प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
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क्या आप किसी ऐसी औरत को जानते हैं जो घर में चल रहे पूजा-पाठ और कर्मकांड के व्यापार से घुटन महसूस करती हो? क्या आप ऐसी किसी औरत से मिले हैं जो इस किस्म की वजहों से अपने दांपत्य जीवन को असफल मानती हो? ऐसी ही एक औरत है सौम्या। उसे हम तक पहुंचाया है हरियश राय ने अपने नवीनतम और तीसरे उपन्यास ‘दहन’ के माध्यम से।
हिंदी में दहन शब्द का इस्तेमाल दो विशेष अवसरों पर ही किया जाता रहा है, वह है – लंका दहन और होलिका दहन। लेकिन यहां दहन है पिछले दो सौ वर्षों का हासिल। सौम्या एक स्कूल में बीस सालों से पढ़ा रही है। बीस साल पहले उसकी शादी हुई थी। अभी इसकी उम्र पैंतालीस है। लेकिन 21वीं सदी में सौम्या का दम हर मोड़ पर घुट रहा है।
हरियश राय जब बालिग हो रहे थे, भारत की दुनिया बदल रही थी। धार्मिक कर्मकांडों और जड़ताओं से मुक्त हो भारत नया बन रहा था। भारत का युवा लोकतंत्र की रक्षा के लिए मचल गया था। इस समय भारत को तीन सौ साठ डिग्री की उल्टी यात्रा पर ले जाने की तैयारी है। फिर से धार्मिक कर्मकांडों का बोलबाला है। हरियश राय अकेले नहीं हैं, उनकी पूरी पीढ़ी हतप्रभ है। इस बार निर्भया की जगह समूचा भारत है। भारत का लोक व्यवहार, राजनीतिक व्यवस्था है, शिक्षा सब दहन के हवाले है।
21वीं सदी के दूसरे दशक तक पहुंचते-पहुंचते राजनीतिक दबंगई कुछ ऐसी बढ़ गई कि स्कूल में फिर से गायें-भैंसें बंधने लगी हैं।
इस स्कूल की बागडोर विक्रम सेठ के हाथ है, जो शिक्षा निदेशालय के निदेशक हैं और जमीन की दलाली का काम करते हैं। स्कूल की प्रिंसिपल सीमा चहल और टीचर सौम्या त्रिवेदी जो पढ़ा-लिखा कर बच्चों के सपने पूरे करने में जुटी थीं, वे महज आदेश के पालन के लिए हैं।
सौम्या की परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई थी, जहां पूजा-पाठ का नामोनिशान नहीं था। उसने भास्कर त्रिवेदी से प्रेम किया, जो तेज-तर्रार, हर गलत बात को गलत कहने वाला, कर्मकांडों का विरोध करने वाला और वैज्ञानिक दृष्टि की बात करने वाला था। लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, भास्कर त्रिवेदी का मुखौटा उतरने लगा। लेखक ने इस मुखौटे की परतें खोली हैं, ‘कॉलेज के जमाने के तेज-तर्रार, वैज्ञानिक सोच वाले भास्कर शादी के बाद परम कर्मकांडी , पोंगापंथी और अंधविश्वासी निकले। वे पूंजीवाद से उतना नहीं डरते थे, जितना अपने पिता के खौफ से डरते थे। उनके खौफ के आगे मार्क्सवाद का सारा ज्ञान नाली में बहता हुआ दिखाई देता था। मार्क्स को छोड़कर उन्होंने धार्मिक किताबों को हाथ में ले लिया था।’ यह उपन्यास ऐसे विपर्यय का दस्तावेज है।
विपर्यय के समय धर्म मूल्यों का संवाहक न रहकर बाजार और राजनीति का औजार बन जाता है। इस उपन्यास के जरिए भास्कर के पिता बलराज त्रिवेदी के माध्यम से लेखक ने न केवल धर्म का कारबार फैलते हुए दिखाया है, बल्कि समाज में कूपमंडूकता और अंधविश्वास को जीवन का एक बड़ा हिस्सा बन जाते भी दिखाया है। सौम्या का पति भास्कर पूरे मनोयोग से कर्मकांड के व्यापार में लगा हुआ है, पैसा पीट रहा है और लोगों को ठग रहा है। धार्मिक कर्मकांड अब शिक्षा का अंग है, लेखक ने इसे साभिप्राय उपन्यास का हिस्सा बनाया है। उपन्यास के केंद्र में जीवन-व्यवहार में जातिवादी सोच का पुनः उभरना भी है।
इस उपन्यास में एक और चिंता है। कश्मीर में चिनार को बेजान करने और सुखा देने के लिए पेड़ के तनों में ड्रिल करके हींग भर दी जाती है। लेखक ने अपनी पीड़ा प्रकट की है, ‘धर्म के नाम पर यह हींग न जाने कितने लोगों को भीतर ही भीतर खोखला बना रही है।’ लेखक ने सौम्या के माध्यम से कहना चाहा है, ‘आज तर्कहीनता का उत्सव मनाया जा रहा है। विशाल आबादी को विश्वास के नाम पर तर्कहीनता के दलदल में धंसा देना कहां तक ठीक है?’ लेखक आगे बढ़ता है और विजय माही के मार्फत कहता है, ‘हमारे आज के वैज्ञानिक युग में भी बिल्ली के रास्ता काट जाने पर या दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटकाने से लेकर, किसी को डायन कहकर मारने तक अंधविश्वास के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। जिन पूर्वग्रहों और सामाजिक कुरीतियों को हमने मरा हुआ समझ लिया था, वे आज हमारे सामने दुगुनी शक्ति से उभरकर सामने आई हैं। बीसवीं सदी में तर्क और भावना का सामंजस्य था, पर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में तर्कहीनता और सामूहिक पागलपन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं।’ उपन्यास का इक्कीसवां अध्याय इक्कीसवीं सदी का विद्रूप चेहरा उजागर करता है और बताता है कि यह ठूंठ समय है। यह उपन्यास ठूंठ समय में एक ठठेरे की आवाज है।
जिज्ञासा : आपने इस उपन्यास के सौम्या, भास्कर और विजय माही जैसे पात्रों को अपने जीवन में देखे हैं या ये काल्पनिक हैं?
हरियश राय : उपन्यास लिखा जाता है तो पात्र तो जीवन से ही लिए जाते हैं। यह जरूर है कि उनमें कल्पना का भी समोवश होता है। उपन्यास में सौम्या, भास्कर और विजय माही का जो रूप सामने आया है, वह हू-ब-हू किसी एक महिला का या किसी एक पुरुष का नहीं है। मैंने कई महिलाओं और कई पुरुषों से थोड़ा-थोड़ा लेकर इन तीनों पात्रों की रचना की है। इस दौरान अपने समय और समाज के एक बड़े हिस्से की सोच को भी इन चरित्रों में समाहित कर दिया है।
जिज्ञासा : आपने उपन्यास में सौम्या की कैंसर से मृत्यु दिखाई है। क्या उपन्यास का कोई दूसरा अंत नहीं हो सकता था?
हरियश राय : उपन्यास का विकास जिस तरीके से किया गया उसमें सौम्या की मृत्यु दिखाना मेरे लिए ज़रूरी हो गया था। उपन्यास में उसकी मृत्यु एक रूपक है। इसके माध्यम से मैंने उदारवादी और बहुलतावादी सोच, स्त्रियों के प्रति सम्मान की सोच, धर्म की उदारवादी सोच और शिक्षा में सभी तरह के विचारों को जगह देने की सोच के दहन को सामने रखने की कोशिश की है। यह सब हमारे समय में हो रहा है। इसलिए इस उपन्यास का कोई दूसरा अंत मुझे ठीक नहीं लगा। उपन्यास लिखते समय मैंने तय कर लिया था कि सौम्या के चरित्र को कहां ले जाना है और मैं उसे वहीं ले गया।
जिज्ञासा : उपन्यास लिखते समय आपके मन में क्या चल रहा था?
हरियश राय : उपन्यास लिखते समय बहुत सारी चीजें दिमाग में थीं, लेकिन मैंने सौम्या और विजय माही के चरित्र के माध्यम से आज के धार्मिक रूढ़िवाद, खासकर शिक्षा के क्षेत्र में फैल रहे धार्मिक रूढ़िवाद को केंद्र में रखा है, क्योंकि मैंने महसूस किया है कि आज शिक्षा में प्रगतिशील मूल्यों को दरकिनार किया जा रहा है। उपन्यास के कथानक की धुरी शिक्षा व्यवस्था और धार्मिक कर्मकांडों में विश्वास रखने वाला परिवार है, जबकि सौम्या प्रगतिशील मूल्यों में यकीन करने वाली स्त्री है।
जिज्ञासा : क्या रचना में प्रतिरोध का स्वर जरूरी है?
हरियश राय : रचना में प्रतिरोध के स्वर होने चाहिए। बिना प्रतिरोध के रचना यथास्थिति का चित्रण बनकर रह जाएगी।
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अवधेश प्रीत का नया उपन्यास ‘रुई लपेटी आग’ उनका दूसरा उपन्यास है। यहां अहिंसा और शांति के लिए गुहार है। इसके केंद्र में परमाणु विस्फोट और उसकी परिणितियां हैं। इसके अलावा बुनकरों के घटते रोजगार की चिंता है। कालीन उद्योग के क्षेत्र में बाल मजदूरों के शोषण का प्रसंग भी है। विस्थापन की समस्या है, आतंकवाद की प्रताड़ना भी। मुखिया (सत्ता) और बेसहारा औरत के शोषणमूलक संबंध का चित्रण है। साथ ही शोषण के खिलाफ अकेली बेसहारा औरत का खड़ा होना है। इस उपन्यास में नि:शस्त्रीकरण की मांग है। एटम बम के खिलाफ भारत और पाकिस्तान के अवाम की साझी लड़ाई की आकांक्षा है।
भारत में पहला परमाणु परीक्षण 1974 में हुआ और दूसरा 1998 में। इस तरह भारत परमाणु संपन्न देश बन गया। जो अहिंसा और मनुष्यता की भूमि है, वह हिंसक ताकतों से लैस देश बन गया। जब देशों की उन्मादी सरकारें सबक लेना जरूरी नहीं समझती हैं, तब लेखकों के लिए सबक का पाठ लिखना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि लेखक-कलाकारों का धर्म है मोहब्बत फैलाना। इस मोहब्बत के बाबत यह उपन्यास लिखा गया है- बंधु! विश्व को प्रेम और अभय दो।
उपन्यास में तीन किरदार हैं। बाबा, अरुंधति और पखावज। बाबा भारत की संगीत परंपरा को आगे ले जाने के लिए अरुंधति को चुनते हैं। अरुंधति आस्था और लगन के साथ यह जिम्मेदारी लेती है। वह पखावज को साधती है, जिसपर पुरुष ही साधना का अधिकारी बना रहा है। बाबा का विश्वास है एक दिन अरुंधति पखावज को एकल वादन की प्रतिष्ठा दिला सकती है। वह अपनी साधना से इस ऊंचाई को हासिल करती है। लेखक ने परमाणु परीक्षण के समानांतर पखावज को मूल्य और सभ्यता की तरह स्थापित किया है। लेखक को यह दर्द सताता है कि हिरोशिमा और नागासाकी से दुनिया ने सबक नहीं लिया।
बाबा ने अरुंधति को पखावज में दीक्षित करते हुए बताया है, ‘विश्व के सभी प्रकार के संगीत में लय विद्यमान है, परंतु ताल नहीं है। ताल केवल भारतीय संगीत की ही विशेषता है। गायन हो, वादन या कि नृत्य, इस ताल की विशेषता सभी संगीत रूपों में बनी रहती है।’ यह ताल वैदिक युग में नहीं था, वैदिक संगीत जब ‘क्लासिक म्यूजिक’ में विकसित हुआ, तब ताल का प्रयोग आरंभ हुआ। लेखक का बाबा के माध्यम से यह सब बतलाना भारतीय संदर्भ में विशेष मायने रखता है। भारत के समाज में विभिन्नता के बावजूद लय-ताल बना रहा है, जिसे आज तोड़ा जा रहा है। लेखक अवधेश प्रीत की यह केंद्रीय चिंता है।
इस उपन्यास के एक मुख्य किरदार अब्बू हैं, जो पेशे से बुनकर हैं। वे आजादी के दिनों में गांधी के अनुयायी थे और उन्हें भरोसा था कि गांधी के मुल्क में उनके हुनर की कद्र होगी। आजादी के बाद यह भरोसा जाता रहा। उन्होंने देखा कि आजादी के बाद के भारत में पावरलूम आने से हैंडलूम पर गाज गिरनी शुरू हो गई। उन्होंने अपने बेटे कल्लू से कहा, ‘बुनकर लोगों की हालत दिन पर दिन खराब होती जा रही। करघा केतने दिन का मेहमान है, नाहीं कहि सकत। अब कबीरी धंधा के माथे पर फकीरी दिखत हौ।’ यह गांधी के अर्थशास्त्र के उलट नई अर्थव्यवस्था की शुरुआत के दिन थे। औद्योगिक अर्थव्यवस्था पनप रही थी, जिसमें आज की खुली अर्थव्यवस्था सांड की तरह है।
रज्जो परमाणु परीक्षण की शिकार एक किरदार है इस उपन्यास में। रज्जो के लिए कोई भी हमदर्दी मरहम नहीं हो सकती। लेखक को इसका तीखा दर्द है। क्योंकि उसके मासूम बेटे राजू के लिए कुछ भी संजीवनी नहीं हो सकता। राजू को ब्रेन ट्यूमर है और उसका असामान्य सिर परमाणु-परीक्षण का परिणाम है। ऐसा अकेला राजू नहीं है। लगभग हर घर में एक राजू है। नतीजा यह है कि रात ठिठकी हुई होती है। सबकी नींद उखड़ी हुई होती है। हवाओं में बारूद की जहरीली गंध गश्त लगा रही होती है। रात आंखों में ही कटती है। थार की रेगिस्तानी रात में नींद और सपने की कोई जुगलबंदी नहीं होती है। एक नौ साल की बच्ची की आंखों में कोई सपना नहीं है। दुनिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने की गरज से अपने देश के एक हिस्से को युद्धभूमि की परिणति में बदल दिया गया है और उसकी शिकार हुई आबादी को उसके भरोसे ही तिल-तिल मरने के लिए छोड़ दिया गया है। क्या कहीं युद्ध जीतने के पहले यह युद्ध हारना नहीं है? उपन्यासकार पाठक से यह पीड़ा समझने की मांग करता है।
परमाणु-परीक्षण जिस इलाके में होता है वहां का पानी पीने लायक नहीं रह जाता। जीवन नारकीय हो जाता है। इस स्थिति को उपन्यास में एक ग्रामप्रधान के बयान से पुष्ट किया गया है, ‘ये मेरा भतीजा राजन बिश्नोई है। इसे ब्लड कैंसर है। …इसके पिता, मेरे बड़े भाई रत्नेश्वर बिश्नोई भी कैंसर से मरे थे। हमें बहुत बाद में पता चला जी, कि सन् चौहत्तर में जो परमाणु विस्फोट किया गया था, भाई सा उस रेडिएशन की चपेट में बहुत पहले ही आ चुके थे, मेरी लुगाई को भी ब्रेस्ट कैंसर हो चुका है।’ उपन्यास-लेखक ने अपने एक किरदार चंदन के माध्यम से बताया है कि यहां ऐसा एक भी घर नहीं, जहां कोई न कोई रेडिएशन का शिकार न हो।
इस उपन्यास से यह संकेत भी लिया जा सकता है कि पावरलूम से परमाणु-परीक्षण तक के सिलसिले का कैसा अंतर्संबंध है? ग्लोबल अर्थनीति और ग्लोबल सामरिक नीति एक ही दोजख के दो पश्चिमी दरवाजे हैं। एक ओर महाशक्तियां हैं और दूसरी ओर कलाकार-लेखक की आवाज है, जो नक्कारखाने में तूती की तरह इस भरोसे से होती है कि कभी आवाज में असर आएगी। ‘रुई लपेटी आग’ ऐसी ही आवाज है।
जिज्ञासा: आप लंबे समय से कहानियां लिख रहे हैं। उपन्यास लिखने का ख़याल कैसे आया?
अवधेश प्रीत: कहानी हो या उपन्यास दोनों में कॉमन है कथा, यानी वह कथ्य जिसे कहने के लिए लेखक कोई विधा चुनता है। लेखक जब कहानी लिखता है, तो उसके पास कहने का स्पेस छोटा होता है… कथ्य एकरैखिक होता है या उसमें बहुस्तरीयता की गुंजाइश सीमित होती है। इसके विपरीत, उपन्यास का कैनवास बड़ा होता है। कथ्य में निहित बहुस्तरीयता को ट्रीट करने की पर्याप्त गुंजाइश होती है। ऐसी कथा के जरिए जीवन की व्यापकता, उसकी जटिलता और बहुरंगी छवियों, छटाओं को रचने के लिए लेखक को पर्याप्त अवकाश मिल जाता है। एक मुकाम पर लेखक के सामने अक्सर यह स्थिति आती है, जब वह जो कहना चाहता है, उसकी समाई एक कहानी में संभव नहीं लगती, तब उसे कथ्य के अनुकूल दूसरी विधा चुननी पड़ती है। कहानी से उपन्यास की ओर मेरे इस शिफ्ट को इस जरूरत के तहत देखा जा सकता है।
जिज्ञासा:‘रुई लपेटी आग’ लिखने की योजना कैसे बनी?
अवधेश प्रीत: दरअसल 1998 में जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था तभी इस कथा का बीज पड़ा था। इस पृष्ठभूमि पर एक लंबी प्रेम कथा लिख डाली, लेकिन राजेंद्र यादव जी ने इस कथा में उपन्यास की संभावना देखी। इस पर उपन्यास लिखने का सुझाव दिया। कहानी से उपन्यास की ओर प्रस्थान के लिए मुझे अनेक तथ्यों और सत्यों की पड़ताल करनी पड़ी। शोध और संधान से गुजरना पड़ा। जीवन के कई अदीठ पक्षों से रूबरू होना पड़ा। संगीत और साइंस के बीच घटनाओं और पात्रों की आवाजाही की चुनौतियों से जूझना पड़ा। एक स्थानीय समस्या से शुरू हुई कथा न्यूक्लियर हथियार के वैश्विक संकट तक जा पहुंची। जाहिर है, यह सब जितना कठिन था, उतना ही रोमांचक भी। उपन्यास के कथा परिवेश में जाकर स्थितियों का ज़मीनी अध्ययन श्रमसाध्य रहा। मानवीय संकट के हाहाकार और दिल दहला देने वाले तथ्यों ने इस उपन्यास को संभव बनाया।
जिज्ञासा: इस उपन्यास में एक तरफ शास्त्रीय संगीत और शेरो शायरी है, तो दूसरी तरफ परमाणु विस्फोट और उसके रेडिएशन से प्रभावित मनुष्य, पशु, वनस्पति। संगीत और परमाणु बम के योग की यह कथा लिखने का विचार कैसे आया?
अवधेश प्रीत: मैंने शुरू में जब इसे कहानी के रूप में लिखा था तो मेरी नायिका संगीत की विदुषी थी। यह संयोग है कि जिस राजस्थान में पोखरण है, उसी राजस्थान में संगीत का प्रसिद्ध ‘नाथद्वारा घराना’ है। लिहाजा, विस्फोट और सृजन के इस कंट्रास्ट ने मुझे उपन्यास के लिए प्रेरित किया।
शोध के दौरान वाद्य यंत्र पखावज से जुड़ी एक मिथक कथा ने भी उपन्यास के अंतर्सूत्रों को जोड़ने और मायनेखेज़ बनाने में मेरी मदद की। परमाणु विस्फोट के बाद निकले रेडिएशन से पोखरण रेंज के आसपास के गांवों के लोगों, उनके मवेशियों और खेती आदि पर घातक प्रभाव पड़ा है। जानलेवा बीमारियों ने कितने ही घरों को उजाड़ दिया है। ये सब तथ्य हैं, लेकिन कोई पुरसाहाल नहीं है। इन गांवों में फसलें स़फेद पड़ गईं, पानी में रेडिएशन घुल गया, पशु बीमार और विकलांग पैदा होने लगे। ऐसा परमाणु परीक्षण किस कीमत पर? इस होड़ की परिणति क्या है? ऐसे ही कटु प्रश्नों की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास विनाश के विरुद्ध सृजन की हिमायत करता है।
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एकांत श्रीवास्तव ने अपनी पहचान अपनी कविताओं से बनाई है। अपनी कविताओं से मान भी पाया है। इन्होंने कहानियां भी लिखी हैं। एक उपन्यास ‘पानी भीतर फूल’ पहले लिखा है। नया उपन्यास है, ‘पंखुड़ी-पंखुड़ी प्रेम’।
इस उपन्यास का मुख्य किरदार प्रेम है। प्रेम एक लड़की का नाम है जिसके जूते में चांदी के सितारे टंके होते थे, बचपन में। अपनी जीवन-यात्रा में वह प्रारब्ध से किसान है। उसके पांव नंगे रहते हैं। इस स्थिति में पहुंच कर वह समझ पाती है कि जूते पहनने और न पहनने से इंसान कितना बदल जाता है। उपन्यास लेखक ने जीवन-यात्रा के संबंध में जो पंक्तियां लिखी हैं, वे बानगी हैं लेखक के दार्शनिक चिंतन की, ‘यात्राएं खत्म होकर भी कहीं खत्म नहीं होतीं। जिंदगी भी इन्हीं यात्राओं की तरह है। जिसे हम गंतव्य समझते हैं, दरअसल वह कोई मोड़ होता है। गंतव्य दरअसल कहीं नहीं होता। …क्या यात्रा स्वयं ही अपना गंतव्य नहीं है?’ प्रेम का वर्गांतरण किसान में हो जाता है, वह समझ पाती है, ‘एक सीमा के बाद लगान लूट में बदल जाती है। गरीबों से बेगार लेना भी शोषण था – धर्म और न्याय के विरुद्ध। प्रेम समझ पा रही थी कि आवश्यकता से भी अधिक धन का संचय श्रम द्वारा नहीं लूट और शोषण द्वारा ही संभव है।’
इस उपन्यास की कथा उस दौर की है जब लड़के भी अपनी शादी होने की बात सुनकर धत् बोल पड़ते थे। अपनी होने वाली पत्नी की तस्वीर देखने के लिए उन्हें किवाड़ भीतर से बंद करना पड़ता था। ऐसा ही एक युवक है इस उपन्यास में कुंज, जिससे प्रेम का विवाह होता है। लेखक ने इस स्थिति का जीवंत वर्णन किया है। यह उपन्यास एक तरह से एक दौर का ‘पीरियड उपन्यास’ है।
इस साल आए कई उपन्यासों में वाद्ययंत्र की उपस्थिति है। अवधेश प्रीत के उपन्यास में पखावज है, हृषिकेश सुलभ के उपन्यास ‘दातापीर’ में बांसुरी है। एकांत श्रीवास्तव के इस उपन्यास में भी बांसुरी अर्थपूर्ण ढंग से मौजूद है। कुंज ने बांसुरी बजाना सीखा है कलाम चाचा से। लेखक ने कलाम चाचा के परिचय में लिखा है, ‘बच्चों के लिए वे कलाम चाचा थे और बड़ों के लिए सूफी, पीर, फकीर से कम नहीं है।’ कलाम चाचा एकांत श्रीवास्तव के इस उपन्यास में एक अहम भूमिका में हैं। ‘दातापीर’ में भी ऐसा ही एक किरदार है। इसे महज संयोग ही कहा जा सकता है कि वह किरदार भी चूड़ियां बेचता है, चूड़ियां बेचते हुए मोहब्बत में पड़ता है और दोनों ही अपने-अपने तरीके से त्रासदी का शिकार होते हैं।
एकांत श्रीवास्तव के कलाम चाचा ऐसे थे, ‘अन्याय के पक्ष में कभी नहीं बोलते। झूठ और अत्याचार और अनीति का पक्ष कभी नहीं लेते। इनका विरोध करते मगर संयत और शालीन भाषा में, पर उनके शालीन और संयत वाक्य भी विष बुझे तीर की तरह लगते और असर करते।’
‘पंखुड़ी-पंखुड़ी प्रेम’ में एक हॉरमोनियम मास्टर भी हैं जो शुरू से अंत तक उपस्थित हैं। अगर कुंज के व्यक्तित्व का निर्माण कलाम चाचा के सान्निध्य में हुआ है तो प्रेम के व्यक्तित्व का विस्तार इस हारमोनियम मास्टर के सान्निध्य में हुआ। उपन्यासकार ने लिखा है, ‘जहां शब्द काम करना बंद कर देते हैं, वहां संगीत काम करता है। संगीत आत्मा का अमृत-स्नान है।’
प्रेम कई विपरीत परिस्थितियों से गुजरती है, मगर हर स्थिति में आत्मनिर्भर बनी रहती है और जीवन में हॉरमोनी बनाए रखती है। यह उपन्यास प्रेम संबंध का लेखाजोखा है।
एकांत श्रीवास्तव का कहना है, ‘प्रेम को लगा कि आदमी की पहचान ही यह पसीना है। यही इस उपन्यास का हासिल है।’
जिज्ञासा:‘पानी भीतर फूल’ के दस साल बाद ‘पंखुड़ी-पंखुड़ी प्रेम’ नाम से यह उपन्यास आया है। दोनों के कथानक में क्या अंतर है?
एकांत श्रीवास्तव: बहुत अंतर है, सिवाय इसके कि दोनों ही उपन्यास ग्राम्यता की वकालत करते हैं। ‘पानी भीतर फूल’ महानगरों के दौड़भाग वाले जीवन, तथाकथित ‘फास्टलाइफ’ की प्रतिक्रिया में उसका बरक्स बनकर आया था-जो ग्रामीण जीवन पर प्रकाश डालता है- इसके विभिन्न लोक चरित्रों के माध्यम से-जहां राहत की सांस प्रकृति के बीच अभी भी ली जा सकती है। जहां अभाव के बावजूद थोड़े में ही जी लेने का सुख-संतोष है। लेकिन ‘पंखुड़ी-पंखुड़ी प्रेम’ उससे बिलकुल अलग है। तथापि ग्रामीण समाज, प्रकृति, लोकचरित्र यहां भी हैं। लेकिन यह मूलतः एक स्त्री ‘प्रेम’ के जीवन के उतार-चढ़ाव और उसकी संघर्ष गाथा को दर्ज करता है। इसमें लगभग सौ वर्षों की कथा है। जमींदारी, छोटी रियासतों और उनके टूटने-बिखरने की कथा।
जिज्ञासा: लगभग सौ वर्षों की कथा- जैसा आपने बताया और यह है भी- तो क्या इसे ऐतिहासिक उपन्यास की तरह देखा जा सकता है?
एकांत श्रीवास्तव: शायद हां। इस तरफ मैंने सोचा नहीं है। फिर यह देखने वालों की दृष्टि पर निर्भर करता है, लेकिन इसमें सौ वर्षों की कथा तो है- लगभग 1910 से लगभग 1990 तक, मोटे तौर पर-कुछ और आगे-पीछे हो सकता है- पाठकीय अनुमान पर छोड़ दिया है। ये दोनों वर्ष उपन्यास में दर्ज नहीं हैं। एक विभाजन रेखा अवश्य है- सन् 1947 की। इसके आगे-पीछे लगभग 30-50 वर्षों का समय मान लीजिए। स्वतंत्रता आंदोलन के जो पृष्ठ उपन्यास में हैं, वे ऐतिहासिक नहीं, बल्कि इतिहास हैं। वहां पूर्ण यथार्थ है। कोई कल्पना नहीं।
लेकिन ‘कुंज’ और उसके साथी उन गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में हैं, इतिहास जिनकी कोई कथा नहीं कहता। प्रत्येक राज्य में आपको ऐसे गुमनाम या अल्पज्ञात सेनानी मिल जाएंगे। आप ‘जालियांवाला बाग’ जाइए, वहां कितने ऐसे नाम दर्ज हैं, हम जिन्हें नहीं जानते। ‘कुंज’ के प्रसंग को आप ‘ऐतिहासिक’ कह सकते हैं। यहाँ कल्पना का आश्रय लिया गया है।
जिज्ञासा: आपकी पहचान मूलतः एक कवि के रूप में है। आपको उपन्यास लिखने की आवश्यकाता क्यों पड़ी?
एकांत श्रीवास्तव: एक जगह लगातार खेती करते रहने से उस भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। कोई अगर कवि ही बना रहता है तो वह लगातार कविताएं ही लिखेगा और धीरे-धीरे भूमि की तरह कविता की उर्वरता भी नष्ट हो जाएगी। फिर ऊसर जमीन में कुछ नहीं उगेगा।
अपनी कविता को नष्ट होने से बचाने के लिए मैं गद्य में आया। फिर यहां भी ऐसा मन लगा कि घबराकर कई बार सायास गद्य के जंगल से बाहर आना पड़ता है कि कहीं अपनी कविता का रास्ता ही भूल न जाऊँ।
जिज्ञासा: आपके उपन्यास की भाषा में काव्यात्मकता है। कहना चाहिए, यह गद्यकाव्य है। इस बारे में कुछ बताएं।
एकांत श्रीवास्तव: किसी भी विधा में लिखते हुए मैं अपनी मुख्य कवि-पहचान को बचाए रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरा गद्य भी पाठक को यह याद दिलाता रहे कि यह उस लेखक का गद्य है, जिसकी मुख्य विधा कविता है।
कविता मनुष्यता का दूसरा नाम है, क्योंकि इसमें एक तारल्य है। यह गहरे भावबोध से आरंभ होती है। इस तरह देखें तो कविता आज के समय की और गद्य की भी एक बहुत बड़ी ताकत है।
समीक्षित पुस्तकें
(1) दहन (उपन्यास), हरियश राय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2022, मूल्य:450 (2) रुई लपेटी आग (उपन्यास) अवधेश प्रीत, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2022, मूल्य : 299 (3) पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम (उपन्यास), एकांत श्रीवास्तव, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, 2022, मूल्य :285
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