अद्यतन कहानी संग्रह, ‘मेरी कहानियां आभासी दुनिया से -1’।भिलाई इस्पात संयंत्र में कार्यरत।
एकाएक कितने रंगबिरंगी सितारे मेरी आंखों के आगे नाच उठे।एकाएक मुझे कुछ समझ नहीं आया।वह एक सवाल एक धमाके के साथ मेरे दिलो दिमाग में उठ खड़ा हुआ-
क्यों?
इस सवाल ने मुझे धकेलकर मेरी जिंदगी में पीछे ले गया।इंसान का आज तो हमेशा उसके अतीत का फल होता है न? क्या था उस अतीत में जिसके आधार पर यह मेरा आज खड़ा है? और खड़ा है वह सवाल- क्यों?
मेरे अतीत में नजर आता है वही सरकारी स्कूल और नजर आता है एक छोटा लड़का, जो आए दिन क्लास में बेंच के ऊपर खड़ा पाया जाता है, और कई बार तो क्लास के बाहर… क्या चलता होगा उसके मन में? मैं कई बार सोचता हूँ।लेकिन बहुत चाहकर भी ज्यादा कुछ याद नहीं आता।बस कुछ बातें जैसे मेरी मम्मी ऐसी क्यों है? मेरे पापा ऐसे क्यों हैं? हम ऐसे क्यों हैं? बाकी लोगों की तरह क्यों नहीं…? यानी कि यह प्रश्नवाचक शब्द हमेशा मेरी जिंदगी से चिपका रहा।जाने क्यों मैं तब भी इस एक शब्द से पीछा छुड़ाना चाहता रहा, लेकिन वह शब्द घूम फिर कर मेरे नन्हे मस्तिष्क में आ खड़ा होता; जैसे कि मेरा स्कूल का यूनिफॉर्म ही ले लो।मैं हमेशा सोचता कि सिर्फ मेरा यूनिफॉर्म ऐसा क्यों है? ऐसा यानी, पुराना बदरंग और मैला-मैला-सा।मां इसे कितना भी धोए इसका मैलापन नहीं जाता।नतीजा- ‘बेंच पर खड़े हो जाओ…’
‘क्यों, तुम्हारी मम्मी तुम्हारे कपड़े नहीं धोतीं?’ टीचर सवाल करती है।
मैं क्या जवाब दूँ? मुझे नहीं पता।बस शिकायत भरी नजरों से टीचर को घूरता रहता हूँ।कभी-कभी टीचर भी मेरी उन घूरती निगाहों की ताब नहीं ला पाती और पश्चाताप के से स्वर में कहती-
‘देखो, मुझे कोई शौक नहीं है तुम्हें बार-बार पनिश करने का।लेकिन तुम अपने कपड़े देखो और दूसरे बच्चों के कपड़े देखो…’
मैं देखता हूँ।दूसरे बच्चों के कपड़ों से अपने कपड़ों की तुलना करता हूँ।और फिर वही सवाल सामने आ खड़ा होता है- क्यों?
मां से पूछना तो बेकार ही था।वह कहती-
‘मैं क्या करूँ? पुराने कपड़े तो ऐसे ही दिखेंगे न? और ज्यादा रगड़ूंगी तो फट जाएंगे।साबुन भी कितनी लगाऊं? ज्यादा लगाऊंगी तो महीना खत्म होने से पहले सारा साबुन खत्म।फिर क्या करूंगी? कहां से लाऊंगी? कौन सा मेरा बाप बैठा है जो ला देगा? और तुम्हारे बाप की तनख्वाह में तो इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं…’
वह एक बार शुरू होती तो जबान रुकने का नाम ही नहीं लेती।और मैं सोचता, वह ऐसी क्यों है? वह दुनिया की दूसरी माओं की तरह क्यों नहीं है? वह हमेशा इतनी तनी हुई, इतनी चिढ़ी हुई सी रहती कि जैसे इस दुनिया की हर एक शय से उसे दुश्मनी है।वह कभी हँसती मुस्कुराती नहीं।क्यों? वह क्यों कभी प्यार से बात नहीं करती? मेरा दिल बहुत चाहता कि वह हँसे बोले।और जब मैं उसे हँसाने के लिए कोई उटपटांग हरकत करता तो वह और चिढ़ जाती।जो हाथ में आए फेंक कर मारती-
‘कमीने क्या भांड़ बनेगा?… कभी कोई ढंग का काम मत करना…!’ वह चीखती और मेरे पास वहां से खिसककर कहीं एकांत में जाकर रोने के सिवाय और कोई चारा न रहता।
लेकिन स्कूल से जुड़ा मसला सिर्फ गंदे यूनिफॉर्म से जुड़ा मसला ही नहीं था।आए दिन यूं होता कि होमवर्क पूछा जाता और मैं जवाब देता- ‘कॉपी नहीं लाया मैम।’
‘बेंच पर खड़े हो जाओ।’ टीचर कहती।फिर धीरे से जोड़ती, ‘ये नहीं कहते बनता कि होमवर्क नहीं किया।’
यह बात मुझे बुरी लगती।मैं होमवर्क करूं भी तो किस कॉपी में? मेरी कॉपी तो भर गई है और अब दूसरी कॉपी के लिए पापा की पेमेंट तक इंतिज़ार जरूरी है।लेकिन मैं कुछ कह नहीं पाता।बस मेरी आंखें बोलने लगतीं और टीचर मेरी तरफ से मुंह फेर लेते।और जब बेंच पर खड़े-खड़े ही मैं क्लास में पूछे गए सारे सवालों का जवाब औरों से पहले दे देता तो टीचर जैसे पश्चाताप के स्वर में कहती- ‘मुझे शौक नहीं तुम्हें रोज-रोज बेंच पे खड़े करने का…’
और जब मैं माँ से कहता कि मुझे नई कॉपी क्यों नहीं खरीद देतीं तो उसका जवाब होता, ‘तेरे बाप की कोई ऊपरी कमाई नहीं है जो महीने के बीच में पैसे आ जाएंगे।’
और मैं सोंचने लगता कि- क्यों?
क्यों मेरे घर में महीने के बीच में पैसे की तंगी रहती है।मेरे पिता भी तो सरकारी नौकरी में हैं।फिर क्यों?
माँ जवाब देती, ‘तेरे बाप में हिम्मत ही नहीं।नहीं तो क्या औरों की तरह हम भी मजे से नहीं रहते? मेरे बाप ने तो ये सोचकर मेरी शादी की थी कि लड़का सरकारी नौकरी में है।तनख्वाह के अलावा ऊपर की आमदनी भी खूब होगी।मेरी बेटी राज करेगी।ये राज कर रही हूँ मैं।मेरे तो नसीब ही खराब थे… नसीब को भी क्या दोष देना जब अपना ही सिक्का खोटा हो…
मां की जुबान तो नॉन स्टॉप है।वह तो चलती ही रहेगी।पता नहीं वह कभी चुप भी होती है या नहीं।पापा कहते हैं, ‘अरे इतना मत बोला कर।ज्यादा बोलेगी तो बच्चे भी इज्जत नहीं करेंगे…’
‘वैसे भी कौन सी इज्जत है मेरी इस घर में’, मां शुरू हो जाती, ‘नौकरानी हूँ इस घर की…’
‘नौकरानी कहां? तुम तो महारानी हो इस घर की।’ पापा कहते।
‘हां, देख लो महारानी का हाल अवतार… ढंग के कपड़ों के लिए भी तरस कर रह गई हूँ।बच्चे देखो तो दूसरों के बच्चों को देख देख कर रह जाते हैं।रूखी-सूखी तनख्वाह में चार-चार बच्चों की पढ़ाई और उसी में से मां बाप को भी पैसे भेजना…
‘अरे तो मैं क्या करूं? मां-बाप हैं वे मेरे।मुझे पैदा किया, पढ़ाया-लिखाया और इस काबिल बनाया…’
‘खूब काबिल बनाया…’
ये झगड़े तो चलते ही रहेंगे।मम्मी कौन-सा चुप रहने वाली।वह तो एक बात पर सौ बात करने की काबिलियत रखती है।आखिर को पापा को ही हार माननी होगी।मैं जानता हूँ, पापा की कोई इज्जत ही नहीं मां के दिल में।और पापा? पापा जाने ऐसे क्यों थे? ऐसे यानी उन्हें जैसे दीन दुनिया से कोई वास्ता ही नहीं।घर से ड्यूटी और ड्यूटी से घर।न कहीं आना-जाना न कोई समाजी गतिविधि।न दोस्ती-यारी न सैर-सपाटा।
‘सैर-सपाटे में पैसे खर्च होते हैं।हम बंधी हुई तनख्वाह पाने वाले लोग…!’ वे कहते।
उन्होंने कभी क्लब का मुंह नहीं देखा।फिल्म तो वे कभी देखते ही नहीं, जबकि उनका दौर फिल्मों का सुनहरा दौर था।जब लोग ब्लैक में टिकट खरीदकर फिल्में देखते, वे अपनी डींग हांकते, ‘मैं फिल्म देखता ही नहीं।फिल्म देखना एक तरह की बेवकूफी है; पैसे और वक्त दोनों की बरबादी’, फिर आह भरकर कहते, ‘अपनी जवानी में मैंने भी बहुत फिल्में देखी हैं।कोई फिल्म मुझसे छूटती नहीं…’ और उनकी आह, उनके दर्द को बयां कर देती।
लेकिन जब वे फिजूलखर्ची और बंधी हुई तनख्वाह का हवाला देते तो मां झट से बात काटती- ‘क्यों और लोग नहीं हैं, बंधी हुई तनख्वाह वाले?’
‘उनकी बात और है…’ पापा कहते तो मां भी चुप नहीं रहती-
‘अपनी बुजदिली को बातों में मत छिपाओ…’ वह कहती और पापा चुप रह जाते।फिर मम्मी की जबान चलने लगती, ‘दिन भर घर में बैठे रहते हो।जाओगे भी कहां? कोई सामाजिक हैसियत नहीं तुम्हारी।साथ वाले सब रिश्वत खाते हैं तो तुम संत महात्मा बने बैठे रहते हो।सब साथ वालों की नजर में खटकते हो तुम।कई औरतें बताती हैं मुझे…।’
‘अरे! बेईमानों की भीड़ में ईमानदार बने रहने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है…’ पापा प्रतिकार करते तो मां चुप नहीं रहती-
‘तुम्हीं को मुबारक हो तुम्हारी हिम्मत…’
और मैं समझ नहीं पाता कि पापा असल में क्या हैं? बुज़दिल या हिम्मत वाले? लेकिन एक बात मेरी समझ में आ रही थी।वह ये कि मम्मी की नजर में पापा की कोई इज्जत नहीं।और वह इसलिए कि पापा ऊपर की कमाई के मामले में सिफर हैं।इसी कम उम्र में मैंने जिंदगी का एक और बड़ा सबक सीख लिया था कि मर्द की कमाई ही उसके मान सम्मान का कारण बनती है।
समय के साथ मां ज्यादा चिड़चिड़ी होती जा रही थी और पापा वैसे ही निर्विकार।सावन सूखे न भादो हरे।लेकिन अपने तमामतर निकम्मेपन के बावजूद पापा ने कुछ सालों बाद हिम्मत करके लोन उठाकर एक मकान तो बना ही लिया।इससे हमें उस मनहूस सरकारी मकान से निजात मिल गई, जो बारिश में सीलन और साल भर उस सीलन की बदबू से भरा रहता।इससे हम भाई-बहनों की खुशियों का कोई ठिकाना ही न रहा।हमें लगने लगा कि अब हमारा जीवन ही बदल जाएगा।जीवन में बदलाव आए तो लेकिन मां का चिड़चिड़ापन अब भी वैसे का वैसा ही रहा।अब उसे नई चिंता ने आ घेरा।
अब वह रात दिन एक ही बात रटती रहती, ‘जमा पूंजी तो कुछ पल्ले नहीं, ऊपर से ये मकान का कर्जा।इसकी किस्त देने के बाद इस छोटी सी तनख्वाह में क्या घर चलाऊं और क्या बचत करूं?…’
‘अरे क्या बेसुरा राग लेकर बैठ जाती हो।सब ठीक हो जाएगा।’ पापा समझाने की कोशिश करते।
‘क्या ठीक हो जाएगा? तुम्हें तो कुछ सोच है नहीं।लड़कियां बड़ी हो रही हैं।उनका शादी ब्याह करना है कि नहीं।’
‘अरे कौन-सा अभी ही करना है।वक्त है अभी।जब करना होगा, देख लेंगे।
‘वक्त सिर पर आ जाएगा तब क्या देख लोगे? उनका दहेज नहीं जुटाना है अभी से? शादी के लिए पैसे कौड़ी नहीं जुटाना है।’
‘सब हो जाएगा।हमारा बेटा भी बड़ा हो गया है।जब इसकी नौकरी लग जाएगी तो हमारी सारी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी।’ पापा कहते।उनके कथन हमारा बेटा बड़ा हो गया है से मुराद मैं ही था।चारों भाई बहिनों में सबसे बड़ा।और मुझे नौकरी करने की जल्दी भी थी।मैंने इधर-उधर हाथ पैर मारना भी शुरू कर दिया था।मैं अच्छी तरह जानता था कि मर्द का सम्मान उसकी कमाई से ही है।फिर चाहे वह कैसे भी हो।मेरा भरपूर प्रयास था कि ऐसी जगह काम करूं जहां तनख्वाह के अलावा ऊपरी इनकम की अच्छी खासी संभावना हो।पापा की बुजदिली के कारण हम लोगों ने बहुत कुछ सहा है।सबसे ज्यादा तो मां ने।हम सभी भाई बहन मां को खुश देखने के लिए तरस कर रह गए थे।मैं मम्मी को खुशियां देना चाहता था।इसलिए मैं पापा जैसा बुजदिल नहीं बनना चाहता था।
मैं क्या बनना चाहता था, मैं ही जानता था।मैं बहुत सारे पैसे कमाना चाहता था।मैं अब बड़ा हो रहा था।मैं पैसे, ज्यादा पैसे कमाने की तरकीबें सोचने लगा था।ये तो तय था कि मेरे कारण मेरे बच्चे नहीं तरसेंगे जैसे मैं तरसता रहा।वे स्कूल-कॉलेज में मेरी तरह जलील नहीं होंगे, जैसे मैं जलील होता रहा।मेरी बीवी को मेरी मां की तरह घुटघुटकर नहीं जीना होगा।मेरी बीवी मेरी मां की तरह चिड़चिड़ी और बदमिजाज नहीं बनेगी।मेरी जिंदगी, पापा की जिंदगी की तरह हरगिज नहीं होगी।अगर मैं नौकरी करता हूँ और मुझे ऊपर की आमदनी नसीब होती है तो मैं बुजदिल नहीं बनूंगा।नहीं बनूंगा…
ये मेरे ख्याल उस दिन तक भी मेरे साथ थे जब मैंने नौकरी पाई और नौकरी भी पापा से बेहतर।लेकिन नौकरी के पहले दिन ही पापा ने मुझे लेक्चर दे डाला-
‘बेटा, ईमानदारी से नौकरी करना।ईमानदार रहोगे तो जिंदगी भर लोगों से नजर मिलाकर बात कर सकोगे।किसी की खुशी या नाराजगी का डर नहीं रहेगा।क्योंकि लाख चाहने के बावजूद कोई तुमपर उंगली नहीं उठा सकेगा।बेईमानी तुम्हें खुशामदी बनाएगी।जो कमाओगे उसका बड़ा हिस्सा तो खिलाने-पिलाने में उड़ाना पड़ेगा।इसके बावजूद दिल में डर बना रहेगा…’
मैं और सुनना नहीं चाहता था।क्या मैं जानता समझता नहीं था ये सब? पापा की अपनी बुजदिली को बहादुरी के मुलम्मे में लपेटने की कोशिश थी। …पापा आपकी सीख आपको ही मुबारक हो।मैंने मां को देखा, उसकी आंखों में बहुत से ख्वाब नजर आ रहे थे।और वे ख्वाब क्या थे मैं अच्छी तरह जानता था।मैं जानता था मुझे क्या करना है।
लेकिन मेरे ये ख्वाब और मेरे ये खयाल बहुत ज्यादा मेरा साथ नहीं दे सके।मेरा डिपार्टमेंट तो एकदम रूखा-सूखा-सा था।ईमानदारी से आना जाना।मेरे दिल में फिर वही सवाल उठ खड़ा हुआ- क्यों? आखिर क्यों मेरी किस्मत में ऐसी रूखी-सूखी नौकरी? मैं तो बुजदिल नहीं था।मैं तो कमाना चाहता था; और हिम्मत भी रखता था।मैं बहुत मायूस रहने लगा।लेकिन क्या करता? आखिर को वही हुआ जो हर निराश और मायूस कर्मचारी के साथ होता है।नौकरी रूखी-सूखी सही, लेकिन कामचोरी और टालमटोल के लिए काफी गुंजाइश थी।और रहती ही है।बस, रूखी-सूखी पेमेंट में मेरा कोई इंट्रेस्ट नहीं था।मैं तो खूब पैसे कमाना चाहता था।नतीजा यह हुआ कि काम से मेरा दिल उचटने लगा।कामचोरी और टालमटोल में मैं माहिर होने लगा।ऐसे ही कई महीने बीते कि मुझे पता चला कि हमारे डिपार्टमेंट के अंडर में ऐसा भी एक सेक्शन है जहां रोटेशन सिस्टम पर सबकी बारी-बारी से तीन-तीन महीनों के लिए पोस्टिंग होती है।
‘ऐसा क्या है उस सेक्शन में?’ मैंने अपने एक पुराने सहकर्मी से पूछा।
‘तुझे नहीं मालूम?’ उसने पूछा।
‘नहीं।’ मैंने कहा।
‘मालूम चल जाएगा।’ उसने कहा, ‘मलाई वाला सेक्शन है, मलाई वाला।इसलिए तो वहां बारी-बारी से सबका नंबर आता है।’
‘मेरा भी आएगा न?’ मैंने पूछा।मेरी आवाज में उत्साह और रोमांच दोनों थे।
‘तू तो अभी नया नया है।थोड़ा टाइम लगेगा लेकिन आएगा, तेरा भी नंबर आएगा।उसने कहा।
फिर भी नया होने के बावजूद मेरा भी नंबर आया।मेरा नंबर जल्दी कैसे आया ये बस इत्तेफाक की बात थी।बस इतना ही काफी था कि मेरा इंतज़ार वक्त से पहले ही खत्म हुआ।
नई जगह, पहले ही दिन काम चालू होने से पहले ही एक ट्रक ड्राइवर ने जिद करके, मिन्नत समाजत के साथ मुझे चाय नाश्ता करवाया।यहां का पहला अनुभव अच्छा था।मैं खुश था।यहां ज्यादा काम भी नहीं था बस यहां से स्क्रैप बाहर ले जाने वाले ट्रकों का वे-ब्रिज पर काटा करके बिल्टी बनाना।जब मैं बिल्टी बनाने लगा तो वही ट्रक ड्राइवर आकर मेरे पास खड़ा हो गया और धीरे से कुछ नोट मेरे जेब में सरका दिया।मैं पहली बार होने वाली ऊपर की आमदानी से रोमांचित हो उठा।फिर उसी ड्राइवर ने मुझे अपने ट्रक की बिल्टी में हेरफेर करना सिखा दिया।और इसके बाद तो ट्रक ड्राइवरों की लाइन लग गई।हर एक मेरी जेब में कुछ न कुछ डालता और ट्रक के वजन में अपने हिसाब से हेरफेर करवा लेता।
यह तो ऊपर की कमाई का बड़ा आसान रास्ता था।वजन मैंने किया।देखा मैंने।लिखा मैंने।जो मैंने लिखा वही सही।मैंने क्या देखा क्या लिखा इसका किसी को पता नहीं, सिवाय ट्रक ड्राइवर के।जेब मेरी गर्म हुई।जंगल में मोर नाचा किसने देखा? दिन भर में मेरी जेब नोटों से ठसाठस भर गई थी।बहुत से ख्वाब, बहुत सी उमंगों के साथ मैं घर के लिए रवाना हुआ तो आज जैसे मैं उड़ रहा था।मां घर पर रास्ता देख रही होगी।आज तक मैं सिर्फ अपनी पेमेंट मां के हाथ पर रखता आया था।आज पहली बार अपनी ऊपर की आमदनी उसके हाथों में रखूंगा।आज मैं पहली बार अपनी मां के चेहरे पर खुशी देखूंगा।आशा देखूंगा।आज पहली बार मां को यह तसल्ली होगी कि उसका बेटा, बाप की तरह बुजदिल नहीं निकला।
घर पहुंचा तो सबसे पहले मां ही बाहर आई।मैंने तुरंत अपनी जेब खाली करके उसके हाथ में सारे पैसे रख दिए।
‘बेटा, इतने पैसे? इस महीने की तनख्वाह तो तू दे चुका है।फिर…?’ आश्चर्य से मेरा मुंह देखते हुए मां ने सवाल किया।
‘अरे रख लो मम्मी रख लो, ये आज की मेरी ऊपर की कमाई है।अब देखना…’
मेरी बात अभी पूरी हुई भी नहीं थी कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा और… और सारे पैसे जमीन पर।मां का रोना-चीखना सुनाई दिया-
‘कमीने!! यही सिखाया था हमने तुझे? मैं तेरे ऐसे पैसों पर थूकती हूँ… आग लगाती हूँ इन पैसों पर… एक सच्चे और ईमानदार बाप की औलाद होकर तेरी हिम्मत कैसे हुई…’ मां की जबान तो नॉन स्टॉप है।वह तो चलती रहेगी।और मैं? मैं तो गाल थामकर हक्का-बक्का रह गया…
एकाएक कितने रंगबिरंगी सितारे मेरी आंखों के आगे नाच उठे।एकाएक मुझे कुछ समझ नहीं आया।वह एक सवाल फिर से एक धमाके के साथ मेरे दिलो-दिमाग में उठ खड़ा हुआ-
क्यों?
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