प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।

 

सुवीरा जायसवाल इतिहासकार हैं। इन्होंने लगभग तीस वर्षों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्यापन किया है। इससे पहले उन्होंने लगभग नौ वर्षों तक पटना विश्वविद्यालय में पढ़ाया था। इन्होंने सामान्यतः जातिवाद, ब्राह्मणवाद और दलित समस्या पर अपना फोकस रखा।

स्वतंत्रतापूर्व भारत की तरह ही स्वतंत्र भारत में भी इतिहासकारों और समाजविज्ञानियों की बौद्धिक भाषा सहज रूप से अंग्रेजी रही है जिसके कारण हिंदी पाठकों से उनकी स्वाभाविक दूरी और अपरिचय बन जाता है। अभी उनके छह लेखों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। ‘सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : दलित समस्या की ऐतिहासिक जड़ें तथा कुछ अन्य निबंध’। इस संग्रह में लेखों का संकलन और संपादन रंजन आनंद ने किया है।

इस पुस्तक में‘दलित अस्मिता और एजेंडा जाति विनाश का’, ‘भक्ति द्राविड़ उपजी: वैष्णव धारा में रामभक्ति का सामाजिक आधार (आलवारों से तुलसी तक)’, ‘विष्णु के अर्धपशु अर्धमानव अवतार: नरसिंह और हयग्रीव’, ‘वैदिक ग्रथों में नारी की संरचना’ तथा ‘हिंदू धर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा हिंदुत्व की राजनीति’ शामिल हैं। इस पुस्तक का संयोजन इस तरह किया गया है कि सुवीरा जायसवाल के अध्ययन के सभी फलक आ जाएं। इस दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

सुवीरा जायसवाल ने जाति के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था में दलित और स्त्री-संदर्भों की परतें खोली हैं, साथ ही भक्ति के विश्लेषण के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था और उसमें निहित तनावों को भी रेखांकित किया है। रंजन आनंद ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘इस संकलन में सम्मिलित सभी छह निबंध एक-दूसरे से इस अर्थ में जुड़े हैं कि ये सभी किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में उच्च जातियों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक वर्चस्व को अक्षुण्ण रखने की प्रक्रिया का खुलासा करते हैं, ताकि इसे देने वाली हर चुनौती को असफल किया जा सके।’

यह पुस्तक ऐसे समय में आई है जब राजनीतिक स्तर पर अवर्ण और सवर्ण जातियां एक हद तक आमने-सामने और निर्णायक मोड़ पर हैं। सवर्ण का मतलब है धार्मिक बहुसंख्यक और अवर्ण का मतलब है जाति स्तर पर बहुसंख्यक। सुवीरा जायसवाल कहती हैं, ‘एक तरफ हमारे सामने हिंदुत्ववादी विचारधारा के समर्थक हैं जिनका यह दावा है कि आर्य भारत के सबसे पुराने निवासी हैं और समूचे उपमहाद्वीप की बुनियादी संस्कृति वैदिक संस्कृति है, दूसरी तरफ हमारे सामने दलित परिप्रेक्ष्य से इतिहास लिखने का प्रयास करते लोग हैं जिन्होंने दलित समुदाय के अपने पूर्वजों के शानदार अतीत को प्रस्तुत करने के लिए पौराणिक मिथकों की पुनर्व्याख्या करके यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह आर्य हमलावरों ने अपनी प्रवंचना से उन्हें पराजित किया है।’

सुवीरा जायसवाल ने वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में आह्वान किया है, ‘जाति विषयक मानसिकता को उसके भौतिक आधार से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जरूरत है ऐसे विवेकपूर्ण सशक्त आंदोलन की, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी स्तरों पर जातिगत परंपराओं के समूल उन्मूलन का बीड़ा उठाए, जाति का उसके अभिजन वर्ग के हित समूह के रूप में उपयोग की राजनीति का पर्दाफाश करे, पितृसत्तात्मक मूल्यों का अवमूल्यन कर नारी को स्वाधीनता और स्वतंत्र चयन का अधिकार दे और सही मायनों में वर्चस्वहीन समाज की स्थापना का प्रयास करे।’ इसके अलावा वे यह सलाह देती हैं, ‘जातीय अस्मिता’ को अलग करते हुए हिंदू अस्मिता का पुनर्निर्माण करना महिलाओं की मुक्ति और सभी उत्पीड़ित जातियों की एकता के लिए जरूरी हैं।’

सुवीरा जायसवाल ने जातिवाद के फलित को स्पष्ट किया है, ‘जातिप्रथा की निरंतरता के दो मुख्य कारक हैं- पहला, स्त्री की अधीनता, उसके यौनता पर पितृतंत्रात्मक नियंत्रण, जिससे इस प्रथा को निर्बाध नया जीवन मिलता रहता है। …जातिप्रथा की निरंतरता का दूसरा कारक है वर्चस्व की राजनीति में इसकी उपादेयता।’ यह सवाल बनता है कि हिंदू अस्मिता के पुनर्निर्माण से महिलाओं की मुक्ति के लिए आकाश कैसे और कितना खुलता है? सुवीरा जायसवाल ने जाति व्यवस्था की बुनियाद का भेद खोला है। इस क्रम में लुई द्युमों, दीपांकर गुप्ता जैसे समाजशास्त्रियों के जाति-संबंधी विचारों की बखिया भी उधेड़ी है।

सुवीरा लिखती हैं, ‘अवर्ण का जन्म और विस्तार भी वर्ण व्यवस्था की कोख से हुआ, जिसे आज दलित के रूप में पहचाना जा रहा है। ये अवर्ण अंबेडकर के अनुसार वस्तुतः ‘ब्रोकन मेन’ थे जिन्हें गुप्त काल तथा गुप्तकाल के बाद के वर्षों में ब्राह्मण ने अछूत घोषित कर दिया था। गौर करने की बात है कि गुप्तोत्तर काल में आए उत्पादन पद्धति के संकट, प्राचीन युग का मध्ययुग में संक्रमण और कलियुगीन संकट की वजह से वर्ण की परिकल्पना में महत्वपूर्ण बदलाव आए-  वह था कि कृषक वैश्य नहीं रह गया, उसे शूद्र करार दिया गया। हालांकि मनुस्मृति की मानें तो किसानों को वैश्य माना जाता था। ‘मज्झिम निकाय’ का उद्धरण है, ‘जो व्यक्ति अपने जीवनयापन के लिए हंसिया का इस्तेमाल करता है और अपने कंधे पर टिकी लाठी पर फसल लाद कर चले, वह शूद्र है।’ सांतवीं सदी में ह्वेनसांग ने खेतिहर लोगों से सौदागरों की जाति को अलग बताया था।

सुवीरा जायसवाल ने बेल ओम्वेट, गंगाधर पंतवने और गोपाल गुरु, कांचा इलैया, जेलियट, नारायण के माध्यम से दलित अवधारणा की परतें खोली हैं। अपनी ओर से उन्होंने बताया है, ‘दलित शब्द आमतौर पर उन पूर्व-अछूत जातियों पर लागू होता है जिन्हें ब्राह्मणवादी साहित्य में बाह्य, अतिशूद्र या पंचम वर्ण कहा गया है, यद्यपि इसमें अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) एवं तथाकथित अपराधशील और घुमंतू कबीलों को भी शामिल किया गया है। इस शब्द में ऐसे उत्पीड़न को अभिव्यक्ति मिलती है जो निश्चेष्ट नहीं, बल्कि जाति उत्पीड़न के मामले में मुखर हैं।’

अंत में पार्थ चटर्जी सरीखे उत्तर- आधुनिकतावादी समाजविज्ञानी की जाति-विषयक समझ को स्पष्ट करने के क्रम में सुवीरा जायसवाल की इस बात पर गौर करना बनता है, ‘परस्पर निर्भरता वाली एक अनिर्दिष्ट व्यवस्था, जो न तो श्रेणीकृत हो और न समानता एवं न्याय के बर्जुआ सिद्धांतों पर आधारित हो, में जातीय अस्मिता बचाने की इस (चटर्जी की) व्यापक सैद्धांतिक कवायद की बारीकी से छानबीन की आवश्यकता है।’

जिज्ञासा : अनूदित शोध लेखों के प्रकाशन में कैसी समस्याएं सामने आती हैं?

रंजन आनंद: अनुवाद अपने आप में एक बड़ी समस्या है। समाजविज्ञान के विषयों का अनुवाद कठिन है। मेरा मानना है कि इतिहास के लेखों का अनुवाद कार्यशालाओं में होना चाहिए। इन कार्यशालाओं में समाजशास्त्रियों की भी भागीदारी होनी चाहिए, क्योंकि आज के इतिहास लेखन में समाजशास्त्र की अवधारणाओं का काफी अधिक उपयोग होता है। उदाहरण के तौर पर इसी पुस्तक को अगर ध्यान में रखें तो पाएंगे की अंतर्विवाह, आंतरविवाह, अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह के फर्क को समझना जरूरी है। इन शब्दों के उपयोग में जरा सी चूक समझ में समस्याएं पैदा कर सकता है।

जिज्ञासा : वह कौन सी ऐसी अवधारणा है जिसकी सहायता से जनजातीय इष्टदेवों का विलयन कर हिंदू पूजा पद्धति का विस्तार हुआ?

रंजन आनंद : अगर हम तीसरे और चौथे लेखों को ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि अवतारवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिनकी सहायता से बड़ी संख्या में वर्णरहित जनजातीय समूहों का न केवल वर्णआधारित समूहों में परिवर्तन हुआ, बल्कि उनके देवी देवताओं का भी हिंदू देवी देवताओं में विलयन हुआ। फिर पुराण ग्रंथों में उनके लिए नए आख्यान गढ़े गए या पुरानी कथाओं में बदलाव आए।

 

आदित्य निगम की पुस्तक है ‘आसमां और भी हैं’ लेखन का लक्ष्य है मनुवादी राजनीति के बढ़ते वर्चस्व पर प्रहार है। यह प्रहार केवल ब्राह्मण या सवर्णों को अपने निशाने पर नहीं लेता। लेखक मनुवाद के विचारतंत्र पर प्रहार करता है। आदित्य निगम ने विचारतंत्र को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘मनुवाद को एक विचारतंत्र के अर्थ में समझना होगा जो समाज में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए उसके हर तबके से कारिंदे रिक्रूट करता है।’ दूसरी ओर वे सावधान करते हैं कि सारी दुनिया के लिए यूरोप ने गंतव्य तय कर दिया है। यह वह गंतव्य है जिसे यूरोप द्वारा अनिवार्य बना दिया गया है। सब कुछ पहले से सोचा जा चुका है। भारतीय समाजों की अपना वर्तमान, अपना भविष्य या अपनी मंजिल तय करने में कोई भूमिका नहीं है। लेखक का कहना है, ‘दुनिया के छोटे से हिस्से के तजुर्बे को सारी दुनिया की नियति बना दिया है। चूंकि वे इस रास्ते पर चले हैं, इसलिए उन्होंने सारी दुनिया का इस रास्ते पर चलना तय कर दिया है।’

आदित्य निगम सवाल करते हैं- हमारा अपना रास्ता भी है क्या? इसके लिए वे ‘कोलोनियल मोड ऑफ नॉलेज प्रोडक्शन’ से बाहर आने की तजवीज करते हैं। इसे वे वैचारिक स्वराज की पहल मानते हैं। यह वैचारिक स्वराज उस वैचारिक स्वराज से भिन्न है, जो राष्ट्रवादियों का है। इसे अर्जित करने के लिए वे अंबिका दत्त और जिजेक से दो-दो हाथ करते हैं। इस लड़ाई के लिए वे शक्ति हासिल करते हैं के. सी. भट्टाचार्य से। इन्होंने 1928 में चंदननगर में ‘स्वराज इन आइडियाज’ वाला विख्यात भाषण दिया था। वैचारिक स्वराज जैसा पद यहीं से प्रेरित होकर बना था।

राष्ट्रवादी एक ख़ालिस भारतीयता की खोज करने का दावा तो करते थे, मगर बुनियादी तौर पर यूरोप की ही नकल कर रहे थे। आदित्य निगम कहते हैं, ‘वह पूरा दौर एक ऐसा दौर है जिसमें वे जिस चीज की तलाश कर रहे हैं, जिस अस्मिता की तलाश कर रहे हैं, जिसकी दुहाई दे रहे हैं वह कहीं उपलब्ध नहीं है।’ वह तो 19वीं सदी में यूरोप में ईजाद होकर बजरिए ब्रिटेन भारत आया था।

आदित्य निगम ने बताया है, ‘जिस खुदी या आत्म की तलाश में राष्ट्रवादी निकले थे, वह एक लंबे एमनिसिया या विस्मृति की गिरफ्त में इसलिए भी था, क्योंकि वह दरअसल नए सिरे से गढ़ा जा रहा था।’ अपनी शुद्ध संस्कृति और अपनी शुद्ध ज्ञान परंपरा पर अंध-राष्ट्रवादियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘दुनिया में विचारों का, भाषाओं का, संस्कृतियों का आदान-प्रदान इतना रहा है कि कोई अगर आज की तारीख में यह समझता है कि वह कहीं से निकालकर वह खालिस भारतीय विचार ले आएगा जिसके बूते पर हम दावा कर पाएंगे कि हमने अपना वि-उपनिवेशीकरण कर दिया है, यह नामुमकिन है।’

आदित्य निगम ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि राष्ट्रवादी विद्वानों ने आध्यात्मिक श्रेष्ठता का एक नया विमर्श आरंभ किया था। उन्होंने लिखा है, ‘आध्यात्मिक गंगोत्री की तलाश असल में एक अंधी गली की तरह है जिसमें जो भी जाता है, वह लौटकर नहीं आता। जिन लोगों ने जाने की कोशिश की वे वेदों तक तो गए लेकिन अंततः उनकी अपनी अस्मिता की परिभाषा तब तक राष्ट्र और इतिहास के विस्फोटक घोल में मिलकर एक खतरनाक शक्ल ले चुकी थी, जिसका उपनिवेशवाद द्वारा खड़े किए गए फ्रेम के बाहर निकल पाना संभव नहीं था।’ बेशक आज हम इसका जलवा देख रहे हैं।

आदित्य निगम ने यूरोप के रिनेसां और उससे प्रभावित सोच को भी निशाने पर लिया है। वे बताते हैं कि 18वीं सदी के बाद यह माना जाने लगा कि इससे पहले की दुनिया अंधकार में जीती थी। यूरोपीय प्रबोधन की स्थापना के कारण प्रकारांतर से सारी दुनिया में यह आमफहम सोच बन गई। हमने मान लिया कि हम भी अंधकार में जी रहे थे, जबकि हमारी स्थिति इससे उलट थी। आत्म-समीक्षा करते हुए लेखक ने लिखा है, ‘हमने सेक्युलरिज्म का जाप करते-करते उन लोगों के लिए जमीन खुली छोड़ दी जिन लोगों के पास हिंदू और हिंदू अस्मिता को भुनाने के अलावा और कोई काम न था।’

आदित्य निगम ने राष्ट्र की अवधारणा को पारदर्शी बनाने के लिए ‘देश’ और ‘देस’ के अंतर को समझाया है। उनका कहना है कि राष्ट्र हमेशा असुरक्षा का मारा होता है, इसीलिए वह अपने नागरिकों से लगातार वफादारी की मांग करता है। उनका यह कहना गौरतलब है कि ‘देश’ यानी राष्ट्र तमाम ‘देसों’ यानी ‘लोक’ को अपने में समेटकर अपनी हुकूमत के लिए एक जगह, एक इलाका गढ़ता है। ऐसा देश गढ़ने की प्रक्रिया में देस की भाषा और संस्कृति को रौंद कर वह अपनी जबान और अपनी ऐसी संस्कृति बनाता है और यह एहसास कराता है कि वह शाश्वत है। देश इस शाश्वतता को साबित करते हुए हुकूमत करने का एकछत्र राज कायम करता है।

आदित्य निगम ने बताया है कि देश के लिए राष्ट्रीय इतिहास एक अनिवार्य जरूरत है। इसकी पूर्ति के लिए वह मिथकों को ऐतिहासिकता प्रदान करता चलता है। देश के बरक्स देस को इतिहास की जरूरत नहीं होती। देस यानी लोक मिथकों में ही जी लेता है। इस संदर्भ में वे फ्रांस की क्रांति को कटघरे में लेते हुए बताते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति के बाद राष्ट्र के लिए एक ऐसे राजनीतिक समुदाय की जरूरत हुई, जिसकी एक समरस संस्कृति हो और एक भाषा हो। राष्ट्र अपनी अस्मिता के लिए अपने सभी नागरिकों की इच्छाओं को एक कॉमन इच्छा में बदलने की कोशिश करता है।

आदित्य निगम ने यूरोपीय प्रबोधन और आधुनिकता की देन ‘लोकतंत्र’ में फासीवाद के बीज देखे। लोकतंत्र अपने नागरिकों के गवर्नेंस के लिए उनका वर्गीकरण करता है। इस वर्गीकरण की प्रक्रिया में बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक जैसी जनता पैदा होती है। इनमें एक ‘हम’ होता है दूसरा ‘अन्य’। भारत में अंध राष्ट्रवाद के उफान को पढ़ते हुए उन्होंने बताया है कि अंध-राष्ट्रवादी ‘देसों’ और अल्पसंख्यकों को मिटा कर पश्चिम की तर्ज पर आधुनिक राष्ट्र बनाने पर आमादा हैं।

जिज्ञासा : आप ‘वैचारिक स्वराज’ की अवधारणा का प्रयोग करते हैं और ‘विऔपनिवेशीकरण’ का भी। दोनों में क्या फर्क है?

आदित्य निगम : मैंने जब कृष्णचंद्र भट्टाचार्य के पद ‘वैचारिक स्वराज’ का इस्तेमाल करना शुरू किया, तब मैं इसे विऔपनिवेशीकरण के पर्याय के रूप में ही देख रहा था। कुछ हद तक अब भी ऐसा ही करता हूँ, मगर अब यह लगने लगा है कि एक खास राजनीति विऔपनिवेशीकरण को जिस तरह हड़पने की कोशिशें कर रही है, उसकी पृष्ठभूमि में दोनों को एक दूसरे के पूरक के रूप में देखा जाना जरूरी है, महज पर्याय के रूप में नहीं। जब आप ‘स्वराज’ की बात करते हैं तो आप अपने पैरों पर खड़े होकर सोचने की बात कर रहे होते हैं न कि किसी काल्पनिक अतीत के महिमामंडन की। इस शब्द का महात्मा गांधी के साथ रिश्ते से भी हमें बाखबर होना चाहिए। उनके लिए स्वराज के मानी हरगिज किसी अतीत की गंगोत्री में लौटना नहीं था। वे हिंद स्वराज की बात करते थे- किसी सुदूर अतीत के ‘भारत’ या ‘जंबूद्वीप’ की नहीं। फ़िराक़ की तरह वे समझते थे, ‘सर-ज़मीने हिंद पर अक्वाम-ए-आलम के ‘फ़िराक़’/क़ाफ़िले बसते गए, हिंदोस्ताँ बनता गया।’

दूसरे शब्दों में इस बात को कुछ इस तरह कहा जा सकता है : अगर किसी तरह से मान लीजिए कि आप गंगोत्री तक पहुँच ही जाते हैं तो वहाँ आपको गंगा का स्रोत तो मिल जाएगा मगर क्या हरद्वार, इलाहाबाद, बनारस या कलकत्ता के बिना गंगा नदी आप को मिल पाएगी?

विऔपनिवेशीकरण की बात अजकल कुछ हलक़ों में इस तरह की जाती है, जैसे पूरी की पूरी गंगा ही उनकी गंगोत्री में मौजूद थी। उनकी मानें तो उनके पास हवाई जहाज़ से लेकर इंटरनेट और प्लास्टिक सर्जरी तक सब था। ऐसा नहीं कि प्राचीन भारत की गणित, सुश्रुत और विज्ञान के क्षेत्र में हैरतअंगेज उपलब्धियां नहीं थीं। उसे साबित करने लिए अहमक़ाना किस्से गढ़ने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मगर इन लोगों की हालत, जिन्होंने प्राचीन काल में सब हासिल कर लिया था, आज यह हो गई है कि वे गोबर में लोट कर रेडिएशन से बचने के नुस्खे देते हैं, ताली और थाली बजाकर कोरोना को भगाते हैं, गोमूत्र में सब बीमारियों का इलाज ढूंढ़ते हैं – और भी न जाने क्या क्या! तो सवाल यह पैदा होता है कि आपका वो सारा ज्ञान गया कहां?

मेरे लिए यह सवाल आज वैचारिक तौर पर अपने पैरों पर खड़े होने के सवाल से जुड़ा है। विऔपनिवेशीकरण के असल मानी ये हैं कि हम अपनी बौद्धिक धरोहर को नकारे बिना उसे दुनियाभर के बौद्धिक कर्म के ही विस्तार के रूप में देखें मगर साथ ही ज्ञान की राजनीति और पश्चिमी इदारों पर उनकी जकड़ से भी जूझते रहें। प्रश्न अतीत का नहीं वर्तमान का है। आज आप पश्चिम के बताए पूंजीवादी रास्ते के बरअक्स कोई अन्य दिशा दिखा पाने का माद्दा रखते हैं?

जिज्ञासा : राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण के तार आपस में कैसे जुड़े हुए हैं? भारत में अंध-राष्ट्रवाद का समाधान कैसे होगा?

आदित्य निगम: मैं आपके दोनों सवालों का एक साथ ही जवाब देने की कोशिश करता हूँ। दरअसल दोनों ही बहुत बड़े सवाल और पेचीदा सवाल हैं। दोनों के जवाब आज तक जिस तरह से दिए जाते रहे हैं, वह मुझे ठीक नहीं लगते। अंध-राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण में कोई सीधा रिश्ता नहीं है। अंध-राष्ट्रवाद का जन्म फासिज्म की शक्ल में, लगभग राष्ट्रवाद के उदय के साथ ही हुआ। यूरोप में उसका आविर्भाव एक साम्राज्यवादी और विस्तारवादी मंशा से जुड़ा रहा जबकि औपनिवेशित देशों में उसके पास अपना साम्राज्य विस्तार करने की गुंजाइशों के अभाव में ऐसा करना मुमकिन न था। मंशा जरूर बनी रही।

दूसरी अहम बात यह है कि यूरोप की ही तर्ज़ पर, राष्ट्रवाद जहां भी गया, हर जगह उसने ‘अल्पसंख्यक’ ढूढ़ निकाले। यहां एक बात और याद रखने की जरूरत है- आदमशुमारी के जरिए आबादियों की गिनती ने राष्ट्रवाद के साथ एक ऐसा घोल बनाया जिसने जनतंत्र के लिए जन्म से ही खतरा पैदा कर दिया। जनतंत्र में मैजॉरिटी या बहुसंख्या राजनीतिक होती है। कार्यक्रमों, मुद्दों और नीतियों पर बहस-मुबहसे के आधार पर वह बनती-बिगड़ती है। कम से कम यह जनतंत्र का तसव्वुर था।

राष्ट्रवाद ने परमानेंट यानी स्थायी अल्पसंख्यक पैदा कर दिए, जिन्हें दुश्मन के रूप में या एक स्थायी खतरे के तौर पर देखा जाने लगा। यहीं फासीवाद और अंध-राष्ट्रवाद के बीज आधुनिक राजनीति में पड़ गए। अंध-राष्ट्रवाद दरअसल एक छाया की तरह हर राष्ट्रवाद के साथ-साथ चलता है।

इस अर्थ में देखें तो यह वैश्वीकरण से बहुत पुरानी एक परिघटना है। वैश्वीकरण ने बस एक बार फिर राष्ट्रवादी अभिजनों के सामने ‘राष्ट्र के लिए ख़तरे’ का डर पैदा कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि हमारे देसी अंध-राष्ट्रवादियों का शुरू से ही उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से कोई राजनीतिक वैर नहीं रहा। क्योंकि उनका घोषित शत्रु मुसलमान ही था। उनका राष्ट्रवाद इसलिए सांस्कृतिक और कथित हिंदू पहचान के इर्द-गिर्द ही गढ़ा गया। लिहाज़ा वैश्वीकरण के दौर में भी उन्हें के आर्थिक व राजनीतिक पहलुओं से कोई परेशानी नहीं महसूस हुई।

जैसा मैंने कहा, ये सवाल ही ऐसे हैं जिनका जवाब ढूंढ़ने के लिए एकदम बुनियादी मसलों की पड़ताल की ओर लौटना होगा। ऐसा करना यहां संभव नहीं है। बस इशारतन इतना कहा जा सकता है कि इनका जवाब राष्ट्र और राष्ट्र-राज्य के दायरे में रह कर नहीं मिल सकता है। एक मायने में राजनीति के विऔपनिवेशीकरण के जरिए, राष्ट्र-राज्यों से परे जाकर ही कोई समाधान मिल सकता है।

 

साहित्य का अध्येता आर्थिक मामलों में रुचि ले, यह एक विशेष घटना है। आमतौर से साहित्य का अध्येता शुद्ध साहित्य के दायरे से बाहर देखने की जरूरत नहीं समझ पाता। जयसिंह नीरदका अधिकांश समय और सृजन अब तक इसी परिधि में रहा है। इनके कई कविता संग्रह हैं तो उपन्यास भी हैं। साहित्यिक आलोचना की पुस्तकें भी हैं। उनकी नई पुस्तक है ‘हिंदी नवजागरण का आर्थिक चिंतन’।

हिंदी नवजागरण का विभिन्न परिप्रेक्ष्यों- मुख्य रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में पर्याप्त अध्ययन हुए हैं। इसका आर्थिक चिंतन बिलकुल अनदेखा रहा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। परंतु जयसिंह ‘नीरद’ का यह अध्ययन इस दिशा पर विशेष फोकस है। उन्होंने रेखांकित किया है कि उपनिवेशवादी आर्थिक शोषण का उद्घाटन हिंदी नवजागरण की एक ऐसी विशेषता है जो उसे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ती है और हिंदी समाज के अपनेे पिछड़ेपन से उबरने के लिए कुछ विकल्पों की खोज भी करती है।

यूरोपीय नवजागरण का दौर, जिसे अंगरेजी में ‘एज ऑफ एक्सप्लोरेशन’ कहा जाता है, व्यापार के विस्तार की संभावनाओं की तलाश में था। इस दौर में कई यात्रियों ने अलग-अलग देशों से इसी मकसद से यात्राएं की थीं। इन यात्राओं ने व्यापारिक वर्चस्व और उपनिवेशवाद की पृष्ठभूमि तैयार की।

इस सिलसिले में लेखक ने दादा भाई नौरोजी और रमेश चंद्र दत्त की भूमिका का उल्लेख किया है। गिरींद्र कुमार सेन की पुस्तक ’धन विज्ञान’ और ‘वाणिज्य’ का भी हवाला दिया गया है। नौरोजी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने 1835 से 1872 के बीच अंग्रेजों द्वारा इंग्लैंड भेजी गई राशि के आंकड़े दिए थे।

जयसिंह नीरद ने ध्यान दिलाया है, ‘नवजागरण काल के हिंदी लेखक उपनिवेशवादी शक्तियों द्वारा किए जा रहे निर्लज्ज आर्थिक शोषण जनता का ध्यान लगा कर आर्थिक राष्ट्रवाद की जमीन तैयार कर रहे थे। यह अकारण नहीं है कि 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद आर्थिक राष्ट्रवाद के बहुत से मुद्दे कांग्रेस के प्रस्तावों में प्रमुखता पाने लगे थे और जिनकी परिणति बाद में स्वदेशी और गांधी जी के संरक्षण में चलाए जाने वाले राष्ट्रीय आंदोलनों में देखी जा सकती है। ’

गांधी का चरखा और दांडी यात्रा आर्थिक आजादी के अभियान का हिस्सा था। यह सीधे-सीधे औपनिवैशिक शासन के वाणिज्य-व्यापार पर आघात था। जयसिंह नीरद ने लिखा है, ‘हिंदी नवजागरण के आर्थिक चिंतन की पृष्ठभूमि में आर्थिक राष्ट्रवाद और स्वदेशी आंदोलन की विशेष स्थिति है।’ लेखक ने रेखांकित किया है कि भारतेंदु, पं सदानंद मिश्र, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, राधामोहन गोकुल, प्रेमचंद आदि साहित्यकारों ने आर्थिक शोषण के बारे में सप्रमाण लिखकर अंग्रेजी सरकार के प्रति गुस्से को घनीभूत किया। दूसरी ओर, हिंदी का अपना अर्थशास्त्र खड़ा करने की पहल कर रहे थे सदानंद मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और राधा मोहन गोकुल। निस्संदेह इन्होंने स्वदेशी आंदोलन के लिए ठोस जमीन तैयार की। एक ओर यह काम हुआ तो दूसरी ओर साहित्य को ‘शुद्ध साहित्य’ के दायरे से निकाल कर हिंदी साहित्य के फलक का विस्तार भी किया।

जयसिंह नीरद 1857 के विद्रोह को महज सिपाही विद्रोह मानने को तैयार नहीं हैं। वे इसे आर्थिक उत्पीड़न से उपजा विद्रोह मानते हैं। अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए उन्होंने 1769 से 1837 के दरम्यान देश में पड़े भंयकर अकाल को बड़ा कारण माना है। भारतेंदु ने आर्थिक दुर्दशा के कई चित्र खींचे।

भारतेंदु युग में आरंभ हुई आर्थिक अभिव्यक्ति द्विवेदी युग में अधिक तेज हुई। ‘संपत्तिशास्त्र’ के माध्यम से आर्थिक चिंतन की परंपरा आगे बढ़ी। राधामोहन गोकुल की किताब ‘देश का धन’ इस कड़ी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। माखन लाल चतुर्वेदी ने अपने ‘कर्मवीर’ के माध्यम से द्विवेदीयुगीन आर्थिक चिंतन को नई ऊर्जा और दिशा दी। प्रेमचंद ने ‘हंस’ के माध्यम से किसानों और मजदूरों के आर्थिक शोषण और बिडंबनाओं और अंतर्विरोधों से अपने समय को झकझोरा। पं. सुंदरलाल की कृति ‘भारत में अंगरेजी राज’ मील का एक पत्थर है। जयसिंह नीरद ने यह भी लक्ष्य किया है कि इस दौर के लेखकों को औपनिवेशिक सत्ता के अर्थतंत्र की पूरी जानकारी थी।

जयसिंह ‘नीरद’ ने लिखा है, ‘हिंदी नवजागरण के आर्थिक चिंतकों ने अनेक दशकों तक निर्धनता की मुक्ति के लिए जो संघर्ष किया उसके पीछे समृद्ध लोकोन्मुखी भारत का स्वप्न उन्हें ऊर्जा देता था। आजादी के बाद जिस भारत को स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और राजनीतिक आर्थिक स्वत्व की दिशा में आगे बढ़ना था, एक पल में उसकी बागडोर ऐसे हाथों में चली गई जो निस्संदेह भारतीय हाथ नहीं थे। यह इस देश के उदारीकरण की भयावह त्रासदी थी।’ ऐसे आर्थिक विकास का पैमाना सबका विकास नहीं है।

जिज्ञासा: हिंदी नवजागरण का आर्थिक चिंतन किन दृष्टियों से महत्वपूर्ण है?

जयसिंह ‘नीरद: यह आर्थिक चिंतन उस आर्थिक राष्ट्रवाद को पुष्ट करता है जो कालांतर में भारत के स्वतंत्रता संग्राम को गति और दिशा देता है। अपनी स्थापना के समय से ही कांग्रेस के ने ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत प्रस्तावों में जनसाधारण से जुड़े अनेक आर्थिक मुद्दों को भी शामिल किया गया था। हिंदी नवजागरण का आर्थिक चिंतन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह चिंतन हिंदी पाठकों और लेखको को शुद्ध साहित्य का दायरा लांघ कर साहित्येतर विषयों पर लिखने की प्रेरणा देता है।

जिज्ञासा: हिंदी नवजागरण के आर्थिक चिंतन की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्या प्रासंगिकता है?

जयसिंह ‘नीरद: उस चिंतन में बहुत से सूत्र ऐसे हैं जो आज के आर्थिक सरोकारों से जुड़ते हैं। उदारीकरण बुनियादी तौर पर एक पूंजीवादी व्यवस्था है जिसमें स्वतंत्रता का अर्थ बाजार की स्वतंत्रता है। बाजार में जिसके पास जितनी पूंजी है वह उतना ही स्वतंत्र बल्कि स्वच्छंद है। नवजागरणकालीन दौर में औपनिवेशिक शासन भारतीय उत्पादों पर अधिकाधिक कर लगा कर उनको विदेशी बाजारों में पहुँचने में बाधा उत्पन्न कर रहा था। ब्रिटिश सरकार भारत के कच्चे माल को ढोकर ले जाने और उससे तैयार माल से भारत के बाजारों को पाट देने का काम कर रही थी। इसे हम औपनिवेशिक उदारीकरण कह सकते हैं। जो काम आज बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कर रही हैं, वही काम नवजागरण काल के दौरमें उपनिवेशवादी शक्तियां कर रही थीं।

स्वदेशी तब भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा था और आज भी समय-समय पर उसे नए-नए मुखौटों के साथ प्रस्तुत किया जाता है।

 

समीक्षित पुस्तकें :

(1) सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : दलित समस्या की जड़ें तथा अन्य निबंध – सुवीरा जायसवाल संपादक : रंजन आनंद, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023 (2) आसमां और भी हैं : आदित्य निगम, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023 (3) हिंदी नवजागरण का आर्थिक चिंतन : जयसिंह नीरद : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2023

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