युवा कवयित्री। कई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
टुड़ीगंज स्टेशन के खत्म होते ही थोड़ी दूरी पर एक बड़ा-सा नाला और आस-पास कटीली घासों की झाड़ी है जो अक्सर रात के अंधेरे में देखने वालों को अलग-अलग दिखाई देती है। बच्चे प्राय: उसमें राक्षस की आंख, नाक, कान सब ढूंढ़ लेते और खेल-खेल में अपनी भयमिश्रित कल्पना का वर्णन बढ़ा- चढ़ाकर करते। अभी भी शाम पूरी ढली नहीं है, नीला आसमान लाल-पीले-स्लेटी रंगों के बीच खोता चला जा रहा है। स्टेशन पर लैंप पोस्ट जलने शुरू हो गए हैं।
झाड़ी के पास लोगों की चहलकदमी कुछ आशंका व्यक्त कर रही है। कटीली घासों के बीच कोई आदमी बेजान पड़ा था। लोगों के बीच कयास लगाया जा रहा था कि वह मर गया है। एक-दो लोग लाठी से बेजान शरीर को इधर-उधर पलट रहे थे और आपस में कुछ फुसफुसा रहे थे। एक मजबूत कद-काठी के जवान ने इस पसोपेश को खत्म करते हुए ऐलान किया कि आदमी मर चुका है। अचानक भीड़ में से किसी ने उसकी पहचान जाहिर की- ‘मुझे लगता है शायद ये मास्टर जी का…’ उसके बाद क्या था धीरे-धीरे सभी चले गए।
पर बड़का का मन नहीं मान रहा था। उसके लिए यह आदमी अनजान नहीं था, एक ही गांव का था, आठवीं तक साथ पढ़ा था। कई बार स्कूल से निकलकर खेतों में बोरिंग पंप के सामने मुंह डालकर दोनों ने साथ पानी पिया था। एक बार ब्रजकिशोर चाचा के खेत से चने की साग तोड़ते हुए भी दोनों पकड़े गए थे। उसके बाद तो चाचा ने दोनों की कान भी ऐंठी थी। दोनों कान सहलाते-सहलाते भागे थे और सप्ताह भर उस रास्ते से नहीं गुजरे थे।
बड़का देर तक लाठी से बेजान शरीर को उलटता-पलटता रहा। लाश को छूने का मन तो था पर अम्मा की बात याद आ जाती – ‘ऐसे आदमी की लाश छूने से, उसका जूठा खाने से उसी की योनि में जन्म होता है।’ बड़का समझ नहीं पा रहा था कि क्या किया जा! एक ओर अम्मा का विश्वास और दूसरी ओर उसका मन। लाश को झाड़ी के पास छोड़ना उसे सही नहीं लगा। कुछ भी हो जाए वह मास्टर जी के घर तक ले ही जाएगा। उसे स्टेशन पर दो जीप गाड़ी और एक तांगा दिखाई दिया। वह भागा-भागा एक जीप गाड़ी के पास पहुंचा, दस मिनट तक मिन्नते करता रहा और फिर उसने गमछे में बंधे कुछ पैसे जीपवाले के हाथ में पकड़ा दिए। पैसे को जेब में रखते हुए जीपवाला उसके साथ आया और लाश गाड़ी में रखकर फुर्ती के साथ जीप चलाने लगा। गर्र-गर्र करती हुई जीप पक्की सड़क से गुजरते हुए थोड़ी देर में कच्ची सड़क पर पहुंच गई।
बड़का मास्टर जी के दुआरे पहुंच कर चिल्लाने लगा- ‘ओ चाची! ओ चाची! जल्दी बाहर आइए। देखिए क्या हो गया?’ चाची माथे का पल्ला ठीक करते हुए दलान से बाहर निकली। कुछ समझती उसके पहले बड़का ने चाची को दालान में पड़ी खटिया पर एक चादर बिछाने को कहा।
चाची अकबक सी जीप को और जीपवाले को देखते हुए जल्दी से चादर बिछाती है और धीरे से पूछती है, ‘क्या हुआ?’
‘चाची अंबर हम सब को छोड़ कर चला गया है। थोड़ा-सा धीरज रखिए…’
इतना सुनते ही चाची दहाड़-दहाड़ कर रोने लगी- ‘हे भगवान! अभी और क्या देखना बाकी है? मेरे हीरे जैसे बिटवा के साथ क्या किया तूने भगवान? जानता है बड़का, कितना कष्ट में था मेरा बिटवा, हँसते हुए सबकी हजारों बातें रोज सुन लेता पर एक शब्द किसी से कुछ नहीं कहता।’
अंबर के पार्थिव शरीर को चौकी पर रखा गया। चाची लिपट कर रोने लगी। कभी अंबर के हाथों की लकीरों को देखती, कभी उसके माथे को सहलाती, कभी उसे प्यार से उठाती, कभी उसे झकझोरती। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। चाची की चीख-पुकार सुनकर आस-पास के मकानों से कुछ लोग भी इकट्ठा होने लगे। बड़का दिलासा देता रहा- ‘पिछले जनम का कोई खराब करमवा होगा।’
‘चाची, तभी तो बेचारे को इतना कष्ट सहना पड़ा। उसके मन की हालत कोई नहीं समझ सकता था। मेरा विश्वास है अगले जनम में उसे अच्छा जीवन मिलेगा। आपको रोता देख उसे अच्छा नहीं लगेगा।’
चाची को बड़का की बात शायद समझ आ गई। चाची की आंखों से आंसू रह-रह कर निकल तो रहे थे पर अब आवाज नहीं। एक हाथ से अंबर के माथे को सहलाए जा रही थी। दूसरे हाथ से आंचल के कोर से अपने आंसू पोछ रही थी। तभी बड़का ने पूछ दिया- ‘चाची अंतिम संस्कार कैसे होगा? पंडित चाचा और गांव वालों के बुलाकर लाता हूँ। बिट्टो दी और नमन को भी फोन कर देता हूँ।’
‘नहीं बबुआ! बिट्टो के ससुराल मत फोन करना, भेद खुल गया तो हम क्या करेंगे। बिट्टो यह सुनकर खुद को नहीं रोक पाएगी। अनर्थ हो जाएगा’ – चाची रोते-रोते बोल रही थी। बड़का समझ रहा था चाची किस दुविधा में है। बिना कुछ कहे सबको खबर देने चल पड़ा।
बाहर अब चारों ओर अंधकार ही अंधकार था। आकाश में कुछ तारे ऐसे छिटके थे, जैसे किसी ने कबूतरों को खिलाने के लिए चावल के दाने फैलाए हों। बिना टॉर्च के ही बड़का जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता रहा और आधे घंटे के अंदर यह बात पूरे गांव में फैल गई कि अंबर नहीं रहा। मास्टर जी के घर के बाहर भीड़ जमा हो गई। कुछ लोग दलान के अंदर थे और कुछ बाहर। मुखिया जी भी पहुंच गए। मुखिया जी सबके सुख-दुख के साथी थे और मास्टर जी के साथ तो पुराने संबंध थे। पिछले साल मास्टर जी के गुजर जाने के बाद मुखिया जी ही सबसे बड़ा सहारा थे। बिट्टो की शादी में तो रिश्तेदारों से बढ़कर थे, हलवाई वाले से लेकर टेंट वाले तक, सबपर नजर थी। बिट्टो की विदाई के बाद जब अपने घर पहुंचे तो अंबर को देखकर हतप्रभ थे।
उन्हें आज भी याद है अंबर का बच्चों की तरह फूट–फूट कर रोना। उसके एक–एक शब्द उन्हें आज भी याद है– ‘मुखिया चाचा मेरा कसूर क्या है, अपनी बहन की शादी में नहीं जा सका? क्या मैंने कोई अपराध किया है? फिर एक अपराधी की तरह मुझे हमेशा छुपे रहने के लिए क्यों कहा जाता है?’
‘यहां बैठ मेरे पास। कोई अपराध नहीं किया तूने बच्चे, पर दुनिया नहीं समझती। तेरा बाप समझता था, जो हुआ उसमें तेरी कोई गलती नहीं, इसलिए तुझे छाती से चिपकाए रखता था। पर दुनियादारी तो देखनी होती है। मन ख़राब न कर’- मुखिया चाचा ने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा।
‘क्यों नहीं समझता कोई कि मैं भी साधारण इंसान हूँ जो सारी भावनाओं को महसूस कर सकता है। मेरी अकुलाहट, बेबसी किसी को नज़र नहीं आती, आपके भगवान को भी नहीं, जबकि कसूर उसका है, मेरा नहीं चाचा! फिर यह पीड़ा मुझे क्यों सहनी पड़ रही है?’
‘सब ठीक हो जाएगा, चिंता मत कर।’
‘ठीक! कुछ ठीक नहीं होगा चाचा!’ चिल्लाते हुए अंबर वहां से चला गया।
जब से बिट्टो का लगन चढ़ा था अंबर को दुकान में ही रहने के लिए कह दिया गया था, बेचारा उसकी विदाई में भी नहीं जा पाया था। मुखिया जी उसकी मनःस्थिति समझते, पर कुछ नहीं कर पाते।
पंडित चाचा मुखिया जी के पास आकर कुछ फुसफुसाते हैं। बड़का पास में ही खड़ा है, घर में कहकर आया था कि जब तक अंतिम संस्कार संपन्न नहीं होता, वह घर नहीं लौटेगा। मुखिया जी बाहर आए और सभी से पंडित जी की बात कह दी- ‘अंबर को इस देह से मुक्ति तभी मिलेगी जब उसका अंतिम संस्कार उसके जैसे लोग अपने नियम के अनुसार करेंगे। गांव में अंबर के जैसा कोई और दूसरा नहीं था। खैर, बहुत विचार-विमर्श के बाद तय किया गया कि पास के दूसरे गांव में जाकर उन लोगों को अंबर के बारे में खबर दे दी जाएगी। इस काम के लिए बड़का तैयार हो गया। कल सुबह होते ही वह दूसरे गांव से उनलोगों को लेकर आएगा, तब तक दिल्ली से नमन भी आ जाएगा। तय किया गया कि रिश्तेदारों को बाद में बता दिया जाएगा। दो-चार लोगों को छोड़ कर बाकी सब घर लौट गए।
चाची के पास भी आज दो औरतें रुक गई हैं, उन्हें आज अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। गांव में दुख के समय आज भी सभी एक ही परिवार के हो जाते हैं। दोनों औरतें कभी अंबर के बचपन के किस्से याद करतीं, कभी भाग्य को कोसतीं, कभी चाची को दिलासा देतीं। पर चाची के सामने केवल अंबर का चेहरा था। उन्हें लग रहा था मानो वह अभी बोल उठेगा। मन अस्थिर था, पुरानी स्मृतियों की लहरें उछल-उछल कर आंखों में तैर रही थीं।
अंबर के संस्कार के साथ-साथ चाची की व्याकुलता का भी शायद हमेशा के लिए अंत हो जाए। मां तो मां ही है। जिसे अपनी कोख से जना उसे कैसे भूलेगी, पर समय की गहरी खरोंचे शायद कुछ हल्की पड़ जाएं। सालों पहले अंबर के जन्म के साथ मास्टर जी पिता और चाची मां बन गई। मास्टर जी शिक्षक थे, सरल व्यक्तित्व के साथ आदर्शों से भरे हुए। बड़े प्रेम से अपने पुत्र का नाम रखा -अंबर।
अंबर के घुंघराले बाल, बड़ी- बड़ी आंखें, उजरा रंग और डिंपल पड़ने वाली हँसी देखकर सभी मुग्ध हो जाते। पड़ोस की लड़कियां किसी न किसी बहाने से उसे अपने घर ले जातीं। अंबर रोते समय तरह-तरह की मुंह की मुद्राएं बनाता जो भी देखता अपना मन हार जाता। कई बार तो जब बहुत देर तक नहीं रोता, उसे लड़कियां चिकोट कर रुला देतीं और ‘अले बाबा ले! क्या हुआ?’ कहकर, उठाकर चुप कराने लगतीं। कभी-कभी यह दृश्य चाची की आंखों के सामने ही दुहरा दिया जाता। चाची को इन मनचलियों पर गुस्सा तो बहुत आता, पर लिहाज से चुप रह जातीं।
समय के साथ-साथ अंबर आकर्षक होता गया। उसके छोटे भाई-बहन नमन और बिट्टो सुंदर तो थे पर उसके जैसे नहीं। मास्टर जी को अंबर पर बड़ा गर्व होता, पूरे गांव को लगता कि पिता से एक कदम आगे जाएगा। मास्टर जी जब भी उसकी प्रशंसा सुनते, फूले नहीं समाते। घर आकर पत्नी के साथ सुखद भविष्य की कल्पना करने लगते। पर कल्पना के संसार की चिड़िया तब उड़ गई, जब अंबर का सच मास्टर जी समझ पाए। आधे-अधूरे शरीर के साथ अंबर न तो लड़का था न लड़की।
उस दिन मास्टर जी के घर खाना नहीं बना, बच्चों को केवल बिस्किट और दूध देकर बहला दिया गया। सुबह होते ही मास्टर जी अंबर को शहर लेकर डॉक्टर के पास भागे। एक दिन में कई डॉक्टरों के पास, सबने एक ही बात कही कि अंबर हिजड़ा है। मास्टर जी को लगा वे एक ऐसी सुरंग में प्रवेश कर चुके हैं जहां से निकलना नामुमकिन है।
अंबर को स्त्रैण लक्षण का एहसास नहीं होता, पर उसके नाम पर प्रश्न लग गया। उसका नाम लेकर नमन और बिट्टो को उन्हीं के उम्र के अबोध बालक चिढ़ा देते। शायद अपने घरों में कुछ सुनते होंगे। तभी बेबाकी से कुछ न कुछ बोल देते थे।
अंबर जब थोड़ा बड़ा हुआ सबकुछ समझने लगा इसलिए आठवीं के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी। आगे की पढ़ाई के लिए उसे दूसरे स्कूल जाना पड़ता। इस गांव को छोड़कर वह कहीं जाना नहीं चाहता था। सच जानता था, फिर भी सच से भागना चाहता था। गांव में इस बात का ख्याल रखा जाता कि कोई उससे अपशब्द न कहे, भले वह नाचता-गाता न था, नेग नहीं मांगता था पर था तो वस उसी समुदाय का जिसे लेकर लोगों ने कई कहानियां गढ़ रखी थी।
समय की छाती दिनों-दिन चौड़ी होती जा रही थी और अंबर का मनोबल सिकुड़ता जा रहा था। काम के नाम पर घर का राशन-सब्जी लाने के सिवा उसके पास कोई काम नहीं था। बचपन के सारे मित्र कुछ न कुछ कर रहे थे। नमन उससे छोटा था, आज उसके पास भी एक अच्छी नौकरी थी। बिट्टो भी गांव के स्कूल में पढ़ाने लगी थी। अंबर रोज कुछ सोचता और अपनी ही सोच से हार जाता। फिर भी उम्मीद की सवारी पर रोज चढ़ने का प्रयास करता। उसके जीने की चाह तब खत्म होने लगी जब उसके कारण बिट्टो का विवाह टूटने लगा। लड़केवालों को बिट्टो दिखाई जाती, लेना-देना तय होता फिर खबर आती कि ऐसी लड़की से शादी नहीं हो सकती जिसका भाई एक किन्नर है। शायद वे पूर्वग्रह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहे थे। उनको भय होगा कि विवाह के बाद उनके घर में भी कोई किन्नर न जन्म ले ले।
मास्टर जी अंबर को कहीं भेज देना चाहते थे, जिससे बिट्टो की शादी हो जाए। बिट्टो को इस बात की भनक पड़ते ही बिलखने लगी। उसकी छोटी आंखों में दुनिया की सबसे बड़ी नदी उतर आई थी जो कब तक एक अनवरत प्रवाह के साथ बहती रही उसे खुद नहीं पता।
आंसू और शब्द दोनों एक-दूसरे में घुल-मिल गए थे- ‘अपने विवाह के लिए उस भाई को दूर कर दूँ जो पिता की तरह है। बचपन से लेकर आज तक मेरी हथेलियों पर अपने हिस्से की बिस्किट, दालमोट, किताबें, खिलौने और न जाने क्या-क्या रखता रहा। ईश्वर ने उसके साथ अन्याय किया तो क्या हम भी…पापा? आप नहीं जानते वह रिक्त होता जा रहा है। उसकी रिक्तता का आभास मुझे और बेचैन कर देता है। उसकी हीनताबोध ने उसे अलग-थलग रहना सिखा दिया है। अपने विवाह के लिए मैं उसे परिवार से दूर जाते नहीं देख सकती। वह खुद को दोषी समझता है। उसकी निर्दोष आंखें डबडबायी रहती हैं। अब मुझे उनमें स्नेह नहीं मिलता, विवशता मिलती है।’ अंबर बिट्टो को अपनी सबसे कीमती चीज की तरह सहेज कर रखता था और बिट्टो एक काले टीके की तरह अंबर को सभी दुखों से बचा लेना चाहती थी। मास्टर जी भी ये बातें समझते थे, पर एक बेटी का पिता नियति की तहरीर से हार गया था।
मास्टर जी बेटी के विवाह की अभिलाषा लिए आखिरी नींद की प्रतीक्षा करने लगे। आखिरकार एक दिन ऐसा सोए कि फिर नहीं उठ पाए। मरुस्थल में खड़े पेड़ को जीवित रहने के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ता है- मास्टर जी और अंबर दोनों ऐसे ही पेड़ थे। एक गिर गया, दूसरे का संघर्ष बाकी था।
पिता के जाने के बाद अंबर को पहली बार यह समझ में आया कि वह कितना उपेक्षित है। उसे दाह संस्कार में होने वाले सभी रीति–रिवाजों से दूर रखा गया। पंडित चाचा नमन को समझा रहे थे कि सारे नियम उसे निभाने हैं, धर्मशास्त्र में अंबर जैसे लोगों को इन सभी चीजों से वर्जित रखा गया है। मास्टर जी का शव उठा और इसके साथ ही शुरू हुई कभी न खत्म होने वाली अंबर की मानसिक पीड़ा की यात्रा। समाज का हिस्सा होते हुए भी वह कई स्थानों पर उपेक्षित रहा।
‘मैं अपने पिता के शव को कंधा नहीं दे सकता। ये सब कहते हैं, मुझे इन रीति-रिवाजों से दूर रहना चाहिए। मैं एक कोने में बैठकर केवल चुपचाप टकटकी लगाकर देख सकता हूँ, रो सकता हूँ, चिल्ला सकता हूँ, शायद वह भी नहीं।’ खुद से बातें करते हुए वह उठा और घर के एक कमरे में जाकर दरवाजा पीटने लगा। कमरे के चारों कोनों को देखते हुए बहुत देर तक खुद से बातें करता रहा। जब वह अकेला होता तो अपने जीवन के मार्मिक प्रसंगों को याद करते हुए कोई गीत गुनगुनाने लगता। वास्तविकता यह थी उसकि फिक्र धुएं में उड़ने की जगह उसके भीतर गहराती चली जा रही थी।
चार महीने पहले ही बिट्टो की शादी हुई है। उसके ससुराल में अंबर की सचाई नहीं बताई गई। बिट्टो का केवल एक भाई है नमन। उफ़! परिवार से भी अंबर का वजूद खत्म हो रहा था। असहनीय था सबकुछ। विवाह के बाद वह कई दिन तक सो नहीं पाया था। कभी सपने में बिट्टो के ससुराल वाले उसे घर से निकालते दिखते। कभी बिट्टो रोती नजर आती। कभी लगता कोई कह रहा है कि इसका सारा परिवार ही झूठा और मक्कार है… पता नहीं और क्या-क्या देखता। एक रात तो आधी नींद से अचानक उठ कर मां के पास आ गया था।
‘मां, मेरा सच जानकर तुमने मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? मुझे स्नेह और प्रेम तो दिया पर मेरे लिए लड़ नहीं पाई। लोग यहां जमीन के एक टुकड़े के लिए पूरी जिंदगी लड़ते हैं, मैं तो बेटा था तुम्हारा। मेरे लिए रिश्तेदारों से, समाज से क्यों नहीं लड़ाई की? बस मेरी उपेक्षा! मुझे सब छुपाते रहे। कभी इधर-कभी उधर। बचपने में दूर हो जाता तो किसी से मोह नहीं रहता। बिट्टो की शादी में शामिल नहीं हो पाया, जाते हुए उससे मिल नहीं पाया, इधर-उधर छुपता रहा, शादी की कोई रश्म नहीं निभाई मैंने। जब भी सोचता हूँ एक जानलेवा पीड़ा मेरे अंदर जन्म ले लेती है। जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूँ, पर इस पीड़ा की आवाज मुझसे अलग नहीं हो पाती। मेरे अंदर जो कुछ भी है उसे मैं कहीं निकाल कर फेंक देना चाहता हूँ, पर नहीं कर पाता।’ रोते-रोते बिफर पड़ा था उस रात। गाल पर बनी मटमैली लकीरें, सूजी हुई आंखें बता रही थीं कि वह घंटों रोया था। मां चुपचाप सब सुनती रही, बड़ी मुश्किल से रो-धो कर समझाया था उसे।
सुबह होते ही बड़का कुछ किन्नरों के साथ पहुंचा। किन्नरों ने सबको झिड़कते हुए साफ-साफ इस काम के लिए कुछ रुपये लिए और बड़े रूखे अंदाज में कह दिया, ‘जब लाश जाएगी तो केवल उनकी बिरादरी के लोग होंगे। लाश दिन में नहीं रात में लेकर जाएंगे।’
उनकी बात मानने के सिवा किसी के पास अन्य विकल्प नहीं था। शाम तक नमन भी पहुंच गया। बड़का चुपचाप तमाशा देख रहा था।
अंबर की लाश अकेली पड़ी थी, अवहेलना की शिकार। समाज में ऐसों के लिए किंवदंतियां फैली हुई थीं। उसके मन में यह ख़याल आ रहा था कि क्यों न वही अंबर का अंतिम संस्कार कर दे। पर वह तो उसका कोई न था।
पूर्णिमा की रात, चांद पूरा गोल चमकता हुआ। आज बड़का को यह रोशनी कचोट रही थी। वह घरवालों के साथ आंगन में बैठा शव जाने का इंतजार कर रहा था। दालान से आवाजें आने लगीं। दरअसल अंबर को वे लोग लेकर जा रहे थे जो उसकी बिरादरी के थे। यह दृश्य नया था। अंबर अपने जैसे लोगों के साथ था।
पीछे एक मौन उदासी थी, फासला था। अंबर चला जा रहा था अपनी अंतिम यात्रा में अपनों के साथ।
संपर्क : फ़्लैट न. 3 ए, 260 महाराजा नंद कुमार रोड कोलकाता– 700036
Painting : Kamal Koria
बहुत बेहतर है लेकिन छोटे छोटे विरोधाभास भरे पड़े हैं
अच्छी कहानी के लिए बधाई नीतू।