सुपरिचित कवि।अद्यतन कविता संकलन इन हाथों के बिना।केदारनाथ अग्रवाल स्मृति शोध संस्थान से जुड़े।

यह पृथ्वी हमारा घर है

जितना सब को मालूम था
उतना मुझको भी मालूम है कि
किसी सुबह शाम या आधी रात को
चला जाऊंगा मैं
पता नहीं
ईश्वर कहां रखेगा मेरी आत्मा को

अपनी व्यस्तता के बीच
पहुंचा हुआ मुझे देख
खीझते हुए धर देगा मेरी आत्मा को
किसी अबूझ आले में या खोंस देगा
किसी टाट-पटोरे के बीच
और भूल जाएगा मुझे
खुंसा या धरा हुआ वहीं पड़ा रहूंगा
जैसे अब तक धरा रहा
इस धरती में अबूझ की तरह

धरती में जब आया था
कहां बजी थी थाली
मेरे आने के पहले ही
चार बार बज चुकी थीं थालियां
बार-बार एक ही खुशी के आने से
खुशी का रंग भी फीका हो जाता है
वैसे मैंने इस धरती की चिंता में
कभी आकाश की चिंता नहीं की
जो पैदा होने के साथ ही
अपने सिर पर
रखा महसूस कर रहा था

धरती में रहते हुए
मैंने अपने आसपास टहलती हुई
बहुत-से घुनों को देखा
जो धरती को चूहों की तरह कुतर रहे थे

धरती के स्वाद के बारे में
कुछ ने मुझे बताया भी
किंतु मुझे हमेशा लगा कि
यह पृथ्वी हमारा घर है
घर को कोई खाता है भला
खाने की चीज तो यह आकाश है
जिसे सर में रखे खड़े रहे
और बड़ा बनने के लिए
एक दूसरे से लड़ते रहे।

क्या मैं था

कभी मैं सूरज के
उठने के पहले उठ जाता था
टिली ली ली कह कर
चिढ़ाता हुआ उसे
दिन भर सूरज के आगे
आगे चला करता था

धीरे-धीरे
मैं सूरज से पिछड़ने लगा
थकने लगे हाथ पैर
झुकने लगे कंधे
जिनपर सूरज कभी
अपना हाथ रखकर
अपनी थकावट दूर करता था

सूरज की किरणें मेरी
पसीने से चुहचुहाती पीठ को
चूमती हुई आह्लादित हो उठती थीं

मेरी छलांग सूरज की
छलांग से बड़ी होती थी
सूरज के घर पहुंचने के पहले
मैं पहुंच जाता था घर
सूरज डूबता था
मेरी आंखों में
खुद को देखता हुआ

रात भर सूरज रहता था
मेरी आंखों में
सपने बुनता हुआ
मेरी आंखें खुलते ही
सूरज की आंखें खुल जाती थीं
लेकिन मैं आगे
औैर सूरज मेरे पीछे होता था
क्या मैं था
और क्या था बेचारा सूरज।

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