प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
अवधेश प्रधान हिंदी के ऐसे लेखक हैं जो अपने पाठकों को ‘परंपरा की पहचान’ निरंतर कराते रहे हैं। समय-समय पर लिखे उनके लेखों का संग्रह है ‘परंपरा की पहचान’। इसमें वे परंपराओं की आलोचनात्मक यात्रा पर निकलते हैं। इस पुस्तक में तीन खंड हैं : भारतीय नवजागरण का विस्तार; जातीय साहित्य का प्रवाह और परंपरा का संधान। हिंदी की लंबी साहित्यिक परंपरा को जानने के लिए यह एक मूल्यवान पुस्तक है। पाठकों को यह पुस्तक वैचारिक संपदा से लैस करती है, जो इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
अवधेश प्रधान ने ब्रह्मसमाज और आर्यसमाज की सीमाओं को रखते हुए बताया है कि आज का बहुधर्मी भारत स्वामी विवेकानंद के आदर्श पथ का पथिक है। वे यह भी कहते हैं कि आधुनिक भारत ने अपने संविधान में पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की जगह सर्वधर्म समभाव को अपनाया, जो मूलतः विवेकानंद का आदर्श था और गांधी जी के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठित हुआ था। वे याद दिलाते हैं कि यूरोप में जैसा गलाकाटू संघर्ष धर्म और विज्ञान के बीच था, वह भारत में नहीं था। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा इस गलाकाटू संघर्ष से निकली थी। लेखक ने दिनकर की पंक्तियां दी हैं, ‘पश्चिम ने विज्ञान को पाकर जिस चीज को खो दिया, भारत अगर विज्ञान के साथ उस वस्तु को भी कायम रख सके तो इससे कल्याण केवल भारत का ही नहीं, सारे संसार का हो सकता है। … एक हाथ में धर्म का कमल और दूसरे में विज्ञान की मशाल, यही वह कल्पना है जिसे चरितार्थ करके भारत अपने ध्येय में सफल हो सकता है।’
अवधेश प्रधान को 1893 दो कारणों से महत्वपूर्ण साल लगता है। इसी वर्ष विवेकानंद के रूप में नवजाग्रत भारत ने शिकागो में जाकर विजेता पश्चिम के हृदय में अपनी विजय पताका गाड़ी तो एनी बेसेंट के रूप में विजेता पश्चिम स्वयं चलकर आया और उसने पराजित भारत के चरणों में अपना मुकुट निछावर कर दिया। पश्चिम में विवेकानंद के शिकागो भाषण के प्रभाव को विस्तारपूर्वक बताने के लिए शंकरी प्रसाद बसु की छह खंडों वाली किताब ‘विवेकानंद और समकालीन भारत’ के हवाले से उन्होंने एक लंबा लेख लिखा है।
एनी बेसेंट भारत की आजादी की पक्षधर थीं। उन्हें भौतिकवादी इंग्लैंड के मुकाबले अध्यात्मवादी भारत का उत्थान एक आश्वासन-सा प्रतीत होता था। अवधेश प्रधान ने इस ओर ध्यान खींचा है कि स्वामी विवेकानंद के लिए नया भारत एक सुखी, समृद्ध और शक्तिशाली भारत था, जिसका शरीर इस्लामी और मस्तिष्क वेदांती था। एनी बेसेंट के लिए ‘नया भारत शुद्ध हिंदू भारत था। हिंदुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं।’ अवधेश प्रधान ने दिनकर के लंबे उद्धरणों से भारत में हिंदू धर्म की महत्ता की ओर संकेत किया है। एनी बेसेंट सनातन हिंदू धर्म की अनेक मूल धारणाओं की पुनर्स्थापना करती हैं। वर्तमान समय में बहुसंख्यक आबादी के हृदय में हिंदुत्व के लिए जो तीव्र भावावेग पैदा किया जा रहा है, उसके लिए एनी बेसेंट एक बड़ा आयकन हो सकती हैं- यह अवधेश प्रधान बताते हैं।
अवधेश प्रधान को इसका दर्द है कि भारत विभाजन के बावजूद हिंदू- मुस्लिम समस्या का हल नहीं निकला, बल्कि संबंध और अधिक घायल हुए। आज की स्थिति बताते हुए उन्होंने लिखा है, ‘हिंदू-मुस्लिम एकता की समस्या आज की तारीख में अपने जटिलतम रूप में उपस्थित है। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात ने उसे भयावह बना दिया।’ इस समस्या के निदान के लिए वे दिनकर की ओर उम्मीद से देखते हुए लिखते हैं, ‘आज की परिस्थितियों में फिर एक बार तीखे वैचारिक-सांस्कृतिक विमर्श में उतरने की जरूरत है। इस जरूरत के एहसास के साथ कि जो भी इस काम में हाथ लगाएगा, उसे दिनकर जी के संस्कृति-चिंतन से सहायता जरूरी मिलेगी।’
अवधेश प्रधान की नजर इस ओर भी है कि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को परवान चढ़ाने के लिए भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष दृष्टि के विरुद्ध सुनियोजित वैचारिक युद्ध छेड़ दिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि जिन्होंने यह युद्ध छेड़ा है उनमें स्वाधीनता संग्राम और भारतीय नवजागरण की विरासत को सहेजने की न चाहत है और न ही योग्यता। भारतीय विरासत की ओर ध्यान खींचते हुए वे याद दिलाते हैं कि भारत में प्राचीन काल से ही विचारों की स्वतंत्रता रही है। इसलिए राजनीति, काव्यशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद आदि सभी विषयों में विचारों की भिन्नता मिलती है। धर्म और दर्शन में किसी एक विचार, मत या संप्रदाय का दुराग्रह नहीं रहा है।
अवधेश प्रधान ‘नानात्व’ और ‘बहुधापन’ के पैरोकार बन कर खड़े हैं अपनी इस पुस्तक में। इसमें धर्मनिरपेक्षता को लेकर दो वैचारिक छोर उभरते हैं- एक, धुर-दक्षिणपंथी, जिससे कोई सार्थक संवाद नहीं है, दूसरा, धुर-वामपंथी जिससे न केवल संवाद संभव है वरन आवश्यक भी है, क्योंकि वहां भारत की बहुधर्मी-बहुरूपी प्रकृति को लेकर एक गंभीर और उत्तरदायित्वपूर्ण रुख की आशा की जा सकती है। प्रेमचंद के हवाले से उन्होंने वर्तमान संकट को स्पष्ट किया है। प्रेमचंद की पंक्ति है, ‘हिंदुओं में इस वक्त सहिष्णु नेताओं का अकाल है और उनकी जगह शोर मचाने वाले ‘जनता की गंदी भावनाओं’ को उभारने वाले सांप्रदायिक नेताओं ने ले ली है। प्रेमचंद ने ऐसी स्थिति को ‘राजनीतिक दिवाला’ और ‘मनुष्यता का अकाल’ बताया था।
जिज्ञासा : आज की समस्याओं के संदर्भ में अपनी प्राचीन परंपराओं या भारतीय नवजागरण को देखने-परखने की क्या जरूरत है?
अवधेश प्रधान : हमारी आज की बहुत सी समस्याओं की जड़ें परंपरा में हैं। समस्याओं के समाधान के लिए उनको समझना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी परंपरा को ठीक से देखना-परखना चाहिए। हमारी परंपरा इकहरी नहीं है। उसमें निरर्थक कर्मकांड हैं तो उपनिषदों के तेजस्वी विचार भी हैं। जात-पांत, ऊंच-नीच, छुआ-छूत का समर्थन करने वाले ज़हरीले विचार हैं तो मानवमात्र की समानता का उद्घोष भी है। हमें अपनी परंपरा के भीतर मौजूद सड़ी-गली सामंती और प्रतिक्रियावादी मान्यताओं और रूढ़ियों से प्रगतिशील मान्यताओं और विचारों को अलग करके देखना होगा। आज सनातन धर्म के नाम पर भेदभावमूलक मान्यताओं और रूढ़ियों को हवा दी जा रही है। नई चाल के ढोंगी बाबा लोग ‘धर्म संसद’ से मुसलमानों के विरुद्ध घृणा और विद्वेष का खुल्लम-खुल्ला प्रचार कर रहे हैं। ऐसे में भारतीय नवजागरण के स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ जैसे मनीषियों की ओर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है, जिन्होंने उपनिषदों के प्रकाश में धर्म की नई व्याख्या करके धार्मिक विद्वेष और घृणा को दूर किया और राष्ट्रीय एकता की राह बनाई। हमारी परंपरा सर्वधर्म समन्वय की है, जिसे गांधी जी ने सर्वधर्म समभाव का रूप दिया। हमारे संविधान में धर्म संबंधी नियमों पर इसकी गहरी छाप है। मैंने अपनी पुस्तक में स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ, गांधी, भारतेंदु और प्रेमचंद आदि के हवाले से भारत की इस उदार दृष्टि पर बार-बार ज़ोर दिया है। हमें न हिंदू राष्ट्र लादना है, न धर्म का निषेध करना है। इसके बजाय सभी धर्म के अनुयायियों को सर्वधर्म समभाव के रास्ते पर मिलजुल कर आगे बढ़ना है।
उस युग के साहित्यिक मनीषियों ने भी अपना ध्यान देश और समाज की दशा सुधारने की ओर लगाया और इस क्रम में उन्होंने वैज्ञानिक और समाजवादी चेतना का प्रसार किया। पहले खंड में रवींद्रनाथ की रूस की चिट्ठी और राहुल सांकृत्यायन की सोवियत यात्रा पर आधारित लेख विशेष रूप से पठनीय हैं। भारतीय नवजागरण ने हमें अपनी भाषा परंपराओं का गंभीर अध्ययन करने की प्रेरणा दी और अनेक साहित्यकार अपनी भाषा का अध्ययन करते हुए अपने जनजीवन और जनपदों की जड़ों तक जा पहुंचे। उसी से हिंदी में जनपदीय आंदोलन को प्रेरणा मिली तथा लोक भाषा और लोक साहित्य का अध्ययन हुआ और रामविलास शर्मा ने अपना नया भाषा वैज्ञानिक शोध प्रस्तुत किया।
आजकल एक देश- एक भाषा – एक धर्म – एक संस्कृति आदि इकरंगी मान्यताओं का शोर है और वह भी भारतीय संस्कृति के नाम पर। जबकि वेदों के समय से ही हमारे यहाँ ‘एक के साथ बहु की’ प्रतिष्ठा रही है- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति! आज जब हमारे देश की बहुधर्मी, बहुभाषिक पहचान को एक रंग में जबरन डुबो देने की उतावली मची है तब हमें भारत की उस विशेषता को बुलंद करना चाहिए जिसे विविधता में एकता कहा जाता है।
जिज्ञासा : सगुण बनाम निर्गुण की बहस अक्सर सुनी जाती है, उसपर आपका क्या कहना है? हिंदी के जातीय साहित्य प्रवाह के अंतर्गत आप भक्ति काव्य और छायावाद को कैसे देखते हैं?
अवधेश प्रधान : भक्ति काव्य और छायावाद हमारे साहित्य के सबसे ऊंचे शिखर हैं। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा और रसखान जैसी महान कवि प्रतिभाएं न केवल भक्तिकाव्य वरन् हमारी समूची हिंदी साहित्य परंपरा का सुमेरु हैं। इसी तरह आधुनिक युग में छायावाद हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है, जिसमें प्रसाद और निराला जैसी महान प्रतिभाएं हैं। भक्ति काव्य की सामान्य भाव भूमि पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि सगुण और निर्गुण धारा के बीच झगड़ा नहीं, बल्कि संवाद है। इस तथ्य को तुलसीदास ने रामचरितमानस में एक रूपक के माध्यम से समझाया है।
संत समाज रूपी तीर्थराज प्रयाग में तीन धाराएं आकर मिलती हैं। पहली है- सगुण भक्ति की धारा जो गंगा है। दूसरी निर्गुण भक्ति की धारा है- जो सरस्वती है- सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा। गंगा दृश्य है और सरस्वती अदृश्य। वैध और निषिद्ध कर्मों की चर्चा करने वाली धारा यमुना है। कबीर ने एक जगह कहा है- निरगुन मूल सगुन फल फूला। निर्गुण जड़ में है, दिखाई नहीं देता, लेकिन उसी का विकास रंग-बिरंगे फल-फूलों में है। तुलसीदास को भी निर्गुण से बैर नहीं है। बस उनकी रुचि अपने राम पर है यानी सगुण राम पर। उन्हें निर्गुण की तुलना में सगुण अधिक सुंदर प्रतीत होता है- फूले कमल सोह सर कैसा, निर्गुण ब्रह्म सगुण भए जैसा।
नाम और गुरु की महिमा दोनों धाराओं में है। ज्ञान की तुलना में भक्ति या प्रेम की श्रेष्ठता दोनों को मान्य है। मैंने इन दोनों धाराओं का विवेचन करते हुए भक्ति काव्य की सर्वसामान्य भावभूमि और उनके परस्पर संवादी स्वरूप पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है।
जिज्ञासा : हिंदी में सगुण और निर्गुण की तरह लोक और शास्त्र को भी परस्पर विरोधी वर्गों में रखकर देखा जाता है। ‘परंपरा की पहचान’ में इस तरह के दृष्टिकोण की क्या भूमिका है?
अवधेश प्रधान : हिंदी में सगुण बनाम निर्गुण, तुलसी बनाम कबीर जैसी बहसें तो पहले से ही थीं, लेकिन उनके साथ-साथ शास्त्र बनाम लोक जैसी बहस को एक मुकदमे की तरह चलाने और जारी रखने की प्रेरणा ‘दूसरी परंपरा की खोज’ से मिली।
ऐसे विचारक तुलसी और रामचंद्र शुक्ल को शास्त्र के खेमे में डाल देते हैं और कबीर और हजारी प्रसाद द्विवेदी को लोक के खेमे में। इस तरह की खेमेबाज़ी से बहुत नुक़सान हुआ है। हमारी परंपरा में लोक और शास्त्र परस्पर विरोधी न होकर परस्पर संवादी हैं। धर्म, समाज, भाषा, साहित्य संगीत- किसी भी क्षेत्र में देखिए आपको इसके प्रमाण मिल जाएंगे। कबीर आदि संतों की बानी में उपनिषदों के विचार झलक मारते हैं तो तुलसीदास के यहां जगह-जगह लोकजीवन और लोकसंस्कृति की छाप मिलती है। कालिदास के मेघदूत में उज्जयिनी और अलका के नागर चित्र ही नहीं मिलते, वनों, पर्वतों, नदियों और खेतों के बीच लोक संस्कृति के भी दर्शन होते हैं।
मैंने इस पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन और भिखारी ठाकुर, वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि के प्रसंग में इस पर कुछ बातें कही हैं।
वैभव सिंह की नवीनतम किताब है : रवींद्रनाथ टैगोर : उपन्यास, स्त्री और नवजागरण। इस किताब में लेखक का प्रस्ताव है कि हिंदी आलोचना के विकास के लिए यह जरूरी है कि वह केवल हिंदी साहित्य ही नहीं, समूचे भारतीय साहित्य की महान धरोहरों को अपने चिंतन के दायरे में ले आए।
यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण पहल है। लेखक के ऐसा कहने के पीछे केवल हिंदी आलोचना की चिंता नहीं है। वह घोषणा करता है- ‘वर्तमान में देश में उग्र सांप्रदायिकता एवं कट्टरपंथी विचारों की जो गर्म हवा बह रही है, उसके बीच टैगोर के उपन्यासों में निहित आधुनिकतावादी व मानवतावादी स्वरों को हिंदी पाठकों तक पहुंचाने के लिए इस पुस्तक की रचना की गई है।’
यह तेज गर्म हवा का दौर है। उसे शांत करना लेखक का एक मकसद है। इस बड़े मकसद को साधने के लिए लेखक ने बांग्ला नवजागरण की आखिरी महत्वपूर्ण कड़ी रवींद्रनाथ के उपन्यासों का विवेचन किया है। इस विवेचन में स्वाभाविक रूप से बंकिमचंद्र भी शामिल हैं। प्रसंगवश शरतचंद्र हैं तो प्रेमचंद भी हैं।
विवेचना में गांधी भी अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं। विचार के स्तर पर रवींद्र और गांधी दो ध्रुव पर होते हुए भी साथ-साथ हैं। दोनों ही ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के निर्माण के लिए चिंतित थे और काम भी उसी दिशा में कर रहे थे। दोनों ही ‘आंतरिक व्याधि’ को पहले ठीक करने की बात करते हैं। नेहरू भी आते हैं जो गांधी के बजाय अपने को टैगोर के करीब पाते हैं। आशीष नंदी के हवाले से वैभव सिंह ने इसकी पुष्टि की है।
रवींद्रनाथ ने जब उपन्यास लिखना शुरू किया, वह दौर बंकिमचंद्र के ऐतिहासिक उपन्यासों का था। वे गर्म हवा के दूतों में एक थे। बंकिमचंद्र ने एक सशस्त्र-सैन्यवादी हिंदू धर्म की प्रस्तावना की थी, जो उदारता, प्रेम, कलात्मकता तथा संगीतमयता से मुक्त हो तथा आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य हिंसा करने में सक्षम हो। जातीय रक्षा के लिए वे शौर्य-पराक्रम को एक अनिवार्य गुण मानते थे। वे सशस्त्र छापेमारी और सशस्त्र प्रतिरोध की पेशकश करते हैं। रवींद्रनाथ अपने आरंभिक किरदारों के माध्यम से कुछ समय बंकिमचंद्र के छाये में थे।
रवींद्रनाथ ने अपने एक यहूदी मित्र से कहा था कि अगर इतिहास केवल क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया तथा हिंसा से संचालित होगा तो मानवता के विनाश को कोई रोक नहीं सकता।
इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में यह विस्तार से बताया गया है कि रवींद्रनाथ कैसे बंकिम चंद्र से अपने को अलग करते हैं। इसके लिए लेखक ने अपना पक्ष उनके उपन्यास ‘गोरा’ और ‘घर और बाहर’ के माध्यम से रखा है। यह भी बताया है कि रवींद्रनाथ ने ‘जन गण मन’ लिखकर बंदेमातरम की अवधारणा से आगे बढ़कर देश की अवधारणा को देवी- देवताओं से भी मुक्त किया था।
रवींद्रनाथ का लेखन तीन कालखंडों की चेतना से संवाद करता है। राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र और महात्मा गांधी। वैभव सिंह ने बताया है, ‘अंग्रेजों के लिए तीखा विरोध, समाज के निम्नवर्ग के प्रति प्रेम तथा मुस्लिम समाज के प्रति उदारता का भाव एक साथ मौजूद है। … मुस्लिम के मुद्दे पर टैगोर के उपन्यास सामासिक संस्कृति व समावेशी उदारता के पक्ष में खड़ा है।’
अपनी इस पुस्तक में वैभव सिंह ने उपन्यासों के माध्यम से रवींद्रनाथ के दौर में नए बनते भारत का लेखाजोखा रखा है। एक भारत वह है जिसे बंकिमचंद्र बना रहे थे तो दूसरा भारत वह है जिसे रवींद्रनाथ बना रहे थे। बंकिमचंद्र मिलिटेंट हिंदू भारत गढ़ रहे थे तो रवींद्रनाथ न्यायसंगत और तर्कपूर्ण भारत की नींव रख रहे थे। वैभव सिंह ने बताया है, ‘टैगोर ने अपनी उपन्यास-कला को आगे चलकर बंकिम से मिले उपन्यास-दर्शन से मुक्त रखा और सेकुलर-इहलोकवादी नजरिये से समकालीन और जीवन के नितांत साधारण विषयों पर उपन्यास लिखने का जोखिम उठाया। …उनके उपन्यास बंकिम की पीढ़ी के बाद बंगाल में फैली नई राजनीतिक चेतना तथा उसके प्रभावों से उपन्यासों के राजनीतिकरण के ऐतिहासिक सत्य को प्रकट करते हैं।’
‘1910 में प्रकाशित ‘गोरा’… किसी समेकित-समावेशी राष्ट्र को रोमानी-यथार्थवादी कथानक के माध्यम से तर्कसंगत-न्यायसंगत आवश्यकता के रूप में स्थापित करता है।’ – वैभव सिंह ने यह भी रेखांकित किया है।
वैभव सिंह का यह कथन भी उल्लेखनीय है, ‘घरे – बाइरे’ के कथानक के केंद्र में स्वदेशी आंदोलन, उग्र विरोध की राजनीति का विवादास्पद चित्रण ही है। … ‘घरे-बाइरे’ में निखलेश उग्र राष्ट्रवाद के भीतर पनप रही मुस्लिम विद्वेष की राजनीति का निरंतर विरोध करता है।’
बंकिम ने शास्त्र की जगह शस्त्र को महत्व दिया था। वैभव सिंह लिखते हैं, ‘अपने उपन्यास ‘मृणालिनी’ में उन्होंने शास्त्रों पर निर्भरता को हिंदू पराजय का मुख्य कारण बताया है।… वे मृणालिनी के माध्यम से राजनीतिक शक्ति को उभारते हैं। शास्त्रों को जलाने का प्रसंग रचते हैं। ब्राह्मणों को मिलिटेंट शक्ति बनाते हैं। इस तरह उपन्यासों का शस्त्रीकरण भी किया उन्होंने।’
वैभव सिंह का कहना है : ‘बंकिम की तरह टैगोर इतिहास का ज्ञान विश्वविद्यालय से सीखकर नहीं आए थे, जो अंततः इंसान को आधुनिक राष्ट्रप्रेम के नाम पर संकीर्ण चेतना का शिकार बनाते थे। …टैगोर को उपन्यासों के रूप में बंकिम से जो परंपरा मिली, उसमें राजसत्ता के लिए हिंदू-मुस्लिम टकराव तथा धार्मिक चेतना की व्याप्ति है। … लेकिन मानवतावाद की ओर अधिक झुके हुए टैगोर की इतिहास-दृष्टि छल-कपट से भरी राजनीति के नीरस दायरों से बाहर जाकर प्राणवान सभ्यता-संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करती है। उनमें मानवोपयोगी पवित्र मूल्यों और आदर्शों की चिंता अधिक है। सुधारवादी और आधुनिक दृष्टिकोण के कारण इतिहास को मुस्लिम विद्वेष का हथियार बनाने की चेष्टाएं नहीं हैं।’
वैभव सिंह का अध्ययन यह भी बताता है : ‘टैगोर के उपन्यास भारतीय उपमहाद्वीप में पितृसत्ता के जटिल नियम-कायदों, परंपराओं और घरेलू संकीर्णताओं के बीच जीवनयापन करती स्त्रियों को मानवतावादी दृष्टि से देखने के अप्रतिम उदाहरण हैं।… वे (स्त्रियां) पुरुषों से सम्मान व स्वीकृति पाने की आकांक्षा रखने वाली किरदार हैं।…टैगोर ने परिवार की सीमा के भीतर पत्नियों के साथ दुर्व्यवहार तथा उनकी इच्छाओं के अहंकारपूर्ण दमन के सच को व्यक्त करने में खासी रुचि प्रकट की है।… उनके (टैगोर) उपन्यास की स्त्रियां परिवार के दायरे में जीते हुए अपनी वासनाओं और प्रेम संबंधों की चाहत को छिपाती नहीं हैं। …घर-परिवार अब नए स्पेस हैं जहां स्त्री-वैयक्तिकता व यौनिकता के उन्मुक्त आयाम विकसित हो रहे हैं और घर का अंत:पुर नए ढंग से इवाल्व हो रहा है। …टैगोर औरतों को वह व्यक्तित्व प्रदान करते हैं जो उन्हें बंकिम के उपन्यासों में हासिल नहीं हुआ था।’
टैगोर के समकालीन शरतचंद्र के उपन्यासों में विधवा विवाह के प्रसंग नदारद हैं। टैगोर के उपन्यासों में भी ‘शेषेर कविता’ और ‘चतुरंग’ के अतिरिक्त विधवाओं का पुनर्विवाह कहीं और नहीं दिखाया गया है। विधवाओं की जीवन दशा को चित्रित करने वाले अधिकांश उपन्यास विधवाओं की मृत्यु को स्वाभाविक मानते हैं। राजुल सोगानी के हवाले से वैभव सिंह ने बताया है कि उपन्यासों में लगातार यही दोहराया गया है कि विधवाओं को अपनी दैहिक इच्छाओं को दबाकर उनका उदात्तीकरण कर लेना चाहिए।
अंत में वैभव सिंह ने रवींद्रनाथ के लेखन में स्त्री-पुरुष के संबंधों में आ रहे परिवर्तन पर गौर करते हुए लिखा, ‘बंगाल में जब स्त्री-अधिकारों की चर्चा आरंभ हुई तो पौरुष की यह धारणा टूटी कि स्त्री को कमजोर बनाकर रखने से पुरुष की गरिमा तथा शक्ति प्रमाणित होती है। इसी के साथ यह भ्रांति भी टूटने लगी कि रोमांस और प्रेम में केवल पुरुष ही व्यक्ति (सबजेक्ट) है और स्त्री केवल एक वस्तु है, जो पौरुषपूर्ण भावनाओं की उच्चता तथा उच्छृंखलता दोनों को सार्थक बनाती है।’
वैभव सिंह की यह किताब न केवल रवींद्रनाथ के उपन्यासों का विवेचन करती है, करवट बदल रहे एक खास समय का भी अध्ययन करती है।
जिज्ञासा: रवींद्रनाथ टैगोर के ऊपर पुस्तक लिखने की आपको क्यों जरूरत महसूस हुई?
वैभव सिंह: मेरे विचार से टैगोर के उपन्यासों का आज भी सभी भाषाभाषी पाठकों के लिए विशेष महत्व है, क्योंकि वे स्त्री-मुक्ति, नवजागरण की चेतना, समानतावादी विचारों तथा उदार राष्ट्रीयता के साहित्यिक रूपकों का निर्माण करते हैं। उपन्यासों के बारे में कहा जाता है कि वे एक साझे धरातल का निर्माण करते हैं, जिसमें सभी वर्ग, पृष्ठभूमि, पहचान के चरित्रों को अपनी बात कहने का मौका मिलता है। यह ‘साझा धरातल’ एक साझे राष्ट्र का औपन्यासिक प्रतिबिंबन भी हो सकता है। टैगोर के उपन्यासों में भी गरीब-अमीर, क्रांतिकारी, साधारण, उपेक्षित, दीन-दुर्बल, शक्तिशाली सभी किस्म के चरित्रों का सघन संसार उपस्थित है, जो बंगाल के साथ-साथ देश की भी तत्कालीन दशाओं एवं उसकी दिशाओं का सूचक है। टैगोर के उपन्यास रोचक आख्यानों और विवरणों के जरिए सहयोग, संवाद तथा वैचारिक सहिष्णुता पर आधारित समाज के स्वप्न को पैदा करते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के बांग्ला गद्य का सबसे प्रीतिकर रूप भी उनके उपन्यासों में प्रकट हुआ था। उनकी कविताएं ही नहीं, उनका चेतनासंपन्न गद्य भी ऐसे अप्रतिम जगत में ले जाता है जहां अध्यात्म, आदर्श और कठोर यथार्थ सब एक संग उपस्थित हैं। यथार्थ की ऊबड़-खाबड़ भूमि वहाँ है, साथ ही उच्चतर मानव-चेतना भी है, जो पाठक के ह्रदय का उदात्तीकरण कर सकती है।
जिज्ञासा: हिंदी में उपन्यास आज भी बहुत लिखे और पढ़े जा रहे हैं। आपके मत से हिंदी उपन्यासों की शक्ति एवं सीमा क्या है?
वैभव सिंह: हिंदी उपन्यास वर्तमान में हिंदी जगत में लोकप्रिय होने के साथ-साथ अन्य भाषाओं में भी अनुवाद के माध्यम से तेजी से पहुंच रहे हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि उपन्यास विधा में देश की वर्तमान दशा की अभिव्यक्ति अधिक गहनता से हो रही है। दूसरा यह कि उपन्यास विधा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक पुरस्कृत किया जा रहा है, जैसा कि हाल ही में ‘रेतसमाधि’ को बुकर सम्मान प्राप्त हुआ है। हिंदी में पिछले वर्षों में कई श्रेष्ठ उपन्यास भी रचे गए हैं, जैसे ‘रह गईं दिशाएँ इसी पार’ (संजीव), ‘दस द्वारे का पिंजड़ा’ (अनामिका), ‘कुलभूषण का नाम दर्ज हो’ (अलका सारावगी), ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ (रणेंद्र), ‘ढलती सांझ का सूरज’ (मधु कांकरिया), ‘उपसंहार’ (काशीनाथ सिंह), ‘बा’ (गिरिराज किशोर), ‘कीर्तिगान’ (चंदन पांडे) आदि। हिंदी भाषा की लोकप्रियता और उसका भविष्य श्रेष्ठ उपन्यासों की रचना पर ही टिका है।
उपन्यासकार के ऊपर केवल भाषा के सही उपयोग का दायित्व नहीं होता है, बल्कि एक विशेष भाषा को दूरदराज के इलाकों तक लोकप्रिय बनाने का भी अघोषित जिम्मा होता है। उपन्यास और भाषा का यह संबंध वैश्विक स्तर पर काम करता है। इस वर्ष नार्वे के लेखक जॉन फासे को नार्वेजियन भाषा के जिस विशेष रूप में उपन्यास और नाटक लिखने के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया है, उस भाषा को मुश्किल से पांच लाख लोग ही बोलते और लिखते हैं। पर उन्होंने उसी भाषा में निरंतर लिखा तथा उस भाषा में लेखन के पीछे उस भाषा को यूरोप-अमेरिका तक पहुंचाने की स्वाभाविक आंतरिक प्रेरणा का भी उल्लेख किया है।
अब उपन्यास-विधा का अधिक राजनीतिकरण तथा अकादमीकरण हो गया है, जो उसकी प्रासंगिकता के लिए चुनौती है, क्योंकि इससे उसका परंपरागत पाठक वर्ग छिटक रहा है। विगत एक दशक में डिजिटल क्रांतियों ने मोबाइल की स्क्रीन का आकार बढ़ाया है और उसपर अधिक दृश्यों तथा रील्स को देखना आसान कर दिया है। इसने ‘साइलेंट रीडिंग’ की पूरी परंपरा, जिससे उपन्यास का गहरा संबंध था, लुप्त हो जाने का खतरा पैदा कर दिया है। पर नई स्थितियों में, जहाँ अधिक शिक्षा और जागरूकता बढ़ रही है, उपन्यास के लिए अधिक संभावनाएँ हैं कि वे नए पाठक वर्ग का भी निर्माण कर सकें। उपन्यास आज भी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है।
जिज्ञासा: हिंदी उपन्यासों में स्त्री प्रश्न किस प्रकार से उठाए जा रहे हैं?
वैभव सिंह: स्त्रियों के द्वारा हिंदी में काफी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। कई लेखिकाएं, जैसे अलका सारावगी, अनामिका, नीलेश रघुवंशी, मधु कांकरिया, वंदना राग, गीताश्री आदि निरंतर उपन्यास रचना में संलग्न हैं। इन लेखिकाओं के अधिकांश उपन्यास उस स्त्री मानस की अभिव्यक्ति हैं जिसे पितृसत्ता, परंपरा व स्वार्थपूर्ण बाजार-व्यवस्था के अन्यायों से निरंतर टकराना पड़ता है। पर एक सकारात्मक बात यह है कि स्त्री रचनाकार इस प्रचलित मान्यता को तोड़ रही हैं कि स्त्रियाँ केवल स्त्री समस्याओं पर ही लिख सकती हैं। यह माना जाता है कि स्त्रियों के पास चूंकि कोई तटस्थ सामाजिक चेतना, बौद्धिकता और स्वतंत्र जीवन नहीं होता, इसलिए वे केवल वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति के लिए उपन्यासों का प्रयोग करने के लिए बाध्य होती हैं। पर आप इन लेखिकाओं के उपन्यास पढ़ेंगे तो पाएंगे कि वे अब ‘पर्सनल इज पालिटिकल’ के स्त्रीवादी नारे के अर्थों का विस्तार कर रही हैं। वे किसान आत्महत्या, विभाजन तथा सांप्रदायिकता जैसी जटिल समस्याओं पर बहुत बौद्धिक प्रखरता से लिख रही हैं और उन्हीं विषयों के मध्य स्त्रीत्व, स्त्री-चेतना तथा स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को भी बदलते समाज के संदर्भ में अभिव्यक्त कर रही हैं।
रश्मि रावत के हर लफ्ज में समानता की मांग है। इनके यहां यह बोध है कि असमानता दोजख की सीढ़ियां हैं। ये सीढ़ियां आबादी के बड़े हिस्से को खाई में उतारती हैं, जहां से अब निरंतर बुलंद आवाज की जरूरत है। रश्मि रावत ऐसी जरूरत को भरपूर आवाज देने वाली एक कलमकार हैं।
उनकी नई किताब है : हाशिये की आवाज –स्त्री अनुभव के आर–पार। मगर यहां न केवल स्त्री की आवाज है और न केवल स्त्री के लिए आवाज है, बल्कि यह उन सबके लिए है जिनकी आवाजों पर पहरा है। रश्मि रावत की यह पुस्तक ‘सबलोग’ और ‘रविवार डाइजेस्ट’ के स्तंभों में छपे विचारपूर्ण लेखों का संग्रह है। यह पुस्तक उनकी व्यथा का दस्तावेज है।
वे लिखती हैं, ‘हाशिये का अर्थ है दलित, स्त्रियां, आदिवासी, श्रमिक और निर्धन वर्ग, खानाबदोश, बंजारे, एलजीबीटीक्यू समुदाय, जिन्हें प्रकृति-प्रदत्त सुविधाएं और नैसर्गिक अधिकार भी नसीब नहीं। मानवाधिकारों और लोकतंत्र का दायरा इस हाशिये से पहले ही खत्म हो जाता है। इतिहास भी इनके बारे में खामोशी बरतता है।’
रश्मि रावत आभार मानती हैं नव-पूंजीवाद के नए सूचना-माध्यमों का, जिनके माध्यम से वंचित समुदायों ने शताब्दियों की चुप्पी तोड़कर बोलने की शुरुआत की है और सभ्यता का चेहरा उद्घाटित किया है। दरअसल विद्रोह की बड़ी लंबी भारतीय परंपरा है। नए सूचना-माध्यमों ने मुखर होने का बड़ा अवसर दिया है तो बेड़ियों में जकड़ने का जाल भी बुना है। लेकिन रश्मि रावत का यह कहना सही है कि हाशिये में धकेले हुए लोगों की आवाज को अनसुना करने का ताब अब किसी में नहीं है।
रश्मि रावत का यह सवाल वाजिब है कि क्या स्त्री विमर्श ने ऐसा पुरुष गढ़ा है जो नई बनती हुई स्त्री का सहचर हो सके? वे पूछती हैं कि क्या दलित विमर्श समानता के आचरण को जीने वाले नए मानव गढ़ सका है? असमानता और अपराध की अंत:सलिला को देखते हुए वे यह कहने को विवश होती हैं कि धर्म, साहित्य और कला मनुष्य को रचने में असफल रहे हैं।
रश्मि रावत की चिंता एक समतामूलक समाज बनाने की है, तभी वे पूछ सकी हैं कि ऐसा समाज बनाने में अस्मितावादी लेखन का प्रभाव कितना सकारात्मक रहा है? वे लिखती हैं, ‘आंखें खुली हों तो देखना मुश्किल नहीं कि हमारे इर्द-गिर्द के जीवन में विषमता को अपनी त्वचा पर झेलते बेशुमार लोग हैं।’ वर्ण-वर्ग वैषम्य के साथ-साथ सांप्रदायिकता, जातिवाद और पितृसत्ता उनकी चिंता के दायरे में हैं। वे जातिवाद और पितृसत्ता को एक ही थाली के कसैले व्यंजन के रूप में देखती हैं। उन्होंने लिखा है, ‘पितृसत्ता और जातिवाद के दमन को एक दूसरे से अलगाया नहीं जा सकता।’ ऐसा लिखते हुए उन्हें राममनोहर लोहिया की याद आती है, जिन्होंने कहा था कि योनि और जाति इस देश के दो बड़े कटघरे हैं। साक्षी को पत्र लिखते हुए रश्मि रावत ने लिखा है, ‘साक्षी, तुमने तो इन दोनों ही कटघरों को छेड़ा है, जिसमें कैद रहने को ही कूढ़मगज लोग अपना स्वर्ग समझते हैं।’
रश्मि रावत का मूल सरोकार स्त्री है और चुनौती पितृसत्ता। वे इस बात पर गौर करती हैं कि पितृसत्ता एक दमित को दूसरे दमित के खिलाफ या एक दमित समुदाय का इस्तेमाल दूसरे दमित समुदाय के खिलाफ कैसे खड़ा करती है। साक्षी को चिट्ठी में लिखा है, ‘पितृसत्ता स्त्रियों को अपने हाथ की कठपुतली बनाकर अपने एजेंडे पूरी करती है। स्त्रियां जितनी बखूबी ये काम करती हैं उतनी ही पुरस्कृत और प्रशंसित होती हैं। तुमने देखा ही होगा कि किस तरह घरनारी की आंखें गृहपुरुष की आंखों से मिली- सी होती हैं।’ एक दूसरी टिप्पणी ‘दुर्दांत हिंसा’ में वे जो लिखती हैं, उससे उनकी पीड़ा समझी जा सकती है, ‘2019 में किसी (दलित) की बारात रोकने के लिए सड़क पर बैठ कर भजन-कीर्तन करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में औरतें (अगड़ी जाति की औरतें) कैसे तैयार हो गईं, इस बात ने काफी हैरान और विचलित किया। इन औरतों ने, जिन्होंने खुद शोषण झेला है, उपेक्षित रहने की पीड़ा से वाकिफ हैं, उनके मन में भी दलित जाति के प्रति इतना विद्वेष होना चकित करता है। … सवर्ण पुरुष वर्ग इसी तरह वंचित समुदायों को एक दूसरे के बरक्स खड़ा करके खुद सत्ता और संसाधन का उपयोग करता है।’
जिज्ञासा:‘हाशिये की आवाज’ नानी को समर्पित है। कोई खास वजह?
रश्मि रावत: नानी घर का अभिन्न सदस्य थीं – बेहद खूबसूरत, सलीकेदार और अपार करुणा से भरी। उनका सान्निध्य सबको अच्छा लगता और समृद्ध बनाता था।
मगर पितृसत्तात्मक समाज में उनके तमाम गुण वैसे ही निरर्थक रहे जैसे गणित में आगे कोई संख्या न होने पर शून्यों का ढेर।
उनके पति ने शादी के एक-दो साल के भीतर ही एक अन्य स्त्री की ओर आकर्षित हो कर उनसे विवाह किया और पहली पत्नी तिरस्कृत होकर मुफ्त की कामगार रह गईं। उनके पति द्वारा मामूली बीमारी में उन्हें उनकी बेटी यानी मेरी मां के घर भेजकर हमेशा के लिए भुला दिया गया।
घर में उनके सम्मान और कद्र में कमी नहीं थी, लेकिन हमारे विषमतामूलक समाज में अधिकतम सम्मान भी पितृसत्ता की मूल्यवत्ता की पटरी से उतरी हुई स्त्रियों के लिए चुटकी भर ही साबित होता है। अधिकारविहीन, कर्तव्यपरायण नानी महज एक पंचिग बैग रह गईं।
यह समझने में चार दशक लगे कि जाने-अनजाने वे वाचिक-मानसिक दवाबों की अंतिम पनाह बन गई थीं। यह पहले समझ पाती तो वे गरिमामय जीवन जीतीं और हम भी घर-बाहर पंचिग बैग बनने से बचे रहते। त्रिभुज में ऊपर स्थित लोग भी अधिक मानवीय, संवेदनशील होते। उस लड़ाई के चूक जाने से हमारी जिंदगी भी क्षत-विक्षत होती रही। अब जीने का यही मकसद है कि समय रहते इतिहास के जिंदा सिपाहियों की कहानियों, खामोश कुर्बानियों को लिखती जाऊं।
जिज्ञासा:‘हाशिये की आवाज’ अकादमिक और बौद्धिक दायरे से बाहर निकलकर कुछ कहने की कोशिश है। आप क्या सोचती हैं ?
रश्मि रावत : आप सही कह रहे हैं। वे मेरे लिए अकादमिक और बौद्धिक दायरे के प्रश्न नहीं, जीवन के सवाल हैं। एक नागरिक या व्यक्ति की तरह जिंदा रहना हर एक का हक़ है। संविधान में बचपन से पढ़ते और खुद को मानते आए हैं – ‘हम भारत के लोग’ मगर समझ बढ़ने के साथ लगने लगा कि ‘लोग’ और ‘लोग’ में बहुत फर्क है। हमारा ‘लोग’ सत्ताप्राप्त ‘लोग’ के बृहत गोल के नीचे सरकाया गया छोटा-सा गोला है। हमारी सारी ऊर्जा, सारी प्रतिभा उसी बड़े ठस्स वृत्त को फौलादी मजबूती देने में जाया होती है। इस बोध के बाद घर-बाहर के परिवेश के सामंती-पूंजीवादी दायरे चुभने लगते हैं। उससे बाहर आने की कोशिशों से दृष्टि विकसित हुई तो उन लोगों से एकता महसूस होने लगी जो मानवोचित जीवन से निरंतर बेदखल किए जाते रहते हैं। अपने भीतर की आवाजों को उनके सान्निध्य में प्राप्त जीवनानुभवों के सहारे कागज में उतार दिया बस। शैली के बारे में तो पहले भी नहीं सोचा और आज भी नहीं जानती।
जिज्ञासा: कहानी की आलोचना आप लिख ही रही हैं क्या आगे कहानी लिखने का भी इरादा है?
रश्मि रावत: अगर कभी आंतरिक प्रेरणा से ऐसा हुआ तो अवश्य ही। लेकिन ऐसा कोई सचेत प्रयास फिलहाल नहीं कर रही हूँ। जो कहने के लिए संवेदना तैयार न हो, उसे कहना मेरे औचित्यबोध के विरुद्ध है। कच्ची कहानियों के पात्र अक्सर मानवीय गरिमा का उल्लंघन करते दिखते हैं।
समीक्षित पुस्तकें :
(1) परंपरा की पहचान : अवधेश प्रधान, प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, 2023 (1) रवींद्रनाथ टैगोर : उपन्यास, स्त्री और नवजागरण : वैभव सिंह, वाणी प्रकाशन,दिल्ली, 2022 (2) हाशिये की आवाज : रश्मि रावत, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022
सी–११.३, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता–७००१५६ मो.९४३३०७६१७४