शंभुनाथ

मनुष्य दूसरे जीव-जंतुओं की तरह अपनी प्रकृति से हिंसक है।हिंसा प्रकृति है, जबकि अहिंसा सभ्यता है।अहिंसा स्वाभाविक नहीं है, यह प्रयत्न से अर्जित की जाती है।यह सिर्फ मनुष्य जाति द्वारा संभव है।हम जानते हैं कि महाभारत के पन्ने युद्ध और हिंसा के दृश्यों से भरे पड़े हैं।लेकिन इस महाकाव्य का संदेश है-‘अहिंसा परमो धर्मः’।यह लोकप्रिय पंक्ति महाभारत की है। यदि सिर्फ युधिष्ठिर ही स्वर्ग पहुंचते हैं तो यह महाकाव्य के इस मुख्य संदेश को स्पष्ट करने के लिए है कि अहिंसा ही सभ्यता है- लोगों को मारना सभ्यता नहीं है।

फिर भी दुनिया की सभ्यताओं में हिंसा आम की गुठली की तरह हमेशा मौजूद रही है।आज सरहदों के युद्ध और आतंकवाद ही नहीं धार्मिक हिंसा, जाति हिंसा, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा और कार्यालय की हिंसा भी बड़े पैमाने पर मौजूद है।इरादे अलग हों, नतीजा एक है।हर आदमी दूसरे आदमी को संदेह से देख रहा है।हर तरफ हिंसा बढ़ रही है।क्या अब लोग मानव सभ्यता के गुणों को खोकर अहंकार, हिंसा और लोभ की मानव प्रकृति में लौट रहे हैं? हिंसा प्रकृति है, प्रेम सभ्यता है!

हिंसा का संस्थाबद्ध रूप विशेष रूप से चिंताजनक है।वह धर्म, जाति, नस्ल और प्रांतीयता की सांस्कृतिक बुनावटों में इधर प्रचंड रूप से उभरी है।वह आर्थिक और राजनीतिक सत्ताओं का सदा से अंग है।हमारे सामने सवाल है, क्या हिंसा वस्तुतः अब प्रकृति का मामला न होकर सभ्यता की अवधारणा है।सभ्यता जैसे-जैसे उन्नत हो रही है, हिंसा बढ़ रही है।क्या अब सभ्यता ही हिंसा की जननी है और इसके नए-नए रूप ‘सभ्यता के मिशन’ के रूप में औपनिवेशिक काल से बन रहे हैं?

आज जिधर देखो, भौतिक सभ्यता की खूबसूरत छवियां हैं।नए स्थापत्य वाले ऊँचे भवन, हाई-वे, मल्टीप्लेक्स बाजार, सुपरफास्ट ट्रेनें, अनोखे व्यंजन, डिजाइनर कपड़े, कामुक छवियां, कीमती फर्नीचर, बड़े बजट की फिल्में, पॉप म्युजिक, 10-20 लाख के मासिक वेतन वाले विशेषज्ञ और सैकड़ों करोड़ के नए मंदिर! इस सभ्यता का कोना-कोना वातानुकूलित है।बुद्ध को, जब वे सिद्धार्थ थे, सुखों के एक ऐसे ही जाल से घेरा गया था।उन्होंने विद्रोह किया, पर विद्रोह की वह ताकत आमतौर पर आज किसी के पास  नहीं है।देखा जा सकता है कि आज सभ्यता देह सुख बहुत देती है, लेकिन मनुष्य की आत्मा और उसके ‘स्व’ को मार डालती है।वह बर्बरताओं की वाहक है।वह भरसक स्पेस नहीं छोड़ती, जहां संदेह किया जा सके, हिंसा का व्यापक विरोध हो सके।

सभ्यता की भौतिक ऊँचाई पर ऐसी नई-नई शक्लों वाली हिंसा है, जिनकी गांधी भी कल्पना नहीं कर सकते थे।वे कैसे सोच सकते थे कि विनम्रता में हिंसा छिपी हो सकती है।दया करके दी जा रही खैरात में हिंसा छिपी हो सकती है।विस्थापनों में हिंसा छिपी होती है।बाह्याडंबरों में हिंसा होती है।आश्वासन भी एक हिंसा है।टीवी की खबरों, बहसों और धारावाहिकों में हिंसा है।सेंट्रल विस्टा, बड़े मालों और कारपोरेट जगत के नए सौंदर्य में हिंसा है (अब सादगी असुंदर है), डॉक्टर के इलाज में हिंसा है।हिंसा शिक्षा में छिपकर ऐसे बैठी होती है, जैसे पूजा की सामग्री में तक्षक! हिंसा की अनगिनत सभ्य शैलियां बन गई हैं।

सभ्यताओं में हिंसा का सफर

सभ्यता की हर धाप पर हिंसा एक न एक रूप में रही है।प्राचीन काल से इसकी राजनीति है तो इसका दर्शन, इसका नृ-तत्व और इसका भाषाशास्त्र भी है।इन सबका विस्तृत अध्ययन होना चाहिए।यहां कुछ ही उदाहरण लाकर यह देखना काफी है कि सभ्यता के विकास के साथ हिंसा मिटी नहीं है, बल्कि यह हर विकास से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी रही है।

इस देश में यज्ञ, देवताओं और पूर्वजों के लिए बलि प्रथा हजारों साल पहले से थी।एक कहावत ही बन गई, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’।देवताओं द्वारा असुरों और राक्षसों को मारने की कथा के बिना कोई धार्मिक संदेश पूरा नहीं होता है, हिंसा के बिना किसी सत्य की प्रतिष्ठा नहीं होती है।देखा जा सकता है कि वेदांत, बौद्ध दर्शन और भक्ति आंदोलनों के निशाने पर सामाजिक भेदभाव के अलावा हिंसा भी रही है।

यह भी एक तथ्य है कि आम लोगों ने कभी महाभारत के सुदर्शनचक्र वाले कृष्ण को अपनी आस्था का हिस्सा नहीं बनाया।उन्होंने वृंदावन के मोरपंख और बांसुरी वाले कृष्ण को अपने हृदय में बसाया।आम लोग सदा शांतिप्रिय रहे हैं।वे घृणा की जगह ढाई अक्षरप्रेम को जानते हैं।

कहा जा सकता है कि हिंसा का संबंध सदा से वर्चस्व के लिए लड़ाई से रहा है, जिसमें साधारण लोग उजड़े हैं।देश के राजा एक-दूसरे पर आक्रमण करते थे और नंगी हिंसा में लिप्त थे।वंशों की शत्रुताएं सामाजिक तानेबाने में शामिल हुईं।बाहरी आक्रमणकारी आए।उन्होंने भी कत्लेयाम किया।राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व के रूपों में जैसे-जैसे बदलाव आया, हिंसा का स्वरूप बदलता गया और आम लोगों का जीवन प्रभावित होता रहा।हिंसा सत्ता का स्थायी चरित्र है, जो भी सत्ता में हो।यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि सत्ता की हिंसा के खिलाफ हमेशा आवाजें उठी हैं।

हम जानते हैं कि यूरोपीय नवजागरण के साथ साम्राज्यवाद फैला था।सभ्यता के झंडे लेकर ही ब्रिटेन, फ्रांस आदि देश एशिया में कूदे थे।उन्होंने ‘बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता’ का नारा दिया और सभ्यता के आवरण में हिंसा की।लोकतंत्र-प्रेमी  इंग्लैंड भारत को, फ्रांस अल्जीरिया को, इटली लीबिया को आजाद करना नहीं चाहता था।स्वतंत्रता का बार-बार उद्घोष करने वाले पश्चिमी देशों का उपनिवेशवाद ‘सभ्यता का मिशन’ माना जाता था।वह न्याय संस्थापनार्थ था! एक समय पश्चिम की सभ्यता में हिंसा किस तरह छिपी थी, यह १८५७ से लेकर १९१९ में जालियांवाला तक देखा जा सकता है।

२१वीं सदी में भी सभ्यता और स्वतंत्रता के नाम पर आतंकवाद के समानांतर पश्चिमी देशों की हिंसा बरकरार रही है।संहारक युद्धोपकरण बनते रहे हैं।आज भी कई देशों के बीच युद्ध ठना हुआ है और मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं।गली-गली, गांव-गांव में बाहुबल की प्रधानता है, स्वतंत्र होकर बोलना मुश्किल है।दुनिया की नजरों से छिपा नहीं है कि आज वस्तुतः कहीं भी आखिर कितनी मुक्ति, स्वतंत्रता और सभ्यता है।

हिंसा का क्रांतिकारी दार्शनिकीकरण

यूरोप में हिंसा के औपनिवेशिक तर्क के समानांतर हिंसा का क्रांतिकारी दार्शनिक नैरेटिव भी बना।फ्रांज फेनन ने ‘द रेचेड ऑफ द अर्थ’ (1961) में दुनिया के उत्पीड़नों का यथार्थपरक चित्र खींचा है, लेकिन इनसे मुक्ति की राह बताते हुए लिखा है, ‘हिंसा ही साम्यवादी राज्य के लिए संघर्ष का रास्ता है।यह उत्पीड़ित लोगों को भयमुक्त करती है और आत्मसम्मान लौटाती है।’ हरबर्ट मार्क्युस पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता का सही विश्लेषण करते हुए भी ‘वन डायमेंशनल मैन’ (1964) में लिखते हैं, ‘मनुष्य अपनी वैयक्तिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं से मुक्ति केवल राजनीतिक रास्ते से ही पा सकता है।मनुष्य की विध्वंस करने की हिंसक इच्छा दमनात्मक सत्ता के अत्याचारों  की ही प्रतिक्रिया है। …उदारवाद जनता को बेवकूफ बनाता है।इसलिए खेल के सारे कायदे तोड़ दो।वर्तमान व्यवस्था के ध्वंस के लिए प्रतिहिंसा जरूरी है।ऐसी हिंसा निर्माणात्मक होती है, यह जनहिंसा है।’

दार्शनिक स्तर पर उपर्युक्त दोनों विचारकों ने तथा राजनीतिक स्तर पर चे-गुएआरा और द’ ब्रे ने विश्व के राजनीतिक क्षितिज पर हिंसा के प्रति एक नए ढंग का बौद्धिक आकर्षण पैदा किया था।कविताओं और कहानियों में भी यह आकर्षण व्यक्त हुआ था।एक समय क्रांतिकारी हिंसा की व्यापक अनुगूंज संपूर्ण बौद्धिक जगत में थी।लेकिन समग्रत: जो नतीजा सामने आया, वह यह है कि मुट्ठी भर लोगों की क्रांतिकारी हिंसा पर राज्यशक्ति की हिंसा भारी पड़ी।

20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हिंसा का रास्ता दुनिया के देशों में साम्यवादी राज्य की स्थापना में सहायक नहीं हो सका।सशस्त्र संघर्ष की छिटपुट क्रांतिकारी घटनाएं लोकमानस को प्रभावित नहीं कर सकीं।कई शांतिप्रिय लोग मार्क्सवाद के लक्ष्यों से सहमत होते हुए भी हिंसा के तत्व के कारण उससे दूर रह गए।मार्क्सवादी दलों ने हिंसा का रास्ता जब छोड़ा, काफी देर हो चुकी थी।आज महसूस हो सकता है कि समग्रतः इन लगभग सौ सालों में अनगिनत लोगों की शहादत कुछ व्यक्तियों के लिए बस सीढ़ी बनी।इससे अधिक दुखद कुछ नहीं हो सकता।

भारत की सामाजिक स्थितियों का मार्क्सवादी  विश्लेषण कई मामलों में कच्चा और यांत्रिक रहा है।उसमें तत्व कम और फेन ज्यादा था।तेलंगाना विफल हुआ।नक्सलवाद व्यक्ति हिंसा में फँसकर विफल हुआ।वामपंथी-क्रांतिकारी ताकतों में बिखराव आया ही, सामान्यतः गलतियां पर गलतियां हुईं और स्वीकारने के बावजूद बार-बार होती रहीं।भारत में बंदूक की नली से सत्ता नहीं निकल पाई।यदि थोड़ा उलट-पुलट हुआ तो बुलेट से नहीं, शांतिपूर्ण जन-आंदोलनों और बैलेट से।उग्रवाद एक ‘बचकाना मर्ज’ साबित हुआ, शिशु अवस्था में हनुमान द्वारा सूरज को निगलने की तरह!

अंतत: बहुत से मामलों में उग्रवाद की परिणति सुविधावाद में हुई।एक अतिवाद दूसरे अतिवाद की ओर ले गया।हिंसा का क्रांतिकारी दर्शन अंतत: शाब्दिक बहस में खो गया।ग्रुपवाद बढ़ता गया, जिसका नतीजा है बिखराव।दुनिया के सर्वहारा एक न हो सके, पर दुनिया के व्यापारी एक हो गए!

यदि इन्सान पहले बंदर था, तो उसकी पूंछ कहां गई?

अतीत में हिंसा पर नियंत्रण के लिए धर्म की कुछ परंपराएं थीं जो मनुष्य को हिंसा से विरत करती थीं।भक्ति आंदोलन, शैव दर्शन, वैष्णव और सूफी परंपराएं ऐसी ही थीं।संयुक्त परिवार के लोग शांतिपूर्ण जीवन और मिलजुलकर रहना पसंद करते थे।परिवार में, खासकर स्त्रियों ने युद्ध, दंगा और हिंसा कभी पसंद नहीं किया, क्योंकि वे सबसे ज्यादा पीड़ित होती थीं।कृषकों और दस्तकारों की ग्रामीण एकता भी सौहार्दपूर्ण भारतीय जीवन में सहायक थी।काल प्रवाह में इन पुरानी स्वतःस्फूर्त व्यवस्थाओं का विघटन हो गया।हिंसा पर सामाजिक नियंत्रण के लिए आधुनिक व्यवस्थाएं अर्थपूर्ण विकल्प नहीं दे सकीं, उल्टे आततायी के रूप में सामने आईं।

दरअसल आजादी के बाद जब लोकतांत्रिक संस्थाएं निजी स्वार्थ के चलते खोखली होती गईं तो धर्म, जाति और प्रांतीयता नई हिंसा को बढ़ावा देने वाले प्रमुख तत्व बन गए।आजकल संकीर्णता और भिन्नता ही सत्ता की गंगोत्री हैं।

क्या वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर में हिंसा की विदाई हो गई? नहीं, हिंसा का नया सफर शुरू हुआ।इसका लक्ष्य सामाजिक विद्वेष और भिन्नता बढ़ाना है।यह हिंसा स्पष्ट से ज्यादा छिपी है।देखा जाए तो वर्तमान राज्य बाजार राज्यहै।इसमें भूख, बेरोजगारी, इलाज की कुव्यवस्था, लू, बाढ़, आत्महत्या आदि से हुई मृत्यु में हिंसा अदृश्य रूप से मौजूद रहती है।

आज की हिंसा ‘लॉ एंड ऑर्डर’ का मामला नहीं है।यह सांस्कृतिक और व्यापारिक आचरण का अंग है, जो किसी न किसी तरह से अपनी वैधता प्राप्त कर लेता है और जन समर्थन भी बना लेता है।जब हिंसा हिंसा न लगे, समझना चाहिए कि यह नैतिक क्षय का चरम रूप है।इधर काफी लोगों में हिंसा की घटनाओं से संतोष पाने की मनोवृत्ति देखी गई है।वे अपने समुदाय के व्यक्ति द्वारा की गई हिंसा का मौन या मुखर समर्थन करते हैं।बड़े अपराधों को भी सामुदायिक वैधता मिल जाती है।इस तरह भारतीय समाज अंध-सामुदायिकताओं में विघटित होता जा रहा है।उच्च सामाजिक आदर्श टूटने लगे हैं।राजनीतिक-सांस्कृतिक उपलब्धियां असुरक्षित हैं।आज नामी व्यक्तियों के लिए जेड प्लस से लेकर साधारण सुरक्षा तक के जो इंतजाम हैं, उससे वर्तमान सभ्यता का डर ही नहीं उसकी अपंगता भी झांकती है।

प्राचीन काल में हिंसा से अ-हिंसा की ओर बढ़ना कठिन था, क्योंकि जनतांत्रिक संस्थाएं नहीं थीं, सामाजिक पिछड़ापन था और राजनीतिक बर्बरता थी, लेकिन आज हिंसा से अ-हिंसा की ओर बढ़ना पहले से ज्यादा कठिन दिख रहा है, क्योंकि भारतीय सभ्यता के जो भी उच्च, उदात्त और मानवीय तत्व रहे हैं वे गहरे संकट में हैं।लोकतंत्र के भीतर से लोकतंत्र को उजाड़ा जा रहा है।भौतिक बल की प्रधानता बढ़ रही है।हमलोग अब एक ऐसे युग और व्यवस्था में हैं जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों के बावजूद विवेक की शत्रु है।

किसी नव-डार्विनपंथी से किसी ने पूछा कि यदि इन्सान पहले बंदर था तो उसकी पूंछ कहां गई।नव-डार्विनपंथी ने बड़ी सहजता से कहा कि पूंछ पहले बाहर थी, अब वह भीतर चली गई है।मनुष्य के अंदर जानवरपन आ गया है।क्या मानव सभ्यता के विकास का इतिहास एक दिन उसके हिंसक जानवरपन के विकास के इतिहास के रूप में लिखा जाएगा?

हिंसा के निशाने पर स्त्रियां और दलित

हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण जरा भी सामाजिक उदारता नहीं ला पाया, उल्टे  दमन और अंतर्शत्रुताओं का जाल बिछ गया।यहां तक कि अब गरीब को गरीब की हत्या करने में हिचक नहीं है।एक मध्यवर्गीय व्यक्ति दूसरे मध्यवर्गीय व्यक्ति को नीचा दिखाता है या उसका हक छीनता है।लोग बड़े पैमाने पर धार्मिक आधार पर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं।देखा जा सकता है कि शैक्षिक और बौद्धिक क्षेत्रों के व्यक्तियों में किसी भी जमाने में ज्यादा अंतर्शत्रुता है।नेताओं के बीच भीषण कलह है, अहं का टकराव है।क्या इतना कलह, अंतर्शत्रुता और हिंसा इसलिए है कि देश में अब सुधार या परिवर्तन के लिए बड़े जन-आंदोलन नहीं हैं और जनहित के सामान्य मुद्दे गायब हैं?

इन दिनों दलितों और स्त्रियों पर हिंसा बढ़ी है।एक आंकड़े के अनुसार, अमेरिका में हर चार स्त्रियों में एक दैहिक हिंसा की शिकार होती है।दुनिया में 25-45 वर्ष की 27 प्रतिशत स्त्रियां किसी न किसी तरह की दैहिक या यौन हिंसा की शिकार होती हैं।भारत जैसे ‘नारी पूजक’ देश में 2021 में रेप की 31,677 घटनाएं दर्ज की गई थीं, अर्थात- प्रतिदिन 86 स्त्रियां बलात्कार की शिकार हुईं।सभी जानते हैं कि बलात्कार की इससे कई गुना अधिक घटनाएं लज्जा या भय के कारण दर्ज नहीं हो पातीं।इस देश में घरेलू हिंसा का आंकड़ा पाना कठिन है।एक अनुमान है कि इस देश में 90 प्रतिशत स्त्रियां दैहिक और भावनात्मक हिंसा की शिकार होती हैं।स्त्रियों के लिए घर भी बाहर की तरह असुरक्षित जगह है, जबकि बाहर की हिंसा से बचाने का तर्क देकर ही उन्हें घर में ज्यादा रखा जाता है।

दलितों के मामले में जो आंकड़े प्रकाश में आए हैं, उनके अनुसार दलितों पर अत्याचार की 2018 में 42,793 तथा 2019 में 45,935 घटनाएं हैं।अर्थात अंबेडकर को बड़ी संख्या में मालाएं पहनाने के बावजूद घटनाएं बढ़ी हैं।इनकी तुलना में आदिवासियों के समाज में स्त्रियों के प्रति हिंसा कम है।इनमें परस्पर सम्मान भाव ज्यादा है।

आमतौर पर भारत के आम लोग भय और असहायता में जी रहे हैं।इकोनॉमिक ग्रोथ की गति जितनी तेज है, उससे कई गुना तेज गति तरह-तरह से हिंसा की है।दरअसल लोकतांत्रिक पद्धति तोड़कर की गई एक तरह की मनमानी से दूसरी तरह की मनमानी के लिए रास्ता बनता है, हिंसा बढ़ती है।लोगों को रोजगार से बाहर रखना या किसी को अपमानित करना या तुच्छ नजरों से देखना भी हिंसा है! इस दौर में हिंसा इस स्तर पर भी है कि नलों पर एक बाल्टी पानी के लिए मारपीट होती है।

आतंकवाद और नई हिंसा

आतंकवाद और नई हिंसा में फर्क है।आतंकवाद हत्या, आत्मघात करते हुए सुनियोजित विध्वंस और धमकियों द्वारा व्यवस्थित तरीकों से हिंसा भड़काने की कार्रवाई है।उसके भौतिक नतीजों से भयंकर उसके मनोवैज्ञानिक नतीजे हैं।आतंकवादी बिना भेदभाव के साधारण नागरिकों, महिलाओं और बच्चों तक को अपना शिकार बनाते हैं और दहशत फैलाते हैं।आतंकवाद ने विश्व शांति को एक बड़ा आघात दिया है।इसके खिलाफ जागरूक मुस्लिम नेताओं और बुद्धिजीवियों की आवाज बहुत कमजोर है।उन्हें अधिक व्यापक रूप में मुखर होना चाहिए।

यह समझने की जरूरत है कि एक धर्मांधता दूसरी धर्मांधता को बढ़ाती है।इसलिए कई देशों में आतंकवाद शासक वर्ग के लिए धार्मिक खाई चौड़ी करने का राजनीतिक हथियार बन जाता है।आतंकवाद ने लोगों का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाकर बनावटी समस्याओं पर केंद्रित कर दिया है।इधर हिंसा के नए तर्क बने हैं और उसके लिए अंतरवैयक्तिक स्पेस बना है।

पश्चिमी देशों के हाल के प्रत्युत्तर से लग सकता है कि ‘सभ्यताओं के टकराव’ की धारणा ने सभ्यताओं के संवाद को विस्थापित कर दिया है। ‘इस्लामिक’ और ‘नन-इस्लामिक’ की दो विरोधी दुनियाएं बन गई हैं।यह परिघटना हिंसा को नए सिरे से वैश्विक औचित्य देते दिख सकती है।लेकिन उपर्युक्त विभाजन इसलिए सही नहीं है कि हिंसा किसी एक धर्म या कुछ देशों का मामला नहीं है।बड़ी संख्या में शांतिप्रिय मुसलमान इस्लामी आतंकवाद के शिकार हुए हैं।वे परेशान हैं, हालांकि मुखर नहीं हो पा रहे हैं।

निश्चय ही हिंसा की एक बड़ी वजह धार्मिक फोबिया है।यह बाजार और राजनीति की मिलीजुली सफलता है कि प्रचारों द्वारा तर्क विस्थापित और उन्माद स्थापित है।धर्म को सदाचरण और उच्च मूल्यों की जगह भय पैदा करने का हथियार बनाया जा रहा है।कहना न होगा कि धार्मिक विश्वासों के बीच शत्रुता बढ़ाने में हर धर्म के कठमुल्लों को मीडिया के सहयोग से भारी सफलता मिली है।यह अच्छी बात है कि इसे लेकर शांतिप्रिय लोगों के बीच गहरी चिंता है।

देखने की जरूरत है कि ठंडे दिमाग और पेशेवर ढंगसे की गई हिंसा से भिन्न चरित्र है आज की नई हिंसा का।नई हिंसा आदिम प्रवृत्तियों का पुनरोदय नहीं है।इसका आधार डार्विन की धारणा ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ में है।मजबूत बचेंगे-कमजोर मिटेंगे।इसलिए वैश्वीकरण के जमाने में अब एक ही लक्ष्य दिखाया जा रहा है, येन-केन-प्रकारेण अधिक ताकतवर बनो।राष्ट्र-राज्य सुरक्षादाता के रूप में दिखते हुए भी आज की हिंसा का एक भद्र, और कई बार कानूनी पार्टनर होता है।

उल्लेखनीय है कि वैश्वीकरण के युग में युद्ध और व्यापार के बीच अंतर्विरोध नहीं है।भले दो देशों की सरहद पर युद्ध चल रहा हो, लोग मारे जा रहे हों, लेकिन युद्धरत या तनावपूर्ण देशों के बीच व्यापार चलता रहता है।युद्धरत रूस और नाटो देश दो पक्ष हैं, पर कई नाटो देशों द्वारा रूस की गैस खरीदी जा रही है।चीन और भारत की सरहद गरम है, लेकिन भारत में चीन के माल शौक से आ रहे हैं- देश का  बहुत सारा तिरंगा वहीं से बनकर आया! इस समय मुनाफा से बढ़कर कुछ नहीं है।कहना न होगा कि यह खून-पसीने की प्यासी सभ्यता है।

एशिया के देशों में सबसे अधिक हिंसा क्यों है

हम ध्यान दें तो 21वीं सदी में सबसे ज्यादा अशांत और हिंसा में फँसे एशिया के देश हैं- ईरान, अफगानिस्तान, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, मलेशिया, चीन, हांगकांग और एक-दो देश छोड़कर जिधर नजर ले जाइए।एशिया में किसी समय परिवार, समाज और शांतिपूर्ण सामूहिक जीवन की लोक भावना गहरी रही है।बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारपोरेट कल्चर में सामूहिकता की जिस भावना को महत्व दिया है, वह एशिया की देन है।एशिया के आम लोग अपने कुटुंब के लिए इतना ही चाहते रहे हैं, ‘मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए’।वे भौतिक संसाधनों पर कब्जे से अधिक ध्यान अपने सादे जीवन पर देते रहे हैं।यहां दार्शनिक स्तर पर ‘अंश’ और ‘संपूर्ण’ का युग्म बना रहा है, जो उदारवाद का चिह्न है।

फिर एशिया के लोग पश्चिमी सभ्यता के व्यक्तिवाद, भोगवाद और अंध-राष्ट्रवादी हिंसा में क्यों फँसते गए? वे वैयक्तिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच संबंध क्यों नहीं स्थापित कर सके? अस्मिता और देश के बीच सहज रिश्ता क्यों न बन सका? क्यों भूल गए, ‘भोग करो भी तो त्याग के साथ’? (ईशावास्योपनिषद) क्रांतिकारी भावनाएं कच्ची रह गईं, क्यों विकसित नहीं हो सकीं? उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद ने एशिया को विकसित होने नहीं दिया।आजादी के बाद एशियाई देशों में राजसत्ता, धर्मसत्ता और हाल की बाजार सत्ता की हिंसाएं व्यापक होती गई हैं।

पश्चिम के लोग कई बार मिल-बैठकर अपनी समस्याओं के निदान शांतिपूर्ण ढंग से कर लेते हैं, एशिया में यह कठिन क्यों है? यह सवाल एशिया के सभी राज्याधीशों से पूछा जाना चाहिए।

यह सही है कि सबसे अधिक धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक विविधता एशिया में है।इस विविधता को शक्ति में बदला जा सकता है।लोग अंतर्शत्रुता को मिटाकर एक साझा सामाजिक विजन बना सकते हैं।इस पर सोचना चाहिए कि क्या बाधाएं हैं, कहां बाधाएं हैं और ये कैसे दूर होंगी।

हमें हिंसामुक्त भारत चाहिए

कहा जाना चाहिए कि दुनिया के किसी भी दूसरे देश के मुकाबले में भारत ने सर्वप्रथम अहिंसा का संदेश दिया था।प्राचीन काल में हमारा देश जब हिंसा के दलदल में फंसा था, गौतम बुद्ध ने अहिंसा का संदेश देते हुए कहा था ‘एक आदमी संग्राम में लाखों लोगों को जीत ले और दूसरा अपने आपको जीत ले- यह दूसरा आदमी ही सच्चा विजेता है।’ (सहस्स वग्गो, 4)।उन्होंने आत्मनिर्भरता और मैत्री का रास्ता दिखाया था।

महावीर ने कहा था, ‘सभी प्राणी जीना चाहते हैं।अतः किसी प्राणी की हिंसा न करो।’ (आचारांग)।उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात भी कही थी, ‘जो अपना दुख ठीक से जानता है, वह अपने अलावा दूसरों के दुख को भी जानता है।जो दूसरों के दुख को जानता है, वही अपने दुख को भी जान सकता है।’ (वही)।बौद्ध और जैन धर्मों का उदय दुनिया की महानतम घटनाओं में एक है।महाभारत और बौद्ध-जैन धर्मों का दर्शन अहिंसा पर आधारित है।भारत को विश्वगुरु कहने का तभी एक अर्थ है, जब अहिंसा को सर्वोपरि माना जाए।हिंसा फैलाने की जगह अहिंसा का रास्ता चुना जाए।पर यह नहीं होता।

यदि प्राचीन काल में बौद्ध और जैन धर्मों ने अहिंसा को आध्यात्मिक ऊँचाई दी तो आधुनिक काल में गांधी ने उसे राजनीतिक ऊँचाई दी।लेकिन हम देख सकते हैं कि आज बुद्ध और गांधी के देश में राजनीति हिंसा का फार्म हाउस बन गई है।इसका अर्थ है कि वैसे ही मुकाबले की ऐतिहासिक घड़ी एकबार फिर उपस्थित है।कुछ तो करना होगा हिंसा-मुक्त भारत, हिंसा-मुक्त एशिया के निर्माण के लिए!

कहना न होगा कि जिस तरह अहिंसा एक अर्जित किया जानेवाला सत्य है, उसी तरह दूसरोंसे प्रेम, ‘दूसरेके हित की चिंता भी एक अर्जित सत्य है।स्वार्थ मानव प्रकृति है।द्वेष भी मानव प्रकृति है।यह सब सीखना नहीं पड़ता।अपने परिवार, वर्ग या अपने समुदाय के बारे में सोचना आसान है, जबकि दूसरेकी चिंता करना सीखना पड़ता है।यह सभ्यता का चिह्न  है।यह श्रम से अर्जित किया जाने वाला सत्य है।

आमतौर पर जन-आंदोलनों की एक बड़ी समस्या रही है कि खासकर मध्यवर्गीय लोग जब तक अपना स्वार्थ, अपना सीमित श्रेणी-स्वार्थ या सामुदायिक स्वार्थ नहीं देखते, जन-आंदोलनों में शामिल नहीं होते।यह एक विडंबना है कि इन लोगों को  श्रेणी स्वार्थ समझाते-समझाते कई युग बीत गए, फिर भी आमतौर पर वे अपने वेतन-सुख-सुविधाओं से आगे बढ़कर संपूर्ण मनुष्यता के स्वार्थ के बारे में सोचने की क्षमता हासिल नहीं कर सके।वे सहृदय और बुद्धिपरक नहीं हो सके।यह भी एक विडंबना है, जिससे जूझना होगा।

आज जितनी बार हिंसा होती है, धार्मिक विद्वेष कुछ और नई जगहों पर फैल जाता है, जातिवाद कुछ अधिक मजबूत हो जाता है या प्रांतीय भेदभाव बढ़ जाता है।हिंसा मानवीय संवेदना और राजनीतिक दृष्टि को ही पीछे नहीं ठेलती, यह इतिहास-दृष्टि को भी विपर्यस्त कर देती है।अब अतीत की भेदभाव वाली स्मृतियां ही लोकप्रिय बनाई जा रही हैं, ‘तुमने नहीं तो तुम्हारी मां ने नहर का पानी गंदा किया है’।कहने का अर्थ है, इतिहास और हिंसा के बीच संबंध बनाया जा रहा है।शांतिप्रिय समाज को एलीट योद्धाओं के समाज में बदल दिया जा रहा है।इसलिए सबसे बड़ी जरूरत हो गई है भेदभाव और हिंसा के खिलाफ एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन की, ताकि समानता से प्रेरित शांतिपूर्ण और अंतरर्निभर सामाजिक जीवन में आस्था लौट सके।

मारीचनियति से मुठभेड़

मारीच एक मायावी राक्षस था, वह ताड़का का पुत्र था।उसका मन बदल गया था।वह अहिंसक हो गया था, पर रावण ने उसे डरा कर फिर पुराने काम में लगा दिया।सत्ता अपना भय पैदा कर सामान्य जीवन जी रहे आम लोगों का अपने हिंसक उद्देश्यों के लिए कैसे इस्तेमाल करती है, इसका एक उदाहरण रामायण में मारीच की कथा है।

रावण मारीच को मायावी स्वर्णहिरण का रूप धारणकर राम के हाथों मरने का आदेश देता है।आज आम लोगों की दशा मारीच जैसी है।उसे मरना है, चुनना सिर्फ यह है कि किसके हाथों मरे।उसे तिल-तिल मरना है- रोज एक न एक झूठ का वाहक होकर, विकृत इतिहास पढ़ते और बनाते हुए, एक-न-एक का बौद्धिक लठैत बनकर, किसी की लूट और किसी की मार का औजार बनकर क्षण-क्षण मरना है।उसे हमारे समय की अनोखी हिंसा का शिकार होकर मरते-मरते भी झूठ बोलना है, ताकि सीता हरण हो।आम लोग अपनी इस ट्रैजिक ‘मारीच नियति’ से मिलजुल कर कैसे लड़ें, यह सोचने का विषय है।