लेखक, भाषाविद और अनुवादक।
वह दूसरे दरवाजे से घुटनों के बल आती
पड़ोस की सद्यःजात स्त्री का
आँचल सरकाकर
बेधड़क दूध पीने लग जाती
वह नहीं जानती थी
जातपांत और संप्रदाय में
बुरी तरह बंटे गांव को
अपनी छोटी जात और
उस स्त्री की बड़ी जात को
जो सहज पिला देती थी
अपने बेटे के हिस्से का दूध
बेवजह उसे भी
यह रोज का मामला था
चला आ रहा था महीनों से
जब वह पैदा हुई
कुपोषित मां की कोख से
हड्डियों का ढांचा भर थी वह
पेट भरने के बाद
लौट जाती
अपनी मां के पास
जिसकी छाती में दूध की जगह
बचे थे बस खून के कतरे
तार-तार जीवन के चिथड़े
दूध पिलाती स्त्री जानती थी
भूखे बच्चे के लिए उस दूध की अहमियत
जोे खरीद नहीं सकता था उसका बाप
व्यवस्था के कुचक्र में पीढ़ी-दर-पीढ़ी
झेलता हुआ दीनता का अभिशाप
महीनों से अहंदीप्त पति के
क्रोध और प्रताड़ना को झेल रही थी
वह निरक्षर दूधवाली मां
रख रही थी जीवन का अर्थ
उस साक्षर समाज के सामने
जिसमें जाति, ऊंच-नीच और भेदभाव
मानवता के पैर में
जंजीर की तरह बंधे थे
हर दरवाजे पर द्वेष दंभ अहंमन्यता
सदियों से धाजे की तरह खड़े थे
सारी परिभाषाएं
अपने-पराए में बंटी थीं
संस्कार नैतिकता आदर्श की धारणाएं
स्वार्थ के खेमों में खंड-खंड थीं
पराई मां नहीं जानती थी बड़ी-बड़ी बातें
सिर्फ जानती थी बच्चे की भूख
असहाय मां की आंखों की करुणा
अपनी छाती में उफनती
ममता की अजस्र वरुणा धारा
वह अनजाने तोड़ रही थी
नपुंसक आजादी की लँगड़ी टाँगें
नकार रही थी नकली विकासवादी नारे
जब हो रहे थे रोज नए बंटवारे
वह मुक्ति की मुट्ठीभर धूप की तरह
बांट रही थी अपनी छाती का दूध
ढाहने की कोशिश में विभेद की दीवारें।
संपर्क :हाउस नं. 222, सी.ए. ब्लॉक, स्ट्रीट नं.221, एक्शन एरिया–1, न्यू टाउन, कोलकाता–700156मो.9903213630
अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति… एक क्रांति का उद्घोष