युवा कवि। काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल में सहायक प्रोफेसर।
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इस समय कविता की दुनिया में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। एकदम युवा कवि से लेकर वरिष्ठ कवियों की महत्वपूर्ण उपस्थिति से यह काव्य समय चमचमा रहा है। हम यहां कुछ काव्य संग्रहों की चर्चा करने जा रहे हैं।
नेहा नरूका का पहला कविता संग्रह है ‘फटी हथेलियाँ’जो छत्तीस की उम्र में छपकर आया है। छत्तीस की उम्र कम नहीं होती, युवा सपने पक गए होते हैं, जीवन संयम आ जाता है। नेहा नरूका के पहले संग्रह में कमोबेश स्थिरता, संयम, सपने के बदले यथार्थ की खुरदरी जमीन और स्त्री होने के अनुभव की सघनता है। यह एक पकी उम्र की युवा का संग्रह है। उनकी कविता ‘सोलह खसम’ में कथा कहने की शैली व्यंग्यात्मक है। वह कविता के शिल्प और भाव को बचा ले जाती है, अर्थात कवि ने कविता लेखन को साध लिया है। अनगढ़ता जो किसी कवि के पहले संग्रह में दिखती है, वह यहां नहीं है।
कविता की ये पंक्तियां एक हकीकत को बयां करती हैं, ‘मैंने क्रांतिकारियों की जीवनियां पढ़ीं/पर जिया एक घरेलू सहायिका जैसा जीवन।’ ऐसी ढेर सारी कविताएं यहां हैं, ‘अम्मा की रोटी’, ‘यहां चुंबन लेना जुर्म है’, ‘बलात्कारियों की सूची’, ‘आखिरी रोटी’, ‘तीन लड़कियां’, ‘मैंने पिता से सीखा’ आदि। ये दाहिने हाथ से लिखी गई हैं। इतना ही नहीं ‘गांव’, ‘घर’, ‘कपड़े’, ‘तीन इच्छाएं’, ‘प्रेमिकाएं’ जैसी कुछ लंबी कविताएं लिखकर नेहा नरूका ने यह आभास दे दिया है कि वे भविष्य में लंबी कविताएं भी इसी पक्केपन के साथ लिख सकती हैं।
इसी तरह का पक्कापन अनुपम सिंह और विनय सौरभ की कविताओं में है। विनय सौरभ की कविताओं का संग्रह चौवन साल की उम्र में आया है तो संध्या नवोदित का संग्रह अड़तालीस साल की उम्र में। एक तरफ एकदम युवा विहाग वैभव, अदनान कफील जैसे कवि हैं जो कम उम्र में ही संग्रह तक पहुच गए हैं तो मानीखेज कविताएं लिखकर धीरज और संयम के साथ कविता की वह पीढ़ी भी है जिसका संग्रह देर आए पर दुरुस्त आए की तरह है। इस तरह कविता की दुनिया में पांच पीढ़ियां आज के समय में एक साथ सक्रिय हैं। मोहन कुमार डहेरिया वरिष्ठ पीढ़ी से है और उनका पांचवा संग्रह अभी-अभी छपकर आया है- ‘चरण कमलों के दौर में’।
जिज्ञासा: आपके लिए कविता क्या है?
नेहा नरूका: इस विषय पर सोचते हुए मैंने पाया है कि बचपन से जिन बातों को मैं कह नहीं पाती थी और जिनको मैंने डायरी में लिखा था, धीरे–धीरे उन्हीं बातों से कविताएं बनने लगीं। ये बातें अक्सर दुनिया की बदसूरती, बदसलूकी और खामियों के बारे में थीं। बाद में मैंने महसूस किया कि कविता केवल जीवन की आलोचना नहीं है, कविता जीवन के उन सुंदरतम क्षणों की खोज भी है जो बनावटीपन, चालाकी और लालच में कहीं खो चुके हैं।
जिज्ञासा : एक स्त्री के अनुभव को कविता बनाने का हुनर है आपके पास, इसे साधा कैसे?
नेहा नरूका: मुझे नहीं लगता कि सप्रयास कुछ किया है। वक्त के साथ अपने–आप सधता गया। हां, मैंने यह शुरुआत में तय कर लिया था कि चाहे किसी अनुभव की कविताएं लिखूं, यहां तक कि राजनीतिक भी, उन्हें स्त्री रूप में ही लिखूं। कविता और जीवन दोनों में मैंने प्रगतिशील होने से ज्यादा ईमानदार होने की कोशिश की है।
जिज्ञासा : छोटी कविताएं आपके पास कम हैं, क्यों ?
नेहा नरूका: छोटी कविताएं नहीं लिख पाती मैं। एक–दो जो छोटी कविताएं हैं, तो वे अधूरी अधिक लगती हैं छोटी कम।
कई बार लगता है छंद में लिखी कविता, छोटी कविता और गीत मेरे वश के बाहर की चीज हैं। छंद मुझे साहित्य का सबसे उबाऊ विषय लगता है। यह उबाऊपन मेरे आलस्य और प्रतिभाहीनता का भी परिणाम हो सकता है। दरअसल मैं कवि तो कभी बनना नहीं चाहती थी, मेरी रुचि गायक या कहानीकार बनने में थी, पर जब मैंने ऐसे कवियों को पढ़ा जो गद्य जैसी कविता लिखते हैं (उस समय मैंने यही सोचा था!) तो मेरा झुकाव इस विधा की ओर हो गया।
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संध्या नवोदिता का संग्रह है ‘सुनो जोगी और अन्य कविताएं’। कई बार कवि से पहले उसकी कविताएं बोलने लगती हैं। कहने का मतलब यह है कि कवि से हमारा परिचय बाद में होता है, कविताओं से पहले। हम किसी दिन इलाहाबाद में खाने के टेबल पर मिलते हैं और पता चलता है कि वह जो प्यारी सी कविता-‘जोगी तुमको खोज रही हूँ’ या ‘जोगी सीरीज’ की कवयित्री यही हैं तो मन जोगी-जोगी होने लगता है। दरअसल अच्छी और प्यारी कविता की आग भी अच्छी और प्यारी होती है। मन फाहा-फाहा होने लगता है। ‘अड़तालीस डिग्री की दोपहर’ गुलाबीपन से बीतने लगती है। गरम लू के थपेड़े हमारे ऊपर ठंडी हवा के कोमल फाहों जैसे गिरते हैं। दरअसल जब हम प्रेम में होते हैं तो ईश्वर हो जाते हैं।
एक बिंब देखिए- ‘सूरज की चौंध रही होगी कोई अड़तालीस डिग्री की/एक ऐसे रंग का चश्मा चढ़ा था आंखों पर /जिसके बाद धूप भी गुलाबी हो गई थी, ऐसा क्यों हो रहा था या होता है? क्योंकि ‘हम साथ थे।’ यहां साथ रहना खुदा की सबसे बड़ी नेमत है। प्रेम करके यदि साथ न रहें, हाथों में हाथ न रहे और आंखों में आंखें न रहें तो आप ऐसी कविताएं नहीं लिख सकते।
संध्या नवोदित के पास कुछ बेहतरीन प्रेम कविताएं हैं। ‘वह मौसम बहुत अच्छा था’ पढ़ते हुए पाब्लो नेरूदा की याद आने लगी।
एक कवि जब प्रेम कविता लिखता है तो उसकी परीक्षा भाषा के मोर्चे पर सबसे पहले होती है। संध्या नवोदिता के पास शानदार भाषा है। सहज, सरल भाषा तो सभी कवियों के पास होती है लेकिन कविता के मिजाज के अनुसार भाषा किसी-किसी के पास होती है। ऐसी भाषा के लिए ही कहा जाता है- ‘दरेरा डालकर’ खुद से अपने मनोनुकूल भाषा लिखवा लेना। भाषा की एक और बानगी देखिए- ‘सुनो जोगी, कुछ समय बाद कुछ बातों का कोई अर्थ नहीं रहेगा। रंग उड़ जाएंगे। आसमान फीका हो जाएगा। जो कल्पना का सूर्य है वह कभी उदित होगा ही नहीं। कुछ बातें सिर्फ बातों की तरह रह जाएंगे और कभी फलेंगी ही नहीं। तुम्हें धारण करना और तुम्हें जन्मना और तुम में समाहित होना और अभिन्न होना। तुम्हारे साथ अनंत तक और चलना महासागरों के सीने पर और अपनी इंद्रधनुषी इच्छाएं गहराई में बो देना और तुम्हारी उर्वरता में हरा होना। इस तरह तुममें उगना जैसे धरती पर गुलाब उगता है। इस तरह फैलना तुममें जैसे आकाश में नीलापन। ऐसा बहना तुममें जैसे रगों में रक्त। ऐसे रहना तुममें जैसे सीने में हृदय।’ गद्य में काव्य की यह भाषा जोगी सीरीज को खास बनाती है। कविता शुरू में भी भाषा अर्थात ध्वनि थी और आज भी ध्वनि है, यह हम जोगी सीरीज की कविताएं पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं।
निराला कहते हैं कि बड़ी कविता अपने साथ अपना शिल्प लेकर आती है। अच्छी कविता अपने साथ अपनी भाषा भी लेकर आती है। अच्छी कविता अर्थात जो मन से लिखी जाए, कागज पर कलम से नहीं; मन से। यहां एक प्रेमी-कवि की कविताएं हमारे सामने है जो ‘अमर होने की ख्वाहिश’ में कहता है- ‘जब कुछ संभव न हो पाए/तो बस एक काम करना/तुम प्रेम को स्मृति में रखना/स्मृतियों को प्रेमिल रखना/नमी बचाए रखना/आंखों में/हृदय में/और जीवन में’ और अंत में कवि कहता है- ‘यह मेरे अमर होने की ख्वाहिश है तुममें।’ ऐसे ही प्रेम में पड़कर यह संग्रह बना है। यह प्रेम कविताओं और उसकी जादुई भाषा के लिए बार-बार पढ़ा जाएगा।
जिज्ञासा:‘जोगी’ सीरीज लिखने का खयाल कैसे आया?
संध्या नवोदिता: दुख से, यातना से, पीड़ा से, आनंद से भाव आए। हृदय एक ऐसा सतत रिसता हुआ घाव है जो पोर–पोर दुखता है और पीर–पीर जुड़ता है। जितनी चोट पड़ती है उतना ही वह खुलता जाता है और यहीं से प्रकाश दाखिल होता है। इसकी रौशनी में संसार का वह रूप दिखाई देता है जो सिर्फ आंखों से नहीं देखा जा सकता।
‘सुनो जोगी’ सीरीज लगभग डेढ़ साल में लिखी गई है। धीरे–धीरे। यह जैसे खुद को जानने की यात्रा है। इन कविताओं ने मुझे बदला है। मैंने भी इन कविताओं की भाषा को चकित होकर देखा है। इन कविताओं में प्रेम है। मैं अब मानती हूँ कि हमारे हर क्रिया कलाप का मूल प्रेम ही है। उसकी गैर–मौजूदगी ही हिंसा, क्रूरता और अवसाद है।
जिज्ञासा: आप कविता क्यों लिखती हैं?
संध्या नवोदिता: एक ऐसे माहौल में जहां सबसे ज्यादा कविताएं ही लिखी जा रही हैं, यह प्रश्न स्वाभाविक है कि कविता क्यों लिख रही हूँ। स्वांतः सुखाय नहीं लिखती। कम कविताएं हैं जिन्हें मैंने गहन आनंद में लिखा है। समाज बदलने के लिए लिख सकूं ऐसी क्षमता अभी मेरे पास नहीं है। मात्र कविताएं पढ़कर समाज नहीं बदलता। उसे बदलने के लिए एक्टिविज्म की असीम ऊर्जा लगती है। कविता या रचना की कोई भी विधा संवेदना को बनाए और बचाए रखने के सहायक टूल्स हो सकते हैं। ये दुनिया को समझने में मदद करते हैं।
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बरसों बाद हम लौटते हैं
किसी पुरानी जगह पर
एक याद मिलती है
जगह खो जाती है!
‘एक याद’ शीर्षक यह छोटी-सी कविता विनय सौरभ के कविता संग्रह ‘बख्तियारपुर’ से है जो कवि मन को समझने के लिए काफी है। विनय सौरभ यादों को लिखनेवाले कवि हैं। उनकी यादों में पुरानी जगहें, लौटना, पिता, माँ, बहन, घर, हाट, हाथपंखा, बहुरूपिये, जिल्दसाज, विनोद भैया, पुराने डाकिए, सहपाठियों, बचपन की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर, गरीब रिश्तेदार, गंगेसर राम, मदारी, बख्तियारपुर, भागलपुर, नोनीहाट आदि से जुड़ी बातों को कवि शिद्दत से लिखता है। अच्छी यादों का पिटारा है कवि के पास जो खत्म ही नहीं होता। एक से बढ़कर एक नायाब यादें कविता की शक्ल में हमारे सामने आती हैं- ‘उस शहर में मत जाओ/जहां तुम्हारा बचपन गुजरा/अब वो वैसा नहीं मिलेगा/जिस घर में तुम किराएदार थे/वहां कोई और होगा/तुम उजबक की तरह/खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और/कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा!’ (गिरिडीह बहुत अच्छा शहर था) एक शहर में बिताए गए दिनों की याद हो या किसी सहपाठी के साथ बिताया हुआ कोई पल, उन पलों को जबरदस्त काव्यमयता के साथ उकेरते हैं विनय सौरभ।
आज के दौर में सबकुछ को बचाने के लिए अच्छी यादों को बचाना निहायत जरूरी है। विनय सौरभ इस बात को अच्छे तरीके से जानते हैं।
यह संग्रह जिन चीजों के लिए याद रखा जाएगा वे हैं- पिता, मां, बहन और उस परिवेश को सजीव करके लिखी गई कविताओं के लिए। घर-परिवार के लिए, ‘हमारी दुनिया मे/कोई भी दृश्य साफ नहीं है/हत्यारे घूम रहे हैं खुलेआम/और अखबारों में उनके भूमिगत होने के अनुमान हैं।’
‘तह करके रखा हुआ अखबार/काम करके घर लौटते पिता की नजरों से/बचा लेना चाहता हूँ’ (धुंध में जीवन) यहां पिता को अखबार में छपे हत्यारों के भूमिगत होने की खबर से बचाने की जद्दोजहद है तो जब पिता इस दुनिया में नहीं हैं तो पिता की यादों को बचाने की जद्दोजहद है।
कुछ कविताओं में समाजिक विडंबनाओं की शानदार अभिव्यक्ति हुई है- ‘इस नगर का सबसे बड़ा अपराधी/जब जेल से बाहर आया तो लोगों ने उसे समाजसेवी कहा/इसी विश्वास में वह नगर परिषद का चुनाव लड़ रहा था/एक दिन वोट के सिलसिले में जब वह नगर का भ्रमण कर रहा था/तब विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों, शिक्षकों, डॉक्टरों और दूसरे धनी मारवाड़ी व्यापारियों को/मैंने उसके पीछे चलते देखा’ (मानहानि)।
जिज्ञासा: इतनी देर से कविता संग्रह क्यों आया?
विनय सौरभ: कोई खास उत्सुकता संग्रह लाने की कभी रही नहीं। हिंदी का प्रकाशक अपनी ओर से पहल कर कविता की पुस्तक छापने को कितना उत्सुक होता है, यह हम सब जानते हैं।
जिज्ञासा: पिता–बहन पर इतनी अधिक कविताएं क्यों हैं?
विनय सौरभ: पिता और बहनों से ज्यादा कविताएं इस संग्रह में दोस्तों और दूसरे विषयों पर हैं। मेरे जीवन में परिवार की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही है।
जिज्ञासा: कविता क्यों लिखते हैं?
विनय सौरभ: इसका ठीक–ठीक उत्तर दे पाना मुश्किल है। शमशेर ने कहा है– कविता मृत्यु की तरह आती है– औचक… एकाएक!
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‘धूप के नन्हे पांव’में नन्हे पांव की तरह ही नन्ही-नन्ही कविताएं हैं चित्रा सिंह के इस दूसरे संग्रह में। इससे पहले छोटी कविताएं बहुत सारे कवियों ने लिखी हैं- केदारनाथ सिंह, आलोक धन्वा, मदन कश्यप और निर्मला तोदी ने। विनोद कुमार शुक्ल याद आते हैं- ‘इस पेड़ में कितने पत्ते, एक भी दूसरे जैसा नहीं।’ हां, एक जैसी भावभूमि की वजह से इस संग्रह की कविताएं एक जैसी लग सकती हैं पाठकों को।
जैसे लघु कथाएं होती हैं, उसी तरह लघु कविताएं क्यों नहीं हो सकतीं? इस तरह एक बेहतर ट्रेंड की शुरुआत होती है हिंदी में। चित्रा सिंह की एक कविता देखें- ‘कुछ दुख गूंगे होते हैं/उन्हें केवल इशारों से/समझना पड़ता है।’ इस तरह की छोटी कविताओं के लिए ही यह संग्रह याद रखा जाएगा।
छोटी कविताएं, छोटे नश्तर की तरह होती हैं जो देखने में काफी छोटे होते हैं लेकिन उनके बिना एक शल्य चिकित्सक का काम नहीं चल सकता। ये छोटे नश्तर जिस तरह लोगों को निरोग करते हैं, ठीक उसी तरह यहां उपस्थित छोटी कविताएं मन के भावों को पन्नों पर उतार कर पाठकों का कैथार्सिस करती हैं। एक कविता देखें- ‘चलते-चलते भीड़ में/छूट जाता है जब कोई साथ/हाथों से/तो केवल कदम भर/करते हैं तय/आगे का सफर/पथराई सी आंखें तो/टिकी रहती है, उसी एक रास्ते पर।’
प्रेम कविताएं हर कवि के पास होती हैं, बिना प्रेम किए कोई कवि हो, यह शायद संभव नहीं। प्रेम कई रूपों में, कई तरह से अभिव्यक्त हो सकता है, लेकिन चित्रा सिंह के यहां प्रेम की एक अलग ही बानगी देखने को मिलती है- ‘भूल चुकी हूँ तुम्हें अब/प्रेम करना भी भूल चुकी हूँ/तुम्हारे स्पर्श की गंध की/याद से भी मन का स्वाद/हो जाता है कसैला।’ जब चित्रा सिंह लिखती है तो यह प्रेम की उलट परिभाषा है संध्या नवोदित के बरक्स। हर कवि के पास प्रेम की अपनी परिभाषा होती है। चित्रा सिंह के पास भी है और कविता खत्म होती है- ‘तुम से मिलकर जो मन/हुआ है मैला/आंसुओं से/धोती हूँ उसे अक्सर।’
जिज्ञासा: आपकी कविताएं काफी छोटी हैं। कोई कारण है या ऐसे ही?
चित्रा सिंह: कवि अपने मन के भावों को ठीक ढंग से व्यक्त कर पाया या नहीं, यह अधिक महत्वपूर्ण है। कम शब्दों में निहित अर्थ का विस्तार मायने रखता है। वैसे यह सहज रूप में है।
जिज्ञासा: प्रेम और प्रकृति आपकी कविताओं के केंद्र में हैं। क्या इनके बिना कवि बनना संभव है?
चित्रा सिंह: कवि के भीतर कल्पना की एक अलग ही दुनिया रची–बसी होती है, जो लगातार प्रकृति से संवाद करते हुए चलती है। दोनों के बीच जो सेतु है, वह है प्रेम! मुझे ये दोनों खींचते हैं।
जिज्ञासा: आप कविताएं क्यों लिखती हैं?
चित्रा सिंह: मेरी कविताएं मेरे हँसने और रोने की तरह हैं। उनके लिए कभी सोचना या योजना बनानी पड़ी हो, याद नहीं। इसलिए लिखती हूँ कि मेरे भीतर की मनुष्यता बची रहे।
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मोहन कुमार डहेरिया का ‘चरण कमलों के दौर में’पांचवा कविता संग्रह है जो उनके पैंसठ वसंत पार करने के बाद आया है। यहां तक पहुंचते-पहुंचते कविता और जीवन में बहुत कुछ थिरा जाता है। कविता अपने गंतव्य तक पहुंचती हुई प्रतीत होने लगती है। सारा अनुभव रीत जाता हुआ महसूस होता है कवि को भी और उसके पाठक को भी। जो पहली बार वाले पाठक होते हैं, उन्हें ऐसी परिपक्व कविताएं मोहती हैं, मंत्र-मुग्ध करती हैं। वे कवि की दुनिया में खो जाते हैं।
‘चरण कमलों के दौर में’ अनुभवी कवि की अनुभूतिपरक कविताएं हैं। यहां जीवन का अनुभव बोलता है। मोहन कुमार डहेरिया की एक कविता है- ‘मेरे घर में उसका आना’। यह कविता एक ऐसी छोटी बच्ची पर है जो कवि के घर में परिचारिका बनकर आती है और एक लंबा समय बिताकर शादी करके उस घर से विदा होती है तो कवि स्मृति में जाकर बीते दिनों को याद करता है- ‘आई जब पहली बार/सरसों के तेल में लिथड़े उसके झाडूनुमा बालों को देखकर/जुगुप्सा से भर जाती पत्नी।’ कवि बताता है कि मांजते-मांजते बर्तन घर के मेरे, पता ही नहीं चला कब शामिल हो गई मेरे परिवार में वह। दरअसल मनुष्य वही है जो दूसरों को अपना बना ले। यह एक बड़ी कला या गुण है। यह कला त्याग, समर्पण और आत्मबलिदान की मांग करती है। सबकुछ देने से ही सबकुछ मिलता है। कुछ देकर कुछ ही पाया जा सकता है। लेकिन कवि अभी भी द्वंद में है। मालिक और लड़की के पिता होने की विडंबना को यह कविता अच्छी तरह से पकड़ती है- ‘जा रही आज जब विवाह के बाद दूसरे के घर/मैं हतप्रभ हूँ और थरथरा रहा/कैसे दूं उसे विवाह की भेंट/कि उसे मेरा स्नेह, स्नेह सा लगे/किसी नौकरानी को दी गई तनख्वाह की तरह नहीं।’ यहां एक शब्द ‘नौकरानी’ विडंबनाबोध को उजागर कर देती है। एक शब्द से कविता किस तरह पूरे जीवन के द्वंद्व को उभार देती है।
एक और महत्वपूर्ण कविता है- छत्तीसगढ़ से एक पुलिसवाले का पत्र। पुलिसवाला अपने पिता, पत्नी, बच्चे को जो पत्र लिखता है, वह काफी मार्मिक है। पुलिस की नौकरी सिर्फ लाभदायक नहीं होती प्राणदायक भी होती है, हमें बतलाता है यह पत्र।
हर कवि जीवन की असलियत, अर्थात सचाई को अपनी कविता में बयां करता है। कई बार निजी जीवन की सचाइयां भी खास होकर कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं- ‘ढहाया इस प्रतिमा को अगर’, ‘आकाशवाणी में कविता पाठ’, ‘मदद’, ‘नहीं दूंगा अपना दुख किसी को’, ‘मौत के बाद उस घर में पहला त्योहार’, ‘पता ही नहीं चला’, ‘चीता और हिरणी’, ‘कविताओं का मेरे अंदर आना’, ‘हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता’, ‘पिछड़ा नहीं हूँ मैं’, कुछ ऐसी ही कविताएं हैं।
‘हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता’ और ‘कलाकार’ दो ऐसी कविताएं हैं जिनमें कई जीवनियां हैं। दरअसल मोहन कुमार डहेरिया अपनी कविताओं में वह सब लेकर आते हैं जो हम देखते तो हैं पर लिख नहीं पाते।
कविता की दुनिया में इस समय बहार आई हुई हैं। पिछले दो-तीन सालों में युवा कवियों से लेकर वरिष्ठ और प्रथम कविता संग्रह वाले कवियों ने अपनी उपस्थिति जिस तरह दर्ज कराई हैं, वह काफी उम्मीद जगाती है। आलोचक जब कहें कि कविता मर रही है तो दरअसल कविता जी रही होती है। ये संग्रह उसी जीवित संसार की बानगी प्रस्तुत करते हैं।
जिज्ञासा: संग्रह का शीर्षक है–‘चरण कमलों के दौर में’ पर इस शीर्षक से कोई कविता नहीं है, क्यों?
मोहन कुमार डहेरिया: कविता–संग्रह का नाम, उसमें शामिल कविताओं में से किसी एक कविता के शीर्षक पर रखने की साहित्यिक परंपरा रही है। पर मैं चाहता था, नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को निगलने वाली मौजूदा पाशविक विचारधारा, बुद्धिजीवी वर्ग का शातिर अवसरवाद तथा मीडिया की चारित्रिक फिसलन के संकेत इस कविता–संग्रह के शीर्षक में ध्वनित हों। इसलिए मुझे यही शीर्षक रखना बेहतर लगा।
जिज्ञासा: क्या समय की विसंगतियों को कविता में लाना आप जरूरी मानते हैं?
मोहन कुमार डहेरिया: दुनिया में जितनी भी बड़े कद की कविताएं हैं, वे सभी तत्कालीन समय तथा समाज की विसंगतियों को सामने लाने के कारण ही प्रसिद्ध हुई हैं। वैसे भी कविता का मुख्य कार्य जीवन की विसंगतियों, विडंबनाओं, मनुष्य जीवन में व्याप्त छल–कपट को सामने लाना ही है।
जिज्ञासा: कविता आपके लिए क्यों जरूरी है ?
मोहन कुमार डहेरिया: कविता लिखने का कार्य वर्षों पहले, कॉलेज के एक मित्र से स्पर्धा के रूप में अखबार में अपना नाम भी छपा देखने की कामना से शुरू हुआ था। धीरे–धीरे वक्त बीतने के साथ कब यह सोने–जागने, खाने–पीने, घूमने–फिरने की तरह जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा बन गया, पता नहीं चला। अब कविता से जुड़ना मेरे लिए समाज के प्रति अपनी खुद की चुनी एक नैतिक जिम्मेदारी है। संक्षेप में कहा जाए तो कविताएं लिखना मेरे लिए अपनी आत्मा की अदालत में दिया गया बयान है। शायद इसी तरह मैं इस धरती पर अपने मनुष्य होने को प्रमाणित करता हूँ।
समीक्षित काव्य संग्रह:
(1) फटी हथेलियाँ- नेहा नरूका, राजकमल प्रकाशन, 2023, नई दिल्ली, मूल्य-199 रुपये। (2) बख्तियारपुर, विनय सौरभ, राजकमल प्रकाशन, 2024, नई दिल्ली, मूल्य-250 रुपये। (3) सुनो जोगी और अन्य कविताएं, संध्या नवोदिता, लोकभारती प्रकाशन, 2024, प्रयागराज, मूल्य-299 रुपये। (4) धूप के नन्हे पांव, चित्रा सिंह, प्रज्ञा भारती प्रकाशन, दिल्ली, 2022, मूल्य-350 रुपये। (5) चरण कमलों के दौर में, मोहन कुमार डहेरिया, सेतु प्रकाशन, 2022, दिल्ली, मूल्य-140 रुपये।
हिंदी विभाग, काजी नजरुल यूनिवर्सिटी, आसनसोल-713340 (पबं) मो.8250412914