वागर्थ का नवंबर 2023 का अंक प्राप्त हुआ। इस अंक में भारतीय ज्ञान परम्परा पर आपका संपादकीय पढ़ा। संपादकीय भूमिका के बाद भारतीय ज्ञान परम्परा को तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों द्वारा भारतीय ज्ञान पद्धति के रूप में प्रचारित करने के आपके तंज काबिले-तारीफ है। यह आपके भारतीय वैचारिकी और आत्मिक तत्वों से गहरे जुड़ाव का अबबोध कराता है।इसी संपादकीय में आज के वैचारिक द्वंद में विवाद के उलट संवाद को भारतीय परम्परा का महत्वपूर्ण गुण बताया गया है, जिससे पूर्णतया सहमत होना चाहिए। भारतीय ज्ञान परंपरा और बौद्धिक उपनिवेशवाद , ईश्वरीय और अनीश्वरवाद, ज्ञान और भक्ति परम्परा, मानवीय दार्शनिकता और व्यवहारिकता, मानववाद और बुद्धिवाद आदि के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए आपने विभिन्न दृष्टान्तों से अपने मत को पुष्ट किया है। भारतीय ज्ञान परम्परा की तरह आपका यह आलेख भी पूर्ण रूप से समृद्ध आलेख है जिसमें द्रविड़ और आर्य, रानाडे और राम, शिवाजी और शाहजहां पुत्र आदि कई पात्रों की स्वीकार्यता आपके दृष्टि की व्यापकता का परिचय करवाता है।सूचनाओं के युग मे ज्ञान के पराभव पर आपका संकेत सामयिक है। चयन की स्वतंत्रता में आपने हमें सचेत करते हुए सही कहा है कि ‘भारतीय ज्ञान परम्परा में सबकुछ हरा-हरा नहीं है, काफी मुरझाए पत्ते भी हैं। चावल और कंकड़ की सह-उपस्थिति में विवेकपूर्ण चयन पर बल दिया है।
कुलमिलाकर आपका यह आलेख हमें क्षयग्रस्त सौंदर्य में हमारे सांस्कृतिक सौंदर्य का अबबोध कराता महत्वपूर्ण संपादकीय है।
Wow
आदरणीय संपादक जी,
वागर्थ का नवंबर 2023 का अंक प्राप्त हुआ। इस अंक में भारतीय ज्ञान परम्परा पर आपका संपादकीय पढ़ा। संपादकीय भूमिका के बाद भारतीय ज्ञान परम्परा को तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों द्वारा भारतीय ज्ञान पद्धति के रूप में प्रचारित करने के आपके तंज काबिले-तारीफ है। यह आपके भारतीय वैचारिकी और आत्मिक तत्वों से गहरे जुड़ाव का अबबोध कराता है।इसी संपादकीय में आज के वैचारिक द्वंद में विवाद के उलट संवाद को भारतीय परम्परा का महत्वपूर्ण गुण बताया गया है, जिससे पूर्णतया सहमत होना चाहिए। भारतीय ज्ञान परंपरा और बौद्धिक उपनिवेशवाद , ईश्वरीय और अनीश्वरवाद, ज्ञान और भक्ति परम्परा, मानवीय दार्शनिकता और व्यवहारिकता, मानववाद और बुद्धिवाद आदि के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए आपने विभिन्न दृष्टान्तों से अपने मत को पुष्ट किया है। भारतीय ज्ञान परम्परा की तरह आपका यह आलेख भी पूर्ण रूप से समृद्ध आलेख है जिसमें द्रविड़ और आर्य, रानाडे और राम, शिवाजी और शाहजहां पुत्र आदि कई पात्रों की स्वीकार्यता आपके दृष्टि की व्यापकता का परिचय करवाता है।सूचनाओं के युग मे ज्ञान के पराभव पर आपका संकेत सामयिक है। चयन की स्वतंत्रता में आपने हमें सचेत करते हुए सही कहा है कि ‘भारतीय ज्ञान परम्परा में सबकुछ हरा-हरा नहीं है, काफी मुरझाए पत्ते भी हैं। चावल और कंकड़ की सह-उपस्थिति में विवेकपूर्ण चयन पर बल दिया है।
कुलमिलाकर आपका यह आलेख हमें क्षयग्रस्त सौंदर्य में हमारे सांस्कृतिक सौंदर्य का अबबोध कराता महत्वपूर्ण संपादकीय है।
बहुत शुभकामनाएं वागर्थ की पूरी टीम को ।