भारतीय रेलवे में कार्यरत। कविता संग्रह आखिर क्या करता’, ‘देह पर दिन की भाषाऔर समय के ढेर पर

तुम्हारा आना

तुम वैसे मत आना
जैसे उग आती है कहीं भी दूब
जैसे जंगल में कोई भी पेड़
जैसे प्रश्नों के बीच से कोई उत्तर

तुम ऐसे आना
जैसे खिलती है कोई कली
जैसे मुस्काती है मुन्नी
जैसे सरसराती है कोई नदी

तुम्हारा आना ऐसे हो
जैसे भूख जग जाए
विचारों में समय समा जाए
और हो जाए हम
एक मुकम्मल किताब।

अब वे

अब
कविता में कहां से उतरेंगे
हंसियों की आवारगी
और मिट्टी की खुशबुएं

जब
राख में चिंगारी की तरह
तमाम सपनों के द्वीप
डूब रहे हों
स्वादों के स्पंदन में ही
और क्षितिज के पार
हमारी दृष्टि कुंद हो रही हो

अब
बेटे के पांव
इतने बड़े हो गए हैं
कि पिता के जूते
काटते हैं उन्हें
और बिटिया के आंचल
इतने लहराते हैं
कि मां की ममता
तंग करती है उन्हें

इधर
सही दिशा में
उड़ते प्रवासी पक्षी
कब रास्ता बदल दें
और चुग लें
हमारे खेतों के बीज
हम नहीं जानते
तब भी हम
खुले रखे हैं दरवाजे
और पलके बिछाए हैं

ऐसे में वे
कविता में उतरने के बजाए
सेंसेक्स में उछलते डूबते हैं।