वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
ॠतु को वह एडमिट कार्ड उस भूतिया गुफ़ा का प्रवेश पत्र लग रहा था, जिसमें घटाघोप अंधकार छाया था, और बचपन में सुनी दादी-नानी की कहानियों के भयंकर किरदार उसमें छुट्टे घूम रहे थे।
इधर से उधर सिर टकराने के बाद उसे अपने तारनहार की याद आई। वे भले आदमी तो उसे दिलो-जान से चाहते थे, यह तो वही थी जो उन्हें पत्ता नहीं देती थी। हर वक़्त चहकने वाली ॠतु उस दिन सुबह सकारे मुंह उतारे पतिदेव के पास जाकर पत्थर-सी खड़ी हो गई, उसके हाथ में एम.ए. का वही एडमिट कार्ड था, जो उसे अपनी मौत का परवाना लग रहा था। चार-पाँच दशकों से पत्नी जी की प्रत्येक भंगिमा को समझते संवेदनशील सहृदय पतिदेव उसके उस चेहरे को जो अब रोया तब रोया हो रहा था, देखते ही समझ गए कि ॠतु जी किसी बड़े फंसाव में फँस गई हैं। उन्होंने छोटे सिर चढ़े बच्चे की तरह उससे बिना कुछ पूछे ही कहा : ‘‘ॠतु इस धरती पर ऐसी कोई रात नहीं आई जिसकी सुबह न हो। तुम बेफ़िक्र होकर मुझे बताओ कि हुआ क्या है? क्या घर में तुम्हें कोई कुछ बोला है? या तुम्हारे मायके में कोई अनहोनी घट गई है जो तुम इस तरह संज्ञाहीन हो रही हो।’’ पतिदेव के इन आश्वासनों से ॠतु का ज़ब्त किया हुआ आँसुओं का बाँध टूट गया और उस ॠतु ने जो कभी नहीं रोती थी, फूट-फूट कर रोते हुए अपना एडमिट कार्ड पतिदेव की गोद में रख दिया। दुनियाँ देखे हुए समझदार पतिदेव कार्ड की तारीख देखते ही सारा माजरा समझ गए, उन्होंने ॠतु को अपने से चिपका कर, जैसे एक माँ, रोते बच्चे की आँखें पोंछती है, चेहरे पर आँसुओं से भीज कर चिपके बालों को चेहरे पर से हटाकर उसे एक गिलास पानी पिलाकर कहा- ‘देखो ॠतु, मैं तुम्हें अक्सर हरियाणा की शेरनी कहकर पुकारता हूँ न? तुम सच मानों यह एकदम सही है। बस कभी कभार चीजों को साफ़ और स्थिर आँखों से न देखने के कारण तुम बेइन्तिहा नर्वस हो जाती हो।’’
‘‘आप फ़ालतू बात मत करिए। आपको तो पता नहीं है न कि एम. ए. के सोलह पर्चों में सैंकड़ों किताबें हैं और दुनियाँ भर की संदर्भी पुस्तकें भी, इन्हें मैं एक महीने अट्ठारह दिनों में क्या, सात जन्मों में भी पूरी पढ़ कर नहीं समझ सकती।’’ यह कहते-कहते ॠतु फिर से फूट-फूट कर रो पड़ी।
इन बातों से उसे राहत या दिलासा नहीं बल्कि यह बोध अधिक होता था कि ‘देखो, लोगों को तुमसे कितनी प्रत्याशा है’, और इससे उसके मन का बोझ हल्का होने की जगह बढ़ जाता था।
पतिदेव में केदारनाथ जी जैसा ही धैर्य और समझ है, यह बात ॠतु कभी-कभार कहती भी थी। पतिदेव ने ॠतु को रोने से टोका नहीं क्योंकि वे श्रीकृष्ण की व्यावहारिकता और बुद्धि के कायल थे। कहते हैं कि जब अपने भाई की मृत्यु पर सत्यभामा जी ढाँय-ढाँय कर रो रही थी तो उन्हें गीता-दर्शन न समझा कर, श्रीकृष्ण उनके पास बैठकर सत्यभामा को सांत्वना देते हुए स्वयं भी ज़ोरों से रोने लगे, क्योंकि पतिधर्म का यही तकाज़ा था। पतिदेव उसके साथ रोए तो नहीं, पर पूर्ण समर्पण से उसके दु:ख की गरिमा रखते हुए एकदम चुप रहे और उसे सहलाते रहे। थोड़ी देर बाद जब वह चुप हो गई तो उन्होंने एकदम शांति से उसे यूँ समझाना शुरू किया: ‘ॠतु, देखो अभी तो यह कागज़ का टुकड़ा ही आया है। तुम चाहो तो मैं इसे अभी ही बेकार का काग़ज़ समझ कर फेंक सकता हूँ और यदि तुम्हें ऐसा करना अच्छा न लगे तो हमलोग इस पर चर्चा कर इस स्थिति का हल ढूँढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। तो क्या जँचती है तुम्हारे?’’ रुंधे कंठ स्वर से ॠतु जी की आवाज़ आई, ‘’मेरी समझ से तो यदि आप चाहें तो कोई ना कोई हल तो ढूंढ ही लेंगे ..।’’
थोड़ा विचार करने के बाद पतिदेव बोले ‘‘हमें तुरंत विष्णुकांत जी शास्त्री से मिल कर अपनी भूमिका तय करनी चाहिए क्योंकि जब उन्होंने तुम्हारा एडमिट कार्ड पास किया है तो उन्हें सारी विगत तो पता ही है। ॠतु, ऐसे भी शास्त्री जी कई दशकों से हमारे कुल गुरु सरीखे हैं, पहले मैं उनसे फोन पर समय माँग लेता हूँ, फिर अपने चल पड़ेंगे, अपने घर से पाँच मिनट का रास्ता ही तो है।’’
विष्णुकांत के नाम ने ॠतु के चिंता से जलते हुए तन-मन को ठंडी ब़र्फ-सी शीतलता प्रदान कर दी। हालाँकि अभी उनसे बात तक नहीं हुई थी, और संभावना इस बात की भी थी कि ‘सर’ (शास्त्री जी) से ॠतु को ज़ोरों की डाँट पड़ती। होने को तो अभी सब कुछ भविष्य के गर्भ में छिपा था, पर कभी किसी का नाम चिंतामणि की तरह आपको सब रोगों की दवा लगता है। ‘सर’ के नाम का प्रताप ही ऐसा था कि हमलोगों को ऊपर से नीचे तक हरिया देता था।
जब ॠतु और उसके पति श्रीमान विष्णुकांत जी के यहाँ पहुँचे तो सर, पूजा करके ठाकुर बाड़ी से बाहर आ रहे थे। उनका लम्बा कद, छरहरा शरीर और धोती कुर्त्ते का परिधान उन्हें एक विशेष गरिमा प्रदान कर रहा था।
जब ॠतु ने उन्हें प्रणाम किया तो उसे यशस्वी भवः का आशीर्वाद देने के बाद वे बोले ‘हमारे यहाँ लड़कियां पैर नहीं छूतीं, यह बात सुन कर भी अनसुनी करती रहती हो।’ ‘हाँ सर, और ताजन्म मैं ऐसा ही करूँगी’, कहकर ॠतु ने अपनी बालसुलभ हँसी वहाँ बिखेर दी। उत्तर में ‘सर’ ने अपना जगत प्रसिद्ध ठहाका यह कहते हुए लगाया कि ‘भई हम बच्चों का विरोध तो करते ही नहीं, क्योंकि हमने देखा है विरोध का स्वर प्रतिध्वनित होकर द्विगुणित हो जाता है।’
‘ॠतु, तुम तो ऐसे कर रही हो मानों तुमने परीक्षा पास कर ली है। अरे पगली, अभी तो हमने पहली सीढ़ी पर पैर रखा है। जिस पर चढ़ कर और मंजिल पार करने में जो काल चक्र निहित है अब केवल तुम उसको अपनी मेहनत से अपने अनुकूल कर सकती हो और ॠतु तुम एकबार ठान लोगी तो ज़रूर ही सफल होवोगी ऐसा मेरा पक्का विश्वास है।’
हास-परिहास के इन नोट्स के बाद ‘सर’ ने गंभीरता से कहा ‘हाँ तो, बेटा कहो तुम्हारी क्या समस्या है।’
जब उन्हें एम.ए.की परीक्षा की बात कही तो सर बोले ‘बेटा इमसें क्या बड़ी बात है। मुझे स्मरण है, तुमने दस-पन्द्रह वर्ष पहले कुँवरनारायण जी पर एक आलेख लिखा था ‘‘आत्मजयी से साक्षात्कार’’ जिसे पढ़कर कुँवरनारायण जी सरीखे मितभाषी और गहन-गंभीर व्यक्तित्व के धनी कुँवरनारायण जी बहुत ख़ुश हुए थे और बाद में वह आलेख किसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में छपा था। वैसे भी ॠतु तुमने ढेरों ढेर साहित्यिक कार्यक्रम कर कलकत्ते के साहित्यिक समाज को गुँजा दिया है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लेखक अज्ञेय जी, महादेवी वर्मा, भवानीप्रसाद मिश्र आदि सबसे ही तुमने प्रशंसा बटोरी है और बेटा ये सहज ही किसी के प्रशंसक नहीं होते। बेटा, तुमनें हिन्दी साहित्य को वर्षों से साधा है इसलिए बिल्कुल मत घरबराओ और न ही कोई चिन्ता करो। तुम चाह कर भी फेल नहीं हो सकती।’’ कह कर सर ने ॠतु के पतिदेव की ओर देखकर कहा, ‘मैंने सही कहा है न बेटा!’ ॠतु के पतिदेव ने मुस्कुरा कर हामी भर दी और सर ने बच्चों को फुसलाने की भंगिमा में कहा, ‘देख लो बेटा, अब तो ये भी मुझसे सहमत हैं।’
ॠतु ने पहले तो अपने पतिदेव को घूर कर देखा और फिर बोली, ‘सर, आपने जो कहा वह सच सही, पर सर, ये सारे उदाहरण एम.ए.के कोर्स के बाहर के हैं। मेरी समस्या एम.ए. के उन सोलह पर्चों की है, जो प्रथमतः तो बी.ए. ऑनर्स की पढ़ाई से एकदम अलग हैं। और सर, सच मानिए, यह ‘काव्य शास्त्र’ और ‘भाषा विज्ञान’ तो मेरे सिर पर से बिना कोई हरक़त किए ही गुज़र जाते हैं।’ इतना कह कर ॠतु ने अपने बचपन के परिचय का लाभ लेते हुए कहा ‘सर, आप वीणा को तो पढ़ाते थे, सर, मुझे भी पढ़ा दीजिए ना?’
‘सर’ की गंभीरता और सच्चाई ठहरी बेजोड़। उन्होंने कहा, ‘बेटा, यह सही है पर मेरी नानी जी ने अपनी मृत्यु से पहले मुझसे वचन लिया था कि मैं भविष्य में ट्यूशन नहीं करूँगा। इसलिए बेटा, मैं घर आकर नहीं पढ़ा पाऊँगा पर ‘गंगा भवन’ (सर का घर) सर्वदा तुम्हारे स्वागत के लिए प्रस्तुत रहेगा, तुम अहर्निश कभी भी यहाँ आ सकती हो।’
‘सर उसके लिए तो मैं मात्र आश्वासित ही नहीं हूँ बल्कि मेरा पक्का विश्वास है कि आपके यहाँ का हर व्यक्ति मेरा तहेदिल से स्वागत करेगा, पर सर…सर… ख़ैर और उपाय भी क्या है।’
विष्णुकांत जी सर के यहाँ से उठकर पतिदेव ने ॠतु से पूछा ‘अब कहाँ चलना है?’ ॠतु ने फ़ौरन जवाब दिया ‘अब आप किसी तरह काव्य-शास्त्र के प्रो.डॉ.झा को पटा दीजिए और हाँ! भाषा-विज्ञान के श्रीवास्तव जी से भी तो आपको ही बातें करनी हैं। ये दोनों ही धीर गंभीर और सदियों में न हँसनेवाले शिक्षक हैं। बस आप इन दोनों से बात कर दीजिए तो सोचूँगी आपने मेरा कल्याण कर दिया।’ मुस्कुराते हुए ॠतु ने कहा। दरअस्ल शास्त्री जी की अनुमति से ॠतु पाँच-छः दिन से एम. ए. की कक्षाओं में बैठ रही थी इसलिए सबके बारे में जान गई थी। वैसे उसका ज्यादा ध्यान भाषा-विज्ञान और काव्य शास्त्र पर था।
आश्चर्यजनक ढंग से डॉ.झा उनसे अत्यन्त प्रेम और आत्मीयता से मिले। शायद श्री आर.एन.मिश्रा ने उनसे ॠतु के पतिदेव और उनके परिवार के सौहार्द एवं सुसंस्कृत होने का गुणगान किया था। इसलिए ॠतु ने डॉ.झा को प्रणाम करते ही उनसे कहा, ‘सर, आपको मुझे पढ़ाना ही पड़ेगा, नहीं तो मैं डूब जाऊँगी’ … और इसके बाद तो उसने जो प्लीज़ सर, प्लीज़ सर… की म्हारनी लगाई कि वे बेचारे उस आग्रह के समुद्र में डूबने -उतरने लगे। जैसे गहरे पानी में डूबता आदमी साँस लेने पानी से बाहर सिर निकाल कर लम्बी साँस लेता है, वैसे ही ॠतु को रोक कर कहा, ‘अरे, आप क्यों डर रही हैं, सच मानिए ॠतु जी, जब आप क्लास में प्रथम पंक्ति में बैठी रहती हैं तो मुझे लगता है कि यही छात्रा ऐसी है जो अपनी सारी ज्ञानेन्द्रियों से अत्यन्त सतर्कता और श्रद्धा से मेरे कहे एक-एक शब्द को पी रही है। आप नई तरह का कोर्स देख कर घबड़ा गई हैं, मेरा आपसे वादा है कि यदि आप आधी रात को भी मुझसे कुछ पूछना चाहेंगी तो मैं आपको उपलब्ध रहूँगा। वैसे भी आप बेफ़िक्र रहिए, मैं गारन्टी लेता हूँ कि आप फर्स्ट क्लास नम्बरों से पास होंगी। ‘ऑफ्टर ऑल’ मेरा भी तो चालीस सालों का अनुभव है।’ होना तो यह चाहिए था कि इतने सारे आश्वासनों से ॠतु को शांति मिल जाती पर हुआ इसका उल्टा। उसकी नर्वसनेस बढ़ी जा रही थी उसे लग रहा था कि उसकी डूबती नौका से पुकार के लिए निकले उसके हाथ को पकड़ने वाला कोई नहीं है। ख़ैर संस्कृत कॉलेज से उठकर वे लोग विश्वविद्यालय में आए और उन्होंने भाषा विज्ञान के अद्भुत लेक्चरर श्रीवास्तव जी के सामने जाकर गुहार लगाई। आश्चर्यजनक ढंग से उन सरीखे गंभीर व्यक्ति ने बहुत ही आत्मीयता और प्रेम से उनलोगों का गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्होंने बातचीत के बीच में बताया कि विश्वविद्यालय के सबसे पुराने प्राध्यापक हैं।’
पता नहीं कैसे डॉ.झा की गहन विश्वास से कही हुई उक्तिओं का ॠतु पर इतना गहरा असर हुआ कि उसे लगने लगा शायद वह फेल तो नहीं होगी। इस विश्वास का एक कारण और भी था। जब वे डॉ. झा से बात कर सीढ़ियां उतर रहे थे तो उन्हें रास्ते में नीरस भाषा-विज्ञान पढ़ाने के ‘नम्बर वन’ प्रोफेसर श्रीवास्तव जी उन्हें रास्ते में मिल गए थे। ॠतु उनके पढ़ाने की कायल थी और मन ही मन मना रही थी कि पूछने पर वे हाँ कह दें- विस्मयकारी है यह तथ्य कि ॠतु की आशा के विपरीत उन्होंने न केलव ‘हाँ’ भर दी बल्कि यहाँ तक कह दिया, ‘मुझे मिश्रा जी के आदेश मिल चुके हैं। मैं तो आपके घर के पास ही रहता हूँ, मैं पढ़ाने आ जाया करूँगा।’ ॠतु ने हथेली के पीछे चिकोटी काट कर देखा कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रही है। इन प्रोफेसर साहब के ऐसी बातों से ॠतु का मन हरिण की तरह कुलाँचे भरने लगा। कुछ देर पहले तो ॠतु को लग रहा था उसकी डूबती नौका से पुकार के लिए निकले उसके हाथ को पकड़ने वाला कोई नहीं है और अब उसके सात आसमान के पार जाने के उत्साह को देख कर पतिदेव ने उसे समझाया ‘ॠतु, तुम तो ऐसे कर रही हो मानों तुमने परीक्षा पास कर ली है। अरे पगली, अभी तो हमने पहली सीढ़ी पर पैर रखा है। जिस पर चढ़ कर और मंजिल पार करने में जो काल चक्र निहित है अब केवल तुम उसको अपनी मेहनत से अपने अनुकूल कर सकती हो और ॠतु तुम एकबार ठान लोगी तो ज़रूर ही सफल होवोगी ऐसा मेरा पक्का विश्वास है।’
पतिदेव की प्रशंसात्मक बातें सुनकर ॠतु का चेहरा दमकने की जगह और भी बुझ गया, क्योंकि इन बातों से उसे राहत या दिलासा नहीं बल्कि यह बोध अधिक होता था कि ‘देखो, लोगों को तुमसे कितनी प्रत्याशा है’, और इससे उसके मन का बोझ हल्का होने की जगह बढ़ जाता था।
निर्णय को तुरन्त कर्म में परिवर्तित करने वाली ॠतु ने मन ही मन अपनी पढ़ाई की सारी योजना बना ली और घर लौटते वक़्त हिंदी एम.ए.के पुराने प्रश्न पत्रों के लिए कॉलेज स्ट्रीट में गाड़ी रुकवा ली। ॠतु यह देख कर आश्चर्यचकित रह गई कि पुराने प्रश्न पत्रों के अम्बार में एम.ए. के सारे प्रश्न पत्र थे, सिवा हिन्दी के। बहुत मगज़मारी करने और दर-दर भटकने के बाद उन्हें एक बड़ी उम्र के पुस्तक विक्रेता ने सलाह दी, ‘दीदी मोनी, आपनी हिन्दी लायब्रेरी ते खुजून, ऐखाने पाबेन ना।’ मरता क्या न करता की स्थिति में ॠतु और उसके पति यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी में जा पहुँचे। पुस्तकालयाध्यक्ष तो इन लोगों को धता बताने वाला ही था कि वहाँ से शास्त्री जी निकले। ॠतु और उसके पति को देखकर ‘सर’ का रुकना तो लाज़िमी था ही, जब उन्हें उनलोगों की समस्या का पता चला तो उन्होंने एक मिठास भरी डाँट उस पुस्तकालयाध्यक्ष को पिलाई। फलस्वरूप उनके सामने प्रश्न पत्रों का अम्बार लग गया। ॠतु ने उनमें से दस वर्षों के पश्न-पत्र छाँट लिए। ॠतु के पति दौड़ कर गए और उन्होंने उन दस वर्षों के प्रश्न पत्रों का ज़ीरॉक्स करवा लिया जिन्हें ॠतु ने छाँटा था। ॠतु उन प्रश्न पत्रों को देखकर एक बच्चे की तरह उछलने लगी और उसके उत्साह का बाँध रोके नहीं रुक रहा था कि पतिदेव की इस उक्ति ने कि ‘ॠतु, ये केवल प्रश्न पत्र हैं, उनका उत्तर या तुम्हारा रिजल्ट नहीं। तुम पहले शांतभाव से घर चलो और वहाँ तुम चुप्पा और उदास-सी बैठ जाना, ताकि घरवाले तुम्हें पढ़ने दें। ॠतु हर क्षण याद रखो कि तुम्हें दिन में चौबीस के अट्ठाईस घंटे और एक घंटे के एक सौ बीस मिनट करने हैं। वैसे भी सोने में तो तुम गुडाकश हो ही, इसलिए अब से कम सोना और कम खाना ही तुम्हारा धर्म होगा, तो अब एक सिपाही की तरह उठो और परीक्षा की जंग में सबके छक्के छुड़ा दो।’
पतिदेव की ऐसी बातों से ॠतु का उत्साह आकाश छूने लगा और उसे लगा वह अभी पल्ला कसकर लेफ्ट राइट, लेफ्ट राइट करती हुई परीक्षा हॉल में पहुँच जाएगी।
(जारी)
संपर्क सूत्र : 3 लाउडन स्ट्रीट, कोलकता-700017