साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथाकार। उपन्यास, कहानी संग्रह, बाल साहित्य आदि की लगभग 25 पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन उपन्यास अल्फ़ा बीटा गामा

 

वह मालन नहीं धोबन थी, मगर गूंथती थी वह गेंदे की फूल-मालाएं। इसलिए इस नई गली में उसे कोई सूरज की मां नहीं कहता था, बल्कि 7 नंबर वाली मालन के नाम से वह आस-पास की गलियों में जानी जाती थी। दिल्ली आकर कौन अपना पेशा बदले या नाम, किसी को क्या फर्क पड़ता है। राजधानी में सब कमाने आए हैं, जो भी काम मिले, चार पैसे हाथ में आएं वह उसे करने लगते थे।

मंदिरों का यहां दूर-दूर तक पता नहीं था, मगर मोहल्ले की चार पांच औरतें मालाएं बनाती थीं। मालाएं कहां जाती हैं, उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं था। सुबह-सुबह कैलाश नाम का आदमी फूलों से भरा बड़ा-सा बोरा थमा जाता था और शाम को बनी मालाएं गिन कर वापस ले जाता था। शाम की सब्जी, दूध का खर्चा आराम से निकल आता था।

मोहल्ला गंदा था। नालियां आवारा-सी बहती रहती थीं और कूड़े के छोटे-बड़े टीले मौजूद थे, जिसकी सडांध से भभका उठता रहता था। महीने दो महीने में उसमें आग लगा दी जाती और धुआं हवा के साथ इधर-उधर डोलता, जिससे मच्छर मर जाते थे। शुरू में कंचन को उबकाई आती थी, मुंह खोलते डर लगता था कि कहीं बदबू उसके हल्क में न जा फंसे, मगर जब से गेंदे के फूल गूँथने लगी है उसे अपनी आंखों में तरावट- सी महसूस होती और नाक के नथुने उसकी गंध से भरे रहते। उसके मुरझाए चेहरे पर रौनक-सी आ गई थी।

सूरज का बाप थ्री-व्हीलर चलाता था। सुबह से शाम तक घर के बाहर ही रहता था। जब घर लौटता तो थकान से चूर होता। छोटे से देहात से आने वाले लोगों को दिल्ली की दूरियां मार डालती हैं और कठिनाइयां, मिट्टी के मकान और खुली ताजा हवा की याद दिलाती हैं।

परसों कोई गांव से आया था। अपने साथ कोहंड़ा और लौकी के बीज भी लाया था, जिसे कंचन की सास ने भिजवाया था। बीज की पुड़िया थामते हुए उसकी आंखें भर आई थीं। अपने घर के छप्पर पर फैली दोनों बेलें कोहड़ा और लौकी से अटी होतीं। यहां न बोने की जगह है फिर बेल फैलेगी कहां, यह सोचती हुई कंचन ने पुड़िया दाल के डिब्बे में डाल दी।

‘यहां तो तुम दोनों का ठिकाना नहीं है फिर सूरज…?’ आने वाले ने उनकी तंग अंधेरी कोठरी देखते हुए कहा और दिल ही दिल में सोचा कि मैं क्या सोच कर आया था कि हफ्ता भर रह कर दिल्ली घूमूंगा मगर…।

‘चलो खाना खाकर आते हैं।’ इतना कर कर कंचन का पति भीम उसे लेकर कबूतर के काबुक से निकला। भूख लगी थी। खाना भी स्वादिष्ट था। उसने भर पेट खाया फिर भीम से बोला, ‘मां की तबीयत सुस्त है भैया, वापस जाना पड़ेगा। बस दादी का दबाव था कि आपकी ख़ैर ख़बर ले आऊं और सामान भी लेता जाऊं।’

‘हूँ…’ भीम ने कुछ सोचते हुए कहा, फिर चेहरे पर घिर आई उदासी को झटक कर बोला, ‘अगर ऐसी बात है तो मैं रोकूंगा नहीं।’

‘दीवाली पर तो आइएगा न?’

‘हां, हां, दीवाली तो घर पर ही मनाएंगे! सुनो, ध्यान रहे अम्मां से कुछ न कहना। अभी तो हम आए हैं, साल भी पूरा नहीं हुआ है। बसते-बसते देर लगेगी। यहां किराया बहुत महंगा है… ऊपर वाले ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा। अम्मा को यह पांच सौ रुपया दे देना। यह कमाई भी गाढ़े ख़ून-पसीने की है।’ इतना कह कर उसने गांव से आए पड़ोसी के बेटे की पीठ थपकी और उसे पचास का नोट थमाते हुए बोला, ‘यह रखो, रास्ते में ठंडा पी लेना।’

बस में उसे सवार कर जब भीम लौटा तो कंचन की आंखों को सूजा हुआ पाया। शायद रोई है। वह कुछ बोला नहीं, पास जाकर बैठ गया। उसे पता था कि सूरज के लिए कुछ नहीं भेज पाई थी। दो-तीन दिन से कैलाश भी नहीं आया था। हाथ तंग था। ऊपर से यह भी अचानक आया। आज सवारी भी बहुत पास-पास की मिलीं। किसी-किसी दिन कमाई अच्छी होती है और कभी-कभी बस गाड़ी का किराया निकल पाता है। आज जो कमाया था वह आठ सौ रुपए उसी में से मां को भेज दिया। मां सब कुछ समझ लेंगी। वह सोचते-सोचते लेट गया और उसकी आंखें झपक गईं।

दूसरे दिन कंचन ने भीम से कहा, ‘मैं सारे दिन बेकार बैठी रहती हूँ, अगर कहो तो सामने वाले घरों में कुछ काम ढूँढ़ लूं। इधर से कई औरतें सड़क पार जाती हैं!’

यह सुनकर भीम के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। आहत हो बोला, ‘नहीं, अभी ठहरो। मैं ही कोई और काम ढूंढ़ता हूँ। दिल्ली के रास्ते पता नहीं हैं और जिसके कारण सवारियां भी झुंझला उठती हैं।’

‘देख लो, इस कोठरी का किराया भी देना होगा, जिसे वह मकान मालिक कमरा कहता है। हमारे ग़ल्ले की कोठरी भी इससे चौगुनी थी। कैलाश शायद बीमार है या फिर वह कहीं और लग गया है।’

‘क्या पता, इस शहर को इतनी जल्दी जानना और लोगों को समझना कठिन है।’ भीम यह कह बाल्टी उठा चापाकल की तरफ चला गया।

कंचन ने स्टोव पर तवा रखा और रोटी सेकने लगी और मन ही मन उसने तय कर लिया कि वह भीम के जाने के बाद काम ढूंढ़ने निकलेगी। भीम को पता भी नहीं चलेगा और मेरा भी दिल बहला रहेगा।

भीम भी मन ही मन सोच रहा था कि गांव में कपड़ा धोने के अलावा थोड़ी बहुत खेती कर ली। इन दो कामों के अलावा हमें आता भी क्या है? जब से तरह-तरह के साबुन आए सब अपने से कपड़ा धोने लगे। तीन चार ठाकुरों और ब्राह्मणों के घर से ही लादी मिलती थी। वह भी बच्चों के शहर में पढ़ने की वजह से कपड़े गिनती में कम हो गए। यहां धोबी घाट कहां है और…

‘सुनो! मैं आज पड़ोसन के साथ बाजार जाऊंगी। उसको शादी में जाना है तो कपड़े खरीदेगी!’

‘ठीक है जाओ!’ भीम ने खाना खत्म किया और हाथ धोकर बाहर निकला।

कंचन ने जल्दीजल्दी काम समेटा और साड़ी बदल, बालों को ठीक कर उसने कोठरी में ताला लगाया और सड़क की तरफ चल पड़ी। सड़क पार कर जैसे ही आगे बढ़ी तो उसे बिमला नजर आई। वह भी कंचन को देखकर चौंक पड़ी, ‘कैसे इधर आई?

काम करना चाह रही हूँ। अकेले घर में दिल नहीं लगता है।कंचन ने झिझकते हुए कहा।

‘चलो मेरे साथ, जहां मैं काम करती हूँ वहां उनकी कपड़ा धोने वाली छुट्टी पर गई है। तुम चाहो तो पकड़ लो। वैसे तो उनके यहां मशीन भी है मगर मां जी अपने कपड़े हाथ से धुलवाती हैं।’

‘ठीक है।’ संकोच से बोली कंचन।

‘यहां का रेट तय है।’ कहती हुई बिमला सामने वाले घर की तरफ बढ़ी और घंटी बजाई।

मालकिन से बातचीत हो गई। कंचन ने काम पकड़ लिया। साफ-सुथरा चमचमाता घर देखकर उसकी आंखें चौंधिया गईं। जो कपड़े मशीन से निकले थे उसे झटक कर फैलाने में जो खुशबू उसे आई, तो वह हैरत में पड़ गई। जो कपड़े उसे धोने के लिए मिले वह इतने उजले थे कि उसे समझ में नहीं आया कि कहीं गलती से धुले कपड़े तो उसे फिर से धोने के लिए नहीं दे दिए गए हैं? उसने कपड़े धोकर बड़े सलीके से फैलाए। घर लौट कर उसकी खुशी का ठिकाना न था। अगर इसी तरह उसने तीन चार घर पकड़ लिए तो वह ठीक-ठाक कमरा किराए पर ले सकती है। उसने बड़े मन से बिस्तर झाड़ा और कुछ बढ़िया पकाने का मन बनाया, मगर घर में ऐसा कोई सामान नहीं था जिससे वह स्वादिष्ट व्यंजन बना सकती सो दिल मसोस कर रह गई।

कई मौसम बीत गए। भीम और कंचन के पैर सख़्त मेहनत के बाद राजधानी की धरती पर जमने लगे थे। इस बीच उन्हें किसी के सर्वेंट क्वार्टर में रहने की जगह भी मिल गई, जिससे कुछ पैसे बचने लगे। मगर उन अफसर का ट्रांसफर हुआ तो उन्हें वह क्वार्टर छोड़ना पड़ा और उन्हें कमरा ढूंढ़ना पड़ा। कमरा मिला बाथरूम और पानी-बिजली के साथ मगर उनके बजट में खींचतान के साथ काम चल सकता था। बस एक घर और पकड़ने की बात थी। भीम को भी एक दुकान पर काम मिल गया था। खाना-पीना भी ठीक हो गया था और गांव भी पैसा जाने लगा था।

‘अब सूरज को बुला लेते हैं।’ एक दिन कंचन ने कहा।

‘मन तो मेरा भी करता है, याद भी बहुत आती है मगर हम उसको अकेला छोड़कर काम पर कैसे जाएंगे?’ भीम की बात सुन कर कंचन उदास हो गई। बिना बेटे के वह दो साल से रह रही थी। होली-दिवाली गांव गई भी तो बेटा अपनी दादी से इतना हिल चुका था कि वह कंचन की तरफ देखता भी न था। जब तक कंचन उसे दुलार से अपने करीब लाने की कोशिश करती तब तक उनके लौटने का दिन आ जाता था। मोहल्ले के बच्चों को स्कूल जाते देख उसका दिल तड़प उठता कि सूरज भी इसी तरह यूनिफार्म पहन कर स्कूल जाता। इस बार जब वह गांव गई थी तो देखा कि धोबी घाट सूना पड़ा था। सब जवान धोबी पेट पालने के लिए इधर-उधर चले गए थे। बुर्जुग धोबी भी अलसाए से बैठे बीड़ी पीते रहते। आखिर लोग कपड़े दें तो काम करें, वरना चार कपड़े के लिए घाट जाने का कोई मतलब नहीं है। साबुन, मसाला सभी कुछ महंगा, ऊपर से पानी की कमी।

गांव उजड़ रहे थे और कस्बे व छोटे शहरों के साथ राजधानी भी भीड़ से उबलने लगी थी। लेकिन कमाने की सुविधा तो शहरों में ही है। यही सब कंचन और भीम सोचते और मेहनत में जुटे रहते थे कि एक दिन उनका भी भाग्य खुलेगा।

उनके कमरे के सामने थोड़ी सी कच्ची जमीन थी। बाकी जीरा-बजरी से बनी खुरदरी सी गली थी। जिसमें चलने के कारण कहीं-कहीं गली टूट और उखड़ चुकी थी, जिसमें बरसात का पानी भर जाता था। चलने में बड़ा कष्ट होता, मगर नर्क का रास्ता तो इससे कठिन होगा। यह सोच कर सब सब्र कर लेते थे।

एक दिन जाने कैसे गांव से आई बीजों की पुड़िया कंचन के हाथ लगी। इसमें क्या है यह सोच कर उसने पुड़िया खोली तो उसमें बीज उसे ताक रहे थे। उसकी आंख डबडबा गई यह सोच कर कि यह उसी लौकी और कोहड़े के बीज हैं जिनकी मजेदार सब्जी सैकड़ों बार बनाई है और खाई भी है। वह पुड़िया लेकर घर की चौखट पर खड़ी हो गई।

नीचे गौर से देखा फिर ऊपर ताका। वहां छोटा सा छज्जा भर था। उसके बाद खुली छत थी। वह अंदर गई। रसोई से चाकू लिया और बाहर निकल कर उसने बीज के लिए थाल बनाया। उसके कंकड़ निकाले और पानी डाला। सूखी मिट्टी पानी पीकर नर्म पड़ी और रंग बदल बैठी। उसने प्यार से देखा और मन ही मन बोली, बीज भिगोती हूँ, दो-तीन दिन बाद बो दूँगी तब तक पानी भी अंदर सूखेपन को धीरे-धीरे ख़त्म कर देगा।

भीगे बीजों ने जैसे ही अंकुर फोड़े कंचन ने फौरन उसे मिट्टी के हवाले कर दिया। हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि नन्हे से थाले में हरियाली झांकने लगी। घूप भी उनकी फुनगी पर जाने किस कोने से निकल कर चमकती थी। देखते-देखते दोनों बेलें लपलपाती बलखाती हुई दोनों तरफ की दीवार पर बंधी डोर पर लिपटने लगीं और देखेते-देखते छज्जे पर छा गईं, फिर खुली छोटी-सी छत पर फैल गईं। हरे पत्तों के बीच से पीले बड़े-बड़े फूल खिलने लगे। कंचन और भीम उन दोनों लतरी को देखकर खुश होते। एक दिन कंचन ने वह फूल तोड़े जो बिना फल वाले थे, उसको बेसन में डाल उसने पकौड़ी तली। इतने दिनों की तरसी जिह्वा तृप्त हो उठी।

एक दिन अचानक छोटी-छोटी लौकियां और कोहंड़े हरे पत्तों के बीच से झांकने लगे। कंचन हर दूसरे तीसरे दिन कोहंड़े के पत्तों और आलू की सब्जी बनाती और दोनों बहुत शौक से खाते। कंचन जब काम से लौटती तो अपने कमरे के दरवाजे को हरे पत्तों से सजा देखकर मुस्करा उठती थी। इस बेल ने उसकी गांव की यादों में कमी ला दी थी। इस बीच मां भी सूरज के साथ दिल्ली का चक्कर लगा गई। वह बेटे बहू से बोली तो कुछ नहीं, मगर चार दिन में ही वह वापस लौटने की सोचने लगी। चुहिया के बिल की तरह इस कमरे में रहना उन्हें कठिन सा लगा, जहां न धूप आती है और न हवा ही फर-फर चलती है। बेटे ने बहुत रोका मगर वह रुकी नहीं। अगर रुकतीं और दिल्ली घूमने के बहाने कुछ जगहें देख लेती तो और कुढ़ती कि आदमी के खुली हवा में सांस लेने तक की जगह नहीं और यहां मीलों तक खुली जगहें खाली पड़ी हैं।

बहरहाल वह बेहद भारी मन से गांव लौटीं इस हूक के साथ कि बेटेबहू कैसे कष्ट भरे जीवन को जीकर नाम भर का कमा रहे हैं। फिर खुद ही खुद को दिलासा देती कि कुछ भी हो हाथ पर हाथ धरे बैठे तो नहीं हैं, कमा खा रहे हैं और हमें भी भेज देते हैं वरना नोटों को हम कभी छू ही न पाते।

शहर में रहते हुए अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा था, मगर संघर्ष भरी जिंदगी ने उन्हें जीना और ज्यादा पाने की ललक बढ़ा दी थी। आदमी को दौड़ता वह देख रहे थे। उनके अंदर का संतोष रूखी-सूखी और ठंडे पानी तक सीमित न रह कर अनेक तरह के प्रलोभन में फंसने के लिए उछल-कूद मचा रहा था। ऐसे ही दिनों में जब सब्जी की लतरों ने चितकबरी दीवारों के बीच हरियाली मचा रखी थी तो एक दिन काम से लौटते हुए कंचन को अपने कमरे के सामने भीड़ दिखी। उसने चाल तेज कर दी और धुक-धुक करते दिल के साथ पहुंची। चंद लोग ऊपर इशारा करके कुछ बातें कर रहे थे। कंचन कुछ समझी कुछ नहीं समझी। दरवाजे का ताला खोलते हुए पूछ बैठी, ‘क्या बात है चाचा?’

‘ऊपर कमरे बनने हैं और काम शुरू होने वाला है।’ ठेकेदार जैसा दिखने वाला अधेड़ उम्र का आदमी बोल पड़ा। उसके मुँह से यह बात सुनते ही कंचन के चाभी घुमाते हाथ बीच में रुक गए।

‘क्या?’ कंचन ने एक घबराई-सी नजर ठेकेदार और मजदूर पर डाल, घनी लतरों पर टिका दी, जहां आठ दस छोटे-छोटे कोहंड़े और अनगिनत नन्ही-नन्हीं लौकियाँ लटक रही थीं।

‘ठीक है, तब सोमवार से काम लगाते हैं।’ कहते हुए वे पांचों आपस में बातें करते हुए चले गए। कंचन ने ताला खोला और कमरे में जाकर साड़ी बदल नाइटी पहनी और काम में जुट गई। दिल ही दिल में उसने हिसाब लगाया कि अभी छह दिन बाक़ी हैं तब तक इनके आकार बढ़ जाएंगे। भले ही ऊपर से फैली लतर काट दी जाए, मगर वह नीचे से बढ़ जाएगी। इस तर्क ने उसे बचा लिया और दिल का बोझ उतर गया।

उसने एक और नया काम पकड़ा था। उसे कल घर जल्दी छोड़ना था। वह इस बात से खुश थी कि वह अपने पेशे से जुड़ी है और गंदे कपड़े उजले बना देती है और कभी-कभी कोयले की नहीं, बिजली के पे्रस से कपड़े इस्त्री कर मालिकों को खुश करके इनाम भी पा जाती है। उसके हाथ तेजी से काम निपटा रहे थे और दिमाग कमाए रुपयों की फड़फड़ाहट में, वह मन ही मन खुश हो रही थी। दो दिन बाद भीम को अपने साहब के साथ दिल्ली से बाहर जाना था। पास में गांव था, वह एक रात उधर रुक कर लौटने वाला था। इसलिए वह सूरज को भेजने के लिए कुछ सोचने लगी।

बेटे से मोबाइल पर बात करती हुई कंचन घर लौट रही थी, जिसे यहां सब क्वार्टर कहते हैं। जब वह अपनी गली की तरफ मुड़ी तो धक-सी रह गई। उसके दरवाजे पर झूलती पीले फूलों की लतर जड़ से गायब थी। वह कुछ देर अकबकाई-सी खड़ी रही जैसे कोई डरावना सपना देख रही हो। फिर घबरा कर इधर-उधर ताका कि कहीं गलत गली में तो नहीं मुड़ गई है! दरवाजा तो वही है जिस पर हल्दी के छापे उभरे हैं और ताला भी उसका अपना है। धड़कते दिल से आगे बढ़ी और शंकित हो मोरंग के ढेर को देखने लगी कि कहीं बेल इसके नीचे तो नहीं दब गई? लेकिन ऊपर फैली बेल कहां गई, उस पर लगी छोटी लौकियां और कोहड़े कहां गए?

वह चीखना चाहती थी मगर गले में आवाज फंस कर रह गई। भीम भी दो दिन बाद लौटने वाला था। उसने अपने को भरेपूरे मोहल्ले में बिलकुल अकेला पाया। वह भारी कदमों से वापस लौटने लगी। उसकी चौंकन्नी आंखें इधरउधर खोजबीन में लगी थीं। चेहरे से परेशानी टपक रही थी।

‘कुछ हिराए गवा है का?’ सामने से जाती दो औरतों मे से एक ने पूछा।

‘वह लतर कोहड़े की…’ इतना कह चुप हो गई।

‘हम समझे बकरी हिराय गई है।’ दोनों खिलखिला कर हँस पड़ीं तो जाने क्यों कंचन के माथे पर बल पड़ गए। उसने घूर कर औरतों को देखा तो उनमें से एक बोल पड़ी, ‘बुरा न मानो, आगे वाली गली में जाकर देखो, बकरी के लिए हरियाली उधर ही घसीट ले जाती है।’

‘अच्छा!’ उसने कह तो दिया मगर दोचित्ते में पड़ गई…। उधर जाए या न जाए … जाकर भी क्या होगा?

कुछ पल यूँ ही खड़ी रही, फिर पता नहीं कैसे उसके पैर उस गली की तरफ मुड़ गए। गली आगे जाकर और तंग हो गई थी। दोनों तरफ छोटे दरवाजों के घर थे। उसकी अपनी गली से बुरी हालत में यह गली थी। मटमैला अंधेरा और घुटन के साथ एक तरफ काले पानी की बड़ी सी नाली थी, जिसमें दूसरी तरफ के घरों से निकली नालियां गली के बीच से होकर गुजर रही थीं। कंचन को लगा जैसे इक्कट-दुक्कट खेलने के लिए बनी हों। उसने साड़ी ऊंची उठाई और गंदगी से बच, बचाकर आगे बढ़ी। लतर के चक्कर में यह मैं कहां आन फंसी, रुहांसी सी कंचन मन ही मन कह उठी। उसकी समझ में आ गया था कि उन औरतों ने उससे ठिठोली की है। शायद यही शहर की रीति हो।

राजधानी आकर पैसा कमाने का जोश और खुशी आज दम तोड़ गई। यहां जो कमाओ, वह महंगाई खा जाती है। भारी मन से वह रास्ता पूछती हुई क्वार्टर की तरफ लौट रही थी, तभी उसके पैरों में कुछ फंसा तो उसने पैर झटका और चप्पल के बीच फंसी चीज को निकालने झुकी। वह बिना पत्तियों की पतली सी टहनी थी। कुछ आगे बढ़ी तो कुछ हरा-हरा रस्सी की तरह उलझा-सा घूरे पर पड़ा दिखा, जिससे कुत्ते के पिल्ले खेल रहे थे। वह ठिठक कर खड़ी हो गई, ‘यह हमार बेल तो नहीं है… का पता? हमार होत तो ओमा पत्ता और फूल होत? नहीं, नहीं!’ उसने सर झटका। अभी दो कदम आगे ही गई होगी कि उसे लगा कि एक बार पास जाकर देख ले। लाल कपड़े में जो हींग की नन्ही सी पोटली बांधी थी कि सब्जी हरहरा के निकले वह जरूर बंधी होगी।

वह बड़े कुत्तों से डरती पास पहुंची और झुक कर टूटी बेलों की काया के टुकड़े उठाने लगी। दिल अचानक धक से रह गया। लाल कपड़े की हींग की पोटली वहाँ मौजूद थी, जिसे देखकर उसके मुंह से निकला ‘हाय दइया!’

कंचन ने घबराई नजरों से इधरउधर देखा फिर लंबी गहरी सांस खींची। आगे का रास्ता चौड़ा था, जहां पर ईंट जोड़ कर कुछ लोग खाना पका रहे थे। कुछ बैठे आटा सान रहे थे। पास पहुंची तो देखा, कोहड़े के पत्ते काटे जा रहे हैं। सभी साग आलू की सब्जी बना रहे हैं। उसका माथा ठनका और पूछ बैठी, ‘का पकावत हो भैया?’

‘पूछो न, आज साल भर बाद कोहड़ा की पत्ती मिली है।’

‘कहां मिली?’ कंचन का माथा गर्म हो गया था।

‘रास्ते में पड़ी रही लावारिस, हम घसीट लाए। पत्ते बचे हैं, लेना है तो ले लो।’

‘यह हमारी बेल रही, कैसे जतन से बड़ा किए रहे…। कुछ पता है? जो ओका काट-कूट के छौंक रहे हो?’ कंचन की आवाज़ में एक साथ गुस्से और ग़म की थरथराहट थी जिसे सुनकर नमक के साथ कच्चे कोहड़ा व उंगली बराबर लौकी को चबाते हुए किशोर रुक गए और बर्तन आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘तो ले जाओ।’

‘का ले जाएं? सब तो उजाड़ दियो… हमार लतर भरी रही पत्ती व फूलन से, फल पूरा मोहला खाता।’

कंचन की तेज आवाज में विलाप की ध्वनि थी। सबके चेहरे लटक से गए। उनकी आंखों में हैरत जरूर थी जैसे पूछ रहे हों, यहां पर कहां बोये रहीं, जबकि यहां तो सर छुपाए को जगह नहीं है।

कंचन अपने गालों पर बहे आंसुओं को पोछती हुई आगे बढ़ी। उसका मन फड़फड़ा रहा था कि कैसे वह पक्षी बन गांव से उड़ जाए। उसकी आंखों में अपने देखे सपने की टूटन चुभती सी महसूस हो रही थी और मन बेबसी से छटपटा रहा था जैसे कह रहा हो, न वहां चैन रहा न यहां!