युवा कवि।काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल में सहायक प्रोफेसर

ज्ञानपीठ से पुरस्कृत हिंदी कवि केदारनाथ सिंह, जो मेरे गुरु रहे हैं, कुछ साल और जीते।उनके शरीर के सारे अंग सुचारु रूप से कार्य कर रहे थे।अपना काम अपने से कर लेते थे, चाहे नहाना हो या दाढ़ी बनाना।वे ट्रेन में या हवाई जहाज में अकेले यात्रा कर लेते थे।इस आखिरी साल भी कोलकाता एयरपोर्ट से मैं उन्हें टैक्सी में लेकर हावड़ा में उनकी बहन के घर पहुंचा गया था।

याददाश्त अच्छी थी।हां, कुछ चीजें भूल जाते थे, पर ज्यादा नहीं।मुझे अच्छी तरह से याद है वह आखिरी साल, जब उन्हें कोलकाता एयरपोर्ट से लेकर हावड़ा आया था।सप्ताह भर बाद ही उनसे मिलने गया।उन्होंने कहा- इस बार तुम बहुत दिन बाद आए? -नहीं सर, पिछले सप्ताह ही तो आप आए हैं।आपको एयरपोर्ट से लेकर आया था।केदारनाथ जी ने कहा- मुझे लगा कि तुम एक महीने बाद आए हो।उनका यह कथन संकेत में बहुत कुछ कह जाता है।

अभी भी लोगों को उनके नाम से पुकारते थे, जगहों को भी उनके नाम से।किसी घटना को याद करते तो साल भले भूल जाते, पर घटनाएं और चरित्र याद थे उन्हें।निर्मला जी के घर कितनी शामें फिल्मों, गीतों, पुराने जमाने की नायिकाओं और लोगों की बातों को याद करते बीतीं।हमलोग उन्हें मुस्कराते हुए देखते थे।निर्मला जी के पोते इनान से वे अंग्रेजी में बात करते थे।उसे थपथपाते हुए, उसकी बातों में आनंद लेते हुए उससे गप्प करते।और तो और बांग्ला कवि शंख घोष के साथ बिताए क्षणों को भी उसी तरह याद करते थे।हावड़ा में रहते हुए रोज सुबह टहलने जाते और अक्सर शाम को स्थानीय दोस्तों के साथ समय बिताते।

मैंने उन्हें दिल्ली में भी शाम को घर के पीछेवाले लेन में टहलते देखा है।उनके साथ एक बार टहला भी हूँ।एक बार उनका फोन साहित्य अकादेमी के एक कार्यक्रम में छूट गया था।टच के जमाने में भी वे टिप-टिप वाले फोन का इस्तेमाल करते थे।मैं उन्हें लैंडलाइन पर फोन करके उन्हें उनका मोबाइल देने गया था।उन्होंने कहा कि पीछे लेन में आ जाना, मैं वहीं तुम्हें मिलूंगा।मैं पहुंचा तो वे टहल रहे थे।पूछा- जल्दी तो नहीं है? मैंने कहा- न।उस दिन एक लंबी दूरी तक मैं भी उनके साथ  चला।उन्होंने बताया कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उनके घर के काफी नजदीक रहते थे।सौमित्र मोहन यहीं रहते हैं।और भी कई बातें।उसी मुलाकात में उन्होंने वागीश शुक्ल की प्रशंसा की।वे उनकी विद्वता से प्रभावित थे।एक बार कोलकाता के सटर्डे क्लब में उन्होंने भोपाल की गैस त्रासदी की यादों को हमलोगों से साझा किया था, रोंगटे खड़ी कर देनी वाली बातें थीं।

मैं इतना सिर्फ यह कहने के लिए लिख रहा हूँ कि यह कोई उम्र नहीं थी उनके जाने की, वह भी निमोनिया से।इतने बड़े जीवन का, इतना छोटा अंत।अभी उन्हें अपने जीवन के संघर्षों के बारे में लिखना-बताना था।यह बताना था कि कविता में उन्होंने बीस साल का लंबा इंतजार क्यों किया? अनुमान नहीं, हमलोग उनके मुंह से सुनना चाहते थे कि इतना लंबा गैप, क्यों?

पर क्या है कि कुछ चीजें अचानक घट जाती हैं।जीवन आपके कलकुलेशन से नहीं चलता।वह अपनी गति से चलता है।कुंवर नारायण थोड़े समय पहले चले गए थे।इससे वे व्यथित थे।नामवर सिंह घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे।उनके भूलने की बीमारी चरम पर थी।इससे भी वे  आहत थे, पर थे स्वस्थ।वे आराम से घर से निकलते थे, दोस्तों से मिलते थे और सबसे दुआ-सलाम करते-कहते धीरे-धीरे अपने घर में आकर विश्राम करते थे।उन्हें अभी नहीं जाना चाहिए था।

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किसी के नहीं रहने पर उसके होने का बहुत बोध होता है।वह कितना बड़ा था, एक दिन आपको याद आता है।तब आपको लगता है कि कितना कुछ पूछना, जानना और सुनना बाकी रह गया।जीवन में एक अधूरापन तभी बनता है, फिर रोज बनता है।आप बिताए हुए पलों को फिर जीने लगते हैं।

एक दिन सुबह जल्दी नींद खुल गई।घड़ी में चार पचास था।बाहर हल्का अंधेरा था।याद आई सुबह-सुबह कुआनो नदी में कमर तक पानी में खड़ी मां, मां के साथ कई स्त्रियां।सूर्य के उगने का इंतजार करती हुईं।फिर केदारनाथ सिंह याद आए।उन्हें छठ पूजा का प्रसाद ठेकुआ कुछ ज्यादा ही पसंद था।आज मां और केदारनाथ सिंह अचानक याद आ रहे हैं।दोनों के पास नहीं रहने से मन कैसा-कैसा हो रहा है।मां इस समय गुजरात में बड़े भैया के पास हैं।इस समय वह सो रही होंगी।यहां मेरे पास होतीं तो चाय बनाकर जगाता।उन्हें सुबह-सुबह चाय पीना अच्छा लगता है।केदार जी को भी लगता है।किसे सुबह चाय अच्छी नहीं लगती है भला?

यह मार्च मुझे खराब लगने लगा है, जबकि एक समय मार्च ही मुझे खूब पसंद था।१९ मार्च को केदार जी रुखसत हुए थे।वे इन दिनों जब होते थे कोलकाता में, तो कोलकाता की गुलाबी ठंड की तरह होते थे।

निर्मला जी के पास भी कितनी यादें हैं केदारनाथ सिंह की।अब यादें ही पूंजी हैं हमलोगों के पास।फुर्सत के पलों में हम बार-बार खोलकर देखते हैं।फिर आप उन यादों को जीने लगते हैं।उन पलों को जो आपने किसी व्यक्ति के साथ बिताए हैं।वे आपको रोमांचित करती हैं।फिर अवसाद से भर देती हैं।गले तक अवसाद।आप कुछ बोल नहीं पाते।आंखें भर आती हैं।उन पलों के अलावा वे कुछ देख नहीं पातीं।फिर घड़ी छह की घंटी बजाती है और आपको अचानक लगता है कि पिछले सवा घंटे से आप गुरुवर केदारनाथ सिंह और मां के साथ थे।

एक दिन जेएनयू के ट्रिपल एस आडिटोरियम में कोई कार्यक्रम था।कार्यक्रम के बाद चाय की व्यवस्था थी।

चाय की लंबी लाइन लगी हुई थी।मैं लाइन में खड़ा था, तभी मुझे केदारनाथ सिंह दिख गए।यह केदारनाथ सिंह जी से मेरी तीसरी मुलाकात थी।वे अब मुझे पहचानने लगे थे।मैंने कहा- सर, आप रुकें, मैं आपके लिए चाय लाता हूं।उन्होंने कहा- शक्कर कम लाना।हमलोग चाय पी रहे थे।वे मेरे बारे में हल्का-फुल्का कुछ पूछ-पाछ रहे थे।तभी बाहर बारिश शुरू हो गई।वे बारिश को देखने लगे।वे उसे एन्जॉय कर रहे थे।मैंने देखा, वे काफी देर तक बारिश को देखते रहे, जैसे उसे अपने चेहरे पर महसूस कर रहे हों।इतनी सुंदर बारिश और उसे मुग्ध नायक की तरह निहारना एक सहृदय कवि ही कर सकता है।वे थोड़ी देर के लिए भूल गए थे कि बगल में कई अन्य लोग चाय पी रहे हैं।जब वे घूमे तो मैं बगल में खड़ा था।मैंने कप-प्लेट लेना चाहा उनके हाथ से ताकि उन्हें सही जगह रख दूं।उन्होंने नहीं दिया।वे खुद उन्हें सम्मान के साथ रखने गए।पीछे-पीछे मैं भी गया।अभी भी बाहर बारिश हो रही थी।

अचानक सर ने कहा- तुम्हारी बारिश वाली कविताएं अच्छी हैं।मैं चौका, थोड़ा सिहरा, रोमांचित हुआ।फिर धीरे से पूछा- सर, आपने कहां पढ़ीं? बोले, याद नहीं, पर उसमें तुम्हारा नाम था, पेरियार हॉस्टल, जेएनयू का पता था।पहले मैं पेरियार के बगल में ही रहता था।मैं आश्चर्यचकित हुआ कि केदार जी हम नए लोगों को भी पढ़ते हैं।

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केदार जी जितने करीने से अपने कमरे को सजाकर रखते थे, ऐसा लगता था कि वे कमरे के मालिक नहीं, बल्कि अतिथि हैं।वे कमरे में अतिथि की तरह रह रहे हैं।हो सकता है कि उनके कमरे की साफ-सफाई का दायित्व किसी दूसरे पर हो, लेकिन पता नहीं क्यों मेरा मन कहता है कि वे अपने कमरे के प्रति काफी सम्मोहित रहते होंगे।क्योंकि एक बार कोलकाता में उनकी बहन के घर से जब हमलोग हिंदी मेला (कोलकाता का गौरवशाली सप्ताह व्यापी साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम) में सुबह-सुबह जा रहे थे और मैं टैक्सी लेकर उन्हें लेने पहुंचा तो केदार जी करीने से सजे हुए- मफलर, टोपी, कोट पहने हुए तैयार होकर बैठे थे।

सुंदर दिखना भी कविता होना नहीं है क्या? केदार जी अपनी कविताओं की तरह सुंदर-सौम्य दिखते थे।वे शायद रोज दाढ़ी बनाते थे।क्लीन शेव्ड रहते थे।कभी बढ़ी दाढ़ी और मूछों में मैंने उन्हें नहीं देखा।नफासत पसंद आदमी थे।इसका मतलब यह नहीं है कि वे संभ्रांतता को एन्जॉय करते हों।वे डाउन टू अर्थ थे।वे जब जैसा, तब तैसा हो जाते थे।पर उनके रहने में नजाकत-नफासत थी।

एक बार मैं और नलिन रंजन सिंह जी लखनऊ में एक कविता-पाठ कार्यक्रम में उनके लिए होटल बुक करने गए।उस दिन डॉक्टरों का कोई अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम था, जिसकी वजह से लखनऊ का कोई होटल खाली नहीं था।बड़ी मुश्किल से एक सस्ता-सा होटल खाली मिला।केदार जी उसमें भी काफी खुश थे।उस होटल को बुक करते हुए हमलोग काफी डर रहे थे।लेकिन केदार जी ने हमें आश्वस्त किया कि कोई बात नहीं।एक रात की तो बात है।ऐसी कितनी रातें केदार जी ने बिताई होंगी बिना चूं-चा किए।

केदारनाथ सिंह अपनी मां को बहुत प्यार करते थे।एक दिन मैंने कहा कि सर, आपकी मां से मिलना है।इस बार आप कोलकाता आएंगे तो आपकी मां को देखने का मेरा बड़ा मन है।वे मुस्कराए।वे हर बात में धीरे से हँस देते थे।बिना आवाज वाली हँसी।बोले- वह सुन नहीं पाती।सिर्फ बोलती है।कान के पास जोर से बोलने पर थोड़ा सुन लेती है।उस साल उनकी मां से मिला।वे केदार जी की ही हाइट की थीं।केदार जी ने उनके कान के पास मुँह ले जाकर भोजपुरी में उन्हें बताया- ई निशांत हउवन।ओइजे पढ़ेलन, जहां हम पढ़ाइला।मैंने उनके चरण स्पर्श किए।उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया।उस दिन वे काफी थकी-थकी दिखीं।

आजकल कम लेखक हैं जिन्हें दुबारा-तिबारा या बार-बार पढ़ने का मन करे।केदार जी मेरे गुरु थे, स्टांप पेपरवाले, पर उनकी कविताएं मैं अपने सुख के लिए पढ़ता हूँ।उन्हें पढ़ते हुए मैं अक्सर अपनी जवानी के दिनों के मित्र प्रकाश, उनकी बच्चों जैसी मुस्कान और उनकी एक कविता- ‘तुम आई’ को याद करने लगता हूँ।अचानक याद आ रहा है कि एक दिन अर्पिता ने उनसे कहा था- सर, आपसे मिलने का काफी मन था।ये आपका छात्र निशांत मुझे आपसे मिलने नहीं दे रहा था।सर को पता चला कि वह डॉक्टरेट है तो उन्होंने कहा कि तुम मुझे सर नहीं, आप कहोगी।

वे भुवनेश्वर आए थे।किसी लिट् फेस्ट में।उन्हें उसका उद्घाटन करना था।उसी होटल में राजकमल के अशोक माहेश्वरी और उनका कोई गोरा नेतानुमा स्टाफ जो काफी बोले जा रहा था, वह था।तस्लीमा नसरीन भी उपस्थित थीं।अर्पिता ने ढेर सारे फोटो उनके और तस्लीमा नसरीन के साथ खिंचाए थे।अर्पिता उनकी कविताओं की मुरीद थीं।मेरे प्रिय कवि, जिनकी तरह मैं कविता लिखना चाहता था, उन दिनों नागार्जुन थे।मैंने अर्पिता को पहले नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएं दीं पढ़ने के लिए।फिर केदारनाथ की।उसने कहा था- तुम्हें अपने सर की तरह लिखना चाहिए।उस मुलाकात में एक बात काफी मजेदार थी, जब अर्पिता ने डरते-डरते ही सही पर उनसे कह दिया- मुझे और पचास साल पहले जन्म लेना चाहिए था या आपको पचास साल बाद मेरे समय में।सर ने पूछा-क्यों? अर्पिता ने फटाक से कहा- तो मैं आपसे शादी कर लेती।वे जोर से हँसे।मैं तो चौंका, ये अर्पिता ने क्या कह दिया! पर वह इसी तरह की है।आज भी मुझे अर्पिता-केदार जी का यह संवाद याद है।

आज जब वे नहीं हैं तो पता चल रहा है कि वे कितनी बड़ी शख्सियत थे।छोटी-सी काया की कितनी बड़ी माया थी।जब वे थे तो लगता नहीं था कि वे केदारनाथ सिंह है।हिंदी के महान कवियों की परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी।उन्हें तब एक मनुष्य के रूप में ही देखा-पाया था, जैसे कई लोगों को हम देखते हैं, वैसे ही केदारनाथ सिंह को भी देखता था।आज जब उन्हें याद कर रहा हूं तो लगता है एक केदारनाथ सिंह में कई केदारनाथ सिंह थे।मैं उनके बारे में इतना जानता हूँ, फिर भी लगता है मैं उन्हें कितना कम जानता हूँ!

सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल७१३३४० (पबं) मो.८२५०४१२९१४