वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी)
‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
आज यह महारानी जल्दी घर जाकर क्या तूफान उठाना चाहती है, के रेशों को मन ही मन खोलता हुआ वह नेपाली पंछी, जब उस चंचल तितली को लेकर लौटा तो एक झपाटे में वह महामाया असल राजबाड़ी के लम्बे-चैड़े राजपूत ठाकराजी के कान में कुछ फुसफुसाती नजर आई और ठाकरा जी भी बाअदब-बामुलाहिजा के अंदाज में पूरे मनोयोग से उसकी बात सुनते दिखे, बहादुर की खुर्दबीनी करने पर उसे पता चला कि इस महारानी ने उनकी बोली में बात कर उन्हें मोह लिया है।
यह दृश्य देखकर बहादुर ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा, ‘हे मेरी नौटंकी! तुम बांगाली के सामने बांगाली बन जाता है, माँं-बाबूजी के सामने हिन्दुस्तानी, बाबू का अंग्रेज अफसर के सामने एकदम क्रिस्तान बनकर गिटिर-पिटिर करने लगता है और इस ठकराजी के सामने कैसा-कैसा तरह का मारवाड़ी बोलता है, तुम आखिर…? बहादुर के वाक्य को बीच में ही रोक कर वह ‘‘दशभुजाधारी देवी’’ बोल पड़ी, ‘‘बहादुर रामरो छोरा ‘‘ऐ माँ’ बेबी साब्बाश तुम तो नेपाली भी जानता है।’’ उसके भ्रम को जस का तस छोड़ वह तेजी से आगे बढ़ी और दोनों राजबाड़ियों को विभाजित करती प्राचीर के अंत में जाकर खड़ी हो गई। दरअसल, यह मारवाड़ी राजबाड़ी इस असल राजबाड़ी के पुराने मालिकों द्वारा ही अपनी तवायफ प्रेयसी को उपहार स्वरूप भेंट दी गई थी। यह विभाजन प्राचीर वर्तमान मालिकों द्वारा बनाई गई थी जिनके मुसाहिबों ने प्राचीर के अंत में एक ‘खोंप’ सी बना ली थी जिससे वे असल राजबाड़ी के कीमती सामानात आराम से मारवाड़ी राजबाड़ी के सामने से ले जाते थे, जो असल राजबाड़ी के भारी-भरकम पहरेदारों के सामने संभव नहीं था। यह सिलसिला अभी भी नौकरों के बीच जारी था।
बहादुर ने जब कमर पर दोनों हाथ धरे, चेहरे पर मुस्कान का पहाड़ लिए, उस वीर बालिका को उस ‘खोंप’ के पास खड़ा देखा तो उसे साँप ही सूंघ गया, उसका सिर चक्कर घिन्नी-सा घूमने लगा और वह ‘हे काली कलकत्ते वाली’ वाक्य को मंत्र की तरह उचारते हुए झट से उस ‘भवानी’ के पास पहुँच कर शब्दों को चाशनी में डुबो-डुबो कर अत्यधिक मीठे स्वर में कहने लगा – प्यारा बेबी! आज तुम इस कोना में क्यों खड़ा है, आओ जल्दी से घर चलें! माँ तुम्हारा चिंता कर रहा होगा, आओ बेबी चलें।’’
‘‘बहादुर भैया, तुम मुझे ज्यादा उल्लू मत बनाओ। सच कहो, मुझे इस ‘खोप’ के पास खड़े देखकर तुम्हारी जान निकल गई है ना? सारे दिन कहते रहते हो कि बेबी हम तुमको सारा दुनिया से ज्यादा प्यार करता है, झूठे कहीं के?’’ उस समय टेढ़ा-बाँका मुँह बनाकर उसकी कूढ़-कढ़ाती हुई मुख-मुद्रा देखने के काबिल थी। यदि संयोगवश नाट्यशास्त्राचार्य भरत मुनि इसे देख लेते तो उन्हें अपने नाट्य शास्त्र में एक अध्याय इस छुटकी-सी विशिष्ट नायिका की भंगिमाओं पर अवश्य ही जोड़ना पड़ता।
भोला भंडारी बहादुर मन ही मन यह गुनता हुआ कि इस पटाखाबम को इस रास्ते का पता कैसे चला? और यह देवी इस रास्ते की खोज कर क्या गुल खिलाने वाली है? उसे टटोलने की कोशिश करता रहा, और एकाध बार चिरौरी कर उससे पूछा भी, पर उस बंदी ने उसका हाथ झटक दिया और उसे यह राज नहीं बताया। मन-मसोस कर उसके साथ घसिटता सा बहादुर और ऋतु जब घर के सामने पहुँचे तो उन्हें दरवाजे पर बग्घी खड़ी दिखी। बग्घी देखते ही ऋतु के पर निकल आए और वह उड़ कर माँ-बाबूजी के दरबार में जा पहुँची।
‘‘माँ, क्या आपलोग बाहर जा रहे हैं? दरवाजे पर बग्घी खड़ी है, और बाबूजी भी झकाझक कुत्र्ता-धोती पहन कर तैयार हैं।’’ माँ ने अपनी कुहनियों तक के झालरदार ब्लाऊज वाली तर्जनी से कान के पीछे हल्का सा इत्र लगाया और बोलीं – ‘‘हाँ, बेटा, हमलोग ‘नटी-विनोदिनी’ नाटक देखने जा रहे हैं। सुना है, इसे अनेक बड़े लोगों की प्रशंसा और आशीर्वाद प्राप्त हुए हैं।’’
सारी दुनिया की सादगी और भलाई चेहरे पर समेट कर वह महामना बोली – ‘‘माँ क्या आपलोगों को आने में देर होगी?’’
‘‘बेटा, कुछ देर तो हो ही जाएगी इसलिए मैं चम्पा को कह दूँगी कि तुम्हारे पास ही रहे।
‘‘नहीं माँ, तुम मेरी चिन्ता मत करो। मुझे बहुत पढ़ाई करनी है, और रामू भैया, बहादुर भैया, महाराज जी ये सब भी तो घर पर हैं।’’
बेटी के मुँह से ऐसी समझदारी भरी बातें सुन कर, माँ पुलकित हो गईं और लाड़ में उसे अपने से चिपका कर बोली, ‘‘मेरी बेटी, दुनिया की सबसे अच्छी बेटी है।’’ इस दृश्य को देखकर आदमजाद की तो हैसियत ही क्या! वह ऊपर बैठा नट तक चकरा गया था, क्योंकि वह जानता था कि भविष्य के गर्भ में तो कुछ और ही छिपा है।’’
इधर माँ-बाबूजी नाटक के लिए निकले और उधर वह तूफान मेल घेरदार फार्क पहने हाथ में एक छोटा सा कागज लिए बहादुर की पीठ पर हल्का सा धौल मार कर यह बोलती नजर आई, ‘‘बहादुर भैया, झट से उठिए, चलना है।’’
‘‘कहाँ? कहाँ जाना है बेबी, इतना रात को? उसके प्रश्न को अनसुना कर उसे हाथ से खींच कर उठाते हुए ठुनकती-सी ऋतु जी बोलीं – भैया, आज जलसा है ना? याद है आपने पशुपतिनाथ की कसम खाई थी, कि मुझे फूलबाई के दर्शन कराएँगे, तो चलिए?’’
‘‘हे मेरा अम्मा! हम तुमको बड़ा कोठी में ले जाने का वादा तो किया नहीं था। बेबी हम तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता है, मुझको मराने का काम मत करो’’ कह कर वह जूड़ी बुखार के मरीज सा काँपने लगा और वह देवी? वह! तीन-चार वर्ष की उम्र में बड़े मामा के साथ दिल्ली में देखी हुई राष्ट्रपति की झाँकी के चारों ओर अकड़ कर खड़े सेनाध्यक्षों की तरह तन कर खड़ी रही। बहादुर ने उसे बहुत ‘बहलाने-फुसलाने’ की कोशिश की, पर वह तो अंगद के पैर सी वैसी की वैसी अड़ी रही। झख मारकर बहादुर ने अंतिम शस्त्र चलाते हुए कहा – ‘‘बेबी राजबाड़ी का गेट पर तो बड़ा-बड़ा दरवान खड़ा है, हमलोग अंदर घुसेगा कैसे? वे लोग तो हमको बंदूक से मार ई डालेगा?’’ सुनकर उस मूर्ति में हरकत हुई और वह लेफ्ट राइट की मुद्रा में बहादुर को हाथ से पीछे आने का इशारा करते हुए पैरो को दबाकर रखती हुई आगे बढ़ चली। वशीकरण मंत्र मारे हुए जीव की तरह भौंचक्का सा बहादुर उस देवी के चरण चिन्हों पर संकरी गलियों से होते हुए पिछवाड़े की ओर चल पड़ा और आश्चर्यजनक ढंग से वे लोग रंग-दरबार के पिछले दरवाजे पर जा खड़े हुए।
बहादुर आँखे फाड़े भारी मखमली पर्दों पर तीन-चार तलिया ‘झूमरों’ से जगमगाते उस परी लोक को देख कर सिसकारी भरने वाला ही था कि उसे रास्ते भर दी हुई ऋतु की हिदायतें याद आ गईं, जिसमें अंत की यह चेतावनी भी शामिल थी कि यदि बहादुर कोई भी भूल करेगा तो वह वीरबालिका वहाँ से रफू-चक्कर हो जाएगी और यदि फिर भी वे लोग पकड़े गए तो वह इजलास में सारा दोष बहादुर के सिर मढ़ देगी।
साठ वर्ष पहले घटी इस घटना का एक ऐसा पूर्ण-चित्र ऋतु की आँखों के सामने आ खड़ा हुआ था कि वह स्वयं अपनी पूर्वदीप्ति में उभरे इस सरस, सजीव, छायाचित्र को देखकर स्तंभित थी। उसे अपनी चित्रोपम पूर्ण स्मृति का ज्ञान तो था, और उसने अपनी इस विलक्षण प्रतिभा से बचपन से ही औरों को एवं स्वयं को भी चैंकाया था, पर एक साधारण सी घटना उसे सही नुक्तों सहित इतनी गहराई से याद होगी, यह उसकी भी सोच से परे था।’’
तभी एक आवाज ने उसके स्मृतियों के रेले को वापस पटरी पर ला दिया। फूलबाई कत्थक के परण में चक्कर पर चक्कर लगा रही थीं कि पर्दे के नीचे रखा पीतल का एक बड़ा सा गमला लुढक गया। महफ़िल तारसप्तक पर अपने पूर्ण यौवन में सुर, सुरा और सौन्दर्य को साथ लिए मय ताल-छंदों के गमगमा रही थी कि इस विवादी स्वर ने वहाँ तहलका मचा दिया। जमींदार बाबू के मुसाहिब बिजली की गति से उस कोने की ओर दौड़े। इकहरे बदन की दुबली-पतली ऋतु ने अपनी साँस रोक ली और मखमली मोटे पर्दे से एकाकार होकर अस्तित्वहीन हो गई।
मुसाहिब इधर-उधर खोजबीन कर ही रहे थे कि अचानक उन्हें कोने में दुबकी जमींदार बाबू की लाडली सियामी बिल्ली दिखाई पड़ी, फिर क्या था एक मुसाहिब ने उसे लपक कर उठाया और उसे अपने दुप्पटे में लपेट कर यों ले चला गोया वह बिल्ली न हो, इस राजबाड़ी का नवजात वारिस हो। जमींदार साहब ने आँख के इशारे से नृत्य को वहीं से उठाने का आदेश दिया, जिस ताल पर वो थम गया था।
सारी महफिल उस समय ‘अश् अश् वाह-वाह’ कर झूम उठी जब फूलबाई ने ताल के पौने हिस्से से उसे ज्यों का त्यों का उठा लिया और उसी गति से चक्कर लगाने लगी। उनके इस अभूतपूर्व तालमेल पर न केवल धरती के आदमी बल्कि आकाश के देवता तक चकित रह गए थे। जमींदार साहब ने उनकी इस कारीगरी पर मुग्ध हो कर अशर्फियों से भरी एक थैली उन पर न्यौछावर कर दी। सिर को जमीन तक लाकर फूलबाई ने बिना ताल भंग किए ख़ास अदायगी से उस थैली को चूमते हुए उसे अपने सिर से छुआया और फिर उसे आहिस्ता से अपनी परिचारिका के बढ़े हुए हाथ में थमा दिया।
फूलबाई के झुक-झुक कर लखनवी तहजीब के जलवे और सलीके से ऋतु स्तंभित थी, और उसे पक्का विश्वास हो गया था कि हो न हो बड़े जमींदार बाबू ने इन्हें परीलोक से चुराया है। वह अपनी बड़ी आँखों को बिना पलक झपकाए एकटक उस परी को देखे जा रही थी कि बहादुर का खींचा हुआ हल्का हाथ भी उसे वज्र सा कठोर लगा और वह आकाश में उड़ना भूल सीधी धरती पर आ गिरी।
बहादुर उसे खींचता हुआ ले जा रहा था और वह अपनी खुली आँखों से कुछ न देखती हुई खिंची चली जा रही थी। बहादुर ने चम्पा आया को इशारे से बुलाया और दोनों ने मिल कर किसी और ही लोक में विचरण करती उस महामाया की काया को बिस्तर पर लेटा दिया और आश्चर्य एवं विस्मयकारी है यह तथ्य कि ऋतु एक भी शब्द बोले बिना एक मूर्ति की तरह सो गई।
आज की ऋतु साक्षी-चेता की तरह इस दृश्य की मीमांसा कर इस नतीजे पर पहुँची कि एकदम अनोखी अनजान दुनिया से प्रथम साक्षात्कार होने पर उस छोटी-सी बच्ची का यह हश्र एकदम स्वाभाविक था। आज साढ़े छह दशक बाद भी जब एक उम्रदराज और परिपक्व महिला उसके स्मरण मात्र से इतनी प्रभावित हो रही है, तो उस बच्ची का अपनी सुध-बुध खो बैठना तो एक साधारण-सी बात है।
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