एल. पिरानदेल्लो/ संदल भारद्वाज 

इतावली कहानीकार/ अनुवादक

 

उस साल एक बार फिर ज़ैतून की फ़सल की भरपूर पैदावार हुई। कुछ मोटे और बूढ़े पेड़ पिछले साल से लदे पड़े थे,बावजूद उस घने कोहरे के, जिसकी वजह से उनमें बौर आने में काफ़ी देर हुई थी। उन सबसे भी इस साल काफ़ी अच्छी पैदावार हुई।

ज़िराफ़ा का ले क्यूते आ प्रीमोसोले[1] वाले फ़ार्म में अच्छा व्यापार चला करता था। फ़सल का अनुमान लगाने पर उसने पाया कि तहखाने में पहले से रखे चीनी मिट्टी के पाँच चमकते मर्तबान भी ज़ैतून की नई पैदावार से मिले तेल को रखने के लिए पूरे नहीं पड़ेंगे। यह देखकर उसने समय से पहले ही सांतोंस्तेफनो दी कामास्त्रा[2] से, जहाँ मर्तबान बना करते थे, एक छठा और अधिक गहरा-चौड़ा मर्तबान लाने का हुक्म दे दिया: इतना बड़ा कि जैसे किसी मर्द का मोटा, चौड़ा और रोबदार सीना हो, मानो बाकी पाँच का लीडर वही हो। यहाँ यह बताने की कतई ज़रूरत नहीं कितेल के इस मर्तबान की ख़ातिर ज़िराफ़ा की वहाँ बर्तन-भांडे पॉलिश करने वाले तक से मुठभेड़ हो चुकी थी । आखिर ऐसा कौन था जिसका दौनलौल्लो ज़िराफ़ा से टकराव न हुआ हो! हर मामूली से मामूली बात के लिए, यहाँ तक कि बाड़े की दीवार से गिरे एक छोटे से कंकड़ या भूसे के एक तिनके के लिए भी वह मज़दूरों पर चीखता रहता था। मज़दूर बेचारों को अच्छी तरह पता था की ज़िराफ़ा के गुस्से की बिजली अब पूरे शहर पर गिरेगी, इसलिए वे डर के मारे खच्चर की जीन, उसके कहने से पहले ही कस देते थे, क्योंकि उनको पता था की ज़िराफ़ा अब पूरे शहर पर मुकदमा दायर करने के लिए, इधर-उधर खच्चर दौड़ाता,वकील के पास ज़रूर जाएगा। अपने गुस्से की वजह से, नोटरी से मिलने वाले दस्तावेज़ों और वकीलों की फीस चुकाते-चुकाते, कभी इसको और कभी उसको समन भेजते-भेजते, हर चीज़ का ख़र्च उठाते-उठाते दौनलौल्लो तक़रीबन आधा कंगाल हो चुका था।

कहा जाता था कि उसका कानूनी सलाहकार वकील भी उसे हफ़्ते में दो या तीन बार सामने देख-देखकर इतना ऊब चुका था कि उससे पीछा छुड़ाने की ख़ातिर उसने उसे, प्रार्थना की किताब जितनी छोटी,कानून की एक किताब भेंट कर दी थी, ताकि जो मुकदमे वह दायर करना चाहता था, उनके क़ानूनी पहलुओं के बारे में वह अपने हिसाब से खुद ही छानबीन कर ले।

शुरू-शुरू में, जिन लोगों से उसका झगड़ा होता था वे उस पर ताने कसा करते थे: ‘खच्चर की जीन तो कसो!’ फिर वही लोग चुटकी लेते हुए कहते: ‘ज़रा कानून की किताब ही देख ली जाए!’ तब दौनलौल्लो का जवाब होता ‘बेशक देखूंगा! तुम सब पर बिजली गिरे, कुत्ते के पिल्लों!’

वह सुंदर नया मर्तबान, जिसकी क़ीमत चार चमकते-खनकते ओंत्से[3] थी, तहखाने में जगह पाने तक के इंतज़ार में, कुछ वक़्त के लिए उसे वाइन कोल्हू[4] में रख दिया गया। ऐसा मर्तबान कभी किसी ने देखा तक नहीं था। उस गुफ़ा जैसी जगह में, फफूंद की बदबू के साथ, हवा-पानी के बिना बढ़ती जा रही तीखी और अजीब महक के साथ उस मर्तबान का रखा जाना बड़ा ही दुखद था।

दो दिनों से पेड़ों से ज़ैतून गिर रहे थे और दौनलौल्लो गुस्से के मारे आगबगूला हो रहा था क्योंकि फ़सल काटने वाले और खाद डालने वाले अपने-अपने खच्चरों के साथ आ पहुंचे थे। सेम की नई फ़सल के लिए नए मौसम में, ढलान पर खाद का ढेर डाला जाना था और दौनलौल्लो की समझ में नहीं आ रहा था कि किस काम को ज़्यादा अहमियत दे और ख़ुद को अलग-अलग कामों के बीच किस तरह से बाँटें।

अगर एक भी ज़ैतून गायब होता या अगर खाद के ढेरों की ऊँचाई एक बराबर न होती तो वह किसी तुर्क की तरह कसम खाते हुए,[5]कभी किसी को तो कभी किसी को जलाकर भस्म कर देने की धमकी देता, मानो उसने पेड़ों के सारे ज़ैतून पहले से ही एक-एक करके गिन रखे हों।

वह अपनी गंदी-संदी सफ़ेद टोपी के साथ, बाजू वाली कमीज़, नंगी छाती, गुस्से से तमतमाए लाल चेहरे और पूरे शरीर से बहते पसीने के साथ, अपनी भेड़िया-नुमा आँखों को घुमाते हुए, हजामत किए हुए गालों पर हाथ फेरते हुए, कभी यहाँ कभी वहाँ भागा-भागा फिर रहा था। उसकी सख्त दाढ़ी फ़िर से इतनी उग आई थी कि उस्तरे की धार के नीचे थोड़ी-थोड़ी आने लगी थी ।

तीसरे दिन आखिर में तीन किसान जो फ़सलों की कटाई में जुटे हुए थे, शराब की भट्टी वाले कोठर में सीढ़ियाँ और बल्लियाँ रखने आए और नए सुंदर मर्तबान पर नज़र पड़ते ही ठिठक गए। मर्तबान अब दो हिस्सों में ऐसे टूटा पड़ा था मानो किसी ने उसकी तोंद को पकड़कर, सामने की तरफ़ से बड़ी सफाई से उसके पूरे घेरे को काटकर अलग कर दिया हो।

‘देखो ! देखो!’

‘कौन हो सकता है भला?’

‘हे भगवान! अब किसको दौनलौल्लो की खरी-खोटी सुननी पड़ेगी? बिलकुल नया मर्तबान था; बड़े शर्म की बात है!’

पहला किसान जो सबसे ज़्यादा डरा हुआ था, उसने सुझाव दिया कि उनको सीढ़ियों और बल्लियों को दीवार से टिकाकर, जल्दी से दरवाज़ा बंद करके चुपके से बाहर निकल चलना चाहिए।

मगर दूसरा बोला, ‘तुम सब पागल हो क्या? यह सब, और वह भी दौनलौल्लोके साथ? उसे तो यही लगेगा कि इसे हमने तोड़ा है। सब यहीं रुको!’

वह कोल्हू से बाहर निकल आया और अपने दोनों हाथों को भोंपू बनाकर, उसने आवाज़ लगाई : ‘दौनलौल्लो! ओ, दौनलौल्लो!’

दौनलौल्लो तब पहाड़ी की ढलान के नीचे, खाद डालनेवालों के पास था। हमेशा अंगारे चबाने वाला शख्स, अब भी गुस्से में हाव-भाव दिखला रहा था और बीच-बीच में दोनों हाथों से, अपनी गंदी सफ़ेद टोपी खींच रहा था। फ़िर एक पल ऐसा आया कि उस तरह से खींचने की वजह से वह टोपी उसके गले व माथे के बीच उलझ गई और सर के ऊपर से उसका निकलना मुश्किल हो गया। अब तक आकाश में सूरज की आख़िरी किरणों की गर्मी नर्म पड़ चुकी थी और गाँव में सांझ समय, परछाइयों और मीठी ठंडक के बीच उतरती शांति के बीच भी उस शख्स के गुस्से का कहर दूसरों पर निकल रहा था।

दौनलौल्लो जब ऊपर आया और उसने मर्तबान से साथ हुई दुर्घटना देखी तो लगा मानो वह पागल हो गया हो। पहले-पहल तो उन तीनों के साथ ही उसने मुक्का-लातकर ली । एक को तो उसने गले से पकड़कर, चिल्लाते हुए दीवार से दे मारा: ‘माँ मरियम के खून की कसम, तुमको इसकी क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी!’ फिर बाकी दो का गिरेबान पकड़ते-पकड़ते, बेचैनी की हालत में काले और ख़राब चेहरों का सामना करते-करते, वह अपना गुस्सा ख़ुद पर ही निकालने लगा। उसने अपनी टोपी ज़मीन पर दे मारी और अपने ही गालों पर थप्पड़ जड़ने लगा। पैर ज़मीन पर पटकते हुए, दर्दभरी आवाज़ में वह यूं चीख़ने लगा जैसे कोई अपने मरे हुए रिश्तेदार के सोग में रोता है। ‘मेरा नया मर्तबान! मेरा चार ओंत्से का प्यारा मर्तबान! एक बार भी तो इसका इस्तेमाल नहीं हुआ था!’

वह बड़ी बेसब्री से जानना चाहता था कि मर्तबान किसने तोड़ा था। क्या यह मुमकिन था कि वह ख़ुद-ब-ख़ुद टूट जाए? किसी न किसी ने इसे तोड़ा तो होगा ही, मेरी बेइज्ज़ती करने के लिए या जलन के मारे। मगर कब? कैसे? तोड़फोड़ का तो कहीं नामों-निशान भी नहीं दिख रहा। यह कहीं कारखाने से ही तो टूटा हुआ नहीं आया था? मगर यह कैसे हो सकता है? ठोंकने पर इसकी आवाज़ उस वक़्त तो किसी घंटे की तरह तेज़ निकली थी।

किसानों ने जब देखा कि उसके गुस्से की गाज खुद उसी पर गिरी है तो वे उसे शांत होने के लिए समझाने लगे। मर्तबान को ठीक किया जा सकता है। वह इतनी बुरी तरह भी नहीं टूटा था। सिर्फ़ एक ही टुकड़ा टूट के अलग हुआ  था। मर्तबान ठीक करने वाला एक अच्छा कारीगर उसे फ़िर से ठीक करके, बिल्कुल नए जैसा बना देगा। एक ऐसा आदमी ज़रूर है, ज़ीदीमालिकासी, जिसने एक चमत्कारी गोंद का ईजाद किया है; उसे उसने जलन के मारे रहस्य बनाकर रखा है। एक ऐसा गोंद जिसकी जकड़ को हथौड़े से भी अलग नहीं किया जा सकता। अगर दौनलौल्लो चाहे तो कल तड़के सवेरे ज़ीदीमालिकासी वहाँ आ सकता है और मर्तबान मिनटों में पहले से भी मज़बूत हो जाएगा।

दौनलौल्लो उन उपदेशों पर नहीं भी नहीं कह पा रहा था। वैसे भी मना करना बेकार था क्योंकि इसके अलावा कोई चारा था भी नहीं। आखिरकार वह उनकी बातों से राज़ी हो गया। अगले दिन, सुबह तड़के-तड़के, ज़ीदीमालिकासी बिलकुल ठीक समय पर, अपनी पीठ पर औज़ारों का झोला लादे वहाँ हाज़िर हो गया।

वह एक बूढ़ा, भद्दा और कुबड़ा आदमी था जिसके पैरों के जोड़ सरासेन[6] ज़ैतून के किसी पुराने पेड़ के तने की तरह मुड़े हुए थे। लगता था उसके हलक से एक शब्द भी उगलवाने के लिए मछ्ली का कांटा डालने की ज़रूरत होगी। अक्खड़पन और दुख उसके कुबड़े और बे-ढब शरीर में रच-बस  चुके थे। या उसे शायद इस बात की झिझक रही हो कि कोई उसे सही मायने में एक योग्य आविष्कारक के रूप में नहीं समझेगा और सही ढंग से उसकी प्रशंसा नहीं करेगा। उस गोंद का अभी तक किसी ने पेटेंट भी नहीं कराया था।

वह चाहता था कि सब उसे अपने बारे में ठीक-ठीक बताएं। वह फ़िर उन्हें आगे से और पीछे से, ठीक ढंग से परखकर देखना चाहता था, ताकि कोई भी उससे उसका रहस्य न चुरा सके।

‘मुझे अपना गोंद दिखाओ।‘ यह पहला जुमला था जो दौनलौल्लो ने उससे, बड़ी देर तक एहतियात से उसकी थाह लेने के बाद कहा था।

ज़ीदीमा ने सर हिलाते हुए, बड़े फ़क्र से इनकार कर दिया।

‘काम के दौरान तुम लोग तो देखोगे ही।‘

‘मगर क्या यह काम ठीक सेहो सकेगा?’

ज़ीदीमा ने अपना औज़ारों का बोरा ज़मीन पर रख दिया और लाल रंग का सूती, अच्छी तरह से लिपटा हुआ एक उधड़ा रूमाल बाहर निकाला। उसने, उन सब लोगों के बीचों-बीच उसे धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। सब उसे बड़े ध्यान से और उत्सुकता से घूरे जा रहे थे। फिर अंत में बाहर निकला एक चश्मा। यह  बीच से जुड़ा हुआ तो था पर कनपटी वाली डंडी टूटी हुई थी और जैसे-तैसे, एक धागे के सहारे टिकाई गई थी। जब उसने गहरी सांस भरी तो सब ठहाके लगाने लगे। ज़ीदीमा ने उन पर ध्यान नहीं दिया; उसने चश्मे को पकड़ने से पहले अपनी उँगलियाँ साफ़ कीं और बाहर आकर, खलिहान के बाड़े[7] में रखे गए मर्तबान की गंभीरता से जाँच करने के लिए उस चश्मे को पहन लिया।

बोला : ‘ठीक हो जाएगा।’

‘सिर्फ़ गोंद से…लेकिन ?’ ज़िराफ़ा ने एक शर्त रखी, ‘मुझे यकीन नहीं इस बात पर। मुझे टाँके भी चाहिए।’

बिना कोई अगला शब्द कहे, ज़ीदीमा खड़ा हो गया। पीठ पर झोला टांगते हुए जवाब में बोला, ‘मैं चला।’

दौनलौल्लो ने तब उसे बाजू से धर दबोचा।

‘कहाँ चला तू? पहले मालिक और फिर सुअर की तरह[8]! तू मुझसे ऐसे पेश आएगा? देखो तो ज़रा, क्या तेवर हैं इस कार्लोमान्यो[9] के!’

‘गधे के पिंजर की तरह इस मर्तबान का भी कोई मोल नहीं। मुझे इसके अंदर तेल रखना है, तेल, और तेल इससे रिसने लगेगा। यह मील भर जितनी लंबी दरार, और वह भी सिर्फ़ गोंद से? मुझे टाँके भी चाहिए। गोंद और टाँके, दोनों। मेरा हुक्म है यह ।’

ज़ीदीमा ने आँखें बंद कर, होंठ भींचे हुए हामी भरते हुए सर हिलाया। उसका हाव-भाव कुछ इस तरह से था: उसे ऐसा साफ़-सुथरा काम करने से रोका जा रहा था जिसे बड़े ही ध्यान से, बिना किसी भूल-चूक के किया जाना था, और साथ ही उसे अपने गोंद की खूबी दिखाने से भी वंचित रखा जा रहा था।

‘और अगर मर्तबान’, वह बोला, ‘पहले की तरह घंटे जैसे आवाज़न निकले तो…’

‘मुझे कुछ नहीं सुनना’, दौनलौल्लो बीच में ही उसे टोककर बोला। ‘टाँके चाहिए, टाँके! मैं गोंद और टाँके, दोनों के दाम दूँगा। क्या कीमत देनी होगी तुझे?’

‘गोंद के साथ तो सिर्फ़ …’

‘क्या बकवास है!’ ज़िराफ़ा चिल्लाया। ‘क्या कहा मैंने? मैं बता चुका हूँ कि मुझे टाँके चाहिए, तो मतलब चाहिए। ऐसा करो, हम काम पूरा होने के बाद पैसे तय कर लेंगे । मेरे पास तेरे साथ बर्बाद करने के लिए फ़िज़ूल समय नहीं है।’ और फ़िर वह अपने आदमियों पर नज़र रखने के लिए चला गया।

इधर गुस्से और चिढ़ से भरा हुआ ज़ीदीमा भी काम पर लग गया। उसके अंदर यह गुस्सा और चिढ़ हर उस छेद के साथ पल-पल बढ़ रहे थे जिनको वह मर्तबान के किनारे-किनारे छेद करने वाली मशीन से बना रहा था: ऐसे छेद जिनमें से लोहे की तारों को टाँके लगाने के लिए गुज़ारा जाना था।

फ़िर वह छेद करने वाली ड्रिलमशीन के साथ, किसी गुर्राते हुए सुअर की तरह आवाज़ निकालकर, छेद करने लगा। कभी धीमे तो कभी तेज़। उसके सुर में सुर मिलाकर,जुगलबंदी करते हुए, वह छेद किए जा रहा था। पित्त की वजह से उसका चेहरा हरा पड़ता जा रहा था। जलन के मारे आँखें छोटी होती जा रहीं थी और जल रहीं थीं। जैसे ही काम का पहला पड़ाव पूरा हुआ, उसने ड्रिलवाली मशीन को एक तरफ़, अपनी टोकरी में दे फेंका और अलग हुए टुकड़े को मर्तबान पर रख कर आपस में मिलाकर देखने लगा कि सभी छेद बराबर दूरी पर और एक समान हैं कि नहीं। फ़िर उसने संड़सी से लोहे की तार के उतने टुकड़े किए जितने टाँके देने के लिए ज़रूरी थे और मदद के लिए खेत मजदूरों में से एक को बुलाया जो पास ही ज़ैतून बीन रहे थे।

‘हिम्मत करो, ज़ीदीमा।’ उसका पीला पड़ता चेहरा देखकर एक मज़दूर बोला।

ज़ीदीमा ने गुस्से में हाथ ऊपर उठाकर चुप रहने का इशारा किया। उसने अपना टिन का डब्बा खोला जिसमें वह गोंद था और उसे आसमान की तरफ़ ऊपर उठाकर हिलाने लगा, मानो वह उसे ईश्वर को अर्पित कर रहा हो, क्योंकि आदमज़ाद तो उसकी खूबी को स्वीकार करना ही नहीं चाहते थे। तब उसने अपनी उँगली से टूटे हुए टुकड़े के हाशिये पर हर तरफ़ और दरार पर भी अच्छी तरह से गोंद लगाना शुरू किया। संड़सी और लोहे के पहले से काटे गए टुकड़ों को उठाकर वह खुद ही मर्तबान के तोंद जैसे बड़े हिस्से के अंदर घुस गया और मज़दूरों को हुक्म दिया कि वे अलग हुए टुकड़े को मर्तबान के ऊपर ऐसे जमा कर बिठा दें जैसे उसने उन्हें थोड़ी देर पहले करके दिखाया था।

टाँके लगाने से पहले उसने मर्तबान के अंदर से ही मजदूरों से कहा, ‘खींचों इसे! सब मिलकर, अपनी पूरी ताक़त लगाकर खींचों! देखो, यह अब अलग हो रहा है क्या? बेड़ा गर्क हो उसका जिसको इस पर विश्वास नहीं है! चोट करके देखो। बजाकर देखो। टन-टन कर रहा है न? हाँ कि नहीं? घंटे की तरह यहाँ अंदर भी बज रहा है। जाओ! जल्दी जाओ और जाकर अपने मालिक को ज़रा बताओ तो सही।’

‘ज़ीदीमा, जो ऊपर होता है वही हुक्म देता है’, उस मज़दूर ने गहरी साँस भरते हुए कहा, ‘…और जो नीचे होता है, उसी का नुकसान होता है। लगा दे ज़ीदीमा, टाँके लगा दे।’ और ज़ीदीमा फ़िर लोहे की तार के टुकड़ों को, दोनों तरफ़ आमने-सामने के छेदों से आर-पार घुसाने में ऐसे जुट गया जैसे किसी कपड़े की सिलाई कर रहा हो । वह तार को एक तरफ़ से घुसाकर दूसरी तरफ़ से निकालता और संड़सी से दोनों सिरों को मरोड़ देता। सिर्फ़ टाँके का काम ख़त्म करने में उसे एक घंटा लग गया। उसका पसीना मर्तबान के अंदर ही, झरने की तरह गिर रहा था। काम करते-करते, वह अपनी किस्मत को भी कोसे जा रहा था। उधर बाहर से मदद करनेवाला मज़दूर उसे दिलासा दिए जा रहा था। ‘चलो, अब ज़रा बाहर आने में मेरी मदद करो’, ज़ीदीमा अंत में बोला। लेकिन मर्तबान की तोंद जितनी बड़ी थी, उतनी ही तंग उसकी गर्दन थी। ज़ीदीमा ने गुस्से में इसका ज़रा भी अनुमान नहीं लगाया था। हज़ार कोशिशों के बावजूद उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल पा रहा था और वह मज़दूर, जो वहाँ बाहर था, उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाने के बजाय, हँस-हँसकर लोटपोट होकर गिरे जा रहा था। जिस मर्तबान की मरम्मत उसने खुद की थी, अब वह उसकी कैद में ख़ुद… वहाँ से ज़ीदीमा के बाहर आने के लिए कोई बीच का रास्ता नहीं निकल रहा था। अब एक ही उपाय बचा था: यह  कि उस मर्तबान को फ़िर से तोड़ दिया जाए : हमेशा-हमेशा के लिए ।

हँसी-ठहाकों और शोर-शराबे की आवाज़ सुनकर दौनलौल्लो वहाँ आ पहुंचा। ज़ीदीमा वहाँ मर्तबान के अंदर, किसी खिसियानी बिल्ली की तरह बैठा हुआ था। ‘मुझे बाहर निकालो!’ वह चिल्लाए जा रहा था। ‘तुम्हें ऊपर वाले का वास्ता, मैं बाहर निकलना चाहता हूँ! अभी, इसी वक्त! मेरी मदद करो!’ दौनलौल्लो पहले-पहल तो भौंचक्का खड़ा रह गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह इस वाक़िये पर कैसे यकीन करे।

-‘मगर यह हुआ कैसे? वह वहाँ अंदर कैसे है? उसने खुद को ही वहाँ अंदर आखिर सिल कैसे लिया?’ ज़िराफ़ा मर्तबान के नज़दीक गया और उस बेचारे बूढ़े-कुबड़े पर चिल्लाने लगा: ‘मदद? मैं क्या मदद कर सकता हूँ तेरी? बेवकूफ़ बुड्ढे, आखिर कैसे? तुझे पहले ही नाप नहीं लेना चाहिए था क्या? चल, पहले एक बाजू से कोशिश कर…हाँ ऐसे ही! अब तेरा सर… जल्दी कर, नहीं, धीरे! नीचे… इंतजार कर! इस तरह नहीं! नीचे, और नहीं… लेकिन तुझसे यह हुआ कैसे? और अब मर्तबान? शांत हो जा! शांत हो जा!… तसल्ली रखो सब!’ वह वहाँ खड़े सभी लोगों को तसल्ली रखने की सलाह दे रहा था, मानो उसकी जगह, दूसरे ही अपना आपा खो रहे थे। ‘मेरा सर धधक रहा है! शांति रखो! यह बिलकुल नया मामला है… खच्चर लाओ!’ अपनी उँगलियों के जोड़ से वह मर्तबान पर खट-खट करने लगा। वह वाकई में घंटे की तरह आवाज़ कर रहा था। ‘बहुत ख़ूब! यह तो बिलकुल नए जैसा हो गया है…ख़ैर, इंतजार कर!’ उसने अंदर बंद उस कैदी से कहा। तब उसने एक मज़दूर को हुक्म दिया, ‘जाओ, मेरे लिए खच्चर की जीन कसो’, और अपनी सभी उँगलियों से माथा खुजाते हुए, खुद से कहने लगा, ‘देखो तो सही, मेरे साथ यह क्या हो गया! यह कोई मर्तबान नहीं है! यह तो शैतान को कैद करने वाला एक यंत्र है। रुक, वहीं रुक!’ फिर वह मर्तबान को पकड़ने के लिए उस पर झपटा जिसके अंदर ज़ीदीमा, पिंजरे में फंसे किसी गुस्सैल जानवर की तरह तड़प रहा था।

एक नया मुकदमा है, मेरे प्यारे दोस्त जिसे वकील ही सुलझाएगा। मैं तो खुद पर भी भरोसा नहीं करता। खच्चर लाओ, खच्चर। मैं अभी जाता हूं और लौटकर आता हूँ । धीरज रख। तू ख़ुद की खातिर… इस बीच में…आराम से शांति रख। मैं सबसे पहले खुद के बारे में सोच रहा हूँ और वह सब कर रहा हूँ जो मुझे अपने अधिकारों को बचाने के लिए करना चाहिए। यह ले, मैं तुझे तेरी कीमत अदा कर रहा हूँ, तुझे पूरे दिन की दिहाड़ी दिए देता हूँ।  पाँच लीरे,[10] तेरे लिए तो काफ़ी ही होंगे!

‘मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ ज़ीदीमा चिल्लाया। ‘मुझे बस यहाँ से बाहर निकलना है।’

‘तू ज़रूर निकल आएगा। लेकिन तब तक के लिए मैं तुझे इसकी कीमत दिए देता हूँ । ये रहे 5 लीरे।’

उसने अपनी वास्कट की जेब में हाथ डाला और मर्तबान के अंदर पाँच लीरे फेंक दिए। फ़िर उसने बड़ा ही चिंता-भाव दिखाते हुए पूछा: ‘तूने कुछ नाश्ता-वाश्ता भी किया है कि नहीं? ब्रेड[11] के साथ कुछ लाओ। जल्दी! क्या? तुझे कुछ नहीं चाहिए? ठीक है, कुत्तों के आगे डाल दो। मेरे लिए यही काफ़ी है कि मैंने तुझे यह दिया है ।’

जाते-जाते उसने किसानों हुक्म दिया कि ज़ीदीमा को वह खाना परोस दिया जाए; फ़िर उसने जीन कसी और शहर की ओर सरपट दौड़ पड़ा। जिस-जिसने उसे इस रूप में देखा, यही सोचा कि वह खुद को पागल खाने में भर्ती कराने जा रहा है: वह कुछ ज़्यादा ही अजीबो-गरीब तरीक़े से पेश आ रहा था।

किस्मत से वकील के वेटिंग रूम में उसे ज़्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा;  लेकिन जब उसने वकील को पूरा क़िस्सा तफ़सील से सुनाया तो उसे, उसकी हँसी के रुकने का इंतजार तो करना ही पड़ा। उसे वकील की हँसी पर बहुत ज़्यादा गुस्सा आ रहा था।

‘माफ कीजिए, पर इसमें हँसने की क्या बात है? आप का तो कुछ भी नहीं गया। मर्तबान तो मेरा है न।’

मगर वकील की हँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी और वह चाहता था कि ज़िराफ़ा पूरा किस्सा उसे दुबारा सुनाए — वैसे का वैसा जैसे हुआ था,ताकि वह और ज़्यादा  मज़े ले सके।

‘अंदर, ओह? तो उसने खुद को अंदर ही सिल लिया? पर दौनलौल्लो, वह चाहता क्या है? और तुम, ब…बंद…उसे अंजर ही बंद…  हा हा हा…ओहो-हो-हो, ओहो-हो-हो… तुम उसे अंदर ही बंद रखना चाहते हो ताकि मर्तबान को कोई नुकसान न पहुँचे?’

‘क्या मुझे अपना मर्तबान खोना पड़ेगा?’ ज़िराफ़ा ने मुट्ठी भींचते हुए पूछा।’ नुकसान तो मेरा ही होगा…. और साथ में बेइज़्ज़ती भी।’

आखिरकार वकील ने उससे पूछा, ‘तुम जानते भी हो कि इसे क्या कहा जाता है? अपहरण। इसको अपहरण कहा जाता है।’

‘अपहरण? पर उसका अपहरण किसने किया?’ ज़िराफ़ा चिल्लाया, ‘उसने खुद का अपहरण किया है। इसमें मेरा क्या दोष है?’

तब उसे वकील ने समझाया कि इस मामले की दो सूरतें हैं: एक तरफ़ तो यह कि दौनलौल्लो को उस कैदी को फ़ौरन रिहा करना होगा — अगर उसे अपहरण का इल्ज़ाम मोल नहीं लेना है तो। दूसरी तरफ, मर्तबान मरम्मत करने वाले को भी उस नुकसान का मुआवजा देना होगा क्योंकि या तो उसके हुनर में कोई कमी थी या फ़िर यह सब उसकी लापरवाही के कारण हुआ।

‘आह!’ ज़िराफ़ा ने अब जाकर राहत की साँस ली।’ तब तो उसे मेरे मर्तबान की भरपाई करनी होगी।’

‘धीरे!’  वकील ने उसे हिदायत दी। ‘ऐसा समझो कि मर्तबान नया था ही नहीं।’

‘वह क्यों? किसलिए?’

‘क्योंकि वह टूटा हुआ था, और यह बात पक्की है।’

‘टूटा हुआ? अरे नहीं, साहब। अब तो वह बिलकुल ठीक हो चुका है। बल्कि ठीक से भी बेहतर।’ ऐसा उसने खुद कहा। ‘अब अगर मैं वापस जा कर उसे तोड़ देता हूँ तो वह दोबारा कभी ठीक नहीं हो सकेगा। इसका मतलब होगा कि मैं मर्तबान हार चुका हूँ!’

वकील ने उसे भरोसा दिलाया कि उसके ज़हन में यह बात है कि उसे कम से कम उतना मुआवजा तो मिल ही जाए जितना उस दशा की कीमत है जिसमें वह फिलहाल फँसा हुआ है।

उसने उसे सलाह दी, ‘ऐसा करो कि उसे ही खुद कीमत का अनुमान लगाने दो।’

‘मन कर रहा है आपके हाथ चूम लूँ’, दौनलौल्लो ने लौटते समय जल्दबाज़ी में कहा।

शाम को जब वह घर लौटा तो उसने सभी किसान व मजदूरों को कब्ज़ा किए गए मर्तबान के इर्द-गिर्द जश्न मनाते हुए पाया। यहाँ तक कि चौकीदारी करने वाला कुत्ता भी इस दावत में शामिल था और कूद-फाँद करता हुआ भौंके जा रहा था। ज़ीदीमा अब शांत हो चुका था। इतना ही नहीं, वह खुद भी इस अजीब से कार्यक्रम के मज़े उठा रहा था और दुखीयारों की इस कष्ट भरी मौज-मस्ती पर उनके संग ठहाके लगा रहा था।

ज़िराफ़ा ने सबको धक्का देकर हटाया और मर्तबान के अंदर झांकने के लिए आगे की तरफ़ झुका।

‘आह! अंदर तू ठीक से तो है न?’

‘बहुत मज़े में हूँ यहाँ, ताज़ी-ताज़ी हवा में। अपने घर से भी बेहतर हालत में हूँ’, ज़ीदीमा ने जवाब दिया।

‘सुनकर अच्छा लगा। तब तक मैं तेरी जानकारी के लिए तुझे बताए देता हूँ कि यह मर्तबान मुझे चार नए औन्त्सेका पड़ा है। तेरे हिसाब से अब इसकी क्या कीमत होनी चाहिए?’

‘मुझे यहाँ अंदर मिला कर?’ ज़ीदीमा ने पूछा तो सारे जने जोर-जोर से हँसने लगे ।

‘खामोश!’ ज़िराफ़ा चिल्लाया’, दो में से कोई एक बात तो ज़रूर है:  या तो तुम्हारा गोंद किसी और चीज़ के लिए अच्छा है या फ़िर किसी काम का नहीं। अब अगर वह किसी काम का नहीं, तो मतलब कि तुम एक धोखेबाज हो। लेकिन अगर वह किसी दूसरी चीज़ के लिए अच्छा है तो इस मर्तबान की कीमत वही होनी चाहिए जैसे वह इस सूरते हाल  में है। तो क्या कीमत होगी इसकी? तू ज़रा अंदाज़ा तो लगा।’

ज़ीदीमा इस पर सोचने के लिए ज़रा रुका और फ़िर बोला, ‘मैं तुम्हें इसका जवाब अभी दिए देता हूँ। अगर तुमने मुझे सिर्फ़ गोंद का काम करने दिया होता, जैसा कि मैं शुरू से ही चाहता था तो मैं इस मर्तबान के भीतर भी नहीं फँसता और ऊपर से नीचे तक मर्तबान की भी वही कीमत होती जो शुरू में थी । इन भद्दे टाँकों के साथ मरम्मत करने की वजह से, जिसके लिए तुमने मुझे अंदर जाने को मजबूर किया, तो तुम्हें क्या लगता है, अब इसकी क्या कीमत होनी चाहिए? मैं बताता हूँ —जितनी इसकी कीमत थी उसकी एक तिहाई। हाँ  कि नहीं?’

‘एक तिहाई?’ ज़िराफ़ा ने हैरानी से पूछा’, एक औंत्ज़ा और तीस सेंट?’

‘कीमत इससे कम तो हो सकती है पर ज़्यादा  नहीं।‘ ज़ीदीमा ज़ोर देते हुए बोला ।

‘तो फिर ठीक है’. दौनलौल्लो बोला। ‘अपनी बात का मान रखते हुए, उस पर कायम रह और मुझे देने के लिए एक औंत्ज़ा और तीस सेंट निकाल ।’

‘क्या?’ ज़ीदीमा हैरान होते हुए बोला मानो उसे कुछ समझ ही नहीं आया।

‘मैं तुझे बाहर निकालने के लिए यह मर्तबान तोड़ देता हूँ’, दौनलौल्लो ने जवाब दिया। ‘मेरे वकील का कहना है कि तूने जितना भी अनुमान लगाया हो उतना तू मुझे दे दे: एक औंत्ज़ा और तीस सेंट!’

‘मैं, और तुम्हें कीमत चुकाऊँ?’ ज़ीदीमा ने नाक चढ़ाकर कहा, ‘तुम मजाक कर रहे हो? इससे बेहतर है कि मैं यहाँ कीड़े में ही तबदील हो जाता हूँ[12]।’ और उसने बड़ी मुश्किल से अपनी जेब से तंबाकू में सना पाइप निकाला, उसे सुलगाया और मर्तबान के मुहँ से धुआँ निकालते हुए पाइप फूंकना शुरू कर दिया।

दौनलौल्लो यह सुनकर बड़ी ही खराब मनोदशा के साथ खड़ा रह गया। न तो उसने ख़ुद और न ही उसके वकील ने इस बिलकुल अलग किस्म की स्थिति के बारे मेंज़रा भीअंदाजा लगाया था— कि अब ज़ीदीमा खुद ही मर्तबान के बाहर निकलना नहीं चाहता था। तो अब किस तरह से इस मामले को सुलझाया जाए? दोबारा वह ‘खच्चर’  कहकर उसे लाए जाने के लिए आवाज देने ही वाला था कि उसे ध्यान आया कि अब तो शाम ढल चुकी थी।

उसने कहा, ‘सच में! तू मेरे मर्तबान में डेरा जमाना चाहता है? सारे गवाह इधर आएँ! देखो सब, यह ख़ुद बाहर नहीं निकलना चाहता ताकि इसे कोई मुआवज़ा न देना पड़े। मैं तो मर्तबान तोड़ने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ। पर चूँकि यह ख़ुद इसके अंदर रहना चाहता है, तो मैं कल इस पर गैरकानूनी कब्ज़े करने का दावा करूँगा और इसलिए भी कि यह मुझे मर्तबान का इस्तेमाल करने से रोक रहा है।’

ज़ीदीमा ने पहले तो अपने मुँह में भरा हुआ धुआँ बाहर निकाला और फिर  बड़ी शांति से उसका जवाब दिया: ‘नहीं साहब! मैं आपको कोई भी काम करने से नहीं रोकना चाहता। आपको क्या लगता है: कि मैं यहाँ इसलिए रह रहा हूँ कि मुझे यह पसंद है? अगर आप मुझे जाने दें तो मैं खुशी-खुशी यहाँ से चला जाऊँगा। कीमत चुकाने की बात तो… मजाक में भी न कीजिए, साहब!’

दौनलौल्लो ने गुस्से के आवेग में मर्तबान पर लात मारने के लिए अपना पैर उठाया ही था पर ख़ुद को किसी तरह रोक लिया। उल्टे उसने मर्तबान को दोनों हाथों से जकड़ लिया और ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा।

‘मेरी गोंद का कमाल देखा?’ ज़ीदीमा उससे बोला।

‘कैदी कहीं का!’ ज़िराफ़ा दहाड़ा, ‘किसकी गलती है, मेरी या तेरी? और भुगतान मुझे करना पड़ेगा? मर तू यहीं,भूखे पेट! देखते हैं किसकी जीत होती है!’ यह कहकर वह वहाँ से चला गया — बिना उन पाँच लीरों पर ध्यान दिए जो उसने सुबह मर्तबान के अंदर फेंके थे। इन पैसों के साथ ज़ीदीमा ने शाम को उन किसान और मजदूरों के साथ जश्न मनाने के बारे में सोचा जो इस अजीब से वाक़िये की वजह से वहाँ अटक गए थे और उनको खुले बाड़े में पूरी रात गुजारने के लिए गाँव में रुकना पड़ रहा था। उनमें से एक किसान, पास के एक शराबघर से कुछ खरीदने भी चला गया था। उस रात गोया किसी इरादे से चाँद भी ऐसे चमक रहा था जैसे दिन की रोशनी हो।

जिस घड़ी दौनलौल्लो सो रहा था, जश्न के उस उत्पाती शोरगुल की वजह से उसकी आँख खुल गई और वह उठ बैठा। उसने खलियान वाले घर की बालकनी से बाहर झाँका और देखा कि चाँद की रोशनी में, बाड़े में बहुत सारे शैतान, नशे में धुत किसान, हाथ में हाथ डाले मर्तबान के इर्द-गिर्द नाच रहे थे। ज़ीदीमा भी वहाँ, मर्तबान के अंदर,गला फाड़-फाड़ के सबसे ऊँचा सुर निकाल रहा था। इस बार तो हद ही हो गई! ज़िराफ़ा यह सब और नहीं सह सका। किसी गुस्सैल साँड की भांति वह नीचे आया और इससे पहले कि किसान कुछ कह पाते, उसने ज़ोरदार लात मर्तबान पर दे मारी और इस एक धक्के से मर्तबान ढलान पर लुढ़कने लगा। पियक्कड़ों के ठहाकों के बीच मर्तबान लुढ़कते-लुढ़कते ज़ैतून के एक पेड़ से जा टकराया और टुकड़े-टुकड़े हो गया। गोया कि इस तरह सेज़ीदीमा की जीत हुई।

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[1]प्रीमोसोले:–सिसली के पूर्वी तट के नज़दीक,कतानिया शहर के दक्षिण में स्थित एक शहर ।

[2]सांतोंस्तेफनोदीकामास्त्रा:सिसली के उत्तरी तट पर मेस्सीना प्रांत में एक शहर,जिसे सिसली में आज भी चीनी मिट्टी के बर्तनों की राजधानी के तौर पर जाना जाता है।

[3]ओंत्से: सिसली की पुरानी मुद्रा।

[4]वाइन कोल्हू : वह जगह जहाँ अंगूरों को चापने और फफूंद से ख़मीर उठाने के लिए टैंक बना होता है ।

[5]इतालवी कहावत : “किसी तुर्क की तरह कसम खाना।”

[6]सरासेन: ज़ैतून का पेड़ जो अरबवासीइटलीमें ले आए थे ।

[7]दृश्य में बदलाव दर्शाने के लिए मर्तबान को कोल्हू से बाहर निकालकर खुले बाड़े में रखा गया क्योंकि ज़ीदीमा को दिन की रोशनी में मरम्मत का काम करना था  ।

[8]दौनलौल्लो, ज़ीदीमा को ढोंग करने का दोष दे रहा था कि, पहले वह उसके साथ सज्जन जैसा व्यवहार कर रहा था और बाद में उसकी कद्र नहीं कर रहा था।

[9]कार्लोमान्यो:आठवीं सदी का एक रोमन राजा।

[10]लीरा:यूरोपीय संघ में शामिल होने से पहले इटली की मुद्रा लीरा थी ।

[11]ब्रेड:यूरोप व विश्व के अनेक देशों में खाया जाने वाला मुख्य भोजन। इसे सब्जियों के साथ खाया जाता है जैसे भारत में रोटी ।

[12]ज़ीदीमा कहना चाहता है कि भले ही वह वहाँ अंदर मर के सड़ जाएगा और कीड़े में बदल जाएगा मगर मुआवज़ा नहीं देगा ।

 

एल. पिरानदेल्लो बीसवीं सदी के विश्व के सबसे प्रसिद्ध उपन्यास कारों, नाटक कारों और लघु कहानी लेखकों में से एक । सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ एनऑथर उनका अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाटक। 1934 में पिरानदेल्लो को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ।

अनुवादक :
असिस्टेंट प्रोफेसर (इतालवी) डिपार्टमेंट ऑफ़ हिस्पैनिक एण्ड इटालियन स्टडीज़ इंग्लिश एण्ड फॉरेन लैंग्वेजेज़ यूनिवर्सिटी, हैदराबाद – 500007

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