(1942- 2021)। दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर से 2007 में सेवानिवृत्त। पश्चिमी साहित्यशास्त्र के विशेषज्ञ। कोरोना की दुखद चपेट में असामयिक मृत्यु।

अंग्रेज़ी के एक बड़े आलोचक ने भाषा को मानव-मन के ऐसे ‘शस्त्रागार’ की संज्ञा दी है, ‘जिसमें अतीत के विजय-स्मारक और भावी विजय के शस्त्र एकसाथ छिपे रहते हैं।’ संकेत यह कि अतीत के प्रयोगों के आधार पर भाषा की शक्तियों का ज्ञान होता है और नए-नए संदर्भों में प्रयोग करके उसके अर्थ का विस्तार किया जाता है। आज के बहुत-से लेखकों की तुलना में निराला गद्य का महत्व अच्छी तरह समझते थे। इसलिए उन्होंने गद्य को ‘जीवन-संग्राम की भाषा’ कहा था। साहित्य का विकास बहुत-कुछ भाषाई विकास पर भी निर्भर है। लिखित भाषा में शक्ति तब आती है जब उसकी लय बोलचाल की भाषा की लय के अनुसार हो, जब भाषा ‘बहती हुई और प्रकाशनशील’ हो। तभी उसमें काव्य, नाटक, उपन्यास आदि के अंतर्गत श्रेष्ठ कृतियों की रचना संभव है।

भाषा की शक्ति के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में निराला ने जनपदीय बोलियों की ओर संकेत किया है, ‘मेरी बैसवाड़ी, माता-पिता की दी विभूति, जिससे सभी रसों के स्रोत फूटकर निकले हैं, साहित्यिकों में प्रसिद्ध है।’ इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाषा में हमारे जातीय जीवन की पहचान छिपी रहती है। इसलिए भाषा को देखकर हम उस भाषा से संबद्ध लोगों की जातीय स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। निराला के अनुसार, ‘भाषा-साहित्य के भीतर हमारी जाति टूटी हुई विकलांग हो रही है। बाहर से ज्यादा मजबूत नहीं, भीतर उसके पराजय के प्रमाण मिलेंगे।’ प्रकृति में जो ॠतु-परिवर्तन होता है, उसमें मृत्यु का भय नहीं रहता। धीरे-धीरे एक नवीन जीवन प्राप्त होता रहता है, भाषा के भीतर से भी इसी तरह नितनवीन विकास प्राप्त होते रहने चाहिए। निराला के अनुसार, ‘भाषा अच्छी वह है जिसमें जल्द-से-जल्द अधिक-से-अधिक वाक्य लिखे और बोले जा सकें।’ ऐसी बहती हुई भाषा में ही उत्तम रचनाएं तैयार हो सकती हैं। ऐसी पारदर्शी-प्रवाहमयी भाषा ऐसी विश्वदृष्टि पर निर्भर है जिसके दायरे में पूरी मानवता आ सके।

जनपद, जाति, राष्ट्र और विश्व परस्पर संबद्ध हैं, उनमें कोई अंतर्विरोध नहीं है। रामविलास शर्मा कहते हैं, जातीयता राष्ट्र के अंतर्गत किसी विशेष प्रदेश से अपना संबंध जोड़ती है। वह जनपदों की सीमाएं नहीं मानती। वेदांत (?) मानवता के आगे राष्ट्रीयता सीमित है, राष्ट्रीयता के आगे जातीयता सीमित है और जातीयता के आगे जनपदीयता सीमित है।’ (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश)

साहित्यकार के लिए जनपदीयता, जातीयता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता (मानवता) में कोई अंतर्विरोध नहीं है : ‘राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए अपने प्रदेश की जनता की उन्नति भी आवश्यक है। इस प्रकार जातीयता राष्ट्रीयता से जुड़ जाती है। जातीय प्रदेश की उन्नति के लिए कवि को किसी सीमित क्षेत्र से शुरुआत करनी होगी। वह उसका जनपद होगा। इस तरह जनपदीयता जातीयता से, जातीयता राष्ट्रीयता से और राष्ट्रीयता मानवतावाद से जुड़ जाती है।’ (वही)।

निराला के आलोचनात्मक निबंधों की भाषा अत्यंत रचनात्मक है, जीवन-संग्राम का स्पर्श लिए हुए। कविता की गहरी समझ के साथ-साथ व्यंग्य और विनोद से दीप्त। वे चाहे अपने साहित्यिक विरोधियों पर लिखें अथवा अपने प्रिय रचनाकारों (जैसे तुलसीदास, रवींद्रनाथ, कबीर आदि) वेअंध-विरोध या अंधश्रद्धा को स्थान नहीं देते। वे यह जानते हैं कि विरोध करते समय भी आलोचक को तर्क का आधार कभी छोड़ना नहीं चाहिए।

निराला ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है,‘साहित्य में भावों की उच्चता का ही विचार रखना चाहिए। भाषा भावों की अनुगामिनी है।’ (साहित्य और भाषा) भाषा में स्वाभाविकता होनी चाहिए, भावानुरूपिणी स्वाभाविकता। निराला के अनुसार, सरल भाषा के नाम पर जनता को ‘अहितकर सीख’ न देकर कुछ परिश्रम करने के लिए ही कहना उचित होगा। जो लोग हिंदी की क्लिष्टता को लेकर सवाल उठाते हैं वे, वास्तव में, ‘जानते बहुत थोड़ा हैं।’ (वही) वे अकसर यह ‘चीत्कार करते’ सुने जाते हैं कि ‘भाषा सरल होनी चाहिए।’ यह कोई नहीं कहता, ‘शिक्षा की भूमि विस्तृत होनी चाहिए, जिससे अनेक शब्दों का लोगों को ज्ञान हो, जनता क्रमश: ऊंचे सोपान पर चढ़े।’ (वही) भाषा पर अधिकार यों ही नहीं हो जाता, उसे परिश्रम से अर्जित करना होता है। जो लोग अपनी पुस्तकों के प्रचार के लिए भाषा को सरल रखने का प्रयत्न करते हैं, वे ऐसा ‘व्यवसाय की दृष्टि से’ करते हैं।  

निराला कहते हैं, अपनेआप निकली हुई और गढ़ी हुई भाषा छिपती नहीं। भावानुसारिणी भाषा कुछ मुश्किल रहने पर भी समझ में आ जाती है। उसके लिए कोश देखने की जरूरत नहीं पड़ती।’ (वही)

निराला की कविताओं के बारे में शिकायत की जा रही थी कि वे समझ में नहीं आतीं। निराला ने अत्यंत विनम्र स्वर में लिखा,‘मैं अपनी तरफ से इतना ही कहूंगा कि छायावाद की कविताएं भाषा-साहित्य के विकास के विचार से अधिक विकसित रूप हैं।’ (वही) जहां-जहां धुंधलापन है, ‘भावों का अच्छा प्रकाशन नहीं हुआ, चित्र चमकते हुए नजर नहीं आते’, वहां समझना चाहिए कि ‘सामयिक दुर्बलता’ है, कवियों को उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।’

निराला के अनुसार भाषा में प्राणशक्ति जातीय जीवन पर निर्भर है। वर्तमान खड़ीबोली हिंदी से पहले ब्रजभाषा हिंदी प्रदेश की काव्यभाषा थी।  निराला ने लिखा, ‘ब्रजभाषा के कवियों ने सौंदर्य को इतनी दृष्टियों से देखा है कि शायद ही कोई सौंदर्य उनसे छूटा हो।’ (पंतजी और पल्लव) निराला के अनुसार,‘पहले के अनेक मुसलमान कवि ब्रजभाषा के रंग में रँग गए थे। उनके पद्य हिंदू-कवियों के पद्यों से अधिक मधुर रहे हैं। वही स्वाभाविक रचाव खड़ीबोली की कोमलता तथा व्यापकता में आना चाहिए।’ (साहित्य और भाषा) निराला ने प्रश्न उठाया,’हिंदी में ब्रजभाषा-जैसी व्यापकता, क्यों नहीं है? निराला ने खुद जवाब दिया, ‘हमी ने कमजोर होकर अपने शासन के लिए दूसरों को आमंत्रित किया, और जब तक दूसरे हमारे शासक रहेंगे, तब तक हम अपनी जातीय प्रतिष्ठा, जातीय मुक्ति प्राप्त न कर सकेंगे।’ (हिंदी कविता-साहित्य की प्रगति) जिस तरह बाहरी दुनिया में शासक और शासित हैं, उसी प्रकार साहित्य की दुनिया में भी। कारण, ‘साहित्य किसी जाति का ही साहित्य हुआ करता है और यदि वह किसी दुर्बल जाति का हुआ तो दूसरी सबल जाति का उस पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक हो जाता है।’ (वही) यह सार्वकालिक नियम है, ‘इसी नियम के कारण प्रभावित जाति प्रभावशालिनी के रहन-सहन, आहार-विहार, चाल-चलन, वेशभूषा, भाव-भाषा आदि सभी अंगों का अनुकरण करती है और इस तरह उसके पहले के स्वरूप में इतना अंतर पड़ जाता है कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।’ (भाषा की गति और हिंदी की शैली)

यदि जाति कमजोर है, पराजित है, अंदर से टूटी हुई है, तो उसका साहित्य भी कमजोर होगा। जातीय चेतना से अनुप्राणित साहित्य ‘जाति में जागृति का युग पैदा कर देता है।’निराला ने लिखा,‘यदि उसके साथ जातीय जीवन का भी संबंध है तो यह निश्चित रूप से कहा जाएगा कि प्राणशक्ति उस भाषा में है।’ (मेरे गीत और कला)

निराला बिना किसी भेदभाव के कहते हैं,आज राष्ट्रभाषा के भीतर से जिस राष्ट्र का उत्थान अपेक्षित है, वह ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों या अपर किसी जाति अथवा धर्म का राष्ट्र नहीं।’ (वही)

उन्नीसवीं सदी के आरंभ में अनेक ऐसे साहित्यिक जो उस समय तक ‘नवीन भावनाओं’ का महत्व नहीं समझ सके थे, ब्रजभाषा के प्रभाव के कारण ‘प्राचीन वातावरण में ही’ विचरण कर रहे थे। इसलिए उनकी बुद्धि रूढ़िगत बनी हुई थी। उनमें बुद्धि का विकास नहीं हुआ। निराला ने लिखा, ‘आज हिंदी की जिन भावनाओं की जरूरत है, वे अपनी सर्वोच्च स्थिति में ब्रजभाषा-साहित्य से बढ़कर अवश्य नहीं, पर उनके विकास की प्रथाओं से ही साहित्य की नाड़ियों में नया खून बहता है। ऐसे ही दृश्य हमें दूसरे साहित्य के आरंभ-काल में देखने को मिलते हैं। धर्म, समाज और जातीयता की जो भावनाएं ब्रजभाषा-साहित्य में हैं, आज वे बिलकुल बदल गई हैं। वह समय धर्म-संकोचवाला था, यह प्रसारवाला है। वह पौराणिक था, यह वैदांतिक है। वह एक ही देश में बँधा था, यह सब देशों का समन्वय लिए हुए है।’ (नाटक)

‘पंतजी और पल्लव’ निबंध निराला ने उस समय लिखा जब निराला अपने गांव में थे और वहां निबंध लिखने के लिए, वह भी अपना एक मुख्य आलोचनात्मक निबंध लिखने के लिए, अपेक्षित साधन न थे। उन साधनों का अभाव महसूस होता था। इस बारे में कैफियत देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘जगह ज्यादा घिर जाने के भय से अंगरेजी कवियों के उद्धरण मैं न दे सका। और, यहां उद्धरण के लिए मेरे पास साधन भी कम हैं। देहात है, आवश्यक पुस्तकें यहां नहीं मिलतीं, स्मरण और कुछ पुस्तकों की सहायता से मित्रों के आग्रह को पूरा कर रहा हूँ।’ (पंतजी और पल्लव)

‘गीतिका’ की भूमिका में निराला ने यह पीड़ा व्यक्त की है कि गीतों की स्वर-लिपि वे स्वयं करना चाहते थे, ‘पर कुछ ऐसी परिस्थिति मेरी रही कि एक तरफ से अभाव-ही-अभाव का सामना मुझे करना पड़ा। एक अच्छे हारमोनियम की गुंजाइश भी मेरे लिए नहीं हुई।’ यहां सीधे तथ्य-कथन है। फिर भी समाज पर तो यह व्यंग्य ही है, विशेष रूप से हिंदीभाषी समाज पर, जो जातीय चेतना के अभाव की वजह से बड़े-से-बड़े संस्कृति-पुरुषों के प्रति अपनी कोई जिम्मेवारी महसूस नहीं करता।

निराला ने छायावादी दौर के कवियों पर विचार किया है। इन कवियों में प्रसाद और पंत का मूल्यांकन विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करता है, प्रसाद और पंत मेरे लिए दोनों ज्योतिर्नयन, हिंदी के प्रियदर्शन कवि हैं।’ (सौंदर्यदर्शन और कविकौशल) निराला ने जयशंकर प्रसाद को हिंदी के नवीन युग (छायावादी युग) का तपस्वी कविकहा है।

निराला को मध्यवर्ती मार्ग पसंद है, ‘मैं इन पूर्वीय और पश्चिमीय दोनों तरीकों के बीच में रहना पसंद करता हूँ।’ (वही) निराला को सर्वाधिक आश्चर्य इस बात से हुआ, ‘जिस समय खड़ीबोली के लिए विशेष साधन उपलब्ध न थे, उस समय ‘प्रसाद’ जी ने कैसे इतने मार्जित और मनोहर शब्दों के आभूषणों से अपनी कविता को अलंकृत कर दिया। … न कोई दर्प है, न कोई दुर्बलता।’ (वही) उक्त निबंध में प्रसाद और पंत के अलावा जिन अन्य कवियों की चर्चा हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, उनमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, मुकुटधर पांडेय और भगवतीचरण वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं।

समसामयिक कवियों का उक्त मूल्यांकन संक्षिप्त होने के बावजूद महत्वपूर्ण है। इस मूल्यांकन में उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें विविध कवियों की भाषा, भाव और दृष्टि के बारे में जो मूल्य-निर्णय दिया गया है, उससे असहमत होना मुश्किल है। इस मूल्य-निर्णय में आलोचकीय प्रतिभा और अंतर्दृष्टि का साक्ष्य मिलता है।

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