विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में पीएच.डी. की शोध छात्रा।कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
स्वतंत्रता के 75वें वर्ष पर यह परिचर्चा है।स्वतंत्रता और लोकतंत्र के बीच एक संबंध है।गांधी ने इनके संबंध की व्याख्या तरह-तरह से की है।उन्होंने किसानों, स्त्रियों और दलितों के प्रश्न उठाए हैं – सबके उदय की बात की है।आज पूरी दुनिया में लोकतंत्र को लेकर चिंता है।
आधुनिक युग में लोकतंत्र की स्थापना के साथ मानवाधिकार, स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय और आपसी भाईचारे का स्वप्न विश्व भर में देखा गया है।यह भी एक यथार्थ है कि विकसित देश बाकी देशों के संसाधनों का दोहन करते हुए उनके विकास और पुनर्निर्माण के नाम पर अपनी आर्थिक नीतियां और संस्कृति लाद रहे हैं।
आज का नया विश्व चमकदार दिख रहा है, पर यह समझने की आवश्यकता है कि इसमें लोकतंत्र के मूल्यों की क्या स्थिति है।वस्तुतः लोकतंत्र एक शासन पद्धति मात्र नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक दर्शन और वैयक्तिक जीवनदृष्टि भी है।लेकिन वैश्वीकरण के दौर में लोकतंत्र की बदलती परिभाषा ने समाज के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं।अभिव्यक्ति की आजादी है, फिर भी इधर दिन-प्रतिदिन होने वाली हिंसात्मक घटनाएं लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न हैं।हिंसा के नए-नए तरीके बने हैं, जो आने वाले समय के लिए खतरनाक है।
आज दुनिया के अन्य देशों- ब्रिटेन, फ्रांस, स्वीडन, नार्वे, बेल्जियम, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि में भी लोकतंत्र के स्तर में गिरावट है।इसका असर स्वतंत्रता पर पड़ता है।इसलिए परिचर्चा का यह विषय सामने आया है।
कहा जा सकता है कि शिक्षा ने हमें थोड़ा लिबरल बनाया है।पर जैसे ही बात संस्कृति की आती है, हम कट्टरवादी सोच से भर जाते हैं जो एक विकसित समाज के लिए खतरनाक है।कहने को साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है वस्तुतः साहित्य के माध्यम से ही कई संवेदनाओं को व्यक्त किया जाता है और कई समस्याओं के समाधान पर भी चर्चा होती है।लेकिन इन दिनों सोशल मीडिया और तकनीक ने लोगों के सामने ऐसे स्पेस निर्मित कर दिए हैं कि लोग अब साहित्य से दूर होते जा रहे हैं।किताबों की जगह मोबाइल फोन और एप्पों ने ले ली है।डिजिटल माध्यमों पर हमारी निर्भरता बढ़ने के कारण आज सामाजिकता और स्मृति पर खतरा बढ़ा है।तकनीक ने हमें कई सुविधाएं दी हैं, जीवन की गति बढ़ी है, पर सामाजिकता और स्मृति का ह्रास स्वतंत्रता की चेतना को प्रभावित कर रहा है।
यह परिचर्चा आयोजित करने का उद्देश्य लोकतंत्र के बदलते स्वरूप, उसकी नई परिभाषा और वर्तमान स्थिति को जानना है।जिन विद्वान लेखकों का सहयोग मिला है, हम उनके आभारी हैं।
सवाल :
1 बदलते विश्व में लोकतंत्र का क्या भविष्य है?
2 लोकतंत्र से हम क्या अर्थ निकालते हैं? इसमें ’अदर्स’ के लिए कितनी संभावना होनी चाहिए और वर्तमान क्या स्थिति है?
3 समकालीन शिक्षा, साहित्य चर्चा और संस्कृति में लोकतांत्रिक मूल्यों की क्या स्थिति है?
4 क्या आम जनता लोकतंत्र से निराश है और पुराने मॉडल में लौट रही है? यह स्थिति कैसे बदलेगी ?
5 डिजिटलीकरण और सोशल मीडिया लोकतंत्र को किस तरह प्रभावित कर रहे हैं?
अशोक वाजपेयीप्रसिद्ध हिंदी कवि–आलोचक।भोपाल के भारत भवन के निर्माण में बड़ी भूमिका । प्रमुख कृतियां – ‘इस नक्षत्रहीन समय में’, ‘कवि ने कहा’, ‘कुछ रफू कुछ बिगड़े’।हाल में तीन खंडों में ‘सेतु समग्र : अशोक वाजपेयी’। |
विश्व भर में लोकतंत्र खतरे में पड़ गए हैं
(1) लोकतंत्र के बारे में यह कहा जाता रहा है कि जितनी भी राज्य-प्रणालियां रही हैं उनमें से सबसे कम खराब प्रणाली लोकतंत्र है।इस समय दुर्भाग्य से लोकतंत्र की ये खराबियां ही उसके ह्रास का कारण बन रही हैं।लोकतांत्रिक प्रणाली का सुघर इस्तेमाल कर अधिनायकतावादी या बहुसंख्यकतावादी शक्तियां सत्तारूढ़ हो रही हैं जो लगातार लोकतांत्रिक व्यवहार-संवाद-मर्यादा का उल्लंघन और अतिक्रमण कर रही हैं।यह विडंबना है, पर सचाई है कि विश्व भर में लोकतंत्र खतरे में पड़ गए हैं।भारत में तो यह खतरा बिलकुल सामने है और हम लगभग लाचार, लोकतंत्र में दैनंदिन कटौतियां, देख-झेल रहे हैं।क्योंकि लोकतंत्र में रहते हुए उसकी आत्मा को नष्ट करने के सुनियोजित अभियान चल रहे हैं और उनमें धर्म-मीडिया-बाजार की शक्तियों का नायाब गठबंधन सक्रिय भूमिका निभा रहा है।स्वयं लोकतंत्र अपनी विकृतियां ठीक कर लेगा।ऐसी आशा करना बहुत कठिन है।लोकतंत्र का भविष्य अगर अंधकारमय लगता है तो इसका एक आशय यह भी है कि समूची मानवता का ही भविष्य खतरे में पड़ रहा है।
(2) भारतीय संविधान ने सबको, सब नागरिकों को धर्म-जाति-लिंग-संप्रदाय आदि से परे स्वतंत्रता-समता-न्याय का अधिकार देकर एक तरह से लोकतंत्र का सामाजिक धर्म निर्धारित किया।उसमें कोई ‘दूसरे’ थे ही नहीं।लेकिन ‘हिंदुत्ववाद’ की विचारधारा ने इस संविधान को और इसलिए लोकतंत्र को कभी स्वीकार नहीं किया।आज इससे प्रेरित-समर्थित निजाम हर रोज ‘दूसरे’ रच रहा है, उन्हें अपमानित कर रहा है, उन पर हिंसा-हत्या थोप रहा है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने पर उतारू है।लोकतंत्र इससे जांचा जाता है कि वह किसी समाज के ‘दूसरों’ के लिए कितनी जगह और अधिकार देता है।अब तक कुछ अपवादों के साथ ऐसा कमोबेश हो भी रहा था।वह स्थिति हिंदुत्व ने बदल दी है।यह तो स्पष्ट है कि हिंदुत्व का अपने नाम के अलावा हिंदू धर्म, उसकी उदार परंपराओं, मूल ग्रंथों से कोई संबंध या संवाद नहीं है।धर्म का छद्म कर यह एक राजनीतिक विचारधारा है जिसे अपने जीवत्व और युयुत्सा के लिए शत्रु चाहिए : वह अल्पसंख्यकों को ऐसा शत्रु बना-बरत रही है।विडंबना यह भी है कि प्रचंड रूप से बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों से खतरे में बताए जा रहे हैं और उनका एक बड़ा हिस्सा इसे मान भी रहा है।
(3) शिक्षा, साहित्य चर्चा और संस्कृति ही अब तक वे क्षेत्र रहे हैं जिनमें लोकतांत्रिक मूल्य सबसे विन्यस्त, मुखर और सक्रिय होते आए हैं।दुर्भाग्य से, इन्हीं क्षेत्रों में इन मूल्यों की स्थिति और चुनौतियों को लेकर बहुत कम चर्चा हो रही है।हिंदी के वर्तमान साहित्य को लेकर यह दावा किया जा सकता है कि उसमें बहुसंख्यकतावाद और लोकतांत्रिक कटौतियों को लेकर क्षोभ और प्रतिरोध है।शिक्षा के क्षेत्र में गैर-लोकतांत्रिक शक्तियों की घुसपैठ बड़े पैमाने पर हो रही है, पर शिक्षा में इसे लेकर या अपनी स्वायत्तता के अवमूल्यन के बारे में कोई संगठित या मुखर विरोध बहुत कम है।खुलकर लोकतंत्र की स्थिति पर कोई बहस भी वहां हो रही है या नहीं हो पा रही है, इसका मुझे पता नहीं।बहुत सारे पढ़े-लिखे बहुसंख्यकतावाद से सहमत हैं और उनमें लोकतंत्र की कोई वृत्ति नहीं बची है।कलाओं में ललित कलाओं में खासी प्रतिरोधक सक्रियता है, अथक प्रश्नवाचकता भी।लेकिन संगीत और नृत्य में, उनके शास्त्रीय रूपों में ऐसा कोई प्रतिरोध नहीं है : सत्ता-भक्ति उनका गुण है और उसका निर्लज्ज इजहार होता रहता है।यह अलक्षित नहीं जा सकता कि कई बार लेखक-कलाकार निजी जीवन में लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं करते।
(4) अभी भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा बहुसंख्यकतावाद के समर्थन में है, हालांकि भारतीय जनता का अधिकांश नहीं।अधिकांश तो इन वृत्तियों से अलग या उनके विरोध में है।इस अधिकांश को संगठित कर उसके विरोध को राजनीतिक शक्ति के रूप में विकसित करना आसान नहीं, पर जरूरी है।अगर आम जनता पुराने किसी माडल पर लौटी तो उससे वे कई अधिकार छिन जाएंगे जो उसे लोकतंत्र में मिले हुए हैं।जानबूझ कर जनता ऐसी मूढ़ता दिखाएगी, ऐसा नहीं लगता।
(5) डिजिटलीकरण और सोशल मीडिया ने लोकतांत्रिककरण, खासकर अभिव्यक्ति के अधिकार को व्यापक बनाने का काम किया है।यह बड़ी बात है।पर सत्तारूढ़ शक्तियों ने इन साधनों को झूठ-घृणा-सांप्रदायिकता-धर्मांधता आदि को तेजी से फैलाने में बहुत सघर-सक्षम उपयोग किया है, यह भी एक विचारणीय पक्ष है।उन्हें संयमित करने का कोई प्रयत्न राज्य ही करेगा जो स्वयं इस दुरूपयोग में शामिल है।शायद इसका उपयोग लोकतांत्रिक वृत्ति को बढ़ाने में भी किया जा सकता है, पर उसके लिए पहल और साधनों का अभाव दिखता है।
सी–60, अनुपम हाउसिंग सोसायटी, बी–13, वसुंधरा एन्क्लेव, नई दिल्ली–110096 मो. 9811515653
हरीश त्रिवेदी दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पूर्व प्रोफेसर तथा अध्यक्ष।शिकागो और लंदन विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफेसर।अंग्रेजी-हिंदी दोनों में लिखते हैं।प्रमुख पुस्तकें :‘द नेशन एक्रास द वर्ल्ड’, ‘पोस्ट-कोलोनियल ट्रांसलेशन’ आदि। |
तब भी हमारा लोकतंत्र स्वस्थ और सशक्त है
(2) इस परिचर्चा में भेजे गए पांच प्रश्नों में पहले के बजाय दूसरे प्रश्न से शुरू करें तो ठीक रहे। (पहला प्रश्न है कि लोकतंत्र का भविष्य क्या है पर पहले वर्तमान की बात तो हो ले) दूसरा प्रश्न है कि लोकतंत्र का अर्थ क्या है।मेरे विचार में लोकतंत्र के दो मुख्य तत्व हैं।एक, सभी नागरिकों को समान अधिकार, और दूसरे, नियमित काल पर चुनाव, जिसमें इन अधिकारों में जो सबसे बड़ा अधिकार है, मतदान का अधिकार, उसका निर्भीक प्रयोग किया जा सके।लोकतंत्र में जनता का राज इसी अर्थ में होता है कि वह समय-समय पर सत्ता पलट सकती है।साथ ही आवश्यक है कि हमेशा बहुमत का राज होता है।पर यह बहुमत किस आधार पर बनेगा, यह बदलता रहता है और यही लोकतंत्र का मर्म है।
इसी प्रश्न के दूसरे भाग में पूछा गया है कि लोकतंत्र में ‘अदर्स’ का क्या स्थान है? लगता है अंग्रेजी का शब्द ‘Others’ यदि हिंदी में भी इस्तेमाल किया जा रहा है तो शायद ‘अल्पसंख्यक’ जैसे आहत भावनाओं से जुड़े शब्द से दामन बचा के निकल जाने की कोशिश में किया जा रहा है! पर यह प्रयोग भ्रामक ही क्या, गलत भी है, क्योंकि अंग्रेजी के दार्शनिक और सैद्धांतिक विमर्श में ‘अदर्स’ का जो अर्थ है, जो हेगेल, हुजर्ल, सार्त्र और लकान द्वारा क्रमशः परिभाषित और परिवर्द्धित होता हुआ हम तक आया है, वह हमारे किसी काम का नहीं है, क्योंकि उसमें जो ‘अदर’ है वह ‘स्वयं’ से मूलतः भिन्न है, हेय है, और विदेशी या पराया भी है।
हमारे लिए बेहतर है कि लोकतंत्र के संदर्भ में जो बहुमत और अल्पमत है, उसे हम अपना-पराया न बनाएं।न हम इस जकड़न में फँसे रहें कि अल्पसंख्यक जन्मना अल्पसंख्यक हैं और आजीवन अल्पसंख्यक बने रहेंगे।समझना चाहिए कि जो लोग भी सत्ता में आएं और जिनके समर्थन से सत्ता चले वे सभी बहुसंख्यक हैं और जो चुनाव हार गए हैं वे लोकतंत्र के अर्थ में अल्पसंख्यक हैं।इस अर्थ में 2014 से पहले 67 वर्षों तक आजाद भारत में हिंदुत्ववादी अल्पसंख्यक थे।
दिक्कत यह है कि हमारे देश में बहुसंख्यक कौन हैं और अल्पसंख्यक कौन यह प्रश्न हिंदू-मुसलमान के धार्मिक भेद तक सिमट कर रह गया है।पर लोकतंत्र का सच्चा आधार न धर्म है, न जाति, न भौगोलिक या सांस्कृतिक अस्मिता।वह है विचारों की, विचारधारा की, और राजनीतिक दृष्टि की सहमति या मतभेद।इसका एक विश्वव्यापी उदाहरण है पूंजीवाद और समाजवाद के बीच का मतांतर।पर हमारे यहां तो लगभग सभी राजनीतिक दल अपने को समाजवादी कहते हैं, क्योंकि किसी में अपने को खुल्लमखुल्ला पूंजीवादी कहने का साहस नहीं है।
यहां तक कि एक संशोधन द्वारा संविधान में भी लिख दिया गया है कि हमारा देश ‘एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ है।लोकतंत्र की धुरी पर घूमता समाजवाद और पूंजीवाद का द्वंद्व और गरीबों और अमीरों का संघर्ष ही लोकतंत्र की मूल चुनौती है।यह केवल कार्ल मार्क्स की ही धारणा नहीं है, यह सार्वभौमिक सत्य है।पर हमने तो समाजवाद का भी मजाक बना दिया है।यदि कोई राजनीतिक दल कल कहे कि वह समाजवाद का विरोधी है तो उसपर शायद संविधान का उल्लंघन करने का मुकदमा भी चल सकता है।
(3) सच है कि इन क्षेत्रों में सच्ची समानता लाने के लिए हमें अभी बहुत कुछ और करना है।पर आजादी के अमृत महोत्सव के इस वर्ष में हम स्वतंत्रता पाने के बाद की 75 वर्ष की अवधि का विहगावलोकन करें तो संदेह नहीं कि प्रगति भी बहुत हुई है।इसका मुख्य कारण है शिक्षा का प्रसार।इस वर्ष मैं भी 75 वर्ष का हुआ और उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, उन्नाव और हरदोई जैसे जिलों के सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के बाद मैंने तीन विश्वविद्यालयों के अंग्रेजी विभागों में 45 वर्ष पढ़ाया।इनमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अलावा अकडू अंग्रेजियत वाली दो संस्थाएं भी थीं, दिल्ली का सेंट स्टीफेंस कॉलेज और फिर मुख्य दिल्ली विश्वविद्यालय, जहां स्नातकोत्तर पढ़ाई होती है।इन दोनों जगहों में उन दिनों ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज का सिक्का चलता था।
तो इन वर्षों में मैंने देखा कि सेंट स्टीफेंस कॉलेज की ‘शेक्सपियर सोसाइटी’, जो अंग्रेजों के जमाने से सिर्फ शेक्सपियर के ही नाटकों का मंचन करती आई थी, उसके झंडे तले कॉलेज के मुख्य मंच पर शरद जोशी के ‘एक था गधा’ का भी 1980 के दशक में मंचन हुआ और फिर अनेक अन्य हिंदी नाटकों का भी, जो शेक्सपियर से कहीं अधिक लोकप्रिय सिद्ध हुए।दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में आकर मैंने मंडल आयोग की क्रांतिकारी सिफारिशें लागू किए जाने की प्रक्रिया में भाग लिया।जब 1997 में मैं विभागाध्यक्ष बना तो मेरे सामने दाखिले के ऐसे फॉर्म आए जिनमें मंडल आरक्षण के अंतर्गत आते अभ्यर्थियों को प्रवेश-परीक्षा में 100 में शून्य मिला था और जिन पर मैंने सहर्ष हस्ताक्षर किए।समानता इसी तरह की घोर असमानता से उपज कर धीरे-धीरे पल्लवित और पुष्पित होती है।मेधावी बालक जन्म से मेधावी नहीं होता, वह परिवेश और परवरिश से मेधावी सिद्ध होता है।
(4) पुराने मॉडल में लौटने का कोई लक्षण मुझे नहीं दिखता।मतदान का प्रतिशत घट नहीं रहा, बढ़ ही रहा है।प्रांतीय दल अपने-अपने गढ़ों में जमे हुए हैं और केंद्र से आक्रांत नहीं लगते।और वह ‘पुराना मॉडल’ कौन-सा था जहां कोई लौटना चाहे? 1947 के पहले भारत के 3/5 भाग में अंगरेज़ राज था और बाकी 2/5 हिस्से में राजे-महाराजे ऐश करते थे।कौन कहता है वह मॉडल श्रेयस्कर था? अंगरेज़ राज का मातम मनाने वाले नीरद चौधुरी जैसे कुछ काले साहेब थे भी तो वे कभी के खुदा को प्यारे हो गए।
(5) मेरे विचार में डिजिटलीकरण तो ज्ञान-विज्ञान के प्रसार का अद्भुत माध्यम है और उसका स्वागत है, पर तथाकथित ‘सोशल मीडिया’ जितना सोशल है उतना ही एंटी-सोशल और उद्दंड।या तो वह सस्ते हास-परिहास में ही मस्त है या आत्म-प्रदर्शन में या फिर अनाप-शनाप कुछ भी कह निकलता है, बिना अभिव्यक्ति का खतरा उठाए।ऐसे लोग जितना लोकतंत्र का विस्तार कर रहे हैं उतना ही उसकी गरिमा में सेंध भी लगा रहे हैं।
(1) अब अंत में प्रथम प्रश्न कि हमारे बदलते हुए विश्व में लोकतंत्र का भविष्य क्या है? लगता है, यह प्रश्न विशेषतः इसलिए पूछा जा रहा है कि देश-विदेश का बुद्धिजीवी तो स्पष्ट ही वामपंथी है तो जगह-जगह सरकारें दक्षिण-पंथी कैसे चुनी जा रही हैं? ऐसी परिस्थितियां जब पहले उठी हैं तो यह कहा गया है कि जनता अभी सोई हुई है, उसे जाग्रत और जागरूक करना है, पारिभाषिक शब्दावली में ‘मोबिलाइज’ करना है।मुश्किल यह है कि भारत में हाल में जनता जितनी ‘मोबिलाइज’ हुई है, वह अधिकतर दक्षिण दिशा में चली गई है।
लंबे परिप्रेक्ष्य में देखें तो इन 75 वर्षों में भारत के लोकतंत्र पर तीन बड़े संकट आए।एक तो नेहरू जी का सत्रह वर्षों तक आजीवन एकछत्र राज और जाते-जाते उनके द्वारा वंशानुगत शासन का बीजारोपण, जो अब भी पनप रहा है और लोकतंत्र की मूल उद्भावना के सरासर विरुद्ध है।दूसरे, उनकी पुत्री द्वारा 1975-77 में व्यक्तिगत स्वार्थवश संविधान को ही ताक पर रख देने और सभी नागरिक अधिकार छीन लेने का भीषण प्रसंग।और तीसरा, 1992 में धर्मांध लोगों द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर इतिहास के अन्याय को वर्तमान के उससे भी बड़े अन्याय द्वारा प्रक्षालित करने का अभियान।
उसके बाद पिछले तीस वर्षों में लोकतंत्र का रथ कभी इतना तो नहीं डगमगाया।चुनाव होते रहे, सरकारें बदलती रहीं, नए गठबंधन बनते रहे।आगे भी आज के जो सत्तारूढ़ बहुसंख्यक हैं वे कल के सत्ता-विहीन अल्पसंख्यक होते रहेंगे और लोकतंत्र का यह धर्मचक्र इसी प्रकार ऊपर-नीचे आता-जाता रहेगा।यदि लोकतंत्र की कोई सबसे बड़ी शर्त है तो यही कि अहिंसात्मक रूप से शांतिपूर्वक सत्ता-परिवर्तन का तारतम्य बना रहे।यही लोकतंत्र की प्राण-वायु है।
अंत में, पूरे हिंदी साहित्य में लोकतंत्र पर कही गई सबसे अधिक उद्धृत पंक्ति का स्मरण भी कर लिया जाए। ‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कह कर आप हँसे।’ यहां याद दिलाना जरूरी है कि रघुवीर सहाय की यह पंक्ति उनके 1975 में छपे एक संग्रह में शामिल कविता ‘आपकी हँसी’ की है, अर्थात यह आपातकाल के भी पहले की कविता है।और अगर तब से लोकतंत्र का ‘अंतिम क्षण’ चला आ रहा है तो पूरी उम्मीद है कि उसी तरह चालीस-पैंतालीस साल तो अभी और भी चल सकता है।दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि यहां स्वयं कवि नहीं कह रहा कि लोकतंत्र का अंतिम क्षण आ गया है, बल्कि कवि ऐसे राजनेता पर व्यंग्य कर रहा है जो कह तो रहा है कि लोकतंत्र मरणासन्न है पर वह साथ ही साथ हँस भी रहा है और उसके दिल में न लोकतंत्र का दर्द है और न निर्धन जनता का।ऐसे कुटिल लोग हमारे बीच अब भी हैं, पर तब भी हमारा लोकतंत्र स्वस्थ है और सशक्त है।
डी – 203, विदिशा अपार्टमेंट्स, 79, इंद्रप्रस्थ एक्स्टेंशन, दिल्ली–110092 मो.9818355433
राजेश जोशी सुप्रसिद्ध हिंदी कवि।प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित।अद्यतन कविता संग्रह ‘जिद’। |
मनुष्य का मूल स्वभाव लोकतांत्रिक है
(1) बाजारवाद की नई आर्थिक नीति और नई प्रौद्योगिकी के अराजक और राजनीतिक उपयोगों ने लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतंत्र को थोड़े संकट में ला दिया है।लेकिन जहां तक लोकतंत्र के भविष्य का सवाल है, विश्व के पास फिलहाल इसके अलावा कोई बेहतर विकल्प नहीं है।भूमंडलीकरण की तथाकथित उदार अर्थनीति बुरी तरह से विफल हो चुकी है।फिलहाल पूंजीवाद के पास कोई नई आर्थिक नीति नहीं है, इसलिए वह दक्षिणपंथ को बढ़ावा दे रहा है, लेकिन फासिज़्म या तानाशाही की वापसी संभव नहीं है।वह सिर्फ अपनी विफलता को धार्मिक पाखंड के पीछे छिपाने और सांप्रदायिक अंतर्विरोधों को उभार कर असल मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम कर रहा है।लेकिन आर्थिक संकट बहुत दिनों तक वर्तमान सत्ताओं की नौटंकी को चलने नहीं दे सकते।
(2) लोकतंत्र की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं।लेकिन एक सर्वमान्य सी परिभाषा है- जनता के लिए, जनता का, जनता के द्वारा शासन लोकतंत्र है।बुर्जुआ लोकतंत्र का ढांचा इसी अवधारणा को अपना आदर्श मानता रहा है।इसलिए इसमें सुविधा के अनुसार अदर्श के लिए स्पेस बनता और बिगड़ता रहा।दक्षिणपंथी ताकतों के हाथ में जब जब सत्ता आती है, या मध्यमार्गी ताकतों के भीतर रहने वाली दक्षिणपंथी समूहों का वर्चस्व बढ़ता है, तब तब ‘अदर्स’ का स्पेस सिकुड़ने लगता है।
महात्मा गांधी ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके राष्ट्रवाद में कोई ‘अदर’ नहीं होगा।ऐसा लोकतंत्र, वास्तव में लोकतंत्र हो ही नहीं सकता, जिसमें सिर्फ बहुसंख्यक का ही वर्चस्व हो।कुछ लोगों को धर्म या जाति या रंग के आधार पर ‘अदर्स’ मानने की सोच ही लोकतंत्र की अवधारणा के विरुद्ध है।
(3) इधर बहुत तेजी से शिक्षा में परिवर्तन किया गया है।अवैज्ञानिक विचारों का विस्तार हो रहा है।ज्योतिष जैसे अवैज्ञानिक विषय शिक्षा में शामिल हो गए हैं।गीता आदि पौराणिक आख्यानों को पढ़ाए जाने की कोशिश की जा रही है।इतिहास में मनमाने परिवर्तन हो रहे हैं।
साहित्य और संस्कृति जैसे पदों को तो हमारे दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ जानते ही नहीं।वे संस्कृति को सीमित करते हुए धर्म में अवमूल्यित कर देते हैं।धर्म का भी वास्तविक अर्थ और उसकी विविधता को वे नहीं जानते, इसलिए धर्म वहां सिर्फ सांप्रदायिक पाखंड में परिवर्तित हो जाता है।
(4) पुराना कोई मॉडल कम से कम भारतीय जनता के पास नहीं है।ब्रिटिश उपनिवेशवाद का मॉडल या उससे पूर्व राजाओं और नवाबों द्वारा अपनी छोटी-छोटी स्टेट्स में चलाया जाने वाले शासन का मॉडल तो वापस नहीं आ सकता।जो भी पीढ़ी इस समय जीवित है उसमें बहुत कम ही लोग होंगे, जिन्होंने उन मॉडल्स को देखा होगा।इसलिए लौटने की कोई जगह नहीं है।
लोकतंत्र का ही अच्छा या बुरा समय हम लोगों ने देखा है।मनुष्य का मूल स्वभाव लोकतांत्रिक होता है।इसलिए वह किसी ऐसे धर्म तक को स्वीकार नहीं कर पाया, जो एकेश्वरवादी या एकतंत्रीय थे।ऐसे सभी धर्म एक समय के बाद विभाजित हुए।मनुष्य को अपने लिए विकल्प चाहिए और एक वैकल्पिक स्पेस चाहिए।लोकतंत्र में बीच-बीच में आने वाली गड़बड़ियों के कारण चाहे जनता में तात्कालिक रूप से लोकतंत्र के प्रति निराशा आ जाए, लेकिन उसे चाहिए तो लोकतंत्र ही।
(5) यह एक स्वतंत्र विचार विमर्श का विषय है।इस पर बहुत गंभीरता से शोध की जरूरत है।नई प्रौद्योगिकी, डिजिटलीकरण और सोशल मीडिया ने हमारे व्यवहार को बहुत बदला है।राजनीति ने इसका बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया है।इसकी वजह से मानवीय व्यवहार में, हमारे आपसी संबंधों में और मनुष्यों के बीच संवाद में बहुत सारे नए व्यवधान पैदा हुए हैं।लोकतांत्रिक स्पेस कम हो रहा है।सामूहिकता और संघर्ष के प्रति उदासीनता बढ़ रही है।मनुष्य अकेला हो रहा है।बच्चे विशेष रूप से अकेले हो रहे हैं।आत्महत्याएं बढ़ रही हैं।अपराधीकरण बढ़ा है।नई प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया की इन सारी स्थितियों में क्या भूमिका है, इसका मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन आवश्यक है।
11, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल -462003
हितेंद्र पटेल सुपरिचित लेखक और इतिहासकार।रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर।अद्यतन पुस्तक :‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’। |
स्पष्ट नहीं कि लोकतंत्र किस तरह बदलेगा,पर बदलेगा जरूर
(1) लोकतंत्र का चेहरा समय के साथ बदलता रहता है।जिस देश में जनता सजग होती है, सिविल सोसाइटी सक्रिय रहती है और प्रतिपक्ष लोकतंत्र की सीमा में दबाव बनाए रखने में सक्षम होता है, उस देश में लोकतंत्र मजबूत रहता है।सारे विश्व में लोकतंत्र का नाम चलता है, लेकिन उसमें विश्वास कम होता जा रहा है, यह धारणा प्रचलित है, लेकिन यह सही नहीं है।लोकतंत्र या कोई भी तंत्र अंततः नागरिकों पर निर्भर होता है।लोकतंत्र कोई आदर्श व्यवस्था नहीं है।आखिरकार यह 51%=100 और 49%=0 के लॉजिक से ही तो चलता है! अधिकतर लोकतंत्र में 30 से 40 % मत पाने वाले दल सत्ता में आते हैं।लेकिन चूंकि लोकतंत्र से बेहतर कोई विकल्प नहीं है अब तक, इसलिए हमलोग इसको ही स्वीकार किए हुए हैं।यह पूरी दुनिया में मात्र डेढ़ सौ सालों में ही प्रचलन में आया है।उन्नीसवीं शताब्दी में जब लोकतंत्र पर निर्णायक बहस हो रही थी, जॉन स्टुअर्ट मिल ने चेताया था कि शक्ति को जिम्मेदार लोगों को ही सौंपा जा सकता है, क्योंकि जो निचले तबके से आकर शक्ति पाते हैं वे अपने परिवेश के दबाव से निकल नहीं पाते और लोकहित में काम नहीं कर पाते।मार्क्स जैसे लोग निचले तबके के शक्तिशाली लोगों के सशक्तीकरण को सही मानते थे।बाद में जो हुआ उसमें शुरुआत में सुशिक्षित और जिम्मेदार लोगों ने नेतृत्व किया पर बाद में संख्या बल से ऐसे लोग लोकतंत्र में सत्ताशीन हुए जो सार्विक उन्नति के लिए नहीं, बल्कि अपनी और अपने समूहों को शक्तिशाली बनाने में लगे।
आपने आज की बात की है।आज लोकतंत्र पर दबाव बढ़ा है, लगभग सभी देशों में।इसका एक बड़ा कारण यह है कि हर देश में लोग अपनी सरकार से ऐसी मांग रखते हैं जिसे पूरा करने में सरकार को तेजी से काम करना होता है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया कभी-कभी निर्णय लेने में देरी करवा देती है।एक उदाहरण देता हूँ।आज पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा सफल व्यवस्था चीन की मानी जाती है।जिस तरह से चीन ने आर्थिक तरक्की की है उससे भारत पर ही नहीं अमरीका पर भी दबाव बना है।तुरत-फुरत निर्णय लेने में चीन की सरकार को सुविधा है, क्योंकि वहां लोकतंत्र नहीं है।सबकुछ सरकार करती है और कर सकती है।भारत और अमरीका में यह संभव नहीं।अब जनता यह देखे कि चीन ने इतना कर दिया और हमारे देश में यह नहीं हुआ तो यह बात ठीक नहीं।ऑथोरिटेरियन और लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच के अंतर को भूलना और नेट रिजल्ट को ही ध्यान में रखना, यह सही नहीं है।लोकतंत्र में उस तरह से काम करना संभव नहीं है।सरकार कुछ भी करे बस हमारे लिए सुविधाजनक काम करे, यह दबाव लगातार सरकारों पर बढ़ा है।
(2) लोकतंत्र में तीन पक्ष हैं: सत्ता, विपक्ष और राष्ट्रीय हित।यह संभव है कि राष्ट्रीय हित में जो काम हों उनके प्रति सत्ता और प्रतिपक्ष के विचार न मिलें।ऐसे में सिविल सोसाइटी की राय महत्वपूर्ण हो सकती है। ‘अदर्स’ की बात आपने की।यह मूलतः सत्ता के इतर शक्तियों से संबंधित स्पेस की बात है।सत्ता के लिए ‘अदर्स’ विरोध और सहायक दोनों का काम करता है।सहायक इस अर्थ में कि जो सत्ता के साथ नहीं हैं उनसे एक संपर्क स्थापित किया जा सके, उनको मनवाया जा सके। ‘अदर्स’ से सत्ता को भयभीत देखिए तो मान लीजिए कि लोकतंत्र कमजोर है।
फिलहाल इस दिशा में अच्छी स्थिति नहीं है।हर जगह सत्ता प्रतिपक्ष के स्पेस को भी नियंत्रित करती है या खुद ही प्रतिपक्ष को रचती है।असली विपक्ष को उभरने न दिया जाए, इसलिए विपक्ष के एक हिस्से को ज्यादा महत्व देकर असली विपक्ष को कमजोर करना और एक किस्म की नूराकुश्ती के लिए वातावरण तैयार करने का खेल भी खूब चलता है।एक उदाहरण देता हूँ।नेहरू के जमाने में लोकतंत्र मजबूत था।कुछ अर्थों में यह सही भी हो, लेकिन यह भी सच है कि हर विपक्षी दल में ऐसे लोग थे जो भीतर ही भीतर कांग्रेस के सत्ता केंद्र के विरुद्ध कभी नहीं जा सकते थे।सोशलिस्ट कभी एकजुट न हो सके, यहां तक कि जे पी और लोहिया एक साथ मिलकर न लड़ सकें, यह कोशिश जारी रही।कम्युनिस्ट नेतृत्व में नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ मिले हुए लोग खूब थे।आज भी यही खेल चल रहा है। ‘अदर्स’ असली विपक्ष हो तभी उसका मतलब है।सत्ता का विरोध जहां जरूरी हो वहीं ‘अदर्स’ के होने की सार्थकता है।
(3) समाज में जो चल रहा होता है उसका प्रभाव सभी क्षेत्रों पर पड़ता है।शिक्षा का बाजारीकरण वैश्वीकरण के दौर में कितना हुआ है इसको कहने की जरूरत नहीं।पैसे का बोलबाला जब बढ़ेगा सच का बोलबाला नहीं रहेगा, यह तय है।साहित्य के क्षेत्र में समाज में रहने वालों का मन अगर बाजार में विचरण करता रहेगा तो साहित्य के आदर्श उनको कैसे भाएंगे? भारत पिछले तीस वर्षों से अभारतीय मूल्यों के पीछे दौड़ता हुआ अधिक लग रहा है।इस तीस वर्ष ने भारतीय मूल्यों पर बाहर और भीतर से जबरदस्त प्रहार किया है।भाषा, साहित्य और सामाजिक मूल्यों में गुणात्मक अंतर आया है इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।लेकिन लोकतंत्र का क्षय किसी भी क्षेत्र में इस हद तक नहीं हुआ है कि यह कहा जा सके कि लोकतंत्र से विश्वास उठ गया हो।शायद लोकतंत्र का एक दूसरा रूप उभर रहा है।पुराने ढर्रे की लोकतंत्र की समझ से चलने पर हर ओर बिखराव दिखता है, लेकिन अगर लोकतंत्र के नए स्वरूप को स्वीकार करें तो स्थिति दूसरी लगती है।इतिहास में कब स्त्री, दलित, पिछड़े और आदिवासी इतने मुखर रहे हैं, आप बताइए।साहित्य में भी नए स्वर आए हैं।अभी समय लगेगा स्थिति को स्पष्ट होने में।थोड़ा धीरज रखना होगा।
(4) समाज में आगे बढ़ने और पीछे लौटने की बात करने वाले जाने-अनजाने इस सोच के शिकार होते हैं कि एक रास्ता है जिसमें यह चीज आगे है और यह पीछे।आधुनिकता आने के बाद जाति, धर्म और अन्य चीजें कमजोर हो जाएंगी, ऐसा बहुतों को लगता रहा।लेकिन बहुत सारे देशों में उलटी प्रक्रिया चली।अफगानिस्तान में आधुनिक व्यवस्था आई और फिर तालिबान आए।भारत में सामाजिक सुधार हुए, जाति का बंधन ढीला हुआ और फिर धीरे-धीरे चुनावी राजनीति की पीठ पर चलकर जाति की राजनीति पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली हुई।ईरान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और तमाम देशों के उदाहरण हमारे सामने हैं।ध्यान से देखा जाए तो पश्चिमी देशों में भी नियो-कन्सर्वटिज्म आया है।
यह एक बड़ी चुनौती है।हैबरमास ने एक महत्वपूर्ण किताब इसपर लिखी है।एक संघर्ष होता रहा है और रहेगा।हर समय समाज में परस्पर विरोधी चीजें रहती हैं और उनके बीच संघर्ष चलता रहता है।इसमें आगे का रास्ता दिखलाने का दायित्व जिम्मेदार और प्रबुद्ध नागरिकों पर होता है।लोकतंत्र में बहुधा संख्या बल का महत्व अधिक होता है और प्रबुद्ध और जिम्मेदार श्रेणी के नागरिकों के मत पर ध्यान नहीं दिया जाता।जैसा कि मैंने पहले भी कहा, जॉन स्टुअर्ट मिल ने उन्नीसवीं शताब्दी में ही लोकतंत्र के भीतर इस खतरे को देखा था।डेढ़ सौ बरस बाद लगता है कि संख्या बल और प्रबुद्ध नागरिकों के विचार के बीच संतुलन बनाना जरूरी है।जनता के नाम पर लोकतंत्र चलता है, लेकिन इसी आधार पर अधिनायकवाद भी आता है।मुझे विश्वास है स्थिति में सुधार होगा।
(5) यह बहुत पेचीदा प्रश्न है।लोकतंत्र जब आया, उसमें जनता केंद्र में नहीं थी।दुनिया में अधिकतर जगहों पर लोकतंत्र जनता द्वारा नहीं लाया गया।जनता के बल पर लोकतंत्र आया, लेकिन लोकतंत्र का स्वरूप कैसा हो, इसे बड़े लोगों ने ही तय किया।दिलचस्प है कि भारत के संविधान निर्माताओं में एक भी किसान का प्रतिनिधि नहीं था।किसान क्या चाहते हैं, इसका प्रतिनिधित्व उन्होंने किया जो किसान के अपने प्रतिनिधि नहीं थे !
फ्रांस की क्रांति शुरू करने वाले लोग भी बड़े लोग ही थे।हर क्रांति का बोझ जनता के कंधे पर होता है और क्रांति के बाद कार्यक्रम तैयार नेता लोग करते हैं।…
एक अर्थ में सोशल मीडिया ने स्थिति को बदला है।आज हर किसी को यह लगता है कि वह केंद्र या उसके आसपास है।भले ही यह आभासी हो, लेकिन यह भाव है।फेसबुक इस्तेमाल करने वाला हर व्यक्ति आंशिक रूप से नायक या नायिका के रूप में अपने को देखता है।यह अच्छा है।
डिजिटलाइजेशन ने सूचनाओं को अधिक लोगों तक पहुंचा दिया है, लेकिन उन सूचनाओं का उपयोग और दुरुपयोग वह किस तरह से करता है यह उसके विवेक पर निर्भर है।लोकतंत्र नागरिक को अधिकार देता है, लेकिन उस अधिकार के प्रयोग का विवेक समाज से प्राप्त होता है।नागरिक अपने परिवार और परिवेश से सीखता है।अगर कोई किशोर दमनकारी परिवेश में बड़ा होता है तो यह हो सकता है कि जब उसके हाथ में स्मार्ट फोन आएगा तो वह पोर्नोग्राफी की ओर बढ़े।सोशल मीडिया में चाहत का असीमित संसार खुल जाता है, लेकिन होता सबकुछ आभासी है।अब यथार्थ और आभासी जगत अलग अलग हैं, यह विवेक तो सोशल मीडिया दे नहीं सकता।यह तो परिवेश से, परिवार से और सचमुच के संपर्क से ही संभव है समझना।बोद्रिया ने एक बात कही है कि हर चीज का सिमुलेशन (बदल कर आभासी रूप में आते रहने के अर्थ में) होता है, एक से दूसरे में जाने की अनवरत प्रक्रिया।वे दिखलाते हैं कि इस सिमुलेशन के कारण सेक्स जैसी व्यक्तिगत चीज भी अपने आभासी रूप में इस तरह से आती है कि असली सेक्स ही गायब हो जाता है!
वर्चुअल और रीयल के बीच एक अद्भुत किस्म का खेल रचा जा रहा है।लोकतंत्र को बचाने के लिए विवेकशील नागरिकों के निर्माण की प्रक्रिया पर ध्यान देना जरूरी है।
पूरी दुनिया में कई तरह से इस चुनौती से लोग जूझ रहे हैं।एक नए प्रकार के समय में हमको जीना है।लोकतंत्र की एक नवीन कल्पना की ओर हम बढ़ रहे हैं।कुछ भी स्पष्ट नहीं है कि लोकतंत्र किस तरह से बदलेगा, लेकिन बदलेगा जरूर।डिजिटलाइजेशन और सोशल मीडिया की इसमें बड़ी भूमिका है।
प्रथम तल, आयशिकी अपार्टमेंट, बोरोपोल के निकट, बैरकपुर, 36/71 ओल्ड कोलकाता रोड, कोलकाता–700123 मो. 9836450033
वैभव सिंह चर्चित आलोचक।दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय में अध्यापन। |
विश्व भर में लोकतंत्र के विरोध में बह रही है हवा
(1) कुछ समय पूर्व तक यह माना जाता था कि विश्व भर में लोकतंत्र का विस्तार हो रहा है और अधिनायकवादी सत्ताओं का पराभव हो रहा है।विश्व में तेज आर्थिक विकास, वैटिकन चर्च द्वारा व्यक्तिगत अधिकारों को स्वीकृति तथा सोवियत संघ के विखंडन के बाद यह कहने वालों की संख्या बढ़ गई थी जो मानते थे कि जनता अब सहर्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधीन रहने के लिए तैयार है।राजनीति विज्ञान की पुस्तकों में इसे विश्वव्यापी परिवर्तन की तरह प्रस्तुत किया जाता था और सैमुअल पी. हटिंगटन की ‘लोकतंत्र की तीसरी लहर’ (उनकी किताब ‘थर्ड वेवः डेमोक्रेटाइजेशन इन द लेट ट्वंटीथ सेंचुरी’ में वर्णित) की अवधारणा को महत्व प्रदान किया जाता था।कई प्रकार के ‘नवजात लोकतंत्र’ पर ध्यान दिए जाने की बात की जाती थी।पर अब ऐसा नहीं माना जा सकता है।गत कुछ वर्षों में कई देशों के साथ अमेरिका, फ्रांस, भारत, ब्राजील तक को दोषपूर्ण लोकतंत्र (Flawed Democracy) की श्रेणी में रखा जाने लगा है।इसका मतलब है कि इन देशों में चुनाव तो संपन्न होते हैं पर अन्य कई मुद्दों, जैसे प्रेस की स्वतंत्रता, असहमति व मानवाधिकार सम्मान के मामले में इनका रवैया लोकतांत्रिक नहीं होता है।हमारे पड़ोस में म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति बदतर हुई है।दुनिया भर में लोकतंत्र के बारे में आंकड़े एकत्र करने वाली अमेरिकी संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ ने भारतीय राजव्यवस्था को पूर्ण लोकतंत्र के स्थान पर आंशिक तौर पर मुक्त लोकतंत्र (partially free democracy) का दर्जा प्रदान किया।करोना महामारी ने भी संसार भर में उग्र दक्षिणपंथ को जनता की कुंठा का लाभ उठाने का मौका प्रदान किया है और उन्होंने सामाजिक प्रतिक्रांति को जन्म दिया।यानी कुल मिलाकर लोकतंत्र के बारे में विश्व भर में चिंता बढ़ रही है।यह भी माना जाता है कि सोशल मीडिया के प्लेटफार्म लोकतंत्र विरोधी विचारों के प्रसार में सहायक साबित हो रहे हैं।उग्र वैचारिक प्रतिक्रियाएं, हिंसक संवाद-शैली, फेक न्यूज, अफवाह आदि को रोकना कठिन हो गया है।इन परिस्थितियों में यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि आगामी वर्षों में तीन तरह के परिदृश्य उभरेंगे।पहला, वे देश जहां लोकतांत्रिक संस्कार व संस्थान सशक्त हैं, वहां तो लोकतंत्र सुचारु ढंग से चलता रहेगा।दूसरा, भारत जैसे देश जहां कारपोरेट शक्तियों व सांप्रदायिक-धार्मिक शक्तियों की दखल बेरोकटोक बढ़ी है, वहां लोकतंत्र अपना प्रभाव खोता दिखेगा।तीसरा, वे देश जहां पहले से ही तानाशाही है, वहां लोकतंत्र की मांग कर रही शक्तियों को और बलपूर्वक कुचला जाएगा।
(2) लोकतंत्र एक बहुआयामी प्रक्रिया है जिसमें शासन में जन-सहभागिता तथा निष्पक्ष चुनाव होने आवश्यक हैं।पर इसके साथ ही यह परस्पर निर्भर संस्थाओं की एक विशाल व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक संस्था राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहकर आम जनता के पक्ष में सक्रिय रहती है।अंततः ये सार्वजनिक हित की संस्थाएं जैसे न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया, स्थानीय निकाय यूपीएससी, विश्वविद्यालय आदि ही आम नागरिक को लोकतंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान करती हैं।एक आम भारतीय नागरिक को यदि न्याय व सत्य सूचनाएं प्राप्त करने में कठिनाई होगी तो लोकतंत्र का विकास अवरुद्ध होगा।भारत जैसे देश में दुर्भाग्य से केवल चुनावों पर अधिक बल है, पर अधिकांश संस्थाओं की स्वायत्तता को कमजोर किया जा रहा है जिससे केंद्रीय सत्ता की स्वेच्छाचारिता को बढ़ावा मिल रहा।सत्ता को केवल लुंजपुंज, सीमित लोकतंत्र ही पसंद होता है।चुनाव अत्यधिक खर्चीले तथा जनसंचार के बड़े साधनों पर आश्रित हो गए हैं।इस कारण केवल धनबल में समर्थ लोग ही चुने जा रहे हैं।
राजनीति में मूल्य व नैतिकता की बात करने को हास्यास्पद बना दिया गया है।कई अशिक्षित, रूढ़िवादी, संप्रदायवादी लोग राजनीतिक मुख्यधारा में हैं और वे पूरी व्यवस्था को दूषित करने में समर्थ हैं।जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था- ‘यदि बुरी शक्तियों को रोका न जाए तो वे संक्रामक रोग की तरह तेजी से बढ़ती हैं।उनके प्रति सहनशीलता बरतना पूरी व्यवस्था को विषमय बनाता है।’ यह बात आज अधिक सच साबित हो रही है।इसके अतिरिक्त स्वाधीनता आंदोलन व उसके बाद संविधान के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र की जब नींव रखी गई तो उसके केंद्र में सभी उपेक्षित वर्गों व जातियों को समानता देने की महान संकल्पना शामिल थी।आज स्त्रियों, निम्नजातियों, आदिवासियों आदि को जो भी अधिकार पाप्त हैं, उसमें संविधान की बड़ी भूमिका है।पर फिलहाल संसद के दोनों सदनों में राजनीतिक बहुमत का रौब दिखाकर संविधान की भी उपेक्षा की जा रही है और संविधान बचाने की चिंताएं अधिक मुखर हुई हैं।केवल संविधान रक्षा के लिए इतनी अधिक हड़तालें व रैलियां होतीं पहले कभी नहीं देखी गईं।विगत कुछ दशकों में बगैर व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के केवल चंद अस्मितावादी जुमलों को उछालकर सामाजिक न्याय की बातें कही गई हैं।चुनावी लाभ के लिए पहले से ही जातियों में बुरी तरह विभक्त भारतीय समाज को और अधिक बांटा गया।इसने भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक प्रयोगों को केवल सोशल इंजीनियरिंग के घटिया फार्मूलों व बंदरबांट में तब्दील कर दिया।यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर पर बड़े संघर्ष करने के स्थान पर हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय के नाम पर चल रही जातिवादी सियासत के क्रांतिकारी सार की व्याख्या में लंबे समय तक अपना वक्त बर्बाद करती रहीं।पर इसकी प्रतिक्रिया में अल्पसंख्यकों व निम्नवर्गों के दमन का जो नया अभियान आरंभ हुआ है, वह समाज को और अधिक क्षति पहुंचाएगा।
(3) लोकतंत्र की सच्ची चिंता भी अपने में किसी युग-समाज के लेखन की सबसे सुंदर, भव्य, पवित्र चिंताओं में एक होती है।शिक्षा, संस्कृति व साहित्य में लोकतंत्र की विशेष आवश्यकता होती है, क्योंकि इसके बिना उनका विकास नहीं हो सकता।जिन देशों में लोकतंत्र है, या जहां प्रबोधनवादी व आधुनिकीकरण की प्रक्रिया चली, वहीं पर साहित्य-संस्कृति का अधिक विकास संभव हो सका।कला-साहित्य के क्षेत्र में लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विशेष महत्व होता है।स्वतंत्रता ही उसके लिए प्राणवायु प्रदान करने वाली आक्सीजन का काम करती है।
जब सुविकसित लोकतंत्र होगा तभी साहित्य में खुले मन से निषिद्ध व प्रतिबंधित समझे जाने वाले प्रश्नों पर भी विचार होगा।साहित्य में रोमांस, प्रेम, स्वच्छंदता, क्रांति, आंतरिक आवेगों को अभिव्यक्ति मिलती है और इसके लिए भी सभी प्रकार के विचारों के प्रति सहिष्णुता व असहमति के प्रति सम्मान अनिवार्य है।पर कला-साहित्य की दुनिया का लोकतंत्र भी सामाजिक-राजनीतिक लोकतंत्र से जुड़ा होता है।बाहर के परिवेश में जब लोकतंत्र कमजोर होता है, तो कला-साहित्य में भी अवसरवाद, भ्रष्ट प्रतिस्पर्धा, पुरस्कार-लोभ, छद्म रचनात्मकता आदि का उभार होने लगता है।ईमानदारी, सरलता और प्रतिबद्धता को हाशिये पर डाला जाने लगता है।अकसर लेखक किसी सिद्धांत-विचारधारा ही नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों की भी उपेक्षा करने लगते हैं, क्योंकि उन्हें मानवीय मूल्यों के हनन की चिंता से अधिक अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की चिंता होती है।व्यापक सामाजिक सरोकारों को छोड़ पालतू, चाटुकार, मौकापरस्त समूहों में अपना स्थान तलाशने की प्रवृत्ति भी चिंताजनक है।स्वीडन के अर्थशास्त्री तथा राजनीतिक विचारक गुन्नार मिर्डाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ में एक स्थान पर शिक्षित वर्गों व बुद्धिजीवियों की स्थिति के बारे में विचार किया है।उन्होंने लिखा है- ‘एक ओर तो वे आधुनिकीकरण के विचारों के वाहक होते है, दूसरी ओर, वे निहित स्वार्थ वाले सुविधा-आकांक्षी समूह से बंधे होते हैं जो यथास्थितिवाद का समर्थक होता है।’ इसी प्रकार रचनाकार प्रकाशकों व सत्ता-प्रतिष्ठानों के नकारात्मक प्रभावों से स्वयं को साहित्य के ‘सर्जक’ के स्थान पर उसके ‘उत्पादक’ के रूप में देखते हैं।निजी आचरण व जीवन में किसी भी छोटे-मोटे लोभ-लालच को अपना परम साध्य मान लेते हैं।उनके व्यक्तित्व में किन्हीं ऊंचे आदर्शों का कोई सौंदर्य मौजूद नहीं रहता है।अधिकांश बड़े लेखकों ने स्वतंत्रता को बड़ा जीवन-मूल्य बताया है।इसके बगैर न तो सच्चा लेखन संभव हो सकता है, न लेखक जैसी जीवनशैली को जिया जा सकता है।उन्होंने ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने और ‘स्वतंत्रता की जोखिम’ की बातें कही हैं ताकि लेखकीय चेतना को कथित परंपरा, सत्ता व मर्यादा के नाम पर कुंठित न किया जाए।वर्तमान में हम रचनाकारों को स्वतंत्रता की जोखिम को अस्वीकारते या उसके प्रति हेय दृष्टिकोण पालते अधिक देखते हैं।ये वही लोग हैं जिनके लिए मुक्तिबोध ने ‘अंधेरे में’ लिखा था- ‘बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास/किराये के विचारों का उद्भास।’
(4) आम जनता की निगाहों में लोकतंत्र को निरंतर बदनाम किया जा रहा है।विडंबना यह है कि लोकतंत्र से जुड़े विचारों, जैसे समानता, धर्मनिरपेक्षता व आधुनिक संवैधानिक शासन को ही जनता का शत्रु बताकर उसे बरगलाया जा रहा है।पर लोकतंत्र के बारे में चिंता केवल आज ही नहीं हो रही है, बल्कि इसका पुराना इतिहास है।1930 के दशक में दो महायुद्धों के बीच यूरोप व अमेरिका में लोकतंत्र के खात्मे को लेकर काफी चिंता होती थी।ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने लिखा था- ‘1931 में पूरी दुनिया के औरत-मर्द समाज में पश्चिमी व्यवस्था के टूट जाने, उसमें गतिरोध आने की संभावना पर गंभीरता से विचार एवं बहस कर रहे थे।’ इटली के फासिस्ट शासक मुसोलिनी ने खुलेआम ऐलान कर दिया था कि उदारवादी राज-व्यवस्था के अंत को अब कोई नहीं रोक सकता।इटली और जर्मनी के तानाशाह ऐलान कर रहे थे कि जो उनके देश में हो रहा है, वही सच्चा लोकतंत्र है।अमेरिका के समाचार पत्रों में जान डेवी, बर्टेंड रसेल जैसे विचारक लोकतंत्र के भविष्य के बारे में चेतावनीमूलक लेख लिख रहे थे।इतिहास के इस अध्याय से सबक लेकर हमें आगे बढ़ना होगा और लोकतंत्र के बारे में एक व्यापक बहस चलानी होगी।भारत जैसे अपने देश में, जिसने गत ७५ साल में संवैधानिक शासन व लोकतंत्र को देखा है, हम अब उसके स्वस्थ लोकतंत्र के रूप में बने रहने के बारे में बहुत अधिक निश्चिंत नहीं रह सकते हैं।लोकतंत्र को केवल लोकतंत्र की सीमाओं व उसमें पनपती अधिनायकवादी प्रवृत्तियों की लगातार तीखी आलोचना करते हुए ही बचाया जा सकता है।
(5) डिजिटल क्रांति और सोशल मीडिया का दोहरा प्रभाव देखने को मिल रहा है।एक ओर इसने संसार की बड़ी आबादी को अभिव्यक्ति का अवसर दिया है, तो दूसरी ओर, इसने भयानक प्रोपगंडा और झूठ को भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।अकसर जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण के मसलों पर सरकारों की कठोर नीति-निर्माण से रोकने के लिए बड़े कार्पोरेेट घराने भी सोशल मीडिया पर प्रोपगंडा के लिए प्रशिक्षित लोगों को रखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक दलों की आईटी सेल होती हैं।यह काम पहले अखबारों से किया जाता था जहां दोनों पक्ष की राय देने के नाम पर कारपोरेट-औद्योगिक घरानों की राय को प्रमुखता दी जाती थी, जिससे सरकारें नदी, हवा, शोर से जुड़े प्रदूषणों पर कोई निर्णय नहीं ले पाती थीं।हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया केवल एक तकनीकी स्पेस नहीं है, बल्कि उसकी मुख्य संचालक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं।फेसबुक व ट्विटर जैसे मीडिया अब चरम शक्तिशाली हैं।इनके रेवेन्यू व सालाना विकास के कई बड़े मकसद है, जिन्हें हासिल करने के लिए उनमें काम करने वाले सीईओ दिन-रात योजनाएं बनाते हैं।उनकी आमदनी व परिसंपत्तियां भी कई छोटे अफ्रीकी-एशियाई देशों की कुल जीडीपी से अधिक हैं।इन्हें देख लगता है कि वास्तविक शक्ति को लोकतंत्र के भीतर से निकालकर ऐसी जगह संकेंद्रित की जा रही है, जहां पर उसे आसानी से चुनौती न दी जा सके।
हमें यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि सोशल मीडिया के बड़े प्लेटफार्म अभिव्यक्ति के अधिकार व लोकतंत्र को मजबूत ही करेंगे।सच यह है कि दुनिया भर के फासिस्ट, अपराधी, भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं के साथ तरह-तरह के समझौते भी करेंगे।एक ओर, वे कुछ छोटे अफ्रीकी देशों, जैसे उगांडा आदि के तानाशाहों या डोनाल्ड ट्रंप के अकाउंट को बंद कर अपनी लोकतंत्र के प्रति निष्ठा का दिखावा करेंगे।दूसरी ओर, वे करोड़ों फर्जी अकाउंट से फैलाए जा रहे कट्टरपंथी विचारों की ओर से आंखें मूंद लेंगे।एक समय था जब प्राइवेट समाचार चैनलों की वृद्धि को समाचारों में विविधता लाने, जनपक्ष को सामने लाने तथा समाचारों पर सरकारी नियंत्रण हटाने आदि के नाम पर जायज ठहराया जाता था।पर आज हम देख रहे हैं कि निजी समाचार चैनल ठीक उलटा काम कर रहे हैं।वे सत्तापरस्ती में सरकारी चैनलों से आगे हैं।इसलिए सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए भी उसकी उपयोगिता, लोकतंत्र के प्रति निष्ठा व वस्तुनिष्ठता पर लगातार बहस करते रहना चाहिए।नागरिकों की स्वतंत्रता केवल डिजिटल या सोशल मीडिया के विकास पर निर्भर नहीं होती, बल्कि नागरिकों की अपनी सतत जागरूकता से संभव होती है।हमें केवल सूचनाक्रांति के गर्भ से निकले नवीन माध्यमों पर गर्व करने के स्थान पर समग्र मानव चेतना के विकास पर बल देना होगा।सोशल मीडिया व डिजिटल मीडिया ने जिस प्रकार से हमें वैश्विक नागरिक बनाने के लोभ में फंसाकर स्थानीय वास्तविकता से काटा है, उसके नुकसानों के बारे में हमें गंभीरता से विचार करना होगा।
403, सुमित टॉवर, ओमेक्स हाइट्स, सेक्टर–86, फरीदाबाद, हरियाणा–121002 मो.9711312374
सौरभ वाजपेयी गांधीवादी लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के सहायक प्रोफेसर। |
लोकतंत्र को एक विकट चुनौती का सामना करना पड़ रहा है
(1) पिछले कुछ समय से लोकतंत्र पर वैश्विक संकट बढ़ा है।वैसे भी यह कोई पुरानी शासन पद्धति नहीं है।दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र का इतिहास सौ साल से भी कम पुराना है।ऐसे में यह कोई स्वाभाविक या पारंपरिक शासन पद्धति नहीं है।लोकतंत्र सहज स्वीकार पद्धति नहीं है।इसके लिए लोगों के भीतर चेतना का निर्माण करना पड़ता है।शासक वर्ग तो सदैव निरंकुशता की ओर बढ़ते हैं।जनता की लोकतांत्रिक चेतना ही लोकतंत्र की प्राणवायु है।यही वह बिंदु है जहां संकट छिपा है।पिछले कुछ दशकों में दुनिया के भीतर दक्षिणपंथी विचारधारा ने बहुत पैर पसारे हैं।यह खुली राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के तहत हुआ है।दक्षिणपंथ ने एक आर्थिक रूप से संकटग्रस्त विश्व में लोगों को सेडिस्ट बनाया है।उनके भीतर परपीड़ासुख पैदा किया गया है ताकि वे राहत महसूस करें।इसके लिए उनके अपने ही समाज के भीतर दुश्मन खोजे गए हैं।पहले राष्ट्रीयता की भावना प्रबल थी तो दुश्मन पड़ोस में रहता था।जैसे भारत का दुश्मन पाकिस्तान और पाकिस्तान का दुश्मन भारत।लेकिन अब यह चलन बदला है।लोकतांत्रिक स्पेस के भीतर दक्षिणपंथ ने बढ़त ली है।यहां उसके प्रचार ने देशों के भीतर ही शत्रु पैदा किए हैं।जनता की शक्ति इन दुश्मन समूहों को दबाने और मिटाने में ही जाया हो रही है।इसलिए यह संकट फिलहाल गंभीर होता जा रहा है।यह कितना लंबा चलेगा इस पर कुछ कहना मुश्किल है।
(2) लोकतंत्र कोई निरपेक्ष अवधारणा नहीं है।लोकतंत्र के हर देश-समाज में सापेक्षिक अर्थ हैं।जैसे भारत में लोकतंत्र एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति है।यह सहमति एक विविधतापूर्ण समाज में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में जरूरी थी।जहां जटिल से जटिल मुद्दों को लोकतांत्रिक ढंग से सुलझाने का चलन बनाया गया था।लोकतंत्र के प्रति यह प्रतिबद्धता बाद में संविधान के रूप में सामने आई।यह तय हुआ कि देश एक संविधान के तहत चलेगा जो पूरी तरह लोकतांत्रिक आधार पर निर्मित था।अगर हम अपनी संविधान सभा की विविधता देख लें तो हमें इस लोकतांत्रिकता का पता चलता है।यहां राष्ट्रनिर्माण का एक व्यापक अर्थ है जो हर तरह से लोकतंत्र से जुड़ता है।समाज के सबसे दबे-कुचले वर्गों, समूहों, जातियों को मुख्यधारा में लाना इसकी मूलभूत प्रतिबद्धता है।अब जहां सामूहिकता होती है, सबको साथ लेने का भाव होता है, वहां ‘अदरिंग’ की गुंजाइश नहीं होती।
इस भाव को हम स्वाधीनता संग्राम के मार्फत समझ सकते हैं।एक तरफ सांप्रदायिक दल सांप्रदायिक पहचान के नाम पर अलगाव पैदा कर रहे थे।दूसरी तरफ गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीयता का निर्माण हो रहा था।इस राष्ट्रीयता की भावना को गूंथने वाली भारतीयता की पहचान थी।यह भारतीयता की पहचान धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग और नस्ल की किसी भी पहचान से बड़ी थी।इसलिए भारतीय लोकतंत्र की खूबी है कि वे राष्ट्रनिर्माण की योजना से गुंथा हुआ है।यहां ‘अदरिंग’ होगी तो राष्ट्र कमज़ोर होगा, लोकतंत्र की तो बात ही क्या है।वर्तमान समय में इस तरह की अदरिंग राजनीतिक प्रोजेक्ट है।यहां मुसलमानों को विदेशी और गद्दार सिद्ध करके दुश्मन बनाने के प्रयास चल रहे हैं।यह देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी को अलगाने और उन्हें किनारे पर धकेलने की साजिश है।
(3) शिक्षा और साहित्य चर्चा में तो अभी भी बहुत गनीमत है।लेकिन हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं।आपने नई शिक्षा नीति के बारे में सुना होगा।सरकार बड़ी धूमधाम से इस नीति को लागू करने जा रही है।लेकिन यह नई शिक्षा नीति दरअसल पहले की ज्ञान परंपरा को मिटाने का औजार है।मल्टीडिसिप्लिनरी एप्रोच के नाम पर किसी भी विषय में विशेषज्ञता को खत्म किया जा रहा है।यह शिक्षा को लंबे समय में बहुत नकारात्मक ढंग से प्रभावित करने वाला कदम हो सकता है।इतिहास जैसे विषयों में तो खुलेआम पहले के इतिहास को मार्क्सवादी करार देकर खारिज किया जा रहा है।इतिहास के साथ यह भारी छेड़छाड़ शिक्षा ही नहीं, साहित्य और संस्कृति को भी गहरे तक प्रभावित कर सकती है।क्योंकि इतिहास बौद्धिक चेतना का निर्माण करता है और अगर उसको ही विकृत कर दिया गया तो सांस्कृतिक क्षरण अवश्यंभावी है।
संस्कृति भी एक जटिल शब्द है।इसके किसी भी अन्य शब्द के साथ संयुग्मन से बात बदल जाती है।लेकिन यहां हम राष्ट्रीय संस्कृति का रिफरेन्स लेकर बात कर सकते हैं।भारतीय राष्ट्रीय संस्कृति के कुछ लोकप्रिय नारे हुआ करते थे।जैसे हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/आपस में सब भाई-भाई।इस नारे में एक लोकतांत्रिकता है कि सब प्रमुख धर्मों के लोगों को जोड़कर ही देश बनता है।लेकिन अब जो राष्ट्रीयता की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है, वह इस भावना के विपरीत है।हिंदू राष्ट्र का विचार इस तरह की लोकतांत्रिकता के विरुद्ध है और बाकी सब धर्मों को दोयम दर्जे पर रखता है।इसलिए राष्ट्रीय संस्कृति में पिछड़ेपन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।यह पुरातनगामी सोच हमारी संस्कृति को भी पुरातनगामी बनाएगी, इसमें कोई दो राय नहीं है।
(4) यह वैश्विक सत्य है।लोकतंत्र को एक विकट चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।यह चुनौती मूलतः आर्थिक है जो सांस्कृतिक चोला ओढ़कर लोकप्रिय हो रही है।पूंजीवाद की अपनी सीमाएं हमेशा से स्पष्ट रही हैं।पिछले कुछ दशकों से पूंजीवादी मॉडल की ये सीमाएं सामने आ गई हैं।दुनिया के तमाम देश तंग आर्थिक हालात से गुजर रहे हैं।भूमंडलीकरण को अपनाने वाले देशों में अमीर-गरीब की खाई बढ़ी है।इन देशों में विकसित पूंजीवादी देशों की तरह कॉर्पोरेट का दखल सत्ता प्रतिष्ठान में बढ़ने लगा है।इसलिए क्रोनी कैपिटलिज्म तमाम जगहों पर मजबूत हुआ है।जिसका अर्थ है कॉर्पोरेट और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों की मिलीभगत।कॉर्पोरेट अपने हितों को किसी भी हद तक साधना चाहता है और इसके लिए उसे राजसत्ता पर आधिकारिक नियंत्रण चाहिए।दक्षिणपंथी दल हमेशा से ही भूमिपतियों और कॉर्पोरेट के अबाधित विकास के पक्षधर हैं।इसलिए जनता को भटकाने के लिए भावनात्मक सांस्कृतिक मुद्दों में उलझाना एक रणनीति है।इसलिए जनता लोकतंत्र से निराश नहीं है, उसके भीतर यह निराशा एक चेतना की तरह पैदा की गई है।ऐसी स्थिति में जनता के भीतर लोकतंत्र से मोहभंग पैदा किया जा रहा है।उसे धर्म-जाति की तमाम चेतनाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाकर ठोस सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से दूर किया जा रहा है।इसलिए यह कहना कि जनता लोकतंत्र से निराश है, एक तटस्थ वक्तव्य है।अब यह स्थिति कैसे बदलेगी, इस प्रश्न का कोई सीधा-सादा जवाब नहीं है।
(5) यह मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट का युग है।सत्य नहीं है, सबकुछ सत्यातीत है।यह उत्तर-आधुनिक अवधारणा ही सोशल मीडिया का इकलौता एब्सोल्यूट ट्रुथ है।बाकी सब मिथ्या है, कंस्ट्रक्ट है।डिजिटलीकरण से दक्षिणपंथी विचारधाराओं को एक ग्लोबल बूम मिला है।इसकी वजह यह है कि यहां लिखे हुए की किसी प्रामाणिकता की जरूरत नहीं है।पहले की क्लासिकल अकादमिक ज्ञान-परंपरा प्रामाणिकता के आधार पर ही मूल्यांकित होती थी।सोशल मीडिया के दौर में कौन पोस्ट कितनी वायरल है, या उसको कितने लाइक्स मिले हैं, यही प्रामाणिकता का आधार है।इसलिए पूरी दुनिया में इस तरह बिग कॉर्पोरेट और दक्षिणपंथी विचारधाराओं में दुरभिसंधि आसान हुई है।
कैंब्रिज एनालिटिका वाले प्रकरण या अभी ट्विटर और फेसबुक आदि के अल्गोरिद्म या फिर व्हाट्सएप के मामले हों-हरजगहदक्षिणपंथकावर्चस्वदिखाईदेताहै।इसे तोड़ने की कोशिशें बहुत की जा रही हैं, लेकिन यह सब एक बहुत बड़े नेक्सस, बहुत बड़े स्ट्रक्चर का हिस्सा है।पेगासस ने यह भी सिद्ध किया है कि दक्षिणपंथ अगर राजसत्ता पर कब्जा कर लेता है तो डिजिटलीकरण की वजह से अपने विपक्ष की जासूसी करवाने में पहले से कहीं सक्षम है।पहले यह काम पुलिस और इंटेलिजेंस एजेंसी ही करती थीं, लेकिन अब तो हम स्मार्ट टीवी, स्मार्ट फ़ोन, सीसीटीवी कैमरा, बायोमेट्रिक आदि के माध्यम से हर समय सरविलांस में हैं।आप जो भी करने की सोच रहे हैं, राज्य चाहे तो उसे आपके ही गैजेट से देख-सुन सकता है।इसलिए यह चुनौती तो सबसे अभूतपूर्व है और शायद तकनीक भी लोकतंत्र के गले में सबसे कठिन फंदा बन चुकी है।
द्वारा रवि कुमार गोला, फ्लैट नं. 402, 352 ई 14 सी, एशियन चॉपस्टिक के सामने, निकट पाल डेरी, मुनिरका, नई दिल्ली–110067
तैयंजम बिजयकुमार सिंह इंफाल निवासी वरिष्ठ मणिपुरी कथाकार।कई पुस्तकें प्रकाशित।अद्यतन ‘रामू प्रसाद्स एंजेल’। |
राजनीतिक विमर्श का डिजिटलीकरण लोकतंत्र के लिए खतरा है
(1) इस समय लोकतंत्र की परिभाषा और व्यवहार में भारी अंतर है।कुछ लोगों ने वोट लेने के लिए अपने-अपने तरीके इजाद कर लिए हैं और चालबाजी या जोर-जबरदस्ती का रास्ता अपनाकर सत्ता पर काबिज हो गए हैं।आज एक नया शासक-वर्ग पैदा हो गया है।इस बदलती हुई दुनिया के वर्तमान परिदृश्य में लोकतंत्र को फिर से परिभाषित किया जा सकता है।इस लोकतंत्र कुछ चुनिंदा शक्तिसंपन्न लोग वंचित जनसमूह पर शासन कर रहे हैं।
(2) हम समझते हैं कि लोकतंत्र का मतलब है, समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार किया जाए।प्रत्येक व्यक्ति को वोट देने का अधिकार हो और उसे अपने पसंदीदा व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी हो।
जहां तक मैं समझता हूँ और यदि वह सही है, तो ‘अन्य’ शब्द का अर्थ है वह समूह जिसके साथ हमारी एकात्मता नहीं है, जिसकी पहचान हमसे भिन्न है।यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपनी पहचान कैसे तय करते हैं।क्या जाति, धर्म, भाषा आदि के द्वारा? यदि हम अपने मन में अन्य के प्रश्न को उभरने देंगे तो जिस औचित्य के आधार पर भारतीय संघ का निर्माण हुआ था, वह समाप्त हो जाएगा।
भारत में विभिन्न जातियों के विविध समूहों के लोग रहते हैं, जो अनेक तरह की भाषाएं बोलते हैं और उनकी अलग-अलग धार्मिक आस्थाएं हैं।यदि हम अन्य उसे कहते हैं, जो एक ही जाति के नहीं हैं, एक ही तरह के नहीं दिखते, एक ही धर्म का पालन नहीं करते, एक ही भाषा नहीं बोलते, एक ही तरह का खाना नहीं खाते, एक ही तरह की पोशाक नहीं पहनते आदि तो देश टुकड़े-टुकड़े में बंट जाएगा।क्योंकि हम सबमें विविधता है।अतः हमें अपने भीतर सहनशीलता पैदा करनी होगी और अन्य चाहे जैसे भी हों, उन्हें उसी रूप में सम्मान देना सीखना होगा।हमें किसी के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।हम अन्य से भी यही उम्मीद करेंगे कि वे भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करें और हमारा सम्मान करें।
हमें अपने मन से इस ‘अन्य’ की मानसिकता को निकालना होगा और दुनिया को बताना होगा कि भारत ‘अनेकता में एकता’ वाला देश है।
इस समय निहित स्वार्थ वाले कुछ लोग अपने ओछे उद्देश्यों को हासिल करने के लिए अन्य की भावना का प्रसार कर रहे हैं।उनकी संख्या निरंतर बढ़ती हुई दिख रही है।यह बहुत ही खराब प्रवृत्ति है।हमें इस स्थिति पर अंकुश लगाने के लिए अपने स्तर पर पूरी कोशिश करनी चाहिए और आने वाले दिनों में इसे जारी नहीं रहने देना चाहिए।
(3) शिक्षा, साहित्य और संस्कृति सहित जीवन के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन अपरिहार्य है।सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम चीजों को कैसे देखते हैं।दुनिया बदल रही है, उसी तरह सोच भी बदल रही है।
पहले शिक्षण संस्थानों में स्वतंत्रता को अनुशासन का विरोधी माना जाता था।छात्रों को वही सब करना पड़ता था, जो उनके माता-पिता और शिक्षक उनके लिए तय कर देते थे।आज शिक्षा के क्षेत्र में सीखने की प्रक्रिया में बदलाव आया है।अब लोगों ने यह महसूस किया है कि शिक्षण संस्थान ऐसी जगहें हैं जहां विद्यार्थियों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती है।
लोकतांत्रिक मूल्य जीवन के सभी क्षेत्रों और समाज के सभी पहलुओं में दिखाई पड़ते हैं।विद्यार्थियों का कक्षाओं में जो अनुभव होता है, उसका सीधा संबंध सीखने-सिखाने की पद्धति से होता है।शिक्षक शिक्षण कार्यक्रमों में शिक्षकों को इस तरह से प्रशिक्षित किया जाता है कि वे शिक्षण के पेशे में फिट हो सकें।शिक्षक अब पुरानी पारंपरिक उपदेशात्मक दृष्टिकोण को नहीं अपनाते।वे अब कमोबेश छात्रों को सहायता पहुंचाने वाले और मित्रवत होते हैं।
छात्रों को सीखने की प्रक्रिया के तहत विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करने तथा निर्णय लेने में सहभागी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।उन्हें अपने शैक्षिक करियर को चुनने तथा उनपर नियंत्रण की आजादी होती है, जिसमें शिक्षक उनका मार्गदर्शन करते हैं।
लोकतंत्र को केंद्र में रखकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं।जनसमुदाय को लोकतांत्रिक मूल्यों की जानकारी देने के लिए अनेक उपन्यास, कहानियां, नाटक, कविताएं, निबंध और अन्य साहित्य लिखे गए हैं।सामाजिक विरोध को प्रदर्शित करने वाले साहित्य ने समकालीन साहित्य को अधिक गतिशील बनाया है।
अनेक नाटकों के लेखक और निर्देशक रतन थियाम का दृढ़ विश्वास है कि नाटक तर्क और विवेक पर आधारित होने चाहिए।उसे समाज का दर्पण होना चाहिए।उसे सामाजिक परिवर्तनों को विश्लेषित करने और उनपर अपनी टिप्पणी देने में सक्षम होना चाहिए।दूसरे शब्दों में, नाटकों को समाज की कमियों को उजागर करने तथा मानवीय सोच के समक्ष प्रश्नचिह्न खड़ा कर उन कमियों को दूर करने में उल्लेखनीय भूमिका निभानी चाहिए।
संस्कृति के लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करें तो इसे न केवल संवैधानिक गारंटी तक ही सीमित होना चाहिए, बल्कि भारतीय आचारों से भी अधिक गहराई से जुड़ा होना चाहिए।यह देखकर अच्छा लगता है कि इस समय देश में राजनीतिक संस्थानों एवं कानूनी संरचनाओं के परे समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं से कमोबेश एक जुड़ाव है।
(4) जनता लोकतंत्र से नहीं, बल्कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से निराश है, जिन्होंने अपने निहित स्वार्थों के लिए लोकतांत्रिक प्रथाओं को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है।एक तरह से गलत प्रतिनिधियों को चुनने के लिए जनता ही दोषी है।लोग अकसर उम्मीदवारों की योग्यता पर विचार न करके उनकी जाति, धर्म आदि के आधार पर उन्हें वोट देते हैं।
अकादमिक क्षेत्र में प्रशासन के पुराने मॉडल की चर्चा की जाती है, खासकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र (322-298 ई.पू.) को लेकर।उनका मॉडल एक राज्य के प्रबंधन तथा कठोर उपायों को अपनाकर राज्य के विस्तार के संदर्भ में निर्मित हुआ है, जिसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों, खुफिया गतिविधियों और सुशासन के सभी पहलुओं को शामिल कर एक विशाल ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है।उस मॉडल ने चंद्रगुप्त मौर्य को लगभग पूरे भारत तथा उससे भी आगे अफगानिस्तान तक अपने राज्य का विस्तार करने में मदद की।ऐसा लगता है, इस मॉडल का पूरा विवरण आज भी सभी वर्गों के लोगों तक नहीं पहुंचा है।
प्रशासन के पुराने मॉडल में वर्णित कौटिल्य का मंडल या केंद्रीय व्यक्तित्व के सिद्धांत को वर्तमान संदर्भ में पूरी तरह से लागू करने के लिए सही नहीं माना जा सकता।हालांकि उससे कई चीजें सीखी जा सकती हैं, लेकिन इसकी अवधारणा एकीकरण की भावना के रास्ते में बाधा के रूप में खड़ी है।यह एक केंद्रीय व्यक्तित्व पर आधारित है, जो भारतीय संघ की अवधारणा के विपरीत है।जो लोग प्रशासन के पुराने मॉडल को अपनाने के विचार की पुरजोर वकालत कर रहे हैं, एक बार जब वे इससे होने वाले परिणामों को जान लेंगे तो वे इस दिशा में आगे बढ़ने से परहेज करेंगे।
(5) राजनीतिक विमर्श का डिजिटलीकरण लोकतंत्र के लिए एक खतरा है।ऐसी संभावना है कि निहित स्वार्थ वाले लोग सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर या ऑनलाइन फर्जी खबरें फैलाकर राजनीतिक विमर्श पर नियंत्रण कर सकते हैं।
सोशल मीडिया अपने आपमें जन्मना न तो अच्छा है, न बुरा।यह लोकतंत्र के लिए बुरा या अच्छा हो सकता है, जो इस बात पर निर्भर करेगा कि इसका इस्तेमाल कौन कर रहा है।जब सोशल मीडिया ने राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई तो इसे मुक्ति की प्रौद्योगिकी के रूप में देखा गया।जिन लोगों की पहुंच मुख्यधारा के मीडिया तक नहीं थी, वे इसके माध्यम से समाज में सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए एक दूसरे के साथ समन्वय और सहयोग करने की स्थिति में आ गए।
जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, इंटरनेट और भी शक्तिशाली होता जा रहा है।इस समय यह झूठा प्रोपेगैंडा फैलाने का माध्यम है।ऑनलाइन झूठी खबरें, धमकियां और अपमान की घटनाएं कानून और व्यवस्था को लागू करने में गंभीर समस्याएं पैदा कर रही हैं।इससे सामान्यतः लोकतंत्र का क्षरण हो रहा है।
अंग्रेजी से अनुवाद :अवधेश प्रसाद सिंह
तैनजेम विजयकुमार सिंह, कैसेमथोंग, टॉप लिरेक, इम्फाल–795001 मो.9862027316
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