आदिवासी कथाकार।बी.एस. के. कॉलेज मैथन धनबाद में हिंदी की विभागाध्यक्ष।९ सालों तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौलतराम कॉलेज, और महाराजा अग्रसेन कॉलेज में हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ाया।
जो होगा आज देख ही लूंगी…. पर….. पर आज तो मैं अपने बच्चे को अवश्य भात खिलाऊंगी।चाहे जैसे भी हो।आज मुझे यह दिन देखना पड़ा? मेरा बच्चा आज सखड़ी (खाने के दौरान जमीन पर गिरा जूठा खाना) उठा कर खा गया।ओह रे…! भूख से तड़पता मेरा बच्चा।वह इतना भूखा था कि भूख से बिलबिला रहा था।उस नजारे का मैं वर्णन नहीं कर सकती।झुबन तड़प उठी थी।वह उस दृश्य को भूल नहीं पा रही थी।
ओह ये भी दिन देखने थे मुझे…….?
मैं भूखी रह लूं, यह मुझे बर्दाश्त है लेकिन…….? मेरी आंखों के सामने मेरा बच्चा… उसकी ये हालत….न…न…. मैं यह सहन नहीं कर सकती हूँ।
उसके मन में तरह-तरह की बातें आ रही थीं।वह सोच रही थी।मैं क्या करूं? उस जमींदारनी ने ये अच्छा नहीं किया।कहां से अपने बच्चे के लिए अनाज के दाने लाऊं।कौन मुझे देगा? कहीं से मुट्ठी भर भी चावल मिल जाए, तो मैं उसे पकाकर अपने बच्चे को पेट भर भात खिलाऊंगी।
वह उधार नहीं लेना चाहती थी, क्योंकि गांव के महाजन उधार के बदले ‘बंधक’ के तौर पर खेतों को ले लेते थे।जब तक मेरे पैसे मुझे वापस नहीं मिल जाते तब तक तुम्हारे फलाने खेत का मालिक मैं हूँ।इस तरह के ‘बंधक’ के कागज तैयार किए जाते थे, और वह कभी भी इन जमीनों को वापस नहीं ले सकते थे।पीछे कई पुरखों के समय से यही देखने को मिलता रहा था।
झुबन के परिवार में खेत की कमी नहीं थी, पर कई वर्षों के लगातार सुखाड़ के कारण खेत बंजर पड़े थे।खेतों में खेती नहीं हो रही थी।बारिश समय पर नहीं हो रही थी।बारिश नहीं होने से खेती बिलकुल भी संभव नहीं हो पा रही थी।खेत सूख कर चट्टान बन गए थे।खेतों में कुदाल चलाने से ‘ठन्न’ की आवाज आती थी।कुदाल दूर छिटक जाता था।कुदाल चलाने वाले के हाथों में फफोले उठ जाते, घाव हो जाता पर खेत थोड़ा भी नहीं खुद पा रहा था।ऐसे में झुबन के परिवार में पेट भरना बहुत मुश्किल हो गया था।
गांव में एक नहर थी।नहर के अंतिम छोर में जमींदार के कई खेत थे।उसने अपने खेत में पानी ले जाने के लिए गांव वालों के सहयोग से नहर तैयार कराई।जमींदार ने तब कहा कि नहर का पानी सभी के खेतों में जाएगा।आप सभी लोग उस नहर के पानी से खेती करेंगे, अपने खेतों को सींचेंगे, पटाएंगे और इसके बदले आप लोगों को कोई पैसा या अनाज नहीं देना पड़ेगा।
यह सुनकर गांव वाले बहुत खुश हुए।ये तो हम सभी के लिए भगवान का आशीर्वाद मिल गया।गांव वालों ने अपने ‘पड़हा’ (उरांव आदिवासियों की पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था) की बैठक बुलाई और सभी ने खुशी-खुशी नहर के लिए ‘मदईत’ (मदद करने की पारंपरिक व्यवस्था) बनने को तैयार हो गए।इस तरह सबकी सहमति के बाद जमींदार को यह खबर दी गई कि ग्रामीण अपना श्रमदान देने को तैयार हैं, लेकिन हर किसी को अपने खेतों के लिए उन्हें पानी देना होगा।जमींदार गोंदसाय ने बड़ी ही दिलदारी से सबके सामने यह कह दिया- ‘हां..हां.. भाइयों- ये तो आपके लिए ही तैयार किया जा रहा है।मेरा खेत तो अंतिम छोर में है।पता नहीं पानी वहां तक पहुंच भी पाएगा कि नहीं।देखिए पानी आ जाने से हम सभी को खेतों में पानी मिलेगा।हमारी फसल अच्छी होगी और हम भूखे नहीं रहेंगे।आप सभी को भी अपने गांव घर छोड़कर ‘कोड़ा कमाने’ (परदेश में मजदूरी करने जाना) नहीं जाना होगा।’
ओपाचापा बांध लगभग १० किलोमीटर की दूरी पर था।वहां तक हमपट गांव की सीमा लगभग पहुंची हुई थी, चारों ओर ‘दोइन खेत’(अधिक पानी वाला खेत) पसरे पड़े थे, लेकिन सभी खेत बंजर पड़े थे।कई वर्षों से बारिश जो ठीक से नहीं हो पा रही थी।इन खेतों में पानी मिलने से खेती अच्छी होगी।अन्य गांव वालों के भी खेत बीच-बीच में थे।अतः नहर द्वारा पानी उन्हें भी मिलेगा, इसलिए उन खेत मालिकों को भी इसकी सूचना देकर उन्हें भी शामिल कर लिया गया।खेतों को पानी मिलेगा, इस खुशी में सभी नहर खोदने में ‘मदईत’ बनने के लिए तैयार हो गए।इस तरह निश्चित दिन पर नहर खुदाई का आरंभ किया गया।
बेचारे किसान…! घर में खाने को दाने नहीं।कोई खाया पिया, कोई भूखे प्यासे ही नहर खोदने के काम में लग गया।माड़-भात, पानी-भात, साथ में नमक मिर्च, कोई ‘सूखटी’ (सुखाया हुआ साग) मिला तो ‘तियन’ (पकी हुई सब्जी) बना, नहीं तो वैसे ही… कुछ भी खा-पीकर सभी बड़ी लगन से नहर खोदने में जुट गए।कई महीनों की लगन, मेहनत के बाद नहर तैयार हो गई।
अब ओपाचापा बांध से पानी खोलने की बात आई।जमींदार ने यहां भी चालाकी दिखाई और ग्रामीणों की बैठक बुलाई तथा कहा कि मेरे गांव के प्यारे भाइयो-बहनो! खुशी की बात है कि हम सभी की नहर तैयार हो गई।अब इसमें पानी चालू करना है।हम सभी के लिए यहां पर एक दिक्कत आ रही है।अभी शुरू में पानी चालू करने के लिए सरकार को एकमुश्त रकम देनी है।इसलिए आप सभी को घर पीछे एक-एक सौ रुपये जमा करने होंगे।मैं अकेला एक हजार दूंगा।आप सभी की सहूलियत के लिए आपसे बस एक-एक सौ ही जमा करवा रहा हूँ।सुनकर गांव वालों को चक्कर आ गया।भला भूखा प्यासा रहकर महीनों हमने श्रमदान किया, जान जोखिम में डालकर हमने नहर तैयार की।अब पानी के लिए हम इतना पैसा कहां से लाएंगे? ग्रामीण एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।पड़हा के ‘महतो’ (गणमान्य व्यक्ति) , ‘पाहन’ (गांव का पुजारी) सभी एक-एक कर जाने लगे।इस तरह सभी व्यक्ति वहां से चले गए।जमींदार के इन बातों का वहां पर कोई जवाब देने वाला नहीं था।जमींदार गोंदसाय समझ नहीं पा रहा था कि अब कौन सा पांसा इनके सामने फेंका जाए।
उधर ग्रामीणों ने ‘पड़हा’ की बैठक बुलाई।सभी ने विचार-विमर्श किया।तय किया गया कि हम अपने खेतों से उपजने वाले अनाज में से ही सरकार को रुपया दे पाएंगे।अतः जमींदार के पास यही शर्त रखी जाए।निश्चित दिन ‘पड़हा’ के महतो व पाहनों ने जमींदार से यही कहा।जमींदार राजी हो गया, पर उसकी चाल रुपये बटोरने की थी वो मंशा उसकी पूरी न हो सकी।वह मन ही मन फूंफकार रहा था और अगली दफा कैसे पैसे निकलवाए जाएं इसकी योजना में लगा हुआ था। …बच्चू, तुम सब बच कर कहां जाओगे।अभी तुम लोग एक-एक सौ नहीं दे रहे हो ना, रुक जाओ, मैं तुम सबसे कई गुना अधिक न वसूला तो मेरा नाम भी गोंदसाय… नहीं।गोंद की तरह चिपक जाऊंगा जब तक तुम सभी का एक-एक बूंद खून न चूस लूं और हाड़ मांस न खा जाऊं।इस तरह जमींदार ने अपनी अगली चाल तैयार कर ली और नहर में पानी का खेल खेलना आरंभ कर दिया।
नहर में पानी देख गांव वाले खुशी से फूले नहीं समाए।सबने अपने खेतों में फसल लगाने की सोची और उसकी तैयारी करने लगे।धान बोने का समय था, अतः सभी अपने-अपने खेतों में धान लगाने के लिए ‘बिचड़े’ (बीज) जुगाड़ करने में लग गए।कोई किसी से ‘पंइचा’ (उधार) मांग रहा था, कोई ‘गोला घर’ (सहकारिता बीज भंडारण) से उधारी ले रहा था।
गांव में मुख्य आहार भात होता है।अतः सभी धान की खेती पर अधिक जोर देते हैं इसलिए कुरुख भाषा में भात को खाते नहीं पीते हैं।गांव में मुख्य आहार पानी भात या माड़ भात होता है अर्थात भात में ढेर सारा पानी या माड़ डालकर।इससे खाना और पीना दोनों हो जाता है।भात खाते हुए पानी पीना होता है, यह साथ–साथ चलने वाली खाने की विशेष पद्धति है।यह पौष्टिकता से भरपूर तथा स्वादिष्ट भी होता है।हर आम आदिवासी का मुख्य भोजन यही होता है, गांवों में।
झुबन के घर में धान, चावल कुछ भी नहीं था।थोड़ा बहुत गोंदली एवं मडुवा था।उसी से किसी तरह जीवन यापन चल रहा था।
झुबन ‘गोला घर’ धान लेने गई।गोला पड़हा द्वारा चलाने वाला अनाज/धान गोदाम होता है।यहां सभी ग्रामीण थोड़ा-थोड़ा धान स्वेच्छा से जमा करते हैं।जरूरतमंदों को उसी गोला से धान दिया जाता है।धान लेने वाला थोड़ी अधिक मात्रा में देकर धान वापस करता है।इस तरह गांव की व्यवस्था में यह विनिमय पद्धति सालों साल चलता आ रहा है।
झुबन के घर में बहू की तबीयत लंबे समय से खराब चल रही थी।इस कारण धान का ‘बिचड़ा’ लेने जाने में देर हो गई।नहर से पानी मिलने की वजह से सभी ने जल्दी-जल्दी धान ले लिया और गोला में धान खत्म हो गया।सभी ग्रामीण अति उत्साहित थे कि इस वर्ष पानी की कमी नहीं झेलनी पड़ेगी और हमें फसल अच्छी मिलेगी।धान न मिलने से झुबन निराश होकर वापस घर आ गई।वह सोचने लगी कि अब वह क्या करेगी, कहां से उसे धान मिलेगा? उसने अपनी बीमार बहू को कड़ुवा तेल से मालिश कर कुछ खिलाया और कपड़े वगैरह बदलकर उसे धूप में सुलाया।यह नित का झुबन का काम था।झुबन का भाई रीझा जंगल पहाड़ों के चक्कर लगाता और खाने की चीजें जुगाड़ करता पर वह पूरा न पड़ता।
अब झुबन के पास एक ही उपाय था।उसे जमींदार के घर पर ही धान लेने जाना था।किसी भी जरूरत के लिए गांव वाले वहां नहीं जाना चाहते थे, लेकिन परिस्थितियां उन्हें वहां तक खींच लाती थी।
झुबन घर के सारे काम खत्म कर ‘मड़ुवा लेटे’ (एक तरह का खाद्य पदार्थ) खाकर अपने भतीजे को, जो उम्र में ग्यारह महीने का था, पीठ में ‘बेतरा’ (बच्चे को पीठ पर कपड़े की सहायता से बांधना) करती ‘उडडु’ (धान नापने की बड़ी टोकरी) लेकर चल पड़ी जमींदार के घर।हमपट गांव में उरांवों का बहुत बड़ा टोला था।झुबन का घर बड़ा अखड़ा (सांस्कृतिक स्थल) के पास था।जमींदार का घर गांव के दूसरे छोर पर था।करीब २० मिनट की पैदल चाल के बाद वह जमींदार गोंदसाय के यहां पहुंची।करीब आधे घंटे बैठे रहने के बाद बीसारनी देवी जमींदारनी आई।उसने झुबन से आने का कारण पूछा।हालांकि वह उडडु देखकर समझ गई थी कि वह अनाज लेने के लिए आई है।बीसारनी देवी ने झुबन को वहीं रुकने का कहकर अंदर चली गई।
कुछ देर बाद वह अपने बच्चे को लेकर आई।वह लगभग डेढ़ वर्ष का रहा होगा।अपने बच्चे के लिए उसने एक ‘डुबहा’ (कटोरा) में दाल भात लेकर आई थी।बच्चा एक आंख से अंधा था।दूसरा आंख बहुत कम खुलता था, अतः बच्चा देख नहीं सकता था।जमींदारनी वहीं पर बिछे ‘पटिया’ (चटाई) पर बैठ गई और अपने बच्चे को भात खिलाने लगी।झुबन दूर अपने बच्चे को बेतराये हुए जमीन पर बैठी हुई यह सब देखती रही।
धान देने वाला नौकर उडडु लेकर चला गया, जिसमें वह धान लेकर आता।अत: झुबन कों इंतजार में बैठना पड़ रहा था।जमींदारनी अपने बच्चे को खाना खिला रही थी।बच्चा खेल-खेलकर भात खा रहा था।उसके मुंह से भात गिर भी रहा था और बच्चे के हाथ से इधर-उधर छिटा भी रहा था।तभी झुबन का ११ महीने का भतीजा जग गया जो बेतरा में सो रहा था।उसने उस जमींदार के बच्चे को भात खाता देख लिया।अब झुबन का बच्चा भी भात खाने के लिए बेतरा से उतरना चाह रहा था।वह ‘बेतरा’ में उफड़ने लगा, छटपटाने लगा।
झुबन किसी तरह बच्चे को ‘बेतरा’ में ही संभाले रही।जमींदारनी झुबन के पीठ पर बच्चे की हरकत को देख रही थी पर उसने उस बच्चे को भात का एक दाना भी देने की इच्छा जाहिर नहीं की।झुबन का बच्चा भात खाने की ललक से बेतरा में तड़प रहा था पर उस जमींदारनी की संवेदना उस गरीब बच्चे के लिए कण मात्र भी नहीं थी।
झुबन भी डर रही थी।वह अपने भतीजे को बेतरा से उतारना नहीं चाहती थी।छोटा बच्चा, जिसे भात का दाना देखे कई दिन हो गए थे, कहीं उस बच्चे के भात से भरे ‘डुबहा’ पर हमला न कर दे।इसलिए जब तक जमींदारनी अपने बच्चे को खिला रही थी तब तक झुबन ने बच्चे को ‘बेतरा’ से नहीं उतारा।अब जमींदारनी का भात ‘डुबहा’ में खत्म हो चुका था।जमीन पर, पटिया पर भात के दाने बिखरे पड़े थे।भात का एक दाना काफी दूर छिटक कर चला गया था जिस पर किसी की नजर नहीं गई थी।अब जब उस जमींदारनी के बच्चे का खाना खत्म हुआ, झुबन ने बेतरा में बंधे उफड़ते बच्चे को बेतरा से खोलकर नीचे उतार दिया।
बच्चा जैसे ही नीचे आया वह तेजी से ‘हाबुड़– गाबुड़’ (चार पैरों से हड़बड़ा कर चलना) चलता हुआ दूर गिरे उस भात के दाने के पास गया और उसे उठा कर खा गया।झुबन को लगा कि बच्चा इतनी देर से बेतरा में बंधा हुआ था शायद इसलिए बेतरा से खुलते ही वह खेलना चाह रहा है।पर….पर….. बच्चे को भात के दाने उठाकर खाते देख उसका दिल कराह उठा।
ओह रे मेरा बच्चा…।इतना भूखा था कि उसकी तीखी, तेज आंखों ने एक ‘सखड़ी’ पर अपनी निगाहें जमा रखी थी और मौका मिलते ही वह भूखे शेर की तरह एक भात के दाने, ‘सखड़ी’ पर टूट पड़ा।दूर गिरे उस ‘सखड़ी’ को खाने के बाद वह बच्चा ‘डुबहा’ के पास गिरे बाकी भात के दाने की ओर लपका।झुबन कुछ समझ पाती तब तक बच्चा उस सखड़ी पर भी टूट पड़ा और चुन-बिछ कर बड़े चाव से खाने लगा।वह बहुत खुश था, जैसे बहुत बड़ा जंग जीत गया हो।उसकी आंखों में एक चमक थी जैसे वह कह रहा हो, अरे वाह आज तो मुझे खजाना ही मिल गया है।यहे देख वह अंदर से कराह उठी।
झुबन बच्चे को वहां से हटाना चाहा पर बच्चा उफड़ता हुआ जोर-जोर से रोने लगा।जमींदारनी अपने बच्चे को गोद में लिए पास के ‘पिंडा’ (दीवार से लगा ऊंचा चबूतरा) पर बैठी।यह सभी दृश्य देखकर भी उसके मुंह से एक बोली नहीं फूटी।वह चुपचाप उसे देखती रही।एक औरत, ममतामयी मां की संवेदना क्यों नहीं जागी, जब एक बच्चा खा रहा था और दूसरा बच्चा वहीं पर भात देखकर उफड़ रहा था।झुबन की आंखें डबडबा उठी।मन अशांत हो गया।अपनी बेचारगी पर वह चिल्ला-चिल्ला कर रोना चाहती थी पर चाह कर भी वह ऐसा नहीं कर पाई।
झुबन की तंद्रा तब टूटी जब उसने अपने भतीजे को गिरे हुए भात के दाने को बड़े प्यार और स्वाद से खाते हुए देखा।८-१० भात के दाने खाकर वह खुश हो जाता है।उसकी आंखों में खुशी की एक चमक दिखती है और वह विजयी मुद्रा में अपनी बुआ को देखता है।खुशी से उसके मुंह से किलकारियां फूटती हैं।वह मम…मम…मम…मम…की आवाज निकालता हुआ पुनः सखड़ी खाने में व्यस्त हो जाता है।
झुबन इस दृश्य से बहुत आहत होती है।वह कुहक कर रह जाती है।वह अपने आंसुओं को पीकर शांत रहने की नाकाम कोशिश करती है।अब तक जमींदारनी अपने बच्चे को लेकर अंदर जा चुकी थी।हमारे ही खून को चूस कर जीने वाले इन परजीवियों का ‘सखड़ी’ आज मेरे बच्चे को खाना पड़ रहा है।ये कैसी निष्ठुर औरत है जो अपने भात भरे ‘डुबहे’ से दो दाना भात मेरे बच्चे को न दे सकी।आखिर इनके पास क्या कमी है! एक मुट्ठी भर भात मेरे बच्चे को दे ही देती तो इसका क्या घट जाता।कई पीढ़ियों बाद एक बच्चा इनके घर में पैदा हुआ, वह भी अपने आंखों से विकलांग।इनकी समझ में नहीं आता? ‘धर्मेश’ (उरांव समाज के सर्वोच्च देव) सब देखता है।वह बुदबुदाते हुए अपने बच्चे को गोद में उठाती है और आवेश में बाहर निकल जाती है।अब उसका स्वाभिमान जाग उठा था।वह गुस्से से उबल रही थी।उसने धान लिए बगैर ही अपने घर का रास्ता लिया।उसने ठान लिया कि आज जो भी हो जाए वह अपने बच्चे को भात अवश्य खिलाएगी।चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े।आज उसका बच्चा भात जरूर खाएगा।भरपेट खाएगा।
जमींदार ने सालों साल हर किसी के साथ बेईमानी की है।उसने फरमान जारी किया कि जब तक गांव वाले एक-एक सौ रुपये जमा नहीं करते, उनके खेतों में पानी नहीं जाएगा।उसने सिर्फ अपने खेतों में पानी चलाया और धान की खेती की।धान पकने वाला था।पानी ‘पुरकस’ (बहुत अधिक) मिलने से दाने ‘गुदगर’ (ह्रष्ट-पुष्ट) थे। ‘पोठाल-पोठाल’ (गदराये दाने) धान के ‘बइल’ (पके हुए तैयार धान के पौधे की गठरी) थे।झुबन रात के अंधियारे में जाती है और जमींदार के खेत से एक ‘खांचा’ (बड़ी टोकरी) ‘बइल’ काट कर ले आती है।
घर आकर उसने थोड़े से धान से चावल निकाल कर पकाया और अपने बच्चे को खिलाया।बच्चे को भात खिला कर वह बहुत खुश और संतुष्ट हुई।सुबह घटित घटना से अब जाकर उसका मन चैन पाता है।बच्चा भरपेट भात खाकर खेलने लगता है।
सुबह के १०-११ बजे का समय हो चला है…।झुबन के घर के बाहर कई आदमी घोड़े पर आकर खड़े हैं।उन्हें पता चल जाता है कि झुबन ने जमींदार के खेत से धान की बइल चुराई है।वे उसे पकड़कर जमींदार के पास ले जाते हैं।जमींदार उसे अंग्रेज सिपाहियों के हवाले कर देता है।झुबन अपने भतीजे के उस चेहरे को याद कर खुश होती रही जब उसने अपने नन्हे को भरपेट भात खिलाया था।उसका खिलखिलाता चेहरा उसके सामने था, और उसे कटाई को लेकर कोई ग्लानि नहीं हो रही थी।वह फख्र से अपने किए पर सर उठा कर सबसे नजरें मिला रही थी।
गांव वाले जमींदार के इस रवैये, तानाशाहीपन से पहले से ही त्रस्त थे।नहर वाली व्यवस्था में भी उसने ग्रामीणों से बेईमानी की थी और अब झुबन के साथ घटित घटना का भी हल्ला पूरे गांव में फैल चुका था।ग्रामीण अब खुद को संभालते संभालते भी काफी उग्र हो गए थे, होते भी क्यों न, लंबे समय से यही सब हर रोज किसी न किसी के साथ घटने वाली घटना बन गई थी।उन्होंने जमींदार और अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ मोर्चाबंदी करने का निर्णय लिया और संगठित होने लगे।युद्ध की घोषणा जाने कब हुई पर अब सब सुलग रहा था।
संपर्क : सहायक प्राध्यापक, बी. एस. के. कॉलेज, मैथन, धनबाद.ईमेल– neetishakhalkho@gmail.com
It is truly inspiring…
I think this plot really works because of how well you’ve paced the story.
विशिष्ट शैली मे लिखी मार्मिक बिचलित करने वाली कथा, शब्दों से आखों के सामने दृश्य प्रस्तुत करते है
तुम्हारी कहानी क्या पढ़ी यथार्थ से करा गई ।