युवा कवि। काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल में सहायक प्रोफेसर।

यहां कुछ ऐसे कवियों पर चर्चा है, जिन्हें पर्याप्त अनुभवी और कुशल कहा जा सकता है। राजेंद्र कुमार का नवीनतम संग्रह है ‘उदासी का ध्रुपद उमाशंकर चौधरी का संग्रह ‘कुछ भी वैसा नहीं’ और विनय कुमार का ‘पानी जैसा देस’ उनका चौथा संग्रह है तो अच्युतानंद मिश्र का ‘चिड़िया की आंख भर रोशनी में’ दूसरा संग्रह। संतोष कुमार चतुर्वेदी, निर्मला तोदी और मनीषा झा की यह कविता की तीसरी किताब है। यह एक तरह से इन कवियों के अनुभव के बढ़ते हुए ग्राफ को दिखलाता है, साथ ही हिंदी कविता के विकास क्रम को भी। ये संग्रह बताते हैं कि आज कैसी कविताएं लिखी जा रही हैं, कविता की भाषा क्या है, कविता की संवेदना क्या है, उसके शिल्प में कोई बदलाव आया है कि नहीं, कवि किन लोगों के प्रति प्रतिबद्ध है, कवि प्रतिबद्ध है भी या नहीं, कवि जो लिख रहा है वह निज मन की बात है या जग की बातों में  उसके अपने मन की बात है? इन संग्रहों से गुजरते हुए हम वर्तमान समय के प्रवाह से  गुजरेंगे। यह एक कवि से बेहतर कोई नहीं बता पाएगा।

 

राजेंद्र कुमार का नवीनतम संग्रह है ‘उदासी का ध्रुपद’। उम्र के 80वें पड़ाव पर आया यह संग्रह ‘चुका भी नहीं हूँ मैं’ की तरह है। कविताओं की निरंतरता सिर्फ अंदर के कवि को ही नहीं बचाती, वह विवेकशीलता और मनुष्यता को भी बचाए रखती है। एक उम्र के बाद आमतौर पर लिखना लगभग छूट जाता है, पर एक जेनुइन कवि कभी नहीं चुकता। वह लगातार नए अनुभव की तलाश में आगे बढ़ता रहता है। राजेंद्र कुमार के संग्रह ‘उदासी का ध्रुपद’ में उनके नए अनुभवों की व्यापक उपस्थिति है।

केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण आदि कवियों का अस्सी साल में भी संग्रह आना जैसे उनकी जीवंतता तथा विवेकशीलता का प्रमाण रही है। उसी तरह राजेंद्र कुमार का यह संग्रह भी है। उम्र एक नंबर होता है ऐसे कवियों के लिए। कविताएं ही उनकी पहचान होती हैं। वे इन्हीं में जीवित रहते हैं। राजेंद्र कुमार की ऐसी बहुत सारी कविताएं हैं जो उन्हें हिंदी समाज में हमेशा समादृत बनाए रखेंगी।

पानी पर हिंदी में बहुतेरी कविताएं हैं, बल्कि रवींद्रनाथ टैगोर को एक समय ‘पानी का कवि’ भी कहा जाता था। राजेंद्र कुमार के पास भी इसपर एक कविता है, ‘शब्द को कितना अर्थ चाहिए?/ इतना कि हम कहें ‘पानी’/ और बुझ जाए प्यास?/ या इतना कि हम कहें ‘पानी’/ और बढ़ जाए प्यास?’ इस कविता का शीर्षक है ‘अर्थ कितना है’ और यह हिंदी की एक श्रेष्ठ कविता है। रीतिकाल के आचार्य-कवि चिंतामणि ने एक जगह कहा है, ‘जो सुनी परे सो शब्द है समुझि परे सो अर्थ’। इस कविता में शब्द और अर्थ का ऐसा एकमेव है।

उनकी एक और कविता ‘पोती का बनाया चिड़िया का चित्र’ है। पोती ने एक चिड़िया बनाई है और दादू उसमें रंग भरने जा रहे हैं तो पोती चहक कर कहती है, ‘पहले चिड़िया के पंखों में रंग भरिए दादू/ पंख ही नहीं/ तो चिड़िया चिड़िया कैसे रहेगी?- यह सामान्य सा कथन चिड़िया का ही अस्तित्व नहीं उकेरता, बच्ची की सोच को भी परिदृश्य में लाता है। कविता यहीं खत्म नहीं होती। कवि सोचता है कि वह इस चिड़िया से भी सुंदर चिड़िया बना लेगा, पर चहक/चहक को दिखाऊंगा किस रंग से!’ ऐसी सहज भाषा विरले ही देखने को मिलती है।

सरल भाषा को साध पाना साधक के लिए एक बड़ी चुनौती है। हिंदी कविता में तत्सम और विदेशी काव्य के अनुवाद की भाषा का अभी भी बोलबाला है। राजेंद्र कुमार के सीधे-सीधे काव्यात्मक गद्य में भी कवि-व्यक्तित्व रोशन हो उठता है, ‘असहायता अकेला छोड़ दिए जाने का अहसास है’ या ‘आशा की गठरी/ कभी भी इतनी भारी नहीं हुई कि/ कमजोर से कमजोर भी उसे/ अपने सिर पर रख न सके’ या ‘उदासी मुझे आश्वस्त करती है कि अकेला नहीं हूँ मैं’। कौन कहता है कि गद्य में काव्य नहीं होता? प्रेमचंद और निर्मल वर्मा हमारे सामने सबसे बड़े उदाहरण हैं -उपन्यास और कहानियों में काव्य लिखते हुए।

राजेंद्र कुमार को समुद्र-पहाड़ के बीच खो गई नदी की याद आती है। उनका यह कहना, ‘दुख कहीं भी मेहमान बनकर नहीं जाता/हर घर को अपना घर समझता है’, उनके अनुभव की कहानी कहती है।

यह संग्रह पांच खंडों में बटा है- ‘उदासी में उम्मीद’, ‘शब्द का पक्ष’, ‘अपने-अपने कुंभ’, ‘छाया दर्प’ और ‘न होने में होना’। ये पांचों खंड अपने में भी कविता की एक-एक संपूर्ण किताब हैं। कभी-कभी एक कहानी या एक कविता भी पूरी किताब पर भारी पड़ जाती है। अंतिम खंड- ‘ना होने में होना’ में सोलह कविताएं हैं, लेकिन यहां कवि की विह्वलता, उसकी विदग्धता, उसकी बेचैनी और उसकी अभिव्यक्ति अपने चरम पर है। इसलिए विश्वनाथ त्रिपाठी को इस खंड को पढ़कर शमशेर बहादुर सिंह की याद बरबस आ जाती है, लेकिन मुझे इसे पढ़ते हुए ‘है मेरी तुम’ की याद आती है। इस खंड की एक छोटी-सी कविता देखें, ‘तुम मुझसे दूर हो/अलग भी अनंत दूरी-/न जाने कितने प्रकाश वर्षों की/ मैं तुम्हारे एकदम पास हूं /इतने पास/ कि तुम दिखती ही नहीं:/ नहीं-सी दिखती हो/ कैसे पूछूं तुमसे/ क्या तुम्हें मैं दिखता हूँ?’

जिज्ञासा:  संग्रह को पांच उपशीर्षकों में बांटने के पीछे दृष्टि क्या थी?

राजेंद्र कुमार:‘उदासी का ध्रुपद’ में पहले विगत दो-तीन वर्षों के बीच लिखी कविताओं को ही संकलित करने का विचार था। ये मेरे जीवन के लिए गहरे अवसाद के वर्ष रहे। यों तो कोरोना-काल में किसने क्या-क्या नहीं खोया? पर मुझे लगा, मैंने अभिव्यक्ति ही खो दी है। भाषावान होकर इतना भाषा-हीन हो जाना! क्या यही मेरी नियति है? तब कविता ने ही मुझे उबारा, मानो कहा हो- ‘आंख से चुपचाप ढुलक कर जो गिरता है, शब्द में ही उठा वह ‘आंसू’ बनकर। सूख भी जाए, तो भी ‘आंसू’ शब्द कभी नहीं सूखता।’ बस, यों एक कविता-क्रम बनता गया। पहले इसी को संगृहीत कर देने का मन हुआ। पर फिर, उदासी की उमड़न के बीच उम्मीद-सी कुछ कौंध गई। इसी कौंध को दर्ज किया गया है शुरू में ‘उदासी में उम्मीद’ के अंतर्गत। और कविता-क्रम में से चुनकर आखिर में, बिना शीर्षक के सोलह कविताएं ‘न होने में होना’ के अंतर्गत दी गई हैं। प्रेम की भावना का अपना एक सात्विक  स्वाभिमान भी होता है (अहम् के विलय की शर्त के बावजूद)। ‘छाया-दर्प’ में इस संदर्भ की कविताएं हैं।

कुछ प्रश्न जो कोरोना काल के पूर्व से ही साथ थे, उन्हें ‘शब्द का पक्ष’ शीर्षक खंड में रखा गया। धर्म भी अब आस्था से ज्यादा उपभोग की वस्तु बन गया है। इस विडंबना का अनुभवात्मक साक्ष्य दर्ज करती कविताओं को ‘अपने-अपने कुंभ’ (विशेषतः संदर्भ-इलाहाबाद) शीर्षक से संकलित करना अर्थ-व्यंजक लगा।

जिज्ञासा: इतनी सहज और सुंदर भाषा आप कहां से लाते हैं?

राजेंद्र कुमार: सहजता और सुंदरता, दोनों एक-दूसरे की अंतरंग सखियों जैसी संज्ञाएं हैं। दोनों का यह सखी-भाव जिस भाषा में उतर जाए, वह स्वयं ही सहज और सुंदर हो उठती है। ऐसी भाषा कोई रेडिमेड पोशाक नहीं होती कि  कहीं से लाकर उसे भाव या विचार को पहना दिया जाए। न कोई नाप लेकर बनवाया गया फ्रेम होती है कि कोई कवि उसमें अपने बनाए भावचित्र को मढ़ा ले। वो कहा है न-

‘फ्रेम तो बाज़ार से, कोई भी लाके दे  देगा/ पर जो मढ़ानी है, वो तस्वीर कहां से लाऊं।’ अकारण नहीं है कि अज्ञेय जैसा कवि भी अपनी विकलता का पता देने के लिए ‘मुझे तीन दो शब्द’ और ‘शब्द और सत्य’ जैसी कविताएं लिखता है ।

दरअसल भाषा तो हमारे लिए परंपरा द्वारा सौंपी गई विरासत जैसी होती है, पर उसे बरतने की तमीज़- अगर मैं कवि हूँ -तो मुझे ख़ुद ही अर्जित करनी होगी। हाँ, इस संबंध में कुछ सहारा मैं चाहूँ तो उस सीख से भी ले सकता हूँ, जो कभी एक ब्रजभाषा कवि ने दी थी- ‘ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही/न अनुमान्यो/एते एते कबिन की  बानी हू/ से जानिए।’

भाषा के संदर्भ में कविकर्म की समस्या वस्तुत: शब्द की समस्या होती है। कोई शब्द क्या अर्थ देता है, यह किसी डिक्शनरी से जाना जा सकता है। लेकिन कवि किसी शब्द-विशेष को क्या अर्थ देना चाह रहा है, यह जानने के लिए तो उसकी कविता की ओर ही उन्मुख होना पड़ेगा।

जिज्ञासा:  कविता को लेकर भविष्य की कोई योजना?

राजेंद्र कुमार: योजना बनाकर व्यवस्थित रूप में कुछ लिख पाने वाले सौभाग्यशालियों में मैं नहीं रहा। जीवन को लेकर ही कोई योजना नहीं बना सका, कविता को लेकर क्या बनाऊं? बच्चन जी की कविता की एक पंक्ति है न-    ‘सारा जीवन बीत गया बस/जीने की तैयारी में।’ अलबत्ता यह कामना ज़रूर है कि कुछ सार्थक-और अब तक के लिखे से सुंदरतर लिख सकूं। इस कामना से ही कोई योजना आकार ले ले, तो यही श्रेयस्कर होगा। हालांकि, जब मैं यह कह रहा हूँ तो मेरे ध्यान में प्रसाद जी की यह पंक्ति भी बारबार कौंध रही है- ‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है/इच्छा क्यों पूरी हो मन की!’

 

 

मनीषा झा के पहले के दो संग्रह हैं- ‘शब्दों की दुनिया’ और ‘कंचनजंगा समय’। दोनों संग्रह प्रकृतिपरक कविताओं के लिए जाने और सराहे गए हैं। प्रकृति मनीषा झा की मित्र की तरह है। बहन की तरह है, सहकर्मी की तरह है। तीसरा संग्रह ‘पानी का पता’ भी लगभग प्रकृतिपरक कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं में लयात्मकता बढ़ी है। कोरोना महामारी की वजह से प्रकृति के प्रति नजरिये में होने वाले बदलाव, समाज में होने वाले बदलाव, समय में होने वाले बदलाव, निजी जीवन में होने वाले बदलाव की अभिव्यक्ति इस संग्रह में है। शीर्षक ही काव्यात्मक है- ‘पानी का पता यह प्रकृति के प्रति कवयित्री के प्रेम का पता है। एक कवयित्री पानी का पता बताना चाहती है या पानी पर कुछ कहना, सुनना चाहती है। शुरुआत की चार पंक्तियां देखें- ‘पानी का पता समुद्र से नहीं/उन झरनों से पूछो/जो प्यास की तड़प सुनकर/दौड़ जाते हैं व्याकुल होकर’। यह कविता कवयित्री के दिल के कितने करीब है। मनीषा झा कहती हैं कि पानी सिर्फ पानी नहीं होता, चाहे वह झरने का हो, नदी का हो, समुंदर का हो। पानी वह होता है जो आंखों के रास्ते नदी, समुद्र, झरना बना बहता है। बहुत पहले गालिब ने कहा था- रगों में दौड़ने फिरने के हम ही नहीं कायल/आंख से जो न टपका वह लहू क्या है?’ वास्तव में एक अच्छी कविता, एक और अच्छी कविता की याद दिलाती है। यह कवि की सहज संवेदना है जो उसे अपने पुरखे कवियों से, उनकी परंपरा से उसे जोड़ती है।

मनीषा झा की बहुत सारी कविताओं में पानी शब्द अपनी पूरी अर्थवत्ता में आता है, जैसे पानी, पानी न हुआ एक स्त्री का सहजीवन हो गया।

मनीषा झा के यहां प्रकृति अपने पूरे काव्यमय रूप में उभर कर सामने आती है। पहली कविता, ‘यहां से देखो’ की शुरुआत की पंक्तियां ‘यहीं रहो न/क्या जरूरत है चांद पर जाने की/यहां से देखो, मेरे पास आकर/कितना सुंदर दिखता है चांद’ यह वही कवयित्री कह सकती है जो जानती है कि कुछ चीजें स्वाभावतः अच्छी लगती हैं। हम प्रकृति के साथ अगर छेड़छाड़ करेंगे तो प्रकृति अपने को संतुलित रखने के लिए कुछ कदम उठाएगी। कोविड-19 के समय हमने देखा था कि प्रकृति किस तरह पहले से ज्यादा सुंदर हो गई थी, पहले से ज्यादा उत्फुल्ल हो गई थी। घर में कैद रहने से एक अलग तरह की मानसिक परेशानी थी, मन अशांत था, लेकिन प्रकृति स्वस्थ हो रही थी।

मनीषा झा की कविताएं एक त्रिकोण की रचना करती हैं- प्रकृति, स्त्री और प्रेम से बनता हुआ। प्रेम पर कुछ अद्भुत कविताएं हैं। आज की स्त्रियां सीता बनने से इनकार करती है (आज की सीता), वे सुख के छलावे को जान गई हैं। वे जान गई हैं, ‘तुम्हारा स्त्री बनना’ एक ‘दुर्घटना’ है। स्त्रियों को प्रेम के नाम पर किस तरह छला गया है,उस पहलू की शानदार अभिव्यक्ति हैं यहां।

मनीष झा के काव्य मानस को समझना हो तो यह एक कविता है, ‘शुक्र है आज भी कुछ पौधे/ अपने आप उगते हैं/शुक्र है आज भी/खिलते हैं कुछ फूल अपने आप/ शुक्र है आज भी कुछ लोग/ काटने की नहीं सोचते/प्यार से देखते हैं उन्हें/मिलते हैं/ और करते हैं प्यारी-प्यारी बातें/ सुकून फैल जाता है तब/ जैसे पेड़ की हरी छांव/ शुक्र है आज भी बचे हुए हैं/ हिंसा के बीच/ सुकून के नरम रंग’।

जिज्ञासा:‘पानी का पता’ में कोरोना और उससे उपजे संत्रास पर काफी कविताएं हैं। क्या घर में बंद रहने से रचनात्मकता बढ़ जाती है?

मनीषा झा : विस्तृत धरती और व्यापक आकाश के बीच जो खुली जगह है, वही मेरी रचना की भूमि है। बंद जगह और जकड़बंध में रचना की परिधि संकीर्ण हो जाती है। रचनाकार स्वभावत: मुक्तिकामी होता है। मुक्ति ही उसका साध्य है। सभी को पता है कि मनुष्य की जीवन-यात्रा में कोरोना विषाणु ने किसी खलनायक की तरह प्रवेश किया था। ऐसे में रचनात्मकता आखिर कितनी फूटेगी! यही कहा जा सकता है कि मेरा संवेदनशील मन बस अनुभव करता है और महामारी से जन्मे संत्रास को शब्द दे देता है। ‘पानी का पता’ की कोरोनाकालीन कविताएं मेरे संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति हैं।

जिज्ञासा: आपकी कविताओं में प्रकृति, स्त्रियों के प्रति दुख की अभिव्यक्ति और सामाजिक उपदेशों का प्रत्याख्यान ज्यादा है, क्यों?

मनीषा झा : प्रकृति-प्रेम और स्त्री-प्रेम पर लिखी गई अधिकांश कविताओं में अब तक रोमानी दृष्टिकोण की प्रधानता रही है। इन दोनों की व्यथा-कथा कविता में आज भी पूरी-पूरी नहीं खुली है। स्त्री जीवन का पूरा यथार्थ आज भी सामने नहीं आ पाया है। सत्ता द्वारा प्रकृति और पितृसत्ता द्वारा स्त्री की स्थिति ‘अधीनस्थ’ की तरह है। ‘अधीनस्थ’ की पीड़ा को अनुभव करना मानव धर्म है तो उसका चित्रण करना कवि-कर्म। कवि को मानव-धर्म और कवि-कर्म का निर्वाह एक साथ करना होता है। इन कविताओं की रचना के दौरान मेरी दृष्टि प्रकृति तथा स्त्री-जीवन के यथार्थ पर केंद्रित रही है। उनके प्रति संवेदनाओं की विभिन्न परतों को मैंने उभारने का प्रयास किया है। ‘सीख’ कोई उपदेश नहीं है, बल्कि कहने का एक लहजा है। इसमें समाज के यथार्थ को सजग दृष्टि से जानने और उसे कविता में लाने का उपक्रम है।

जिज्ञासा : किन कविताओं को पढ़कर आपको लगता है कि काश! इन्हें मैं लिख पाती!

मनीषा झा : कवि आजीवन सीखता और प्रेरित होता रहता है, कभी समाज से, कभी प्रकृति से और कभी स्वयं अपने अनुभवों से। सीखने और प्रेरित होने की प्रक्रिया हर कवि की अपनी होती है। किसी कविता को पढ़कर मैं प्रेरित हो सकती हूँ, पर कभी यह नहीं लगा कि काश! मैं इसे लिख पाती! मैं मानती हूँ कि हर कविता उसके कवि की ही ‘रचना’ है। उस जैसा कोई दूसरा रचने का प्रयास करेगा, तो वह कविता अनुकृति भर होगी। मेरी कविता खुद अपनी दृष्टि से, अपनी अर्जित भाषा में मनुष्य जीवन, समाज और प्रकृति को देखने और रचने का एक आत्मीय प्रयास है।

 

 

कई बार निराशा हमारे समय की कविता का महत्वपूर्ण विषय होती है, जब आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती। क्या निराशा की कविता सही कविता है? कवियों को क्या आशा, उत्साह, प्रेम, उल्लास  और उमंग की ही कविताएं लिखनी चाहिए? यह प्रश्न मुझ जैसे व्यक्ति को कचोटते रहते हैं। मैं कई बार चिंतित हो जाता हूं कि हम कैसे समय में रह रहे हैं जहां प्रेम को प्रेम कहना नफरत फैलाना है। क्या अब नितांत व्यक्तिगत अनुभव की कविताएं लिखी जाएंगी? समाज हमारी चिंता के केंद्र से दूर होता जाएगा? हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहां सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न हैं। निराशा ही निराशा है। अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है, उजाला नहीं है। इस अंधेरे-उजाले के बीच बैठा हुआ कवि उमाशंकर चौधरी इस अंधकार को अपने संग्रह ‘कुछ भी वैसा नहींकी कविताओं में लिख लेना चाहता है। उनकी कविताएं दशकों बाद इतिहास की किताब की तरह उपस्थित रहेंगी। दिल्ली में लोग अपने प्रश्न लेकर जाते थे- हल्ला बोल- हल्ला बोल, के नारे के साथ, ढोल और नगाड़े के साथ, बड़े-बड़े ट्रैक्टरों में, जीपों में भरकर, लेकिन कवि जानता है कि वे बैरंग लौटेंगे। कवि अपनी बच्ची की आंखों में निराशा देखता है। उसे लिपिबद्ध तो कर सकता है, उसका जवाब नहीं लिख सकता। उमाशंकर चौधरी हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो समाज में व्याप्त अंधेरे को आवाज देते हैं। वे मुक्तिबोध के बाद अंधेरे के सबसे बड़े कवि हैं, जो अंधेरे को कविता में लिख रहे हैं।

उमाशंकर चौधरी की कविता ‘फिलहाल कविताएं स्थगित हैं’की कुछ पंक्तियों को देखें-‘जिन कविताओं को कबीर, निराला, मुक्तिबोध/धूमिल और काजी नजरुल ने लिखा है/अपने अपने समयों में/मैं भी चाहता हूं फिर से लिखना उन्हीं कविताओं को/उतनी ही तल्खी से, इस समय में/इस समय जब खत्म करने की की जा रही है कोशिश/ इस देश की सारी आवाजें/वे नज्में और वे पंक्तियां जिन्होंने समझाया है हमें जिंदगी का फलसफा/ इस समय जब खत्म किए जा रहे हैं अपराध के सारे सबूत/जब रद्दी में फेंके जा रहे हैं संविधान के सारे अनुच्छेद/ तब क्या पता एक दिन/ इन अंधेरे दिनों को समझने के लिए ये पंक्तियां ही आएं काम/ तब क्या पता एक दिन अभी लिखी जा रहीं/इन कविताओं की सारी पंक्तियां ही मिलकर दे दे/इस अंधेरे समय के खिलाफ सबसे प्रामाणिक गवाही।’ एक कवि अपने पूर्वज कवियों को पूरे मन से याद करता है और प्रतिरोध की आवाज को व्यक्त करता है। लोकतंत्र को बचाना चाहता है। वह बेहतर दुनिया के लिए बेहतर स्वप्न देखना चाहता है और रोशनी की बात करता है, पर खीजता भी है। यह कवि बड़ी शिद्दत से अपने जीवन में प्रेम, उल्लास, स्वप्न, पारिवारिक चिंताओं और पारिवारिक जीवन को तरजीह देता है। इतना ही नहीं, जब उमाशंकर चौधरी अफगान महिलाओं की आजादी की बात करते हैं या कोरोना वायरस में अपने मित्रों या लोगों के नंबर में बदल जाने की बात, तब भी उनका कवि एक बेहतर दुनिया की तलाश करते हुए उपस्थित होता है। उनके यहां देश की भलाई या देश की चिंता में लिखी गई चिंतातुर कविताएं हैं तो पारिवारिक प्रश्नों और जीने की ललक से भरपूर कविताएं भी हैं। एक कवि जो कर सकता है, वे करते हैं और जोर गले से कहते हैं- फिलहाल कविताएं स्थगित हैं!

हर कवि की कविताओं को समझने के लिए कुछ बीज शब्द होते हैं, कुछ विचारधाराएं होती हैं। कुछ चिंताएं होती हैं। कवि किन लोगों के बारे में सोचता है? क्या सोचता है? क्यों सोचता है? कैसे सोचता है? आज वैसे भी कविताएं मन की मौज हैं या पीड़ा की अभिव्यक्तियां। लगता है उमाशंकर चौधरी एक ही लंबी कविता को छोटे-छोटे खंडों में लिख रहे हैं। वे अपने समय से लगातार जिरह करते हुए दिखते हैं, इसलिए अपने प्रश्नों की धार को कभी भोथरा नहीं होने देते।

जिज्ञासा: आपकी अधिकतर कविताएं प्रश्न की शक्ल में क्यों शुरू होती हैं?

उमाशंकर चौधरी: आप ऐसा कह रहे हैं तो मैं भी सोचूंगा। मैंने कभी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। कविता प्रश्न की तरह शुरू हो या नहीं हो, यह तो जरूरी नहीं। परंतु उसे प्रश्न पूछने वाला और प्रश्न उठाने वाला तो होना ही चाहिए। अक्सर कवियों से यह पूछा जाता है कि आपको हमेशा दुख ही क्यों दिखता है? इसका जवाब सिर्फ यही होना चाहिए कि दुख देखने के लिए साहित्य है। खुशी दिखाने के लिए ढेरों विज्ञापन तो हैं ही। जबरदस्ती की खुशी दिखाने के लिए भी हर सरकार के पास विज्ञापन का बजट होता है, जबकि उसके यहां दुख कितना विस्तारित हुआ इसे नापने के लिए कोई विज्ञापन नहीं होता है।

आप ध्यान देंगे तो हम सुबह उठते हैं और रात को सोते हैं इस बीच हम इन सुखों के विज्ञापनों से ही घिरे रहते हैं। सुख के विज्ञापन इतने हैं परंतु जब इस समाज में सुख ढूंढ़ने जाएं तो वह नदारद हैंं। यहां सरकार इस विज्ञापन पर भी खुश है कि वह इतने महीनों तक अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन देती रही है।

जिज्ञासा: व्यवस्था के विपक्ष में आपकी कविताएं लगातार मुखर हैं। इसके पीछे क्या कारण हैं?

उमाशंकर चौधरी: कविता का तो मिजाज ही प्रतिपक्ष में खड़ा होना होता है। मैंने ऊपर कहा न कि पक्ष में खड़े होने और करने के लिए तो सरकार के पास बजट है। सत्ता के पक्ष में तो चापलूस खड़े होते हैं। आप देखेंगे कि चापलूस व्यक्ति तत्काल भले ही अपना फायदा कर लेता हो, परंतु लंबे समय में वह इस समय और इस पूरी व्यवस्था को संकट में डाल देता है। जब भी यह देश गुलाम हुआ तो इन चापलूसों ने सबसे पहले सत्ता का साथ दिया है। भारतेंदु ने अपने यहां इसे तब भी जगह दी थी। आज हम फिर इसी मुहाने पर खड़े हैं।

इस देश को कम पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में उनसे ज्यादा दिक्कत है जो पढ़े-लिखे भी हैं और मोटी तनख्वाह भी पा रहे हैं। क्योंकि उनके लिए इसके बाद की सारी चीजें लग्जरी हो जाती हैं। चाहे वह धर्म ही क्यों न हो। फिर वे अपने धर्म-जाति पर गर्व करने लगते हैं। वे इसका सुख लेते हैं। चाहे सबकुछ डूब जाए, सब तहस-नहस हो जाए, उनकी लग्जरी चल रही है। लेकिन इस संदर्भ में हमें हमेशा राहत इंदौरी का शेर याद रखना चाहिए ‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।’ तो आज हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम व्यवस्था के प्रतिपक्ष में खड़े रहें।

जिज्ञासा: कविता के लिए विचारधारा महत्वपूर्ण है या नहीं? संक्षेप में बताएं।

उमाशंकर चौधरी: कविता के लिए विचारधारा नहीं, विचार महत्वपूर्ण है। हमारी मानसिकता इस तरह की बनी हुई है कि कविता के लिए हम विचारधारा और विचारधारा के लिए मार्क्सवाद को नितांत जरूरी मानते रहे हैं। जबकि ऐसा है नहीं। विचार के स्तर पर मार्क्स हमारे लिए हमेशा महत्वपूर्ण रहेंगे, लेकिन एकमात्र विचारधारा के रूप में नहीं। वैचारिक होना और बात है और वैचारिक मदांध होना और बात। यह अलग बात है कि आज कविता का बहुत बड़ा परिद़ृश्य उत्सवधर्मी होता जा रहा है।

कविता के लिए विचार नहीं, ग्लैमर की जरूरत बढ़ती जा रही है। जबकि हम अभी एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां वैचारिक होने की हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गयी है। यदि हम अपने आपको इस वैचारिकता से हटाएंगे तो उसका परिणाम ठीक उसी रूप में मिलेगा जैसा अगर अपनी सुरक्षा के लिए बनाई गई संस्थाओं को खत्म करने में खुश हों और एक दिन कुछ भी हमारे नियंत्रण में न रहे। सिर्फ वैचारिकता ही कविता को अपने समय की चिंताओं से जोड़े रख सकती है। और कविता अपनी ग्लैमरस तस्वीर के साथ नहीं, अपने समय की चिंताओं के साथ नत्थी होंगी।

 

 

आंख में तिनकाके बाद अच्युतानंद मिश्र का दूसरा संग्रह है ‘चिड़िया की आंख भर रोशनी में’। दूसरा संग्रह पहले से काफी आगे का संग्रह है। यह बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ। इस बीच अच्युतानंद मिश्र ने अपनी कविता कहने की शैली को काफी बदला है। पहले संग्रह में कविताएं अगर सीधी, सपाट और अभिधात्मक शैली में थीं तो यहां तक आते-आते उनके यहां कविताएं ज्यादा काव्यात्मक बिंबों और संकेतों से भरी हुई हैं। कविताएं ज्यादा भावात्मक हुई हैं। पहले जहां कवि सीधे अपनी बातों को ‘थ्रो’ कर देने में, कह देने में पारंगत था, अब वह बातों को काबू में, ढंग से कहने में पारंगत है। दूसरे संग्रह में कवि ने लंबी उछाल भरी है।

यह संग्रह केदारनाथ सिंह की याद दिलाए तो पाठकों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पहले और दूसरे संग्रह के बीच में गैप लगभग दस सालों का है। आज के कवियों के हिसाब से यह बहुत ज्यादा है। यह इस तरफ भी संकेत है कि अच्युतानंद मिश्र ने जानबूझ कर यह समय लिया है, जैसे केदारनाथ सिंह ने जानबूझ कर बीस साल का गैप लिया था। वास्तव में यह अपने को बदलने के लिए लिया गया समय था।

अच्युतानंद मिश्र की कविताएं बहुत प्यारी और काव्यमय हैं। उनकी कविता ‘रात का संगीत’ की कुछ पंक्तियां देखें, ‘एक आदमी हवा में करुणा पैदा कर रहा है/एक आदमी कभी न चुप होने वाली रुलाई रो रहा है/ एक आदमी हर पत्ते को खा रहा है/ एक आदमी कुछ भी नहीं खा रहा है/ एक स्त्री अपने प्रेमी से सचमुच कर रूठ जाना चाहती है/ढाबे के बाहर खड़ा एक भूखा आदमी चाहता है/कि दुनिया में इस वक्त भयानक विस्फोट हो।’ यहां कुछ ऐसे वन लाइनर बिंब हैं, जिनसे गुजरते हुए अच्छा लगता है। जीवनानंद दास के यहां भी इसी तरह के बिंब हैं। वे इमैजिनरी पोएट्री के कवि कहे जाते थे। अच्युतानंद मिश्र के यहां भी ऐसी इमैजिनरी पोएट्री है। हर कवि को उसका अपना आकाश उपलब्ध कराती है।

आम लोगों की चिंताओं को इस संग्रह में अच्युतानंद मिश्र ने आवाज दी है। भारत ही नहीं, इजराइल, फिलिस्तीन और अमेरिकी युद्ध में मारे गए बच्चों तक की चिंता करती हुई कविताओं का रेंज बहुत बढ़ा हैं। उसमें बच्चे हैं, स्त्रियां हैं, मछुआरनी हैं, मर रहे आम नागरिक हैं, मजदूरी करती हुई दो बहने हैं, पिता हैं, गांव है, भूली हुई बीस साल पुरानी स्मृतियां हैं, खो गया शहर है, बीत चुका हुआ बसंत है। क्या नहीं है अचुत्यानंद मिश्र की कविताओं के यहां? स्मृतियां कविताओं में लौटकर आती हैं, इसके साथ एक बेहतर दुनिया का स्वप्न देखने का प्रयास है। कुछ ऐसी स्मृतियां हैं जिनसे कवि अपना पीछा नहीं छुड़ा पाता। लेकिन कविता का भविष्य बेहतर होगा, इसका विश्वास जरूर दिलाती है।

आम लोगों की तकलीफों को, उनकी आवाजों को, उनके प्रतिरोध को, उनके सहने की क्षमता और उनकी उदासीनता को भी अच्युतानंद अपनी कविता में व्यक्त करते हैं। आम आदमी की अभिव्यक्ति में प्रकृति भी सहायक बनती है। इसलिए उनके यहां ‘गति-अगति’ जैसी कविताएं हैं। ये कविताएं हमारे समय की विद्रूपता की तरफ ध्यान आकर्षित करती हैं तो यह भी बताती हैं कि एक बड़ा कवि एक कम बड़े कवि से किस तरह अमानवीय ढंग का व्यवहार करता है। इसी तरह एक पत्रकार है जो हांफते हुए अपने दुख-दर्द को अभिव्यक्त करता है।

अचुत्यानंद निजी बातें ‘मैं’ शैली में लिखते हैं तो भी ऐसी कविताएं उनकी नितांत निजी नहीं रह जातीं। अपनी बात के अंदर से कवि समाज की बात करता है। कवि की सत्ता व्यक्ति कवि नहीं, समाज की सत्ता में तब्दील हो जाती है। जब अच्युतानंद कहते हैं, ‘मुझे अब तक वह भाषा नहीं मिली/मुझे अब तक वह प्रेमिका नहीं मिली/ मैं अब तक उस दुख से मुक्त नहीं हो पाया/ मैंने सुख और दुख को जीवन का समीकरण माना/ मैंने नियम से दोस्तों को ‘शुक्रिया’ कहा/ मैंने बहुत कम और मामूली शब्दों के सहारे/बड़ा जीवन चाहा।’ ये किसी एक व्यक्ति की चाहतें नहीं हैं, आम नागरिक की चाहतें हैं। अच्युतानंद की कविताएं व्यामोह या बयानबाजी से बाहर निकालकर ‘हम’ के संसार में ले जाती हैं।

जिज्ञासा : आपकी कविताएं समाज और संसार की बात करती हैं। यह विचारधारा का प्रभाव है या कुछ और?

अच्युतानंद मिश्र: मैं इसे विचारधारा नहीं कहूंगा। कविताएं, समाज के साथ परिवेश के साथ जो संवेदनात्मक लगाव है उसकी अभिव्यक्ति हैं। संसार हमें मिल जाता है, लेकिन संसार में रहना एक सतत संघर्ष की मांग करता है। यह संघर्ष आंतरिक भी है और बाह्य भी। संघर्ष की प्रक्रिया श्रम के द्वारा संभव होती है। कविताएं भी इस संसार के साथ जो हमारा संबंध है, जो संघर्ष है -रोजमर्रा का हो या जीवन पर्यंत का -उसका प्रतिफल है। कई बार हम सोचते हैं कि श्रम का अर्थ सिर्फ भौतिक है, सिर्फ भौतिक उत्पादन ही श्रम का प्रतिफल है।

लेकिन कविताएं भी श्रम के द्वारा ही संभव हैं। श्रम का अर्थ है रचना के लिए संघर्ष। इसलिए रोटी और कविता में मैं वैसा दुराव नहीं देखता और न ही ये मानता हूँ कि इन संघर्षों में कोई पहले और दूसरे का क्रम है। दोनों ही मनुष्य की अनिवार्यता हैं, उसकी जरूरत है। विचारधारा की भूमिका इसके बाद की है, जहां हम श्रम को एक रूप, एक आकार देते हैं।

रोटी और कविता एक विचार है। मनुष्य की जरूरत है जो इस संसार में उसके जीवन को, जीवन-संघर्ष को संभव बनाती है। ऐसे में दुनिया की कोई कविता समाज का निषेध नहीं कर सकती, जैसे रोटी जिस अनाज के द्वारा संभव होती है, वह इसी धरती पर मनुष्य के श्रम द्वारा बनती है, ठीक उसी तरह कविता भी भाषा से बनती है -वह मनुष्य की सामाजिकता के बगैर संभव नहीं। यहां श्रम अमूर्त है। रोटी और कविता मूर्त। यही अमूर्तन का मूर्तन मनुष्यता है। ऐसे में कोई भी कविता मनुष्यता के कार्य-व्यापार से कैसे बरी हो सकती है?

जिज्ञासा: आपने दूसरे संग्रह को छपवाने में काफी लंबा समय लिया, क्यों?

अच्युतानंद मिश्र: दूसरा संग्रह तकरीबन दो दशक बाद आया है। कविताएं बहुत तीव्र गति से नहीं लिख पाता। इस बीच पिछले एक दशक में समय-समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। कई बार लगता है जितनी चीजें इस एक दशक में बदली हैं- भाषा, समाज से लेकर जीवन व्यवहार तक- उतना व्यापक परिवर्तन तो कई बार एक शताब्दी में भी नहीं आता। ऐसे में इन परिवर्तनों को देखने, उन्हें दर्ज करने और संवेदनात्मक रूपाकारों में ढालने के लिए जितनी बड़ी प्रतिभा होनी चाहिए मुझमें उसका अभाव है, जाहिर है ऐसे में बहुत कविताएं संभव नहीं। पिछले संग्रह से एकदम भिन्न स्वर की कविताएं यहां हैं। हालांकि ये सचमुच कविताएं हैं भी कि नहीं, इनको लेकर एक दुविधा मेरे मन में बनी हुई है।

जिज्ञासा: आप कविता क्यों लिखते है?

अच्युतानंद मिश्र: इस प्रश्न को मैं वैयक्तिक प्रश्न के तौर पर न लेते हुए इस रूप में लेता हूँ कि मनुष्य कविता क्यों लिखता है? मनुष्य अपने अंदर और बाहर दो दुनियाओं के बीच आवाजाही करता है। यह आवाजाही उसे चैतन्य बनाती है। चेतना के साथ संवेदना और संवेदना के साथ विचार। इसलिए मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है। लेकिन इस चिंतनशीलता को मनुष्य ने अर्जित किया है। मनुष्य सामाजिक इसलिए हो सका, क्योंकि वह रचनाशील है। अगर वह अन्य प्राणियों की तरह अपनी चेतना को भौतिक आवश्यकता की भूमि तक सीमित कर देता तो वह न तो चिंतनशील होता और न ही रचनाशील। मनुष्य कविता लिखता है, इसलिए उसने साथ रहने की खोज की। एक-दूसरे का हाथ थामा। स्पर्श और गंध को पहचाना। मनुष्य कविता लिखता है, इसलिए वह सामाजिक है। यहां कविता को मैं व्यापक रचनाशीलता के संदर्भ में देखता हूँ। अब जो यह हमारा समाज है, उसमें अंतर्विरोध होते हैं। वह आगे भी बढ़ता है और पीछे भी हटता है। इसलिए मनुष्य संकट महसूस करता है। वह अपने प्रति, अपने मित्रों-शुभचिंतकों के प्रति चिंतित होता है। यह चिंता जितनी बढ़ेगी कविता की जरूरत भी उतनी ही बढ़ेगी। मैं इस प्रश्न को इस रूप में देखता हूँ कि ये जो शब्द हैं मनुष्य-समाज, जब तक ये शब्द रहेंगे तब तक मनुष्य होने की, सामाजिक होने की हमारी कोशिश बनी रहेगी और तब तक समाज को कविता की जरूरत रहेगी।

 

   

निर्मला तोदी ने काफी देर से लिखना शुरू किया, लेकिन कहते है न ‘देर आयद दुरुस्त आयद।’पिछले पांच सालों में यह तीसरा संग्रह है ‘यह यात्रा मेरी है देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में इन कविताओं की प्रखर उपस्थिति है, जिसने निर्मला तोदी को महत्वपूर्ण कवयित्री के रूप में पहचान दिलाई है। आज के समय में यांत्रिकता, सांप्रदायिकता, बाजारवाद आदि का कविता पर और कवियों पर दबाव बढ़ा है। ऐसे समय में कविता में ‘घर-परिवार’ और प्रकृति की उपस्थिति इस संग्रह को महत्वपूर्ण बनाती है। निर्मला तोदी लिखती हैं- ‘मेरी बहना/चाहे हमारे बीच लहलहा रहे हों समंदर/रहे धरती के दो छोर पर हम/अपनी गर्भ नाल से आज भी जुड़े हैं हम’। यह बहनापा हिंदी कविता में दुर्लभ है। ऐसी कई कविताओं से यह संग्रह हमें चमत्कृत करता है।

निर्मला तोदी के यहां एक आध्यात्मिक भावना भी मौजूद है, जो कविता में बार-बार आती है। यह भावना भारतीय संस्कृति के मूल में है। कविता संग्रह का शीर्षक ‘यह यात्रा मेरी है’ भौतिक संसार की ओर संकेत करता है तो एक कविता का अध्यात्म की तरफ इशारा करता हुआ शीर्षक है ‘जो इस संसार से परे है’। इस अध्यात्म के भीतर भी कवयित्री को स्त्री होने का गर्व है, ‘फिर आऊंगी लड़की बनकर’। निर्मला तोदी के पास एक अंतःप्रज्ञा है, जिससे वह ‘मुक्ति’ की तरफ इशारा करती प्रतीत होती हैं। लीला स्थली का बखान इनकी कविताओं में बहुत ज्यादा है। घर-परिवार, रिश्ते-नाते, मां-पिता, भाई-बहन, नाती-पोते इन सबकी वकालत करते हुए भी निर्मला तोदी, इन सब में रहते हुए भी इन सब से निरपेक्ष रहती हैं। पहले के काव्य संग्रहों में यह प्रभाव था, पर सांकेतिक रूप में। यहां उसका विस्तार है।

उसी विस्तार में वे कहती हैं, ‘अमरूद में पृथ्वी का स्वाद’ है। अमरूद इसी धरती, इसी मिट्टी, इसी पृथ्वी से बना है। इसलिए अगर अमरूद में वह पृथ्वी के स्वाद को महसूस करती हैं तो कोई अचंभे की बात नहीं। यह उनके मन की उदात्तता का चिह्न है, जो भौतिक जगत को एक नई दृष्टि से देखने की बात रखता है। मुख्य बात है, उनकी कविता के केंद्र में मुनष्य है।

जिज्ञासा: आपकी कविताएं निजी अर्थ से झांकती हुई नजर आती हैं। क्या यह शिल्प है या अपने आप है?

निर्मला तोदी: मेरे नए संग्रह का शीर्षक ही है ‘यह यात्रा मेरी है’। इसमें एक कविता की पंक्ति है ः खिड़की के बाहर मैं देखती हूँ/खिड़की मेरे भीतर/मेरा मानना है कि पहले कविता कवि को बुलाती है/फिर कवि कविता को/पहले कविता कवि के पास आती है/फिर कवि कविता के पास।

इस तरह जब दोनों एकाकार हो जाते हैं तभी कविता पूर्ण होकर अपने पूरे रंग-रूप के साथ कवि के साथ पनपती है। कविता में कवि जरूर झांकता है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष। कवि और कविता अलग हो ही नहीं सकते। मानती हूँ कि कवि की भावनाएं जब शब्द आंकती हैं, वे शब्द केवल उसके नहीं होते, पाठक के ज्यादा हो जाते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि खिड़की के भीतर मैं हूँ और बाहर प्रिय पाठक। अगर शिल्प की बात की जाए तो कला बिना शिल्प के कला बनती है क्या? वह सिर्फ एक जर्नल बनकर रह जाएगी। फिर भी मेरी कविताओं में शिल्प उतना अधिक नहीं है, यहां संवेदनाएं ज्यादा हैं। शिल्प का प्रयोग एक लिमिट में होना चाहिए। मूर्तिकार अपनी बनाई मूर्ति का जरूरत से ज्यादा शृंगार कर दे तो मूर्ति की सुंदरता बोझिल हो जाती है। ओढ़ा हुआ शिल्प कविता को संप्रेषणीय नहीं बना पाता। मेरी कविता में जो कुछ आता है सहज आता है।

जिज्ञासा: आपके यहां आध्यात्मिकता के कई चित्र हैं। यह सायास है अनायास?

निर्मला तोदी: सायास लिखी कविता प्रोडक्शन होती है, क्रिएटिव राइटिंग तो बिलकुल नहीं। सच कहूँ तो मैंने सायास लिखने का प्रयास किया था, पर मेरी समझ में जल्दी आ गया कि यह मेरे वश की बात बिलकुल नहीं है। बात आती है अध्यात्म की तो यह जीवन से जुड़ा हुआ है।

जिज्ञासा: कविता क्यों लिखती हैं?

निर्मला तोदी: मैं क्यों लिखती हूँ? विज्ञान कहता है कि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता। कला के साथ ऐसा नहीं है। अगर मैं इस क्यों का जवाब ढूंढने लगूं तो शायद एक भी कारण न दे पाऊं। इतना कह सकती हूँ कि कविता मुझे मेरे ‘मैं’ से मिलवाती है, जिसके ऊपर न जाने कितनी परतें लिपटी हैं। कविता उन परतों को खोलती है, पढ़ते समय भी और लिखते समय भी। मुझे लिखते समय ध्यान में जाने कैसा अहसास होता है। कवि के साथ ख़ास तौर पर समय चलता है, अतीत, वर्तमान और भविष्य एक साथ। इसी वजह से क्लासिकल साहित्य की रचना हो पाती है। मेरे इस संग्रह में अतीत काफी आया है, जैसे पिता, मेरा बचपन, मां, जो तीस साल पहले चली गई थीं, बच्चे जो अब बड़े हो गए हैं। कवि कविता में जीता है, कविता उसे जिलाए रखती है। मैं अपने को, अपनेे ‘मैं’ को जिलाए रखने के लिए लिखती हूँ।

 

 

विनय कुमार का काव्य संग्रह ‘पानी जैसा देसके केंद्र में सिर्फ और सिर्फ पानी है। जल ही जीवन है। भारत एक तरह से नदियों का देश है। नदियों के बिना हरी धरती की कल्पना नहीं की जा सकती। नदियों के बिना गंगा-यमुना संस्कृति की बात नहीं की जा सकती। नदियों के मीठे पानी की महिमा का बखान है ‘पानी जैसा देस’ की कविताओं में। विनय कुमार पेशे से मनोचिकित्सक हैं, लेकिन हृदय से कवि। उनके पास कहने के लिए सारी कहानियां होती हैं, कल्पना की ऐसी अद्भुत उड़ानें होती हैं। उनकी कविताओं के पास चले जाइए तो लगेगा किसी गप्पी के पास आ गए हैं। पहली बार हिंदी कविता इतना पानीमय दिखती है तो इसका श्रेय विनय कुमार को भी जाता है।

‘कविता से परे’ में कवि कहता है, ‘माना कि बहुत सारी कविताएं हैं यहां/ मगर कविता से परे भी बहुत कुछ हो सकता है।’ वह बतलाता है कि कविता से परे कोई सरोवर की सीढ़ी पर बैठकर बीजगणित के मुश्किल सवालों के हल निकाल सकता है। फ्लैट और वसीयतनामे के बारे में सोच सकता है।

इसके गंगा, जमुना, सरस्वती से लेकर मोहनजोदड़ो के अवशेष स्नानागार है पर विनय कुमार की लंबी कविता है। भाषा की छटा, इस संग्रह को सतरंगी बनाती है।

जिज्ञासा: पानी पर इतनी लंबी कविता की रचना प्रक्रिया के बारे में आप पाठकों से क्या साझा करना चाहेंगे?

विनय कुमार: यक्षिणी की लोकप्रियता के बाद के दिन थे। मैं कला में व्यक्त अचेतन के जादू से अभिभूत फिर रहा था। चित्रों और कलाकृतियों की दुनिया में भटकना मेरा शग़ल हो गया था। लोगों के दुखों के गांव में झाड़ू-पोंछा करने के बाद जब भी फुरसत नसीब होती, गूगल की गलियों में कला दीर्घाएं ढूंढने लग जाता। कभी माने, कभी डाली और कभी पिकासो के द्वार खटखटाता तो कभी किसी अज्ञात कुलशील नए-नवेले पेंटर के काम में अंधकार के चमत्कार चीन्हने की कोशिश करता। इसी आवारगी में किसी दिन एक सरोवर और उसके किनारे बैठी एक नारी आकृति दिखी। देखकर लगा था शरद का दृश्य। मैं उसे संजो नहीं पाया, और वह दृश्य जो खोया तो बस खो गया, और मैं शायद उसे ढूंढने में लग गया। ‘सरोवर’ सिरीज की कविताएं उसी क्रम में प्रकट हुईं।

हौले-हौले सरोवर सूख चला। मैं निर्जलता से घिर गया – गंगा, जमुना और कुलधरा, और पानी की खोज में कभी मिथक और कभी इतिहास की गलियों में गया। आज के पन्नों पर तो दौड़ा ही। मेरी दृष्टि में यह ‘देस’ तृप्ति के क्षितिज और प्यास के कोसों के बीच उजड़ा-उजड़ा सा बसा है।

जिज्ञासा:  पानी पर काफी दृश्य बिंब हैं यहां। कहां से आए ये बिंब, क्या तैयारी की थी आपने, या सहजता से चले आए?

विनय कुमार: बिंब किसी तैयारी से नहीं आते। स्मृतियों और अनुभूतियों के अंधेरे गोदाम में चिराग ढूंढने की कोशिश में अनायास बनते हैं। जो जीवन जिया है और जिन घाटों का पानी पिया है, वहीं से आए हैं ये बिंब।

जिज्ञासा: पानी पर लिखते हुए किन-किन कवियों की कविताएं आपको याद आ रही थीं?

विनय कुमार: मैं पानी पर कविता लिख कहां रहा था। मैं तो एक चित्र ढूंढ रहा था और निर्जलता से जूझ रहा था। मैं तो पानी जैसा देस ढूंढ रहा था। शायद यह कहना अधिक सही होगा कि मैं पानी जैसा देस ढूंढ रहा हूँ।

 

 

संतोष कुमार चतुर्वेदी सही मायनों में लोक के कवि हैं। आम आदमी के कवि हैं। ‘उम्मीद से बनते हैं रास्तेकी कविताएं कवि के बहाने आम आदमी की आवाज को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। यहां व्यक्तिवाद, घर-परिवार तक सीमित संवेदनशीलता, सिर्फ राजनीतिक व्यंग्य या सिर्फ प्रेम कविताएं नहीं हैं, यहां कवि अपने समय के सारे संत्रास, दुख, तकलीफ को व्यक्त करता है। कवि जानता है कि बुरबक आदमी का मुंह कुत्ता चाटता है। दुनिया उसे दुख देती रहती है। फिर भी वह दुनिया को ठीक करने के लिए चिंतित रहता है।

कविता ‘पोस्टमार्टम’ व्यक्तिशेषनारायण की गाथा है। ऐसे व्यक्ति की गाथा है जो तमाम डिग्रियों के बाद भी रोजगार न मिलने की किल्लत से जूझ रहा था। उसके पास दुनिया को बेहतर बनाने के सपने थे, लेकिन फिर भी दुनिया बेहतर नहीं बन पा रही थी। जब उसकी आत्महत्या से मौत होती है तो वह दो दिनों से भूखा था। लेकिन उसके घर-परिवार वाले कितने दिनों से भूखे थे, इसका उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कोई उल्लेख नहीं था। संतोष चतुर्वेदी की कविताएं इस सिस्टम की बखिया उधेड़ती हैं। अंधेरे समय में एक कवि को जो करना चाहिए, संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं वही करती हैं।

एक कवि जीवन भर यही काम तो करता रहता है, जो चीजें जीवन में जरूरी हैं और एक समय थीं जो हटा दी गई हैं, उन्हें जीवन के केंद्र में फिर से स्थापित करना है। संतोष कुमार चतुर्वेदी के पास ऐसी कई कविताएं हैं जो जीवन में खो गई चीजों को फिर से स्मृति में ताजा कर देती हैं।

संतोष कुमार चतुर्वेदी की सबसे लंबी कविता- ‘अनाज के दाने का वजन जानते हैं हम’ कई तरह के सवाल हमारे सामने उठाती हैं। यहां सिर्फ किसान समस्या अनाज की समस्या या सिस्टम के ध्वस्त हो जाने की समस्या नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन की जरूरतों और जिजीविषा को हमारे सामने लाती है। संतोष कुमार चतुर्वेदी लंबी कविताओं को साध पाए हैं, यह इसकी एक महत्वपूर्ण बानगी है। वे हमारे अपने समय के एक मुकम्मल कवि हैं। वे अपने समय, समाज, देश-काल की बहुत-सी चीजों को एक कवि की आंख से देखते हैं और उनपर कविता के कोड़े फटकारते हुए चलते हैं।

जिज्ञासा: आपके यहां दृश्य बिंब अधिक है। इसके कारण क्या हैं?

संतोष कुमार चतुर्वेदी: हम जिस परिवेश में रहते हैं, वह ‘आंखिन देखी’ वाला परिवेश है। ‘कागद की लेखी’ से हमारी निर्मिति नहीं हुई। वैसे भी हमारा मानना है कि देखने सुनने वाला अनुभव कहीं ज्यादा अपील करता है। यह देखना केवल हमारा ही नहीं, बल्कि हमारे जन जीवन, हमारे समय और हमारे समाज का भी देखना होता है। इसीलिए जनजीवन इन दृश्य बिंबों से खुद को आसानी से जोड़ लेता है। तो इन स्थितियों में मुझे कविता के लिए विषय भी इन्हीं दृश्य बिंबों से सहज ही मिल जाते हैं। कविता के लिए वैचारिक लोक में मुझे छिछियाना नहीं पड़ता, बल्कि वह सहज और सरल तरीके से मुझे आमंत्रित करती है।

जिज्ञासा: अधिकतर आमलोग आपकी कविताओं के नायक हैं। क्या कारण है?

संतोष कुमार चतुर्वेदी: चूंकि हमारी कविता हमारे आस-पास और हमारे परिवेश की कविता है इसलिए हमारे नायक भी अक्सर इन्हीं आस-पास के जगहों और परिवेश के हुआ करते हैं। गांव से हमारा गहरा जुड़ाव रहा है। जन्म और प्रारंभिक पढ़ाई-लिखाई गांव में ही हुई। बाद में हमें जिस महाविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिली वह हाल फिलहाल तक गांव ही रहा है। इलाहाबाद आज भी आंतरिक तौर पर एक गंवई सोच वाला शहर है। ‘मोछू नेटुआ’ हों, ‘गप्पें मारने वाले’ लोग हों या फिर ‘इक्कावान’ गांव में आज भी ऐसे नायक सहज रूप से मिल जाते हैं।

जिज्ञासा: आपके लिए कविता क्यों जरूरी है?

संतोष कुमार चतुर्वेदी: हमारे समाज की जो बनावट और बुनावट है, वह काफी हद तक पुरातन, दकियानूसी और संकीर्ण है। आज भले ही हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हों, हमारी मानसिकता पुरातन ही है। हमारी मानसिकता और हमारी सोच आज भी धर्म और जाति के बंधनों से भयावह तौर पर आक्रांत हैं। हमारा पालन-पोषण असमानता के परिवेश में होता है और यह धीरे-धीरे हमारे जीन तक में प्रवेश कर जाता है। बाद में चाहें हम जितनी कोशिशें करें, उससे मुक्त नहीं हो पाते। मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ, वह पारंपरिक होते हुए भी काफी हद तक उदारवादी था। ऐसे में आस-पास जब भी कोई ऐसी घटना दिखाई पड़ती जो धर्म या जाति से जुड़ी होती, तो एक गहरी टीस मन में उठती। मैं इससे अक्सर आहत होता और मुझे घुटन सी होती थी। ऐसे में कविता हमारे लिए उस शरण स्थल की तरह थी, जहां मैं काफी सुकून महसूस करता था। धीरे-धीरे ऐसा लगा कि मेरे लिए कविता बेहद जरूरी है। यह वह जगह है जहां मैं मुखर होकर सोच सकता हूँ। बोल सकता हूँ। खुद को अभिव्यक्त कर सकता हूँ। और इस तरह कविता मेरे जीने की राह बन गई।

 

समीक्षित पुस्तकें:

(1) उदासी का ध्रुपद, राजेंद्र कुमार, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, मूल्य-295 रुपये। (2) पानी का पता,  मनीषा झा, प्रलेक प्रकाशन, ठाणे, महाराष्ट्र, मूल्य-225 रुपये। (3) कुछ भी वैसा नहीं, उमाशंकर चौधरी,  राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य-199 रुपये। (4) चिड़िया की आंख भर रोशनी में, अच्युतानंद मिश्र, आधार प्रकाशन, पंचकूला, मूल्य-150 रुपये। (5) यह यात्रा मेरी है, निर्मला तोदी, सेतु प्रकाशन, नोएडा, मूल्य-275 रुपये। (6) पानी जैसा देस, विनय कुमार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य-250 रुपये। (7) उम्मीद से बनते हैं रास्ते, संतोष कुमार चतुर्वेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य-199 रुपये।

हिंदी विभाग, काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल-713340 (पबं) मो.8250412914