प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।

दुनिया के लोग आने वाले युग की कल्पना करते रहे हैं। कुछ तो सौ-सौ साल बाद की भी। अभी जी-20 की समाप्ति पर यह आशा व्यक्त की गई है कि 2047 तक देश विकसित हो जाएगा और अर्थव्यवस्था के मामले में तीसरे नंबर पर पहुंच जाएगा। क्या तब नागरिकों को चिकित्सा और औषधियों की गारंटी देने की स्थिति में भारत होगा? भोजन, शिक्षा और सूचना की तरह चिकित्सा और औषधियां भी नागरिकों की बुनियादी जरूरतें है।

भारत के नागरिकों के पास ‘राइट टू फूड’, ‘राइट टू एडूकेशन’ और ‘राइट टू इनफार्मेशन’ हैं। इनका होना आंशिक ही सही, संवैधानिक आश्वासन है।

किसी विकसित देश की एक महत्वपूर्ण कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके नागरिकों को शारीरिक अस्वस्थता होने पर डाक्टर और दवाइयां कम से कम कितने घंटे में मिल जाते हैं। मुहल्ला क्लिनिक या इसी तरह के नाम से कई शहरों में क्लिनिक खोले गए हैं। इन क्लिनिकों से नागरिकों को कितना लाभ हो रहा है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शहरों में दस हजार नागरिकों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। गांवों की हालत ज्यादा बदतर है।

एक अध्ययन बताता है कि 2047 तक भारत की 60 प्रतिशत आबादी शहरों में रहेगी। अनुमान है कि 2047 में देश की आबादी 165-170 करोड़ के दरम्यान होगी। यानी लगभग सौ करोड़ आबादी शहरों में होगी। शहरों की बनावट और जरूरत से यह समझा जा सकता है कि बेरोजगारों या वरिष्ठ नागरिकों/बुजुर्गों के लिए यहां कैसी जगहें होंगी। इसी से जुड़ी हुई चिंता है कि शुद्ध हवा और शुद्ध पानी की कैसी व्यवस्था होगी। क्या 2047 में भारत एक ऐसा देश होगा जो अपने नागरिकों को शुद्ध हवा और शुद्ध पानी की चिंता से मुक्त कर देगा? 2047 में बेघरों की संख्या पिछले सौ सालों में सबसे अधिक हो, तो यह अचंभित नहीं करेगा।

विमान से यात्रा करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, मगर देश की बड़ी आबादी की यात्रा का सबसे बड़ा साधन रेलवे है। रेलवे अपने एक युग से निकल कर दूसरे युग में प्रवेश कर रहा है। उसका विस्तार हो रहा है। गति भी बढ़ रही है। मगर आखिरी आदमी की पहुंच से ट्रेन बाहर होती जा रही है।  ट्रेन में आम नागरिक सामान्य सुविधाओं के साथ आदमी की तरह यात्रा कर सके, यह अभी स्वप्न है। सबसे निचले दर्जे तथा अनारक्षित डिब्बों में यात्री भेड़-बकरियों की तरह होते हैं।

आदिवासी क्षेत्र की जमीन भी ओपेन मार्केट में आ जाएगी। बाजार अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए सब कुछ बेचना प्राथमिक सूची में पहले स्थान पर है। विकास की रफ्तार से असमानता का विस्तार हो रहा है। समानता अब टूटा हुआ सपना है। 2047 तक पहुंचते-पहुंचते कालेधन को सुरक्षित रखने के लिए स्विस बैंक की तरह के और भी नए केंद्रों तथा और भी नए तरीकों की जरूरत पड़ेगी। भारत का कालाधन आज की तुलना में कई गुना बढ़ चुका होगा। विकास और कालाधन एक ही खेत की फसलें हैं।

शिक्षा का लगातार महंगा होता जाना कुल आबादी के बड़े हिस्से को जरूरी शिक्षा से वंचित करना है। बाजार का बंधन दिमाग को जकड़ रहा है। देखना यह है कि आजादी की सदी तक देश में विवेक और सौहार्द कितना बचा रहेगा। स्थानीय स्वायत्तता भी एक बड़ी चुनौती है।

क्या आजादी की एक सदी पूरी होने तक यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि किसान बदहाली का शिकार नहीं रह जाएगा? क्या उसे आत्महत्या के लिए विवश करनेवाली स्थितियां नहीं रहेंगी? क्या तब तक किसानों के हाथों से कृषि क्षेत्र निकल कर कॉरपोरेट के हवाले हो जाएगा, ‘मिनिमम गवर्नेंस’ फलित हो चुका होगा? कॉरपोरेट युग अपने दूसरे चरण की चढ़ान पर होगा। आज की तुलना में तब देश का हर नागरिक और अधिक कर्ज में डूबा होगा!

भारत पर कर्ज लगातार बढ़ रहा है। मार्च 2023 में यह 624.3 अरब डॉलर था, जून में यह 629.1 अरब डॉलर है। भारत का व्यापार-घाटा भी बढ़ा है। भारतीय रिजर्व बैंक का बयान है, ‘पिछली तिमाही की तुलना में चालू खाते के घाटे में वृद्धि की प्रमुख वजह घाटा बढ़ना, शुद्ध सेवाओं में घटा अधिशेष और निजी हस्तांतरण से प्राप्तियों में गिरावट है।’ यह खबर बिलकुल नहीं चौंकाती कि विकास के आंकड़े ने अपना रुख बदल लिया है। विकास की गति जितनी तेज होगी, कर्ज की मात्रा भी उसी रफ्तार से बढ़ेगी। वैश्वीकरण ने अपना पहला चरण समाप्त कर लिया है। उसकी अश्वमेध यात्रा का लक्ष्य वैश्विक लूट है।

खुशहाल भारत बनने के लिए चिंताओं और चुनौतियों का अंत नहीं है। ‘वागर्थ’ ने अपनी चिंताएं सवाल के रूप में हिंदी के कई बुद्धिजीवियों से शेयर कीं और उन बुद्धिजीवियों ने भी अपनी चिंताएं ‘वागर्थ’ से शेयर की हैं।

सवाल

(1) 2047 में आप कैसा भारत देखना चाहते हैं? जो भारत बनेगा उसमें राजा राममोहन राय के युग से लेकर वैश्वीकरण युग तक के बुनियादी भारतीय सपनों की बुनियाद कितनी बची रहेगी?

(2) 2047 तक क्या लोकतंत्र अपने बुनियादी सरोकारों के साथ बचा रहेगा? अगर बचा रहेगा तो वह लोकोन्मुखी होगा या एलीटमुखी?

(3)विकास का अर्थ अब आर्थिक विकास तक सिमट कर रह गया है। क्या 2047 तक पहुंचते हुए विकास के इस मॉडल में दूसरे अवयव जुड़ पाएंगे?

(4)हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं के दिन क्या बहुरेंगे? हिंदी साहित्य और रंगमंच कितना सिकुड़ चुका होगा 2047 तक?

(5)धर्म, कला और विज्ञान नई आर्थिक राजनीति के दास हैं। क्या इनकी मुक्ति के आसार दिखते हैं?

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अशोक वाजपेयी
प्रसिद्ध हिंदी कविआलोचक। भोपाल के भारत भवन के निर्माण में बड़ी भूमिका। प्रमुख कृतियां इस नक्षत्रहीन समय में’, ‘कवि ने कहा’, ‘कुछ रफू कुछ बिगड़े। हाल में तीन खंडों में सेतु समग्र : अशोक वाजपेयी

यह समय भयावह यथार्थ के बीचनिर्भय स्वप्न देखने का है

(1) हम एक ऐसे भयावह समय में जी रहे हैं जिसमें सपने देखने से डर लगने लगा है। सचाई की भयावहता, कू्ररता, हिंसा, विडंबना आदि की शिनाख्त करने से डर लगता है। बहुत सारे स्वप्न हमने दुस्स्वप्न में बदलते देखे हैं। सचाई इस कदर हमें आक्रांत कर रही है कि उससे अलग कुछ सोचना लगभग असंभव लगने लगा है। फिर भी, चूंकि हम मनुष्य हैं, नागरिक हैं, लेखक हैं सो भले अविवक्षित, सपने देखने से बाज नहीं आते। यह सही है कि हमारे समय में झूठ, घृणा, हिंसा आदि इतने फैल गए हैं और उनपर यकीन करनेवाले भी इतने अधिक हो गए हैं कि सच हमें नजर ही नहीं आता। सच हमारे समय का अल्पसंख्यक है। वह लगभग सपना हो गया है। उसी की तरह अवास्तविक।

हमने स्वतंत्रता संग्राम और फिर अपने संविधान के माध्यम से स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता का जो विराट स्वप्न देखा था, हमारा आज का स्वप्न उस विराटता से अलग नहीं हो सकता। इस स्वप्न को साकार करने के जो प्रयत्न किए गए, वे सब भुलाकर अब इस सपने को ही हमारी आंखों के सामने अपदस्थ और लांछित किया जा रहा है। स्वतंत्रता में लगातार कटौती, समता की अवहेलना, न्याय का विद्रूप और बंधुता पर प्रहार हमारे सार्वजनिक जीवन की दैनंदिन घटनाएँ हैं। करोड़ों नागरिक धर्म, जाति या आय के आधार पर दोयम दर्जे के नागरिक बनाए जा रहे हैं। न तो हमारा स्वप्न, न हमारी वास्तविकता इन लोगों को छू पा रही है। समान अधिकारिता की धारणा उनके अनुभव या असली जिंदगी से बाहर हो चुकी है।

हर विराट स्वप्न कभी भी पूरी तरह से साकार न हो सकने के लिए अभिशप्त होता है। पर हम तो उस स्वप्न से इतनी दूर हट गए हैं कि अब उसे लगभग व्यर्थ मान लिया जाने लगा है। लेखक भविष्यवक्ता नहीं होते, हालांकि उन्हें, अपनी मानवीय नियति से प्रतिबद्धता के कारण, भविष्य का कुछ आभास होता है। तो इस बहुत वेध्य मनःस्थिति से यह कहा जा सकता है कि अगले लगभग पचीस वर्षों में यानी अपनी स्वतंत्रता की पहली शती पूरी करने पर हम इस विराट स्वप्न के कुछ अधिक साकार, अधिक निकट, अधिक मानवीय प्रतिपूर्ति के नजदीक होंगे। इस समय कू्ररता और दुष्टता से भंग की जा रही हमारी सामाजिक समरसता तब तक अपने को फिर से विन्यस्त कर चुकी होगी। हम अपने सर्वधर्म समभाव के विवेक पर व्यापक रूप से लौट चुके होंगे। हम स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता के मूल्यों में आस्थावान और उनकी स्थापना के लिए अधिक सजग-सक्रिय होंगे ः हमारी नागरिकता इन मूल्यों की रखवाली कर रही होगी।

(2) अभी तो यह तक सोचना कमजोर पड़ रहा है कि तब लोकतंत्र बचा रहेगा। उसकी जिजीविषा कई बार डांवाडोल लगती है। तीन तंत्र- राजनीतिक तंत्र, बाजार का तंत्र और टेक्नोलॉजी का तंत्र लोक को नहीं दबा देंगे, यह सोचना इस समय कठिन लगता है। स्वयं लोक अपने को मुखर-सक्रिय होकर बचा पाएगा इसके लक्षण कम से कम अभी बहुत धुंधले हैं। व्यवस्था की लोकोन्मुखता इधर इतनी तेजी से घटती, कम होती जा रही है कि वह फिर से सशक्त हो पाएगी ऐसा सोचना दुराशा लगता है।

इस निराश आकलन से यथार्थ के स्तर पर सहमत और स्वप्न के स्तर पर असहमत हुआ जा सकता है। यह समय अपने भयावह यथार्थ के बरक्स निर्भय स्वप्न देखने का है। बार-बार हारने के बावजूद, न थकने का है। यह मध्यवर्ग के सभी लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात से अपने को अलग करने और उसका प्रतिरोध करने का है। यह मध्यवर्ग लोकतंत्र की सारी सुविधाओं का दोहन कर अब उसे नष्ट करने में मुदित मन व्यस्त है।

वह एक नए किस्म का एलीट है, जिसमें कुरुचि-हिंसा-घृणा के अलावा जातिवाद-सांप्रदायिकता-धर्मांधता का बोलबाला है। वह सांस्कृतिक रूप से बेहद निरक्षर है। उसकी लोकतंत्र पर पकड़ ढीली पड़ेगी, ऐसा अनुमान लगाना कठिन है। सच्ची लोकतांत्रिक भावना को तब भी लंबा और गहरा संघर्ष करना पड़ेगा। तब लोकतंत्र स्थापित नहीं हो जाएगा- प्रकिया में होगा।

(3) विकास का जो विकल्प और धारणा हमने अपनाए उसके मूल में यह रहा है कि असली विकास आर्थिक ही होगा। अन्य सब तरह के विकास उसी से संभव होंगे और उनका लक्ष्य और नियति आर्थिक विकास को तेज और व्यापक करना है।  इस मॉडल को नई टेक्नोलॉजी ने और व्यापक कर दिया है। उसमें सुगमता, सुलभता, भव्यता के पहलू आ गए हैं। उसकी विकृतियों और दुष्परिणामों पर ध्यान कम जाता है। उसके चलते जो बहुत कुछ नष्ट या क्षत-विक्षत होता गया और हो रहा है उसे हम अधिकतर अलक्षित करते हैं। तब तक शायद ये विकृतियाँ विशाल लोक विपत्ति और दुर्घटना का रूप ले चुकी होंगी और तब शायद हम कुछ चेतें। अभी तो आर्थिक विकास हमारी आकांक्षा का हिस्सा है और वहाँ से उसका अपदस्थ होना लगभग असंभव जान पड़ता है।

(4) हिंदी का संकट इस समय सबसे भयानक और हृदयविदारक है। राजनीतिक मानचित्र बता रहा है कि लगभग सारा गैर-हिंदीभाषी भारत सांप्रदायिकता-जातिवाद-हिंसा-हत्या-घृणा-फूट की शक्तियों को खारिज या सीमित कर रहा है, जबकि लगभग सारा हिंदी अंचल इन शक्तियों को समर्थन, प्रोत्साहन, पोषण और सत्तारूढ़ कर रहा है। यह एक तरह का घातक बंटवारा है। गनीमत है कि इस समय हिंदी साहित्य अपने समाज के अधिकांश से असहमत है और इन शक्तियों का और इसलिए स्वयं अपने समाज का प्रतिरोध कर रहा है। असल में तो आज हिंदी साहित्य ही हिंदी समाज का न सिर्फ सांस्कृतिक-बौद्धिक प्रतिपक्ष है, बल्कि राजनीतिक प्रतिपक्ष भी है। उम्मीद करनी चाहिए कि उसकी यह भूमिका आगे भी सक्रिय-सशक्त रहेगी। यह सोचकर दहशत होती है कि ऐसा न हो कि लोकतंत्र सिर्फ साहित्य में बचे और व्यापक हिंदी समाज से वह गायब या बेहद शिथिल हो जाए।

हिंदी रंगमंच इस अर्थ में हमेशा साधनहीन रहा है। उसे हिंदी समाज का बहुत थोड़ा समर्थन और पोषण मिला। उसका सौभाग्य था कि अनेक बड़े गैर-हिंदीभाषी रंगनिर्देशकों ने उसमें काम कर उसे ऊंचाई पर पहुंचाया। अब उसकी साधनहीनता और बढ़ गई है। उससे वह कैसे उबरेगा, यह समझ में नहीं आता।

(5) यह कहना कि धर्म, कला और विज्ञान सभी राजनीति के दास हैं, एक सरलीकरण है। इससे सहमत होना कठिन है। हिंदी अंचल में धर्म, विशेषतः हिंदू धर्म, राजनीति का बहुत उत्साहपूर्वक दास हुआ है। उसके बड़े नेता बड़ी आक्रामकता के साथ उसकी विचारधारा और राजनीति के प्रचारक हो गए हैं, जबकि सांप्रदायिक हिंदुत्व को हिंदू धर्म के तत्व-चिंतन, अध्यात्म और बुनियादी मान्यताओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उससे उत्साहित धर्मनेता खुलेआम दूसरे धर्मों के भारतीय अनुयायियों के प्रति हिंसा का आवाहन करते रहते हैं।

हिंदी अंचल में सामाजिक सुधार के आंदोलन नहीं हुए। स्त्रियों-बच्चों-दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों के विरुद्ध हिंसा-हत्या-बलात्कार आदि जघन्य अपराधों के क्षेत्र में   सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उनका दो-तिहाई हिंदी अंचल में होता है। निरपराध और निहत्थे को मार देना वीरता का नया प्रतिमान बन गया है।

कला के क्षेत्र में दृश्य मिला-जुला है। बहुसंख्यक समकालीन चित्रकार-मूर्तिकार आदि ने अपना पाला नहीं बदला है। लेकिन काम मिलने के फेर में बहुत सारे युवा समझौते करने लगे हैं। कुरुचिपूर्ण, भदेस सार्वजनिक कला पर बहुत खर्च किया जा रहा है, जबकि ऐसी कला में परंपरा, लोक, आदिवासी और आधुनिक कला से आया कुछ भी नहीं है। शास्त्रीय संगीत और नृत्य का अधिकांश राजकीय सहायता पर निर्भर होता है और उसमें अदम्य अवसरवादिता बहुत गहरे धंसी हुई है। जब लेखक, कलाकार प्रतिरोध करते हैं तो शास्त्रीय कलाकार कभी उनके साथ नहीं आते।

मुक्ति का कोई आंदोलन या उसका कोई पूर्वरंग मेरी बुढ़ाती आंखों और मंद बुद्धि को नजर नहीं आता। इस बीच कई मिथक ध्वस्त हुए हैं। यह कहना कि शिक्षा मुक्ति देती है, पढ़े-लिखे को उदार और समझदार बनाती है, अब यह अतिरंजना है। हिंदी अंचल में बहुत सारा अतिचार पढ़े-लिखे ही कर रहे हैं। वे हत्या-हिंसा-घृणा-बलात्कार-धर्मांधता-सांप्रदायिकता-जातिवाद की बुलडोजी राजनीति के प्रयोक्ता और कट्टर समर्थक हैं।

यह मिथक भी टूटा है कि भारतीय समाज अहिंसक है। जिस कदर हिंसा अब दैनिक आचरण बन गई है, उससे स्पष्ट है कि हम एक हिंसक समाज हैं, जिसे बुद्ध-महावीर, भक्ति काव्य और गांधी आदि ने अहिंसक बनाने की कोशिश की, पर इस समाज का बुनियादी हिंसक स्वभाव अंततः नहीं बदल सका। अतः जरूरत एक व्यापक मुक्ति आंदोलन की है। एक ऐसा आंदोलन जो सारे समाज में, स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता के मूल्यों और व्यवहार को सशक्त करे। स्थानीय स्तर पर देश भर में कुछ छोटे-बड़े समूह इस दिशा में सक्रिय हैं। उनकी उपस्थिति और सक्रियता अधिक दृश्य और व्यापक होना अभी बाकी है।

सी-60अनुपम हाउसिंग सोसायटी, बी-13, वसुंधरा एन्क्लेव, नई दिल्ली-110096  मो. 9811515653

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जयशंकर प्रसाद

यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि
द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि
अनजान समस्याएं गढ़ती रचती हो अपनी ही विनष्टि
कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़ें भेद
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हां मिले अनिच्छित दुखद खेद
हृदयों का हो आवरण सदा अपने वक्षस्थल की जड़ता
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर चले विश्व गिरता पड़ता
तब कुछ भी हो यदि पास भरा, पर दूर रहेगी सदा तुष्टि
दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।
(कामायनी)

 

 

 

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असगर वजाहत
प्रसिद्ध कथाकार और नाटककार। संगीत नाटक अकाडेमी अवार्डऔर शलाकासम्मान से सम्मानित। लंबे समय तक जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में अध्यापन। चर्चित पुस्तकें भीड़तंत्र’, ‘सबसे सस्ता गोश्त’, ‘सफाई गंदा काम है’, ‘चलते तो अच्छा था’,  ‘जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्याइ नईआदि। हाल की चर्चित  फिल्मगांधी गोडसे एक युद्ध

 आगे चलकर विकास का स्वरूप बदलेगा

(1)हम निश्चित रूप से भारत को खुशहाल और संपन्न देखना चाहते हैं, शक्तिशाली देखना चाहते हैं। यह भी चाहते हैं कि आम आदमी, गरीब आदमी तक वह संपन्नता पहुंचे और लोगों का जीवन अच्छा जीवन बने। अब सवाल यह है कि जो वैश्वीकरण की प्रक्रिया चल रही है, इस प्रक्रिया को अगर भारत के नीति-निर्माता नीतियां निर्धारित करने वाले सार्थक ढंग से देश के हित में प्रयोग करते हैं तो निश्चित रूप से उससे लाभ होगा। अगर साम्राज्यवादी शक्तियां उसको अपने हित में इस्तेमाल करती हैं, तो इससे देश का अहित होगा। सबकुछ इसपर निर्भर करेगा कि हमारे राजनेता किस प्रकार की नीतियों को अपनाते हैं।

(2)मुझे लगता है कि भारत का भविष्य लोकतंत्र में ही निहित है। लोकतंत्र ही भारत की मुक्ति, भारत के विकास, भारत की प्रगति का अकेला रास्ता है। देश की वे राजनीतिक शक्तियां, जो लोकतंत्र के पक्ष में हैं, जो लोकतंत्र को बल देना चाहती हैं, वे अगर सशक्त रूप से आगे बढ़ती हैं, तो 25 साल के बाद भारत में लोकतंत्र मजबूत होगा। एक बात यह भी है कि भारत के इन्हेरेंट करेक्टर, यानी उसके स्वभाव में छुपा हुआ है लोकतंत्र। अगर हम लोकतंत्र को भारत से, मान लीजिए, निकालने की कोशिश करते हैं तो यह उसकी आत्मा है और आत्मा को नहीं निकाला जा सकता। इसलिए लोकतंत्र को सुरक्षित रखना और आगे बढ़ाना और जनसाधारण तक उसको ले जाना बहुत आवश्यक है, क्योंकि अभी लोकतंत्र का लगभग बहुत बड़ा फायदा केवल एलीट क्लास को ही मिल रहा है। जनता, सर्वहारा, गरीब, सबसे गरीब लोगों की समस्याएं लगभग वैसी ही हैं जैसी पहले थीं।

(3)तीसरा बहुत महत्वपूर्ण सवाल है विकास की अवधारणा। विकास के केंद्र में कौन होना चाहिए। विकास कैसा? विकास किसके लिए? विकास क्यों? आजकल लगभग यह स्थिति है कि विकास भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया है। विकास आरोपित किया जाता है। विकास जनता के माध्यम से जनता की देखरेख में जनता की आकांक्षाओं को सामने रखते हुए कम हो पाता है। बल्कि जो नीति निर्धारक हैं वे ऊपर बैठ कर नीतियां बनाते हैं, उसको लागू करते हैं और उसी को विकास माना जाता है। मुझे आशा है, आगे चलकर विकास का यह स्वरूप बदलेगा।

एक बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि विकास केवल धरातल पर नहीं होता, बल्कि आवश्यक है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में भी हो। उसके मन में भी हो। उसके विचारों में भी विकास हो।  विचारों में जब तक विकास नहीं होगा तब तक धरातल पर किए जाने वाले विकास का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि विकास से जो लोग लाभान्वित होना चाहेंगे उनका मानसिक-भावनात्मक विकास होना बहुत जरूरी है।

हमारे देश में केवल भौतिक स्तर के ऊपर विकास की परिकल्पना है, जबकि शिक्षा को, जागरूकता को, कला-संस्कृति को, साहित्य को भी विकास का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाना चाहिए और उस पर भी उतना ध्यान देना चाहिए, जितना सड़क बनाने पर, हवाई अड्डे बनाने पर और कारखाने खोलने आदि पर दिया जाता है।

(4)भारतीय भाषाओं को इस युग में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ेगा। बहुत अधिक परिश्रम करने के बाद ही भारतीय भाषाएं आज के वातावरण में अंतरराष्ट्रीय भाषाओं से टक्कर ले पाएंगी। यदि भारतीय भाषाओं ने अपने विकास, अपनी समृद्धि पर ध्यान नहीं दिया तो उनकी स्थिति बहुत दयनीय हो जाएगी।

दूसरी बात यह है कि हिंदी साहित्य और रंगमंच कितना सिकुड़ चुका है। इस संदर्भ में हिंदी रंगमंच और साहित्य के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि अन्य भारतीय भाषाओं, संस्कृतियों की तुलना में हिंदी भाषा और हिंदी संस्कृति अभी काफी पीछे है। कारण क्या हैं, उन कारणों को समझने की आवश्यकता है। लेकिन इतना निश्चित है कि हिंदी का रंगमंच मराठी, गुजराती, कन्नड़ या और दूसरी भाषाओं के रंगमंच की तुलना में बहुत पीछे है। हिंदी साहित्य में भी हम बाहरी तौर पर उछाल देखते हैं। हम देखते हैं कि किताबें अधिक छप रही हैं, प्रकाशन अधिक बढ़ गया है, लेकिन क्या आम लोगों तक किताबें जा रही हैं? मेरे विचार से अभी भी आम लोगों तक किताबें पहुंच नहीं रही हैं। उनको पहुंचने के रास्तों को खोजना होगा और किताबों को लोगों तक ले जाना होगा। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है।

(5)धर्म, कला और विज्ञान इन तीनों को एक साथ नहीं रखा जा सकता। धर्म और राजनीति, धर्म और सत्ता के समीकरण बिलकुल अलग होते हैं, जबकि कला, विज्ञान और सत्ता के समीकरण उससे बिलकुल भिन्न होते हैं। धर्म एक तरह से सत्ता का सहयोगी होता है। वह सत्ता को सहयोग देता है, सत्ता के साथ मिलकर उसमें हिस्सेदारी करता है। जबकि कला, साहित्य और विज्ञान का सत्ता से अलग अपना अस्तित्व होता है। यह भी देखा गया है कि कलाएं और विज्ञान सत्ता के अंतर्गत नहीं होते, बल्कि वे सत्ता को रास्ता दिखाने का काम करते हैं, सत्ता के आलोचक भी होते हैं। वे सत्ता से अलग अपना महत्वपूर्ण अस्तित्व रखते हैं। यही कारण है कि कला, विज्ञान और सत्ता के संबंध बहुत तनावपूर्ण होते हैं। तनावपूर्ण होने का बहुत बड़ा कारण यह है कि सत्ता उन्हें अपने अंतर्गत लेना चाहती है, लेकिन कलाएं और विज्ञान की प्रकृति ऐसी है जो स्वतंत्र रूप में ही विकसित होती है। उसका अस्तित्व स्वतंत्र रूप में ही स्वीकार्य होता है, मतलब वे प्रकृति से स्वतंत्र हैं। इस वजह से उनकी स्वतंत्रता को बनाए रखना सत्ता के लिए जरूरी है, लेकिन यह सत्ता के लिए काफी बड़ी चुनौती होती है।

द्वारा हैदर अली, हिंद विभाग, जेएमआई, जामिया नगर, नई दिल्ली110025 / मो. 9818149015

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रविभूषण
वरिष्ठ आलोचक और टिप्पणीकार। रांची विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर। प्रमुख कृतियां :‘रामविलास शर्मा का महत्व’, ‘वैकल्पिक भारत की तलाश

 साहित्य पर संकट बढ़ेगा, पर रचनाशीलता समाप्त नहीं होगी

(1) 2047 में भारत की आजादी का शताब्दी वर्ष होगा। मैं उस समय के भारत को सही अर्थों में स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक, समावेशी, प्रगतिशील और भेद-भाव मुक्त देखने की कामना करता हूँ। मेरी इच्छा कॉरपोरेट नियंत्रण से मुक्त, वैज्ञानिक चेतना से युक्त, समस्त असमानताओं से परे, अंधास्था, सांप्रदायिकता, मनुवाद-ब्राह्मणवाद, जातिवाद-संप्रदायवाद, हिंसा, अपराध, भ्रष्टाचार मुक्त भारत की है।

राजा राममोहन राय का स्मरण आवश्यक है। उनके विचार प्रगतिशील थे। उन्होंने भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात कही है। बंगाल में किसान के ऊपर चलने वाली दमनकारी नीतियों का उन्होंने विरोध किया था, करमुक्त भूमि की मांग अंग्रेजों के सामने रखी थी। स्त्री-पुरुष, अंग्रेज-भारतीय, हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण-शूद्र सबके प्रति समान व्यवहार को उन्होंने महत्व दिया था। वे फ्रांसीसी राज्यक्रांति के प्रशंसक थे। उनका कहाना था, ‘मनुष्य कहीं भी उत्पीड़ित हो, वह भाषा, धर्म और हितों से भले ही अलग हो, क्या मुझे उसके दुख दर्द से मुंह फेर लेना चाहिए?’ उनका विश्वास विवेक ओर बुद्धि पर था।

आज भारतीय नवजागरण की अधिक आवश्यकता है। 21वीं सदी का भारत सब तरह से समस्याओं के जाल में उलझा हुआ है। जिसे ‘वैश्वीकरण युग’ कहते हैं, वह मुख्यतः अमेरिकी युग है। किसिंगर ने इस युग के आरंभ में ही कहा था कि वैश्वीकरण और कुछ नहीं, अमेरिकीकरण है। इस युग का स्वप्न नवजागरण काल के स्वप्न के सर्वथा विपरीत है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के सभी सपने आजाद भारत में खत्म कर दिए गए। यह एक प्रकार से आतंक का समय है, स्वप्नविहीन समय। फिर भी सपने हैं और होंगे, क्योंकि ‘सबसे खतरनाक होता है/सपनों का मर जाना’।  दिनकर ने स्वाधीन भारत के आरंभिक वर्षों में जो सवाल पूछा था- ‘अटका कहां स्वराज, बोल दिल्ली तू क्या कहती है/ तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है?’ वह आज भी पूछने की जरूरत है। बुनियादी सपनों की बुनियाद बचाने के लिए लड़ाई लड़नी होगी।

(2) 2047 तक लोकतंत्र के बचे रहने की कम संभावना है। इस समय मनुवाद-ब्राह्मणवाद, संप्रदायवाद, पूंजीवाद-कॉरपोरेट संस्कृति सब एक साथ मिलकर लोकतंत्र को समाप्त करने में लगे हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए एक बड़े आंदोलन की, राष्ट्रीय आंदोलन की जरूरत है। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था कॉरपोरेट तंत्र के पक्ष में और लोकतंत्र के विरोध में है। इस समय लगातार लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार किया जा रहा है। लोकतंत्र को सबसे अच्छी शासन-व्यवस्था माना जाता है, पर अब उसके भीतर तानाशाहों का जन्म हो रहा है।

पिछले एक दशक से लोकतंत्र और संविधान बचाने की बात बार-बार कही जाती रही है। बुनियादी सरोकारों के साथ 2047 तक लोकतंत्र के कायम रहने की जरूरत है, पर आज जैसी स्थिति को देखकर इसकी संभावनाएं कम हैं। अब लोकतंत्र का अर्थ चुनावी लोकतंत्र है, जबकि लोकतंत्र एक जीवन-पद्धति है, मूल्य-दृष्टि है, जीवन-दर्शन है। लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त कर लोकतंत्र को जीवित नहीं रखा जा सकता।

रघुवीर सहाय ने बहुत पहले ‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हँसे’ और नागार्जुन ने ‘अब तो बंद करो हे देवि/यह चुनाव का प्रहसन’ लिखा था। भारत एक ‘दोषपूर्ण लोकतांत्रिक देश’ है। कोस्टारिका जैसा देश ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी से निकल कर ‘पूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी में और निकारागुआ दोषपूर्ण लोकतंत्र से सर्व सत्तावादी शासन की श्रेणी में आ गया। 2047 तक भारतीय लोकतंत्र पूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में शामिल होगा या सत्तावादी शासन की श्रेणी में रहेगा, वह इसपर निर्भर करता है कि देश में लोकतंत्र को बचाने का सशक्त भारतीय आंदोलन जन्म लेता है या नहीं?

स्टीवेन लेवीत्स्की और डैनिअल जिबलैंट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ ः व्हाट हिस्ट्री रीविल्स अबाउट आवर फ्यूचर’ में बताया है कि लोकतंत्र के भीतर से, चुनाव से तानाशाह जन्म ले रहे हैं। भारत में ‘जन’ की तुलना में ‘अभिजन’ कहीं अधिक प्रमुख और ताकतवर हैं। देश में अभी लोकजागरण, नवजागरण जरूरी है, अन्यथा लोकतंत्र लोकोन्मुखी न होकर ‘एलीटमुखी’ ही रहेगा।

(3)पिछले तीस वर्षों में जिन कुछ शब्दों के साथ खिलवाड़ किया गया है, उसके वास्तविक अर्थ बदले गए हैं उनमें एक शब्द ‘विकास’ भी है। आर्थिक विकास शब्द गलत है। सही शब्द है आर्थिक वृद्धि और संवृद्धि। अंग्रेजी के ‘ग्रोथ’ और ‘डेवलपमेंट’ में अंतर है। अब विकास का अर्थ अर्थशास्त्रीय है। विकास सर्वांगीण होता है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा मनु से कहती है-‘अपने में सबकुछ भर कैसे/व्यक्ति विकास करेगा/यह एकांत स्वार्थ भीषण है/ अपना नाश करेगा’। एक कवि विकास को व्यापक और सर्वांगीण रूप में देखता है और एक अर्थशास्त्री के लिए विकास का अर्थ मात्र आर्थिक है।

2047 तक विकास (या विनाश) के इस कारपोरेट मॉडल के समाप्त होने के कम आसार हैं। इसे कोई बड़ा राष्ट्रीय जनांदोलन ही समाप्त कर सकता है। 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने की जो बात हो रही है, वह क्या आर्थिक स्तर पर होगा या सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी, यह भी एक बड़ा सवाल है।

(4)भाषा का प्रश्न अपने में स्वतंत्र प्रश्न नहीं है। वह सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न होने के साथ ही राजनीतिक और कुछ अर्थों में आर्थिक प्रश्न भी है। हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के ‘बहुरने’ के आसार कम हैं। विश्व की अनेक भाषाएं प्रत्येक वर्ष समाप्त हो रही हैं। भारत अब एक बड़ा बाजार है। बाजार की भाषा सामाजिक- सांस्कृतिक भाषा को प्रभावित ही नहीं, विरूपित भी करती है। औपनिवेशिक और नव-औपनिवेशिक भारत में अंतर है। अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं पर वैसा हमला नहीं किया था, जैसा इस समय किया जा रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार ने भाषा के भीतर जो बदलाव किए हैं, उनपर हमारा अधिक ध्यान नहीं जाता। इस समय समाज के व्याकरण के साथ भाषा के व्याकरण को भी बदला जा रहा है। बाजार अपनी संस्कृति के साथ उपस्थित है। यह संस्कृति सबकुछ को प्रभावित कर रही है।

शब्द के वास्तविक अर्थ बदले जा रहे हैं और उन्हें सुनियोजित ढंग से एक नए अर्थ से जोड़ा जा रहा है। भाषा का जिस स्मृति से, संस्कृति से संबंध है, उसे बदलना पूंजी और बाजार के हित में है। भाषाएं रहेंगी, पर उनके रूप-स्वरूप में परिवर्तन होगा। हिंदी अब हिंग्रेजी भी है।

2047 तक हिदी साहित्य और रंगमंच के सिकुड़ने और फैलने का सवाल एक बड़ा सवाल है। इसका संबंध मुख्यतः साहित्यकारों और रंगकर्मियों से है। सरकार, शासनतंत्र और सत्ता-व्यवस्था अब साहित्य और रंगमंच के विरोध में है, क्योंकि यहां सच्ची आवाजें उठती हैं। सही सवाल किए जाते हैं। यह समय चित्त में वित्त के वास का है। इसलिए धनपशुओं की संख्या बढ़ रही है।

साहित्य अब स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी पहले की तरह नहीं है। साहित्य के छात्र-अध्यापक साहित्य से विमुख हैं। साहित्य पढ़ानेवाले प्रोफेसरों ने अपनी गुटबंदी और मुंहबंदी से भी साहित्य को क्षति पहुंचाई है। साहित्य सदैव सत्य और न्याय के साथ रहा है। इसलिए झूठ और अन्याय का साथ देनेवाली शक्तियों की साहित्य में रुचि नहीं है।

मुक्तिबोध ने ‘अंतःकरण के आयतन’ के संक्षिप्त होने की बात पचास-साठ के दशक में कही थी। अकादमियाँ, साहित्यिक संस्थान आज कम सक्रिय हैं। शासन पढ़े-लिखे लोगों को नापसंद करता है। शैक्षिक संस्थाओं और प्रतिष्ठानों में होने वाली इधर की बहालियाँ इसके उदाहरण हैं। साहित्य और रंगमंच का संकट बढ़ेगा, पर रचनाशीलता कभी समाप्त नहीं हो सकती। सब खामोश नहीं हो सकते। तानाशाह को साहित्य और रंगमंच से भय है। बुद्धिजीवियों से भय है।

(5)आज की राजनीति तमाम अच्छी चीजों का भक्षण कर रही है। नई राजनीति जनविमुख, कॉरपोरेटोन्मुख, अभिजनोन्मुख है। इसे सही अर्थों में प्रगतिशील एवं परिवर्तनकामी राजनीति ही बदल सकती है। नई राजनीति धर्म, बाजार और कॉरपोरेट के साथ जो कुछ कर रही है, वह 2047 तक अगर जारी रहा तो और अधिक कोहराम मचाएगी। इसके साथ विज्ञान नहीं, तकनीक है। तकनीक का जिस पूंजी से संबंध है वह पूंजी इस राजनीति के साथ है। राजनीति जन विमुख हो चुकी है, इसका चरित्र बदल चुका है। यह घातक, मारक और अविश्वसनीय है। इसकी डोर आततायी पूंजी से जुड़ी है। अब यह ‘स्वामी’ के रूप में है और हम सबको दास बना रही है। इससे मुक्ति के लिए एक नए मुक्ति आंदोलन, स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत है।

204, रामेश्वरम साउथ ऑफिस पाड़ा, डोरंडा, रांची834002 (झारखंड), मो.9431103960

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राहुल सांकृत्यायन

राज्यक्ष्मा, मिर्गी, दमा आदि रोगों का अब संसार ही से नाम उठ गया। मामूली ज्वर, सिर दर्द, अजीर्ण, चोट-फोट यही साधारणतया रोग होते हैं। 60-70 वर्ष का अब का आदमी 20वीं सदी के 35-40 वर्ष के हृष्ट-पुष्ट आदमी सा मालूम होता है। पान, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट, शराब, गांजा, अफीम आदि चीजों का किसी को पता नहीं।… भूमंडल पर अब कहीं कोई धर्म नहीं रहा।… स्त्री अत्याचार कहीं सुनने में नहीं आता।… पैसे का नाम उठ जाने से तथा वैयक्तिक संपत्ति न रह जाने से फल-फूल, खेत-बारी, कल-कारखाना सबकुछ राष्ट्रीय है। इसलिए अब उतने कानूनों की भी भरमार नहीं। इनकम टैक्स कानून, बंदोवस्त कानून, कोर्ट फीस, आबकारी, काश्तकारी, लगान, ज्वाइंट स्टॉक कंपनी, आदि-आदि सैकड़ों कानूनों का अब काम ही नहीं है। दीवानी मामलों की जड़ ही समाप्त हो गई है, क्योंकि धन-धरती किसी व्यक्ति की है ही नहीं।

फौजदारी के कानून का आकार भी बहुत घट गया है, क्योंकि धन-धरती के अपहरण-विषयक चोरी-डकैती आदि अपराध अब संभव ही नहीं… तीन वर्ष की उम्र तक सभी बच्चे राजकुमारों जैसे पाले जाते हैं। तीन वर्ष की उम्र के बाद वे स्कूलों में भेज दिए जाते हैं, जहां 17 वर्ष तक शिक्षा सबकेलिए अनिवार्य है।… सभी मकान एक से हैं। आजकल जो वस्तु जहां अच्छी हो सकती है वहां पैदा की जाती है। एक गांव एक ही चीज पैदा करता है। वहां जरूरत की दूसरी चीजें और जगहों से पहुंचती हैं। …अधिकांश काम मशीनों द्वारा किए जाने की वजह से काम और समय कम लगता है। हफ्ते में पांच दिन और रोज कुछ ही घंटे प्रत्येक व्यक्ति को कम करना पड़ता है। इतने में ही स्वर्ग सुख भोगने की सभी वस्तुएं प्रस्तुत हो जाती हैं।… हर आदमी के पास घड़ी रखने की फिजूलखर्ची राष्ट्र ने बंद कर दी है। इसलिए समय की सूचना देने के लिए भोजन-जलपान के चार समयों पर तथा सुबह जागने के समय तोप का गोला छोड़ा जाता है।          

(बाईसवीं सदी)

 

 

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विष्णु नागर
वरिष्ठ हिंदी कवि और गद्यकार। नवभारत टाइम्ससहित कई प्रमुख पत्रिकाओं में संपादकीय दायित्व का निर्वाह। रातदिनऔर ईश्वर की कहानियाँविशेष रूप से चर्चित।

 हिंदी ज्ञान की भाषा अब शायद ही बन पाए

‘हम सभी एक-दूसरे की मदद करना चाहते हैं। हम एक-दूसरे के सुख के लिए जीना चाहते हैं, दुख का कारण नहीं बनना चाहते। हम एक-दूसरे से घृणा नहीं करना चाहते। इस दुनिया में हर किसी के लिए जगह है। पृथ्वी समृद्ध है और सभी का पोषण कर सकती है। जीवन का मार्ग स्वतंत्र और सुंदर हो सकता है, लेकिन हमने रास्ता खो दिया है।

‘लालच ने मनुष्य की आत्मा को जहर से भर दिया है, दुनिया को घृणा, हिंसा और दुख में धकेल दिया है। हम दौड़ना सीख गए, पर अपने अंदर खुद को बंद कर लिया है। मशीनरी- जिसने हमें संपन्न बनाया है- उसने हमारी इच्छाओं को बढ़ाया है। हमारे ज्ञान ने हमें निंदक बना दिया है। हमारी चतुराई, कठोर और निर्दयी है।

‘हम सोचते बहुत अधिक हैं और महसूस बहुत कम करते हैं। मशीनरी के बजाए हमें मानवता की जरूरत है। चतुराई से अधिक हमें करुणा और विनम्रता की आवश्यकता है। इन गुणों के बिना, जीवन हिंसक होगा और सब खो जाएगा…’

(चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ के अंतिम हिस्से के कुछ अंश।)।

2047 का भारत कैसा होगा, दूसरे अवश्य जानते होंगे, मैं नहीं जानता। मैं चैपलिन का अनुकरण करते हुए थोड़ा-बहुत यह जानता हूँ कि इसे कैसा होना चाहिए और राजनीतिक अर्थों में वैसा तो बिलकुल ही नहीं, जैसा कि वह आज है। हर रचनाकार-कवि-कथाकार-पेंटर-गायक-फिल्मकार आदि हमेशा उस तरह की दुनिया के स्वप्न देखा करता है, जैसा कि ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ में चैपलिन ने देखा था। रचनाकार अपनी हताशा-निराशा और क्रोध में भी बेहतर दुनिया के स्वप्न देखता है। वह बेहतर, मानवीय, समतामूलक दुनिया का स्वप्न देखना किसी हालत में बंद नहीं कर सकता। वह नैतिक और आत्मिक रूप से इसके लिए बाध्य है।

मैंने पिछली सदी के नवें दशक में एक पूरी कविता (संसार बदल जाएगा) में भविष्य का एक स्वप्न देखा था (वैसे तो हर रचना किसी स्वप्न से ही गुजरती है)। फिर भी आज हम जिस संसार में हैं, यह दुनिया तो किसी रचनाकर्मी का स्वप्न नहीं  हो सकती। हम यथार्थ की ऐसी कठोर भूमि पर खड़े नहीं हो सकते, जिसमें स्वप्न की कोई जगह न बचे, क्योंकि इस तरह हम, मनुष्यों से उनके सपने छीनने वालों के साथ खड़े हो जाएंगे।

स्वप्नों ने ही बड़ी हद तक दुनिया को आज तक बनाया है। स्वप्न न होता तो विश्व विजय के रथ पर सवार, अपनी जनता को पागल बना देनेवाला हिटलर हारता नहीं, वह आत्महत्या नहीं करता। स्वप्न न होता तो सोवियत संघ एक समय सपनों की मशाल लेकर आगे न चल रहा होता। हिटलर के सामने दीवार बनकर रूसी लोग जानें देकर भी खड़े न होते। स्वप्न न होता तो हम आज एक आजाद देश न होते। वियतनाम के लड़ाके अमेरिका जैसी दुनिया की बड़ी ताकत को झुका न पाते। असंख्य उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। सपने न होते तो जीवनभर मुसीबतों से घिरे मुक्तिबोध अपनी तमाम मुश्किलों के बीच एक महान रचनाकार न बन पाते। ग़ालिब, ग़ालिब न होते, प्रेमचंद, प्रेमचंद न होते।

बहुत से स्वप्न बनकर भी बिगड़ जाते हैं। किसी भी स्वप्न के साकार होने का लंबा रास्ता सरल-सपाट और सीधा नहीं होता। बहुत  टेढ़ा-मेढ़ा, सर्पिल होता है। हमें आजादी मिली थी बहुत बड़ी कीमत चुकाकर। फिर भी हमने भविष्य की बेहतरी के सपने देखे। कुछ बड़े सपने साकार भी हुए और आज हम एक गड्ढे में जा गिरे हैं। हम आज उस स्वप्न से भटके हुए-से हैं। फिर भी मनुष्य सपने देखना बंद नहीं करता। एक बेहतर दुनिया का स्वप्न दरअसल मनुष्य होने की बुनियाद है। इस तर्क से देखें तो 2047 का भारत आज से बहुत बेहतर भारत हो सकता है। कुछ अर्थ में वह आज भी है, अगर राजनीति के क्रूर यथार्थ के बाहर हम उसे देख सकें। यह सरकार हमें 2047 का जो सपना दिखा रही है, वह खोखला है। मगर इस बहाने एक समानांतर सपना देखने का अवसर हमें मिला है और सपनों पर कभी शासक वर्ग का एकाधिकार नहीं रहा, रह नहीं सकता। आज भी नहीं है। वह अस्थायी विजय पा सकता है, मगर बड़े स्वप्न के आगे वह हमेशा बौना होता है।

आज से 24 साल बाद सबकुछ इनका इच्छित होता रहेगा, यह इनकी बहुत बड़ी खामखयाली है। इसकी वजह यह है कि शासक वर्ग, शासितों के बहाने केवल अपने लिए सपने देखता है। उसे विश्व स्तर के हवाई अड्डे, हवाई जहाज चाहिए, रेलें और रेलवे स्टेशन चाहिए। उसे 150-200 किलोमीटर की गति से चलनेवाली कारें चाहिए, बाधारहित, मजबूत- शानदार सड़कें चाहिए, जिनमें एक भी लालबत्ती न हो। उसे बेहतरीन से बेहतर माल चाहिए। उसे अपने लिए दुनिया की नई से नई टक्नोलॉजी चाहिए, सुविधाएं चाहिए। और सब कुछ उसे अपने टेबल पर रखा-सजा चाहिए।

इन दस वर्षों के तथाकथित विकास की प्राथमिकताएं देखिए, दिशा देखिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। बाकी सब जो हो रहा है, खानापुरी है। हमारी जरूरत मंदिर और मंदिर और मंदिर नहीं है, भगवानों और महापुरुषों की ऊंची से ऊंची और ऊंची प्रतिमाएं नहीं हैं, मगर विशेषकर उत्तर भारत की सभी सरकारें इसी में लगी हैं। हर साल सरकारी स्कूल बंद होते जा रहे हैं, मंदिर बनते जा रहे हैं और नफ़रत की फ़सल बढ़ती जा रही है। सरकारी अस्पतालों की हालत खस्ता है मगर सेंट्रल विस्टा बन रहा है।  महंगाई से मध्यवर्ग त्रस्त है, गरीब वर्ग का जीना मुहाल है, मगर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का झुनझुना दिखाया जा रहा है। सबको शायद सब समझ में आ रहा है, मगर सब चुप हैं।

लोकतंत्र आज खतरे में है, साधारण आदमी से विरोध का अधिकार छीना जा रहा है। मगर जो आज है, क्या वही अंतिम सत्य है? मेरे छात्र-युवाकाल का समय शब्द के हर अर्थ में आज बदल चुका है तो यह भी क्या ठहरेगा? 2047 तक ठीक यही बना रहेगा? किसी में ताकत है समय पर इस तरह कब्जा करने की? कोई आज तक कर सका है?

और समय की चाल केवल राजनीतिक नहीं होती और वह स्थिर भी नहीं रहता। लोकतंत्र लौटे शायद किसी नए रूप में, नई शक्ल में। समस्याएं तब भी रहेंगी, समाधान भी तब नए निकलेंगे।

2047 तक भारतीय भाषाओं के दिन बहुरेंगे, इसमें आज मेरा विश्वास नहीं है। हो सकता है हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में जीवित रहे। मगर लिखित भाषा और ज्ञान की भाषा वह अब शायद ही बन पाए! वह ऊर्जा खो चुकी है। हो सकता है, अंग्रेजी सभी भारतीय भाषाओं को निगल ले, पर पुनः यह कहना होगा कि आज जैसा दिखता है या हम जिस जगह से देख रहे हैं, दृश्य निराशाजनक दिखाई दे रहा है, पर संभव है कि जमीनी हकीकत कुछ और आकार ले रही हो और हम उसे देख न पा रहे हों!

धर्म साधारणतः राजनीति का क्रीतदास रहा है। आज वह अपने निकृष्टतम रूप में है। वह एक ओर नफरत का हथियार बना हुआ है, दूसरी ओर बाजार में बिकनेवाली उपभोक्ता सामग्री। वह जड़ और जर्जर है। ऊपरी चमक-दमक उसकी व्यर्थता को छुपाए हुए है। निराशाजनक स्थितियां और भविष्य धर्मावरण की मांग बढ़ा रहा है। अगले ढाई दशक तक यही स्थिति शायद ही रहे। बदलनेवाली ताकतें भी अपने अपने ढंग से सक्रिय रहेंगी। कौन किस तरह, कहां से, किस साधारण-नामालूम तरीके से बदल रहा है, कौन जाने! दंभ में डूबे शासक और उनका वर्ग तो यह नहीं ही जानते, जान ही नहीं सकते!

34, नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेज1, दिल्ली110091  मो. 9810892198

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सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

आज सभ्यता के वैज्ञानिक जड़ विकास पर
गर्वित विश्व नष्ट होने की ओर अग्रसर
स्पष्ट देख रहा, सुख के लिए खिलौने जैसे
बने हुए वैज्ञानिक साधन, केवल पैसे
आज लक्ष्य में है मानव के, स्थल-जल-अंबर
रेल-तार-बिजली जहाज नभयानों से भर
दर्प कर रहे हैं मानव, वर्ग से वर्गगण
भिड़े राष्ट्र से राष्ट्र, स्वार्थ से स्वार्थ विचक्षण।

(अपरा)

 

 

 

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कर्मेंदु शिशिर
प्रसिद्ध आलोचक और लेखक। नवजागरण पर कई विशिष्ट कार्य। दो उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तेरह आलोचना पुस्तकें और कई यात्रा संस्मरण तथा संपादित पुस्तकें प्रकाशित।

समवेत मुक्ति में ही भारत का भविष्य है

(1)यह कहना मुश्किल है कि 2047 में जो भारत होगा उसमें राजा राममोहन राय की आधुनिक भारत की शुरुआती सोच और नवजागरण के कितने और किस तत्व के अवशेष रहेंगे। इस देश में आजादी के बाद इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि इसका संविधान रहा  है। उसमें बहुत कुछ भारत का प्रतिबिंबन था, लेकिन कुछ हद तक उसमें अव्यावहारिकता, आदर्श और आशावाद ज्यादा था। उसमें आसन्न भारतीयों और आने वाले विश्व की कोई दूरदर्शी समझ थी, ऐसा नहीं लगता। इसमें इतने छोटे-छोटे सुराख थे जिससे इसमें लुंपन लोग आसानी से घुस गए। पूंजी के असीमित और अथाह होने पर कोई बंदिश न थी। अनेक जटिल सवाल आगे के भरोसे छोड़ दिए गए, जबकि वे खुद उनको सुलझा सकने में बौद्धिक रूप से ज्यादा समर्थ थे।

भारत की मौजूदा तस्वीर में जो अनेक तरह की उथल-पुथल और अनेक अराजकताएं दिख रहीं हैं। उनके दो पक्ष हैं। एक है सांस्कृतिक पक्ष, जो अनेक पक्षों से अविच्छिन्न रूप में जुड़ा है। दूसरा, इसके पीछे खेल वित्तीय पूंजी का है। वित्तीय पूंजी के असीमित और अथाह होते जाने के लिए देश में अराजकता और न सुलझने वाली समस्याओं का होना जरूरी है। जनता को आपस में उलझे रहने के लिए पर्याप्त विकल्प चाहिए। उसमें कोई कमी है भी नहीं। इसलिए मेरी समझ से 2047 के भारत का स्वरूप पूंजी के निरंकुश, अकुंश और विरोध पर ही निर्भर करेगा।

(2)पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतंत्र एक मोहक धोखा है। क्या आपको लगता है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं? यह दुनिया बदल नहीं रही है, बदली जा रही है। यह हो रहा है पूंजी और ताकत से। ऐसी ताकत जो हथियार से भी ज्यादा ताकतवर है- ज्ञान की ताकत। आज की व्यवस्था कैसी होगी, इसे कैसे चलना है, यह पूंजी और ज्ञान की ताकत तय करेगी। ढांचा और तंत्र  लोकतंत्र की तरह दिखना चाहिए। फिर जिस हद तक संभव है, अपना दोहन करते रहिए। आप लोकतंत्र के सारे स्तंभ और तमाम इजारों पर गौर कीजिए कि कितने हिस्से तक पर खानदानी काबिज हैं। जो स्पेस छोड़ा गया है, उसमें कितनी विशाल आबादी की प्रतियोगिता है? आप कल्पना कर लीजिए।

सर्वोच्च न्यायालय किसी बड़े अपराधी के लिए आधी रात को खुल सकता है और एक बेबस आदमी दो रोटी की चोरी में दशकों जेल में सड़ सकता है। फिर किसके लिए लोकतंत्र मुफीद हुआ और किसके लिए उसका कोई मतलब नहीं? इस लोकतंत्र में दुकान की दवाएं आउट ऑफ डेट होती हैं और सामने मरीज मर जाता है। आप कल्पना कीजिए कि एक अरब आबादी में कुछ गिनती के लोगों के पास 70 से 85 प्रतिशत धन है। यह कैसे हो गया? इसी लोकतंत्र से तो! कोई तानाशाही तो न लगानी पड़ी? लोकोन्मुखी से आपका क्या मतलब है?

देखिए इस लोकतंत्र में लोकोन्मुखी काम किया जाता है कि यह लोकतंत्र जैसा दिखता रहे। इसके लिए बहुत सारे काम किए जाते हैं, जैसे स्कूलों में दोपहर का भोजन! कभी देहरादून स्कूल के बच्चों को खिचड़ी खिलाकर असल लोकतंत्र दिखाइए तो? बड़ों के विवाह में जो जूठन निकलता है उसमें दस गरीब लड़कियों की डोली उठ जाए! तो उस अमीर को इस लोकतंत्र से क्या परेशानी है? बोलने की सबको आजादी है।

आप किसी भी प्रदेश के सुप्रीमो के घर के किसी व्यक्ति के बारे में बोलकर देखिए, आपकी क्या दशा होती है। देश या प्रदेश के या किसी के लाल ही सबसे विजनरी नेता हैं, उनके लिए यह लोकतंत्र रबर की तरह मुड़ेगा या नहीं? क्या सामान्य आदमी करेगा सामना? लेकिन आपको लोकतांत्रिक हक है तो लिए रहिए हक! पैसे और ज्ञान की ताकत की जितनी मात्रा आपके पास होगी उतनी मात्रा इस लोकतंत्र में आपको भी मिलेगा। मेरे ख्याल से 2047 तक सिलसिला  यही रहेगा- ज्यादा कुरूप या जटिल, लेकिन स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है।

(3)विकास और प्रगति- दो बिलकुल अलग अवधारणा हैं। विकास सामान्य जन के लिए नहीं होता, वे आनुषंगिक लाभार्थी हो जाते हैं। अंग्रेजों ने रेल बनाई माल को गंतव्य तक आसानी से ले जाने के लिए। जनता को लाभ हुआ, लेकिन यह अंग्रेजों का उद्देश्य नहीं था। भारत में स्कूल और हॉस्पिटल का विकास लोगों को रोग मुक्त करने के लिए है या मेडिकल सेक्टर और उससे जुड़े लोगों की संपन्नता के लिए? अगर नहीं, तो पैसे के लिए लाश क्यों रोक ली जाती है? फिर आप इंफ्रास्ट्रक्चर में परिवहन को लीजिए। सड़क बनती है तो टोल टैक्स लागत से ज्यादा वसूली जाती है। अपार्टमेंट, आराम और विलासिता की सामग्री का उत्पादन और बाजार के व्याकरण को समझिए। इस देश में लाख से पांच-दस लाख वेतन वाले बहुत लोग हो गए। अब देखिए व्यवस्था कैसे उनकी जेब से धन पूंजीपतियों के पास पहुंचाती है। आप इतने वेतन में फ्लैट और कार जरूर चाहेंगे। व्यवस्था है कि बैंक आपके घर आ जाएगा। अब आपका पैसा सीमेंट, इस्पात, कांच, टाइल्स, प्लाई, लकड़ी और अन्य चीजों में जाएगा! सोचिए, आपकी पूंजी कहां-कहां किस-किस की जेब में पहुंचती है।

कार उद्योग में देखिए, कितनी कंपनियां हैं! फैशन, कपड़ा और होटल उद्योग! मसलन आप अपने धन पर पलने वालों की गिनती नहीं कर सकते। फिर अगर कंस्ट्रक्शन का काम नहीं होगा तो नेता, ठेकेदार और इंजीनियर मोटी रकम कैसे खाएंगे? रकम खाने के लिए भी ऐसे विकास किए जाते हैं। इतने सारे गीध मांस भक्षण करते हैं। अब आप उन लोगों की विशाल आबादी पर गौर कीजिए जो जानवर की तरह रहते हैं और जानवर की तरह ही जीते हैं। वे अशक्त, उपेक्षित और निरुपाय लोग हैं। गांव से शहर के फुटपाथ तक इनकी विशाल आबादी है। सोचिए मीडिया में इनको कितनी जगह मिलती है? कौन नया मॉडल लाएगा और किसके लिए, और क्यों? पूंजीवादी मॉडल का विकल्प तो समाजवादी मॉडल ही है। रूस और चीन के अनुभव के बाद क्या आपको लगता है कि जनता फिर इसपर विचार करेगी? मुझे तो नहीं लगता, लेकिन अब तक ज्ञात विकल्पों में समाजवादी मॉडल ही हो सकता है। यह संभव नहीं है तो हमको आधुनिक दुनिया का नया विश्लेषण कर एक व्यवहार में संभव विकल्प पर सोचना चाहिए।

(4)कोई भी भारतीय भाषा खत्म नहीं होने जा रही है। अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में शिक्षित होने वाली पीढ़ी इस देश की आत्मा से दूर हो जाएगी। वह दुनिया में कहीं भी बस सकती है। वे मिट्टी से उखड़े हुए लोग हैं। फिर भारतीय भाषाओं के बोलने वाले लोग ही इन्हें पालेंगे, पोसेंगे और जीवित रखेंगे। इसलिए कि हर भारतीय भाषा के पास भक्ति काव्य का दुर्लभ वैभव है, सबका लोकसाहित्य है। वह चिरस्थायी है। इन भाषाओं को बोलने वाले लोग सोचना बंद नहीं करने वाले, और न भावनाएं व्यक्त करना छोड़ देंगे। आखिर वे अपनी सोच और भावनाएं किस भाषा में व्यक्त करेंगे? दरअसल पूंजीवाद को विविधताओं से दिक्कत होती है।  उसे लाभ है राजनीति और व्यवसाय के एकीकृत नियंत्रण से।

भारत की एकता आज तक खतरे में न पड़ी। उसे दिक्कत भारत की विविधता से हो रही है। इसलिए वह धीरे-धीरे इसे कमजोर कर रही है। इसे बदल रही है। इसे मिटाने की कोशिश कर रही है। लेकिन यह संभव हो नहीं पा रहा है। मैथिली और राजस्थानी में अनेक दुर्लभ चीजें देखने को मिलीं। अब तो वे भाषाएं जो अत्यंत उपेक्षित आदिवासी भाषाएं हैं, अपना हक मांग रही हैं और उनको कम या ज्यादा आपको देना पड़ रहा है। किसी की ताकत नहीं कि इनको खत्म कर दे। हां, इनके विकास की गति को, वेग को ये अवरोधित कर सकते हैं, कर रहे हैं। मगर सारी भाषाओं में  काम हो रहा है।

हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, उड़िया, पंजाबी, कन्नड़, तमिल और मलयालम का विस्तार देश के बाहर तक हो रहा है। इन भाषाओं में काम हो रहे हैं। इन सारी भाषाओं का आधुनिक तकनीक से बढ़िया तालमेल बन चुका है। देखिएगा ये आगे बहुत विकसित और नई शक्ल के साथ दिखेंगी।

हिंदी तो अब विश्व भाषा बन चुकी है। इसका साहित्य विश्व स्तर पर समादृत हो रहा है।

(5)धर्म, कला और विज्ञान कब नहीं राजनीति के दास थे? धर्म को लोहिया जी ने दीर्घकालिक राजनीति कहा था। किस पर शोध करना है अब यह राजनीति और पूंजी तय करेगी। इनकी स्वायत्त मुक्ति की बात सोचने का कोई तुक ही नहीं बनता। राजनीति जनाभिमुख हो सकती है या शासकाभिमुख। भले क्षीण हो, लेकिन इसका द्वंद्व तो रहेगा।

संभव है आज जनाभिमुख राजनीति कमजोर हो, लेकिन यह स्थायी नहीं है। समय बदलेगा, आज नहीं कल? कल नहीं परसो। जनमुक्ति के एक विशाल आंदोलन की परिस्थितियां तो हैं, लेकिन कोई नैरेटिव नहीं है। कल वह भी होगा तो सारे असंतोष की समवेत अभिव्यक्ति भी हो सकती है। लेकिन एक बात तय है कि समग्र मुक्ति ही असल है स्वायत्त मुक्ति मेरी समझ से संभव नहीं।

बी301 किंग्सउड कोर्ट अपार्टमेंट, गैलेरिया मार्केट के पीछे, क्रॉसिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद201016

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ऐल्फिन टॉफलर

न केवल मातृत्व, बल्कि पितृत्व की धारणा भी आमूलचूल परिवर्तित होगी, क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब एक बच्चे के दो से अधिक जैविक माता-पिता होंगे।

जब एक महिला अपने गर्भाशय में ऐसे भ्रूण को धारण करेंगी जिसे किसी अन्य महिला ने अपनी कोख में सिरजा हो, तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि बच्चे की मां कौन है और पिता कौन?

जब कोई दंपति भ्रूण खरीदेंगे, तब ‘पेरेंटहुड’ जैविक नहीं कानूनी मुद्दा बन जाएगा।

तीव्र सामाजिक परिवर्तन तथा वैज्ञानिक क्रांति को डांवाडोल करनेवाले सुपर-इंडस्ट्रियल लघु परिवार के नए रूपों को अपनने पर विचार करेगा तथा विविधरंगी पारिवारिक व्यवस्थाओं को आजमाएगा। ऐसी स्थिति में आने वाले समय में नातेदारी के संबंधों को बताने के लिए हमें एक पूर्णतः नई शब्दावली गढ़नी होगी।

…पूर्व औद्योगिक परिवारों में न केवल बहुत सारे बच्चे होते थे, वरन उन परिवारों में दादा-दादी, चाचा-चाची तथा चचेरे भाई-बहन आदि संबंधी भी होते थे। इस तरह के विस्तृत परिवार धीमी गति वाले कृषि-आधारित सामाजों के लिए उपयुक्त थे। परंतु ऐसे ‘अचल’ परिवारों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना मुश्किल होता था। अतः औद्योगिकता की मांग के अनुसार, विस्तृत परिवार अपना अतिरिक्त भार त्याग कर तथाकथित ‘न्यूक्लियर’ परिवार के रूप में उभरे, जिसमें माता-पिता कम बच्चे पर बल दिया जाने लगा। नई शैली का यह अधिक गतिशील परिवार औद्योगिक देशों का मानक आदर्श बन गया।

(फ्यूचर शॉक, 1970)

 

 

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पंकज मित्र
चर्चित कथाकार। प्रकाशित कृतियां क्विजमास्टर’, ‘हुड़ुकलुल्लू’, ‘ज़िद्दी रेडियो’, ‘बाशिंदातीसरी दुनिया’ (कथासंग्रह)। भारतीय भाषा परिषद के युवा सम्मान’, ‘मीरा स्मृति सम्मान’, ‘वनमाली कथा सम्मानआदि। संप्रति : आकाशवाणी, जमशेदपुर में कार्यक्रम अधिशासी।

कृत्रिम मेधा अपना वर्चस्व बढ़ाती जाएगी

(1) 2047 में हमारा देश एक आजाद देश के रूप में सौ वर्ष पूरे करेगा, हालांकि देश के लिए सौ वर्ष की उम्र बहुत नहीं होती है, लेकिन सौ वर्षों के जीवन में इतना तो हो ही जाना चाहिए कि देश के प्रत्येक नागरिक के लिए दो वक्त का भोजन, पीने का साफ पानी, सांस लेने के लिए साफ हवा, रोजगार का कोई न कोई जरिया, सर पर एक अदद छत, शिक्षा और स्वास्थ्य की गारंटी और न्याय और सम्मान पर आधारित एक व्यवस्था उपलब्ध हो सके। अगर इतनी बुनियादी जरूरतें भी हमें अधिक लगती हैं तो इसका अर्थ है कि मानव समाज के रूप में हम ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए हैं। यह दुखद है कि जो बुनियादी जरूरतें हैं किसी मनुष्य के लिए, उन्हें पूरा करना अभी भी हम स्वप्न के रूप में ही देखते हैं। जो देश इस बात पर गौरव का अनुभव कर रहा हो कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा, तकरीबन 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज मुहैया कराया जा रहा है तो ऐसे देश में लोकतांत्रिक मूल्य, न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का स्वप्न तो दिवास्वप्न ही कहा जाएगा न।

(2)लोकतंत्र का अर्थ अगर वोट देकर सिर्फ प्रतिनिधि चुनना भर है तो शायद यह व्यवस्था बनी रहेगी, क्योंकि कोई और बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं है। परंतु लोकतंत्र के बुनियादी सरोकार क्या हैं, यह एक बड़ा सवाल है। जिन मौलिक अधिकारों की चर्चा हमारे संविधान में की गई है और जो न्याय और करुणा पर आधारित समाज बनाने हेतु निर्देशक भूमिका निभाते हैं, उन सरोकारों के साथ व्यवस्थाएं और यह समाज कितनी दूर तक चलने को तैयार है, यह महत्वपूर्ण है।

वर्तमान परिस्थितियों में जिस तरह विश्वबाजार की सर्वग्रासी व्यवस्था, विश्वग्राम बनाने के रंगीन सपनों की आड़ में लोकतांत्रिक संस्थाओं, अवधारणाओं को निगलती जा रही हैं, गलाकाट प्रतिद्वंद्विता के नाम पर रोज-रोज रोजगार समाप्त करती जा रही हैं, मनुष्य हताशा और निराशा के गर्त में डूबता जा रहा है, इसे कतई शुभ लक्षण नहीं कहा जा सकता है और लोकोन्मुखी तो बिलकुल नहीं। शिक्षा और स्वास्थ्य का निरंतर निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण एक विशाल वंचित समूह को जन्म दे रहा है और आगे भी मुट्ठी भर लोग ही लाभ के अधिकारी होंगे, यह तय है।

(3)विकास जो शब्द है, इतनी बार और इतने तरीके से दोहराया जा चुका है कि अब इसमें से व्यंग्यात्मक अर्थछवियां प्रकट होने लगी हैं। जिन चीज़ों या प्रतीकों को विकास मान लिया गया है उनमें से अधिकतर मनुष्य-विरोधी, पर्यावरण-विरोधी, समता-विरोधी और न्याय-विरोधी हैं। सड़कें, फ्लाइओवर, शॉपिंग मॉल्स, जीडीपी आदि को विकास के मानदंड मान लिए गए हैं। एक बड़ा मानव समुदाय अपने खेतों, पहाड़, जंगलों, गांवों से बेदखल कर दिया गया है। उनकी सांस्कृतिक पहचान के जो अवयव हैं, उन सबको या तो समाप्त कर डाला गया है या बाजार की शक्तियों ने उनमें प्रचुर विकृतियां ला दी हैं। उदारवाद के बायप्रोडक्ट के रूप में जो नवमध्यवर्ग पैदा हुआ है वह सिर्फ उपभोग की शब्दावली से परिचित है। लगता नहीं है कि 2047, जिसमें बमुश्किल 24-25 साल बाकी है, उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन घटित होगा। खासतौर पर वैसे लोग, जिन्होंने अभी-अभी इस उपभोग मंत्र में दीक्षा ली है, उनके मानसिक बुनावट में कोई परिवर्तन आएगा और सांस्कृतिक चेतना, पर्यावरण चेतना या समतामूलक समाज निर्माण की चेतना का स्फुरण हो पाएगा, यह मुश्किल ही लगता है।

(4)हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के लिए थोड़ा अच्छा समय भी है और बहुत सारा बुरा समय भी। अच्छा इसलिए कि एक विशाल उपभोक्ता वर्ग है जो अभी हिंदी ही जानता है और बाजार की शक्तियों को इसकी बहुत जरूरत है। इसलिए अभी ठंडा मतलब कोका कोला हो रहा है। अन्य भारतीय भाषाएं भी अभी उनके काम आ रही हैं। लेकिन ये शक्तियां प्राणपण से चेष्टा में लगी हैं कि कैसे इस समाज को एक अंग्रेजीदां समाज में बदला जाए। तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता इसमें पूरी मदद कर रही है। एक तरफ जहां मोबाइल फोन भारतीय भाषाओं में विकल्प उपलब्ध करा रहे हैं तो दूसरी तरफ भाषा की आवश्यकता को ही खत्म किए दे रहे हैं। जिस तेजी से कृत्रिम मेधा (एआई) हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाती जा रही है और हमारी निर्भरता जैसे-जैसे बढ़ेगी, हम अपनी भाषा से दूर होते जाएंगे। हिंदी और अन्य भाषाओं के साहित्य ने अधिकतर समय बाजार की शक्तियों का प्रतिपक्ष रचा है। लेकिन हाल की प्रवृत्तियों ने थोड़ा निराश जरूर किया है।

बेस्टसेलर की अवधारणा का प्रसार, लेखकों की सूची जारी करना आदि ऐसी ही चीजें हैं। रंगमंच पहले ही इन प्रवृत्तियों की ज़द में आ चुका था- बड़े और भव्य प्रदर्शन, नाट्य प्रदर्शन में दोहराव, आमजन से निरंतर दूरी और आभिजात्य की प्रवृत्तियों की तरफ निरंतर झुकाव। विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म की दिग्विजय ने रंगमंच के आयतन को थोड़ा संकुचित किया है। यदि रंगमंच के जन से जुड़ाव को पुनर्जीवित नहीं किया गया तो 2047 तक यह और सिकुड़ चुका होगा।

(5)धर्म, कला, विज्ञान के क्षेत्रों में मुक्ति की आहट की जगह पुनरुत्थानवादी प्रवृतियां काबिज हो रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में जितने बाबागण परिदृश्य पर उभरे और डूबे हैं और बाजार, राजनीति, अपराध से उनके गठजोड़ सामने आए हैं, वह अभूतपूर्व है। खर्चीले कर्मकांड, भव्य निर्माण आदि पर आस्था बढ़ी है न कि अध्यात्म पर। कला का बाजार फूल-फल रहा है। नवधनाढ्य वर्ग की आकांक्षाओं को, दिखावे को सीढ़ी बनाकर और जिस विज्ञान को वैज्ञानिक चेतना के विकास का संवाहक बनना था, वह बेशर्मी से घोषणा कर रहा है कि रॉकेट की तकनीक तो पहले से ही हमारे वेदों में मौजूद है। विज्ञान जब तक लोकोन्मुखी नहीं होगा तब तक तमाम चांद-सूरज की यात्राएं भले ही हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियों में गिना जाए, होगा वह एक प्रकार का शक्ति प्रदर्शन ही। यही नई राजनीति के लिए मुफीद है और संभवतः लंबे समय तक यह सब रहेगा।

102, हरिओमशांति अपार्टमेंट, साकेत विहार, हरमू, रांची, झारखंड834002मो. 9470956032

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पिछले 50 वर्षों में हमने क्या किया
निर्मल वर्मा

अगले पचास साल और आज में मुझे कोई अंतर नहीं जान पड़ता। जो हम आज करेंगे वही अगले पचास वर्षों में भी हमें करना ही पड़ेगा। अगले पचास वर्षों में किस तरह की समस्याएं, किस तरह की चुनौतियां आएंगी, कुछ मालूम नहीं और उसके बारे में भविष्यवाणी करना भी बहुत मुश्किल है। लेकिन आज हमारे भीतर जो सांस्कृतिक खालीपन है, उसको दूर करने के  उपाय इसपर निर्भर करेगा कि यह प्रश्न हमें कितना आलोड़ित करता है। पहले हमें यह जानना चाहिए कि सांस्कृतिक शून्यता से हमारा मतलब क्या है? हमें देखना होगा कि हमारी संस्कृतिे की मूल संवेदनाएं क्या रही हैं? हमारी सभ्यता के मूल आधार क्या थे? वे क्या सिद्धांत थे जिनके आधार पर हम अपनी सृष्टि, प्रकृति, जड़ या चेतन या अपने आत्मा के साथ संबंध स्थापित करते थे। इन संबंधों की शृंखला आज हमें टूटी हुई जान पड़ती है। उसको जोड़ने का प्रयत्न हम तभी कर पाएंगे जब उसकी संगति में अपने जीवन की अर्थवत्ता को जोड़ पाएंगे। अगर इसकी जरूरत ही महसूस नहीं करते, जैसे कि आज अधिकांश भारतवासी नहीं करते तो फिर इस शून्यता का कोई प्रश्न ही नहीं है।

भविष्य की तोतारटंत से क्या होगा! हमें सोचना यह चाहिए कि पिछले पचास वर्षों में हमने क्या किया? इसका एक अन्वेषण होना चाहिए कि पिछले पचास वर्षों में हमने क्या खाया? जब तक हमें यह नहीं मालूम होगा कि पिछले पचास वर्षों में, उससे पिछले पचास वर्षों में, उससे पहले की परंपरा में हमारे जीवन के आदर्श क्या रहे हैं, तब तक आगे के पचास वर्षों के बारे में बात करना तो बहुत दूर की कोड़ी लाना है।

(समकालीन सृजन, 1999)

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