सुपरिचित दलित लेखक।पहली दलित आत्मकथा ‘अपने–अपने पिंजरे’ से चर्चित।
हाल में ‘एक सौ दलित आत्मकथाएं’ पुस्तक प्रकाशित।कंकरीट की आलीशान इमारतों से घिरे आज जिस दरियागंज को हम देखते हैं, कौन सोचेगा कि तब के जंगल जैसे परिवेश में चर्चित तथा प्रतिष्ठित कथाकार और चिंतक जैनेंद्र कुमार वहां रहते होंगे? किसे यह विश्वास होगा कि अपने छोटे-से किराए के घर के नीचे तबेले के पास चारपाई डाल कर वे साहित्य साधना करते होंगे? इसी दरियागंज का तब रंग-रूप तथा स्वरूप अलग था।वहां न व्यापारिक संस्थानों के वातानुकूलित कार्यालय थे और न चमकती-दमकती टाइल्स के फर्श से सटे सिमसिम की तरह खुलने वाले दरवाजे थे।मस्जिद के पीछे न तब प्रकाशन समूहों का वैसा बेड़ा था और न उसके बराबर में पुलिस स्टेशन।जाहिर है थाना बाद में बना होगा।इबादत करने की पाक जगहों पर खुदा के बंदों की निगरानी करने के लिए वैसे भी थाने नहीं हुआ करते थे उन दिनों।थाने के स्थान पर किसी मुल्ला या मौलवी का घर अवश्य रहा होगा।शाहजहां ने बहुत पहले जो दरिया बनवाया था, पर दरियागंज के नाम से मशहूर है।अब वहां सीधी-सपाट सड़कें हैं और गलियां भी।
बकौल प्रदीप कुमार सात कोठियों से घिरा हुआ परिवेश था दरियागंज का।शेष में जंगल, बाग बगीचे, घास-फूस रहे होंगे।जैनेंद्र जी की रचनाधर्मिता के गवाह उन दिनों वही सब रहे होंगे।उनमें अधेड़ उम्र की वह महिला भी थी, जिसका नाम फूलवती या तेजो रानी रहा होगा।तब दरियागंज तिजारती भी नहीं था, क्योंकि तिजारत करने वालों की संख्या कम ही थी।तब उनकी संख्या सात के लगभग थी आज सात हजार तक पहुंच गई है।पर तिजारत के अलावा समाज के मूल्य थे, उनके भीतर संस्कार थे तथा व्यवस्था थी।७/३६ नंबर वाले इसी घर में १९३६ में जैनेंद्र जी अपने कुनबे को लेकर रहने आए थे।मकान पूरा तब तक बना नहीं था।दरवाजे-खिड़कियां अधूरे थे।पलास्तर भी पूरा नहीं हो पाया था।बिजली-पानी का तो प्रश्न ही नहीं था।उसी आधे-अधूरे मकान के नीचे मकान मालिक की गाय-भैंसें बंधती थीं।चार कमरों वाला मकान और उसमें रहने वाले लगभग आठ सदस्य।जैनेंद्र जी उस घर में किराएदार के रूप में आए थे।मकान का किराया था पांच रुपये।
जैनेंद्र जी से मेरी पहली मुलाकात ७० के दशक में हुई थी।उससे पूर्व जैसा मुझे याद आ रहा है, मैं कथालोक पत्रिका में उप संपादक था।इसके संपादक हर्षचंद्र जैन थे, लेकिन वे सिर्फ हर्षचंद्र लिखते थे।जैनेंद्र कुमार भी जैन पंथ से थे, लेकिन वे अपने नाम के साथ जैन नहीं लगाते थे।परिवार के अन्य सदस्य भी जैन नहीं लिखते थे।अच्छी परंपरा थी।संभवत: इसी परंपरा ने जैनेंद्र जी को एक नामी गिरामी लेखक बनाया।इसलिए कि किसी धर्म, जाति, वर्ग या पंथ की गांठ में बंधने के संस्कार जैनेंद्र ने अपने परिवार को नहीं दिए थे।
पहली बार जब मैं सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गया तो नीचे तबेला था।वहां कोई नाईन अपने परिवार के साथ रहती थी।उन्हें इसी तरह संबोधित किया जाता था।प्रदीप जी आगे थे और मैं उनके पीछे।मकान के पहले ही कमरे में जैनेंद्र जी साहित्य साधना करते थे।कमरे के भीतर प्रवेश कर मैंने देखा।एक व्यक्ति शरीर पर सफेद कपड़े, आंखों पर काला चश्मा लगाए किसी शिला की तरह विचारमग्न था।प्रदीप जी ने परिचय कराया था।ये नैमिशराय जी हैं।शिला के भीतर स्पंदन हुआ तनिक।पुन: प्रदीप बोले थे।पूर्वोदय प्रकाशन में नए आए हैं।इस बार उनके मुंह से कुछ शब्द बाहर आए थे। ‘बैठो।’ मैं उनके सामने एक खाली कुर्सी पर बैठ गया था।नजदीक ही दूसरी कुर्सी पर स्वयं प्रदीप जी बैठ गए थे।जैनेंद्र ने कुछ पल बाद पूछा था
‘कहां रहते हो?’
मैंने धीरे से जवाब में कहा, ‘पहाड़गंज।’
उनके मुंह से निकला, ‘हूँ।’
वे कुछ लिख रहे थे।आंखों पर लगा चश्मा उतार कर उन्होंने नीचे रखा।फिर बोले, ‘मिलते रहना।’
इसके बाद प्रदीप जी ने मेरी ओर देखा था तथा मैंने उनकी तरफ।हम दोनों सीढ़ियां उतर कर नीचे आ गए।पूर्वोदय प्रकाशन भी नजदीक ही था।उस दिन के बाद अनगिनत बार जैनेंद्र जी से मुलाकातें होती रहीं।अधिकांश मिलना-जुलना प्रकाशन संबंधी हुआ करता था।कभी उनकी पुस्तक हेतु पांडुलिपि तैयार करनी होती या फाइनल प्रूफ दिखाना हुआ करता था।कभी-कभी जब वे फुर्सत में होते तो चाय मंगाते।मुझे उनके साथ बैठकर चाय पीना अच्छा लगता था।तब मैं न लेखक था और न पत्रकार।सत्तर के दशक में ही पहली बार दिल्ली आया था और तत्कालीन प्रसिद्ध कथाकारों में से संभवत: पहली मुलाकात जैनेंद्र जी से ही हुई थी।तब मैं शब्दों को पढ़ता और उनके अर्थ समझता।यहीं से मेरी रचनाधर्मिता की शुरुआत थी।कुछ कविता और कहानी लिखने का प्रयास जरूर किया था।
जैनेंद्र जी की पुस्तकें मैंने उसी दौर में पढ़नी आरंभ की थीं।एक पुस्तक पढ़ने के बाद दूसरी फिर तीसरी।सच बात यह है कि गंभीरता से लिखने-पढ़ने का क्रम दिल्ली में आकर शुरू हुआ।पहले ‘परख’, फिर ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘कल्याणी’ आदि-आदि उनकी पुस्तकें पढ़ता गया।जैसे हलवाई की दुकान पर काम करने वाला कोई कर्मचारी चलते वक्त गांठ में थोड़ी बहुत मिठाई बांध लेता है, ऐसे ही मैं पूर्वोदय प्रकाशन से किताब ले आता था शाम को घर लौटते वक्त।
जैनेंद्र जी की साहित्यिक कृतियां मेरे भीतर रचने-बसने लगी थीं।उनके व्यक्तित्व से मैं पहले से प्रभावित था।जैनेंद्र में खास बात यह थी कि वे असहज परिस्थितियों में भी सहज रहते थे।धीरे-धीरे और कम बोलते थे।उन्होंने अपनी साहित्यिक दुनिया में वैसे ही चरित्रों का निर्माण भी किया।सुनीता से लेकर मृणाल तक और उनसे आगे भी।उनकी चुप्पी कुछ एहसास कराती थी।क्या जैनेंद्र जी ने कभी सोचा था कि उस समय पांच रुपये वाले किराए के मकान के आस-पास का परिवेश इतना सब कुछ बोलने लगेगा।इतना सब कुछ बदल जाएगा।लेकिन नजदीक से उसी पांच रुपए किराए वाले चार कमरों के मकान को जाकर देखता तो खिड़कियां दरवाजे सभी चुप्पी के अहसास में डूबे मिलते।दीवारें बिलकुल वैसी ही हैं।जिस कमरे में जैनेंद्र जी बैठकर लिखते थे वहां लोहे का बड़ा ताला पड़ा है।अब वहां जैनेंद्र नहीं रहते।उनकी यादें शेष हैं।
पूर्वोदय प्रकाशन का कार्यालय बदस्तूर चलता है।जैनेंद्र स्मृति संस्थान निश्चित ही वक्त की नजाकत समझता है।सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऊपर जाएं तो लकड़ी की पुरानी पट्टिका पर नजर पड़ेगी।जिस पर सबसे पहले जैनेंद्र कुमार फिर नीचे प्रदीप कुमार और पूर्वोदय प्रकाशन लिखा हुआ है।यह तख्ती और अन्य वस्तुएं जैनेंद्र जी की रचनाधर्मिता की चश्मदीद गवाह रही हैं।
बाद कुछ वर्षों तक प्रदीप पूर्वोदय प्रकाशन चलाते रहे।बाद में वे भी अपनी मेज कुर्सी/कलम/पेपर/हिसाब किताब की बही के साथ किताबें ढोकर वहां से रुखसत हो गए।आखिर रुखसत कौन नहीं होता, कोई इस जमीन से तो कोई उस जमीन से!
बी. जी-५ए/३० बी, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-११००६३, मो.८८६००७४९२२
हम 1950-६० में 7 नंबर गली दरयागंज में रहते थे । मै जैनेन्द्र जी को कमर पर सफ़ेद रंग की सूती शाल डाल कर आते जाते देखता था। बहुत ही प्रभावशाली व्यक्तित्व था उनका। उनको मेरा नमन।