प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
इस वर्ष के आरंभ में ही दो ऐसे उपन्यास आ गए, जिनसे हिंदी कथा साहित्य समृद्ध होता दिख रहा है।यह एक संयोग ही है कि जिन उपन्यासों की चर्चा यहां होगी, उनकी रचनाकार स्त्रियां हैं।दोनों स्त्री रचनाकारों की चिंता और मांग भी समान है।मांग है- निर्णय में बराबरी का अधिकार।यह एक ऐसी मांग है जो आज साहित्य में उठी है तो कल लोकवृत्त की आवाज भी बन सकती है।इस मांग की दावेदार वे दो स्त्री रचनाकार हैं- अनामिका और गरिमा श्रीवास्तव।
एक की चिंता वर्चस्ववादी सभ्यता और इस सभ्यता में घिरी हुई स्त्री आबादी है।इससे स्त्री आबादी क्या, दुनिया की पूरी जमात पीड़ित है।यह हिंसा और दमन का दमघोंटू चक्र है।इससे मुक्ति की छटपटाहट में लेखिका गरिमा श्रीवास्तव का उपन्यास ‘आउशवित्ज़ – एक प्रेमकथा’ सामने आया है।
हिंसा और दमन के दमघोंटू चक्र को शांति और प्रेम के स्त्रीसम्मत उपाय से बदल देना है, यह अनामिका की चिंता है।इन्होंने इसी संकल्प के साथ ‘तृन धरि ओट’ की रचना की है।इसके माध्यम से वे ‘सीता राज्य’ की प्रस्तावना करती हैं।यह राम राज्य से एक सोपान उन्नत राज-व्यवस्था की संकल्पना है, जिसके केंद्र में युद्ध और हिंसा का वह दुश्चक्र नहीं है। ‘सीता राज्य’ तर्क, विवेक और बराबरी पर टिका होगा, दंड और भेद आपातकालीन रास्ते होंगे।
गरिमा श्रीवास्तव का पहला उपन्यास है : आउशवित्ज़।आउशवित्ज़ एक शहर का नाम है, जो सीधे-सीधे उपन्यास की केंद्रीय विषय-वस्तु की ओर संकेत करता है।इस उपन्यास से ५ साल पहले, यानी २०१७ में गरिमा श्रीवास्तव की एक किताब आई थी – देह ही देश।कह सकते हैं कि वह डायरीनुमा किताब इस उपन्यास की पूर्व-पीठिका है या यह भी कह सकते हैं कि ‘आउशवित्ज़’ उपन्यास उस पुस्तक का विस्तार है।
‘देह ही देश’ में भी ‘आउशवित्ज़’ का जिक्र आया है।जिक्र कुछ ऐसे आया है, ‘विक्टर फ्रैंकल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘मेन्स सर्च फॉर मीनिंग’ शीर्षक पुस्तक लिखी थी, जिसमें आउशवित्ज़ के यातना शिविर की दैनंदिनी है।फ्रैंकल का कहना है कि जिस रूप में बंदी अपने भविष्य के बारे में सोचता था उसकी उम्र उसी पर निर्भर करती थी।उसने ‘लोगो थिरेपी’ का सिद्धांत दिया और बताया कि जिनके पास जीने का कोई कारण होता है, वे कैसे भी जी लेते हैं।इन यौन दासियों के पास जीने का क्या कारण होगा।पति, बच्चों, मां, सास के सामने निर्वस्त्र और बलात्कृत की जाती, महीने दर महीने, सालभर उनके अपमान और यातना की कोई सीमा नहीं।उनके पास जीने का क्या कारण बच रहा होगा? अर्द्ध-निद्रा में मुझे आउशवित्ज़ का यातना शिविर दिख रहा है।’
उपन्यास ‘आउशवित्ज़’ का एक अध्याय है : वर्क इज़ लिबर्टी।इस अध्याय के अंतिम पृष्ठ को पढ़ने से ‘आउशवित्ज़’ के बारे में एक समझ बनती है, ‘आउशवित्ज़ नात्सियों द्वारा बनाया गया सबसे बड़ा मत्यु-गृह था, जिसकी स्थापना पोलिश लोगों में भय पैदा करने के उद्देश्य से की गई थी।लगभग १,५०,००० पोलिश स्त्रियों, पुरुषों और बच्चों को आउशवित्ज़ के यातना-गृहों में रखा गया, जिनमें से लगभग ७५,००० मर गए।पोलिश नागरिकों को यहां लाकर मार दिया जाता था।
दरअसल पूरे आउशवित्ज़ को तीन भागों में बांटा गया, जो यातना–गृह, गैस चैंबर, शवदाह गृह के साथ जैविक–रासायनिक अध्ययन प्रयोगशालाओं और विभिन्न कारखानों का समूह था।आउशवित्ज़–२ को आउशवित्ज़–बिर्कानेयु और आउशवित्ज़–३ को मोनोविट्ज का नाम दिया गया।गरिमा श्रीवास्तव ने अपनी लेखकीय संवेदना और कुशलता से इस घटना को आधार बना कर उपन्यास की रचना की है।
‘आउशवित्ज़’ उपन्यास की एक किरदार अम्मा (रहमाना खातून) ने हसनपुर से अपनी बेटी खुकू को पत्र लिखते हुए कहा है, ‘आउशवित्ज़’ का सब दृश्य! तुमने जो लिखा वह पढ़ कर रूह कांप जाती है।लेकिन यहां (भारत) का इतिहास भी कुछ कम रक्तरंजित नहीं… जिस समय घट रहा था आउशवित्ज़ ठीक उसी समय इतिहास का सबसे बड़ा मानव निर्मित दुर्भिक्ष बंगाल को लील रहा था।… चर्चिल की नस्लभेदी सोच और एशियाई समाज के प्रति कठोरता ने लगभग तीस लाख मनुष्यों को भूखे मरने पर विवश कर दिया।अकाल आया, महामारी लाया और पट गया मरे हुए मवेशियों और मनुष्यों के कंकालों से पूरा बंगाल।बाद में पता चला कि सुरक्षित रखे गए खाद्यान्न ब्रिटेन की फौजों के लिए रवाना कर दिए गए थे।’
गरिमा श्रीवास्तव ने युद्ध, वर्चस्व और स्त्री के संबंधों के रेशे को खोलते हुए लिखा है कि स्त्रियों की देह पर नियंत्रण करना युद्ध नीति का ही एक हिस्सा होता है जिससे कई उद्देश्य सधते हैं- पहला, आम नागरिकों का विस्थापन और दूसरा सैनिकों को बलात्कार की छूट देकर पुरस्कृत करना आदि।अपनी डायरी में एक दिन लेखिका ने लिखा, ‘सोचा करती थी यूरोप में स्त्रियों की स्थिति एशियाई स्त्रियों से कहीं बेहतर होगी लेकिन वह अपने भीतर लहुलूहान इतिहास छिपाए हुए है।पूर्वी और पश्चिम बंगाल के विभाजन के समय लाखों निर्दोष लोग बेघर हुए और लगभग एक लाख स्त्रियां यौन शोषण और हिंसा की शिकार हुईं।ऐसा क्यों होता है, युद्ध कहीं हो… किसी के भी बीच हो, मारी तो जाती हैं औरतें ही।’ देह ही देश का यह अंश ही उपन्यास आउशवित्ज़ का बीज-तत्व है।देह ही देश की ‘मैैं’ ‘आउशवित्ज़’ उपन्यास में प्रतीति सेन बन अपने पाठकों को दुनिया की उन स्त्रियों और भयावह स्थितियों से रू-ब-रू कराती है।
उसने अपने बारे में लिखा है, ‘मेरा ‘मैं’ मुझसे छिटका हुआ पड़ा है।कह नहीं सकती कब से! जैसे मेरे भीतर की प्रतीति सेन के दो हिस्से हैं या शायद इससे भी ज्यादा।मैं अपने आपको एक साथ कितनी जगहों पर पाती हूँ।अम्मा को लिखती हूँ तो खुद ही रहमाना खातून हो जाती हूँ, सबीना से मिलती हूँ तो उसके आंख का आंसू मेरे गले की हिचकी बन कर अटक जाता है।आउशवित्ज़ के दस्तावेज पढ़ती हूँ तो उन्हीं की तरह गैस चैंबर में ठूंसे जाने की पीड़ा से मन थर्रा जाता है।अपनी मां टिया के बारे में सोचती हूँ तो मुझे अनाथ होने की पीड़ा इतना सालती है कि गहरी नींद की सुबकियों में गला रुंध जाता है।मेरा ‘मैं’ है ही नहीं, कभी रहा ही नहीं मेरे साथ।’ यह महज एक प्रतीति सेन की स्थिति नहीं है, स्त्री जाति का सच है।इस उपन्यास को पढ़ना ‘सभ्यता’ को पढ़ना है।एक ऐसी सभ्यता जिसमें बकौल लेखिका स्त्रियों की नियति केवल पुरुष के एजेंट बनने तक सीमित है।
प्रतीति सेन के जीवन में एक अभिरूप हैं और दूसरे हैं विराजित सेन।वे परिवार सहित बांग्लादेश गए हैं, मगर लौटते हैं ऐसे, ‘विराजित सेन भी तो लौटे थे कलकत्ता- लेकिन जो आदमी गया था स्त्री और संतान का हाथ थामे, लौटा था अकेला, बिलकुल अकेला हारे हुए जुआरी जैसा, फटी धोती की खूंट से सनी सूखी आंखें पोछता, विमूढ़-सा।… विराजित अब पराजित थे।’
इस उपन्यास के कथा-विकास में वह मोड़ आता है जब प्रतीति सेन की नानी (अम्मा) द्रौपदी सेन से रहमाना खातून हो जाती हैं धर्मांतरण के माध्यम से।विराजित सेन ने उन्हें कोलकाता लाने से इंकार कर दिया, यह कहते हुए कि ‘धर्म पालटानो पर एई खाने थाका मुश्किल।’ तभी एक आवाज उठती है, ‘धर्म किसका – पैदा हुई तो हिंदू थी, किसी ने जानना तो चाहा नहीं मेरा चुनाव, रहमाना खातून बनाने के पहले किसी ने मुझसे पूछा क्या? रहमाना खातून ने अपनी खुकू यानी प्रतीति सेन को लिखा है, ‘दरअसल कोई भी स्त्री जो स्वाभिमान की शर्तों पर जीना चुनती है उसकी रक्षा, उसकी जिम्मेदारी कोई नहीं ले सकता।जैसे ही उसकी जिम्मेदारी कोई लेता है शोषण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।’ यह उपन्यास एक ओर स्त्री की संघर्ष गाथा है तो दूसरी ओर सभ्यता की बर्बरता का आख्यान है, इसको रचने का मकसद है महाभारत के युद्ध से निकला परम संदेश ‘अहिंसा परमो धर्म’ की ओर ध्यान ले जाना।यह उपन्यास न केवल स्त्री की चिंता करता है, बल्कि हिंसा के खिलाफ एक अहिंसात्मक मोर्चे की मांग करता है।
जिज्ञासा : ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा’ उपन्यास लिखने के आपके रचनात्मक उदेश्य क्या रहे?
गरिमा श्रीवास्तव: उपन्यास के रचनात्मक उद्देश्यों पर विचार करके इसकी रचना नहीं की है मैंने।बावजूद इसके, रचनात्मक उद्देश्यों में एक बड़ा उद्देश्य है युद्ध के माहौल में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर यूरोप तक की स्त्रियों की यातना को चीन्हने की चाह।वजह यह कि युद्ध के दौरान ज़्यादातर इतिहास ग्रन्थ और साहित्यिक कृतियां विजेताओं की अमानुषिकता और विजित समुदायों की व्यथा-कथा को प्रमुखता से चित्रित करती रही हैं।उनमें स्त्रियां प्राय: हाशिए पर रह जाती हैं।जबकि युद्ध में स्त्रियों की सबसे अधिक दुर्दशा होती है।उदाहरण के लिए चीन-जापान युद्ध के दौरान जापानी सैनिकों द्वारा चीनी स्त्रियों के ‘कम्फर्ट विमेन’ के रूप में इस्तेमाल के किस्से हजार हैं जिनको लेकर हाल-हाल तक चीन द्वारा हर्जाने का दावा किया जाता रहा है।कुछ यही स्थिति नाजी सेना द्वारा जातीय नरसंहार के क्रम में वहां की यहूदी स्त्रियों और पाकिस्तानी सेना द्वारा बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम के दौरान भी घटित हुई थी।
इससे बाद इस उपन्यास में सांप्रदायिक उन्माद के तहत स्त्रियों पर यौन हिंसा की घटनाओं को भी दृष्टिपथ में रखा गया है।विदित है कि फ्रेडरिक जेम्सन ने उपन्यास को राष्ट्र के रूपक के रूप में व्याख्यायित किया है।इस कृति में ‘आउशवित्ज़’ एक दमघोंटू माहौल का रूपक है जिसका दायरा घर-परिवार से लेकर अपने समाज तथा देश-दुनिया तक प्रसरित है।
जिज्ञासा: उपन्यास एक ऐसी साहित्यिक संरचना है जिसमें पूरा समाज प्रतिबिंबित होता है।आपने अपने उपन्यास में यूरोप एवं भारतीय उपमहाद्वीप की स्त्री को केंद्रीय स्थान दिया है जिसका संघर्ष वस्तुत: आधी आबादी का संघर्ष है।किंतु, इससे पूरा समाज चित्रित होने से रह गया है।
गरिमा श्रीवास्तव : असल में उपन्यास को केवल साहित्यिक संरचना के बजाए एक सामाजिक संरचना के रूप में देखा-पढ़ा जाना चाहिए। ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा’ का फलक वैश्विक है जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप के साथ ही यूरोपीय समाज में स्त्री-यातना को प्रमुखता के साथ चित्रित किया गया है।स्त्री को केंद्रीय स्थान देने की ठोस वजह यह है कि युद्ध विषयक ज्यादातर कृतियों में पुरुष ही केंद्र में हैं।होलोकास्ट पर रचित विक्टर फ्रान्कल की विश्वविख्यात कृति मेन्स सर्च फॉर मीनिंग तक में भी स्त्री को केंद्रीय स्थान प्राप्त नहीं है।मुझे यह लगता है कि आधी आबादी को जाने-अनजाने दरगुजर करके कोई रचना मानव समाज की मुकम्मल तस्वीर पेश करने का दावा नहीं कर सकती।
अपनी रचना में मैंने स्त्री को केंद्रीय स्थान देने के बावजूद पुरुष की जानबूझकर उपेक्षा नहीं की है।बिराजित सेन, अभिरूप आदि से लेकर सबीना के पति रेनाटा की मानसिक उथल-पुथल को संवेदना के धरातल पर मैंने चित्रित किया है ताकि पाठक उसे जानने-समझने और महसूस करने में समर्थ हो।
जिज्ञासा : द्रौपदी देवी के मजबूरीवश रहमाना ख़ातून बनकर एक मौलवी की आठवीं बेगम बनने का जो चित्रण आपने किया है उसमें मौलवी के व्यवहार से कई बार हास्य पैदा होता है।इसपर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
गरिमा श्रीवास्तव : आपके इस सवाल से प्रेमचंद के एक कथन की याद आ रही है।उन्होंने लिखा था कि यह ठीक है कि गद्य जीवन संग्राम को व्यक्त करता है, पर जीवन संग्राम का सबसे बुरा असर यह हुआ है कि हमारा साहित्य मर्सिया हुआ जाता है।उन्होंने एक अन्य स्थान पर ग़म की कहानी को मजा ले-लेकर लिखने की भी बात कही है।
तात्पर्य यह कि जब हम यातना को रचना की थीम बनाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता कि रचना में शुरू से लेकर अंत तक केवल यातना ही यातना हो।ऐसे भी लेखक को एकरसता से अपने सृजन को बचाना चाहिए।हमारा जीवन भी एकरस नहीं होता।सच तो यह है कि यातना भोगते हुए भी यातना-ग्रस्त मनुष्य कई बार हँसता है।किंतु, अपने उपन्यास में मैंने फूहड़ हास्य को हरगिज जगह नहीं दी है।इसमें गंभीर हास्य है।इसे इटली के नोबेल पुरस्कार हास्य-व्यंग्य लेखक दारियो फ़ो ने ‘लाफ्टर विथ ग्रेविटी’ कहा है।रहमाना ख़ातून के नाम-निहाद शौहर मौलवी साहब बूढ़े हो चले हैं लेकिन वे अपनी यौन अक्षमता को सबके सामने प्रकट नहीं होने देना चाहते।इस वजह से वे अपनी आठवीं बेगम रहमाना से जो फ़रमाइश करते हैं, उससे पितृसत्ता हास्यास्पद हो जाती है।
अनामिका का नया उपन्यास है, ‘तृन धरि ओट’।यह आत्मकथात्मक उपन्यास है।सीता अपनी कथा और व्यथा तथा अपना अनुभव यहां शेयर करती हैं।सीता का कहना है, ‘अनुभव प्रसाद है।प्रसाद कभी अकेले नहीं खाते।हमेशा बांट कर ही खाते हैं।’ लगे हाथ वे अपने अनुभव से बताती भी चलती हैं कि लोक-कल्याण के लिए और एक उन्नत समाज रचने के लिए क्या-क्या अनिवार्य हैं।
‘सीतायण’ सीता की लिखी वह पांडुलिपि है जिसे सीता ने ‘राम से, रावण से, सरमा -कला -त्रिजटा-मंदोदरी जैसी राक्षस कुलवधुओं और बेटियों से, दस महाविद्या और नवदुर्गा समेत अपनी सब माताओं से, लव-कुश से, सारी वनकन्याओं से, राक्षस-बालकों से जो संवाद-विवाद हुए- उसे समेट कर उसका एक लेखा-जोखा बनाया था!’ सीता अपनी ‘सीतायण’ की शुरुआत ऐसे एक तीखे वाक्य से करती हैं, ‘‘बाल-कांड’ होगा, पर ‘बालिका-कांड’ जैसा पद तो अवधारणा के इतिहास में नहीं है।’ यह सीता का क्षोभ है।
सीता अपनी कथा और व्यथा बताना शुरू करे, इससे पहले वे राम को उस लांछन से मुक्त करती हैं कि राम ने उन्हें गर्भावस्था में घर से निकाल दिया था।वे कहती हैं स्वयं राम को समझा-बुझा कर वे अकेले अयोध्या छोड़ कर आईं।सीता का तेज बयान है, ‘स्वयंसमर्थ धरा की स्वयंसमर्थ बेटी मैं कुछ दिन अपने आदिवासी भाई बहनों में रम कर रहूंगी या फिर वाल्मीकि से शास्त्र-चर्चा में मगन रहूंगी – मेरे दिन कट ही जाएंगे।’ यह भी साफ किया सीता ने कि ऐसी विकट परिस्थिति में उनके पिता जनक भी आए थे लिवाने, मगर उन्हें भी उन्होंने तार्किक ढंग से समझा-बुझा कर वापस भेज दिया।’
सीता का बचपन गार्गी के सान्निध्य में बीता है।तर्क और विवेक उन्हें घुट्टी में मिला है।तभी वह यह कहने की हिम्मत रखती हैं, ‘राम की सहमति मिले न मिले … आंख मूंद कर तो मैंने कभी अपने राम की या किसी और की बात मानी ही नहीं! हमेशा ही तर्क किया – कभी बोलकर, कभी चुप रहकर ! हां, तर्क करते हुए कभी आपा नहीं खोया, न संतुलन ही, और सामने वाले की हर बात गौर से सुनकर विचार लेने के बाद ही धीरे-धीरे अपनी बात रखी – जैसे मां-बाबा के सामने रखती थी।’ आज जब तर्क के हनन का दौर है, सीता का यह याद दिलाना अर्थपूर्ण है।
सीता यह भी बताती हैं, ‘राम अपने राजकाज के काम में छोटे-से छोटा फैसला लेते हुए मेरी राय लेना नहीं भूलते।’ यह भी साफ करती हैं, ‘जब तक मेरे पिता ने राज्य किया, मां उनकी विश्वस्त मंत्रिणी रहीं! राज-पाट का कोई भी निर्णय उनकी मंत्रणा से ही होता।’ लगे हाथ सीता यह भी बताती हैं, ‘जब पिता सिधार चुके तो राज-पाट दूरस्थ संबंधियों के हाथ था।मेरे दूरस्थ भाइयों ने स्त्रियों को मंत्रणा के लायक नहीं समझा और घर की सब स्त्रियां अंत:पुरम की ओछी राजनीति की शिकार वैसे ही हो गईं जैसे अयोध्या के राजमहल की स्त्रियां।’ यह सीख है और इस आईने में हम अपने समय और सभ्यता की दुर्दशा को भी देख सकते हैं।
सीता आगे बताती हैं, ‘हमारी मिथिला में सैन्यशक्ति और लूटपाट के धन का शासन नहीं था।प्रेम और सांस्कृतिक विरासत हमारे असली धन थे।’ आदिवासियों के बीच रहते हुए सीता राम को पत्र लिख कर बताती हैं, ‘कल अयोध्या से कुछ सैनिक आए थे – फिर से बवालियों का सर उसी तरह कुचलने जैसे पहले कुचला था, पर मैंने अपनी जिंदगी में इतनी मारकाट देखी है, और उसका नतीजा भी मुझे ऐसा लगता है कि हिंसा से कोई सिलसिला नहीं टूटता, शिक्षा से टूट सकता है।ऋषिवर वाल्मीकि का जीवन इसका साक्षात उदाहरण है।इसीलिए मैं नई पीढ़ी के अधिकांश बच्चों में शांति और प्रेम के पाठ प्रसारित करने में लगी हूँ।’ यहां सीता एक कुलवधू से एक ऐसी सांस्कृतिक सैनिक बन जाती हैं जो सौहार्द और शिक्षा के माध्यम से हाशिया और परिधि में अंतर्मेल पैदा करता है।
शिक्षा-सुशिक्षा की बात करते हुए वे राम से निवेदन करती हैं, ‘एक छोटा – सा निवेदन यह था कि पहाड़ों से घिरे जिस चंपकारण्य में आपने मुझे छोड़ा है, वहां दस्यु या राक्षस-प्रकोप के शमन के लिए और सैनिक टुकड़ियां आप न भेजें, पूरा जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।मैं शांति और प्रेम के स्त्रीसम्मत उपाय इनके बच्चों पर आजमाना चाहती हूं।… सुशिक्षा की आंच में ही इनकी हिंसक वृत्तियां हमेशा के लिए गलेंगी! सुशिक्षित बच्चे अपने अभिभावकों के चरित्र का परिष्कार कर सकते हैं।’ इतना कहने के बाद सीता एक नीतिगत बात भी राम से कहती हैं, ‘साम-दाम दंड-भेद – इन चार रणनीतियों में पहले दोनों मुझे आजमा लेने दीजिए अपने शैक्षिक प्रयोगों से, दंड-भेद आपका जिम्मा है! उसकी तैयारी रखिए- आपातकाल के लिए, पर उसे दैनिक प्रयोग का माध्यम न बनाइए!’ पाठकों को ध्यान खींचता है, ‘शांति और प्रेम के स्त्रीसम्मत उपाय’।सीता बार-बार अहिंसा की ओर राम का ध्यान लाती हैं।
सीता का दर्द है, ‘पत्राचार ही तोड़ दिया राम ने, जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि वे अभी मेरी इस बात से सहमत नहीं कि हिंसा आपातकाल का अंतिम उपाय है– साम–दाम के बाद ही दंड भेद! सीता प्रतिपक्ष में खड़ी होती हैं और कदम उठाती हैं, ‘प्रेम और धीरज से कम से कम अस्सी प्रतिशत बच्चों के जटिल संस्कारों की निर्जरा की जा सकती है, इसी विश्वास के साथ ऋषिप्रवर वाल्मीकि के आश्रम के द्वार मैंने राक्षस संततियों के लिए भी खोल दिए।दस्युराज रहे वाल्मीकि का अपना जीवन ही साक्षात प्रमाण है कि निर्जरा, कायाकल्प और आत्मक्रांति कठिन अवश्य है, असंभव नहीं।’
ऋषिप्रवर वाल्मीकि का आश्रम जिन राक्षस बच्चों के लिए खोल दिया है सीता ने, सीता को उन भोले-भाले, अनाथ राक्षस बच्चों में अपने लव-कुश का चेहरा दिखता है।वे सोचती हैं, ‘वैकल्पिक जीवन का आधार-पाठ उनके सामने खोले बिना हम उन्हें दृष्टिसंपन्न बनाएंगे कैसे? कैसे आश्वस्त करेंगे कि छीना-झपटी और बलात्कार अंततः नर्क की ओर ले जाते हैं।नर्क अर्थात चित्त की वह स्थिति जहां वह किसी करवट चैन से लेट ही नहीं पाता! स्वर्ग यानी आह्लाद की वह स्थिति जो किसी के सुख के माध्यम बनने से ही मिलती है।’ अनामिका जिस नर्क और स्वर्ग की बात कर रही हैं वह कोई अलौकिक नर्क या स्वर्ग नहीं है।
सीता अपने लव-कुश को उन तामसी वृत्तियों से बचने की समझ देती हैं, जिसकी वजह से मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता और प्रकृति का संतुलन भी भंग होता है।लव-कुश के अयोध्या जाने के बाद सीता ने उन्हें पत्र लिख कर बताया है, ‘किसी के पीछे पड़ जाना, सबकी खाट खड़ी करना, स्वयं को श्रेष्ठ, दूसरों को अधम जान कर शेखियां बघारा करना, अधिकार और कर्तव्य में सही संतुलन न बिठा पाना ऐसी तामसी वृत्तियां हैं, जिनसे ग्रस्त कोई व्यक्ति सहज प्रसन्न रह ही नहीं सकता और इससे प्रकृति का संतुलन भी भंग होता है।’ सीता ने रावण-वृत्ति को भी परिभाषित किया है, ‘जो अपने जैसा नहीं है, या उससे दब कर रहने को तैयार नहीं- उसे चुटकियों में मसल देना उसे धर्म-संगत लगता था!’ सीता अपने समय से निकल उस समय में आ जाती हैं जब यह उपन्यास लिखा गया है।
‘तृन धरि ओट’ और ‘आउशवित्ज़ -एक प्रेम कथा’ – ये दोनों उपन्यास अपने समय से लोहा लेते हैं।अनामिका और गरिमा श्रीवास्तव युद्ध और हिंसा के खिलाफ खड़ी होकर एक नई सभ्यता गढ़ने का स्वप्न बो रही हैं।दोनों उपन्यास एक कड़ी में पढ़े जाने चाहिए।
जिज्ञासा: सिया को इस रूप में चित्रित करने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
अनामिका: प्रेरणा का स्रोत तो माता-पिता ही थे! मेरे पिता के बाबा ने कैथी में एक रामायण लिखी थी जो ३४ के भूकंप में इधर-उधर हो गई।मेरे बाबा को उसके कई अंश कंठस्थ थे! जब वे व्यथित होते, गाते थे।मेरे पिताजी ने उस सुने-गुने की अनुगूंजें साधकर एक लंबी कविता शुरू की थी जो दरअसल अहिल्या, रत्नावली, सरस्वती आदि स्त्री-चरित्रों पर लिखी उनकी काव्य-श्रृंखला का हिस्सा हो जाती यदि वे एक बरस भी और जी जाते।अभी २ पन्ने ही लिखे होंगे कि विदेह हो जाने की घड़ी आ गई! स्वयं तो ५२ बरस ही जिए पर लिखा और बांचा हुआ हममें आज भी धड़कता है! उनके मारक प्रयाण के बाद मैं और मां अपने सब अंतरंग पल उस लिखे और बांचे हुए का ही मर्म खोलने में बिताते!
मां को जब लगा कि अब उसे भी उस पार जाना है, एक दिन उसने कहा कि मुझे पिताजी का वह अधूरा महाकाव्य पूरा कर देना चाहिए, छंद वही रखना, बात अपनी कहना! फिर जब वह गिर ही पड़ी और उसे लगा कि धरती के गर्भ से पुकार आ ही गई, अस्पताल में ही मुझे बगल में लिटाकर कहा, उपन्यास भी आधुनिक महाकाव्य ही होते हैं! किसी रूप में यह कृति पूरी करके मेरे हाथ में रख दो! यही तुम्हारा तर्पण होगा!
सोच सकते हैं मेरी स्थिति! उन विषम घड़ियों में मन साधना कितना कठिन था! अस्पताल में बगल के बिस्तर पर टेक लिए-लिए किसी तरह कुछ लिखा और उसके चरणों पर रखा।बचपन में उसको देखा करती थी- अपनी सब धराऊ साड़ियों के डिजाइनर कुरते मेरे लिए वह कैसी तन्मयता से सिलती थी! वह तन्मयता तो मुझसे सधी नहीं पर तकनीक मैंने वही अपनायी! आधार-पट इस कथा का पुरातन है, पर काट, संयोजन, सिलाई ऐसी ही कि कोई नई लड़की भी इसे पहनकर घूमे।
जिज्ञासा: सिया के माध्यम से राम का बचाव करने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
अनामिका: इंटर के एक पाठ में मैंने फ़ोर्स्टर की एक मज़ेदार उक्ति पढ़ी थी कि देश-द्रोह और मित्र-द्रोह में एक चुनना हो तो मैं देश-द्रोह ही चुनूंगा।धीरे-धीरे यह बात और स्पष्ट होती चली गई कि हर कदम से हजार राहें फूटती हैं और पर्सनल-पोलिटिकल का द्वंद्व प्रायः सबके लिए सनातन है।युग-सत्य हमारे निजी चुनावों पर असर डालते ही हैं! अपने लिए जिए तो क्या जिए वाला आदर्श फ़ोर्स्टर को भी उतना ही प्रिय है जितना राम को, पर फ़ोर्स्टर के युद्धकातर समय में अंतर्वैयक्तिक संबंध ही दुनिया का एकमात्र पावन स्पेस बचे हैं, जबकि राम के लिए सीता अन्य नहीं हैं तो आत्मोसर्ग की गरिमा से निर्देशित होगा उनका चुनाव! मेरे पास एक ही टॉफी हो और घर पर मेरा बच्चा अपने दोस्त के साथ आया हो तो वह टॉफी मैं अपने बच्चे को तो नहीं ही दूंगी, उसके दोस्त को दूंगी और मेरा बच्चा मेरे इस चुनाव का मर्म समझेगा।सीता ने भी राम के तर्क का मर्म समझा होगा पर आज के लोग इसका मर्म नए तर्कों के बिना तो समझ ही नहीं सकते तो ये तर्क गढ़ने पड़े, उसमें सोई ध्वनियों का नया भाष्य करना पड़ा! पति- पत्नी की आपसदारी बड़ी ओट होती है! दो लोगों के बीच क्या बात हुई होगी, इसकी कल्पना की छूट पूरी होती है परवर्ती लेखक को! आपस की बातें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं होतीं कि उनमें कोई छेड़-छाड़ ग़ुस्ताखी हो! संभाव्यता का ध्यान रखना होता है बस!
जिज्ञासा: रावण के चरित्र को इस कृति में औदात्य प्रदान करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
अनामिका: सब सिद्ध फोटोग्राफर जानते हैं कि दुनिया का हर चेहरा किसी न किसी कोण से सुंदर होता ही है और इसका विलोम भी सच है! बात सही एंगल पकड़ने की है! राक्षस किसी जनजाति का नाम हो या अनार्य जातियों का प्रतीक, उसकी मनोव्यथा नये ढंग से समझने की ज़रूरत तो है ही! एक सर्वसमावेशी, उन्नत समाज सब दृष्टिकोणों के सम्यक समायोजन से ही बनता है! पौराणिक कथाओं में जादुई यथार्थवाद के कई सूत्र हैं, मैंने बस रावण की आत्मा के सीता के आसपास ही भटकते रहने और वैद्यराज के रूप में उनके साथ बने रहने की ही कल्पना की है! जीवन गणित तो नहीं है पर प्रेम सरलीकरण के कई सूत्र उसपर आजमाता है! जीवन में भी मैंने कई प्रसंग ऐसे देखे कहां कठिन लोग लंगड़ी भिन्न की तरह कटते-छंटते एकदम सरल-सी इकाई बचे और इसका विलोम भी सच है, यह भी देखा!
समीक्षित पुस्तकें
(१) आउशवित्ज़ -गरिमा श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन दिल्ली, २०२३ (२) तृन धरि ओट -अनामिका, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, २०२३
सी–११.३, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता–७००१५६ मो.९४३३०७६१७४
Very matured presentation indeed. My knowledge of Hindi is not great, however, could gather most of what critic ( Mrityunjay) wished to convey. I admire his sincere approach.
My best wishes.