मालती जोशी
4 जून 1934 – 15 मई 2024

सुपरिचित कहानीकार। हिंदी के अलावा मराठी में लेखन। मध्यांतर’, ‘एक घर सपनों का’, ‘ऑनर कीलिंग और अन्य कहानियांप्रमुख कहानी संग्रह। कुछ कहानियों पर फिल्म निर्माण।

निर्मला डोसी
वरिष्ठ लेखिका। लोक साहित्य पर तीन पुस्तकें, एक काव्य संग्रह, एक कथा संग्रह तथा साक्षात्कारों पर दो पुस्तकें।

 

निर्मला डोसी : आप मराठी परिवार से हैं पर हिंदी तथा मराठी दोनों ही भाषाओं में लेखन किया है!

मालती जोशी: हम लोग मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। घर से बाहर निकलते ही हमारा सामना हिंदी से होता है। हिंदी मेरे लिए मातृभाषा जैसी ही है। मराठी में हिंदी की तुलना में कम लिखा है। अपनी कुछ हिंदी कहानियों का मराठी अनुवाद मैंने किया है।

मराठी साहित्य से थोड़ा जुड़ाव ऐसे हुआ कि बचपन में पढ़ने लायक साहित्य मिला ही नहीं। मां के लिए घर में मराठी पत्रिकाएं आती थीं। मैं उन्हें ही चाट जाती। उन पृष्ठों पर अपना नाम देखने की लालसा थी तो कालांतर में पूरी हुई।

निर्मला डोसी : लेखन के लिए कैसा माहौल चाहिए?

मालती जोशी: माहौल की च्वाइस महिलाओं के पास कहां होती है। मैंने कभी सुबह उठकर नहीं लिखा, कभी रात को जाग कर भी नहीं लिखा। वह सारा समय परिवार का होता है और गृहकार्य का एक लंबा सिलसिला सुबह से शुरू करना पड़ता है। मेरा अधिकांश लेखन दोपहर में हुआ, जब पति दफ्तर और बच्चे स्कूल चले जाते। सहृदय पति ने कभी कोई व्यवधान नहीं डाला। घर में मेहमानों का रहना हमारे परिवार का स्थायी भाव है और उस वक्त तो कलम हाथ में ले ही नहीं सकते थे।

निर्मला डोसी : क्या आपको विशेष तरजीह नहीं दी गई? महिला रचनाकारों के जीवन में अकसर ऐसा होता है?

मालती जोशी: मुझे पुरस्कार कम और सम्मान ज्यादा मिला है। 1883 में मराठी पुस्तक ‘पाषाण’ को महाराष्ट्र शासन का पुरस्कार मिला था, जिसकी सारी उठा-पटक प्रकाशक ने की थी। मैंने अपनी तरफ से पुरस्कार के लिए कोई पुस्तक कहीं नहीं भेजी, न कभी समीक्षा के लिए भेजी। सम्मानों की लिस्ट खासी बड़ी है। हिंदी के मठाधीश मेरी रचनाओं को घरेलू कहकर खारिज करते रहे, पर यही घरेलूपन मेरी लोकप्रियता का मुख्य कारण है। इसी घरेलूपन की वजह से सभी कहानियां पाठकों को अपनी-सी लगती है।

निर्मला डोसी : टीवी के लिए भी आपकी रचनाओं का चुनाव हुआ था?

मालती जोशी: हां, गुलजार साहब ने ‘किरदार’ नाम से और जया बच्चन ने ‘सात फेरे’ नाम से धारावाहिक बनाए थे। आकाशवाणी से निरंतर प्रसारण होता था।

निर्मला डोसी: कहानी की शुरुआत कैसे की जानी चाहिए?

मालती जोशी: यह लेखक के संयोजन कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस तरह कल्पना और यथार्थ में, भाषा और शिल्प में, अनुभूति और अभिव्यक्ति में तारतम्य  बना कर रखता है। कथा के बीज आसमान से नहीं लाए जाते। वे इसी धरती से उठाए जाते हैं। इसमें सावधानी बरतनी पड़ती है। यही कौशल कहानीकार को आम आदमी से अलग करता है, उसे लेखक बनाता है, उसकी कृति को कलाकृति बनाता है।

निर्मला डोसी :  कहानी का अंत सकारात्मक अच्छा होता है या नकारात्मक?

मालती जोशी: कहानी लिखने की कोई सेट रेसिपी नहीं है कि 10 ग्राम यथार्थ, 70 ग्राम कल्पना, 25 ग्राम हास्य-व्यंग्य का पुट, 20 ग्राम सस्पेंस का तड़का, उस पर 25 ग्राम रोमांस की गार्निशिंग करके कहानी पाठक को परोस दी जाए। दरअसल कहानी का लगा-बंधा फार्मूला होता ही नहीं। लेखक की सोच और हाथ की  कलम अपनी रचना को बाहर ले आते हैं। वह सकारात्मक भी हो सकती है तो नकारात्मक भी।

निर्मला डोसी : आप भेंट में मिली पुस्तकों को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया पत्र द्वारा देती हैं और आपका पत्र धरोहर बन जाता है। वह परंपरा लुप्त प्रायः हो रही है, इसपर क्या कहना है?

मालती जोशी : मैं अपने पत्र कभी अनुत्तरित नहीं रहने देती। छात्र जीवन में एक सेलिब्रिटी को पत्र लिखा था। शायद कॉपी का पेज फाड़ कर लिखा होगा। उस वक्त लेटर पैड वगैरह जानती ही नहीं थी। उनका बड़ा कठोर जवाब आया कि -ये पत्र लिख रही हो, यह तो सोचना चाहिए कि किसको पत्र लिख रही हो। ढंग का कागज तक नहीं मिला। यह बात मेरे मन में गहरे पैठ गई। इसलिए मैं अपने हर पाठक के पत्र का जवाब देती हूँ।

निर्मला डोसी : क्या हिंदी लेखक आर्थिक रूप से अपने लेखन पर निर्भर रह सकता है?

मालती जोशी: जी नहीं, हिंदी का लेखक कलम के बल पर नहीं जी सकता। आधी पत्रिकाएं  मानदेय देती ही नहीं हैं। प्रकाशक घाटे का रोना  रोते रहते हैं। कई अपने अनुबंध से मुकर कर लेखक के पैसे डकार जाते हैं। दोनों वक्त चूल्हा जलता रहे, इसके लिए लेखक को कुछ दूसरा काम करना जरूरी है।

निर्मला डोसी : परंपरा और नएपन पर आपके क्या विचार हैं?

मालती जोशी : जो पुराना है उसमें अच्छा है उसे बचाना है और आंख मूंदकर नए को अपनाने से पूर्व उसका औचित्य परख लेना जरूरी है। हम मुड़कर सोलहवीं सदी में तो नहीं जा सकते। हमें इसी सदी के साथ कदम मिलाकर जीना चाहिए।

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