वरिष्ठ लेखिका। कहानी संग्रह रब्बीप्रकाशित। 30 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। संप्रति : समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट आफ इंडियामें बतौर समाचार संपादक कार्यरत।

पोर्ट मूडी शहर का कोना-कोना बर्फ से ढक चुका है। दिसंबर का महीना बीतने को है। ठंड तो ऐसी कड़ाके की पड़ रही है कि बस पूछो मत! उसकी उंगलियां कहीं गुलाबी तो कहीं हल्की नीली हो रही हैं।

सड़क सफेद हो चुकी है, सड़क के पार सस्मैट लेक पर भी हल्की बर्फ की चादर बिछी है। झील के बीचों बीच बना लकड़ी का पुल भी नजर नहीं आ रहा। झील को चारों ओर से घेर कर खड़े मैपल के पेड़ भी जैसे कहीं गायब हो गए हैं।

ये ब्रिटिश कोलंबिया का सबसे शांत इलाका है।

उसे कंपकंपी आ रही है। दांत किटकिटा रहे हैं। दस्ताने पहन कर उसने हाथ बगल में दबा लिए, शायद कुछ गर्मी मिले। लेकिन बर्फीली हवा है कि नश्तर की तरह हड्डियों में घुसी जा रही है।

उसने मोबाइल में चेक किया। अभी चार फूड डिलीवरी और हैं। चारों पोर्ट मूडी के रोड नंबर 57 पर एक ही अपार्टमेंट की हैं। जल्द ही काम खत्म हो जाएगा, ये सोच कर उसने राहत की सांस ली। फोन में समय देखा, आठ बज चुके हैं।

तुरंत बाइक स्टार्ट की। अगर आज भी देर से पहुंचा तो भूखे ही सोना पड़ेगा। आखिरी फूड डिलीवरी देकर उसने फ्लैट की ओर बाइक दौड़ा दी। बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। सड़क पर काफी फिसलन थी।

पंद्रह मिनट में ही वो फ्लैट पर पहुंच गया। डिनर आने ही वाला था।

तीन बेडरूम के इस फ्लैट में तीस लड़के रहते हैं- पंद्रह हिंदुस्तानी, दस पाकिस्तानी, और पांच बांग्लादेशी। बेडरूम काफी बड़े हैं इसलिए एक बेडरूम में आठ-आठ लड़के और छह लड़के ड्राइंगरूम में सोते हैं।

बर्फबारी तेज हो गई थी। उसने खिड़की से परदा हटाया, सब कुछ सफेद हो चुका था। इतने में बाहर मिनी ट्रक का हार्न बजा। कुछ लड़के जाकर तुरंत डिनर के बड़े-बड़े टिफिन बॉक्स उठा लाए। खाने वाले तीस हैं लेकिन टिफिन बॉक्स पंद्रह ही मंगाए जाते हैं। किसी के पास इतने पैसे नहीं बचे हैं कि वे सब अपने लिए अलग-अलग टिफिन मंगा सकें।

इसी इलाके में एक सरदार फैमिली है जो स्टूडेंट वीजा पर कनाडा आने वाले हिंदुस्तानी, बांग्लादेशी और पाकिस्तानी लड़कों को खाने और रहने की सुविधा देती है।

एक-एक टिफिन बॉक्स लेकर दो-दो लड़के बैठ गए। छह रोटी, एक सब्जी, एक दाल, चावल। अब तो उसे भी तीन रोटी में पेट भरना आ गया है।

सब लड़के चुपचाप बैठे खाना खा रहे थे। इनमें से आधे खाना खाकर रात की ड्यूटी पर निकल जाएंगे। देवेंद्र सुबह कॉलेज में क्लास अटेंड करता था और शाम को फूड डिलीवरी का काम।

ड्राइंग रूम में दीवार पर टंगे बड़े-से टीवी पर समाचार आ रहे हैं। तभी कनाडा के इमीग्रेशन, रफ्यूजी और सिटिजनशिप मामलों के मंत्री मार्क मिलर स्क्रीन पर आए, ‘कनाडा अथॉरिटी बार-बार कह रही है कि स्टडी परमिट परमानेंट रेजीडेंस की गारंटी नहीं है। और ऐसा कोई वादा कभी नहीं किया गया। लोग यहां पढ़ने आते हैं, उनका स्वागत है, लेकिन उसके बाद वे अपने देश वापस जाएं।’

‘कनाडा सरकार ने इमीग्रेशन और परमानेंट रेजीडेंसी नियम सख्त कर दिए हैं, लेकिन साले एजेंट को पहले बताना चाहिए था। बाप-दादा की पुश्तैनी जमीन बेचकर साला मुझे यहां ये टैक्सी ही चलानी थी!’

इतना कहते हुए रफीक ने गुस्से में हाथ का कौर और बाकी रोटियां फेंक कर दीवार में दे मारी।

हालत सब की यही थी। लेकिन करें क्या? कहें किससे? अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली तो अब कटे हुए पैर किसको दिखाएं? और अब वर्क परमिट और परमानेंट रेजीडेंसी में कमी करने की योजना बनाकर कनाडा सरकार तो उनके हाथ भी काटने पर तुली है।

किसको पता था, ख्वाबों के जिस शहर के लिए वे सफर पर निकले थे, वह एक बुरा सपना साबित होगा। लौटने के सारे रास्ते तो वे खुद ही बंद करके आए थे।

उन्होंने जन्नत का सपना देखा था, नोटों की बरसात का सपना देखा था, दोनों हाथों से दौलत लूटने के सपने सजाए थे …तो फिर ये किसने सोचा था कि पीछे भी लौटना पड़ सकता है।

देवेंद्र ने देखा, उसकी बगल में सोने वाला सोवेन गांगुली अपने आप ही बांग्ला में गुस्से में कुछ बोल रहा है।

‘की होबे दादा’ उसने सोवेन को सामान्य करने की कोशिश करते हुए कहा।

‘…उस डिपार्टमेंटल स्टोर वाले ने 20 डॉलर के बजाय 12 डॉलर दिया। मैंने गुस्सा किया तो बोला, 911 को रिपोर्ट कर देगा।’

‘सोवेन भाई, लीगली वर्क परमिट मिल जाएगा तो ये लोग फिर हमारे साथ ऐसा नहीं कर सकेंगे।’ देवेंद्र ने उसे तसल्ली देने की कोशिश की।

‘हम लोगों को कभी लीगल वर्क परमिट नहीं मिलेगा, हमारा कॉलेज डिग्री मिल वाले कॉलेज की लिस्ट में है, फर्जी है। तुम्हें मालूम नहीं उसकी डिग्री इनवैलिड है… ये जन्नत नहीं जहन्नुम है।’

देवेंद्र, रफीक और सोवेन जैसे हजारों छात्र कनाडा में इन दिनों आंदोलन कर रहे हैं। इनमें से सैकड़ों एजेंट के जाल में फंस कर यहां आए हैं। उन्हें डिग्री मिल यानी केवल पैसे लेकर डिग्रियां बांटने वाले कॉलेजों में दाखिला दिलाया गया।

कनाडा में बेरोजगारी इतनी फैल चुकी है कि प्रवासी छात्रों के यहां आकर पढ़ने, वर्क परमिट लेने, परमानेंट रेजीडेंसी हासिल करने और उसके बाद नागरिक बनने के सपने चूर-चूर हो गए हैं।

‘कनाडा सरकार क्या करेगी? डिग्री मिल वाले कॉलेज को बंद कर देगी। लेकिन हमलोग कहां जाएंगे। दूसरे कॉलेज में एडमिशन ले नहीं सकते, उनकी फीस ज्यादा है और हमारा पिछला एकाडमिक रिकार्ड उनके स्टैंडर्ड का भी नहीं है। अच्छे नंबर आते तो वहां अपना इंडिया में क्या बुराई थी। हमलोग अपनी ऐसी-तैसी यहां क्यों करवाने आते।’ सोवेन का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था।

देवेंद्र कुछ नहीं बोला। कुछ ही देर में सब लोग सो गए।

उसे अपना घर याद आने लगा।

‘भाई, तेरा कनाड्डा की यूनिवर्सिटी में दाखिला कराण की जिम्मेदारी मेरी। एक बार कनाड्डा पहुंच जा और फेर मौज ही मौज! इधर दाखिला और उधर वर्क परमिट! पढ़ाई के साथ-साथ कमाई! और कमाई भी एैसी-वैसी नहीं डॉलर में! एक घंटे काम करने के बीस डॉलर। सोच आठ घंटे के 160 डॉलर। मतलब हिसाब लगा के देख, यूं सोच ले कि एक दिन के करीब दस हजार रुपए।’ एजेंट ने ठीक यही बात कही थी।

वह ही नहीं, उसके अपने गांव और आसपास के गांवों के कई लड़के कनाडा, अमेरिका या किसी अन्य देश में पढ़ाई के लिए जमीन बेचकर दाखिला ले चुके थे। उसने सब लोगों से यही कहानियां सुनी थी कि एक बार कनाडा पहुंचने के बाद जिंदगी बन जाएगी, पैसा ही पैसा होगा।

सपनों का क्या है? कुछ नहीं। सपनों का कुछ नहीं बिगड़ता, बिगड़ता है तो सपने देखने वाले का। कई बार ऐसे ही सपनों के पीछे दौड़ते हुए इंसान अंधे कुएं में गिर जाता है। और फिर अचानक सपना टूट जाता है।

छह महीने में ही जन्नत की हकीकत उसके सामने थी।

कैसे उसकी आंखों पर पट्टी बंध गई थी कि उसे अपने बाप का प्रेम और मजबूरी दिखाई नहीं दी।

‘तू जो इतणी दूर चला गया, तो हमने यहां कोई पाणी देने वाला भी नहीं होगा।’ उसके बाप ने भरे गले से कहा था।

‘पिताजी, मैं जिंदगी में कुछ करके दिखाणा चाहता हूँ। और फेर दो चार साल की बात है, कनाड्डा में इतणा पइसा है कि देखते-देखते सारा कर्ज उतार दूंगा।’

‘कुछ करके दिखाणे से यहां किसने तेरे हाथ पकड़ रखे हैं। अपनी खेती बाड़ी है, तू जवान बालक है, खेत में नई फसल उगा, कुछ नया कर, …गाम में रह के ही तू मालामाल हो जाएगा।’

‘बी. एस-सी. करके मैं खेती में मिट्टी के साथ मिट्टी होके अपणी जिंदगी खराब नहीं करूंगा, पिताजी। एजेंट मेरा कनाड्डा में दाखिला करा देगा तो मेरी जिंदगी बण ज्यागी।’ उसने बाप की दलीलों पर पानी फेरते हुए कहा।

पिताजी को उसकी जिंदगी की ही चिंता थी।

‘पचास लाख बहुत बड़ी रकम है बेटा। आठ-दस लाख रुपए लगा के यहीं शहर के बाजार में कोए कपड़े लत्ते की दुकान खोल ले। घर के घर में रहेगा, और कुछ एक साल में बढ़िया काम जम जाएगा।’ उन्होंने समझाणे में कोई कसर नहीं रखी।

लेकिन जिद पर आए जवान बालक को तो परमात्मा भी नहीं समझा सकता।

मांबाप की ममता औलाद के हाथ में एक हथियार होती है। बस यहीं पर धरम सिंह ने हथियार डाल दिए। धरम सिंह बेटे के प्रति अपने प्यार के कारण झुक गया, लेकिन उधार लेने को उसका मन नहीं मानता था।

पूरी जिंदगी खेत में हल चलाने वाले धरम सिंह ने यही सीखा था कि उधार का तो चंदन का तिलक भी माथे पर कलंक होता है। धरम सिंह शहर में होम गार्ड की नौकरी भी करता। रात की ड्यूटी करता और सुबह घर लौटता। कुछ घंटे सोता और फिर कस्सी उठाकर खेत में चला जाता। वो जाणता था, बिना मेहनत गुजारा नहीं है पर लड़के ने अपणी बुद्धि के सारे किवाड़ बंद कर रखे थे।

आखिरकार धरम सिंह को पांच एकड़ में से दो एकड़ जमीन बेचनी पड़ी।

जब खरीददार ने नोटों की गड्डियों से भरा थैला उसके हाथ में पकड़ाया तो धरम सिंह की आंखों में पाणी आ गया, उसके हाथ कांपने लगे। उसे लगा आज वो अपणी जमीन नहीं, अपणी आबरू का सौदा करके आया है।

तकिए के नीचे से फोन उठाकर समय देखा। रात का एक बज चुका था। उसके देश में दोपहर के साढ़े ग्यारह बजे होंगे। मां पिताजी की रोटी लेकर खेत में गई होगी, बहन कॉलेज।

यहां सात समुंदर पार उससे अपने कंधों पर तीनों की उम्मीदों का भारी बोझ उठाए नहीं उठ रहा था।

पिताजी एयरपोर्ट छोड़ने आए थे। उसने चलने से पहले आखिरी बार पिताजी के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। उन्होंने कहा था, ‘मेरा और तेरी मां का बुढ़ापा और तेरी बहन की जिंदगी तेरे हाथों में है। बस इतणा ध्यान रखना।’

इन्हीं सब ख्यालों में खोए हुए वह रात देर से सोया था तो सुबह भी आंख देर से खुली। वह जल्दी-से बिस्तर से उठा। कुदाल लेकर बाहर निकला। आज घर के बाहर से बर्फ हटाने की उसकी बारी थी। बर्फ गिरती है तो रूई की तरह हल्की होती है, लेकिन जब कुदाल में भरकर उठाते हैं तो इतनी भारी होती है कि पांच मिनट में ही दम फूलने लगता है।

उसे अपने खेत याद आने लगे। सर्दियों में सुबह मीठा-मीठा कोहरा पड़ता था, गुलाबी-गुलाबी ठंड होती थी और यहां बर्फ का रेगिस्तान भांय-भांय करता है।

बर्फ हटाकर वह जल्दी-से कपड़े बदल कर कॉलेज जाने के लिए तैयार हो गया। कॉलेज तो फर्जी ही है। वहां क्लास में जाने न जाने का कोई मतलब नहीं। बस वह तो बाकी छात्रों से मिलने आता है, ताकि कहीं दो पैसे के रोजगार की कुछ बात बने।

‘सुना है, एजुकेशन कमीशन ने कॉलेज की मान्यता पूरी तरह रद्द कर दी है। उसके सारे बैंक एकाउंट फ्रीज कर दिए हैं।’ उसके सहपाठी मणिकंडन ने कहा ।

‘मुझे इसी बात का डर था, अब क्या करेंगे।’ उसने कहा।

‘कॉलेज बंद हो जाएगा तो हम लोगों को दूसरे कॉलेजों में दाखिला लेना पड़ेगा, लेकिन उसके लिए अलग से करीब 50 हजार डॉलर का इंतजाम करना पड़ेगा।’

‘पचास हजार डॉलर मतलब?’

उसने हिसाब लगाया, ‘यानी तीस लाख रुपए और?’

देवेंद्र को अचानक सिर में तेज दर्द हुआ। तीस लाख रुपए तो वह यहां खुद को बेच दे तो भी नहीं मिलेंगे। अच्छी तरह जानता था कि खेत बेचकर लिए गए पचास लाख रुपए उसके पिताजी के सीने पर चट्टान की तरह रखे हैं।

उसने हवाई जहाज में बैठते हुए सबसे पहली कसम यही खाई थी। कनाड्डा जाकर खूब मेहनत करके पैसे कमाउंगा और लौटकर सबसे पहले पचास लाख रुपए पिताजी के हाथ पर रख दूंगा। कहूंगा, ‘पिताजी, आप इससे जमीन दोबारा खरीद लो!’

दोपहर बाद वह सीधे कुचेन रेस्त्रां में पहुंच गया। फूड डिलीवरी के दस पैकेट लिए और बाइक में किक मारी। देर रात तक काम निपटा कर फ्लैट पर पहुंचा।

जेब से फोन निकाल कर देखा तो मां के बारह मिस्ड कॉल थे। उसका दिल जोर से धड़कने लगा, कोई अनहोनी न हो गई हो। पिताजी को दमे की बीमारी है और सर्दी के मौसम में तो उनके लिए एक-एक रात काटनी भारी हो जाती है।

तुरंत नंबर मिलाया। फोन उठाते ही मां ने रोना शुरू कर दिया।

‘बेटा, तू वापस आ जा। टेलीविजन में समाचारों में दिखा रहे थे कि किसी हिंदुस्तानी लड़के की ठंड के कारण मौत हो गई।’ मां रोते-रोते भी एक ही सांस में सब कह गई।

‘मां, मैं एकदम ठीक-ठाक हूँ। वह स्टूडेंट ठंड की वजह से नहीं मरा मां। असल बात ये है कि यहां आकर लड़के दारू-वारू पीना शुरू कर देते हैं। दारू पीने के बाद होश नहीं रहता और ये पता नहीं चलता कि ठंड कितनी ज्यादा है। बस  हाइपोथर्मिया के वजह से उसकी डेथ हो गई।’

मां को हाइपोथर्मिया तो समझ नहीं आया। लेकिन बोली, ‘बेटा, तू अपणा ख्याल रखियो। शराब के बेटा हाथ भी मत लगाइयो। तूझे मेरी कसम है। खा मेरी कसम।’

‘मां, तेरी कसम। बस! तू चिंता मत कर’ देवेंद्र ने मां को पक्की तसल्ली देने की कोशिश में कसम भी खा ली।

उसके बाद पिताजी और बहन ने भी बात की। पिताजी ने मन लगाकर पढ़ने की हिदायत दोहराई। और बात खत्म हो गई।

कॉलेज जाने का कोई फायदा नहीं था। फिर भी फ्लैट से निकल गया। उसके दिमाग में कुछ सवाल हथौड़े की तरह बज रहे थे, ‘अब क्या होगा? बाप की उम्मीदें, बहन के सपने और मां के बुढ़ापे का क्या होगा?’

पीछे मुड़कर देखता तो कोई ऐसा रास्ता न नजर आता, जो उसके घर तक जाता हो। और लौटेगा भी तो किस मुंह से? बेचा गया खेत उसकी आंखों के आगे घूमता रहता।’

उसे लगता कि पुरखों की जमीन बिकवा कर उसने कितना बड़ा गुनाह किया है। उसने एक बार भी बुद्धि से काम नहीं लिया, ये नहीं सोचा कि उसके जैसे थर्ड डिवीजन वाले को जब देश में ही कुछ रोजगार नहीं मिल रहा तो विदेश में कौन देगा। एजेंटों को तो शिकार चाहिए होते हैं और वह शिकार बन गया था।

रात फ्लैट में लौटा तो सरदार जी आए हुए थे, वही जिनका ये फ्लैट था।

‘आप सबको ये फ्लैट जल्द से जल्द खाली करणा होगा। ऐसी रिपोर्ट है कि तुम लोगों को सरकार वापस इंडिया भेजणे वाली है।’

उस रात किसी ने खाना नहीं खाया। सब यही सोचते रहे कि अब क्या करना है।

वापस कोई नहीं लौटना चाहता था। घरवालों की जिंदगी भर की मेहनत की कमाई लगाकर यहां पहुंचे थे और किस मुंह से जाएंगे।

तभी टेलीविजन पर हाइपोथर्मिया से मरने वाले स्टूडेंट के घर वाले नजर आए। वह दस-बीस लोगों की भीड़ के साथ दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थे।

‘हमें हमारे बच्चे की बॉडी दिला दो। मैं एक बार उसका चेहरा तो देख लूं।’ उसकी मां की रो-रोकर बुरी हालत थी।

इतने में भीड़ में से कोई नेता टाइप आदमी आक्रोशित स्वर में बोला, ‘बॉडी ही नहीं, सरकार उसके माता-पिता को मुआवजा भी दिलवाए। लाखों रुपया खर्च करके बच्चे को विदेश भेजा। सरकार को उसकी मौत की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।’

तभी लोगों की भीड़ नारे लगाने लगी, ‘बॉडी दो, मुआवजा दो। बॉडी दो, मुआवजा दो।’

तभी एक और नेता ने माइक हाथ में लिया, ‘हमारी मांग है कि सरकार कम से कम एक करोड़ रुपए का मुआवजा दे।’

स्क्रीन पर विदेश मंत्रालय के कोई अधिकारी नजर आए।

‘सरकार जल्द से जल्द उस स्टूडेंट की बॉडी लाने के लिए कनाडा में भारतीय दूतावास के संपर्क में है। और जहां तक मुआवजे की बात है, सरकार इस पर गौर करेगी।’

मरने वाला छात्र जिस राज्य का था, वहां की सरकार परिजनों को पहले ही एक करोड़ रुपए का मुआवजा देने की घोषणा कर चुकी थी।

सब लड़के सोने चले गए थे।

देवेंद्र की आंखों में नींद नहीं थी। घरवालों को मुआवजा तो मिल जाएगा। लड़का भले ही न मिले। उसने सोचा।

वह मुआवजे की राशि का हिसाब लगाने लगा।

‘एक करोड़… इतने तो वह यहां रहकर कभी नहीं कमा पाएगा। कमाना तो दूर, कहीं सरकार ने पकड़ कर जेल में डाल दिया तो?’

वापस लौट जाऊं तो? उसे लगा वो गली से गुजर रहा है और लोग देख-देख कर उसे हँस रहे हैं, ‘लो देखो भाई! अपना कनाड्डा रिटर्न छोरा।’

नहीं, नहीं! किसी कीमत पर लौटूंगा नहीं। पर पचास लाख की भरपाई तो किसी तरह करनी होगी।

उसके कानों में एक ही शब्द गूंज रहा था …मुआवजा, मुआवजा, मुआवजा।

अगर?

वो बिस्तर से उठा… फोन, पर्स, आईडी कार्ड, पासपोर्ट सब निकाल कर ड्राइंगरूम की टेबल पर रख दिया।

फ्लैट का दरवाजा खोला, बर्फीली हवा ने किसी तेज धार चाकू की तरह उसके चेहरे पर वार किया।

वह मुख्य सड़क पर आ गया। सड़क के पार बड़ा-सा वेलकारा रीजनल पार्क है। उसने पार्क की पगडंडी पर दौड़ना शुरू कर दिया। अब उसे बर्फीली हवा की कोई चिंता न थी।

वह ठहर गया। सामने विशाल झील थी।

संपर्क सूत्र : जी4, फाइन होम अपार्टमेंट, मयूर  विहार फेज1, दिल्ली 110091 मो.9810464249