प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
जयशंकर प्रसाद और जैनेंद्र कुमार की जीवनियां बहुतों के लिए उत्सुकता जगा सकती हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने समय के बड़े साहित्यकार रहे हैं।
प्रसाद के अवसान के ८३ वर्ष बाद आई यह जीवनी प्रसाद की रचनाओं की परतें भी खोलती है, उनके जीवन अनुभव और सृजन के संबंध और स्रोत को उजागर करती है।विवादों और विभ्रमों की भी खबर देती- लेती है। |
सत्यदेव त्रिपाठी की कृति ‘अवसाद का आनंद’जयशंकर प्रसाद की जीवनी है।इस पुस्तक के बारे में अशोक वाजपेयी ने लिखा है, ‘एक मूर्धन्य कवि, उसके निजी और सर्जनात्मक- बौद्धिक संघर्ष, उनकी जिजीविषा और दुखों आदि के बारे में जानकर हम प्रसाद की महिमा और अवदान को बेहतर समझ-सराह पाएंगे, ऐसी आशा हम करते हैं।’ यह पुस्तक अशोक वाजपेयी की आशा पूरी करती है।पुस्तक से पाठकों का जयशंकर प्रसाद के साथ रागात्मक और बौद्धिक संबंध बनता है।विनोद शंकर व्यास, महादेवी वर्मा, राय कृष्णदास, नंददुलारे वाजपेयी, अमृतलाल नागर, माखनलाल चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी, जानकीवल्लभ शास्त्री, शिवपूजन सहाय, प्रफुल्ल चंद्र ओझा, रत्नशंकर प्रसाद और पत्रादि के हवाले से यह पुस्तक प्रामाणिक बनी है।लेखक ने अपनी आलोचनात्मक दृष्टि के लिए भी पर्याप्त जगह बनाई है।यह एक दृष्टि-संपन्न जीवनी है।किसी रचनाकार की जीवनी लिखने के लिए दृष्टि-संपन्नता एक अनिवार्य तत्व है।
यह जीवनी प्रसाद के अवसान के ८३ वर्ष बाद आई है।यह प्रसाद की रचनाओं की परतें भी खोलती है, उनके जीवन अनुभव और सृजन के संबंध और स्रोत को उजागर करती है।विवादों और विभ्रमों की भी खबर देती- लेती है।इसकी एक और खूबी है कि यह साहित्यिक प्रतिद्वंद्विता का राज खोलती है।इस जीवनी में रोज संध्या समय साहित्यिक मंडली की बैठकी का रस भी सामने आया है।प्रसाद की पसंद-नापसंद की जानकारी सार्वजनिक हुई है।
इसमें सबसे पहले जयशंकर प्रसाद के पूर्वजों की पृष्ठभूमि और परंपरा है।चीनी से भरी सात नावों के डूबने का दर्द है।उनके विस्थापन की कथा है।पूर्वजों के बिखराव और बनारस में आ बसने का विवरण है।साहु के साथ सुंघनी लगने की रोचक कथा भी है।व्यवसाय मूल्य और जीवन मूल्य से अर्जित गौरव और पारिवारिक क्लेश के सिलसिले हैं।इस संदर्भ में लगभग तीन सौ सालों का लेखा-ब्योरा है।सुंघनी साहु के खानदान में शिव-प्रेम रहा है।यह पुस्तक बताती है कि जयशंकर नाम के साथ प्रसाद शब्द कैसे और किस परिस्थिति में जुड़ा।प्रसाद उनकी पहली पत्नी का दिया नाम था।यह भी है कि जयशंकर पहले ‘कलाधर’ थे, वहां से प्रसाद तक की यात्रा कहां से और कब शुरू हुई, कैसी चलती रही और पड़ाव कहां-कहां बने।
सुंघनी-साहु के खानदान के शिव-प्रेम के बारे में बताया गया है, ‘सुंघनी-साहु के खानदान में सबसे अधिक मान्यता शिवरात्रि की रही है।इस दिन घर के सामने वाले पैतृक विशाल शिवालय पर भजन-पूजन-जलसा होता।शिवरात्रि को प्रसाद जी का भी अधिकांश समय शिवार्चन में ही व्यतीत होता था।वे २४ घंटे का व्रत रखते।रेशमी पीतांबर पहने, नंगे कंधों के नीचे रेशमी वेष्टन लपेटे, त्रिपुंड लगाए और गले में बड़े-बड़े ग्यारह गौरीशंकर रुद्राक्षों की माला पहने उनकी छटा दर्शनीय होती।… शिवरात्रि का यह पर्व प्रसाद जी पूरी आस्था और प्रतिबद्धता से निभाते।’ लेखक ने वर्णन में चित्रात्मकता का यह गुण निश्चित रूप से प्रसाद से ही लिया है।यह ऐसी है कि लगता है, किसी चित्रकार ने सहज ही प्रसाद की एक मुखर पेंटिंग बना दी है।
प्रसाद को विरासत में मिली थी पहलवानी।लेखक ने लिखा है , ‘पिता देवी प्रसाद जी बलशाली पहलवान थे।उल्लेख के अनुसार उनमें एक भैंसे का जोर पाया जाता था।उन्होंने अपने पहलवान पिता बाबू शिवरतन साहु से ही अपने खानदानी अखाड़े में पहलवानी सीखी थी।देवी प्रसाद जी अपने पुत्र जयशंकर को अपने से भी तगड़ा और बलशाली पहलवान के रूप में देखना चाहते थे, ताकि घर-परिवार की कुश्ती परंपरा आगे चलती रहे । …सो, १२ से १७ वर्ष की अवस्था तक प्रसाद जी बाकायदा लड़ते।… इसके परिणामस्वरूप प्रसाद जी १७ साल की उम्र में एक सुंदर, तेजस्वी एवं बुद्धिमान पहलवान के रूप में परिवार को प्राप्त हुए।’
प्रसाद को कविता का सिलसिला, उनके पिता देवी प्रसाद से मिला।इस सिलसिले में सत्यदेव त्रिपाठी ने लिखा है, ‘पिता देवी प्रसाद विद्वानों-कलाविदों का बड़ा आदर करते।पितामह और पिता के समय से ही घर पर समस्या-पूर्ति करने वाले कवियों का जमघट लगा रहता।इसी का असर रहा कि प्रसाद जी ब्रजभाषा की कविताओं की ओर आकृष्ट हुए, उसमें अच्छी गति भी हासिल कर सके, जो उनके महाकवित्व की पौष्टिकता का उर्वर रसायन बना।’
जीवनीकार ने इस ओर ध्यान खींचा है कि प्रसाद की काव्य-रचना जहां शिव-प्रताप से शुरू हुई, उसका अंत भी ‘अखिल विश्व का विष पीते हो, सृष्टि जिएगी फिर से’ ‘कामायनी’ वाले नीलकंठ से हुआ।प्रसाद के जीवन और रचना के केंद्र में शिव सदैव थे।
प्रसाद जिस ‘कामायनी’ से अमरत्व प्राप्त करते हैं, उसका बीज ‘आंसू’ में देखा गया है। ‘आंसू’ के संदर्भ में सत्यदेव त्रिपाठी ने लिख है, ‘आंसू का लिखा जाना जुलाई १९२१ से शुरू हुआ… प्रकाशन १९२५ में बाबू मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य सदन से हुआ, जबकि पांडुलिपि १९२२-१९२३ में ही दे दी गई थी, लेकिन छापने में गुप्त जी ने पर्याप्त देर की, जिसके कारण का उल्लेख यह मिलता है कि ‘आंसू’ के छंद उन्हें पसंद न थे।… लेकिन असली बात यह है कि प्रसाद जी की रचनात्मकता को लेकर गुप्त जी की सुनियोजित मुहिमों का एक इतिहास है, जिसकी पूरी चर्चा पूरे परिप्रेक्ष्य में इसी अध्याय में आगे होगी, तो सारे मामले खुलेंगे।’ ‘आंसू’ वह कृति है जिसे प्रसाद का प्रस्थान-बिंदु कहा जाता है।
प्रसाद की दृष्टि में ‘आंसू’ का क्या महत्व है, इसके लिए लेखक ने विनोद शंकर व्यास के लिखे को प्रमाण-स्वरूप रखा है, ‘‘आंसू’ पर प्रसाद जी स्वयं मुग्ध थे।यहां तक कि ‘आंसू’ को कामायनी में सम्मिलित करना चाहते थे (शायद श्रेष्ठता के साथ प्रियता को मिलाना चाहते थे), पर बाद में विचार बदल गया। ‘आंसू’ के बाद कविता सुनाने की उनकी शैली में बदलाव आया।’ प्रसाद में कवि सम्मेलनों में कविता पढ़ने के प्रति अरुचि थी, परंतु निजी गोष्ठियों में ‘आंसू’ का अंश सुनाने के लिए उत्साहित थे।
सत्यदेव त्रिपाठी ने कवि के खाने और पहनने की रुचियों के बारे में यह बताया है कि वे खाने और पहनने के मामले में सुरुचिपूर्ण और शौकीन थे।स्वादिष्ट खिचड़ी बनाने में भी सिद्ध थे।वे अपने मित्रों को खिचड़ी बना कर खिलाते भी थे।लेखक ने उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को उजागर किया है।इस पुस्तक को पढ़ना केवल जयशंकर प्रसाद को जानना भर नहीं है, एक साहित्यिक अनुभव से समृद्ध होना है।
जिज्ञासा – प्रसादजी की राष्ट्रीय चेतना के समक्ष आज की राष्ट्रीयता को आप कैसे देखते हैं?
सत्यदेव त्रिपाठी – प्रसाद के साहित्य और उनके व्यक्तित्व के विधायक तत्वों में प्रमुख है उनकी गहन राष्ट्रीय चेतना।उसे याद करते हुए महादेवीजी ने कहा है, ‘चीनी आक्रमण के समय साहित्य में व्यक्त प्रखर राष्ट्रीय चेतना का ऐसा अकाल था कि ‘हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती’ के अलावा देश को जगाने के लिए हमारे पास कुछ न था।यही गीत सौ बार, हज़ार बार प्रसारित किया गया- सुना गया’।
राष्ट्रीयता तब विदेशी शासकों के विरुद्ध स्वतंत्रता-प्राप्ति की एकमुखी चेतना थी।प्रसाद के नाटकों एवं ऐतिहासिक संदर्भ वाली कविताओं में यह मुखर है ही, छायावाद काल में लिखी गयी ‘जागो फिर एक बार’, ‘चिर सजग आंखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना’, ‘बीती विभावरी जाग री’ जैसी तमाम कविताओं का भी व्यंग्यार्थ यही है।आज़ादी के पहले ‘हुंकार’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘हल्दीघाटी’, ‘जौहर’ एवं ‘खूब लड़ी मर्दानी’… जैसी कविताएं भी इस चेतना की साखी हैं।लेकिन इस चेतना के सफलीभूत होने के पहले ही यह राष्ट्रीय एकमुखता और सांप्रदायिक उन्माद में बदल गई।प्रसाद जी तो इसके दस साल पहले चले गए थे।उन्हें इसकी भनक तक न रही होगी।
आज तो कोई राष्ट्रीयता है ही नहीं।सत्ता-प्राप्ति के लिए उन्मादी चेतना के अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल के कुछ कुत्सित रूप बचे हैं।भला हुआ जो इसे देखने के लिए प्रसाद नहीं रहे।जान की बाज़ी लगाने वाली देशभक्ति से संचालित उस काल की राष्ट्रीयता को आज के संदर्भ में खींचना नाइंसाफ़ी होगी।
जिज्ञासा – भारत के भावी इतिहास की कल्पना प्रसाद के यहां किस तरह है?
सत्यदेव त्रिपाठी – यह प्रमुख रूप से प्रसाद के नाटकों में आया है, जहां वे पुनरुत्थान-काल से विषय उठाते हैं और विदेशी आक्रांताओं को अपदस्थ करके निष्कंटक स्वतंत्र राष्ट्र की कल्पना करते हैं।उन्होंने अपने अधूरे उपन्यास ‘इरावती’ में भी शुंग-काल से विषय उठाया था।देश में अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी पाने का रास्ता १८५७ के संग्राम के बाद प्रायः बंद हो चुका था।प्रसादीय सृजन के उत्कर्ष-काल में आज़ादी का संघर्ष तेज हो गया था।उनकी योजना सौ-सौ, डेढ़-डेढ़ सौ पृष्ठों के ऐसे ही बारह ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की थी, लेकिन ‘इरावती’ ही पूरा न हुआ।
उनकी योजना इंद्र पर आधारित नाटक ‘अग्निमित्र’ लिखने की भी थी, जिसकी संकल्पना ‘प्राचीन आर्यावर्त और उसका प्रथम सम्राट’ तथा इसके पूरक ‘दाशराज युद्ध’ निबंध में आई है।इसमें वे आर्यावर्त की कल्पना करते हैं।तब पाकिस्तान भी अलग नहीं हुआ था।
जिज्ञासा – आप रंगमंच से जुड़े रहे हैं।प्रसाद के नाट्य-चिंतन को रंगमंच के लिए कितना उपयुक्त पाते हैं?
सत्यदेव त्रिपाठी – प्रसाद अपनी हर बात इतिहास से शुरू करते हैं।वे ‘नाटक का आरंभ’ नामक तीन पृष्ठों की एक टिप्पणी के बाद ‘रंगमंच’ नाम से तेरह पृष्ठों के एक आलेख में समूचे रंगकर्म को पिंड में ब्रह्मांड की तरह पिरो देते हैं।उनका विवेचन भरत के नाट्यशास्त्र से लेकर तमाम देशी-विदेशी विमर्शों का निचोड़ है।सारी बातें प्राय: मान्य हैं, पर उनके नाटककार की जानिब से आया एक वाक्य पूरे विश्व के रंग-विमर्श में ‘भइ गति सांप छंछूदर केरी’ बनकर स्थायी हलचल मचाए हुए है- ‘रंगमंच के लिए नाटक नहीं, नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए’।रंग जगत न इसे मान पा रहा है, न अमान्य कर पा रहा है।
जैनेंद्र कुमार पर कुछ कम नहीं लिखा गया है, मगर उनकी जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ जैनेंद्र कुमार के मान में चार चांद लगाती है।यह अपने पाठकों में मूल्यों के साथ जीने के लिए प्रेरित कर सकती है और वे जैनेंद्र कुमार को नए कोण से जान सकते हैं।जैनेंद्र कुमार का जीवन एक त्रिभुज है। |
जैनेंद्र कुमार उन लेखकों में विशेष हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान को अपने जीवन में कई बार करवट बदलते देखा है।इनकी जीवनी तैयार करनेवाले ज्योतिष जोशी ने उस जमाने की उन करवटों और जैनेंद्र कुमार के सुरों और हरकतों को ऐसा साधा है कि ‘अनासक्त आस्तिक’ एक सांगीतिक कृति बन गई है ।जैनेंद्र कुमार ने मूल्यों को बनते, उन्हें झरते देखा है।मगर वे उन लोगों में कभी शामिल नहीं हुए जो मूल्यों की डाल पर बैठे हुए खूब खाते-पीते पाए जाते हैं।
जैनेंद्र कुमार पर कुछ कम नहीं लिखा गया है, मगर उनकी जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ जैनेंद्र कुमार के मान में चार चांद लगाती है।यह अपने पाठकों में मूल्यों के साथ जीने के लिए प्रेरित कर सकती है और वे जैनेंद्र कुमार को नए कोण से जान सकते हैं।जैनेंद्र कुमार का जीवन एक त्रिभुज है।त्रिभुज की एक रेखा परिवार है, दूसरी रेखा राजनीति है और तीसरी रेखा खुद लेखक है।इस त्रिभुज में उन मूल्यों का वह अलाव है जिसकी आंच हमेशा बनी रहती है। ‘अनासक्त आस्तिक’ वह जीवनी है जहां बकौल ज्योतिष जोशी, ‘जैनेंद्र का बहुआयामी जीवन क्रमशः विकसित होता हुआ एक आकार लेता है।’ उनकी दृष्टि है, ‘जैनेंद्र कथाकार तो अप्रतिम हैं ही, वे प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक-विचारक भी हैं।वे हिंदी के अन्यतम व्यावहारिक दार्शनिक भी हैं तो भारत सहित वैश्विक राजनीति पर गहरी दृष्टि रखने वाले प्रबुद्ध राजनीतिक विशेषज्ञ भी।’
जैनेंद्र १९१९ में पढ़ने के लिए बनारस पहुंचने से पहले छह साल तक एक आश्रम में ब्रह्मचारी बन कर रह चुके थे।उनका नाम पहले आनंदीलाल था।१९२० में जब गांधी ने असहयोग आंदोलन का बिगुल बजाया, जैनेंद्र ने पढ़ाई छोड़ दी।वे लाहौर में लाला लाजपतराय से मिलने गए।अंग्रेजों को भगाने के लिए उनसे टिप्स लेकर लौटे।फिर जबलपुर में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।यहां उनकी मुलाकात माखनलाल चतुर्वेदी से हुई।वे विलासपुर आए तो सुभद्रा कुमारी चौहान से मुलाकात हुई।१९२३ में जैनेंद्र सत्याग्रही बन गए।उन्हें संवाददाता की जिम्मेवारी सौंपी गई।वे गिरफ्तार कर लिए गए।रिहाई के बाद दिल्ली आ गए।उसी समय दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम तनाजा हुआ।गांधी ने २१ दिनों का उपवास रखा।हिंदू-मुस्लिम यूनिटी कांफ्रेंस हुई।जैनेंद्र इस कांफ्रेंस में शामिल हुए।यही वह अवसर था जब उन्हें गांधी के संपर्क में आने और उन्हें निकट से समझने का अवसर मिला।यह संपर्क गांधी के अंतिम दर्शन तक बना रहा ।
एक सत्याग्रही का काम करते हुए जैनेंद्र का साबका ऐसे लोगों से पड़ने लगा जिनके लिए राजनीति लाभ का मामला था।जैनेंद्र का मन राजनीतिक काम में नहीं रमा।वे द्वंद्व में पड़ गए, ऐसे में उनके लेखक बनने का रास्ता खुला।वे जैनेंद्र से जैनेंद्र कुमार बने।उनकी पहली रचना छपने का रोचक और दर्दनाक वाकया इस पुस्तक में है।
जैनेंद्र कुमार का मन राजनीतिक गतिविधियों से उचटने लगा।उन्होंने इसके लिए यह तर्क दिया, ‘यह राजनीति, इसमें सक्रियता, मुझे नहीं सुहाती।मैं अहिंसक सत्याग्रही हूँ, मैं इसमें शामिल हुआ तो अहिंसक आंदोलन के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा।मैं जान गया हूँ कि मेरे भीतर भय का वास है।जो भय मुक्त हो, उसके लिए सक्रिय राजनीति है।हिंसक पराक्रम में तो भय भीतर भी रह सकता है।उसमें सेनापति पीछे भी रहे तो कोई हर्ज नहीं।सेनापति आदेश देता है, उसमें सिपाही लड़ता है, जानें जाती हैं , वह तमाशा देखता खड़ा रहता है।इसका अहिंसक आंदोलन में कोई अवकाश नहीं है।अहिंसक आंदोलन में तो सेनापति को, या जो भी सत्याग्रही हो, उसके सामने आकर छाती पर वार लेना होता है, लेना चाहिए।अन्यथा अहिंसा खरी सिद्ध न होगी।’ जैनेंद्र कुमार का यह उद्धरण उनकी सोच का एक नमूना भी है।उनकी प्रतिभा के वे सब कायल थे, जो जेल में इनके साथ बंदी थे।
जैनेंद्र कुमार द्वंद्व में थे कि एक घटना घटी, ‘एक दिन पौ फूटने के साथ ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता घर पर आए और जवाहरलाल नेहरू की लिखी चिट्ठी उन्हें थमा गए।… पंडित नेहरू ने तो यहां चलने वाले आंदोलन का उन्हें डिक्टेटर ही मनोनीत कर दिया था।… यह डिक्टेटर बनना तो उनके लिए मुसीबत ही था।उनके मन में असमंजस बना रहा।वे इससे मुक्त होने के लिए लगातार प्रयास भी करते रहे, पर निराशा हाथ लगी।’ यह वाकया १९३२ का है।वे नेहरू से मिलने गए, तब जो नेहरू से उनका संवाद हुआ, वह इस पुस्तक में है।नेहरू के कथन का एक अंश यह है, ‘आप में रहनुमाई का हुनर है जैनेंद्र।आप अपनी बात बेहद साफगोई और जज्बे के साथ रखने के उस्ताद हैं।जायज-नाजायज को समझाकर कहना भी आपकी तकरीर की खास बात है जिसे मैं जानता हूँ।लोग आपकी बातों को गौर से सुनते हैं और अमल करते हैं।यही वजह है कि हमने यह जवाबदेही आपको दी है।’
एक बार जैनेंद्र ने गांधी से दो दिनों तक साथ रहने की अनुमति मांगी।गांधी ने अनुमति दे दी।इसी दौरान गांधी के एक दांत मे दर्द उभरा और गांधी को अपना दांत उखड़वाना पड़ा।इस दांत की दास्तान इस किताब में दिलचस्प तरीके से दर्ज है।अंततः हुआ यह कि गांधी का दांत कुएं के हवाले कर दिया गया है।जैनेंद्र ने इस पर लिखा है, ‘सांची के स्तूप में महात्मा बुद्ध का दांत तो है ही।उस दांत को हजारों वर्षों बाद एक विराट समारोह के साथ प्रतिष्ठित किया गया था।इसमें दुनिया भर के गण्यमान्य सम्मिलित हुए थे।पर इस गांधी को इतिहास से कोई मतलब न था।वे अपने से इतिहास को मुक्त रखना चाहते थे।
एक बार फिर नेहरू को जैनेंद्र की याद आई।अब वे प्रधानमंत्री थे और समय था १९५७ का।अफ्रीकी-एशियाई लेखक सम्मेलन किया जाना था।सम्मेलन के संयोजक बनाए गए थे जैनेंद्र और सहयोग के लिए उनके साथ लगाए गए थे मुल्कराज आनंद।लेखकों का यह बृहद सम्मेलन जैनेंद्र के संयोजकत्व में संपन्न हुआ।ज्योतिष जोशी ने इस सम्मेलन के बाबत लिखा है, ‘ जैनेंद्र के संयोजकीय वक्तव्य और तदनंतर हुए आयोजन ने उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ाया।मौलाना आजाद और पंडित नेहरू ने आयोजन की सफलता का श्रेय देने के साथ ही जैनेंद्र को इस बात के लिए भी दाद दी कि उन्होंने राष्ट्रपिता गांधी को साहित्य के आईने में देखते हुए उनके श्रेष्ठतम विचारों को दुनिया के सामने रखा।… सच्चा लेखक सत्याग्रही ही तो है, सत्य का आग्रही न हो, तो लेखक किस बात का?’ जैनेंद्र कुमार अपने जीवन के अंत तक सत्याग्रही बने रहे।उन्होंने किसी लोभ और सुविधा के लालच को अपने सर पर नहीं चढ़ने दिया।
जैनेंद्र कुमार के बनने की परिघटनाओं को ज्योतिष जोशी ने ‘अनासक्त आस्तिक’ में करीने से रखा है।यह पुस्तक पढ़ने की मांग करती है।अगर पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि जैनेंद्र के अनुरोध पर प्रसाद ने अज्ञेय की किताब की भूमिका क्यों नहीं लिखी? यह भी जान पाएंगे कि प्रेमचंद और जैनेंद्र ने मिल कर ‘हिंदुस्तानी सभा’ क्यों बनाई थी? बाद में इसमें रामचंद्र शुक्ल, कृष्णप्रसाद गौड़, संपूर्णानंद, जवाहरलाल नेहरू और जयशंकर प्रसाद भी जुड़ गए थे।
जिज्ञासा– जैनेंद्र के साहित्य के आलोक में आज का समय कैसा दिखता है ?
ज्योतिष जोशी– जैनेंद्र साहित्य के आलोक में आज का समय अधिक भयावह और परस्पर विद्वेष का है।जैनेंद्र ने अपने साहित्य में जो चिंताएं रखी थीं वे पहले से बड़ी हो गई हैं।राज्य से नीति उठ गई है और केवल राज्य रह गया है।समाज में कटुता बढ़ी है।प्रेम, पारिवारिक मूल्य और सौमनस्य के साथ जीने की संभावनाएं क्षीण हुई हैं।उनके उपन्यासों, विशेषकर ‘जयवर्धन’ में अनेक ऐसे प्रश्नों पर गहन मंथन है, जिनपर आज भी विचार किए जाने की आवश्यकता है।जैनेंद्र हिंदी के उन कालजयी लेखकों में थे जिन्होंने भविष्य के भारत को वर्तमान में देखकर विचार किया था और उससे उबरने की राह बताई थी।दुर्भाग्य से हम भौतिक एषणाओं में इतने उलझते चले गए कि हमारा ‘आत्म’ पीछे छूटता चला गया और प्रतिगामी मूल्य ही जीवन मूल्य बनते गए हैं।जैनेंद्र का साहित्य आज के समय को देखने और मूल्याधारित समाज बनाने में सहायता देता है।
जिज्ञासा – जैनेंद्र का साहित्य स्त्री मुक्ति का साहित्य है, आज की स्त्री कितनी मुक्त है?
ज्योतिष जोशी– यह बात रेखांकित करने के योग्य है कि हिंदी में पहली बार जैनेंद्र ने स्त्री को आवाज दी और उसे पुरुषों के समानांतर खड़ा किया।उसे स्वतंत्रता दी और उन अमानवीय रूढ़ियों को निरस्त किया जो स्त्री को दास बना रही थीं।१९२९ में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास ‘परख’ में उन्होंने बाल वैधव्य पर प्रहार किया था।इसी तरह उन्होंने ‘त्यागपत्र’, ‘सुनीता’, ‘कल्याणी’ , ‘सुखदा’ तथा ‘दशार्क’ जैसे उपन्यासों में स्त्री मुक्ति का क्रांतिकारी विमर्श प्रस्तुत किया था।इस रूप में जैनेंद्र हिंदी के पहले आधुनिक स्त्री विमर्शकार हैं।
यह ध्यान में रखना चाहिए कि वे स्त्री मुक्ति को ‘वंध्य चेतना से मुक्ति’ कहते थे।उनके लिए मुक्ति स्वेच्छाचार नहीं है।उन्हें यह कामना रही कि स्त्री -पुरुष में परस्पर प्रेम हो, वे एक दूसरे के भौतिक तथा आत्मिक विकास में सहभागी बनें।स्त्री को पुरुष अपने से कमतर न समझे।जैनेंद्र को परिवार और समाज को तोड़कर स्त्री की स्वछंदता जरूर स्वीकार्य नहीं थी।आज स्थितियां बदली हैं।हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपना होना प्रमाणित किया है।किंतु वैयक्तिकता का पश्चिमी मॉडल स्त्री स्वातंत्र्य के लिए जिस तरह वरेण्य हो गया है, परिवार और समाज का तानाबाना बिखर रहा है।जैनेंद्र होते तो इससे दुखी होते।
जिज्ञासा – जैनेंद्र राष्ट्र के केंद्र में रामराज्य की अपेक्षा करते हैं, इसका क्या अर्थ है?
ज्योतिष जोशी – जैनेंद्र का अधिकांश लेखन और चिंतन गांधीवाद से प्रभावित है।वे स्वयं सत्याग्रही थे, स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी।उनका स्वप्न भी स्वाधीनता के बाद रामराज्य की स्थापना ही था।कांग्रेस में रहते हुए आंदोलन के दौरान ही उन्हें समझ में आ गया कि स्वतंत्रता के बाद पदलोलुपता की प्रवृत्ति के कारण इच्छित लक्ष्य उपलब्ध नहीं हो पाएगा।भारतीय संविधान की व्यवस्थाओं में ग्राम जीवन की बड़ी आबादी के लिए कोई जगह नहीं मिली।बाद में गांधी की उपेक्षा से स्पष्ट हो गया कि नए भारत में ‘सुराज’ के लिए जगह बची ही नहीं है, जिसमें ग्रामोदय, जनपदीय विकास और स्वदेशी की परिकल्पना थी।गांधी की हत्या और बाद के दिनों में सत्ता परिवर्तनों ने भी रही सही कसर पूरी कर दी।उनकी दृष्टि में रामराज्य का अर्थ है ‘सुराज’, जो ‘स्वराज्य’ से अलग चीज है।
समीक्षित पुस्तकें
(१)अवसाद का आनंद– सत्यदेव त्रिपाठी, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, २०२२ (२)अनासक्त आस्तिक– ज्योतिष जोशी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, २०१९
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