अच्युतानंद मिश्र
युवा आलोचक। अद्यतन कविता संग्रह ‘आंख में तिनका’ और लेखों का संग्रह ‘बाजार के अरण्य में’।
नवजागरण के संदर्भ में जर्मन दार्शनिक एडोर्नो ने लिखा है ‘नवजागरण जरूरी है, मगर असंभव’। कोई भी समाज अपनी यथास्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करता है, लड़ता है- यह संघर्ष, यह लड़ाई नवजागरण को अनिवार्य बनाती है। अपने निकट अतीत को लेकर वह प्रश्नाकुल हो उठता है। अतीत की क्रमिकताएँ उसका साथ कभी नहीं छोड़तीं। इस अर्थ में नवजागरण अनिवार्य होते हुए भी, असंभव हो उठता है। एक बात यहाँ बहुत महत्वपूर्ण है कि कोई भी नवजागरण अपने वर्तमान को नए तरह से देखने, नई परिपाटियों में संयोजित करने पर बल देता है। वह चली आ रही क्रमिकताओं को प्रश्नांकित भी करता है। ये प्रश्न अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बिंदुओं से उठाए जाते हैं। जब इन प्रश्नों को एक व्यापक जन समूह, समाज और राष्ट्र स्वीकार करता है –एक नई संस्कृति का आगाज होता है। यह नवजागरण की संस्कृति कहलाती है।
19वीं सदी के भारत की तुलना अगर हम 18वीं सदी के भारत से करें तो यह देखना कठिन न होगा कि 19वीं सदी में एक सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक खदबदाहट, परिवर्तन की आकांक्षा एवं प्रश्नाकुलता पूरे समाज को अपनी ज़द में लेने लगती है।
देश क्या है? राष्ट्र क्या है? जाति क्या है? समाज क्या है? स्त्री क्या है? आदि आदि। असंख्य प्रश्न जो भक्ति आंदोलन के बाद ओट में चले गए थे, वे फिर परिदृश्य में मौजूं होने लगते हैं। इन प्रश्नों, बेचैनियों का उद्देश्य क्या था? क्या ये अचानक दृश्य में आ गए थे? अंग्रेजी शासन से इन प्रश्नों, स्थितियों का क्या संबंध था? पिछली आधी सदी में इस ढंग से विचार करने की एक परिपाटी हिंदी में विकसित हुई है। इतिहासकारों के समानांतर, सांस्कृतिक रूपाकारों को इंगित करते हुए हिंदी के अनेक लेखकों, चिंतकों, विचारकों एवं आलोचकों ने इस प्रश्न पर विचार किया है।
इस दृष्टि से कर्मेंदु शिशिर ने नवजागरण को देखने समझने और उसपर बहस करने के कुछ नए एवं जरूरी आयाम विकसित किए हैं। उन्होंने नवजागरण की समकालीनता अथवा वर्तमान समय में नवजागरण की प्रासंगिकता पर विस्तार से विचार किया है। समकालीनता के संदर्भ में नवजागरण को देखने का तर्क कर्मेंदु शिशिर वर्तमान की जद्दोजहद में पाते हैं। वे लिखते हैं-
अपने अंदरूनी विघटन अथवा राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से कोई समाज या देश अपनी अस्मिता भूल जाता है और कभी–कभी बाहरी दबावों, आक्रमणों से पराधीन होकर अपनी अस्मिता खो देता है, लेकिन हर समाज या देश के जीवन में ऐसा वक्त आता है जब वह भीतरी या बाहरी कारणों से अपनी अस्मिता की पहचान करता है, उसके भीतर सुगबुगाहट होती है और धीरे–धीरे वह हलचल में बदलती हुई परिवर्तन की आकांक्षा बनकर फूट पड़ती है। यही परिवर्तन की आकांक्षा उस समाज या देश के इतिहास में नवजागरण की शक्ल में याद की जाती है। इन्हीं अर्थों में हमारा नवजागरण भी एक ऐसे आईने की तरह है, जिसमें हम अपने बहुत सारे मौजूदा गतिरोधों की जांच–पड़ताल कर बेहतर बदलावों की पगडंडी तलाश कर सकते हैं।1
नवजागरण का प्रारंभ स्व की चेतना की तलाश से होता है। व्यक्ति आत्म से राष्ट्र की ओर बढ़ता है। आत्म का विस्तार राष्ट्र में होने लगता है। इसलिए दुनिया के तमाम नवजागरण के केंद्र में कुछ विलक्षण प्रतिभाएं होती हैं, जो अपने समय, समाज और राष्ट्र की बेचैनी को अपने भीतर आत्मसात करती हैं। और फिर आत्मसंघर्ष की एक लंबी प्रक्रिया चलती है। यही आत्मसंघर्ष भिन्न तरह के संक्रमणों से गुजरते हुए एक व्यापक जन आंदोलन की शक्ल इख़्तियार करता है। आत्मसंघर्ष, राष्ट्रीय संघर्ष में बदल जाता है। कहना न होगा कि भारतीय नवजागरण की प्रक्रिया भी यही रही है। 19 वीं सदी का आत्मसंघर्ष भिन्न तरह के संक्रमणों से गुजरते हुए बीसवीं सदी के राष्ट्रीय संघर्ष में बदलता है।
कर्मेंदु शिशिर नवजागरण की इस प्रक्रिया को विस्तार से चिह्नित करते हैं। वे एक-एक कर नवजागरण के नायकों के वैशिष्ट्य और उनके आत्मसंघर्ष पर बात करते हैं। वे कमोबेश इस मिथ को भी तोड़ने का काम करते हैं कि जो नवजागरण हिंदी क्षेत्र में हुआ उसके सरोकार हिंदुओं से जुड़े हुए थे, अंततः वह हिंदू नवजागरण ही था। कर्मेंदु शिशिर इसके विपरीत एक व्यापक और बहुआयामी भारतीय नवजागरण की अवधारणा को मूर्त करते हैं। व्यापक इस अर्थ में कि उसका विस्तार पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक था। बहुआयामी इसलिए कि उसमें कोई एक केंद्रीय अवधारणा के बजाय पुराने युग से निकलकर नए युग में चले जाने की प्रक्रिया पर बल था।
राजा राममोहन राय के संदर्भ में विचार करते हुए वे लिखते हैं-
‘जाहिर है राजा राममोहन राय आधुनिकता और परंपरा के मेल को एक तार्किक स्वरूप देना चाहते थे। बेशक इसमें अपने समय की सीमाएं थीं, लेकिन उनकी मूल आकांक्षा एक नए नवजागरण की थी – इसमें कोई संदेह नहीं।’
कर्मेंदु शिशिर ने स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि राजा राममोहन राय की अपनी सीमाएँ थी। उनकी सीमाएँ वस्तुतः 19वीं सदी के हिंदुस्तान की भी सीमाएँ थीं। राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज के भीतर के उस अंतर्विरोध को पहचान लिया था, जो पतनशील सामंती राजनीतिक सत्ता से मुक्त होना चाह रहा था। वह एक सूखा हुआ कुआँ था। अंग्रेजी शासन इस बजबजाते सामंती सत्ता का विकल्प नहीं था, वह एक भयानक खाई ही थी, लेकिन 19वीं सदी के आरंभ में उनका यह स्वरूप स्पष्ट नहीं था। राजा राममोहन राय सरीखे चिंतक भारतीय समाज में आधुनिकता के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस आधुनिकता की राह में सबसे बड़ी रुकावट भारतीय शासक वर्ग ही था। अंग्रेजों के पीछे एक बड़ी क्रांति थी, जिसने पूरी दुनिया की घड़ी बदल दी थी। किसी भी जागरूक और परिवर्तन की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति के लिए उस क्रांति को लेकर मोहाविष्ट होना स्वाभाविक ही था। राजा राममोहन राय इसमें अपवाद नहीं थे।
फ्रेंच क्रांति ने एक झटके में दुनिया को मध्ययुगीनता की दलदल से बाहर निकालकर, आधुनिकता की चमचमाती सड़क पर ला दिया। राजा राममोहन राय भी भारतीय समाज के भीतर चल रहे आधुनिकता की इस आकांक्षा और संघर्ष को परख रहे थे। वे आधुनिक भारतीय समाज के स्वप्न को साकार करने की प्रक्रिया की तलाश कर रहे थे। यहाँ एक बात की तरफ ध्यान देना जरूरी है कि फ्रेंच क्रांति से प्रभावित होने का अर्थ यूरोप की बर्बरता या अंग्रेजी साम्राज्यवाद को स्वीकार करना नहीं था। राजा राममोहन राय की इस कसमसाहट के संदर्भ में कर्मेंदु शिशिर लिखते हैं– ‘उनके सामने यह स्पष्ट था कि किस तरह से जाति-पाँति के विभाजन ने जनता को राजनीतिक भावनाओं से दूर कर दिया है और उन्होंने यह दिखाया कि कैसे कर्मकांडों में उलझा समाज बड़े परिवर्तनों के अयोग्य हो गया है। धार्मिक जड़ताओं ने समाज को बुरी तरह जकड़ लिया है। उससे छुटकारा पाए बिना समाज नई करवट ले ही नहीं सकता। यहाँ राजनीतिक लाभ और सामाजिक सुख के संकेत राजा राममोहन राय की मूल आकांक्षाओं की स्पष्ट अभिव्यक्ति करते हैं। बेशक राजा राममोहन राय को अपना धर्म और अपनी परंपरा प्रिय थी और इस धार्मिक कुरूपता की आलोचना भी वे इसी भाव से करते थे, क्योंकि उनके विचारों की कसौटी के केंद्र में मानव विवेक था।’
कहना न होगा कि इस मानव विवेक के केंद्र में फ्रेंच क्रांति के मूल्यों का प्रभाव था, लेकिन उन मूल्यों को अपने सामाजिक अंतर्विरोधों के संदर्भ में देखने का प्रयास राजा राममोहन राय ने किया। आज हम जिस आधुनिक और स्वतंत्र स्त्री की बात करते हैं, उसके सबसे पहले बीज भारतीय समाज में राजा राममोहन राय के विचारों ने ही बोए। उनके अंतर्विरोध थे और ऐसे अंतर्विरोधों का होना -संक्रमणकाल से गुजर रहे समाज एवं राष्ट्र के चिंतक, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता में –स्वाभाविक ही था।
जब हम राजा राममोहन राय सरीखे चिंतकों के अंतर्विरोधों को समाज के अंतर्विरोधों से जोड़कर नहीं देखते तो हम इस तरह के सरलीकृत निष्कर्ष तक पहुँच जाते हैं, जिसके अनुरूप हम फ्रेंच क्रांति को यूरोप से और यूरोप को ब्रिटेन से और ब्रिटेन से होते हुए उपनिवेशवाद तक जोड़ देते हैं। निष्कर्ष यह निकलता है कि फ्रेंच क्रांति का समर्थन करना ब्रिटिश उपनिवेशवाद का समर्थन करना है। यह सरलीकृत तर्क वास्तव में हमारे भीतर कार्य कर रहे भाववादी दृष्टिकोण का परिणाम होता है। इस तर्क के परिणामस्वरूप राजा राममोहन राय सरीखे सामाजिक चिंतकों को अंग्रेजपरस्त कहना आसान हो जाता है। यह तर्क उसी तरह का तर्क है जो नवजागरण को हिंदी क्षेत्र से संबद्ध करते हुए हिंदू नवजागरण बताने की कोशिश करता है। कहना न होगा कि न सिर्फ दोनों तरह के तर्क खास तरह के सरलीकरण का शिकार हैं, बल्कि दोनों के स्रोत भी एक ही हैं। दोनों का उद्गम स्थल भी एक ही है। और इसके मूल में अंग्रेजों के विरोध के बहाने भारतीय सामंतवादी शोषण को ही भारतीय परंपरा मान, उसको सही साबित करने की कोशिश की जाती है। यहाँ बार-बार भारतीय परंपरा की दुहाई दी जाती है। परंपरा में मौजूद अंतर्विरोधों को दरकिनार किया जाता है। इन सबके पार्श्व में भारतीय सामंतवाद की चेतना को ही पोषित करने का बौद्धिक करतब संभव किया जाता है। ऐसे चिंतकों की संख्या कम नहीं है और इस संदर्भ में धर्मपाल (1922-2006) ‘भारत का स्वधर्म’ का जिक्र करना यहाँ विषयांतर नहीं होगा।
धर्मपाल 19वीं सदी के सामाजिक आंदोलनों का अवमूल्यन करते हुए उसे अंग्रेजी सत्ता और समाज से प्रभावित बताते हैं। राजा राममोहन राय के अंतर्विरोधों की जो व्याख्या हम कर्मेंदु शिशिर के यहाँ पाते हैं, उसके विपरीत उसे संक्रमण के रूप में न देखते हुए धर्मपाल लिखते हैं – ‘ऐतिहासिक राजनैतिक घटनाओं को समझने के प्रति राजनीति तंत्र के शीर्ष जनों में या तो प्रमाद और उपेक्षा भाव दिखता है, या फिर एक अस्पष्ट अपेक्षा- भाव। हमारे प्रतिभाशाली लोग समकालीन राजनीतिक घटनाओं को किस रूप में देख रहे थे इसका उदाहरण हैं राममोहन राय।’
धर्मपाल यह निष्कर्ष बार-बार रखते हैं कि राजा राममोहन राय से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के प्रबुद्धचिंतकों ने स्वयं को कुलीन और विशिष्ट बनाए रखा और मौजूदा भारतीय समाज के प्रति उनमें हीन भावना थी। इस हीन भावना के जनक अंग्रेज़ थे।
देश की वह प्रतिमा परंपरागत नहीं थी, न ही भारतीय इतिहास के तथ्यों के अनुरूप थी।किंतु 19वीं शताब्दी में वह प्रतिमा अंग्रेजों द्वारा उनकी प्रेरणा से परिश्रमपूर्वक गढ़ी गई। बंगाल के नव–प्रबुद्धों ने इसमें बहुत आगे बढ़कर भूमिका निभाई। संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही आधुनिक ज्ञानविज्ञान की पढ़ाई हो। इसका राममोहन राय जैसों ने प्रचंड विरोध किया। उनका मत बन गया था कि ये भाषाएँ मात्र स्मृति की, अतीत के ज्ञान की वाहक हो सकती हैं। पश्चिम का ज्ञान तो पश्चिम की ही भाषा से प्राप्त हो सकता है। यह एक अनोखी मान्यता थी कि स्वयं पश्चिम तो भारत का और पूर्व का ज्ञान अपनी ही भाषा में प्राप्त करे, परंतु भारत को पश्चिम का ज्ञान पश्चिम की भाषा में सीखना होगा। इस आग्रह के पीछे निश्चय ही भारतीय भाषा, भारतीय बुद्धि, भारतीय जन के प्रति एक हीनता का भाव रहा है। भारत के प्रति किसी देशद्रोह की बात नहीं है, अपितु भारत के प्रति ऐसे बोध को आत्मसात कर लेने की दशा है, जिसमें भारत को विश्व के अन्य समाजों से विशेष हीन, विशेष पतित और निकृष्ट मानने का आग्रह है। इस बोध की अभिव्यक्ति हम उन दिनों के अनेक प्रसिद्ध लोगों के कथनों में पाते हैं।
धर्मपाल के चिंतन में बहुत से अंतर्विरोध हैं। वे सामंती सत्ता से मुक्त होने की छटपटाहट की बात नहीं करते। वे यह नहीं बताते कि जिस भारत की आलोचना राजा राममोहन राय, बंकिम चंद्र, विवेकानंद से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर तक करते रहे हैं – वह दरअसल सामंती राजनीति और संस्कृति का पोषक भारत था, जिसमें जाति-पांति की घनघोर मान्यताएँ थीं। वे इस पूरे ज्ञानकांड की विवेचना में भारतीय ब्राह्मणवाद और उसके सांस्कृतिक पाखंड का जिक्र नहीं करते। इसके उलट वे ज्ञान अर्जित करने के लिए आधुनिक भाषा बोध की वकालत कर रहे और संस्कृत भाषा का विरोध कर रहे उन्नीसवीं सदी के भारतीय चिंतकों को हीनता से ग्रस्त बताते हैं। धर्मपाल सरीखे बुद्धिजीवी तर्क का न सिर्फ एक धुंधलका खड़ा करते हैं, बल्कि एक आवेग और भाववाद के रास्ते गलत तर्क भी प्रस्तुत करते हैं। वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि आखिर भारत की वह कौन सी राजनीतिक और सांस्कृतिक कमजोरी थी कि अंग्रेज़ हावी हो गए? इसके विपरीत वे बताते हैं कि भारत बेहद संपन्न, सुरक्षित और विकसित राष्ट्र था। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व के भारत का वे एक वायवीय मोहक और भाववादी चित्र खींचते हैं। ताकि 19वीं सदी के भारतीय चिंतकों, विचारकों का आत्मसंघर्ष हीन भावना से ग्रस्त साबित हो। जबकि इसके विपरीत ये चिंतक समाज में मौजूद उस हीन भावना की काट खोज रहे थे। धर्मपाल की तर्क पद्धति में मौजूद असंगतता की शिनाख्त इस छोटे से उद्धरण से की जा सकती है। अंग्रेजों से पूर्व के भारत की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं- 1800 ई. के आसपास भारतीय खेती की उपज–दर इंग्लैंड की कृषि –उपज –दर से दुगुनी व तिगुनी तक थी।
यह एक दिलचस्प तर्क है, हालाँकि 1800 ई. में भारत की जनसंख्या तक़रीबन 28 करोड़ थी और ब्रिटेन की 1.05 करोड़। यानी भारत की जनसंख्या तक़रीबन 28 गुना ज्यादा थी। धर्मपाल इसका उल्लेख नहीं करते। प्रश्न उठता है, वे ऐसा क्यों करते हैं?
कर्मेंदु शिशिर किसी निष्कर्ष के बजाय उन प्रक्रियाओं की तलाश करते हैं, जिनसे 19वीं सदी का भारत बदल रहा था। एक नए राष्ट्र की नींव गढ़ी जा रही थी। वे 19वीं सदी के संक्रमण के रास्ते, 20वीं सदी के भारतीय राष्ट्र निर्माण की चेतना की पड़ताल करते हैं। यह वही चेतना थी, जिसने 20वीं सदी के दूसरे दशक में गांधी को राष्ट्रीय आंदोलन में अनिवार्य बना दिया। कर्मेंदु शिशिर इस अखिल भारतीय चेतना की बहुआयामिता को रेखांकित करते हैं। वे महाराष्ट्र और दक्षिण के नवजागरण के नायकों की चर्चा करते हैं।
भारतीय नवजागरण के मूल्य 19वीं सदी में निर्मित हुए थे। उसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना पर बल था। एक आलोचनात्मक समाज निर्मित करने और यथास्थिति से बाहर निकलने की बेचैनी नवजागरण के तमाम नायकों का वैशिष्ट्य था। इस संदर्भ में वे रामास्वामी पेरियार की चर्चा करते हैं। भारतीय समाज में व्याप्त जाति विभाजन और उसके कुपरिणामों को लेकर पेरियार ने एक उग्र आंदोलन चलाया। पेरियार ने दलितों के लिए समाज में मौजूद गैर बराबरी और भेदभाव का न सिर्फ विरोध किया, बल्कि उसे तर्क और ज्ञान की कसौटी पर परखा। भारतीय समाज के भीतर मौजूद जाति की फांस भी औपनिवेशिक दास्ताँ से मुक्ति की तरह ही जरूरी थी। बल्कि उसी का एक मूर्त रूप थी। पेरियार के आंदोलन में एक गति, एक आक्रोश था। कर्मेंदु शिशिर लिखते हैं-
ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध उनका प्रतिकार बेशक अत्यंत उग्र था, लेकिन यह व्यवस्था भी इतनी कठोर थी कि उनके प्रतिकार को लेकर आप सवाल खड़े नहीं कर सकते। केरल के वायकोम में मंदिरों के आसपास से भी दलितों के गुजरने पर रोक थी। पेरियार ने वहाँ जाकर जबरदस्त सत्याग्रह किया और श्रावणकोर के न सिर्फ मुख्य मंदिर, बल्कि पूरे प्रदेश के मंदिरों से यह रोक हटवा दी।
पेरियार का स्पष्ट मानना था कि अंग्रेजों से मुक्ति से अधिक आवश्यक जातिवाद से मुक्ति है। ऐसे में अगर वे एक छोर पर जाकर यह कह रहे थे कि ‘अंग्रेज़ देर से आए और जल्दी चले गए’ तो उसका एक अर्थ यह भी है कि अंग्रेजों के आने के बाद जो जाति के विरुद्ध, भारतीय समाज में एक व्यापक संघर्ष चला, वह अधूरा रह गया। अंग्रेज़ तो चले गए, लेकिन उनके समय में आरंभ हुआ यह संघर्ष अब भी निर्णायक नहीं हो सका। भारतीय समाज अपने मूल अंतर्विरोध (जाति-भेद) से अब तक उबर नहीं सका। यह उन छद्म साम्राज्यवाद विरोधी सवर्ण बौद्धिकों पर चोट भी थी जो अंग्रेजों से मुक्ति की बात तो करते थे, लेकिन जाति को यथावत बनाए रखना चाहते थे।
पेरियार से लेकर आंबेडकर तक के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि उनके लिए मुक्ति का अर्थ वर्चस्ववादी चेतना से मुक्ति थी। स्वदेशी ब्राह्मणवाद उनके लिए साम्राज्यवाद से कहीं बड़ी फांस थी। मुक्ति को वे सिर्फ अंग्रेजों से मुक्ति के रूप में नहीं देख रहे थे। दरअसल उनका संघर्ष गुलाम और औपनिवेशिक मानसिकता से था। आज भी हम उस मानसिकता से निकल नहीं पाए हैं। दिलचस्प बात यह है कि वह बौद्धिक समुदाय जो अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में स्वयं को अग्रगामी मानता और बताता आया है, वह औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष नहीं करता, बल्कि वह उसे यथावत बनाए रखने पर बल देता है।
नवजागरण का अर्थ सिर्फ बाह्य सत्ता से संघर्ष नहीं। आत्मसत्ता के विरुद्ध संघर्ष भी है। कोई भी समाज जब अपने भीतर मौजूद वर्चस्ववादी शक्तियों को चिह्नित कर समग्रता के साथ रचनात्मक विरोध की राह तलाशता है तो वह नवजागरण के नए मूल्यों का निर्माण करता है। पेरियार सरीखे नवजागरण के नायकों का महत्व यह था कि वे जानते थे कि अंग्रेजों की गुलामी और सवर्णों का आधिपत्य दोनों के मूल में एक ही चेतना काम कर रही है। एक से मुक्त होकर आप दूसरे को छोड़ नहीं सकते। दोनों के मूल में वर्चस्व की चेतना काम करती है। इस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के बगैर अंग्रेजों का चले जाना कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। यह नवजागरण की समग्र उपलब्धि नहीं हो सकती।
उपनिवेशक और उपनिवेशित के मध्य श्रेष्ठता और हीनता का बोध होता है। दिलचस्प है कि यह बोध विलोम के तौर पर नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक के रूप में मौजूद रहता है। उपनिवेशक हमेशा यह चाहता है कि यह पूरक दृष्टिकोण बना रहे। उपनिवेशवाद की सांस्कृतिक चेतना की मूल भूमिका यही है। यह संस्कृति दरअसल उपनिवेशकों की श्रेष्ठता और उपनिवेशितों की हीनता के बीच एक पुल का निर्माण करती है। कहना न होगा कि साम्राज्यवाद का रथ इसी पुल से होकर गुजरता है और अत्याचारियों की विजय सुनिश्चित करता है। हीनता और कमतर होने का बोध समाज के रूप में उन्हें उपनिवेशित होने के लिए अनुकूल बनाता है। वे इस बात पर यकीन करने लगते हैं कि उनमें यह-यह चीज़ नहीं है और इसलिए वे गुलाम बनाए जाने के ही लायक हैं। उपनिवेशवाद का जो तर्क उपनिवेशक के जेहन में मौजूद रहता है, उपनिवेशित न सिर्फ उस तर्क को अपने भीतर आरोपित कर लेता है, बल्कि वह उसी तर्क के अनुरूप अपने विकास की दशा और दिशा भी तय करने लगता है। ऐसे में उपनिवेशक से सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक मुक्ति उपनिवेशवाद को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाती।
नवजागरण की चेतना वास्तव में इस पूरक दृष्टिकोण को खंडित करने का काम करती है। वैशिष्ट्य बोध की जो चेतना उपनिवेशक के भीतर सक्रिय रहती है, वह उसे नकारती नहीं, बल्कि उसके समानांतर आत्म-वैशिष्ट्य की खोज करती है। कहना न होगा कि यह खोज एक लंबे आत्मसंघर्ष के रास्ते चलकर पाया जा सकता है। कर्मेंदु शिशिर नवजागरण की चेतना में मौजूद उस आत्मसंघर्ष की तलाश करते हैं। इसलिए वे राजा राममोहन राय से लेकर ज्योतिबा फुले, वीरेशलिंगम, पेरियार से होते हुए नेहरू, लोहिया और आंबेडकर तक आते हैं। यह आत्मसंघर्ष एकायामी नहीं है। इसके विविध आयाम एक दूसरे को पुष्ट करते हैं। कर्मेंदु शिशिर को पढ़ते हुए हम इस बात को समझ सकते हैं कि भारतीय नवजागरण को गांधी बनाम आंबेडकर की छद्म बहस के रास्ते नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए नवजागरण की सतत विकसित होती चेतना के स्वभाव को समझना होता है। यह तभी संभव है जब हम भारतीय समाज की चेतना के विकास के सामानांतर गांधी से होते हुए आंबेडकर तक पहुँचते हैं। गांधी बनाम आंबेडकर के बजाय गांधी और आंबेडकर की समग्र दृष्टि के अनुरूप।
दरअसल उपनिवेशवाद की चेतना बाइनरी का निर्माण करती है, जिसमें श्रेष्ठता बनाम हीनता की दृष्टि समाहित होती है। गांधी बनाम आंबेडकर की बहस भी दरअसल उसी बाइनरी का हिस्सा है। कर्मेंदु शिशिर की नवजागरण की दृष्टि न सिर्फ इस बाइनरी का विरोध करती है, बल्कि वह नवजागरण के मूल संदर्भ को वर्तमान में मौजूद औपनिवेशक मानसिकता से मुक्ति से भी जोड़ती है। उनके अनुसार-
आधुनिक संदर्भ में रखकर नवजागरण का आकलन एक गंभीर बौद्धिक प्रक्रिया है, जो अलग से विचारणीय है। दरअसल मूल समस्या 15 अगस्त 1947 ई. को शुरू होती है, जहाँ हम राजनीतिक और आर्थिक आज़ादी तो पाते हैं, लेकिन एक गंभीर चूक कर बैठते हैं कि हम औपनिवेशिक ढाँचे को यथावत स्वीकार कर लेते हैं।
स्पष्ट है कि ऐसे में नवजागरण की प्रक्रिया समाप्त नहीं होती। जर्मन दार्शनिक हेबरमास ने आधुनिकता की परियोजना के अधूरे रहने की बात कही थी। समकालीनता से नवजागरण को जोड़ते हुए अपनी तरह से कर्मेंदु शिशिर भी नवजागरण के जारी रहने की बात करते हैं। उनके लिए नवजागरण अतीत से अधिक वर्तमान की चीज़ है। वह एक असमाप्त परियोजना है। भारतीय नवजागरण पर इस दृष्टि से कम विचार हुआ है। यही वजह है कि नवजागरण संबंधी तमाम चिंतकों, बौद्धिकों के बीच कर्मेंदु शिशिर की उपस्थिति अलहदा और अनिवार्य है। वे इस विषय को आकादमिक गोदामों से मुक्त करते हुए सड़क पर हो रही एक जोरदार गपशप में बदल देते हैं। नवजागरण को वे मात्र सूचना, ज्ञान और नीरस तर्क की तरह नहीं देखते। वे उसे एक गतिशील और जीवंत समाज के भीतर चल रहे आलोचनात्मक विवेक की मद्धिम मगर असरदार लौ के रूप में देखते हैं। वे उसके बने रहने की अनिवार्यता पर बल देते हैं। कहना न होगा कि कर्मेंदु शिशिर का नवजागरण संबंधी लेखन, चिंतन हमें आत्म के प्रति अधिक सजग और बाह्य के प्रति अधिक उदार बनना सिखाता है।
पुस्तकें
- भारतीय नवजागरण समकालीन संदर्भ, कर्मेंदु शिशिर
- भारत का स्वधर्म, धर्मपाल
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