युवा कवयित्री और कहानीकार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
किसी भी कालखंड की साहित्यिक विशिष्टता को चिह्नित करने के लिए हमें अतीत और वर्तमान दोनों को देखना पड़ता है। हिंदी कहानी के हर दौर में रचनाकारों ने अपने समय की नब्ज़ टटोलकर रचना की है। यदि बात कहानी विधा की करें तो मनुष्य ने कहानियों को गढ़ा या कहानियों ने मनुष्य-समाज को, यह कहना मुश्किल है। शायद यही कारण है कि वाचिक परंपरा के कारण एक नहीं, अनगिनत कहानियां जन समुदायों में जीवंत हैं। मनुष्य का निजी अनुभव हो, सामाजिक यथार्थ हो या कोई कल्पना, कहानी ने अपने हिस्से में सब शामिल किया और उसका घर व्यापक बनता गया।
साहित्य में ‘नई कहानी’ के आगमन के साथ-साथ कहानी के नए कथ्य और नई भाषा ने एक खास बहस को जन्म दिया था। उस दौर में कहानी विधा ने एक किस्म की केंद्रीयता हासिल कर ली थी। बाद में कई कहानी-केंद्रित आंदोलन जैसे अकहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी के दौर आए। इनका प्रभाव कुछ समय था। दरअसल हिंदी कहानी में बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों की व्याख्या इन्हीं आंदोलनों की देन है। आधुनिक कहानी ने लगातार यथार्थ का पुल बनाकर पाठकों को वास्तविक जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाने का काम कलात्मक ढंग से किया है।
वर्तमान में हिंदी कहानी की तीन पीढ़ियों के लेखकों की सक्रियता देखी जा सकती है। लेखक और पाठक के नजरिए में पहले से काफी परिवर्तन आया है। आज का पाठक समझता है कि हर व्यक्ति को अपनी तरह से जीने का स्पेस दिया जाना चाहिए। यह दृष्टि आज की कहानी को अधिक पुष्ट करती है।
इधर कई समानांतर विमर्शों ने हाशिए पर फेंकी गई इकाइयों की तलाश की है। आज का कथा-साहित्य कई विमर्शों में बंटा हुआ है। इससे उपन्यास और कहानियों में व्यक्त अनुभव व्यापक हुए हैं। इनमें वंचित समाजों और नए क्षेत्रों के अनुभव शामिल हुए हैं। आज की कहानी यथार्थपरक होते हुए सांकेतिक अभिव्यक्ति भी लिए हुए है। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि वर्तमान में कहानी का रिमोट लेखक का व्यापक अनुभव है।
वैश्विक बाज़ार व्यवस्था के प्रभाव के कारण इधर साहित्य में बड़ा परिवर्तन देखा जा रहा है। उपन्यास की मांग बढ़ी है। ‘मार्केटिंग साइकोलॉजी’ के कारण उपन्यास की किताबों की सूची सबसे लंबी है।
आत्ममुग्धता के वर्तमान समय में अच्छी कहानियों का चयन एक चुनौती है। इसके अलावा हिंदी कथा साहित्य के आलोचकों की कमी होने लगी है। सामान्यतः कोई आलोचक किसी कहानी संग्रह की आलोचना करना नहीं चाहता। एक समय था, जब कथा आलोचकों की दृष्टि ने कहानी जगत के नए आयाम विकसित किए थे। आज भले उनकी संख्या कम हो, पर निराश कर देने वाली स्थिति नहीं है। आज भी कई कहानीकार स्वयं आलोचक की भूमिका में सक्रिय खड़े दिखाई देते हैं।
इन स्थितियों के बीच ‘वागर्थ’ में इस बार ‘हिंदी कहानी का वर्तमान’ परिचर्चा का विषय है। इसमें रोहिणी अग्रवाल, संजय कुंदन, योगेंद्र आहूजा, राकेश बिहारी, राहुल सिंह, मृत्युंजय सिंह जैसे लेखकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार प्रकट किए हैं। काल कोई भी हो, विधा कोई भी हो पाठकों के बीच साहित्य की प्रामाणिकता सही संदर्भों में बची रहनी चाहिए और इस विषय पर बहस आगे बढ़नी चाहिए।
सवाल
(1) ‘नई कहानी’ के दौर और पुनः 20वीं सदी के आखिरी दो दशकों में कहानी विधा ने एक किस्म की केंद्रीयता हासिल कर ली थी, 21वीं सदी में वह केंद्रीयता क्यों नहीं सुरक्षित रह पाई?
(2) आज के कहानीकारों के सामने कौन से मुख्य प्रश्न, अंतर्द्वंद्व और समस्याएं हैं और उनमें कितनी विविधता है? यदि संभव हो तो कुछ ताजा कहानियों के उदाहरण के साथ बताएं।
(3) एक दौर में कहानी की आलोचना में काफी समृद्धि थी। उपेंद्रनाथ अश्क, लक्ष्मीनारायण लाल, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर जैसे कई कहानीकार आलोचक भी थे। नए दौर में कहानीकार-आलोचक पर्याप्त गंभीर नहीं हैं, इसके क्या कारण हैं?
(4)कहानी में ‘अनुभव’ के अलावा अन्य किन चीजों का महत्व है और उनपर समकालीन कहानीकारों ने कितना ध्यान दिया है?
(5)यथासंभव वर्तमान कहानी लेखन की कुछ खास संभावनाओं की ओर संकेत करें।
(6)क्या उपन्यास विधा और बाजार-सभ्यता कहानी लेखन को अंततः हाशिए पर ठेल देगी?
रोहिणी अग्रवाल वरिष्ठ आलोचक एवं कहानीकार। अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘कथालोचना के प्रतिमान’। |
वैचारिक आंदोलन की पहलकदमी अब नहीं होती
(1)मुझे नहीं लगता कि केंद्रीय महत्व खोकर आज कहानी हाशिए पर आ गई है। हुआ यह है कि साहित्यिक परिदृश्य में आज केंद्र की सत्ता ही ध्वस्त हो गई है। या कहें कि कई-कई केंद्र एक साथ चल रहे हैं- कथा साहित्य, कविता और कथेतर गद्य। जिस परिमाण में पत्रिकाएं निकल रही हैं, नए-पुराने कहानीकारों की जमात उमड़ी चली आ रही है, और पत्रिकाओं द्वारा कहानी विशेषांक नहीं, महाविशेषांक निकाले जा रहे हैं, ये कहानी की दीर्घायु के सूचक जरूर हैं। अलबत्ता यह सवाल अपनी जगह मानीखेज बना रहता है कि आज कहानी की गुणवत्ता क्या रह गई है; और इसे मापने के पैरामीटर क्या होने चाहिए।
(2)कहानी अपने दौर के सवालों से मुठभेड़ करके ही अस्तित्व में बनी रहती है- आज भी, पहले भी। सवाल समय और समाज के भीतर पलती विडंबनाओं, विकृतियों और राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक बदहालियों से टकराव के बाद जन्मते हैं। आज का कहानीकार अस्मिता विमर्श के जरिए उठने वाली बहसों पर ज्यादा केंद्रित हुआ है, जो पितृसत्ता, वर्णाश्रम व्यवस्था और जल जंगल जमीन पर मौलिक मलिकाना हक को समझने का संस्कार देती हैं। इसके अलावा सांप्रदायिक विद्वेष, उपभोक्ता संस्कृति, किसान समस्या, राष्ट्रवाद, थर्ड जेंडर जैसे मुद्दे भी कहानी का विषय बन रहे हैं। अनिल यादव की ‘गौ सेवक’ और ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’, किरण सिंह की ‘यीशू की कीलें’, ‘द्रौपदी पीक’ और ‘एक कप चाय’, विजयश्री तनवीर की ‘सिस्टर लिसा की रान’ और ‘गांठ‘, आशुतोष की ‘उम्र पैंतालीस बताई गई थी’, कैलाश वानखेड़े की ‘जस्ट डांस’ किंशुक गुप्ता की ‘यह दिल है कि चोर दरवाजा’, प्रियदर्शन की ‘चीख’ आदि बहुत सी कहानियां हैं। इनमें विषय वैविध्य भी है और शिल्पगत नए प्रयोग भी। खासकर शिवेंद्र की कहानियों में।
पर यह जरूर कहना चाहूंगी कि अधिकांश कहानियों में वैचारिक और संवेदनात्मक गहराई का ह्रास हुआ है। तुरत-फुरत कुछ लिख डालने के मोह में कहानी ‘वन टाइम रीडिंग’ तो जरूर बनती है, पर ज़ेहन में देर तक नहीं अटकती। न अपने किसी यादगार चरित्र के साथ, न किसी टीस/चीख/हुलास के साथ। इसकी प्रमुख वजह है- शोध, रिपोर्टिंग और टूरिज्म को कहानी-लेखन के नए टूल्स की तरह इस्तेमाल करने की शॉर्टकट कला, जो लेखक को समाज, चरित्र और अंतर्मन के साथ कनेक्ट होने नहीं देती।
(3)नई कहानी आंदोलन सिर्फ कहानी आंदोलन नहीं था, वैचारिक आंदोलन भी था। उस संक्रमणशील समय में लेखक समाज में होने वाले परिवर्तनों की बारीक से बारीक परत को भी देख-समझ सकने का संवेदनात्मक विचारोत्तेजन अपने भीतर पाता था। कहानी उसके लिए कहने-जीने से पहले अनुभव की चीज थी। वह अनुभव जो जीकर जिंदगी का हिस्सा बनने से पहले जिंदगी के साथ कशमकश के तमाम कड़वे-खुरदरे अध्याय लिखता रहा है। वे कहानीकार विकराल सामाजिक सचाइयों के भीतर तक धंस कर नए युग की नई आहटों को कहानी में पिरोते थे। वे जानते थे, औसत पाठक (और किसी सीमा तक आलोचक भी) इन हलचलों को नहीं समझ पा रहा है। वे नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ नएपन की सैद्धांतिकी भी रच रहे थे- अपनी कहानियों की संप्रेषणीयता के लिए भी, और अपने समय के प्रवक्ता बनने के लिए भी।
वह युग पैशन और मिशन का युग था, जुनून और जिद का। आज यह जुझारू वृत्ति गायब हो गई है। मतलब सिर्फ ‘लिखाव’ से है, ‘छपास’ है, नेटवर्किंग से है। देश-समाज के संजीदा सरोकार और वैचारिक आंदोलन जैसी पहलकदमी की बात अब प्राय: नहीं होती। इसलिए आज अधिकांश कहानी-लेखन में न चरित्र जीवंत हैं, न समय की विद्रूपताओं पर बहसें हैं, न मार्मिकता की गहराइयां हैं, न समय को रचने के प्रयास में सिर पर कफन बांध कर निकली व्यग्रताएं हैं। सब कुछ सामान्य है- प्रिडिक्टेबल और सपाट।
फिर भी अच्छी कहानियां भी आ ही रही हैं। उन्हें छांटकर अलगाना अलबत्ता खासी टेढ़ी खीर हो गया है। इन दिनों अंतर्द्वंद्व और आत्मालोचन को केंद्र बनाकर रची गई कहानी मुक्तिबोध-अज्ञेय के साथ धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही है। इस परंपरा के रिवाइवल के बिना कहानी को समृद्ध नहीं किया जा सकता।
(4)कहानी की रीढ़ है अनुभव। कहानी का प्राण है अनुभव। अनुभव वह संपदा नहीं जो निजी जिंदगी में कर्म के स्तर पर शामिल हो। लेखक के लिए अनुभव है- एंपैथी की कला, जहां अपने ‘मैं’ को तिरोहित कर वह ‘अन्य’ के साथ तादात्मीकृत होता है। संवेदना का प्रसार, बेशुमार अध्ययन की गाढ़ी आदत, विश्लेषण क्षमता, जिंदगी के प्रति गहरे कनेक्ट के साथ आलोचनात्मक दृष्टिकोण – ये कुछ जरूरी अर्हताएं हैं जो अनुभव-संसार को विस्तृत और सघन करती हैं। प्रकृति पर लिखने के लिए आपको पेड़ या नदी वगैरह नहीं होना होगा, हाशिए पर फेंकी गई अस्मिताओं के मूक क्रंदन को महसूसना होगा। फिर निजी तौर पर वंचित-मर्दित कर दिए जाने की वेदना के बीच जिजीविषा और संघर्ष के अंत:सूत्रों को तलाशना होगा, जो विवेकशील दृष्टि के साथ ही सपनों का रूप लेते हैं।
अनुभव छोटी परिघटना नहीं है। इसी में लेखक की रचनात्मकता का उत्स समाया हुआ है कि वह पोखर है या सागर। दुर्भाग्यवश आज का कहानीकार अपने ही तलघर में झांकने से बचता है, दूसरों के अंतर्मन की थाह लेने की कौन कहे। इसीलिए तो ‘हीलीबोन की बत्तखें’ या ‘रोज़’ जैसी कहानी लिखना कठिन हो गया है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि आज पाठक भी सघन, गंभीर, संश्लिष्ट कहानी पढ़ने के बजाय हल्की-फुल्की, भावुकता से उद्वेलित कहानी पढ़ना पसंद करता है। 21वीं सदी तक आते-आते हमने कहानी को वैचारिक संवेदनात्मक परिष्कार की इकाई की अपेक्षा बेस्ट सेलर साहित्य की एक विधा मात्र बना दिया है, वरना क्या कारण है कि उपभोक्ता संस्कृति से बिंधी मानसिकता पंकज बिष्ट की ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते’ जैसी प्रभावशाली कहानी न रच पाए।
(5)आज समकालीन कहानी के भीतर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दो प्रमुख प्रवृत्तियां सक्रिय दिखाई देती हैं – वोक कल्चर और कैंसिल कल्चर। यानी बाजार के दबाव। नयापन पश्चिम की नकल से नहीं आता, रोजमर्रा की सचाइयों को अलग आंख से देखने की मौलिकता से आता है। रसूल हमज़ातोव की तरह कहानीकार को बस यही ख्वाहिश करनी होगी कि ‘मुझे विषय मत दो, आंख दो’। दृष्टि-संपन्नता एक ऐसी नियामत है जो अंतर्निहित संभावनाओं को तलाशने और अंत:शक्तियों को जगाने के काम में खुद-ब-खुद लग जाती है। हिंदी कहानी अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह थोड़ी विचार-दुर्बल, संवेदन-विपन्न जरूर हुई है, लेकिन खोने की प्रक्रिया न हो तो पाने और पाए गए को बचाने की जद्दोजहद भी व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बनती। सौभाग्यवश हिंदी कहानी में ऐसी संघर्षशील आवाजें भी मौजूद हैं जो कथा-परिदृश्य को जीवंत और संभावनाशील बनाए हुए हैं।
(6)कहानी या कोई भी विधा प्रतिद्वंद्विता में फंसकर हाशियाग्रस्त नहीं हो सकती। आज के दौर में अमूमन लोगों के पास वक्त नहीं है- न पढ़ने का, न गुनने का, न लीक से हटकर चलने का। सोशल मीडिया संस्कृति ने उसकी वैचारिकता और संवेदना पर कब्जा कर लिया है। इसलिए पाठक देर तक किसी कहानी/आलेख/पुस्तक के साथ ‘माथापच्ची’ नहीं करना चाहता। फेसबुक पोस्ट या व्हाट्सएप मैसेज की तरह वह साहित्य को भी अति संक्षिप्त, अति सरल, अति सपाट रूप में लेना चाहता है। कहानी यदि अपनी जगह से खिसकती है तो वह इतर कारणों से नहीं खिसकेगी, बल्कि कहानीकार की मनोदृष्टि बनाने वाले कारणों की वजह से ही होगी। एक, कुछ ‘बड़ा’ करने का लोभ जो उसे कहानी को ‘छोटा’ समझने का संस्कार देता है। इसलिए एक-आध संग्रह के बाद ही उपन्यास लिखकर वह महत्वपूर्ण हो जाना चाहता है।
ज़ाहिर है, कहानी में हीनता ग्रंथि भरने का काम कोई और नहीं करता, स्वयं कहानीकारों की जमात इस दिशा में सक्रिय है। दूसरे, बाजार-संस्कृति बाजार में स्थित नहीं है, वह लेखक के भीतर उतरकर उसकी मानसिकता बन गई है। इसलिए ‘टू मिनट मैगी’ की तरह चटपट लिखना, लिखते ही प्रतिष्ठित हो जाना, प्रचार-प्रसार-सम्मान समारोह में बढ़-चढ़कर उपस्थित रहना जैसे कुछ अनावश्यक बाजारू दबाव कहानी से गुणवत्ता को छीन लेते हैं। ये ऐसे अपरिहार्य विवशताएं नहीं कि इनसे लड़ा न जा सके। दरअसल ये विचलन हैं या वैचारिक अय्याशियां, जिनकी सवारी गांठ कर फौरी तौर पर अपना सिक्का चलाया जा सकता है।
तीसरे, गंभीर साहित्य को पॉपुलर साहित्य की श्रेणी में गड्ड-मड्ड करने का लोभ भी कहानी की सेहत के लिए हानिकारक है। गंभीर साहित्य में मास अपील नहीं होती। शिवानी और आशापूर्णा देवी, गुरुदत्त और यशपाल की रचनाओं में अंतर दरअसल लेखक के भावबोध से ज्यादा पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर लिखने की मानसिकता में है। अतः कहानीकार को अपनी ही अंतर्निहित कमजोरी से सावधान रहना होगा। यह तय है कि ‘अच्छी’ कहानी को उपन्यास अपदस्थ नहीं कर सकता। दोनों का संग-साथ बरसों पुराना है।
258, हाउजिंग बोर्ड कॉलोनी, रोहतक-124001 मो. 9416053847
योगेंद्र आहूजा तीन कथा संग्रह : ‘अँधेरे में हंसी’, ‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’, ‘लफ्फाज़ और अन्य कहानियां’। कथेतर गद्य का एक संग्रह ‘टूटते तारों तले’। |
एक उत्तेजक कहानी के लिए संवेदनशीलता, दृष्टि और स्मृति का अनुभव से अधिक महत्व है
(1) ‘नई कहानी’, ‘साठोत्तरी कहानी’ और उसके बाद के दौर वाली गहमागहमी, बहसें और चर्चाएं, ‘धर्मयुग’ या ‘सारिका’ जैसी विशाल प्रसार वाली पत्रिकाएं, लेखकों द्वारा एक दूसरे पर संस्मरण लिखा जाना आदि बेशक न दिखते हों, कहानी सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हमेशा रही है, और आज भी है। एक अच्छी कहानी का आज भी उसी प्रकार स्वागत होता है, जिस प्रकार पिछले वक्तों में। आज कहानी का परिदृश्य पिछले किसी भी समय से अधिक विस्तीर्ण है। अब वह सिर्फ नगर या महानगर केंद्रित नहीं।
‘नई कहानी’ अवश्य हिंदी की कहानी के इतिहास का सुनहरा दौर था जब राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, अमरकांत, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मार्कंडेय, रेणु, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती और कितने ही लेखकों ने हिंदी-कहानी को भाव-बोध, शिल्प-बोध और यथार्थ-बोध के स्तर पर इतना समृद्ध बनाया, जो आज हिंदी की कहानी की शानदार विरासत है।
लेकिन यह भी एक सचाई है कि उस दौर की अनेक रचनाएं अब आयु पूरी कर चुकी हैं। ऐसी कहानियां जो ‘ड्राइंग रूम’ से ‘बालकनी’ तक खत्म हो जाती थीं या जिनके पात्र ‘टैरेस’ की ऊंचाई से, एक ऊबी, उदासीन निगाहों से दुनिया को ताकते थे। ‘कनाट प्लेस’ के गलियारों में भटकते, ‘काफे’ आते-जाते पात्रों की कहानियां आज पिछड़ी, समय से विच्छिन्न जान पड़ेंगी। अब कस्बों, दूरस्थ सीमांत क्षेत्रों और आदिवासी इलाकों तक कहानियां लिखी जा रही हैं। इस समय की कहानी में अनुभवों और विषयों का अभूतपूर्व विस्तार, साथ ही शिल्प और स्वरों और तेवरों की विविधता है, जो अपने में उत्साहवर्धक है।
(2)समकालीन हिंदी कहानी का दायरा अब इतना विस्तृत है कि किसी एक व्यक्ति के लिए उसे पूरा समेट सकना संभव नहीं है। पिछले दिनों पढ़ी कुछ कहानियां जो तत्काल याद आ रही हैं, वे हैं- नवीन कुमार नैथानी की ‘लैंडस्लाइड’, अनुराधा सिंह की ‘पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम’, जयशंकर की ‘इंतजार’, योगिता यादव की ‘नए घर में अम्मा’, अक्षत पाठक की ‘व्यू-फाइंडर’, अनघ शर्मा की ‘हिज्र के दोनों ओर खड़ा है एक पेड़ हरा’, फरीद खां की ‘आदर्श नगर, अंधेरी वेस्ट’, अंजली देशपांडे की ‘वह एक हफ्ता’। ज़ाहिर है कि यह समकालीन कहानी का कोई प्रतिनिधि चयन नहीं है।
यह गौरतलब और उत्साहवर्धक है कि समकालीन कहानी पूर्ववर्तियों के अनुसरण के आसान रास्ते पर न चलकर अपना रास्ता खुद तलाशने की कोशिश करती है। कोरे शिल्प चमत्कार से बचते हुए वह अपनी मौलिक, नवोन्मेषी निगाह से तीव्रगति से बदलते समाजिकार्थिक यथार्थ, तमाम क्षेत्रों के अलक्षित पहलुओं, वास्तविकता के अनेकानेक संस्तरों को देखती और दिखाती है।
(3)पिछले दौर में अनेक कहानीकार कहानी के आलोचक या व्याख्याकार भी थे और कहानियों की जमीन और अंतर्तत्वों को अपने और पाठकों के लिए स्पष्ट करना जरूरी समझते थे। आज भी राकेश बिहारी और संजीव जैसे कथाकार-आलोचक हमारे बीच मौजूद हैं। फिर भी सामान्यतः कहानीकार ऐसा करते नहीं दिखते तो इसका एक कारण यह है कि आलोचना अपने में सख्त अनुशासन, अध्ययन और परिश्रम मांगती मुश्किल विधा है, लेकिन इसका कुछ संबंध इससे भी है कि आज के बौद्धिक पर्यावरण में रचनाकारों में कुछ प्रतिकूल सुनने का धैर्य विरल है। मामूली सी असहमति पर भी लोग फट पड़ने को तैयार रहते हैं और फिर योजनाबद्ध जवाबी हमले किए जाते हैं। शायद इसका कुछ संबंध सोशल मीडिया से भी है। गंभीर चर्चाओं की जगह सोशल मीडिया के शोरगुल और ‘लाइक्स’ और ‘लाइव्स’ ने ले ली है। कहानी में ही नहीं, यह कविता में भी हुआ है।
मैं ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि इस दौर की कुछ ऐसी कहानियां हैं जिनके कलेवर में ही आलोचना और आत्मालोचना शामिल है। कहानीकारों द्वारा व्यापक रूप से आलोचना-कर्म में प्रवृत्त न होने को हम नकारात्मक न मानकर पाठकों की समझ और विवेक पर भरोसे के रूप में भी देख सकते हैं।
(4)कहानी में अनुभवों का, उनके नएपन का अपना महत्व है, लेकिन एक उत्तेजक कहानी लिखने के लिए लेखक की ‘संवेदनशीलता’, ‘दृष्टि’ और एक जागृत ‘स्मृति’ का महत्व अनुभवों से अधिक ही है। ‘स्मृति’ के उल्लेख को कहानियों में ‘नॉस्टेल्जिया’ या अतीत की कसक भरी यादों की वकालत के रूप में न लें। मेरा आशय सिर्फ निजी स्मृतियों से नहीं, जातीय, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक स्मृतियों से, अतीत में हुए वैचारिक संघर्षों की जानकारी और सजगता से है। साथ ही आत्मालोचना, स्व-निरीक्षण और कहानी के शिल्प के प्रति किंचित सजगता …इनका महत्व भी कम नहीं है।
(5)शायद इस प्रश्न से आपका आशय इस समय के संभावनाशील युवा हस्ताक्षरों से है। नामों की कितनी ही लंबी सूची बनाऊं, वह अधूरी होगी। अनुकृति उपाध्याय, अनघ शर्मा, मनीष वैद्य, रवींद्र आरोही, योगिता यादव, दिव्या विजय, सिनीवाली, प्रकृति करगेती, मिथिलेश प्रियदर्शी, ट्विंकल रक्षिता, श्रद्धा थवायत से लेकर अक्षत पाठक और किंशुक गुप्ता तक कितने ही नए लेखक हैं जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में पहचान बनाई है और जिनकी कहानियों का इंतजार रहता है।
यह हिंदी में स्त्री-रचनाशीलता के उभार का अभूतपूर्व समय है। ‘दलित विमर्श’ के बाद ‘स्त्री विमर्श’ ने जिस चौकस, सचेत, विचारशील नारीत्व से हमारा परिचय कराया है, वह हमारे समाज के लिए एक नई घटना है। वे अपनी नज़र से और अपनी ही भाषा में अनुभवों का इतिहास दुबारा लिख रही हैं।
(6)विधाएं एक-दूसरे की दुश्मन नहीं होतीं। वे एक दूसरे में आती-जाती, एक दूसरे से ग्रहण करती, एक दृष्टि से अंततः वे एक ही होती हैं। हमारे समय में यूं भी विधाओं की सीमाएं टूट रही हैं, उनका एक दूसरे में संक्रमण हो रहा है। बदलते सामाजिक मूल्यों के असर की बात अवश्य की जा सकती है, लेकिन वह सिर्फ कहानी विधा तक सीमित नहीं रह सकती। अब लेखक होने के मायने वही नहीं रहे जो प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध या शमशेर के वक्त में थे। क्षरण की एक प्रक्रिया बहुत पहले शुरू हो गई थी।
मुक्तिबोध ने लिखा था- ‘आज के साहित्यकार का आयुष्य क्रम है- विद्यार्जन, डिग्री, कुछ साहित्यिक प्रयास, घर, सोफासेट, अरिस्टोक्रेट लिविंग, श्रेष्ठ प्रकाशकों के द्वारा पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार, चालीसवें वर्ष के आस-पास अमेरिका या रूस जाने की तैयारी, अनुवाद और ऊंची नौकरी। यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद’। अब सामाजिक सरोकार विरल हुए हैं। इसीलिए अब ऐसी रचनाएं भी स्वीकृत, चर्चित होती दिखती हैं जो भाषाई खेल और कौतुक को ही कहानी मानती और यथास्थिति का उत्सव मनाती नजर आती हैं।
11/63 सेक्टर 3, राजेंद्र नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद -201005 (उत्तर प्रदेश)
संजय कुंदन प्रसिद्ध कहानीकार। अद्यतन कहानी संग्रह ‘श्यामलाल का अकेलापन’, उपन्यास ‘तीन ताल’। वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक। |
कहानी का संसार पहले से विस्तृत और जनतांत्रिक हुआ है
(1)कहानी उसी समय केंद्र में थी जब उनमें कथातत्व या कथारस को जगह मिली, जब पाठकों ने उसमें अपने जीवन की धड़कन देखी और उनसे अपना जुड़ाव महसूस किया। नई कहानी के दौर में ऐसी कई कहानियां आईं, लेकिन जल्दी ही उसके भीतर से ही ऐसे कथा आंदोलन निकलने लगे जिन्होंने उन मूल्यों को प्रश्रय दिया, जिनसे हिंदी का पाठक खुद को रिलेट नहीं कर पा रहा था। अस्तित्ववाद, अजनबीयत, अकेलापन ऐसे ही मूल्य थे जो भारतीय जीवन से मेल नहीं खाते थे। ये पश्चिमी दृष्टि के ज्यादा करीब थे। वहां ये द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों की उपज थे, पर हमारे देश ने तो उसे सीधे तौर पर नहीं झेला था। इसलिए इन्हें लेकर जो कहानियां लिखी गईं उनसे पाठकों की दूरी बनती चली गई।
जहां तक 21वीं सदी के शुरुआती दशकों की बात है, इस दौर में कहानियों में एक नई ताजगी फिर से दिखी। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नए मुहावरे में पूंजीवाद फिर से अपनी पकड़ बना रहा था और इस वजह से जीवन में आ रहे आमूल-चूल परिवर्तन को कई कहानियों ने अपनी एक अलग भाषा में पकड़ने की कोशिश की, जो लोगों को पसंद आई। पाठकों में सामाजिक-आर्थिक बदलाव को जानने-समझने की जो उत्सुकता थी, वह इन कहानियों ने दूर की। लेकिन वह धीरे-धीरे एक रूढ़ि का रूप लेने लगी। भाषा में ठहराव और दोहराव आने लगा। अब नैरेशन पर इतना ज्यादा जोर दिया जाने लगा कि कथारस ही गायब होने लगा है। कई कहानियां सिद्धांत का निरूपण करती और ज्ञान छांटती नज़र आने लगी हैं।
सोशल मीडिया के इस दौर में कई तरह की बहसें और विमर्श ने जोर पकड़ा है। उन्हें ध्यान में रखकर प्रायोजित किस्म की बेजान कहानियां भी लिखी जा रही हैं, जिस कारण पाठक कहानियों से कतराने लगा है। आज के उत्तर-आधुनिक दौर को समझने के लिए जिस भाषा की दरकार है, वह कहानियों में अभी नहीं आ पा रही है।
इसका एक दूसरा पहलू भी है। अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं, मगर आज वैसे संपादकों की कमी है, जो कहानियों को चर्चा में लाएं। जो काम कभी राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया ने किया था, वह उत्साह और सरोकार आज के संपादकों में नहीं है। उन दोनों ने कथाकारों से निरंतर संवाद बनाया, उनसे कहानियां लिखवाईं। उनका मार्गदर्शन भी किया। अपनी पत्रिकाओं के ऐसे विशेषांक निकाले जो सामान्य पाठकों में लोकप्रिय हुए। उन्होंने कहानियों पर चर्चा करवाई। लेख लिखवाए। इन सबसे कहानी के पक्ष में माहौल बना।
आज एक संकट यह भी है कि साहित्यिक पत्रिकाएं बंद होने लगी हैं। दूसरी तरफ वैश्विक बाजार उपन्यास को प्रमोट कर रहा है। हिंदी के प्रकाशक भी ऐसा कर रहे हैं।
(2)इसमें दो मत नहीं कि आज हिंदी कहानी का संसार पहले से कहीं ज्यादा विस्तृत और जनतांत्रिक हुआ है। महिला, दलित और आदिवासी के प्रश्नों पर ज्यादा लिखा जा रहा है। पर्यावरण और समलैंगिकता जैसे मुद्दे भी जगह पा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से धर्म-केंद्रित राजनीति के दुष्परिणाम दिख रहे हैं, इन्हें भी कहानीकारों ने विषय बनाया है। समाज के सांप्रदायिक विभाजन को लेकर कई कहानियां हाल में आई हैं।
कहानीकारों का मुख्य अंतर्द्वंद्व यही है कि आज के इस उत्तर-आधुनिक दौर में पैदा हो रहे नए मानवीय संबंधों को कैसे पकड़ा जाए और उसके लिए कौन सी भाषा अपनाई जाए। आज के बहुस्तरीय यथार्थ को उद्घाटित करना कहानीकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
(3)आज आलोचना सर्वाधिक संकट में है। अब धैर्य के साथ श्रमपूर्वक लिखने की प्रवृत्ति घटी है। सोशल मीडिया ने एक शॉर्टकटवाद पैदा किया है। सौ-दो सौ शब्दों में तुरंत टिप्पणी करके ही संतुष्टि पा ली जाती है। फेसबुक पर ही किसी रचना पर बहस निपटा दी जाती है। पत्रिकाओं में छपने का इंतजार कौन करे! अब पत्रिकाएं भी कम हो गई हैं, जो गंभीर आलोचना का प्रकाशन करें। प्रकाशक भी आलोचना की पुस्तक छापने से कतरा रहे हैं। एक तरह की आत्मग्रस्तता भी आई है।
अब हर कोई अपने बारे में सोचता है। अपने को ही स्थापित-प्रचारित करने का उपक्रम जोरों पर है। ऐसे में कोई दूसरे के ऊपर समय दे, मेहनत करे और उसे प्रचारित करे, यह एक विरल स्थिति है। कोई कहानीकार दूसरे कहानीकारों का मूल्यांकन कर उनसे अपना रिश्ता खराब नहीं करना चाहता। आज सबसे आदर्श स्थिति है कोई प्रतिक्रिया न देना या बस तारीफ करना। इसका कारण शायद यह है कि कहानीकार इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि उनका कोई पाठक भी है।
(4)कहानी में सिर्फ अनुभव से बात नहीं बनती। एक लेखक का प्रत्यक्ष देखा और भोगा गया जो कुछ भी होता है, वह सीमित होता है। उसके बूते कितनी कहानियां लिखी जा सकती हैं। मेरे लिए अनुभव के साथ जो बड़ी चीज़ है वह है- दृष्टि। और दृष्टि में एकाधिक चीजें शामिल हैं जिनमें मुख्य है विचार। विचार के होने का एक मतलब यह है कि आप किसी चीज को उसकी ऐतिहासिक परिस्थितियों में देख रहे हैं। विचार से यह तय होता है कि आप कहां, किसके पक्ष में खड़े हैं। इसके बगैर अकसर कहानियां एकांगी हो जाती हैं। अपने समय की जटिलता सामने नहीं आ पाती।
विचार ही लेखक की सेंसिबिलिटी को पोषित करता है। हालांकि कुछ लेखक विचार को स्थूल रूप में ग्रहण करते हैं और इसीलिए उनकी रचनाएं भी फॉर्मूलाबद्ध हो जाती हैं। दृष्टि में ही आब्जर्वेशन या निरीक्षण शामिल है। मतलब हम अपने परिवेश में क्या-क्या देख रहे हैं। क्या बदला है, क्या गायब हो गया है, क्या नया आया है। एक इंसान की गतिविधियों को किस तरह से नोटिस कर रहे हैं।
(5)वर्तमान कहानी की एक बात जो मुझे आकर्षित करती है वह यह कि यह एकदम अभी के सवालों से मुंह नहीं चुराती। उससे मुठभेड़ करती है। एक अर्थ में वह राजनीतिक हुई है। अभी की राजनीति ने समाज के सामने जो चुनौतियां खड़ी की हैं, उससे कहानियां दो-चार हो रही हैं। यह काम कहानी में पहले भी हुआ है, पर फिर नए सिरे से हो रहा है, जो अच्छी बात है। वर्तमान राजनीति ने समाज के जिस वर्ग को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, उसके अकेलेपन और अलगाव को आज की कहानियां रेखांकित कर रही हैं। यह एक जरूरी काम है। लेकिन यही एकमात्र ट्रेंड नहीं है। कई तरह की कहानियां एक साथ लिखी जा रही हैं।
(6)अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। कहानी आज भी पढ़ी जा रही है। नए-नए कहानीकार सामने आ रहे हैं, जो निरंतर लिख रहे हैं। फिर हिंदी उपन्यास बहुत ज्यादा लिखे जा रहे हों और उनकी मांग असाधारण रूप से बढ़ गई हो, ऐसा भी नहीं है।
ए-701, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012(उप्र)मो.9910257915
राकेश बिहारी लेखक और कथा साहित्य के प्रमुख आलोचक। किताबें : ‘वह सपने बेचता था’, ‘गौरतलब कहानियाँ’, ‘दलाल स्ट्रीट’ (कहानी-संग्रह), ‘केंद्र में कहानी’, ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ (कथालोचना)। |
हिंदी कहानी में लंबे समय तक अनुभव को भोगे हुए यथार्थ में सीमित करके देखा गया
(1)नई कहानी निश्चित तौर पर एक बड़ा और नियोजित कहानी आंदोलन था। तब हिंदी कहानी की श्रेष्ठ प्रतिभाएँ एक बड़ी संख्या में कहानी की दुनिया में सक्रिय थीं, जिनमें से कई बाद में कहानी केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादक भी हुए। बीसवीं सदी के आखिरी दो दशक में ‘हंस’ के माध्यम से कहानी और उससे जुड़ी बहसों को एक केंद्रीयता हासिल हुई, यह निस्संदेह है। लेकिन यह कहना कि उसके बाद विधा के रूप में कहानी की केंद्रीयता सुरक्षित नहीं रही, मुझे उचित नहीं लगता। हालांकि इस तरह की शब्दावली का उपयोग पहले से होता रहा है, पर मुझे साहित्य की दुनिया में किसी विधा की केंद्रीयता की सुरक्षा जैसी भाषा का उपयोग भी ठीक नहीं लगता, कारण कि इससे चाहे-अनचाहे तुलनात्मक वर्चस्ववाद की राजनीति की बू आती है।
हंस के श्रेष्ठ दिनों के उत्तरार्ध से आजतक विभिन्न पत्रिकाओं के कहानी केंद्रित विशेषांक लगातार प्रकाशित होते रहे हैं। 1995 में प्रकाशित ‘आजकल’ के विशेषांक ‘संभावनाओं और सामर्थ्य का जायजा’ से लेकर ‘इंडिया टुडे’ के ताज़ा कहानी विशेषांक ‘कथा का समय’ के बीच लगभग हर पत्रिका ने नई पीढ़ी के कथा साहित्य पर एकाधिक विशेषांक प्रकाशित किए हैं। ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘वागर्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘संवेद’, ‘उत्तर प्रदेश’, ‘कथाक्रम’, ‘अन्यथा’, ‘परिकथा’ आदि पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित इन विशेषांकों की संख्या लगभग दो दर्जन होगी। इस क्रम में नए कहानीकारों को पहचानने और आगे लाने के लिए ‘कथादेश’ के वार्षिक आयोजन ‘कथा समख्या’ का विशेष तौर पर उल्लेख किया जाना चाहिए। कहानी लिखने के लिए कई कार्यशालाओं के भी नियमित आयोजन पिछले दिनों शुरू हुए हैं। ग्लोबलाइजेशन की शुरुआती पगध्वनियों के बीच पिछली सदी के अंत में कहानीकारों की जिस नई पीढ़ी की आरंभिक पगध्वनियाँ सुनाई पड़ी थीं, जिसे मैंने भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी का नाम दिया है, अब अपनी मुकम्मल पहचान अर्जित कर चुकी है। पिछले पाँच वर्षों में बिलकुल एक नई कथा पीढ़ी के आमद के संकेत भी मिलने लगे हैं, जिसे ‘वनमाली कथा’ ने व्यवस्थित तरीके से रेखांकित किया है। मुझे नहीं लगता कि इक्कीसवीं सदी में रचनात्मक साहित्य की कोई दूसरी विधा इससे ज्यादा चर्चा में रही है। हां, राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया के बाद बड़े कहानीकार संपादकों की कमी जरूर महसूस की जा रही है, जो कहानियां प्रकाशित करने के साथ कहानी केंद्रित नई बहसों को भी जगह दें। कहानी और साहित्यिक बहसों के मद्देनजर खासकर राजेंद्र यादव के ‘हंस’ की कमी को भरा जाना बहुत जरूरी है।
(2)भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद का समय, जिसे मैं भूमंडलोत्तर समय कहता हूँ, की निर्मिति में तकनीकी और सूचना क्रांति की बड़ी भूमिका है। विनिवेशीकरण और निजीकरण के तीव्रगामी और सुनियोजित सत्ता-अनुष्ठानों के कंधे पर सवार आज के समय में श्रम आंदोलन की संभावनाएं बहुत क्षीण हो गई हैं। गति, संकुचन और फ्यूजन इस समय के ऐसे अनिवार्य लक्षण हैं, जो लगभग मूल्य की तरह स्वीकार कर लिए गए हैं। ज्ञान का सूचना में, रचनात्मकता का उत्पादन में, उपलब्धि का जीत में, प्रगति का गति में, वस्तु का उत्पाद में, व्यक्ति का उपभोक्ता में और संबंधों का संभावित ग्राहक में परिसीमित हो जाना इस समय की बड़ी विशेषताएं हैं। ज्ञान और संवेदना कभी एक दूसरे का संवर्द्धन करते थे, पर आज सूचना और संवेदना जैसे परस्पर विपरीतधर्मी हो गए हैं। सूचना और संवेदनात्मक सूचना के बीच फर्क करने की सलाहियत जिस तरह खत्म हो रही है, आज उसके कारण सूचना और अफवाह तथा फैक्ट्स और फिक्शन के बीच की दूरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं। सूचना का दबाव, फैक्ट्स और फिक्शन के बीच की कम होती दूरियाँ और अंतर्द्वंद्वों से मुक्त हो रहे पात्रों की उपस्थिति भूमंडलोत्तर कहानी की बड़ी चुनौतियाँ हैं। सत्ता जनसामान्य के भीतर स्थित ज्ञानात्मक अंतर्द्वंद्वों को भावनात्मक अंतर्द्वंद्वों में बदलने का नियोजित प्रयास करती है और इस तरह शनैः-शनैः एकपक्षीय भावनात्मकता का एक ऐसा सैलाब निर्मित होता है जिसमें अंतर्द्वंद्व के सारे अवशेष बह जाते हैं। उग्र राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह, गांधी बनाम अंबेडकर या नेहरू बनाम पटेल की जो भावनात्मक बाइनरी आज खड़ी की जा रही है, वह इसी का उदाहरण है। आज की कहानियों में अंतर्द्वंद्व के क्षणों के खत्म याकि कम होते जाने का कारण वर्तमान समय का यह यथार्थ भी हो सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि सत्ता जनमानस को अंतर्द्वंद्व से मुक्त करने की लाख कोशिश करे, कहानियों में इसकी जगह खत्म नहीं होनी चाहिए।
कहानियों की भीड़ में कुछ सचमुच की अच्छी कहानियां इन चुनौतियों से लगातार लड़ रही हैं। योगेंद्र आहूजा की ‘डॉग स्टोरी’, अवधेश प्रीत की ‘चांद के पार चाभी’, नवीन कुमार नैथानी की ‘लैंडस्लाइड’, पंकज मित्र की ‘कफन रीमिक्स’, रवि बुले की ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’, नीलाक्षी सिंह की ‘टेक बे त टेक न त गो’, कविता की ‘पत्थर माटी दूब’, अजय नावरिया की ‘गंगा सागर’, कैलाश वानखेड़े की ‘जस्ट डांस’, तरुण भटनागर की ‘दादी मूलतान और टच एंड गो’, वंदना राग की ‘छायायुद्ध’, जयश्री रॉय की ‘कायांतर’, मोहम्मद आरिफ़ की ‘चोर सिपाही’, प्रेम रंजन अनिमेष की ‘जानी है जो जान पियारे’, मनोज कुमार पाण्डेय की ‘पानी’, चंदन पांडे की ‘भूलना’, कुणाल सिंह की ‘शोकगीत’, राकेश मिश्र की ‘शह और मात’ प्रकृति करगेती की ‘ठहरे हुए से लोग’, आशुतोष की ‘अगिन असनान’, राकेश दुबे की ‘नजर (आ) गईली गुईयां’, आदि कुछ ऐसी ही कहानियां हैं। आपके द्वारा दी गई शब्द सीमा इन कहानियों के विस्तार में जाने की इजाजत नहीं देती हैं।
(3)आपकी चिंता जायज है। मैं भी मानता हूँ कि नई कहानी के दौर की तरह आज भी कहानीकारों को आलोचना लिखनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है कि आज कहानीकार-आलोचक नहीं हैं। वरिष्ठ और हिंदी की पहली स्त्रीवादी कथालोचक रोहिणी अग्रवाल के दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं। आलोचक के रूप में स्थापित वैभव सिंह की पहली कहानी ‘मीना बाज़ार’ लगभग दो वर्ष पूर्व मेरे ही संपादन में चल रही कहानी-शृंखला कथा-संवेद में प्रकाशित हुई। उसके बाद लगातार उनकी कहानियां प्रकाशित हो रही हैं। अब उनका पहला कहानी-संग्रह भी छप कर आ गया है। प्रियदर्शन दोनों ही विधाओं में लगातार काम करते रहे हैं। वरिष्ठ आलोचक चंद्रकला त्रिपाठी ने भी पिछले दिनों कुछ उल्लेखनीय कहानियां लिखी हैं। यदि इसे आत्मश्लाघा न माना जाए तो अपनी सीमाओं के बावजूद मैं भी दोनों ही विधाओं में पिछले दो-ढाई दशकों से काम कर रहा हूँ। संजीव कुमार और राहुल सिंह ने भी कुछ अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। वैसे ही योगेंद्र आहूजा, अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, कविता, वंदना राग, मनोज पांडे, राकेश मिश्र, शशिभूषण और राजीव कुमार जैसे कुछ कहानीकार यदा-कदा आलोचनात्मक टिप्पणियाँ और समीक्षाएं लिखते रहे हैं।
यह सच है कि आलोचना और कहानी की दुनिया में बनी पहचान और उससे उत्पन्न दबाव इन लेखकों को दोनों ही विधाओं में आवाजाही से रोकते हैं। क्या ही अच्छा होता कि यहां उल्लिखित कुछ लेखक (कहानीकार और आलोचक दोनों) समान रूप से दोनों विधाओं में सक्रिय हो पाते! निश्चय ही इससे दोनों विधाएं और समृद्ध हो सकती हैं। कुछ कहानीकारों को इस ग्रंथि से भी बाहर आने की जरूरत है कि कहानीकारों का काम सिर्फ कहानी लिखना है, आलोचना लिखना नहीं है।
(4)असगर गोंडवी का एक प्रसिद्ध शेर है-सुनता हूँ बड़े ग़ौर से अफ़्साना-ए-हस्ती/कुछ ख़्वाब है कुछ अस्ल है कुछ तर्ज़-ए-अदा है।
मतलब यह कि कहानी के लिए यथार्थ, स्वप्न और तर्ज़-ए-अदा तीनों की जरूरत होती है। इसमें से किसी एक के अभाव में कहानी, कहानी नहीं हो सकती। ऊपर से अनुभव का रिश्ता यथार्थ के साथ जुड़ता दिखाई पड़ता है। लेकिन संवेदना के सूक्ष्मतम स्तर पर जाएँ तो यथार्थ, स्वप्न और तर्ज़-ए-अदा इन तीनों से अनुभव का गहरा रिश्ता है। हिंदी कहानी में लंबे समय तक अनुभव को भोगे हुए यथार्थ तक सीमित करके देखा गया। कुछ लोग आज भी ऐसा ही कहते हैं। कुछ लोग यथास्थितिवाद को ‘वास्तविक जीवन में ऐसा ही होता है’ यानी भौतिक यथार्थ के तर्क और उपकरण से न्यायोचित ठहराते हैं। अनुभव के अतिरिक्त परकाया प्रवेश, स्वप्न, प्रतिरोध और वैचारिक स्पष्टता के बिना कहानी मनोरंजन का एक उपक्रम भर होकर रह जाएगी। आज लिखी जा रही कहानियों के बड़े हिस्से में इन तत्वों का अभाव दिखता है। लेकिन यह पहली बार नहीं है, कहानियों की भीड़ में सचमुच की अच्छी कहानियों की संख्या हमेशा से ही कम रही है। उन थोड़ी-सी अच्छी कहानियों को पहचानना कथालोचना की जिम्मेवारी और चुनौती दोनों है। इसके लिए कथालोचना को पहले बहुत सारी कमजोर और खराब कहानियों से गुजरने का धैर्य और साहस रखना चाहिए।
(5)भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी जिसकी मुकम्मल पहचान बन जाने की बात मैंने ऊपर कही, उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में कई नए कहानीकार उभर कर आए हैं। हालांकि उनका श्रेष्ठ अभी आना बाकी है, लेकिन अब तक प्रकाशित उनकी कहानियों के आधार पर मुझे जिन कहानीकारों में संभावनाएं दिखती हैं उनमें सोनी पांडे, दिव्या विजय, सिनीवाली शर्मा, रश्मि शर्मा, जमुना बीनी, कुंदन यादव, श्रीधर करुणानिधि, श्रद्धा थवायत, शुभम नेगी, नवनीत नीरव, किंशुक गुप्ता, उषा दशोरा, ट्विंकल रक्षिता, उज़्मा कलाम, निधि अग्रवाल, काव्या कटारे आदि के नाम तुरंत याद आ रहे हैं। गौर किया जाना चाहिए कि हिंदी कहानी की इन नई संभावनाओं में स्त्री कहानीकारों की संख्या ज्यादा है। यह हिंदी कहानी के एक नए युग की शुरुआत की तरफ संकेत है, जिसके मजबूत साक्ष्य भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी में भी देखे जा सकते हैं।
(6)दुनिया का साहित्य इस बात का साक्षी है कि कुछ गुणसूत्रों की समानता के बावजूद अपने संरचनात्मक अंतर के कारण कहानी और उपन्यास दो विधाएं हैं। जरूरी नहीं कि हर कथाकार कहानी और उपन्यास दोनों ही विधाओं में समान रूप से काम करे। चेखब और तोल्स्तोय से लेकर उदय प्रकाश और संजीव तक के उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि दोनों स्वतंत्र और समान रूप से महत्वपूर्ण विधाएं हैं। चूंकि पत्रिकाओं में धारावाहिक उपन्यास का प्रकाशन अब बीते दिनों की बात हो चुकी है और कहानियां संग्रह के रूप में प्रकाशित होने के पहले अमूमन पत्रिकाओं में छप चुकी होती हैं, इसलिए प्रकाशकों के लिए उपन्यास का प्रकाशन व्यावसायिक रूप से ज्यादा फायदेमंद है। यही कारण है कि विगत कुछ वर्षों में लंबी कहानियों को उपन्यास कहकर प्रकाशित किए जाने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। आलोचक भी बिना इस संरचनात्मक अंतर की बात किए उन लंबी कहानियों की प्रशंसा उपन्यास के रूप में कर रहे हैं। उपन्यासों की औसत लंबाई के घटने और कहानियों की औसत लंबाई के बढ़ने के प्रश्न को इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए। आज नए लेखकों में उपन्यास लेखन को लेकर एक होड़ भी देखी जा सकती है। ‘उपन्यास लिखना ही श्रेष्ठ कथाकार होने की निशानी है’ का भ्रम भी पोषित किया जा रहा है। प्रकाशन व्यवसाय का यह खेल चाहे जितना फले फूले, कहानी लिखना कभी खत्म नहीं होगा। विधा के रूप में उसकी पहचान हमेशा बनी रहेगी।
बी 53, सृजन विहार, एनटीपीसी कॉलोनी, कोहराड घाट, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश- 212308 मो. 9425823033
राहुल सिंह युवा आलोचक। विश्वभारती, शांतिनिकेतन में सहायक प्रोफेसर। अद्यतन पुस्तक ‘हिंदी कहानी अंतर्वस्तु का शिल्प’। |
एक-दूसरे को सराहने वाले रचनाकार भी सच बोलने की उम्मीद अलोचक से करते हैं
(1)किसी भी विधा की केंद्रीयता का सवाल मुझे अक्सर थोड़ा दूसरे कारणों से परेशान करता है। आखिर यह तय करने का पैमाना क्या है कि किसी विधा ने केंद्रीयता अर्जित कर ली है? इस सवाल पर रुक कर विचार करें तो पाएंगे कि यह सत्ताओं द्वारा निर्मित ‘नैरेटिव’ है। हिंदी समाज में नैरेटिव गढ़ने का काम साहित्यिक सत्ताएं और अकादमिक सत्ताएं करती रही हैं। इन सत्ताओं की संरचना में भी मूलभूत बदलाव आया है। जिस ‘नई कहानी’ के दौर में कहानी विधा की केंद्रीयता की बात की जाती है उस दौर के जरूरी नुक्ते की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ जिससे इस नैरेटिव की राजनीति को समझा जा सके।
नई कहानी के ‘थ्री मस्कीटयर्स’ में राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश गिने जाते हैं। और नई कहानी की पहली कृति निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ मानी जाती है। राजेंद्र यादव, कमलेश्वर प्रकारांतर से कहानी की केंद्रीयता के जरिए हिंदी जगत में अपनी केंद्रीयता को प्रतिस्थापित करने में लगे थे। गैर अकादमिक इलाके से हिंदी जगत में सेंधमारी की यह एक बहुत मजबूत कोशिश थी। इसमें धर्मवीर भारती भी जुड़ते हैं। लेकिन नई कहानी के साथ धर्मवीर भारती का नाम एकबारगी हिंदी जगत की प्रचलित समझदारी में नहीं कौंधता है।
नई कहानी के दौर की ही फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानियां भी हैं। लेकिन इतिहास के उस क्षण में जाकर देखें तो रेणु की कहानियां हों या उपन्यास, उनको सही तरीके से ‘परसीव’ नहीं किया गया था। जबकि नई कहानी के तीन पुरोधाओं के बरक्स आलोचना के शिखर पुरुष निर्मल वर्मा को प्रस्तावित कर रहे थे। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की क्षमता को चिह्नित करने का काम नलिन विलोचन शर्मा ने किया था, न कि नामवर सिंह ने। साहित्यिक सत्ता के भीतर भी आलोचना की अपनी सत्ता होती है। इसे नई कहानी के संदर्भ में नामवर सिंह के हस्तक्षेप से समझा जा सकता है।
फणीश्वरनाथ रेणु की अनदेखी दरअसल हिंदी की वर्चस्वशाली परंपरा के परंपरागत संस्कार का हिस्सा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली के रचनाकारों के सामने बिहार या अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों के रचनाकारों को उनका दाय ससमय तो नहीं ही मिला है। नैरेटिव निर्माण की अपनी राजनीति रही है। उस राजनीति को समझे बिना किसी विधा की केंद्रीयता के सवाल को संबोधित नहीं किया जा सकता है। इसलिए किसी विधा की केंद्रीयता वाले सवाल का कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता है।
इसे एक और उदाहरण से समझने की कोशिश कीजिए। छायावाद का जो दौर है, उस दौर के कहानीकारों का स्मरण कीजिए तो अकेले प्रेमचंद की कद्दावर मौजूदगी उस दौर में कविता की केंद्रीयता के परसेप्शन को धूलिसात करने के लिए पर्याप्त है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की मौजूदगी के बरक्स प्रेमचंद अकेले कथा साहित्य के इतिहास में एक विभाजक रेखा खींच देते हैं।
अकादमिक सुविधा के लिए छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता आदि का चलन एक साहित्यिक समझदारी का हिस्सा बन गया है। कोई चाहे तो इस पूरी अवधि में कविता की केंद्रीयता की मुनादी कर सकता है। लेकिन उसी दौर के कथा साहित्य को देखेंगे तो शायद यह दावा भी बेमानी जान पड़ेगा। रही बात वर्तमान दौर में यह केंद्रीयता अगर कहानी को हासिल नहीं है तो मेरे लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। बल्कि यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि तब किस विधा को यह दर्जा हासिल है और क्यों?
(2)जहां तक वर्तमान दौर की पीढ़ी की विविधता का सवाल है, इतना तो कहा ही जा सकता है कि हिंदी कहानी के इतिहास में इतने अलग-अलग अनुशासनों से आनेवाले कहानीकारों की मौजूदगी इससे पहले कभी नहीं देखी गई है। जाहिर है, अलग अनुशासन अनुभवों की एक अलग दुनिया साथ लेकर आता है। लेकिन इस पर यहां चर्चा संभव नहीं है।
इस वक्त कम से कम हिंदी कहानीकारों की पांच पीढ़ियां सक्रिय हैं। युवा पीढ़ी के कहानीकारों में शामिल पीढ़ी की ही बात करें तो कुणाल सिंह, चंदन पांडेय, राकेश मिश्र, मनोज पांडेय, आशुतोष कुमार, तरुण भटनागर, पंकज मित्र अब तक शानदार तरीके से रच रहे हैं। नीलाक्षी सिंह, किरण सिंह, उपासना के पास भी स्मरणीय कहानियां हैं। मनोज रूपड़ा, मो आरिफ, अनिल यादव, कैलाश वानखेड़े, प्रियदर्शन भी रह-रह कर लिख रहे हैं।
युवा पीढ़ी के बाद की पीढ़ी भी अब अपनी पहचान बना चुकी है। शिवेंद्र, रवींद्र आरोही, प्रवीण कुमार उसके चमकते नाम हैं। बनमाली ने इधर युवा पीढ़ी के कहानीकारों की एक नई खेप उतारी है। इसमें ‘शिया बटर’ कहानी काफी चर्चित रही। वरिष्ठ कहानीकारों में योगेंद्र आहूजा, आनंद हर्षुल, प्रियवंद आदि को हम सार्थक तौर पर रचते पा रहे हैं। इस बीच ‘नई वाली हिंदी’ के नाम पर एक पूरा कुनबा खड़ा हो चुका है जो लोकप्रियता और बाजार के हिसाब से विकसित हो रहा है।
रही बात इन कहानीकारों की मुख्य चिंताओं की तो सबकी अलग-अलग और कुछ साझी चिंताएं हैं। विमर्शों का असर साफ-साफ अस्मितामूलक विमर्श के कहानीकारों में देखा जा सकता है। लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं, इसको अलग-अलग संदर्भों से संबोध्य बनाने की कोशिश कहानीकारों के यहां देखी जा सकती है। बढ़ते अन्याय के मध्य न्याय की कामना को प्रकट करती कहानियां भी हैं। प्यार के नए शेड्स देखे जा सकते हैं। किंशुक गुप्ता की कहानियों में समलैंगिकता की एक अलग दुनिया ही आबाद है। पर इन सब पर थिरा कर बात किए जाने की जरूरत है।
(3)मैं दोनों बातों से असहमत हूँ। अव्वल मैं यह नहीं मानता कि आज कहानी आलोचना की स्थिति ठीक नहीं है और दूसरे कहानीकार आलोचकों की अनुपस्थिति की बात भी सही नहीं है। कृष्णमोहन, संजीव कुमार, राकेश बिहारी, वैभव सिंह, शंभु गुप्त, नीरज खरे, गौतम सान्याल, प्रियम अंकित और खुद मेरा काम मौजूद है। इसके अलावा जिन्होंने कहानियों पर कोई किताब नहीं लिखी हो उनके पास भी कहानी की बहुत बेहतर आलोचनात्मक समझ मौजूद है। अवधेश मिश्र और अरुणेश शुक्ला ऐसे दो नाम फौरी तौर पर याद आ रहे हैं।
अश्क और लक्ष्मीनारायण लाल के कहानी विषयक कामों से मैं वाकिफ नहीं हूँ। राजेंद्र यादव और कमलेश्वर के काम की तुलना में संजीव कुमार की ‘हिंदी कहानी की इक्कीसवीं सदी : पाठ के पास और पाठ से परे’ और मेरी सद्यःप्रकाशित ‘हिंदी कहानी : अंतर्वस्तु का शिल्प’ देखी जा सकती है। उसके बाद कोई तीसरा मूल्य निर्णय दे तो बेहतर होगा। इत्तेफाक से संजीव कुमार, वैभव सिंह, राकेश बिहारी और मैंने भी कहानियाँ लिखी हैं, फर्क इतना है कि हम कहानीकार-आलोचक न होकर आलोचक-कहानीकार हैं। वर्तमान पीढ़ी में कहानीकार-आलोचकों की राजेंद्र यादव या कमलेश्वर जैसी उपस्थिति नहीं है। उनकी कहानी आलोचना भी तत्कालीन साहित्यिक परिवेश के कई किस्म के शिविरबंदियों से प्रभावित थीं। कहानी का कोई खांटी आलोचक था तो वे सुरेंद्र चौधरी थे। कहानी के प्रतिमान और उपादान विकसित करने के लिए जितना वे जूझते दिखे उतना कोई नहीं दिखा।
राजेंद्र यादव या कमलेश्वर की भांति इस पीढ़ी के कहानीकारों को अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए पत्रिका निकालने और चलाने की आवश्यकता नहीं है। अपने आलोचनात्मक बोध को व्यक्त करने की मजबूरी उनके पास नहीं है। इसे उनके आलोचनात्मक विवेक के अभाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। कहानियों पर की जानेवाली अनौपचारिक बातचीत में उनका आलोचनात्मक विवेक देखते बनता है।
ऊपर जिन कहानी आलोचकों के नाम गिनाए गए हैं, उनसे इतर दो नाम यहां रख रहा हूँ। ये दो नाम प्रस्तावित करने के मूल में पिछले वर्ष उनके द्वारा किए गए दो अलग कहानियों के पुनर्पाठ हैं। एक तो चंदन पांडेय द्वारा ‘नमक का दारोगा’ का किया गया पाठ और दूसरे नाम से आप कहानी की आलोचना के संदर्भ में तो कम से कम परिचित नहीं ही होंगे। यह दूसरा नाम है सुदीप्ति का। उन्होंने इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ’ को नई रोशनी में पढ़ा और बहुत ‘कन्विंसिग’ पाठ विकसित किया। ये दोनों काम आला दर्जे की आलोचनात्मक समझदारी के परिचायक हैं। ऐसी प्रतिभाएं हिंदी में बिखरी पड़ी हैं। वे थोड़ी अनुशासित होकर इस दिशा में सक्रिय हो जाएं तो हम जैसों का भी कनात और तंबू उखड़ सकता है।
(4)अनुभव कहानी लिखने की शुरुआती पूंजी भर है। उसके बाद आपको अपना दायरा बढ़ाना पड़ता है। गम-ए-रोजगार और गम-ए-इश्क कुछ दिन काम आ सकते हैं। उसके बाद आपके पास क्राफ्ट से लेकर भाषा, उसे बरतने की तमीज और कहानी के अन्य घटकों के सम्यक परिपाक का एक स्पष्ट बोध होना चाहिए। दो-तीन छोटी कहानियों का जिक्र भर कर रहा हूँ, जिनमें अनुभव बस छटांक भर है, लेकिन उसको बरतने की अदा ने कमाल कर दिया है। उदय प्रकाश (नेलकटर), मो आरिफ (फुर्सत) और प्रियवंद (एक अपवित्र पेड़)।
हर रचनाकार अपने कहानी लेखन की प्रविधि और चिंताएं खुद विकसित करता है। एक वक्त था कि वैचारिक आग्रहों को धारण करनेवाली कहानियां भी संबंधित लेखक संगठनों द्वारा सराही और बढ़ाई जाती थीं। अब केवल स्टैंड भर से कहानी सराही नहीं जा सकती है, उसको आप सही से निभा ले गए हैं या नहीं, असल सवाल यह है।
अनुभव से इतर, पिछले कुछ वर्षों से कहानी विमर्शों का बहुत असर देखने को मिला। लेकिन कहानीकार एक सीमित दायरे में सिमट कर रह गईं, इनके मूल में उनके ‘फॉर्म्यूलेशन वाला मेथड’ रहा है। कुछेक कहानीकार ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने भाषा को कुछ ज्यादा काव्यात्मक, रूपकात्मक बनाने के फेर में खुद अपनी कहानी के दुश्मन बन बैठे। कुछेक में ब्यौरों को बरतने की बेचैनी दिखी। कुछ नई थीम और प्लॉट के फेर में परेशान रहे। इससे हुआ यह कि कहानी के नाम पर प्रयोगधर्मिता का एक बड़ा कबाड़ इकट्ठा हुआ। एक-दूसरे को परस्पर सराहने की सोशल मीडिया की आदत ने अलग ही माहौल बना रखा है। परस्पर एक दूसरे को झूठे सराहने वाले कहानीकार भी सच बोलने की उम्मीद आलोचक से ही करते हैं। बिगाड़ के डर के बावजूद ईमान की बात कहने का जिम्मा ऐसे भी आलोचक का ही ठहरता है।
(5)ऊपर कुछ नाम मैंने गिनाए हैं। और इधर तीन साल से जनजातीय संदर्भों में शोध के सिलसिले में समकालीन हिंदी कहानी से थोड़ा कटा हुआ हूँ तो अभी नाम गिनाने के क्रम में कुछ जरूरी नाम छूट सकते हैं। इसपर फिर कभी।
(6)कहानी को उपन्यास से कोई खतरा है, ऐसा मैं नहीं मानता। ऐसा मानने का कोई आधार मेरे पास नहीं है। पिछले वर्षों में जितनी उल्लेखनीय कहानियां मैंने पढ़ी हैं, उसी अनुपात में उपन्यास भी पढ़े हैं। दरअसल उपन्यास और कहानी ही नहीं, पूरे साहित्य को खतरा उन दोयम दर्जे के साहित्यकारों से है, जिनकी नेटवर्किंग, मार्केटिंग, ट्रोलिंग और परस्पर एक-दूसरे को सराहने की अदा ने इस वक्त को आक्रांत कर रखा है।
पाठकों के सामने असल चुनौती अर्थपूर्ण रचना तक पहुंचने की है। बल्कि यह चुनौती आलोचना के समक्ष भी आ खड़ी हुई है। औसत रचनाएं आसानी से अपनी रीच बढ़ाने की जुगत और जुगाड़ में दिन-रात लगी हैं। स्वाभिमानी लेखक भवभूति की तरह ‘उत्पस्यते मम तु कोपि समानधर्मा’ वाली मुद्रा में हैं।
हाल के वर्षों में साहित्य की पूरी पारिस्थितिकी बदल गई है। आलोचक, संपादक, लेखक संगठन सब पहले की तुलना में कमजोर हुए हैं। ये सब ‘चेक प्वाइंट्स’ थे। इन सारे चेकनाका के कमजोर होने से नई स्थितियां पैदा हुई हैं। इसे ठीक करना किसी अकेले के बूते की बात नहीं है। बाजार और सत्ता का अपना ‘एलगोरिदम’ काम कर रहा है। नफे-नुकसान को देखकर कोई कहीं भी ‘मैनुपुलेट’ हो जा रहा है, कर लिया जा रहा है। यह साहित्यकारों के लिए नहीं, संजीदा साहित्य और साहित्यकारों के लिए एक बुरा और कठिन दौर है। उन्हें अपनी रचनाशीलता पर भरोसा करके लिखते रहना होगा। असल न्याय तो समय ही करेगा।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी भवन, विश्वभारती, शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल-731235मो.7979847926
मृत्युंजय सिंह वरिष्ठ लेखक। आलोचना की दो पुस्तकें ‘कवियों की कहानियां : एक मूल्यांकन’ और ‘प्रगतिशील हिंदी आलोचना : विवाद और विमर्श’। हाल में ‘कथांतर’ के दो खंड प्रकाशित। |
पठनीयता, कलात्मक शर्त्तों और सामाजिक सरोकारों के बीच संतुलन जरूरी है
(1)आज की हिंदी कहानी का वर्तमान उतना ही शानदार और समृद्ध है जितना पहले था। यदि पंद्रह से बीस वर्षों का एक दौर मान लिया जाए, साहित्य सृजन के आकलन और मूल्यांकन के लिए, तो प्रत्येक दौर में दो से तीन पीढ़ियां एक साथ सक्रिय रही हैं। सृजन की दुनिया में कुछ पूर्व की पीढ़ी के कथाकार होते हैं, कुछ युवतर कथाकार होते हैं, जिनकी पहचान अब बन रही होती है। तीसरी, और मुख्य पीढ़ी के कथाकार वे होते हैं जो सृजन की प्रौढ़ता और निरंतरता के आधार पर स्थापित हो चुके होते हैं। इस तीसरी पीढ़ी के कथाकारों की सक्रियता और रचनात्मक प्रतिभा की बदौलत उस दौर की पहचान बनती है।
आज हिंदी कहानी ‘नई कहानी’ आंदोलन से बहुत आगे निकल चुकी है और निश्चित रूप से इसमें बहुत बड़ा योगदान बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों के कहानीकारों का है। आठवें दशक के कथाकारों ने ‘सामाजिक सोद्देश्यता’ और ‘राजनीतिक पक्षधरता’ जैसे नारों में सिमटकर चलनेवाली हिंदी कहानी को आम जनता के बीच लाकर वास्तविक जीवंतता प्रदान की थी। उनमें उदय प्रकाश, संजीव, अब्दुल बिस्मिल्ला, अरुण प्रकाश, शंकर, रामधारी सिंह दिवाकर, नर्मदेश्वर, अभय, महेश दर्पण, अनंत कुमार सिंह, महेश कटारे, विजयकांत, हरियश राय, प्रियंवद, अखिलेश, ओमप्रकाश वाल्मीकि, शैवाल, ॠषिकेश सुलभ, प्रेम कुमार मणि, राजेंद्र दानी, राजेंद्र लहरिया, नीरज सिंह, सुरेश कांटक, सारा राय और नूर जहीर आदि कथाकारों ने उस दौर के सामाजिक, राजनीतिक परिर्वतन और जीवन-यथार्थ को एक नई ताकत और भाषा-शैली में प्रस्तुत किया।
नौवां दशक आर्थिक उदारवाद और भूमंडलीकरण का दौर था जब बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने लोगों के समक्ष नई चुनौतियाँ पेश कीं, जिसमें प्रत्येक पहलू को पकड़ने के लिए कथाकारों की एक नई पीढ़ी सक्रिय हो गई। शिवमूर्ति, अवधेश प्र्रीत, राकेश कुमार सिंह, जयनंदन, संतोष दीक्षित, पंकज मित्र, योगेंद्र आहूजा, संजय खाती, संजय कुंदन, गौरीनाथ, सूर्यनाथ सिंह, रामदेव सिंह, सृंजय, कैलाश वनवासी, गीतांजली श्री, मैत्रेयी पुष्पा और एस. आर. हरनोट आदि कथाकारों ने पूरी साफगोई के साथ उस दौर की धड़कन को अपनी कहानियों में दर्ज किया।
इक्कीसवीं सदी के दो दशकों की कहानी-यात्रा का आकलन अभी कायदे से नहीं हुआ है। किंतु इस दौर के जिन युवा कथाकारों ने अपनी रचनात्मक सक्रियता और मौलिकता से अलग पहचान बनाई है, वे हैं : अरुण कुमार असफल, अनिल यादव, अनुज, प्रज्ञा, कुसुम भट्ट, मनोज कुमार पांडेय, विमलचंद पांडेय, महुआ मांझी, इंदिरा दांगी, विजय गौड़, सरिता कुमारी, श्रद्धा थवाईत, मजकूर आलम, भूमिका द्विवेदी, वंदना राग और आकांक्षा पारे आदि। ये कथाकार इस दौर की चुनौतियों का सामना करते हुए सामाजिक सरोकार और लोगों की वास्तविक चिंताओं को आगे रखकर कहानियां लिख रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पिछले बीस वर्षों से, बल्कि इसके पूर्व से हिंदी साहित्य के सृजन और विचार की द़ृष्टि से लोकप्रिय तीन पत्रिकाएं हैं: ‘परिकथा’ (शंकर), ‘हंस’ (संजय सहाय) और ‘तद्भव’ (अखिलेश), जो मुख्य रूप से कहानी प्रधान पत्रिकाएं हैं। और तीनों के संपादक अपनी-अपनी पीढ़ी के चर्चित कथाकार हैं। सवाल केंद्रीयता का नहीं, बल्कि रचनात्मक सक्रियता और स्तरीयता का है। इस लिहाज से हिंदी कहानी आज भी वैसी ही लोकप्रिय विधा है। आज हिंदी में युवा और युवतर कथाकारों की संख्या युवा कवियों से कम नहीं है।
(2)आज का समय आजादी के बाद का सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण दौर है- लेखक और पाठक दोनों के लिए। घनघोर उपभोक्तावाद और बाजारवाद के इस दौर में सबसे बड़ी समस्या है सामाजिक और मानवीय मूल्यों को बचाना। सबसे ज्यादा संकट में है किसान, मजदूर और समाज का निचला तबका। राजनीति में समाज के कमजोर तबके की चिंता करनेवाले लोग कम हैं। ऐसे में लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि यशलिप्सा से दूर रहकर अपनी कहानियों और रचनाओं में नए संकट की पहचान कराते हुए विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे लोगों की खोज-खबर ली जाए।
किंतु नए कथाकारों के साथ कुछ निजी और साहित्यिक समस्याएं भी हैं जिसकी चर्चा होनी चाहिए। इस नई पीढ़ी के लेखकों में गजब की गति और त्वरा है। साहित्य में इसका लाभ और नुकसान दोनों है। लाभ यह हुआ कि नए कथाकारों की लेखनी से कथा-सृजन की उत्पादकता तो बढ़ी, लेकिन रचना की गुणवत्ता के स्तर पर नुकसान हो गया।
इनमें से कुछ लेखकों की कहानियां फैक्टरी में उत्पादित वस्तुओं की तरह ‘फिनििंसंग टच’ के साथ शिल्प और भाषा के स्तर पर पाठक को चमत्कृत कर देनेवाली हैं, किंतु विचार और संवेदना की द़ृष्टि से निष्ठुर और भाव-शून्य। यहां नाम लेना उचित नहीं होगा, क्योंकि वे सृजनरत हैं इसलिए उनमें सुधार की पूरी संभावना है।
निस्संदेह इस पीढ़ी में कुछ ऐसे संजीदा कथाकार भी हैं, जिनकी रचनाओं से हिंदी कहानी समृद्ध होती है। उदाहरण के लिए प्रज्ञा (‘मन्नत टेलर्स’, ‘रज्जो मिस्त्री’, ‘भालूशाही…’, ‘मेरा छलिया बुरांश’), अनुज (‘ठेले पर लोग’, ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनियां’), कुसुम भट्ट (‘बीसवीं सदी की नायिका’), मनोज कुमार पांडेय (‘खजाना’, ‘शहतूत’), महुआ माझी (‘ताश का घर’, ‘रोल मॉडल’), इंदिरा दांगी (‘बोतल का पानी’, ‘गुड़ की डली’), विजय गौड़ (‘कूड़े का पहाड़’, ‘मासिक प्रीमियम’), मजकूर आलम (‘कबीर का मोहल्ला’), श्रद्धा थवाईत (‘हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी’), वंदना राग (‘अम्मा की डायरी’), भूमिका द्विवेदी (‘बोहमी’), मनीष वैद्य (‘घड़ीसाज’, ‘सुजनी’, ‘खैरात’), आकांक्षा पारे (‘बहत्तर धड़कन के तिहत्तर अरमान’) का नाम पूरे उत्साह के साथ लिया जा सकता है। इनकी कहानियों में बदलते परिवेश की सामाजिक समस्याओं और जीवन की विडंबनापूर्ण स्थितियों को दर्शाने या संबोधित करने का तरीका अन्य कथाकारों से थोड़ा अलग है। पठनीयता और कलात्मक शर्तों के साथ सामाजिक सरोकार का एक रचनात्मक संतुलन इनकी कहानियों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
(3)हिंदी कहानी-आलोचना की शुरुआत कायदे से ‘नई कहानी’ आंदोलन के साथ हुई है। इसके पूर्व कहानी आलोचना का व्यवस्थित रूप देखने को नहीं मिलता। व्यवस्थित रूप से पूरी तैयारी के साथ कहानी-आलोचना की शुरुआत डॉ. नामवर सिंह से होती है। नामवर सिंह मुख्य रूप से काव्य आलोचक रहे हैं, किंतु 1956 के बाद नई भाषा, नए शिल्प में लिखी जा रही ‘नई कहानी’ आंदोलन की कहानियों की पड़ताल करने के उनके प्रयास से हिंदी कहानी आलोचना की शुरुआत हुई थी। निश्चित रूप से कहानी और कहानी आलोचना की द़ृष्टि से वह समृद्ध काल रहा है। किंतु कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मार्कंडेय और निर्मल वर्मा द्वारा लिखी गईं कहानियों पर समीक्षाएं, कहानी के संबंध में उनके निजी पसंद-नापसंद की अभिव्यक्ति है। वह उनके निजी साहित्यिक विचार हैं, उसमें कहानी-आलोचना के संबंध में कोई सैद्धांतिक स्थापनाएं नहीं हैं। इसकी शुरुआत हिंदी में डॉ. नामवर सिंह से होती है। उसके बाद डॉ. सुरेंद्र चौधरी, डॉ. देवीशंकर अवस्थी और मधुरेश ने हिंदी कहानी आलोचना को आगे बढ़ाया था। आगे चलकर उस परंपरा को डॉ. शंभु गुप्त ने समृद्ध किया है। आज की कहानी-आलोचना में उनकी सक्रियता बेहद महत्वपूर्ण है।
कहानीकार-आलोचक आज के दौर में भी हैं। उदयप्रकाश, शंकर, अखिलेश और महेश दर्पण ने कहानीकारों और कहानियों पर जो मूल्यांकनपरक लेखन किया है वह कहीं न कहीं कहानी आलोचना को समृद्ध करनेवाला है।
(4)कहानी लेखन में अनुभव का महत्व है, किंतु इसके अलावा एक कथाकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है चीजों को नए ढंग से देखने की गहरी अंतर्द़ृष्टि और विचारशीलता। नए परिर्वतन और बदलते जीवन-यथार्थ के बीच नए कथ्य की पहचान के लिए अंतर्द़ृष्टि जरूरी है। नए कथ्य की पहचान के बाद बारी आती है भाषिक संवेदना और अभिव्यक्ति क्षमता की। यदि कथ्य की पहचान हो और उसके अनुरूप भाषिक-क्षमता न हो तो कहानीकार अपने विषय के साथ न्याय नहीं कर पाता है। इसीलिए सृजन के लिए मौलिक प्रतिभा की बात की जाती है। अवधेश प्रीत, संजय खाती, योगेंद्र आहूजा और कैलाश वनवासी के बाद अरुण कुमार असफल, प्रज्ञा, अनुज, मनोज कुमार पांडेय और विजय गौड़ आदि नए कहानीकारों की कहानियों को इसके प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। इन कथाकारों ने अपनी कहानियों में एक रचनात्मक संतुलन का निर्वहन किया है।
(5)युवा कहानीकारों की रचनाशीलता साबित करती है कि हिंदी कहानी का वर्तमान और भविष्य दोनों उज्ज्वल है और कहानी हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में बनी रहेगी। संभावनाओं से परिपूर्ण और जिनसे बहुत उम्मीदें हैं ऐसे युवा कथाकारों की चर्चा ऊपर मैं कर चुका हूँ। पिछले पांच-दस वर्षों से जो युवतर कहानीकार सक्रिय हुए हैं उनमें यदि सृजन की निरंतरता बनी रहती है तो वे अपनी पहचान खुद बना लेंगे और आगे उनका उल्लेख भी होगा।
(6)बाजारवाद या बाजार-सभ्यता का खतरा केवल कहानी को ही नहीं, बल्कि पूरा साहित्य-सृजन को है। बाजार-सभ्यता का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह अनजाने में जीवन की शांति को छीन लेती है, सौंदर्यबोध को प्रदूषित कर देती है। साहित्य और कथा सृजन से लोगों को धीरे-धीरे दूर कर देती है।
उपभोक्तावाद से प्रभावित सृजन के इस संकट में यदि उपन्यास लिखे जाएंगे तो निस्संदेह कहानियां भी लिखी जाएंगी। पत्रिकाओं के निरंतर निकलनेवाला कहानी विशेषांक और उनमें छपनेवाली कहानियों से हम आश्वस्त हैं कि हिंदी कहानी हाशिए पर नहीं जाएगी, साहित्य की मुख्यधारा में बनी रहेगी। इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है लोकतांत्रिक समाज-व्यवस्था में पनप रही एक तरह की तानाशाही और सांप्रदायिक फासीवाद। सत्ता के बढ़ते वर्चस्व को देखने से लगता है कि आगे का जीवन और सृजन दोनों कठिन होता जाएगा। ऐसे कठिन दौर के युवा लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी रचनाओं में और जीवन में भी संघर्षशील जनता के साथ खड़े रहें।
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय, सासाराम-821115 मो. 9430894765
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : फ़्लैट न. 3 ए, एम.एन. के. रोड, कोलकाता-700036 मो.9163297846