से भी है।

जानेमाने भाषावैज्ञानिक देवीप्रसन्न पटनायक ने एक जगह लिखा है, ‘भारतीय समाज रिश्तों पर आधारित समाज है। यह पश्चिमी सभ्यता के दोहरे और अनुबंध- आधारित समाज से अलग है। भारतीय समाज विस्तारित परिवार, विस्तारित समाज तथा भाषा-संस्कृति को दर्शाता है।’ इसका सामान्य बोध न संरक्षणवादियों में है और न उच्छेदवादियों में। आम आदमी जरूर उपर्युक्त विस्तारित परिवार, समाज और संस्कृति के बारे में अपेक्षाकृत ज्यादा सोचता है।

हिंदी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भाषा है। महोपनिषद की यह उक्ति भारतीय संसद के प्रवेशद्वार पर हुई है- ‘अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम्/उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम।’ विडंबना यह है कि सांसदों के आचरण में ही यह सबसे ज्यादा अनुपस्थित है! आम लोगों के मन में भी ‘यह मेरा है और वह मेरा नहीं है’ की संकीर्ण भावना जातीय या धार्मिक रूप से मनोरुग्ण राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा की जा रही है।

भाषा इस तरह भी क्षीण और विलुप्त होती है

भारतीय भाषाएं, भले उनके स्रोत भिन्न हों, आज वस्तुतः एक महाजातीय परिवार है। इस भावना को जगाना जरूरी है। हम अंग्रेजी के प्रति भले लगातार उत्सुक रहते हों, आमतौर पर नहीं जानते कि पड़ोस की भाषा में कहाँ उदासी है, कौन-सी तकलीफ है और उसमें क्या लिखा जा रहा है। अपनी भाषा के भीतर ही अपने को सुरक्षित महसूस करना वस्तुतः अपनी संस्कृति को दुर्बल करना है।

यह भी चिंताजनक है कि हमारी भाषा में उन शब्दों का व्यवहार कम हो गया है जिनका संबंध प्रेम के रिश्तों से है और उन शब्दों का व्यवहार बढ़ गया है जिनका संबंध घृणा और हिंसा से है। कई महान शब्द अब महज उच्चारण हैं। दरअसल 2019 में कुपोषण की वजह से जिस तरह बच्चे पहले से अधिक दुर्बल हुए हैं (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार), भाषा भी इन वर्षों में स्वस्थ सांस्कृतिक पोषण के अभाव में अधिक दुर्बल हुई है- सतही हुई है। हमारा रोज व्यवहार में आनेवाला शब्द भंडार पहले से कम हो गया है। हमारा जीवन पहले की अपेक्षा थोड़े शब्दों और स्वकेंद्रित सोच में सीमित है। कहने का आशय है, भाषा इस तरह भी क्षीण और विलुप्त होती है।

भारत के हर हिंदीतर राज्य के लोगों में अपनी राष्ट्रीय भाषा से गहरा प्रेम है। उनमें अपनी भाषा के साहित्य से लगाव है और महान साहित्यकारों के प्रति आदर भाव है। हिंदीभाषी लोगों में हिंदी से वैसा प्रेम नहीं है और न हिंदी की साहित्यिक परंपराओं और महान साहित्यकारों के प्रति उत्सुकता है। दरअसल हिंदी एक गाय है, जिसका कुछ चालाक व्यक्तियों ने थनवाला पिछला हिस्सा चुन लिया हैदूहते रहो! जबकि अनगिनत साधनारत लोगों को मुंहवाला अगला हिस्सा मिला हैखिलाते रहो!

हिंदी को लेकर जिन्हें खूब गर्व है और जिन्हें बहुत शर्म है, दोनों तरह के लोगों में एक चीज समान है कि वे हिंदी की साहित्यिक परंपराओं से विच्छिन्न हैं। दोनों ही साहित्य से वस्तुतः दूर हैं। निःसंदेह भारत की अन्य राष्ट्रीय भाषाओं के लोगों की तुलना में हिंदीवालों में जातीय स्वाभिमान तथा साहित्यिक परंपराओं से सरोकार की कमी की कई वजहें हैं।

हिंदी समाज में बौद्धिक दरिद्रता की आठ वजहें

हिंदी समाज में सबसे अधिक बौद्धिक दरिद्रता ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों में है। आम तौर उसकी दुनिया डिग्री, नौकरी और गृहस्थी के त्रिभुज में सीमित है। हिंदी क्षेत्रों में सामान्यतः बौद्धिक दरिद्रता की कई वजहें हैं। पहली वजह, बांग्ला नवजागरण की तरह हिंदी नवजागरण व्यापकता से घटित नहीं हुआ। लंबे समय तक शिक्षा से व्यापक संपर्क नहीं था। आज भी व्यापक अशिक्षा है। दूसरी वजह, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की लूट-मार हिंदी क्षेत्र में ज्यादा होने की वजह से यहाँ आत्मसंकुचन, भेदभाव और कूपमंडूकता ज्यादा है। गांधी के बाद सांस्कृतिक सुधार का काम रुक गया। तीसरी वजह, उद्योगीकरण के मामले में हिंदी क्षेत्र आज भी काफी पीछे हैं। आर्थिक पिछड़ापन ज्यादा है। फिर भी टॉप पर है नौजवानों को लुभाने के लिए नोयडा में फिल्म मेगासिटी बनाने की योजना! चौथी वजह, सत्ता की राजनीति ने हिंदी क्षेत्र में धार्मिक और जातिवादी संकीर्णता खास तौर से ज्यादा फैलाई और भिन्नताओं को सींचा-हिंदी संसार को बांट दिया।

पांचवी वजह, हिंदी बुद्धिजीवी घरघुसरा ज्यादा रहे हैं। फेसबुक और ह्वाट्सऐप ने बचीखुची सामाजिक सक्रियता भी खत्म कर दी। इस क्षेत्र में खोखलापन और बड़बोलापन दोनों कहीं से भी ज्यादा है। छठी वजह, मुंबई के सस्ते मनोरंजन उद्योग ने हिंदी लोगों के दिलोदिमाग पर लंबे समय तक कब्जा कर लिया और उनका बौद्धिक स्तर उठने नहीं दिया। हिंदी भाषी  कलाकार जरा-सा गुणी हुए नहीं कि अपने प्रदेश में कला-संस्कृति-साहित्य के लोकप्रियकरण की जगह बंबई जाकर प्रोफेशनल हो गए और पैसा बटोरने में लग गए।

सातवीं वजह, श्रमजीवी आंदोलन पनपने के पहले ही अर्थवाद में फँस गया, बिखर गया और कई प्रतिद्वंद्वी गुट बन गए। फलतः संघर्ष के दौर में एक लड़ता है तो दूसरा दर्शक बना रहता है। आठवीं वजह, राजनीति का क्षेत्र हो या साहित्यिक बौद्धिकता का, परस्पर सम्मान और संवाद की जगह दूसरे का मूलोच्छेद की प्रवृत्ति प्रधान हो गई। त्याग की जगह भोग की प्रवृत्ति बढ़ गई।

हिंदी का बाजार में उपयोग बढ़ा है, समाज में आदर घटा है

वैश्वीकरण के युग में हिंदी का बाजार में उपयोग बढ़ा हो, समाज में आदर घटा है। समाज में अंग्रेजी का आदर बढ़ा है। हिंदी भाषा और साहित्य की परंपरा समृद्ध होते हुए भी आज नियमित रूप से किताबें और साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदकर पढ़नेवाले व्यक्ति 57-58 करोड़ हिंदी भाषियों के बीच में चार-पांच हजार से ज्यादा  नहीं होंगे।

हम भले चाहते हों कि हिंदी भाषियों का समाज उदार और मानवीय हो, वस्तुतः आक्रामक पृथकतावाद या उच्छेदवाद ही इस क्षेत्र में लोकप्रियता पाने का हथियार रहा है। कहा जा सकता है कि हिंदी क्षेत्र में सामंती तत्वों की शक्तिशाली मौजूदगी की वजह से हिंदी भाषा और समाज का पर्याप्त सांस्कृतिक-बौद्धिक विकास नहीं हुआ। जीवन में फैशन और दिखावा जितना बढ़ा हो, दृष्टि में आधुनिकता नहीं आई। ‘बाह्य आधुनिकता-आंतरिक कूपमंडूकता’ ही हिंदी क्षेत्र का प्रधान जीवन लक्षण है। कूपमंडूकता के धार्मिक-जातिवादी आयामों के साथ एलीट बौद्धिक उपनिवेशन वाला आयाम कम नुकसानदेह नहीं रहा है।

कहना न होगा कि देश के किसी भी प्रांत की आंतरिक शिथिलता और विभाजन से देश के विकास में रुकावट पैदा होगी। हिंदी क्षेत्र की आंतरिक शिथिलता और विभाजन से देश के विकास को सबसे ज्यादा क्षति पहुँचेगी।

जीवन पर संकट है इसलिए भाषाएं संकट में हैं

एक तरह से दुनिया की सभी राष्ट्रीय भाषाएं गंभीर खतरे से गुुजर रही हैं। खतरे में सिर्फ छोटी भाषाएं और बोलियां ही नहीं हैं। अंग्रेजी छोड़कर एक तरह से सभी भाषाओं को ही विरूपता और धीमी मौत के हवाले किया जा रहा है, राष्ट्रीय गर्जन जितना दिख रहा हो। अंग्रेजी भी सांस्कृतिक सतहीकरण से बाहर नहीं है। लेकिन अंग्रेजी का एक रुतबा है। आज बड़ी संख्या में लोग अपनी भाषा में बात करने में लज्जा का अनुभव करते हैं, इसे पिछड़ापन मानते हैं।

मांएं अपने बच्चों को मातृभाषा में बोलने से रोकती हैं। वे मानो चाहती हैं कि बच्चे चलना सीखने के पहले अंग्रेजी बोलना सीख लें।

हिंदी जानते हुए भी बड़े विद्वान इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजविज्ञान, प्रबंधन तथा ज्ञान-विज्ञान के अन्य विषयों की किताबें अपनी राष्ट्रीय भाषा में लिखना नहीं चाहते। वे सिर्फ अंग्रेजी में लिखते हैं। जिस राष्ट्रीय भाषा में इन विषयों की श्रेष्ठ किताबें न हों या इनकी मांग न हो, वह भाषा कितने दशकों तक बचेगी? इस रोशनी में अब ‘इन्डेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के दायरे को बढ़ाना होगा। उसे अंग्रेजी वर्चस्व और डिजिटल दुरुपयोग के बृहत्तर संदर्भ में देखना जरूरी है।

दरअसल दुनिया की तमाम राष्ट्रीय भाषाएं, जिनमें लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी और कई यूरोपीय भाषाएं और ढेर सारी एशियाई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक विध्वंस के संदर्भ में ‘इन्डेंजर्ड लैंग्वेजेज’ हैं।

भाषा पर खतरा सोच और संवेदना पर भी संकट पैदा करता है। इसलिए सोचने-समझनेवाले हर संवेदनशील नागरिक को भाषा में चल रहे विध्वंस को लेकर सतर्क होना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि भाषा के संकट का संबंध जीवन के संकट से है। जीवन पर संकट है, इसलिए भाषाएं संकट में हैं। दरअसल भाषाई विविधता की रक्षा अंतरसांस्कृतिक मनुष्यता को बचाने के प्रयत्न का ही हिस्सा है। यह भी समझना होगा कि भाषा सिर्फ भाषाविज्ञान का विषय नहीं है, यह एक-एक मनुष्य की जीवन रक्षा का विषय है।