प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
संस्मरण एक खास जीवन तथा काल को समझने का एक प्रभावशाली माध्यम है। यह कई बार एक युग के संघर्ष का दस्तावेजीकरण होता है। नागरिक समाज को संस्मरण पढ़कर समकालीन चुनौतियों से संघर्ष करने की ताकत मिलती है। संस्मरण व्यक्तित्व विहीन नहीं हो सकता और न ही काल निरपेक्ष, इसलिए काल विशेष से व्यक्ति के मुखामुखम को दर्शानेवाली यह एक जीवंत विधा है। संस्मरण लेखक दर्ज करता है कि वह कैसे बना। आमतौर पर संस्मरण वाणप्रस्थ अवस्था में रचे जाते हैं।
हिंदी में इस जीवंत विधा की उम्र सौ साल से कुछ ही अधिक है। ‘सरस्वती’ और ‘हंस’ पत्रिकाएं इसके जन्मपृष्ठ हैं। महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामवृक्ष बेनीपुरी, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, विश्वनाथ त्रिपाठी, कृष्णा सोबती, काशीनाथ सिंह, राजेश जोशी, ममता कालिया तथा कई अन्य लेखकों ने संस्मरणों पर आधारित कालजयी कृतियां दी हैं। इधर हिंदी के दो महत्वपूर्ण कहानीकारों नमिता सिंह की ‘समय शिला पर : एक जीवन यात्रा’ और अखिलेश की ‘अक्स’ किताबें आई हैं। दोनों चर्चित कथाकार हैं।
यह बड़ा कठिन है, जब लेखक ईमानदारी से अपने समय के उन पृष्ठों को खोले जहां शासन-व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगते हों तथा वे आम धारणा के विपरीत हों। |
नमिता सिंह की पुस्तक से जाना जा सकता है कि एक संकोची स्वभाव की बाला से वह कैसे जन-आंदोलनों की एक समर्पित सिपाही बनीं।
नमिता सिंह के घर का माहौल कुछ ऐसा था, ‘पढ़ने का फितूर दादी से लेकर चाचा-बुआ तक। चाचा अंग्रेजी में कविता लिख रहे हैं तो छोटी बुआ हिंदी में कहानी लिख रही हैं और छप रही हैं। बड़ी बुआ इसलिए बदनाम थी कि वह नृत्य सीखती थीं और रेडियो स्टेशन पर अपना संगीत का कार्यक्रम रिकार्ड कराने जाती थीं।’ तभी संभव हुआ कि वह झेंपू-सी लड़की चौथी कक्षा में कविताएं लिखने लगी।
नमिता सिंह के पिता कविता लिखते थे। उनके काव्य-गुरु थे निराला। इस बात की पुष्टि करता है ‘निराला की साहित्य साधना’ का वह पृष्ठ जिसपर रामविलास शर्मा ने लिखी है वह इबारत। नमिता सिंह के पिता का नाम है गिरीशचंद्र पंत। उन्होंने 1928-29 से 1944-45 तक खूब लिखा और वे खूब छपे। इनकी कविताएं उस समय की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं मसलन चांद, सुधा, माधुरी, सरस्वती, संगम, विशाल भारत में लगातार छपती रहीं। एक बार तो ऐसा हुआ कि कोलकाता से प्रकाशित ‘विश्वमित्र’ के एक विशेषांक के मुखपृष्ठ पर गिरीशचंद्र पंत की कविता थी और भीतर के पृष्ठ पर उनके ‘छोटे चाचा’ की कविता छपी थी। छोटे चाचा को घर में ‘नानका’ नाम से पुकारा जाता था। यह छोटे चाचा कोई और नहीं, छायावाद के एक स्तंभ सुमित्रानंदन पंत थे।
नमिता बताती हैं, ‘दसवीं तक आते आते प्रेमचंद और शरतचंद्र पूरे पढ़े जा चुके थे। मौका मिले तो जासूसी दुनिया से लेकर माया, मनोहर कहानियां भी नहीं छोड़ी जाती थीं। मुझे याद है, एक बार दूसरे दिन केमेस्ट्री का टेस्ट था और रांगेय राघव का मोटा उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ हाथ लग गया। रात भर उपन्यास का पारायण होता रहा।’ वे यह भी बताती हैं कि धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ छिपकर पढ़ा, पढ़ते हुए आंसुओं की धार बहती थी।
नमिता सिंह ने लिखा है, ‘मेरे पिता गिरीश चंद्र पंत, जिन्होंने जीवन मूल्य दिए और अलीगढ़, जिसने समाज का चेहरा पढ़ना सिखाया, राजनीति की पर्त-दर-पर्त से वाकिफ कराया। बाइस साल की थी जब अलीगढ़ आ गई थी और टीकाराम गर्ल्स डिग्री कॉलेज जॉइन किया था।’ नमिता सिंह की शादी कुवंरपाल सिंह से हुई। उन्होंने लिखा है, ‘शादी से पहले लखनऊ में अपने घर का वातावरण और शादी के बाद अलीगढ़ का माहौल… दो नितांत भिन्न छोर लग सकते हैं लेकिन मानवतावादी सोच और सबका भला हो जैसी अवधारणा शायद साम्यवाद जैसी ही थी।’ अपने तार्किक विवेक के विकास के बारे में उन्होंने बताया है, ‘बाबू जी आध्यात्मिक व्यक्ति थे। आध्यात्मिकता का जो जीवन-दर्शन पिता से मिला उसने ही शायद मदद की कुंवरपाल के साथ रहते हुए नई सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा को आत्मसात करने में और अपनी सामाजिक गतिविधियों में व्यवहार और चिंतन के स्तर पर संतुलन बनाने में। अम्मा परंपरागत पूजा-पाठ वाली। वह अलग बात है कि धार्मिक आख्यानों पर प्रश्नचिह्न लगाना और तर्कपूर्ण दृष्टि से देखना अम्मा ने ही सिखाया।’
हाजरा आपा से नमिता सिंह की मुलाकात तब हुई जब वे मास्टर्स कर चुकी थीं। उनकी यह मुलाकात उनके मौसा जी के माध्यम से हुई थी। पहली मुलाकात के बारे में वे लिखती हैं, ‘जिस महिला से परिचय हुआ वह हाजरा आपा थीं, डॉ. जेड ए अहमद की पत्नी। डॉ. साहब किसान नेता थे और उस समय राजसभा सदस्य भी थे। हाजरा आपा बेहद खुशमिजाज और आत्मीय। क्षणभर को भी नहीं लगा कि पहली बार मुलाकात हो रही है। वे जन-आंदोलन की तपी तपायी नेता। मैं अभी-अभी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई खत्म कर निकली एक मध्यवर्गीय, सहमी, झेंपू-सी लड़की। एक ही मुलाकात में मेरी झिझक दूर कर अपना बना लिया उन्होंने।’
नई नमिता सिंह की एक लंबी जिंदगी अलीगढ़ में बनी। अलीगढ़ में उनके बनने की कहानी और अलीगढ़ को जानने की कहानी विस्तार से इस पुस्तक में है। इन्होंने आपातकाल, जनवादी लेखक संघ और अंत में ‘वर्तमान साहित्य’ प्रकरण को शामिल करके पुस्तक को महत्वपूर्ण बना दिया है।
जिज्ञासा : आप संस्मरण विधा को किस रूप में लेती हैं? एक-दो बातें ऐसी बताएं जो आप अपनी पुस्तक में लिखने से रह गईं और लगता है कि लिखना था।
नमिता सिंह: संस्मरण किसी भी साहित्य की लोकप्रिय विधा रही है। सिर्फ एक लेखक के संस्मरण शायद पाठक को कुछ विशेष नया न दे पाएं क्योंकि उसकी स्मृतियां ही रचनात्मक लेखन का आधार बनती हैं। अक्सर इन्हें हम रेखाचित्र के रूप में ही पढ़ते हैं। महादेवी वर्मा के रेखाचित्र हों या शिवानी जी के, वे संस्मरण जैसे ही हैं।
क्रांतिकारी शिव वर्मा की ‘संस्मृतियां’ हों या पिछले समय में प्रकाशित कुंवर नटवर सिंह या रॉ के प्रधान रहे ए. एस. दुलत की पुस्तकें। अपने पद पर रहते हुए जो नहीं कहा जा सका, सेवा निवृत्ति के बाद संस्मरणों में वह इतिहास पूरी विश्वसनीयता से दुनिया के सामने आता है। यह एक बड़ी चुनौती है तथा समय के साथ न्याय भी। मैं संस्मरण विधा को इसी रूप में लेती हूँ और इस पुस्तक में मेरी यही कोशिश रही है। यह बड़ा कठिन है, जब लेखक ईमानदारी से अपने समय के उन पृष्ठों को खोले जहां शासन-व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगते हों तथा वे आम धारणा के विपरीत हों। मेरा अनुभव है कि उन्हीं लेखकों के संस्मरण चर्चा में रहे, जिन्होंने बिना किसी लाग लपेट और भय के अपने समय की सचाइयों से पाठक को अवगत कराया।
जिज्ञासा : संस्मरण साहित्य का वर्तमान कितना उर्वर है?
नमिता सिंह: आज का मौजूदा समय जटिल और उलझन भरा है! कभी-कभी असहायता बोध भी होता है! फिर भी मुखर होते प्रतिरोध के स्वर है जो समाज-राजनीति और लेखन तक फैले हैं और ऊर्जा देते हैं। सच है, एक ओर ज्ञानात्मक संवेदना युक्त प्रबुद्ध पाठक वर्ग है तो दूसरी ओर सतही ज्ञान और सूचना रखने वाला संवेदनहीन मध्यवर्ग है जो अवसरवादी है। सत्ता द्वारा भय का ऐसा वातावरण निर्मित हो रहा है कि अच्छे-अच्छे क्रांतिवीर चोला बदलकर डफली बजा रहे हैं। ऐसे में अपने समय को व्याख्यायित करना जोखिम का काम है। इसलिए शायद संस्मरण लिखना कम हो जाए। हालांकि आज के सामाजिक-राजनीतिक माहौल में बेहद संवेदनशील और प्रतिरोध का साहित्य तो लिखा ही जा रहा है। अब संस्मरण तो नहीं, लेकिन इतिहास के पुनःपाठ प्रस्तुत किए जा रहे हैं!
जिज्ञासा : आपकी पुस्तक वर्तमान चुनौतियों से मुखामुखम में कितनी सहायक है?
नमिता सिंह: दरअसल यह पुस्तक कोरोना-काल के उन दो वर्षों में लिखी गई जब जीवन घर की चारदीवारी के भीतर सिमट गया था। किसी अनहोनी की आशंका हरदम रहती थी। आज लिखा जाता तो शायद अधिक योजना-बद्ध रूप से तथा अधिक विस्तार से लिखा जाता। कुछ पाठक-मित्रों ने इस ओर संकेत भी किया है।
अलीगढ़ में, जैसा मैंने जिक्र किया है 1991 में ‘चलो अयोध्या’ आंदोलन के दौरान भीषण दंगे हुए। उसको मुझे विस्तार देना चाहिए था, उसके हम प्रत्यक्षदर्शी थे। दरअसल उसका कुछ हिस्सा मेरे उपन्यास ‘लेडीज क्लब’ का आधार बना। इसलिए मुझे लगा कि यह दुहराव होगा। इसके अलावा इन हालातों में कुंवरपाल जी की क्या भूमिका रहती थी, वे अपने अदम्य साहस और आत्मबल से वह कैसे इन विकट परिस्थितियों से जूझते थे, उसपर भी मुझे चर्चा करनी थी।
हां, अपनी मां के संदर्भ में भी चर्चा करनी थी कि कैसे उन्होंने परंपरागत परिवेश में अंधी आस्था और रूढ़ियों से स्वयं को मुक्त किया और मुझे भी धार्मिक मान्यताओं के प्रति तर्क बुद्धि का इस्तेमाल करना सिखाया। इन सबको समेटते हुए पूरक के रूप में ‘शख्सियतें’ नाम से पुस्तक की योजना बना रही हूँ।
संस्मरण साहित्य की समृद्धि यह भी बताती है कि हर जीवन महान है, निजी की भी सामाजिक सरीखी गरिमा होती है और महावृत्तांतों के समानांतर लघु वृत्तांतों का अपना सौंदर्य होता है। |
संभवतः कोई संस्मरण लिखने के लिए व्यग्र तब होता होगा जब उसे डर लगता होगा कि उसकी पहचान खत्म हो रही है। संभव है, इसी डर ने अखिलेश को मजबूर किया हो। नए जमाने के हिसाब से अभी उनकी वह उम्र नहीं हुई कि वे संस्मरण लिखें। डर और दर्द यह है, ‘मेरे बचपन, यौवन की जगहें भौतिक रूप से मटियामेट कर दी गई हैं।… लखनऊ के खूबसूरत हजरतगंज, महाबली बाजार ने तुम्हारी धजा बदल दी, अजीज दोस्त कॉफी हाउस पूरा जमाना तुम्हारा दुश्मन हो गया, प्यारे इलाहाबाद सरकार ने तुम्हारा नाम बदल दिया, और मेरे हृदय सुल्तानपुर- तुम्हारा भी नाम बदले जाने की कोशिश हो रही है। सत्ता के लोग अपने मंसूबे में कामयाब हो रहे हैं; उनको गुमान हो गया है कि पूरे देश की पहिचान बदल देंगे।’ जाहिर है जिसे हम नहीं पहचानते उसमें हमें अपनी पहचान नहीं दिखती।
पहचानविहीन हो जाने का ही डर है, जिसके कारण हम अपनी नजर को बैकगियर में डालकर ड्राइव करते हैं। अपनी पहचान को अखिलेश संबोधित करते हैं, ‘मेरे सुल्तानपुर, मेरे कस्बे कादीपुर, मेरे गांव और मेरे प्रिय इलाहाबाद, मेरे परिवार के लोगो, मेरे दोस्तो, मेरे जीवन में आए समस्त जन मैं आप सबको याद करता हूँ। आप सब मेरा जीवद्रव्य हो। आपके बिना मेरी एक सांस भी नहीं। दोष देना है तो मेरे आलस्य को दो और उस आपाधापी को दो जिसने आपसे भौतिक रूप से दूर रखा। आपसे ही नहीं, मैं उनके भी कहां नजदीक हूँ जो बिलकुल मेरे पास हैं। मैं सदैव आने वाले वक्त की फिक्र करता रहा; बीते कल और बीत रहे आज के वक्त में जिन्होंने मुझे बनाया, गढ़ा, हमेशा साथ दिया है उनकी दलहीज पर जाने से कन्नी काटता रहा हूँ।’
अखिलेश को जब इसका एहसास होता है उन्हें पिता की याद आती है, ‘पिता इस दुनिया में नहीं हैं मगर मैं अपने एकांत में उनसे अक्सर संवाद करता हूँ; संवाद क्या करता हूँ, माफी मांगा करता हूँ; काश उनके जीवित रहते ज्यादा बातचीत कर पाया होता। वह अधिक नहीं बोलते थे तो क्या हुआ, मैं ही बोलता, उनको हँसाता, उनसे उनके पुराने जीवन के बारे में सवाल करता।’ संस्मरण एक मुकाम पर पहुंच कर कन्फेशन है।
इलाहाबाद अखिलेश के लिए महातीर्थ था। गिरीश चंद्र श्रीवास्तव की अंगुली पकड़ कर वे यहां गए थे। इस महातीर्थ की धड़कन से अखिलेश की लेखकीय दुनिया बनने लगी। पहली बार रवींद्र कालिया से मिले। ऐसे मिले कि मिलने का सिलसिला बन गया। वे लिखते हैं, ‘मेरी साइकिल सबसे अधिक 370 रानी मंडी की दीवार पर टिकती।’ वे एक दूजे के लिए बन गए। उनके जीवन में दूरभाष पर सबसे ज्यादा टॉक टाइम भी रवींद्र कालिया के साथ रहा। अखिलेश को अफसोस है कि लेखकों में ऐसी प्रवृतियों का ह्रास इस स्तर तक हो गया है कि सानिध्य-सुख सूख गया है।
मान बहादुर सिंह की यादें हिंदी काव्य जगत में धूमिल पड़ चुकी हैं। धूमिल से प्रभावित यह एक ऐसा कवि था जो अपने समय में काव्य-समय को प्रभावित कर रहा था। चूंकि मान बहादुर सिंह सुल्तानपुर के थे और कवि थे अखिलेश का उनके प्रति स्वाभाविक आकर्षण था। मान बहादुर सिंह की दिन-दहाड़े हत्या हुई थी, इस वाकया को अखिलेश ने इस तरह से लिखा है कि रघुवीर सहाय की कविता रामदास की हत्या सहज ही कौंध जाती है।
इस पुस्तक का एक रोचक अध्याय डीपीटी, अर्थात देवी प्रसाद त्रिपाठी पर है। वे भी सुल्तानपुर के ही रहने वाले थे। यह वही डीपीटी हैं जिन पर रवींद्र कालिया ने अपनी संस्मरण की पुस्तक गालिब छुटी शराब में एक अध्याय लिखा है। कालिया और डीपीटी दोनों यारवाज थे। अखिलेश ने लिखा है, ‘भारतीय लोकतंत्र के किसी भी दल में हिंदी पट्टी का कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं है जिसमें साहित्य, संस्कृति, समाज विज्ञान के लिए ऐसी गहरी तैयारी, अध्ययन और अर्जन है जैसा कि त्रिपाठी जी में है। डीपीटी जब शरद पवार की पार्टी एनसीपी मे शामिल हुए, तब अखिलेश ने उनकी दूसरी विशेषता पर रोशनी डाली है, ‘एक क्षेत्रीय नेता यदि ऐसी ख्वाहिश (प्रधानमंत्री बनने की) रखता है तो उसके लिए अपरिहार्य आवश्यकता होती है सत्ता के शीर्ष नगर दिल्ली में रहने वाली एक ऐसी शख्सियत की जो राजनीतिक बिसात के खेल में निपुण हो, उसके मीडिया से बढ़िया रिश्ते हों, हिंदी -अंग्रेजी दोनों भाषाओं में दमदार वक्तृता हो, सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से घनिष्ठ रिश्ते हों। जाहिर है त्रिपाठी जी इन कसौटियों पर एकदम सटीक हैं।’ जिन्होंने अखिलेश की कहानी शृखंला पढ़ी हैं, वे इसके रतन पात्र डीपीटी की झलक पा सकते हैं।
यह पुस्तक सुल्तानपुर से निकलकर लखनऊ पहुंचती है। लखनऊ पहुंचकर यह पुस्तक अपने में शामिल करती है मुद्राराक्षस और श्रीलाल शुल्क को, साथ ही अखिलेश लखनऊ के उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में अपनी नौकरी का अनुभव गाथा सुनाते हैं।
अखिलेश ने अपने संस्मरण को अद्भुत ढंग से आख्यान की तरह रचा है। अत: कोई चाहे तो ‘अक्स’ को उपन्यास की तरह भी पढ़ सकता है।
अंत में अखिलेश का यह एहसास भीतर तक छू जाता है, ‘आज स्थिति यह है कि मैं जिस आख्यान का पात्र हूँ उसके पुराने दौर के ज्यादातर दिलकश और केंद्रीय पात्र मर चुके हैं। मेरे पिता, मां, दादी, बाबा, मौसा, मौसी, फूफा, बुआ अब कोई नहीं है, मेरे पिता और मां की पीढ़ी का कोई रिश्ता अब जीवित नहीं बचा है। दूसरी तरह से कहूं, मैं समस्त पुरखों को खो चुका हूँ। आज मैं भी एक पुरखा बन गया हूँ जिसकी नियति है अपनी पीढ़ी की संततियों और उनके बच्चों को छोड़कर चला जाना। इस तरह एक उपन्यास का अवसान होगा।’
जिज्ञासा : अपनी पुस्तक में आप क्या लिखने से रह गए?
अखिलेश: एक-दो नहीं, हर रचना में अनगिनत बातें होती हैं जिनको लिखा जाना हमेशा शेष रह जाता है। उन्हें लिखने के रास्ते में कभी शिल्प रोड़ा बन जाता है, कभी जो बातों की सजावट होती है उसमें किसी-किसी को समुचित जगह नहीं मिलती। फिर भी उनको ठूसठास कर अटा दो तो वे गूमड़ जैसे बेडौल होकर उभरते हैं। इसलिए लेखक उनको नहीं लिख पाता। कभी-कभी लेखक उनको लिखना भूल भी जाता है और बाद में पछताता है। ‘अक्स’ के मामले में भी ये सारी दिक्कतें रहीं।
उदाहरण के लिए मैं प्रख्यात कथाकार अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह आदि पर विस्तार से लिखना चाहता था, किंतु नहीं हो पाया। ऐसा नहीं कि मैं लिखने से चूक गया। संस्मरण तो यादों को लिखने का एक सिलसिला है। आगे कभी, किसी अगली पुस्तक में होगा। मुझे अपने दोस्तों, युवा साथियों पर भी लिखना है। संक्षेप करूं तो यह कि जितना लिखा उससे कई गुना लिखना बचा हुआ है।
जिज्ञासा : आज के संस्मरण साहित्य पर आप क्या कहना चाहंगे?
अखिलेश: संस्मरण साहित्य का वर्तमान हमारे सामने है। जैसे-जैसे समाज में उपेक्षित समुदायों के पास, जिनके बोलने के अधिकार को कुचला गया था, लोकतंत्र और जागरण से शक्ति आती है वे अपने सुख-दुख, वेदना और आक्रोश को कहना शुरू करते हैं। इस तरह वे साहित्य में कथेतर को प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। वे एक प्रकार से लोकतंत्र और आधुनिकता के सशक्तिकरण के पैमाने हैं। संस्मरण साहित्य की समृद्धि यह भी बताती है कि हर जीवन महान है, निजी की भी सामाजिक सरीखी गरिमा होती है और महावृत्तांतों के समानांतर लघु वृत्तांतों का अपना सौंदर्य होता है।
जिज्ञासा : संस्मरणों में क्या वर्तमान चुनौतियों से मुखामुखम हो पाता है?
अखिलेश : संस्मरण साहित्य हो या कोई अन्य विधा, उसकी अपनी संरचना में वर्तमान चुनौतियों से मुखामुखम अथवा विमुख होने के तत्व निहित नहीं होते हैं। बल्कि वह अपने अंतर्गत लिखी गई श्रेष्ठ रचनाशीलता पर निर्भर करती है। कविता, उपन्यास, कहानी किसी को लीजिए उसमें वर्तमान चुनौतियों से पलायन करने वाली, उनकी भ्रष्ट व्याख्या करने वाली रचनाएं मिलेंगी तो सत्ता पर प्रहार करने वाली उसकी किलेबंदी को भेदने वाली रचनाएं भी हैं। ऐसा ही संस्मरण में भी है। यह जरूर है कि संस्मरण, आत्मकथाओं, जीवनी साहित्य आदि में चुनौती मुखर और स्थूल रूप से प्रायः नहीं होती। ऐसा होने पर इन विधाओं की सुंदरता और नैतिकता दोनों नष्ट होने लगती है। दरअसल इनका सामाजिक मूल्य दूसरी तरह से है।
किसी के बारे में अथवा खुद अपने बारे में जब हम लिखते हैं तो समानांतर रूप से उस दौर के बारे में, उस दौर में घटित हो रहे यथार्थ तथा उसके परिवर्तन की आहटों को भी व्यक्त कर रहे होते हैं। हम यूं भी समझ सकते हैं कि संस्मरण के ब्योरे सैंपल की तरह होते हैं जो ऊपरी तौर पर डेटा, व्यक्तिगत अनुभव, मनोरंजन लग सकते हैं लेकिन उनमें वह रचनात्मक ऊर्जा निहित रहती है जिसके आधार पर आप समय और युग की व्याख्या करते हैं। वस्तुतः संस्मरण में एक इंसान की पीड़ा और हर्ष, संघर्ष को जो अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज की स्थिति को भी दर्शाती है। इस तरह संस्मरणों में भी वर्तमान चुनौतियों से मुखामुखम होता है।
विधाएं मरतीं नहीं। कुछ समय के लिए वे ओझल हो सकती हैं, लेकिन अपना रूप बदल कर वे फिर हमारे सामने आ सकती हैं- आ भी जाती हैं, जैसे पुरानी काट के कपड़े। |
अरविंद चतुर्वेद पेशे से पत्रकार हैं। जब वे पत्रकारीय हिंदी से इतर गद्य लिखते हैं, उसका घनत्व और आस्वाद अलग किस्म का होता है। यूं उन्होंने अपनी शुरुआती पहचान कविता से बनाई। पर गद्य के लिए उनका पैशन गहरा है। ‘पहल’ में इनकी कहानियां शाया हुई थीं। हाल में इन्होंने जब ‘कमलनयन का करतब’ लिखा था, खूब दीवाने हुए पाठक इसके। यह करतबी गद्य कई अर्थों में बहुअर्थी है।
अरविंद चतुर्वेद की ताजा पुस्तक है : सतपोखरिया तीरे बोलेला हुंड़ार, जो एक संस्मरण जैसा है। हुंड़ार सियार प्रजाति का एक प्राणी हुआ करता था। अब यह नहीं है। सियार की तरह का यह प्राणी झुंड में नहीं चलता था और न सियार की तरह शोर करता था। इसे लकड़बग्घा भी कहते हैं। अरविंद ने हुंड़ार का रचनात्मक उपयोग एक ओर समय के संदर्भ में किया है तो दूसरी तरफ उन किरदारों के लिए जिनका अस्तित्व भौतिक रूप से अवश्य मिट गया है, मगर उनकी आवाज अब भी गूंजती है आज के गहन मूक समय में।
अरविंद की इस पुस्तक के केंद्र में कर्मनाशा नदी के करीब का एक गांव चरकोनवां है। इसके बारे में अरविंद चतुर्वेद ने लिखा है, ‘ऐसा लगता है कि इस गांव के मूल निवासी चेरो आदिवासी हैं, जिनके आधार पर गांव का नाम चेरो कोना-चेरो कोनवां -चेरोकोनवां हुआ होगा। इस बात की पुष्टि गांव के बीच वाले बगीचे में स्थापित ग्राम देवता चेरो बाबा से भी होती है, जो गांव की सभी जातियों द्वारा पूजित हैं। यों गांव में प्रमुखता चौबे यानी चतुर्वेदी ब्राह्मणों की है, जिनका पारंपरिक पेशा पूजा-पाठ और पुरोहिताई वगैरह नहीं है, सभी खेतिहर किसान हैं और 90 फीसदी से भी ज्यादा जमीनें इन्हीं की हैं। गांव की बाकी आबादी खेत-मजूरी करती है।’ यहीं अरविंद का बचपन और युवा काल का एक अंश बीता।
गांव समझ में तभी आता है जब गांव के बाशिंदों से लिपटी मिट्टी की बू यानी खुशबू और बदबू दोनों वहां के किरदारों के माध्यम से पाठक के जेहन और रोओं में समा जाए। अरविंद ने अपनी स्मृति से ऐसे ही चरित्रों को उठाया है जो गांव को परत-दर-परत खोलते हैं। अरविंद ने मजे-मजे में बताया है कि पड़ोसी गांव के लोग सुबह सुबह इस गांव का नाम लेना पसंद नहीं करते । कहते हैं कि सबेरे-सबेरे इस गांव का नाम लेने से उस दिन ठीक से खाना नहीं मिल सकता।
वे औरतों के नामों की फेहरिस्त देते हुए सामाजिक संरचना की बुनाई उधेड़ते हैं। उन्होंने ‘पगली’ को याद करते हुए लिखा है, ‘आज भी मैं पाता हूँ कि मेरे जीवन में जो थोड़ा बहुत जंगली, आदिवासी स्वाद है, वह पगली की देन है जो अब वास्तव में है नहीं, उसकी बस स्मृति है। अब न तो जंगल बचे हैं, न जंगल का स्वाद बचा है। ’
अरविंद ने बड़े रोचक तरीके से गोवर्धन पाठक को पेश किया है। गोवर्धन वे हैं जो बार-बार ‘हरि इच्छा’ से गच्चा खा जाते हैं। एक बार ‘हरि इच्छा’ लूडो के 99 वाले घर में बैठा सांप साबित तब हुआ जब एक महंथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए आयोजनपूर्वक गेरुआ बाना में त्रिपुंड आदि लगाकर मंच पर बैठाया, तभी ऐन मौके पर सामने बैठे बाहर से आए एक जत्थे में शामिल दो लोगों के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘अरे ई तो हमारे यहां पठकागांव के गोवर्धन पाठक हैं।’ जब धर्म जागरण यात्रा ट्रक-रथ पर उन्हें जलेबी खाने के लिए दिया गया। उनका बाभनत्व जाग गया। वे साथी साधू की ओर इंगित करके बोल पड़े, ‘हम इस धोबी के साथ एक थाली में नहीं खा सकते’। उनका यह बोलना माइक पर प्रसारित हो गया।
अरविंद ने बहुत रोचक तरीके से उस जमाने को याद किया है जब हनुमान चालीसा और महापुरुषों की जीवनी के अलावा स्कूली किताबों के बाहर कोई किताब पढ़ना बहुत बड़ा अपराध था। यह पुस्तक पढ़ने में कहानी या उपन्यास का आनंद देती है। मगर सुविधा के लिए इसे संस्मरण की श्रेणी में डाला जा सकता है, हालांकि इस श्रेणी में यह पुस्तक पूरी तरह सही नहीं बैठती। यहां ‘मैं’ की उपस्थिति है, पर वह आत्मकेंद्रित या आत्ममुग्ध ‘मैं’ नहीं है।
जिज्ञासा: हिंदी में कई विधाएं मर चुकी हैं, ऐसे में रेखाचित्र और संस्मरण का क्या भविष्य है?
अरविंद चतुर्वेद: मुझे लगता है कि विधाएं मरतीं नहीं। कुछ समय के लिए वे ओझल हो सकती हैं, लेकिन अपना रूप बदल कर वे फिर हमारे सामने आ सकती हैं- आ भी जाती हैं, जैसे पुरानी काट के कपड़े। जहां तक संस्मरण की बात है, मैं कहना चाहूंगा कि आज हम जिस वर्तमान में हैं, यह कल संस्मरण बन जाएगा। हम अभी जिस दौर में हैं, उसकी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सबकुछ भुला दिया जाए, स्मृतियों को पीछे धकेल दिया जाए, जबकि स्मृतिविहीनता उस बंजर जमीन की तरह है जिस पर न हरियाली लहरा सकती है और न वर्तमान के फूल खिल सकते हैं। आखिर अपनी जड़ें छोड़ने वाले वृक्षों की नियति ही होती है कि वे उखड़ जाएं।
मुझे हरिवंश राय बच्चन की एक कविता पंक्ति याद आ रही है- जो बीत गई सो बात गई! लेकिन मुझे यह एक रोमैंटिक खयाल लगता है। आखिर उन्होंने ही ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ भी लिखा है। काशीनाथ सिंह के संस्मरणों की किताब ‘याद हो कि न याद हो’ और विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक ‘नंगातलाई का गांव’ को भी कैसे भूला जा सकता है!
जिज्ञासा: संस्मरण हमेशा यह एहसास कराता है कि हमने क्या खोया है। संस्मरण साहित्य समकालीन चुनौतियों से लोहा लेने में कितना सहायक हो सकता है?
अरविंद चतुर्वेद : खोने की हूक हमारे भीतर उठेगी या उठती रहेगी तो शायद लापरवाही या बेपरवाही के बजाय हम चीजों को सहेजने लग जाएं, सहेजने का सलीका आए। यही संस्मरण की सार्थकता है।
जिज्ञासा: आगे क्या लिख रहे हैं।
अरविंद चतुर्वेद: यह सवाल मेरी दुखती रग है। हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले। 1979-80 में तीन महीने मैं मणिपुर के गांवों में रह चुका हूँ। अगर पूरी हो गई तो वह भी संस्मरणों की एक पुस्तक होगी। फिर गांव में बीते बचपन की तरह ही शहरों में बीत रहे जीवन के संस्मरण भी हैं। मेरे स्वभाव की फितरत कुछ ऐसी है कि मैं जगहों को लोगों के मार्फत याद करता हूँ। और, लोग हैं कि उनकी यादें दस्तक देती रहती हैं। एक तरह से ये संस्मरण सिर्फ अतीत से जुड़े नहीं हैं, बल्कि आगे का भी रास्ता बताते हैं।
समीक्षित पुस्तकें
(1) समय सिला पर : एक जीवन यात्रा,नमिता सिंह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : …. (2) अक्स, अखिलेश, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य-399 रुपये। (3) सतपोखरिया तीरे बोलेला हुंड़ार, अरविंद चतुर्वेद, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2024 मूल्य-250 रुपये।
सी–११.३, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता–७००१५६ मो.९४३३०७६१७४