भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी

 

नागार्जुन की चरित्र-प्रधान कविताओं में दास्य-भाव न होकर तत्कालीन यथार्थ की अनुगूंज अधिक सुनाई देती है। इन कविताओं में वे सभी चरित्र शामिल हैं जो समावेशी तेवर के हिमायती और इसके विरोधी हैं। समावेशी विचार पद्धति में गांधी नागार्जुन के काव्यालोक में फिट बैठते हैं। इसी वजह से वे गांधी की जीवन-गाथा अपनी कविताओं में कह गए। ध्यान देने वाली बात यह है कि एक कवि के लिए किसी का जीवन-चरित्र कविता की शक्ल में पिरोना दुर्लभ कार्य होता है। इसके बावजूद नागार्जुन ने यह कार्य अपने कवि-कर्म के माध्यम से सफल बनाया। नागार्जुन ने आधुनिक ज्ञान-परंपरा को केंद्र में रखकर पुराणपंथी, दास्यभाव और लीलागान का अमर्यादित पाठ करने से कन्नी काट ली और यथार्थवादी दृष्टिकोण से चरित्रों की शिनाख्त की।

नागार्जुन ने गांधी पर कविता लिखते हुए पाया कि गांधी के यहाँ न दास्यभाव है, न चढ़ावा है, न ही आडंबर। उनके चरित्र की जो ख़ूबी है उसमें अहिंसा, मानवता, स्वराज से अकाट्य प्रेम और सामूहिक संघर्ष विशेष स्थान रखते हैं। इसी वजह से गांधी के चरित्र के प्रति कवि का इतना सम्मोहन है कि वह खुद अपनी विचारधारा (मार्क्सवादी/समाजवादी) का दायरा पार कर जाता है। वह गांधी को लोकहित और लोकरक्षा का अग्रणी मानता है, हालांकि यहाँ विचारधारा का सवाल नहीं है।

दरअसल जिस चेतना-संपन्न भाव से जनता की वकालत नागार्जुन करते थे, उसी तरह की दृष्टि गांधी के यहाँ भी है। वह चीज है मानवीय संवेदना और सामूहिकता में विश्वास। शायद इसी चीज की वजह से कवि का रागात्मक संबंध गांधी से है। इसके विपरीत देखा जा सकता है कि नागार्जुन का गांधी के पदचिह्नों पर चलनेवालों के प्रति मोह या लगाव नहीं दिखाई देता, जैसे नेहरू और इंदिरा गांधी। कवि का जितना तार्किक स्नेह गांधी के प्रति है उससे कहीं ज्यादा रोष नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रति है। जाहिर है कवि गांधी को जनता के प्रति उनके लगाव और लोकजीवन के प्रति झुकाव की वजह से याद करता है, उनको अपने काव्य का विषय बनाता है।

कुछ इसी तरह नागार्जुन के समकालीन कवि मुक्तिबोध भी मार्क्सवादी विचारधारा रखते हुए भी ‘अंधेरे में’ कविता में गांधी के चरित्र को दर्शाते हुए उनके स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका को याद करते हैं। यहाँ नागार्जुन और मुक्तिबोध का गांधी से संबंध उनकी लोक-पक्षधरता को लेकर है। बहरहाल, नागार्जुन गांधी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में किए गए दुर्लभ कार्यों को याद करते हैं। वे पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए गांधी के चरित्र को ‘गांधी’ कविता में खड़ा करने की सांकेतिक कोशिश करते हैं। नागार्जुन ने गांधी के चरित्र का जितना भी अंश कविता में उतारा है, वह सराहनीय है, क्योंकि गांधी का व्यक्तित्व बहुत विराट और दिलचस्प था।

रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘गांधी भारत से पहले’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘विद्वानों और आम आदमी दोनों के लिए गांधी बहुत ही दिलचस्प व्यक्तित्व हैं, क्योंकि उनमें साफ तौर पर विसंगतियां दिखती हैं। कभी-कभी वह एक असांसारिक संत के रूप में व्यवहार करते हैं, जबकि कई बार वह राजनीति में डूबे हुए एक नेता की तरह दिखते हैं।’

जाहिर है, नागार्जुन इसीलिए गांधी के चरित्र का पूर्ण विकास करने में असमर्थ दिखते हैं और यह उनका उद्देश्य भी न था। उन्होंने गांधी को ग्यारह साल बाद देखा था। गांधी को उन्होंने उसी रूप में चित्रित किया है, जितना देखा है। कवि उनके दुबले-पतले शरीर के माध्यम से याद कर रहा है। कविता का अंश देखिए-

‘कल  मैंने  तुमको  फिर  देखा

हे  खर्वकाय,   हे  कृश शरीर,

हे   महापुरुष,    हे   महावीर!

हाँ, लगभग  ग्यारह साल बाद

कल  मैंने  तुमको   फिर  देखा

नागार्जुन का बार-बार गांधी को देखना, उनके व्यक्तित्व की चर्चा करना वस्तुतः गांधी के महान होने का सबूत पेश करता है। कवि यह दिखाता है कि गांधी जी बीमारी की हालत में भी सत्याग्रह से लेकर बंबई या लंदन और गांव या महानगर किसी भी जगह जाने की स्थिति में हो जाते हैं। यहाँ एक प्रसंग याद आ रहा है कि जब रोलट कानून पारित कर देश में स्वतंत्रताएं कम कर दी गईं, गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभाला। वे कभी संकोची नहीं हुए और न ही वे कभी सामाजिक रूप से अलग दिखे। विपिन चंद्र पाल लिखते हैं, ‘इस आंदोलन के दौरान मोहनदास करमचंद गांधी नामक एक नए नेता ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाल ली । इस नए नेता ने पुराने नेताओं की बुनियादी कमजोरी को ख़ूब पहचाना। दक्षिण अफ़्रीका में नस्लवाद से लड़ते हुए उन्होंने संघर्ष का एक नया रूप असहयोग और एक नई तकनीक सत्याग्रह का विकास किया था, जिसे अब भारत में अंग्रेज़ों के खिलाफ आजमाया जा सकता था।’ असल में कवि ने गांधी का जो रेखाचित्र खींचा है, वह भारतीय जनमानस और इतिहासकारों की आंखों में भी मिलता है। गांधी का व्यक्तित्व इतना विरोधाभाषी था कि लोग उनसे असहमत होते हुए भी सहमत होते दिखते थे। इसका मुख्य कारण रहा होगा सत्य, अहिंसा और प्रेम में उनका अटूट विश्वास। इसी का परिणाम था कि गांधी के पीछे बहुतायत संख्या में लोग इकट्ठा हो जाते थे। डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब ‘आज़ादी आधी रात को’ में लिखते हैं, ‘कहा जाता था कि गांधी जी जहाँ भी जाते थे वही भारत की राजधानी बन जाती थी। इस नव वर्ष दिवस को यह राजधानी बंगाल के छोटे-से गांव श्रीरामपुर में थी, जहाँ यह महात्मा मिट्टी का लेप किए पड़े थे। रेडियो, बिजली या पानी के नल जैसी किसी भी सुविधा के बिना, जहाँ से तार देने या टेलीफोन करने के लिए तीस मील पैदल जाना पड़ता था। वहीं से वह इतने विशाल महाद्वीप पर अपना सिक्का जमाए हुए थे।’ नागार्जुन ने गांधी के इसी बड़े व्यक्तित्व की व्याख्या कविता में की हैः –

घर   हो,  बाहर हो,   कारा हो/ लाचारी    हो,    बीमारी    हो

सत्याग्रह    की    तैयारी    हो/ बंबई  हो  कि  या लंदन  हो

हो   क्षुद्र   गांव   या    महानगर/ कुछ भी हो, कैसी भी स्थिति हो,

तुम सुबह-शाम/ उस परम-पिता परमेश्वर की प्रार्थना नित्य-

करते    आए    हो   जीवन-भर/ दो-चार   और   दस-बीस   जने

शामिल   हो   जाते   हैं  उसमें/ पर कभी-कभी दस-दस पंद्रह-पंद्रह हज़ार

यह सहस-शीश यह सहस-बाहु/ जनता  भी  शामिल  होती  है!

गांधी के महान जनप्रिय व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि नागार्जुन अपनी कविता में उन्हें आदर से जगह देते हैं। वे बड़े-बड़े नेताओं का मखौल उड़ाते हैं पर गांधी के विरोध में कुछ भी नहीं कहते।

इसमें दो राय नहीं कि जिस प्रकार की लोकप्रियता गांधी की भारतीय जनमानस के बीच बनी थी नागार्जुन ने उसी लोकप्रियता को केंद्र में रखते हुए कविता रची है। उन्होंने वे आख्यान परक विधि अपनाई है। ‘गांधी’ कविता में गांधी के राष्ट्रीय चिंतन का पूरा पिक्चर बना दिया है। वे गांधी को एक संघर्षकर्ता के रूप में देखते हैं। एक बात गौर करने लायक है कि नागार्जुन ने दलित समस्या पर गांधी के विचार को उनके चरित्र तक भटकने नहीं दिया। वे व्यक्तिगत चेतना से नहीं, बहुजन समाज के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं।

 

-भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।

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