
दशरथ कुमार सोलंकी– निश्चित ही, यह जानना और समझना नितांत नया है कि हिंसा स्वाभाविक है और अहिंसा अर्जित! इसके पीछे का तार्किक विश्लेषण अपूर्व है।साधुवाद आज के समय के सच को उजागर करने के लिए।
चैताली सिन्हा– सितंबर अंक में बोधिसत्व की बहुत सुंदर और प्रासंगिक कविताएं हैं।विशेषकर पराजय, प्रार्थना और आवश्यक नहीं।ज्वलंत मुद्दों पर आधारित कविताएं।
अमृतलाल मदान, कैथल-‘वागर्थ’ की वीथियों से गुजरना अपने को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करना हैं।हिंदी पखवाड़े में ‘हिंदी उदारवाद’ तथा ‘हिंदी संस्कृति में दीमक’ अंशों ने प्रभावित किया।खुद मेरे अंग्रेजीदां पोता-पोती-नाती मेरी हिंदी पुस्तकों से परहेज करते हैं।विदेशों में हिंदी के संबंध में मेरा अनुभव है कि मारीशस में हिंदी श्रव्य तो है किंतु दुर्भायवश दृश्य नहीं है, अर्थात सभी साइनबोर्ड, नेमप्लेट आदि अंग्रेजी में हैं, जैसे भारत में सोशल मीडिया पर अभी भी रोमन अक्षरों में हिंदी स्थित है।
‘वागर्थ’ के सितंबर २०२२ अंक की कहानियों में राजेंद्र राजन की कहानी ‘सलीबों का शहर’ ने झकझोर कर रख दिया कि कैसे सांस्कृतिक नगरी काशी कोरोना काल में ‘लाशों’ का शहर बन गई।वह असंवेदनशील प्रशासन तथा मौत के दलालों के लोभ का शिकार बनी।शंकर की कहानी ‘गिफ्ट-विफ्ट’ में कस्बाई मानसिकता का सटीक चित्रण है। ‘कठघोड़वा’ (मुक्ता) में तेरसू लोक-नर्तक की त्रासदी बताती है।पवन चौहान की कहानी ‘फिंगर प्रिंट्स’ की बूढ़ी दादी की घिसी-पिटी हथेली और मैली उंगलियां सही छाप देने में असमर्थ हैं।इसलिए उसे राशन नहीं मिल पाता। ‘गुलदुपहरिया’ (शहंशाह आलम) प्रतीक है लवजेहाद के भय से उपजी मानसिक बीमारी का।
कविताओं में बोधिसत्व सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, सहज-सरल भाषा के कारण।सोशल मीडिया के सभी स्तंभ सदा की तरह रोचक हैं।
भगतसिंह सोनी-‘वागर्थ’ के अक्टूबर २०२२ अंक में करोना काल में लोगों की मानसिकता को विश्लेषित करती अशोक वाजपेयी की बेहतरीन कविताएं हैं।
शिवेंदु श्रीवास्तव-‘वागर्थ’ का अक्टूबर अंक।बिलकुल सही और सटीक विवेचना की है सेवाराम त्रिपाठी ने अपने लेख में।लोक में प्रचलित कलाएं और जीवन पद्धतियां विलुप्त होती जा रही हैं।मुझे अपने बचपन के समय के भिक्षा मांगने वाले याद हैं, १९६० के दशक की बात है।हम उन्हें भिखारी नहीं कह सकते थे।वे क्या गाते थे, याद नहीं है, लेकिन जिस धुन और लय में गाते थे, वह कहीं सुनाई दे तो हम तुरंत पहचान लेंगे।क्या सुरीला स्वर होता था, क्याा अंदाज होता था।वे कोई न कोई चौपाई गाया करते थे।उसमें कहानीपन होता था।वे अधिकतर ब्राह्मण लोग होते थे।मेरी मां उन्हें जो भिक्षा देती थी उसे भिक्षा नहीं, सीधा कहते थे।मां कहती थी, रुको पहले हमें सीधा दे आने दो।एक साधु बाबा आते थे, जिनके एक पैर में खराबी थी और वे लकुटी के सहारे चलते थे।वे सारंगी बजाकर कोई भजन गाते थे।अब वे लोग कहीं नहीं दिखते।भरथरी गाने वाले भी आते थे।ये सभी लोक कलाएं ही तो थीं, विलुप्त हो गईं।अब लगता है, उन्हें वापस ला पाना कठिन होगा।लेखक ने पुरानी यादें कुरेद दीं।
प्रवीण पंड्या, जालोर-‘वागर्थ’, अक्टूबर अंक।हिंसा तोड़ती है, खंडित करती है।चेतना को भी अखंडित नहीं रहने देने का नाम हिंसा है।यह हिंसा का शाब्दिक और सांस्कृतिक अर्थ है।यदि कोई विषय, चेतना खंडित हो जाती है तो यह उसकी हिंसा है और हिंसा के कारण वह हिंसित होती है।हिंसा का मूल है, अखंडित चेतना या भाव का अभाव।खंडित चेतना ने हमारे मानस को विभाजित कर रखा है और हमें भी।अद्वैत और अहिंसा को उसके ठीक परिप्रेक्ष्य में जानना क्यों जरूरी है, इस पर केंद्रित संपादकीय आज के समय में अनेक स्तरों पर पसरी हुई हिंसा की ओर हमारे हृदय को ले जाता है।आख्यानों को भारत का वैष्णव मानस जिस तरह रूपांतरित करता है, उस पर इस महत्वपूर्ण आलेख में विचार किया जाता तो यह अधिक परिपूर्ण होता।गत शताब्दी में महात्मा गांधी वैष्णव मानस के मूर्तिमान विग्रह के रूप में मौजूद थे।अनेक वैचारिकों को गांधी के आख्यानों के व्याख्यान की दृष्टि अतार्किक और कभी कभी तो दकियानूसी लगती है, क्योंकि वह अहिंसा की वैष्णवी सोच पर टिकी हुई है।गांधी के समस्त कार्यक्रम उनकी अखंडित चेतना की उपज हैं और यही उनकी अहिंसा है।वैष्णवी दृष्टि विचार के स्तर पर द्वैतवादी दृष्टि से जन्मता है, किंतु उससे जो अनुभूति होती है, उसका पर्यवसान अद्वैत में है।
तरुण राय-‘वागर्थ’ के अक्टूबर अंक में सत्यम तिवारी की सुंदर कविताएं हैं।आशा करते हैं कि आप कविताएं ऐसे ही लिखते रहेंगे।
बैजू बावरा, सुलतानगंज-‘वागर्थ’ का अक्टूबर २०२२ का अंक अपनी सभी सारगर्भित रचनाओं के कारण संग्रहणीय और माननीय बन पड़ा है।ऐसा प्रतीत होता है कि अपसंस्कृति एवं हिंसक प्रवृत्तियों से परे कुछ शेष ही नहीं बचा इस दुनिया में।जीवन और जगत का संपूर्ण क्षेत्र दुविधाग्रस्त और संकटग्रस्त है।इस अंक की कविताओं में योगेंद्र की कविता ‘ऐसा भी एक दिन’ अपने कथ्य और तथ्य की वजह से बेहतरीन लगी।ऐसी रमणीक तथा चिंतनप्रधान रचना से यदा-कदा ही साक्षात्कार होता है।इनके सृजन में भाषा एवं शैली मूर्त्त होकर जीवंत और प्रभावोत्पादक बन पड़ी है।
कहानियों में विजयश्री तनवीर की कहानी ‘अजाब’ विषय की नवीनता, भाषाई प्रवाहमानता तथा अभिव्यक्ति की रोचकता के कारण बेहद पसंद आई।ऐसे सभी रचनाकारों को धन्यवाद।